हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 73 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  द्वादश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 73 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए बारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से भक्तियोग के बारे में जिज्ञासा प्रकट की——–

 

अर्जुन पूछे कृष्ण से, पूजा क्या है श्रेष्ठ।

निराकार- साकार में, कौन भक्ति है ज्येष्ठ।। 1

 

श्रीभगवान ने अर्जुन को भक्तियोग के बारे में विस्तार से समझाया——-

 

परमसिद्ध हैं वे मनुज, पूजें मम साकार।

श्रद्धा से एकाग्र चित, यही मुझे स्वीकार।। 2

 

वश में इन्द्रिय जो करें, भक्ति हो एकनिष्ठ।

निराकार अर्चन करें, वे भी भक्त विशिष्ट।। 3

 

अमित परे अनुभूति के, जो अपरिवर्तनीय।

कर्मयोग कर, हित करें, भक्ति वही महनीय।। 4

 

निराकार परब्रह्म की, भक्ति कठिन है काम।

दुष्कर कष्टों से भरी, नहीं शीघ्र परिणाम।। 5

 

कर्म सभी अर्पित करें,अडिग, अविचलित भाव।

मेरी पूजा जो करें, नहीं डूबती नाव।। 6

 

 मुझमें चित्त लगायं जो, करें निरन्तर ध्यान।

भव सागर से छूटते, हो जाता कल्यान।। 7

 

चित्त लगा स्थिर करो, भजो मुझे अविराम

विमल बुद्धि अर्पित करो, बन जाते सब काम।। 8

 

अविचल चित्त- स्वभाव से, नहीं होय यदि ध्यान।

भक्तियोग अवलंब से, करो स्वयं कल्यान।। 9

 

विधि-विधान से भक्ति का, यदि न कर सको योग।

कर्मयोग कल्यान का,सर्वोत्तम उद्योग।। 10

 

नहीं कर सको कर्म यदि, करो सुफल का त्याग।

रहकर आत्मानंद में, करो समर्पित राग।। 11

 

यदि यह भी नहिं कर सको, कर अनुशीलन ज्ञान।

श्रेष्ठ ध्यान है ज्ञान से, करो तात अनुपान।। 12

 

कर्मफलों का त्याग ही, सदा ध्यान से श्रेष्ठ।

ऐसे त्यागी मनुज ही, बन जाते नरश्रेष्ठ।। 12

 

द्वेष-ईर्ष्या से रहित, हैं जीवों के मित्र।

अहंकार विरहित हृदय, वे ही सदय पवित्र।। 13

 

सुख-दुख में समभाव रख,हों सहिष्णु संतुष्ट।

आत्म-संयमी भक्ति से, जीवन बनता पुष्ट।। 14

 

दूजों को ना कष्ट दे, कभी न धीरज छोड़।

सुख-दुख में समभाव रख,मुझसे नाता जोड़।। 15

 

शुद्ध, दक्ष, चिंता रहित, सब कष्टों से दूर।

नहीं फलों की चाह है, मुझको प्रिय भरपूर। 16

 

समता हर्ष-विषाद में,है जिनकी पहचान।

ना पछताएं स्वयं से, करें न इच्छा मान। 17

 

नित्य शुभाशुभ कर्म में, करे वस्तु का त्याग।

मुझको सज्जन प्रिय वही, रखे न मन में राग।। 17

 

शत्रु-मित्र सबके लिए, जो हैं सदय समान।

सुख-दुख में भी सम रहें, वे प्रियवर मम प्रान। 18

 

यश-अपयश में सम रहें, सहें मान-अपमान।

सदा मौन, संतुष्ट जो, भक्त मोहिं प्रिय जान।। 19

 

भक्ति निष्ठ पूजे मुझे, श्रद्धा से जो व्यक्ति।

वही भक्त हैं प्रिय मुझे , मिले सिद्धि बल शक्ति।। 20

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” भक्तियोग ” बारहवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 – यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 ☆

☆ यात्रा वृत्तांत पहुंच गया दिल्ली ☆ 

मैं ने जिंदगी में कभी हवाई यात्रा नहीं की थी. पहली बार हवाई जहाज में जा रहा था. डर लगना स्वाभाविक था. राहुल को फोन लगाया, ”राहुल ! मुझे बताता रहना. पहली बार दिल्ली जा रहा हूं. हवाई जहाज में भी पहली बार बैठ रहा हूं. इसलिए समयसमय पर जानकारी देते रहना.”

” डरने की कोई बात नहीं है  पापाजी , ” राहुल ने मेरा हौंसला बढ़ाया, ” सुबह के 6 बज रहे हैं. इस वक्त आप कहां है ?” उस ने मुझ से पूछा.

” देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डे के मुख्य प्रवेशद्वार पर, जहां सुरक्षाकर्मी जांच के बाद अंदर जाने देते हैं, वहां खड़ा हूं.”

” यहीं से आप अंदर जाएंगे. यहां पर आप का टिकट व पहचान पत्र देख कर अंदर जाने दिया जाएगा,” राहुल ने जैसा बताया था, वैसा ही हुआ.

इस सुरक्षाचक्र से मैं अंदर पहुंच गया. वहां सामने एक सामान चैंकिंग खिड़की थी. जिस में एक रोलर लगा हुआ था. उस में सामान रखने पर वह सीधा रोलर पर घुमता हुआ आगे चला गया. वह सीधा एक खिड़की से हो कर दूसरी ओर निकल गया.

मैं ने सामान उठाया. कुछ आगे जाने पर एक टिकट का काउंटर दिखाई दिया. जहां लंबी लाइन लगी हुई थी. वहां से मैं ने टिकट प्राप्त किया. इस के बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब कहां जाना है ?”

उस ने कहा, ”  दाएं  मुड़ जाइए. सामने सीढ़िया लगी होगी. उस पर चढ़ कर ऊपर चले जाइए.”

मैं ने ऐसा ही किया. वहां पर पहले से ही लाइन लगी हुई थी. यहां पर सभी यात्री अपने सामान को निकाल कर एक ट्रे में रख रहे थे. मैं ने भी मोबाइल और रूपए पैसे सब निकाल कर उस में रख दिए. दोबारा बैग को खिड़की में डाला. मैं एक दरवाजे से अपने शरीर की जांच कराते हुए आगे निकल गया.

दूसरी ओर मेरा सामान आ चुका था. मैं ने मोबाइल और पर्स लिया. शर्ट में रखा. सीधे आगे जाने पर कई कुर्सियां लगी हुई थी. जहां कई लोग वहां बैठे हुए प्रतिक्षा कर रहे थे. मैं भी कुर्सी पर बैठ कर प्रतिक्षा करने लगा.

कुछ देर बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब क्या होगा ?”

” यहां से 6:30 पर विमान में जाने के लिए रास्ता खुल जाएगा ,” राहुल ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. प्रतिक्षालय के  एक ओर बना हुआ बड़े से दरवाज़ा की ओर का रास्ता खुल गया. जहां पर बहुत सी परिचारिका खड़ी थी. वे बारी बारी से सीट नंबर बोल बोल कर यात्रियों को अंदर बुला रही थी.

मेरा सीट नंबर 16 एफ था. मुझे भी अंदर बुला लिया गया. मुझे लगा था कि मैं हवाई अड्डे के नीचे उतर कर सीढ़ियों से विमान में चढ़ूंगा. मगर, ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं एक सुरंग रूपी रास्ते से होता हुआ सीधा हवाईजहाज में पहुँच गया. मेरा बैग मेरे साथ था.

हवाईजहाज में एक परिचारिका हाथ जोड़ कर अभिावादन कर रही थी. चुंकि मैं पहली बार इस में गया था. मुझे पता नहीं था कि कौन सी सीट कहाँ है ? इसलिए पूछ लिया, ” यह 16 एफ सीट किधर है ?”

परिचारिका ने अपनी बाई ओर इशारा कर के कहा, “ वह 16 वी पंक्ति वाली खिड़की वाली सीट आप की है.”

मैं यात्रियों के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ते हुए चल रहा था. हवाईजहाज में बहुत कम जगह थी. इस में बस की तरह हम एक साथ कई व्यक्ति सीट की तरफ नहीं जा सकते हैं. मैं अहिस्ताअहिस्ता चलते हुए लोगों के साथ अपनी सीट के पास गया. वहां एक समय में एक ही व्यक्ति अंदर जा सकता था. मैं पहले अंदर जा कर खिड़की वाली सीट पर बैठ गया. उस के बाद मेरे साथ वाले दो व्यक्ति भी सीट पर बैठ गए.

इस हवाईजहाज में यात्रा करने का यह मौका मुझे मेरे पुत्र राहुल की वजह से मिला था. वह अपनी कंपनी के काम से कई बार दिल्ली गया था. उस से मैं ने कई बार कहा था कि हवाईजहाज में बैठना कैसा लगता है ?

तब उस ने हवाईजहाज में बैठने का अपना पूरा ब्यौरा सुना कर कहा था, ” पापाजी ! इस बार आप विश्व पुस्तक मेले में हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जाना.” बस उसी की बदौलत मुझे हवाई जहाज का टिकट मिला था.

मैंने गौर से विमान के छत को देखा. वहां पर कुछ लिखा हुआ था. पास में एक खिड़की थी. जो हवाई जहाज के विंग के उपर का हिस्सा दिखा रही थी. यानी मुझे पंखों के उपर वाली सीट मिली थी.

हवाई जहाज चालू हुआ. परिचारिका ने कई जानकारी दी. सीट बेल्ट कैसे बांधना है. यदि आक्सीजन की कमी हो जाए या जी घबराने लगे तो छत पर लगे आक्सीजन मास्क को कैसे मुंह पर लगा कर आक्सीजन प्राप्त करना है. परिचारिका यह बता रही थी कि हवाईजहाज रनवे पर चलने लगा.

कुछ निर्धारित दूरी तय करने के बाद वह रूका. अचानक उस की आवाज तेज हो गई. यात्रियों ने अनाउंसमेन्ट के अनुसार अपनेअपने सीट बेल्ट को बांध लिया. हवाई जहाज ने तेज आवाज की. रनवे पर दौड़ लगा दी.

वह तेज गति से दौड़ने लगा. मेरी निगाहें खिड़की के बाहर थी. विंडो सीट से पंख स्पष्ट नजर आ रहे थे. कुछ तेज गति से चलने के बाद हवाई जहाज जमीन से उंचा उठने लगा. पेट में हल्की से गुदगुदी हुई. धीरेधीरे जमीन दूर जाने लगी. मकान छोटे होते गए.

कुछ देर में हवाई जहाज बहुत उंचाई पर था. ऊपर जाने पर ऐसा लग रहा था कि हवाई जहाज स्थिर हो गया है. केवल वह किसी बादल पर टिका हुआ है. आसमान में बादल दिखाई दे रहे थे. नीचे का कोई हिस्सा दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ समय बाद धूप निकल आई. नीचे की जमीन दिखाई देने लगी. तब अहसास हुआ कि हवाईजहाज बहुत ऊचाई पर है.

एक घंटे तक उड़ने के बाद हवाईजहाज दिल्ली के इंदिरागांधी अंतराराष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऊपर उड़ रहा था. 7 जनवरी 2018 की सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था. धुंध की वजह से नीचे दिखाई देना बंद हो गया था. हवाई जहाज धीरेधीरे नीचे आया.

वह करीब आधा घंटे तक हवाई अड्डे की रनवे पर चलता रहा. तब जा कर वह रनवे पर रूका. मुझे यह पता नहीं था कि यहां किस तरह उतरने पड़ेगा. जैसे ही मैं अपना बैग ले कर दरवाजे के बाहर निकला वैसे ही मुझे सीढ़िया नजर आई. मैं उस से उतरते हुए हवाई अड्डे की धरती पर उतर चुका था.

हवाई अड्डे को नजदीक से देखना मेरा पहला रोमांचकारी अनुभव था. मैं इसे कैसे जाने देता. मैं ने अपना मोबाइल निकाला. उस से कुछ सेल्फी लीं. यह काम मैं ने हवाई जहाज के अंदर भी किया था. ताकि मैं सगर्व यह बता सकूं कि मैं ने पहली बार हवाई जहाज की रोमांचकारी यात्रा कीं.

यहां से बस में बैठ कर मैं हवाई अड्डे के निकासी द्वार पर पहुंच गया. फिर हवाई अड्डे से बाहर निकल गया. यहां के उत्तरी निकासी द्वार पर बस खड़ी थी. उस के द्वारा मैं ने ऐरोसिटी मैट्रो स्टेशन का टिकट लिया. मैट्रो स्टेशन पर जाने के बाद वहां से ओरेज लाइन की मैट्रो में सफर किया.

दिल्ली की मैट्रो अपनेआप में एक मिसाल है. इस की साफसफाई और व्यवस्था उच्च स्तर की है. यहां से धोला कुआ होते हुए मैं नई दिल्ली स्टेशन पर उतर गया. जहां से मुझे पीली लाइन मैट्रो पकड़ कर चांदनी चौक जाना था.

मैं नईदिल्ली से मेट्रो पकड़ कर चांदनी चौक गया. वहां से मेट्रो से उतर कर सीधा बाई ओर जाते हुए शीशमहल गुरूद्वारा पहुंच गया.

इस तरह शीशमहल से बस पकड़ कर प्रगति मैदान गया. विश्व पुस्तक मेले में  घूम घूम कर पुस्तकें खरीदी ओर दूसरे दिन बस द्वारा वापस आ गया. इस तरह दिल्ली विश्वपुस्तक मेले की मेरी रोमांचकारी यात्रा पूरी हुई. यह यात्रा मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. क्यों कि इस यात्रा में पहली बार मैं हवाई जहाज में बैठा था.

इस तरह मेरी छोटी सी रोचक यात्रा पूरी हुई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०३/२०१८

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #96 – अब हृदय के बोल गुम…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “अब हृदय के बोल गुम….” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 96 ☆

 ☆ अब हृदय के बोल गुम…. ☆

देह अपनी और मन है

अब अकेले ही मगन है।

 

और कब तक दलदलों में

यूँ उलझते ही रहेंगे

जान कर अनजान बन

गुणगान मुँह-देखे सहेंगे,

औपचारिक वंदनो में

झूठ के कितने जतन है……।

 

अछूता कोई नहीं

शामिल सभी इस सिंधु में

लगाते गोते रहे

बिन अंक के इस बिंदु में,

खुली आँखों से निहारे

वायवीय कल्पित सपन है…..।

 

कल्पनाओं का

न, कोई ओर कोई छोर है

जिंदगी उलझी हुई

बारीक सी इक डोर है,

द्वंद्व अंतर्जाल के

चहुँ ओर विस्तारित सघन है……।

 

अब कहाँ माधुर्य-मिश्री

घोलते से शब्द हैं

देख क्रिड़ायें मनुज की

गगन भी स्तब्ध है,

अब ह्रदय के बोल गुम

मस्तिष्क से निकले वचन है

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆ दुनिया के दस्तूर  ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘दुनिया के दस्तूर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆

☆ दुनिया के दस्तूर 

 

दुनिया के दस्तूर भी अजीब हैं,

जिनके लिए लड़ता रहा ताउम्र, मुझे देखते ही नजर फेर लेते हैं ||

 

अब तो मुस्कराने पर भी घबराने लगा हूँ,

मेरी मुस्कराहट को लोग अब नजरअंदाज कर देते हैं ||

 

अब कुछ भी बोलने से घबराता हूँ,

मैं सच बोलता हूँ तो लोग मुझे ही झूठा कहने लगते हैं ||

 

अब जब मैं चुप रहता हूँ ,

तो मेरे चुप रहने को लोग बुझदिली कहते हैं ||

 

मैं अब हंसने से भी घबराता हूँ,

मेरे हंसी को लोग बनावटी हंसी कहने लगते हैं ||

 

अपना दुख साँझा करने से भी ड़रता हूँ,

लोग मेरे दुखों का मजाक उड़ा दिल दुखाने लगते हैं ||

 

अब तो ख़ुशी जाहिर करने से भी घबराता हूँ,

ड़रता हूँ लोग मेरी खुशियों का भी मजाक उड़ाने लगेंगे ||

 

देखना एक दिन यूँ ही चला जाऊंगा,

लोग मेरे जाने को भी मजाक समझ मेरी हंसी उड़ाने लगेंगे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 99 ☆ गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 99 ?

☆ गझल ☆

होता इथून मागे तो वाद संपवावा

 ठेऊ  नको सख्या  तू दोघात हा दुरावा 

 

हातात हात देता झाले तुझीच भार्या

देवा नि ब्राह्मणांचा का लागतो पुरावा ?

 

मेंदीत जीव रंगे, हळदीत देह सारा

सोडून दूर  आले माझ्या सुरेख  गावा

 

आयुष्य नोंदले मी नावे तुझ्याच तेव्हा

लक्षात घेतला ना कुठलाच बारकावा

 

संसार  ,मोह ,माया असतोच एक धोका

त्याच्या पल्याड जाण्या सन्मार्ग आचरावा

 

सौख्यास भोगले की वैराग्ययोग आला

 साराच सोहळा हा आजन्म गौरवावा 

 

सांजावता दिशा या बघ वेध लागले ना

नांदू जरा  सुखाने, दे शेवटी विसावा

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 85 ☆ ऐ ज़िन्दगी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता ऐ जिंदगी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 84 ☆

☆ ऐ जिंदगी

ना कोई ख्वाहिश

ना कोई शिकवा ना गिला है

ऐ जिंदगी

मुझे तुझसे बहुत कुछ मिला है

 

ना कोई तमन्ना

ना कोई अभियोग, ना फ़रियाद

ऐ जिंदगी

तूने तो दिया है मेरा हर पल साथ

 

जो हुआ अच्छा हुआ

खुश हूँ इस ख्याल में

ऐसा होता तो वैसा होता तो

फंसती नहीं मैं इस जाल में

 

आयेगी जब शाम

और बुझ जायेगी ये शमां

खुशी खुशी मैं

दूसरी दुनिया में हो जाऊँगी रवां

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 111 ☆ व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा एक सार्थक, तार्किक एवं समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆

? व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन  ?

सिद्धार्थ एक दिन पाकिस्तान सीमा के निकट घूम रहे थे. राज कुमार सबका मन जीत लेने वाले सैनिक की वेषभूशा में थे. तभी राजकुमार को एक उड़ता हुआ  ड्रोन  दिखा. ड्रोन तेजी से पाकिस्तान से भारत की ओर उडान भरता घुसा चला आ रहा था. राजकुमार ने अपनी पिस्टल निकाली निशाना साधा और ड्रोन नीचे आ गिरा. दौड़ते हुये राजकुमार ड्रोन के निकट पहुंचे, आस पास से और भी लोगों ने गोली की आवाज सुनी और आसमान से  कुछ गिरते हुये देखा तो वहां भीड एकत्रित हो गई. सखा बसंतक भी वहीं था जो आजकल पत्रकारिता करता है.  किसी सनसनीखेज खुलासे की खोज में कैमरा लटकाये बसंतक प्रायः सिद्धार्थ के साथ ही बना रहता है. सिद्धार्थ ने निकट पहुंच कर देखा कि ड्रोन में विस्फोटक सामग्री का बंडल बधां हुआ है. तुरंत मिलिट्री पोलिस को इत्तला की गई. पडोसी मुल्क की साजिश बेनकाब और नाकाम हुई. टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी. सिद्धार्थ की प्रशंसा होने लगी.

भाई देवदत्त को यह सब फूटी आंख नहीं भाया. शाम के टी वी डिबेट में भाई की पूरी लाबी सक्रिय हो गई. भाई ने कुतर्क दिया इतिहास गवाह है कि राजा शुद्धोधन के जमाने में जब उसने इसी तरह एक हंस को मार गिराया था तो “मारने वाले से बचाने वाला बडा होता है” यह हवाला देकर उसका गिराया हुआ हंस सिद्धार्थ को सौंप दिया गया था. अतः आज जब इस ड्रोन को सिद्धार्थ ने गिराया है तो, आई हुई मैत्री भेंट को उसे सौंप दिया जावे तथा  सिद्धार्थ को ड्रोन मार गिराने के लिये कडी सजा दी जावे. ड्रोन भेजने वालो को बचाने के अपने नैतिक कर्तव्य की भी याद भाई ने डिबेट में दिलाई.

सिद्धार्थ के बचाव में बहस करते प्रवक्ता ने तर्क रखा बचाने वाले से मारने वाला भी संदर्भ और परिस्थितियों के अनुसार बड़ा होता है.  कोरोना जैसे जीवाणुओ को मारना, खेलों में प्रतिद्वंदी खिलाड़ी को पटखनी देना,  ब्रेन डेड मरीज को परिस्थिति वश मारने के इंजेक्शन देना, आतंकवादियो को मारना, युद्ध में विपक्षी सेना को मारना,  सजायाफ्ता मुजरिम को फांसी देकर मारना भी बचाने वाले से मारने वाले को बड़ा बनाता है. भाई की लाबी ने बीच बीच में जोर से बोल बोलकर बाधा डालने की टी वी बहस परम्परा का पूरा निर्वाह किया. विधान सभाओ, राज्य सभा व लोक सभा कि तरह पता नही सबको समझ आने वाली सीधी सरल बातें भी भाई को क्या कितनी समझ आयी, पर टी वी डिबेट का समय समाप्त हो चुका था और अर्धनग्न बाला के स्नान का रोचक विज्ञापन चल रहा था जिसे देखने में देवदत्त खो गया.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 – इंसानियत की विरासत ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ इंसानियत की विरासत ☆

कई किस्से-कहानियाँ

सुने और देखे।

साँसों के लिए लड़ते

मौत के बढ़ते आंकड़े देखे।

दिलों को तोड़ने वालों को

दिल जोड़ते देखे।  

दिलों में जहर-नफरत भरने वालों के 

असली चेहरे देखे।  

भीड़ की सियासत और

खामोश सियसतदान देखे।  

 

विरासत में बहुत कुछ दिया

इंसानियत ने

ऐ दोस्त!

अब जिसे जो भी देखना है

बस वह वही देखे।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 91 – आलेख – प्रणाम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  ज्ञानवर्धक एवं विचारणीयआलेख  “ प्रणाम  । इस सार्थक, ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 91 ☆

 ? आलेख – प्रणाम ?

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कर प्रणाम तू बंदे
छूट जाएंगे दुख के फंदे
मनुज कर प्रणाम तू भूलोक
सुधार अपना इह लोक परलोक

प्रणाम करना हमारे हिंदू संस्कृति की मूल और प्रथम पहचान है। जब हम किसी से मिलते हैं प्रणाम करते हैं। शाश्वत भगवान से आरंभ कर बड़ों को, गुरुजनों को, माता पिता को और हमें जिन्हें लगता है कि हमें इनको श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करना चाहिए, उन्हें प्रणाम करते हैं। आरंभ से यही सिखाया जाता है।

आजकल ज्यादातर घरों में या यूं कह लीजिए प्रणाम का प्रचलन ही खत्म होने लगा है और कुछ बचता तो इस सोशल मीडिया के चलते सब कुछ बदल गया है। अब बहुत कम घरों में बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद लेकर, कहीं बाहर निकलना या शुभ काम के लिए जाना होता है। जैसे सब कुछ भुला बैठे हैं। हमारी अपनी परंपरा धूमिल होती चली जा रही है। प्रणाम करने से स्वयं का ही फायदा होता है। मन में विश्वास और एक अलग ही उर्जा स्फूर्ति बढ़ती है।

आप सभी को एक पुरानी कहानी का वर्णन कर रही हूं। एक ब्राह्मण के यहाँ बालक ने जन्म लिया। ब्राह्मण महान ज्योतिष था। उसने देखा कि उसके बच्चे की आयु केवल सात वर्ष है। वह बड़े सोच विचार में पड़ गया। पत्नी ने पूछा “क्या बात है स्वामी आप बालक के जन्म से प्रसन्न नहीं हुए?” ब्राह्मण ने कहा “प्रिये खुशी कैसे मनाए। बेटा हमारे पास केवल सात वर्ष ही रह पाएगा।” पत्नी ने कहा “आप चिंता ना करें।”

बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ और प्रणाम करने का अर्थ समझ गया तब माँ ने उसे प्रणाम का मतलब समझा रोज़ तैयार कर नदी जाने वाले रस्ते में बिठा देती थी और समझाती की ‘बेटा यहाँ से जितने भी ऋषि मुनि और देव आत्मा निकले सभी को झुककर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करना।’ बालक माँ का आज्ञाकारी था। सुबह से बैठ जाता। वहाँ से जितने भी ऋषि मुनि निकलते सभी को प्रणाम करते जाता था।

एक दिन वहाँ से वेद व्यास जी अपने शिष्यों सहित निकले। उन्हें बालक ने तत्काल प्रणाम किया। वेदव्यास जी ने “चिरंजीव भव:” का आशीर्वाद दिया। पास बैठी माँ ने तत्काल खड़े होकर महर्षि से प्रश्न किया “या तो आपका आशीर्वाद झूठा है या फिर मेरे बेटे का जन्म से मरण सात साल का लिखा हुआ आयु?”

अब तो वेदव्यास जी असमंजस में पड़ गए। अपने वचन की रक्षा के लिए तपोबल से उस ब्राह्मण के बालक की आयु को शतायु करना पड़ा। प्रणाम करने का इतना बड़ा उपहार पाकर ब्राह्मण की पत्नी खुशी खुशी घर को लौट चली। और प्रणाम के बदले शतायु और परलोक जाने के बाद श्री हरि के चरणों में स्थान पाने के हकदार बने। मतलब प्रणाम करने से सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं।

आज भी यदि फिर से सभी घरों में बड़ों को सम्मान पूर्वक प्रणाम की परंपरा आरंभ की जाए तो आधी लड़ाई तो यूं ही खत्म हो जाएगी।

महाभारत के युद्ध के समय दुर्योधन के कटु शब्दों के कारण भीष्म पितामह दूसरे दिन “प्रातः पांडव का वध निश्चित करूंगा” कह कर प्रण किये। रात में ही श्री कृष्ण जी द्रोपदी को लेकर भीष्मपितामह के शिविर पर पहुँच गए और बाहर स्वयं खड़े होकर द्रौपदी को अंदर जाने का आदेश दिए। द्रोपदी ने जैसे ही जाकर भीष्म पितामह को प्रणाम किया उन्होंने ‘सौभाग्यवती भव:’ का आशीर्वाद दिया और कहा-” इतनी रात तुम्हें यहाँ शायद माधव ही लेकर आए हैं। क्योंकि यह काम केवल वही कर सकते हैं।”
और बाहर निकलकर श्री कृष्ण और पितामह दोनों एक दूसरे को प्रणाम करते हैं। बदले में दूसरे दिन युद्ध में पाँचों पांडवों जीवित रहते हैं। श्री कृष्ण समझाते हैं “द्रौपदी यदि तुम और बाकी रानियों ने राजमहल में सभी बड़ों को नित प्रणाम और श्रद्धा पूर्वक प्रेम से, विनय से आदर किया होता तो आज महाभारत नहीं होता।”

प्रणाम का एक अर्थ ‘विनय या विनत’ भी है जिसका मूल अर्थ है आदर करना या सम्मान करना। प्रणाम बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की भांति काम करता है। प्रणाम प्रेम है, प्रणाम अनुशासन हैं, प्रणाम शीतलता है, प्रणाम आदर्श सिखाता है, प्रणाम से सुविचार आते हैं, प्रणाम झुकना सिखाता है, प्रणाम क्रोध मिटाता आता है, प्रणाम हमारी संस्कृति है।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 99 ☆ मोकाट गुरं ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 99 ☆

☆ मोकाट गुरं ☆

मला संपवायचंय, ‘मला’

आणि तिथं पेरायचय तुला

तू उगवतेस झाड होऊन

मी असतो गवतासारखा पसरून

उन्हाळ्यात जातो वाळून

तरीही फिनिक्स पक्षासारखा पुन्हा येतो वर

झाडांच्या अन्नाचे शोषण करणारा

मी एक स्वार्थी जीव

कधीकधी माझीच मला येते कीव…

झाडं फळं विकत नाहीत

सावली दिली म्हणून सेवा शुल्क मागत नाहीत

आॕक्सिजनचं मोलही सांगत नाहीत

सारंच फुकट देतात

माणसाला फुकटचं खायला आवडतं

हे त्याला माहीत असावं

फक्त एक बी पेरा

फक्त एक झाड लावा

अन् मिळवा सारं फुकट, फुकट, फुकट

तसा तर माझा कुणालाच उपयोग नाही

असं वाटत असतानाच

काही मोकाट गुरं

माझा फडशा पाडून गेली

आणि मग लक्षात आलं

कुठलाही जीव निरुपयोगी नाही

आपल्यालाही जगाव लागेल

या मोकाट गुरांच्या पोटासाठी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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