(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – याद…।)
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4। यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार। हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष। दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ परिचर्चा ☆ “लघुकथा वामन के पांव जैसी !” – श्री कमलेश भारतीय ☆ साक्षात्कारकर्ता – श्री नेतराम भारती ☆
(श्री नेतराम भारती जी की “लघुकथा – चिंतन और चुनौतियाँ” साक्षात्कार शृंखला की 26वीं कड़ी में प्रस्तुत है आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य के शुरुआती दौर से अविश्रांत पथिक सदृश, लघुकथा साहित्य को समृद्ध करते चले आ रहे वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कमलेश भारतीय जी से परिचर्चा)
नेतराम भारती :- सर! लघुकथा आपकी नजर में क्या है लघु कथा को लेकर बहुत सारी बातें जितने स्कूल उतने पाठ्यक्रम वाली स्थिति है यदि नव लघु कथाकार के लिए सरल शब्दों में आपसे कहा जाए तो आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे ?
कमलेश भारतीय :- मेरी लघुकथा के बारे में इतनी सी राय है कि यह बिजली की कौंध की तरह एकाएक चमकती है और जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए। यहां तक पाठ्यक्रम जैसी बात है तो मेरा या आठवें दशक तक के किसी भी लघु कथाकार का कोई पाठ्यक्रम नहीं था। हमें एकलव्य की तरह खुद ही अपनेआप से जूझना पड़ा और अब अगर मैं दिये गये या बनाये गये पाठ्यक्रम से लिखना चाहूं तो बुरी तरह खराब लघुकथा लिखूं। नहीं, मैं वही एकलव्य ठीक हूँ। अपना रास्ता खुद खोजता रहूं।
श्री नेतराम भारती
नेतराम भारती :- लघुकथा विधा में आपकी विशेष रुचि कब और कैसे उत्पन्न हुई?
कमलेश भारतीय :- लघुकथा में रूचि आठवें दशक की शुरुआत में सन् 1970 में ही हो गयी थी जब ‘प्रयास’ अनियतकालीन पत्रिका का प्रकाशन-संपादन शुरू किया। इसी के अंकों में मेरी पहली पहली लघुकथायें-किसान, सरकार का दिन और सौदा आदि आईं। प्रयास का दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक था, जो संभवत : सबसे पहला लघुकथा विशेषांक या बहुत पहले विशेषांकों में एक है, जिसकी चर्चा सारिका की नयी पत्रिकाओं में भी हुई और यह विशेषांक चर्चा में आ गया। बाद में मैंने दस वर्ष सुपर ब्लेज़ (लखनऊ) मासिक पत्रिका का संपादन किया और फिर दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक रहते समय सात वर्ष कथा कहानी पन्ने का संपादन किया। इसी प्रकार कथा समय का संपादन तीन वर्ष तक किया। और मेरी रूचि निरंतर लघुकथा में बढ़ती ही गयी।
नेतराम भारती :- लघुकथा, कहानी और उपन्यास के बीच क्या अंतर है, आपके दृष्टिकोण से ?
कमलेश भारतीय :- वैसे ये अंतर वाली बातें बहुत पीछे छूट चुकी हैं। उपन्यास बृहद जीवन कथा तो कहानी एक घटना, भाव का कथन और लघुकथा वामन के पांव जैसी ! ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगें, घाव करे गंभीर।
नेतराम भारती :- एक लघुकथा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व आप किसे मानते हैं ?
कमलेश भारतीय :- सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात कि आप कहना क्या चाहते हैं, उसका ट्रीटमेंट कैसा किया ? कहने-सुनने में अच्छा पर ट्रीटमेंट में फेल तो क्या करेगी लघुकथा ? संदेश क्या है ? छोटे पैकेट में बड़ा धमाका चाहिए लघुकथा में।
नेतराम भारती :- आजकल देखने में आ रहा है कि लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है। अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। कह सकते हैं कि जिस प्रकार एक नाटक में उसका रंगमंच निहित होता है उसी प्रकार एक लघुकथा में भी उसके कथ्य, उसके शिल्प में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है। मैं छोटी बनाम लंबी लघुकथाओं की बात कर रहा हूंँ। आप इसे किस रूप में देखते हैं ?
कमलेश भारतीय :- लघुकथा का आकार जितना लघु हो सके, होना चाहिए, , यही तो इसकी लोकप्रियता का आधार है। संवाद शैली में रंगमंच का आभास होता है और ऐसी लघुकथाओं का पाठ बहुत मज़ेदार और लोकप्रिय रहता है। छोटी बनाम लम्बी कोई लघुकथा का विभाजन सही नहीं। लघुकथा बस, लघुकथा है और होनी चाहिए।
नेतराम भारती :- क्या लघुकथा साहित्य में वह बात है कि वह एक जन आंदोलन बन जाए अथवा क्या वह समाज को बदल सकने में सक्षम है?
कमलेश भारतीय :- कोई विधा जनांदोलन नहीं बन सकती। निर्मल वर्मा का कहना सही है कि साहित्य क्रांति नहीं कर सकता बल्कि विचार बदल सकता है। वही काम साहित्य की हर विधा करती है। यह भ्रम है। साहित्य मानसिकता बदलता है, राजपाट नहीं बदलता।
नेतराम भारती :- सर ! गुटबाजी और खेमेबाजी की बातें कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर आजकल कर रहा है। मैं आपसे सीधे-सीधे पूछना चाहता हूं क्या वास्तव में आज लघुकथा में खेमे तन गए हैं ?
कमलेश भारतीय :- लघुकथा भी राजनीति की तरह गुटबाजी की बुरी तरह शिकार है, यह कहने में संकोच नहीं लेकिन मेरा कोई गुट नहीं, न मैं किसी के गुट हूँ। मैं लघुकथा के साथ हूँ, यही मेरा गुट है।
नेतराम भारती :- वर्तमान लघुकथा में आप क्या बदलाव महसूस करते हैं ?
कमलेश भारतीय :- बदलाव तो संसार का, प्रकृति का नियम है और लघुकथा इससे अछूती नहीं। लघुकथा में नित नये विषय आ रहे हैं। अब तो थर्ड जेंडर पर भी लघुकथा संग्रह आ रहे हैं तो पुलिस पर भी। अब जो जैसे बदलाव कर सकते हैं, वे कर रहे हैं। ताज़गी बनी रहती है, नयापन बना रहता है।
नेतराम भारती :- आपको अपनी लघुकथाओं के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलती है ?
कमलेश भारतीय :- शायद सबको साहित्य रचने की प्रेरणा आसपास से ही मिलती है। मैं भी निरंतर आसपास से लघुकथाओं की भावभूमि पाता हूँ। कोई बात चुभ जाये या फिर किसी का व्यवहार अव्यावहारिक लगे तो लघुकथा लिखी ही जाती है। प्रेरणा समाज है।
नेतराम भारती :- सर ! एक प्रश्न और सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघु कथाकारों के लिए कितना जरूरी है जरूरी है भी या नहीं क्योंकि कुछ विद्वान् कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनके लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली के प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है इस पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
कमलेश भारतीय :- मेरी राय में पढ़ना चाहिए, मैंने पढ़ा है, पढ़ता रहता हूँ। बहुत प्रेरणा मिलती है। मंटो, जोगिंदरपाल, विष्णु प्रभाकर, कुछ विदेशी रचनाकार जैसे चेखव सबको पढ़ना अच्छा लगता है, सीखने को मिलता है, कहने का सलीका आता है। प्रभावित होकर न लिखिये, सीखिये। बस। नकल तो सब पकड़ लेंगे।
नेतराम भारती :- क्या कोई विशेष शैली है जिसे आप अपनी लघुकथाओं में पसंद करते हैं ?
कमलेश भारतीय :- संवाद शैली बहुत प्रिय है और मेरी अनेक लघुकथायें संवाद शैली में हैं।
नेतराम भारती :- आपके अनुसार, एक अच्छी लघुकथा की विशेषताएं क्या होती हैं?
कमलेश भारतीय :- अच्छी लघुकथा वह जो अपनी छाप, अपनी बात, अपना संदेश पाठक को देने में सफल रहे।
नेतराम भारती :- लघुकथा लिखने की प्रक्रिया के दौरान आप किन चुनौतियों का सामना करते हैं ?
कमलेश भारतीय :- चुनौती यह कि जो कहना चाहता हूँ, वह कहा गया या नहीं ? यह कशमकश लगातार बदलाव करवाती है और जब तक संतुष्टि नहीं होती तब तक संशोधन और चुनौती जारी रहती है।
नेतराम भारती :- आपकी स्वयं की पसंदीदा लघुकथाओं में से कुछ कौन- सी हैं और क्यों ?
कमलेश भारतीय :- यह प्रश्न बहुत सही नहीं। लेखक को सभी रचनायें अच्छी लगती हैं जैसे मां को अपने बच्चे। फिर भी मैं सात ताले और चाबी, किसान, और मैं नाम लिख देता हूं, चौराहे का दीया, पुष्प की पीड़ा, मेरे अपने, आज का रांझा, खोया हुआ कुछ, पूछताछ शाॅर्टकट, जन्मदिन, मैं नहीं जानता, ऐसे थे तुम ऐसी अनेक लघुकथायें हैं, जो बहुत बार आई हैं और प्रिय जैसी हो गयीं हैं। और भी हैं लेकिन एकदम से ये ध्यान में आ रही हैं।
नेतराम भारती :- भविष्य में आप किस प्रकार की लघुकथाएं लिखने की योजना बना रहे हैं ?
कमलेश भारतीय :- वही संवाद शैली और समाज व राजनीति पर लगातार चोट करती़ं लघुकथायें।
नेतराम भारती :- आपके पसंदीदा लघुकथाकार कौन-कौन हैं और क्यों ?
कमलेश भारतीय :- रमेश बतरा, मंटो, जोगिंदरपाल, चेखव, मोपांसा, विष्णु प्रभाकर, शंकर पुणतांबेकर आदि जिनकी रचना जहां मिले पढ़ जाता हूँ।
नेतराम भारती :- आपके अनुसार लघुकथा का क्या भविष्य है ?
कमलेश भारतीय :- भविष्य उज्ज्वल है। सारी बाधायें पार कर चुकी लघुकथा। संशय के बादल छंट चुके हैं।
नेतराम भारती :- अगर आपसे पूछा जाए कि उभरते हुए अथवा लघुकथा में उतरने की सोचने वाले लेखक को कुछ टिप्स या सुझाव दीजिए, तो एक नव-लघुकथाकार को आप क्या या क्या-क्या सुझाव देना चाहेंगे ?
कमलेश भारतीय :- वही, ज्यादा से ज्यादा पढ़िये और कम से कम, बहुत महत्त्वपूर्ण लिखिये। कोई सुझाव नहीं, सब महारथी ही आ रहे हैं। दूसरों से हटकर लिखिये, आगे बढ़िये, बढ़ते रहिये। शुभकामनाएं।
नेतराम भारती :- सर ! आज बहुतायत में लघुकथा सर्जन हो रहा है। बावजूद इसके, नए लघुकथाकार मित्र इसकी यात्रा, इसके उद्भव, इसके पड़ावों से अनभिज्ञ ही हैं। आपने प्रारंभ से अब तक लघुकथा की इस यात्रा को न केवल करीब से देखा ही बल्कि उसपर काफ़ी कुछ कहा और लिखा भी है। कैसे आँकते हैं आप इस यात्रा को ?
कमलेश भारतीय :- आठवें दशक से अब तक पचास वर्ष से ऊपर की लघुकथा की यात्रा का गवाह हूं। बहुत, रोमांच भरी रही यह यात्रा। पहले इसके नामकरण को लेकर खूब बवाल मचा। कोई अणु कथा, मिन्नी कथा तो कोई व्यंग्य को ही इसका आधार बनाने पर तुले रहे लेकिन इन सब झंझावातों से बच निकल करकर यह आखिरकार लघुकथा के रूप में अपनी पहचान बना पाई। बहुत से बड़े रचनकारों ने इसे फिलर, स्वाद की प्लेट या फिर रविवारीय लेखन तक कह कर नकारा लेकिन सब बाधाओं और बोल कुबोल को सहती लघुकथा इस ऊंचे पायदान पर पहुंची है।
नेतराम भारती :- सर ! लघुकथा आज तेजी से शिखरोन्मुख हो रही है। उसकी गति, उसके रूप, उसके संस्कार और उसके शिल्प से क्या आप संतुष्ट हैं ?
कमलेश भारतीय :- संतुष्ट होना नहीं चाहिए, संतोष जरूर है। शिखरोन्मुख अभी नहीं। अभी आप देखिये, कुछ बड़े समाचारपत्र इसे अब भी प्रकाशित नही कर रहे। उनके वार्षिक विशेषांक भी इसे अछूत ही मानते हैं। अभी लघुकथा को ज़ोर का झटका धीरे से लगाना बाकी है।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है पुस्तक “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास की समीक्षा।)
पुस्तक चर्चा # 137 – “अच्छे होने की कठिनाई (Difficulty being Good)” लेखक : गुरुचरण दास ☆ समीक्षक – श्री सुरेश पटवा
पुस्तक समीक्षा : कृष्ण प्रयोजन
पुस्तक ; अच्छे होने की कठिनाई
(Difficulty being Good)
लेखक : गुरुचरण दास
समीक्षक : सुरेश पटवा
गुरुचरण दास (जन्म 3 अक्टूबर, 1943), एक भारतीय लेखक, टिप्पणीकार और सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं। वह “द डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड: ऑन द सटल आर्ट ऑफ धर्म” के लेखक हैं जो महाभारत पर सवाल उठाता है कि “क्या हरेक स्थिति में अच्छा बना रहना कठिनाई पूर्ण नहीं होता है।”
लेखक महाभारत के कथानक की ओर मुड़ते हैं, और पाते हैं कि महाकाव्य की नैतिक अस्पष्टता और अनिश्चितता आज की दुनिया की संकीर्ण और कठोर वास्तविकता के कितने क़रीब है। इससे महाभारत का यह श्लोक सही सिद्ध होता है कि :-
जो यहाँ है वही अन्यत्र पाया जाता है।
जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है.
– महाभारत I.56.35-35
“अच्छा होने की कठिनाई पुस्तक धर्म की सूक्ष्मता पर” प्रसिद्ध भारतीय लेखक और राजनयिक गुरचरण दास की एक विचारोत्तेजक और व्यावहारिक पुस्तक है। प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत से सीख लेते हुए, लेखक सद्गुण और धार्मिकता की खोज में व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली जटिल नैतिक दुविधाओं और नैतिक चुनौतियों का पता लगाते हैं।
लेखक ने महाभारत के पात्रों और घटनाओं को एक लेंस के रूप में उपयोग करते हुए मानव व्यवहार और निर्णय लेने को आकार देने वाले रिश्तों, मूल्यों और आदर्शों के जटिल जाल की पड़ताल की, जिसके माध्यम से कर्तव्य, वफादारी, न्याय और प्रकृति जैसे सार्वभौमिक विषयों की जांच की जा सके। अपने अच्छे और बुरे का विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को अस्पष्टता, परस्पर विरोधी प्रेरणाओं और नैतिक धूसर क्षेत्रों से भरी दुनिया में नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं की गहन और सूक्ष्म समझ प्रदान करते हैं। जी कि कृष्ण के व्यक्तित्व का एक गूढ़ हिस्सा था।
लेखक आकर्षक कहानी और तीक्ष्ण विश्लेषण के माध्यम से पाठकों को सही और गलत के बारे में अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करने और एक ऐसी दुनिया में अच्छा होने की अंतर्निहित कठिनाइयों से लड़ने की चुनौती देते हैं जो अक्सर धोखे, महत्वाकांक्षा और स्वार्थ को पुरस्कृत करती है। अंततः, “अच्छे होने की कठिनाई” नैतिकता, सदाचार और मानवीय स्थिति की एक सम्मोहक खोज प्रदान करती है, जो पाठकों को नैतिक उत्कृष्टता की खोज में अपने स्वयं के विश्वासों और कार्यों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करती है।
लेखक प्रत्येक पात्र की कहानी लेता है और उसकी व्याख्या इस प्रकार करता है कि प्रत्येक पात्र स्वयं अच्छा करने का प्रयास कर रहा है; जिस स्थिति में वे हैं, वे खुद को सही और गलत, अच्छे और बुरे के अपने मानकों के प्रति जवाबदेह मानते हैं, अंततः उन व्यक्तियों और समूहों के गुणों के रूप में उभरते हैं जिन्हें हम अपने आसपास देखते हैं।
प्रत्येक पात्र, सही होने की कोशिश करते हुए, और अपनी स्थिति को देखते हुए अपने स्वयं के नैतिक मानकों के अनुसार अच्छा बनने की कोशिश करते हुए, एक प्रकार के व्यक्तित्व के रूप में उभरता है; मैं यह नहीं कहूंगा कि वे आदर्श हैं। बल्कि वे लोग हैं, जो अलग-अलग समय में रहे होंगे, लेकिन उन्हीं चीज़ों से प्रेरित हैं जिनसे हमारे आस-पास के लोग प्रेरित होते हैं – ईर्ष्या, कर्तव्य की भावना, निराशा, निस्वार्थता, विजय, पराजय, छल और बदला।
पुस्तक “धर्म” की व्याख्या “एक जटिल शब्द के रूप में करती है जिसका अर्थ विभिन्न प्रकार से गुण, कर्तव्य और कानून है, लेकिन यह मुख्य रूप से सही काम करने से संबंधित है।” यह निश्चित रूप से यह सवाल उठाता है कि क्या एक सार्वभौमिक सत्य, सही और गलत का एक सार्वभौमिक उपाय, “धर्म” की एक सार्वभौमिक परिभाषा हो सकती है। इस बीच, दास एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। धर्म को उसकी अनुपस्थिति से पहचानना सबसे आसान है: महाभारत धर्म के विपरीत, अधर्म के माध्यम से धर्म के बारे में सिखाने की शैक्षणिक तकनीक का उपयोग करता है। महाभारत का हर चरित्र दुविधा में है, सिवाय कृष्ण और शकुनि को छोड़कर। शकुनि का लक्ष्य हस्तिनापुर का नाश करना है। वहीं कृष्ण का उद्देश्य हस्तिनापुर को मानव कल्याणकारी राज्य में बदलना है।
कृष्ण के चरित्र पर प्रश्न उठाए जाते हैं कि उन्होंने युद्ध में अधर्म का सहारा लिया। जैसे:-
कुंती को कर्ण के पास भेजकर यह रहस्य उद्घाटन कराया कि वह पाण्डवों का भाई है। कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर बाक़ी चार भाइयों का न वध करने का वचन दे दिया। उसने बाक़ी चारों भाइयों को निशाने पर आने के बावजूद छोड़ दिया। इस बात पर उसका दुर्योधन से विवाद भी हुआ।
कृष्ण जानते थे कि कवच कुंडल युक्त कर्ण अर्जुन से श्रेष्ठ यौद्धा है। उन्होंने अर्जुन के पिता इन्द्र को भिक्षुक बनाकर भेजा और कवच कुंडल उतरवा लिये। जो कि कर्ण का सबसे अहम रक्षा कवच था।
कृष्ण ने अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने को द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा का स्वाँग रच सत्य पर अड़िग युधिष्ठिर के मुँह से आधा झूठ बुलवाया और आधा सच शंखों की ध्वनि में छुपाया।
कृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध उस समय करवाया जब वे निरस्त्र होकर युद्ध भूमि पर निढाल ही बैठे थे। जबकि किसी निरस्त्र यौद्धा पर वार करना युद्ध के नियमों के विरुद्ध था।
कृष्ण ने भीष्म पितामह का वध एक शिखंडी की आड़ में युद्ध करते हुए अर्जुन को सुरक्षित रखकर करवाया।
कृष्ण ने कर्ण का युद्ध उस समय करवाया जब वह युद्ध भूमि में फँसे रथ के पहिये को निकाल रहा था जबकि निहत्थे पर अस्त्र चलाना नियम विरुद्ध था।
कृष्ण ने अर्जुन के हाथों जयद्ररथ का वध सूर्य ग्रहण का प्रयोग करके करवाया।
कृष्ण ने दुर्योधन का वध गदा युद्ध में कमर के नीचे नियम विरुद्ध गदावार से करवाया।
इस सभी का उत्तर मिलता है इसी पुस्तक में। महाभारत का आधार चार पुरुषार्थ के सिद्धांत पर रखा है अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष। महाकाव्य का आरंभ सृजन के हेतु “काम” से होता है। ऋषि पराशर के द्वारा धीवर कन्या सत्यवती से नाव में व्यास जी का जन्म, शान्तनु से गंगा देवी के संसर्ग से भीष्म पितामह का जन्म, विचित्र वीर्य की रानियों के व्यास जी के नियोग से धृष्टराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म, कुंती से सूर्य द्वारा कर्ण का जन्म, कुंती से धर्म, इंद्र और वायु देव द्वारा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम का जन्म और अश्विनीकुमारों द्वारा माद्रि से नकुल सहदेव का जन्म।
ग्रंथ का दूसरे हिस्से का कथानक “अर्थ” केंद्रित है। हस्तिनापुर का विभाजन न होकर इंद्रप्रस्थ का निर्माण, फिर ईर्ष्या द्वेष का नंगा खेल आरंभ होता है। जो सुई की नोक के बराबर भूमि के बराबर भी अर्थ का विभाजन स्वीकार नहीं करता है। युद्ध अपरिहार्य होता जाता है। द्रौपदी के शब्द, चीरहरण और भीम की प्रतिज्ञा युद्ध निर्धारित कर देते हैं।
तीसरा कथानक “धर्म” पर आधारित है। भगवत्गीता का कर्मयोग एक निरंतर धर्म है। युद्ध निश्चित है तो संघर्ष करो। डिगो नहीं। उसके बाद मोक्ष का द्वार खुलेगा।
ग्रंथ की सबसे बड़ी सीख है कि पुरुष चतुष्टय भी समय के साथ बदलते रहते हैं। ब्रह्म के अलावा प्रत्येक चीज और सिद्धांत परिवर्तन शील है। धर्म भी अधर्म के अनुरूप उसे पस्त करने को रूप बदलता है।
असल महाभारत शकुनि और कृष्ण की विचारधाराओं के मध्य है। शकुनि की कूटनीतिक समझ है कि कृष्ण युद्ध में अधर्म का सहारा नहीं लेगा। युधिष्ठिर भी धर्म पुत्र है। राम के त्रेता युग से लेकर कृष्ण के द्वापर तक मनुष्यों का मस्तिष्क कूटनीति की बारीकियों से नीति निपुण हो चुका था। हृदय की शुद्धता कम होती जा रही थी। कृष्ण को यह कूटनीतिक समझ थी कि अधर्म को अधर्म से ही जीता जा सकता है। और अधर्म को परास्त करने हेतु अद्भुत तरीक़े धर्म के पक्ष में जाते हैं। मुख्य बात है धर्म युद्ध जीतना। युद्ध जीतने में स्थापित धर्म की मान्यताओं को धता बताकर नयी मान्यताएँ और परम्परायें स्थापित करना भी धर्म का एक अंग है।
एक घटना को लेते हैं। कृष्ण भीम को इशारा करते हैं कि गदायुद्ध में दुर्योधन की कमर के नीचे जंघा पर गदा से वार करे। जबकि गदायुद्ध के नियमों के अनुसार कमर के नीचे वार नहीं किया जाता। यह अधर्म है। लेकिन कृष्ण की दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति बुद्धि देखिए कि भरी सभा में किसी पराई स्त्री को नग्न करके जाँघ पर बिठाने के प्रयत्न भी घोर अधर्म है। उस अधर्म पर चोट करने हेतु जंघा पर गदा प्रहार भी धर्म हो जाता है। यानि धर्म की मान्यता भी समय के साथ रूप बदलती है। यहीं कृष्ण हमेशा प्रासंगिक हैं।
धर्म मानव कल्याण हेतू ‘व्यवस्थित अस्तित्व का अनुशासन’ हैं। हमारे पूर्वजों की दुनिया के विपरीत, जो काली और सफ़ेद थी, जहाँ अपना पेट भरने के लिए जानवरों को मारना ही जीने का एकमात्र तरीका था, जहाँ कोई नैतिक द्वंद्व नहीं था, हमारी दुनिया इस सवाल से भरी है कि क्या सही है और क्या गलत है। हम भूरे काल में रहते हैं, काले या सफेद रंग में नहीं। गुरचरण दास हमारे सामने मौजूद नैतिक दुविधाओं को कई आर्थिक घोटालों से परिचित कराते हुए समय के साथ बदलते धर्म की व्याख्या करते चलते हैं।
अच्छा बनने की कठिनाई से 5 मुख्य सबक
अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलता और भ्रष्ट और अन्यायी दुनिया में नैतिक सिद्धांतों का पालन करने में व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों की जांच करती है।
पुस्तक धर्म, या कर्तव्य की अवधारणा और व्यक्तियों द्वारा उनके नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों के अनुसार अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्व की पड़ताल करती है।
लेखक, गुरचरण दास, भारतीय महाकाव्य, महाभारत में पात्रों द्वारा सामना की गई नैतिक दुविधाओं पर प्रकाश डालते हैं, और उनके कार्यों के उनके स्वयं के जीवन और दूसरों के जीवन पर परिणामों पर जोर देते हैं।
अच्छा होने की कठिनाई नैतिक निर्णय लेने की जटिलताओं से निपटने के लिए आत्म-अनुशासन, संयम और करुणा, सहानुभूति और अखंडता जैसे गुणों को विकसित करने के महत्व पर जोर देती है।
कुल मिलाकर, यह पुस्तक पाठकों को प्रलोभन, भ्रष्टाचार और नैतिक अस्पष्टता से भरी दुनिया में एक सदाचारी जीवन जीने की चुनौतियों के बारे में मूल्यवान सबक सिखाती है। यह व्यक्तियों को नैतिक उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने और ऐसे नैतिक विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करता है जो उनके मूल्यों और विश्वासों के अनुरूप हों।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता – “सुखदाई वर्षा…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 193 ☆ सुखदाई वर्षा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चर्चा और आरोप… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 248 ☆
☆ चर्चा और आरोप… ☆
चर्चा और आरोप यह दोनों ही सफल व्यक्ति के भाग्य में होते हैं। लोगों के दृष्टिकोण को लेकर ज़्यादा मत सोचिए, क्योंकि सबसे ज़्यादा वे लोग ही आपका मूल्याँकन करते हैं, जिनका ख़ुद कोई मूल्य व अस्तित्व नहीं होता। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है, क्योंकि वह कम समय में अधिकाधिक धन व शौहरत पाना चाहता है और भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता। वैसे भी मानव अक्सर दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी रहता है। उसे अपने सुखों का अभाव इतना नहीं खलता; जितना दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव आहत करता है। यह एक ऐसी लाइलाज समस्या है, जिसका निदान नहीं है। आप अपनी सुरसा के मुख की भाति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संतोष व सुख से जी सकते हैं और दूसरों के बढ़ते कदमों को देख उनका अनुकरण तो कर सकते हैं। स्पर्द्धा भाव को अपने अंतर्मन में संजोकर रखना श्रेयस्कर है ,क्योंकि मन में ईर्ष्या भाव जाग्रत कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। ईर्ष्या भाव मन में अक्सर तनाव व अवसाद को जन्म देता है, जो आपको अलगाव की स्थिति प्रदान करता है।
चर्चा सदा महान् लोगों की होती है, क्योंकि वे आत्मविश्वासी, दृढ़-प्रतिज्ञ व परिश्रमी होते हैं। भीड़ प्रतिगामी नहीं होते हैं। उसके बल पर वे जीवन में जो चाहते हैं, उस मुक़ाम को हासिल करने में समर्थ होते हैं। उनका सानी कोई नहीं होता। दूसरी ओर आरोप भी संसार में उन्हीं लोगों पर लगाए जाते हैं, जो लीक से हटकर कुछ करते हैं। वे एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, कभी विचलित नहीं होते।
अक्सर आरोप लगाने व आलोचना करने वाले वे लोग ही होते हैं, जिनका अपना दृष्टिकोण व अस्तित्व नहीं होता। वे बेपैंदे लोट होते हैं और उन्हें थाली का बैगन भी कहा जा सकता है। वे मात्र दूसरों पर आरोप लगा कर प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। ‘बिन साबुन पानी बिना, निर्मल किए सुभाय’ वैसे तो कबीर ने भी निंदक के लिए अपने आँगन में कुटिया बनाने का सुझाव दिया है, क्योंकि यही वे प्राणी होते हैं, जो निष्काम भाव से आपको अपने दोषों, कमियों व अवगुणों से अवगत कराते हैं।
‘तुम कर सकते हो’ जी हाँ! सो! असंभव शब्द को अपने शब्दकोश से बाहर निकाल दीजिए। आप में असीमित शक्तियाँ संचित हैं, परंतु आप उनसे अवगत नहीं होते हैं। आइंस्टीन ने जब बल्ब का आविष्कार किया तो उसे अनेक बार असफलताओं का सामना करना पड़ा। उसके मित्रों ने उससे उस खोज पर अपना समय नष्ट न करने का अनेक बार सुझाव दिया। परंतु उसका उत्तर सुन आप चौंक जाएंगे। अब उसे इस दिशा में पुन: अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा कह कर उनके तथ्य की पुष्टि की। अब मैं नए प्रयोग कर शीघ्रता से अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकूंगा और उसे सफलता प्राप्त हुयी।।
मुझे स्मरण हो रही है अस्मिता की स्वरचित पंक्तियाँ– ‘तूने स्वयं को पहचाना नहीं।’ नारी अबला नहीं है। उसमें असीम शक्तियाँ हैं, परंतु उसने उन्हें पहचाना नहीं।’ वैसे भी इंसान यदि अपना लक्ष्य निर्धारित कर निरंतर परिश्रम करता रहता है तो वह एकदिन अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकता है। अवरोध तो राह में आते रहते हैं। परंतु उसे अपनी मंज़िल पाने के लिए अनवरत बढ़ना होगा। ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ पंक्तियाँ मानव को संदेश देती हैं कि लोग तो दूसरों को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होते बल्कि टाँग खींचकर आलोचना अवश्य करते हैं। उसे व्यर्थ के आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझा कर सुक़ून पाते हैं। परंतु बुद्धिमान व्यक्ति उनसे प्रेरित होकर पूर्ण जोशो-ख़रोश से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अब्दुल कलाम के मतानुसार ‘ सपनें वे देखें, जो आपको सोने न दें।’ आप रात को सोते हुए सपने न देखें, बल्कि उन सपनों को साकार करने में जुट जाएं और मंज़िल पाने तक चैन से न सोएं। यह सफलता-प्राप्ति का अमोघ मंत्र है।
आप प्रशंसा से पिघलें नहीं, निंदा से पथ-विचलित न हों तथा दोनों स्थितियों में सम रहते हुए अपने निर्धारित पथ पर अग्रसर हों, जब तक आप मंज़िल को प्राप्त नहीं करते। आप इन दोनों स्थितियों को सीढ़ी बना लें तथा लोगों के मूल्यांकन से विचलित न हों। आप अपने भाग्य-विधाता हैं और कठिन परिश्रम व आत्मविश्वास द्वारा वह सब प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की थी।
अंत में मैं यह कहना चाहूँगी कि इसके लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार है। सो! जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश न करने दें। जीवन में प्रेम, सौहार्द, त्याग, विनम्रता, करुणा आदि सद्भावों को विकसित करें, क्योंकि यह दैवीय गुण मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित होते हैं तथा उस व्यक्ति में पंच विचार दस्तक नहीं दे सकते। आप स्वयं में, अपने अंतर्मन में इन गुणों को विकसित कीजिए और बढ़ जाइए अपनी राहों की ओर– जहाँ सफलता आपका स्वागत अवश्य करेगी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 12
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
विधा – छोटी कहानियाँ
कहानीकार- श्री महेश दुबे
छोटी कहानियाँ, बड़े संदर्भ☆ श्री संजय भारद्वाज
कहानी मनुष्य को ज्ञात सबसे पुरानी विधा है। धारणा है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। वस्तुतः कहने-सुनने, स्वयं को व्यक्त करने की इच्छा मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। कहानी रोचकता से इस मानसिक विरेचन को पूरा करती है। सरलता और सुबोधता के चलते कहानी सर्वाधिक संप्रेषणीय विधा हो जाती है। यही कारण है कि स्पष्टीकरण के लिए गूढ़ दर्शन भी कहानी लेखन का सहारा लेता है।
लेखन, निरीक्षण की उपज है। विशेषकर कहानी के संदर्भ में जहाँ अपनी बात पात्रों के माध्यम से रखनी हो, यह निरीक्षण अधिक सूक्ष्मता की मांग रखता है। अपने भीतर एक कहानी समेटे हमारे आसपास अनेक घटनाएँ घट रही होती हैं। इन्हें अनगिन लोग देखते हैं किंतु इनमें कुछ ही के देखने में दृष्टि का अंतर्भाव होता है।
महेश दुबे ऐसे ही दृष्टि संपन्न कहानीकार हैं। वे मूलरूप से कवि हैं। कविता के गर्भ में एक कहानी छिपी होती है जबकि हर कहानी, एक कविता का विस्तार होती है। यही कारण है कि महेश दुबे की कवि दृष्टि, कहानी में संवेदना के सूक्ष्म तंतुओं को स्पंदित करने में सफल रही है।
‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ संग्रह की कहानियाँ, कहानीकार की देखी, भोगी, समझी, सुनी घटनाओं की कहन हैं। अपनी कहन की पृष्ठभूमि में उपस्थित घटनाओं का सकारात्मक आकलन लेखक ने किया है। बिना कोई लेबल लगाए, आदमी को आदमी की तरह देखने की यह सकारात्मकता इन कहानियों का शक्तिबिंदु है।
पटकथा लेखन के क्षेत्र में कहा जाता है कि मनुष्य जीवन की कहानियाँ छत्तीस फ्रेमों में बँटी हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अमूमन इन सभी फ्रेमों से गुज़रती हैं। आदमी के सारे रंग, रंगों के शेड्स, स्थिति-परिस्थिति, आशा-आशंका, भावना-संभावना को ये प्रकट करती हैं।
साहित्य बेहतर मनुष्य की खोज है। प्रस्तुत कहानियाँ बेहतर मनुष्य को हमारे सामने रखती हैं। विशेष बात है कि ये कहानियाँ बेहतर मनुष्य गढ़ती नहीं अपितु हमारे आसपास, इर्द-गिर्द के नितांत साधारण से परिचित व्यक्ति की ओर इंगित करती हैं और कहती हैं, ‘देखो, यह है बेहतर मनुष्य।’ बेहतर मनुष्य के माध्यम से बेहतर मनुष्यता और बेहतर संसार की यात्रा कराती हैं ये कहानियाँ।
शब्दों की संख्या की दृष्टि से ये कहानियाँ छोटी हैं। अतः पात्रों के चित्रण की अपनी सीमाएँ हैं। पात्र की तुलना में इन कहानियों में परिवेश का चित्रण अधिक मुखर है। भाषा, देशकाल के अनुरूप और सरल है। कथानक सशक्त हैं। कथोपकथन को कहानीकार ने संक्षेप में बहुत प्रभावी ढंग से बांधा है। कथ्य और शिल्प में साधा गया ‘बोनसाई’ संतुलन इन कहानियों की प्रभावोत्पादकता को बहुआयामी करता है। मैं इन्हें बड़े संदर्भ वाली छोटी कहानियाँ निरूपित करूँगा।
कहानियों के जगत में महेश दुबे का प्रकाशित पुस्तक के रूप में यह पहला कदम है। यह कदम इतना सहज और आत्मविश्वास से भरा है कि पाठक इसे हाथों-हाथ अपना लेगा, इसका विश्वास है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – तीज त्योहार।)
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – ज़मीं की शय नही हो तुम…।
रचना संसार # 20 – ग़ज़ल – ज़मीं की शय नही हो तुम… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक कथा – आदर्श शिक्षक । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆
☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा ☆
“नमस्कार सर! मुझे पहचाना?”
“कौन?”
“सर, मैं आपका विद्यार्थी । 40 साल पहले का आपका विद्यार्थी।”
“ओह! अच्छा। आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है। इसलिए नही पहचान पाया। खैर। आओ, बैठो। क्या करते हो आजकल?” उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।
“सर, मैं भी आपकी ही तरह शिक्षक बन गया हूँ।”
“वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन शिक्षक की पगार तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे…?”
“सर। जब मैं कक्षा सातवीं में था तब हमारी कक्षा में एक घटना घटी थी। उसमें से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था। वो घटना मैं आपको याद दिलाता हूँ। आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।”
“अच्छा! क्या हुआ था तब बेटा, मुझे ठीक से कुछ याद नहीं…?”
“सर, सातवीं में हमारी कक्षा में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था। जबकि हम बाकी सब बहुत गरीब थे। एक दिन वह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। कुछ याद आया सर?”
“सातवीं कक्षा?”
“हाँ सर। उस दिन मेरा मन उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौका देखकर वह घड़ी चुरा ली थी।
उसके ठीक बाद आपका पीरियड था। उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की औऱ बहुत जोर जोर से रोने लगा। आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है ,उसे वापस कर दो। मैं उसे सजा नही दूँगा। लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।”
“उसके बाद फिर आपने कमरे का दरवाजा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब औऱ झोला देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नही जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नही खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा औऱ ऊपर से जबरदस्त मार पड़ेगी वो अलग..।”
“हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी। मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था। मैं ग्लानि से भर उठा था। उसी समय जान देने का निश्चय कर लिया था लेकिन… लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के अंत तक सबकी जेबें देखते रहे और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, “अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नही आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे। इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे ” ये कहते कहते उसकी आँख भर आई।
वह रुंधे गले से बोला, “आपने उस समय मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया था सर। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया। आपने कभी मेरे साथ भेदभाव नही किया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा एक आदर्श शिक्षक ही बनूँगा।”
“हाँ हाँ…मुझे याद आया।” उनकी आँखों मे चमक आ गयी। फिर चकित हो बोले, “लेकिन बेटा… मैं आज तक नही जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि…जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।”