हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 43 ☆ पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित विशेष कविता  “पत्रकार“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 43 ☆ पत्रकार  

जनतांत्रिक शासन के पोषक जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से, सबके जिनसे रहते है गहरे सरोकार

जो धडकन है अखबारो की जिनसे चर्चायेे प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के निज सुखदुख से परे निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

चुभते रहते है कांटे भी जब करने को बढते सुधार कर्तव्य

 पथ पर चलते भी सहने पडते अक्सर प्रहार

पर कम ही पाते समझ कभी संघर्षपूर्ण उनकी गाथा

धोखा दे जाती मुस्काने भी उनको प्रायः कई बार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते है कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

जग के कोई भी कोने में झंझट होती या अनाचार

ये ही देते नई सोच समझ हितदृष्टि हटा सब अंधकार

जग में दैनिक व्यवहारों मे बढते दिखते भटकाव सदा

उलझाव भरी दुनियाॅ में नित ये ही देते सुलझे विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

सुबह सुबह अखबारों से ही मिलते हैं सारे समाचार

जिनका संपादन औ प्रसार करते हैं नामी पत्रकार

निष्पक्ष औंर गंभीर पत्रकारों का होता बडा मान

क्योंकि सब गतिविधियों के विश्लेषक सच्चे पत्रकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 5☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-5 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

गोरखा शासन काल में एक ओर शासन संबंधी अनेक कार्य किए गए, वहीं दूसरी ओर जनता पर अत्याचार भी खूब किए गए। गोरखा राजा बहुत कठोर स्वभाव के होते थे तथा साधारण-सी बात पर किसी को भी मरवा देते थे। इसके बावजूद चन्द राजाओं की तरह ये भी धार्मिक थे। गाय, ब्राह्मण का इनके शासन में विशेष सम्मान था। दान व यज्ञ जैसे कर्मकांडों पर विश्वास के कारण इनके समय कर्मकांडों को भी बढ़ावा मिला। जनता पर नित नए कर लगाना, सैनिकों को गुलाम बनाना, कुली प्रथा, बेगार इनके अत्याचार थे। ट्रेल ने लिखा है- ‘गोरखा राज्य के समय बड़ी विचित्र राज-आज्ञाएँ प्रचलित की जाती थीं, जिनको तोड़ने पर धन दंड देना पड़ता था। गढ़वाल में एक हुक्म जारी हुआ था कि कोई औरत छत पर न चढ़े। गोरखों के सैनिकों जैसे स्वभाव के कारण कहा जा सकता है कि इस काल में कुमाऊँ पर सैनिक शासन रहा। ये अपनी नृशंसता व अत्याचारी स्वभाव के लिए जाने जाते थे।

अवध के क्षेत्रों में गोरखाओं के हस्तक्षेप के बाद, अवध के नवाब ने अंग्रेजों से  मदद मांगी, इस प्रकार 1814 के एंग्लो-नेपाली युद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ। कर्नल निकोलस के अधीन ब्रिटिश सेना, लगभग पैंतालीस सौ पुरुषों और छह पॉन्डर गन से मिलकर, काशीपुर के माध्यम से कुमाऊं में प्रवेश किया और 26 अप्रैल 1815 को अल्मोड़ा पर विजय प्राप्त की। उसी दिन गोरखा प्रमुखों में से एक, चंद्र बहादुर शाह ने युद्धविराम का झंडा भेज शत्रुता को समाप्त करने का अनुरोध किया। अगले दिन एक वार्ता हुई, जिसके तहत गोरखा सभी गढ़वाले स्थानों को छोड़ने के लिए सहमत हो गए। 1816 में नेपाल द्वारा सुगौली की संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ युद्ध समाप्त हो गया, जिसके तहत कुमाऊं आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश क्षेत्र बन गया।

इस क्षेत्र को अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया था। कुमाऊं क्षेत्र को गैर-विनियमन प्रणाली पर एक मुख्य आयुक्त के रूप में गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी हिस्से के साथ जोड़ा गया, जिसे कुमाऊं प्रांत भी कहा जाता है। यह सत्तर वर्षों तक तीन प्रशासकों, मिस्टर ट्रेल, मिस्टर जे.एच. बैटन और सर हेनरी रामसे द्वारा शासित था।

कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ। कुमाऊंनी लोग विशेष रूप से चंपावत जिला 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान कालू सिंह महारा जैसे सदस्यों के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में उठे। 1891 में यह विभाजन कुमाऊं, गढ़वाल और तराई के तीन जिलों से बना था; लेकिन कुमाऊं और तराई के दो जिलों को बाद में पुनर्वितरित किया गया और उनके मुख्यालय नैनीताल और अल्मोड़ा के नाम पर रखा गया।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #55 – गुरु कौन ? ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #55 – गुरु कौन ? ☆ श्री आशीष कुमार

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे। उन के पास शिक्षा लेने हेतु दूर दूर से शिष्य आते थे।

एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है? महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा। मेरा पहला गुरु था एक चोर।

एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं कोई भी आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ आज कि रात ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है। वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक रात कि जगह एक महीने तक रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, और हमेशा मस्त रहता था। कुछ दिन बाद मैं उसको धन्यवाद करके वापस अपने घर आ गया। जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी नहीं हो रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा और इस तरह मैं हमेशा अपना ध्यान लगता और साधना में लीन रहता|मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।

एक बार बहुत गर्मी वाले दिन मै कही जा रहा था और मैं बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि सामने से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी बहुत प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी ही परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का हिम्मत से साहस से मुकाबला करता है। मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।

मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी मंदिर में मोमबत्ती रखने जा रहा था।

मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।

मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए। शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना।कभी किसी कि बात का बूरा नहि मानना चाहिए, किसी भी इंसान कि कही हुइ बात को ठंडे दिमाग से एकांत में बैठकर सोचना चाहिए के उसने क्या-क्या कहा और क्यों कहा तब उसकी कही बातों से अपनी कि हुई गलतियों को समझे और अपनी कमियों को दूर करें।

जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 96 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 96 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ग़लत सोच के लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी, वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। इस स्थिति में हम हैरान- परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है और छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं… उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है, पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील लेती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि आप किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यही सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और  समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने अंतर्मन के दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है। संसार में जो अच्छा है, उस सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 48 ☆ धर्म का श्रेष्ठ गुण मानवता है। ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  “धर्म का श्रेष्ठ गुण मानवता है।”.)

☆ किसलय की कलम से # 48 ☆

☆ धर्म का श्रेष्ठ गुण मानवता है। ☆

एक समय था जब अपने वर्चस्व हेतु युद्ध हुआ करते थे। छोटे-छोटे राज्यों के शासक अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते दूसरे राज्यों पर आक्रमण कर अपनी शान एवं अपने बल-वैभव की श्रेष्ठता दिखाया करते थे। उन्हें अपने अधीन कर चक्रवर्ती सम्राट बना करते थे। अश्वमेध यज्ञ जैसे अनुष्ठान भी कहीं-कहीं कहीं न कहीं इसी वर्चस्व के ही प्रतीक हैं। कुछ राजा तानाशाह एवं हिंसा के समर्थक होते थे। वे लूटपाट, नरसंहार, साम्राज्य विस्तार आदि लिए अपनी फौजें लेकर दूर तक निकल जाते थे। अरब के इलाकों में कबीलों के मुखिया भी अलग अलग तरह से अपने वर्चस्व और अपने दबदबे के लिए किसी भी हद तक गिर जाया करते थे। भारत में आने वाले मुगलों एवं अंग्रेजों ने भी तो यही किया था। यदि हम दो-ढाई हजार वर्ष पीछे जाएँ तो महत्त्वाकांक्षा एवं वर्चस्व के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। यदा-कदा ही मानवता के दस्तावेज मिलेंगे। यही डेढ़ से दो हजार वर्ष का वह कालखंड है जब धर्म-सम्प्रदायों ने अपना प्रचार-प्रसार व विस्तार किया। बीसवीं सदी के आते-आते प्रायः सभी धर्मों में परिवर्तन होते गए। कुछ धर्म अहिंसा, करुणा, भक्ति एवं मनुजता के पथ पर अग्रसर होते गए। कुछ धर्म कट्टरपंथी होते गए। ये कट्टरपंथी धर्म ऐसी राह पर चल पड़े जिसमें अन्य धर्मावलंबियों के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया। कूटनीतियों एवं बर्बरता से अपने धर्म में धर्मांतरण कराना इनके धर्मगुरुओं ने सबसे नेक कार्य बताया। धर्मांतरण न करने वालों पर क्रूरता व हत्या जैसी वारदातें भी इन कट्टरपंथियों द्वारा की जाने लगीं।

मेरी दृष्टि में शिक्षा, संस्कार, मानवाधिकार व वर्तमान के बदलते परिवेश में  सभी धर्म द्वितीय वरीयता पर आ गए हैं। अब कोई भी धंधे जातिगत नहीं रह गये हैं। छुआछूत जैसी कुरीतियाँ किसी कोने में अंतिम साँसें गिन रही हैं। पढ़े-लिखे नवयुवक, नवयुवतियाँ अंतरजातीय विवाह करना बुरा नहीं मानते। हमारा, आपका या सबके रक्त का रंग लाल ही है। हम सभी लोग देश, परिस्थितियों एवं परंपरानुसार भोज्य पदार्थों का उपभोग करते हैं। हमें परस्पर किसी के खानपान से कोई वैमनस्यता नहीं है। रोजी-रोटी, उद्योग-धंधों आर्थिक उपलब्धियों तथा जीवन-यापन के संसाधनों से हमें कोई दुराव नहीं तब धार्मिक कट्टरपंथ से अमानवीय कृत्य करना कहाँ तक उचित है? जब आप अपने ढंग से जीवनयापन और धनोपार्जन करने हेतु स्वतंत्र हैं तब समाज, संप्रदाय अथवा धार्मिक जंग कहाँ तक वाजिब है? इस तकनीकि-समृद्ध विकसित व भूमंडलीकरण की दिशा में बढ़ रहे  समाज में असामयिक, संकीर्ण तथा कट्टरपंथी धर्मों के लिए कोई स्थान नहीं है।

यदि आज विश्व के प्रायः सभी धर्मों में कोई एक समानता है और कोई एक सोच ने जन्म लिया है तो वह है मानवता। यही मानवता हमें और हमारे विश्व को सद्भावना के शिखर पर बैठा सकती है। मानवता के पथ से विमुख प्राचीन धार्मिक उपदेशों, पाप और पुण्य की व्याख्याओं अथवा अनुपयोगी दिशा-निर्देशों का पालन करना कदापि उचित नहीं हो सकता? समय के साथ-साथ परिस्थितियाँ भी बदलती हैं, मायने बदलते हैं और आवश्यकताएँ भी बदलती जाती हैं।              

धर्म का श्रेष्ठ गुण मानवता है।इसीलिए वर्तमान समाज में मानवीय मूल्यों का सम्मान किया जाना चाहिए। दया, सद्भावना एवं परोपकारिता जैसे सद्गुणों को बढ़ावा देना चाहिए। हम मानव के रूप में इस पृथ्वी पर जन्मे हैं। सदाचार, सन्मार्ग व मानवता पर आधारित जीवन जीने की जो प्रेरणा दे, उसे अपनाकर हमें अपने जन्म को कृतार्थ करना चाहिए।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 95 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 95 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

शेर देखते हम सभी,

हो जाते थे ढेर।

कानन में शोभा नहीं,

दिखे न कोई शेर।।

 

रघुनंदन की हम सभी,

करते रहे पुकार।

अंतरतम में जा बसे,

करते हैं उद्धार।।

 

सूख गए पनघट सभी,

नहीं घड़ों का शोर।

पनिहारिन आती नहीं,

हो जाती है भोर।।

 

नैनों की शोभा बहुत,

काजल सोहे नैन।

एक बार जो देख ले,

मिले नहीं फिर चैन।।

 

रक्षा बंधन प्यार का,

प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की,

मना रहा संसार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 85 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 85 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कुवलय, कुमुदबन्धु, वाचक, विरहित, वापिका)

कुवलय के नव कुंज प्रभु, कमलापति श्रीधाम

सादर वन्दन आपको, हरिये दोष तमाम

 

कुमुद-बंधु छवि मोहनी, शीतल उसकी छाँव

विकसे बिपुल सरोज जब, लगता सुंदर गाँव

 

वाचक ऐसा चाहिए, जिसके मीठे बोल

वाणी से झगड़े बढ़ें, वाणी है अनमोल

 

विरहित रहे जो प्रेम से, देखे बस निज काम

प्रेम बढ़ाता दायरा, यह ही राधे-श्याम

 

ताल तलैया वापिका, गाँवो की पहिचान

पानी के साधन सुलभ, राजाओं की शान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 86 – विजय साहित्य – तो सागरी किनारा . . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 86 – विजय साहित्य  ✒ तो सागरी किनारा✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

तो सागरी किनारा . . .

लग्नाआधी, लग्नानंतर, दोघांनाही

तितकाच जवळचा वाटायचा

जितका सागराला किनारा

अन किनाऱ्याला  सागर,

परस्परांना  आपलं समजायचा. . . !

सागरात काय दडलय,

याची प्रचंड उत्सुकता किनाऱ्याला.

सागराला देखील  अनावर  ओढ

आपल साम्राज्य ,किनाऱ्याला बहाल करण्याची.

कधी धीर गंभीर. . . कधी रौद्र, वादळी,

तर कधी कधी खळाळत , उत्स्फूर्तपणे

सागर धाव घ्यायचा  किनाऱ्याकडे.

उसळत्या लाटांचा, मर्दानी जोषात, सागराच येणं

त्याची गाज, बहाल केलेला,

शंखशिंपल्यांचा नजराणा पाहून, किनारा सुखावतो.

असा सालंकृत किनारा, सागराच्या भरतीन

सदा रहायचा आलंकृत,अन् प्रेमांकित देखील.

भरती ओहोटीच्या  आपलेपणातून

किनाऱ्याच सुखवस्तूपण  बहरायच.

त्याच्या तिच्या नात्याच प्रतिबिंबच लहरायचं

त्या सागर लाटांमधून. . . !

पतीपत्नीच्या नात्याला  कधी कधी

वैचारिक मतभेदान,  भरती ओहोटीला

सामोरे जाव लागायच , तेव्हाही . . .

तो सागर किनाराच द्यायचा आसरा

दोन भरकटलेल्या नावांना. . .

सांगायचा  अनुभवी बोल

”भरती ओहोटी मधला काळ

तोच खरा कसोटीचा

या काळात, एकाने व्हायचं पसा

तर  दुसऱ्यानं व्हायचं दाता ”.. .!

उसळत्या सागराचा,  अन सौदर्यशील किनाऱ्याचा

तो विहंगम भावसंवाद,

परस्परांना ओढ लावायचा

ना ते ना ते म्हणतानाही

भवसागरात जगायला शिकवायचा

नातं जोडून ठेवायचा

तो सागरी किनारा. . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 69 ☆ मर्डर ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  पति पत्नी के संबंधों पर आधारित  एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा मर्डरडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 69 ☆

☆ मर्डर ☆

मीता  ने  तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – रवि! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते  हैं? कई दिनों से देख रही हूँ  तुम रोज मैसेज  पढकर हटा देते हो ।

मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।

पक्का और कुछ नहीं ना?

नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।

पर उसके  मैसेज  क्यों ह्टा देते हो?

यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी । तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।

मेरे ऑफिस में भी हैं एक मि. वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी  उनकी मदद कर दिया करूंगी।

मर्डर हो जाएगा किसी का — ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 96 ☆ श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) से  हाल ही में सेवानिवृत्त में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” जी की पुस्तक “श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 96 – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ”  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति … श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद 

अनुवादक …. प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” 

प्रकाशक …. रवीना प्रकाशन दिल्ली

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता … A 1 , मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल 462023

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक ग्रंथ है . इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है . आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं , पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी , अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावथ मिल सके इस उद्देश्य से प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक , फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः ही शब्दार्थ को हार्ड बाउण्ड , बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है . अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है , उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है . 

भगवान कृष्ण ने  द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को ,  जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी .श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही  महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूद में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘ यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियो साहित्यकारो और मनीषियो ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रो (श्लोको) का पद्यानुवाद किया है, और जीवनोपयोगी ग्रंथो को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है। 

इसी क्रम मे साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी ‘‘विदग्ध‘‘ ने जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल अध्येता भी हैं स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है . महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य , पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है,  तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रासंपन्न करता है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं . अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है .  कुछ अनूदित अंश बानगी के रूप में  इस तरह  हैं ..

अध्याय ५ से ..

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

 

अध्याय ९ से ..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि

औषध भी मैं,हवन मैं ,प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने  श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है .गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। अन्य गीता के अनुवाद या व्याख्येायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें  लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares