हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 93 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 93 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अभी अभी तो हैं  खुले,

जीवन के हर द्वार।

जिएंगे हम खुशी से,

मानेंगे ना हार।।

 

मिठास सा जीवन रहे,

थोड़ा सा मनुहार।

हर रिश्ते में भाव का,

प्यार भरा श्रृंगार।।

 

कांटा चुभते चुभ गया,

घाव बहुत गंभीर।

दर्द बहुत मन में हुआ,

होती जब है पीर।।

 

नींद कहां ही आ रही,

जागें सारी रात।

आंखों से ही बह रहा,

आंसू का जलजात।।

 

तनहाई करती रही,

बस उनकी फरियाद।

कोरोना में खो दिया,

करते उनको याद।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 83 ☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 83 ☆

☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

गीत प्यार के गाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार छुप-छुप कर रोते

नैतिक मूल्य गरिमा खोते

मर्यादा सिखलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार की धानी दूषित

लोभियों ने की कलूषित

दर्द शहर का दिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चारों तरफ मचा है कृन्दन

छिन्न-भिन्न और खिन्न है मन

मन को अब समझाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

मानवता के दुश्मन जो भी

बहुरूपिये लालची-लोभी

इनके करम बताऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संकट में जो लूट मचाते

अवसर समझ न इसे गंवाते

इनको सबक सिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

बेच रहे नकली इंजेक्शन

इनका बहुत बड़ा कनेक्शन

दान से पाप धुलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चले गए बे-मौत जहाँ से

लौट के आता कौन वहाँ से

आत्मा शांत कराऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

रोष प्रशासन में जब होगा

“संतोष”तभी मन में होगा

इन्हें सजा दिलवाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 84 – विजय साहित्य – मोरपीस! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 84 – विजय साहित्य  ✒मोरपीस. . . !✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

? कै. वसंत बापट यांनी,  राज्य स्तरीय कवीसंमेलनात या कवितेस दाद देऊन मला ‘कविराज ‘ ही पदवी बहाल केली.  ?

मोरपीसं . . . !

दोन मोरपीसं माझ्याकडची. . .

एक होतं मस्तकावर

आशिर्वादाला आसुसलेलं . . .

दुसरं होतं अंगावर

अंगांगावरून फिरणार. . . !

एक मोरपीस पित्याचं. . .

मस्तकावर विसावलेलं.. .

दूर राहून बाळाला

नजरेच्या धाकात ठेवणारं. . . !

पित्याचा धाक

जशी पावसाची हाक. . .

कडकडाट, गडगडाट,  अन्

अश्रूंचा वाहे पाट. . . !

दुसरं मोरपीस मायेचं

क्षणात हळवं होणारं.. .

कुठल्याही टोकाला स्पर्श करा

पसा मायेचा धरणारं . . .

जरी गेलो दूर कुठेही

नजरेने पाठलाग करणारं.

हाक मारण्याआधीच

सत्वर धावून येणारं.. .

तरीही मला,

प्रेमाच्या धाकात ठेवणारं.. . !

मातेचा धाक. . . .  जशी गाईची कास

प्रेमी भरल्या मायेने

आकंठ स्तनपान करणारी. … !

जरा दूर जाताच

मनी हुरहुर लावणारी. . . !

सतत मला जपणारी . . .

अशी दोन मोरपीसं . . .

माझ्याकडची. . . !

ते वयच काही और होतं. . .

अवखळतेचं, अल्लडतेचं

बालिशतेचं, चंचलतेचं. . .

मोरपीसांना जपण्याचं. . .

त्यांच्या सोबत रमण्याचं…!

हळूहळू काय झालं, कुणास ठाऊक?

पावसाच्या हाका ऐकण्याआधीच

पाऊस झरझर कोसळू लागला. . .

आकंठ स्तनपान करण्याआधीच,

गाडग्यात पान्हा साठू लागला. . . !

या सार्‍याला, मीच कारणीभूत होतो.

जीवंत मोरपीस जपण्यापेक्षा.. .

स्वप्नातली मोरपीस कुरवाळीत होतो.

स्वप्नातली मोरपीस, वास्तवात आली .

सत्यात आल्यावर कळलं, . . .

अरे,  ही तर पीसं लांडोरीची

आयुष्याच्या सुवर्ण काली

माझ्या जीवनात  आलेली. . . . !

आत्ता, माझ्याही मुलाकडं

दोन मोरपीसं आहेत.

जाणिव होतेय. . . .

मी जपलेल्या मोरपीसांची..

मला फारच भिती वाटतेय

माझ्याच भविष्याची. . . !

कारण. . . .  आजकाल. . . .

मोरपीसं कुणी जपत नाही. . .

काचेच्या पेटीत ठेवतात. . .

शो म्हणून. . .  देखावा म्हणून. . .

शो म्हणून. . .  देखावा म्हणून. . . !! 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 67 ☆ जख्म ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा जख्म।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 67 ☆

☆ जख्म ☆

दोस्तों से आगे निकलने की होड़ में वह पिता की हिदायत भूल गया – उस बदनाम गली से कभी मत जाना। कंधे पर स्कूल का बैग लिए वह दौड़ रहा था और आँखों की कोरों से देख रहा था अजीब मंजर, तरह – तरह के इशारे करती लड़कियां, जवान औरतें, प्रौढा भी। होठों पर गहरी लाली, मुँह में पान – तंबाकू भरा हुआ।  चेहरे पर अजीब से हाव – भाव। अब तो आ गया था इस गली में? दोस्तों से रेस जीत गया था लेकिन आँखों की कोरों से दिखे नजारे उसे बेचैन कर रहे थे, कौन थीं वो औरतें?       

दूसरे दिन वह फिर निकला उस गली से, अनजाने में नहीं। वह दौड़ रहा था पर थोडा धीरे, सामने थे फिर वही दृश्य, वही हाव – भाव। यहाँ हर दिन सब कुछ एक सा क्यों है?  पिता की सख्त नाराजगी और उस गली की औरतों के ताने सुनने के बाद भी वह रोज उस गली से गुजरने लगा। अब दौड़ता नहीं था। दौड़ना है ही नहीं, ये ट्रेन की खिडकी से दिखते चित्र थोडे ही हैं जो ट्रेन की रफ्तार के साथ तेजी से गायब होते जाते हैं। बदनाम गली का एक चित्र उभरा – माँ ने सात आठ साल के लडके को पैसे दिये – जा बाजार से कुछ खा लेना और कमरे में चली गई किसी  के साथ। किसी प्रौढा स्त्री के लिए एक समय का खाना ही काफी था कमरे में बंद होने के लिए। आँचल में बच्ची को समेटे नाबालिग लड़की को कलपते सुना – दीमक लग गई  हमारे जीवन में तो, बच्ची का क्या होगा।

जख्म गहरा था, बदनाम गली कह देने से क्या होगा? ‘तिरे जे बूडे सब अंग’। वह फिर गया उस गली में और रुक गया उस बिलखती  माँ के सामने – बहन, ठीक समझो तो दे दो अपने बच्चों को, मैं पालूंगा। फिर एक नहीं, दो नहीं ना जाने कितने बच्चे उन बदनाम गलियों से उसके पीछे चल दिए। स्नेहालय बन रहा था —-

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 107 ☆ जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  का एक ऐतिहासिक जानकारी से ओतप्रोत आलेख  – जल-जंगल -जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा।  इस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 107 ☆

? जल-जंगल-जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा  ?

आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था.  यह तब की बात है जब  ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं. वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.

1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे, अकाल पड़ा, लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए. सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.

अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया. उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है, भितरघात और अपने ही किसी की लालच से, बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया. किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.

लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये. राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है. आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं.उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 64 ☆ राहत की चाहत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “राहत की चाहत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 64 – राहत की चाहत

मनमौजी लाल ने अपनी इमारत की नींव खोद कर सारे पत्थर एक- एक कर फेंक दिए। सुनते हैं कि उन्होंने पहले ही चार पिलर खड़े कर लिए थे। पर जल्दी ही पिलर आँखों में किरकिरी बन चुभने लगे। तभी उनकी नयी सलाहकार ने कहा  कि आजकल तो चार लोग काँधे के लिए भी नहीं चाहिए, अब सब आधुनिक तरीके से हो रहा है तो एक ही विश्वास पात्र बचाकर रखिए बाकी की छुट्टी करें। बात उनको सोलह आने सच लगी। भले ही वे अपनी पत्नी को मूर्ख समझते हों, किंतु बाहरी महिलाओं की पूछ परख करने में उन्हें महारत हासिल है। सबको सम्मान देते हुए विभिन्न पदों पर सुशोभित करते हुए चले जा रहे हैं।

मजे की बात ये है कि जब वे सीढ़ी चढ़ते, तो स्वयं  चढ़ जाते, पर ऊपर जाते ही सीढ़ी तोड़ देते, जिससे वहाँ कोई न पहुँच सके। जहाँ जो मिलता, उसी से काम चलाकर नई मंजिल का सफर तय करना उनकी आदत बन चुकी थी। इधर टूटा हुआ समान बटोरने वाले कबाड़ी उसी में जश्न मनाते हुए प्रसन्न होते। वैसे भी तोड़ – फोड़, जोड़ – तोड़ ये सब देखने वाले को भी आनन्दित करते ही हैं। असली कलाकारी तो ऐसी ही परिस्थितियों में देखने को मिलती है। ये क्रम अनवरत चलता जा रहा था तभी वहाँ सुखी लाल जी पहुँच गए  और राहत की खोज बीन करने लगे। सबने बहुत समझाया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। आजकल सब कुछ डिजिटल है, फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही पढ़ें- पढ़ाएँ। ज्यादा हो तो गूगल की शरण में पहुँचिए। यहाँ आए दिन तफरी करने मत आया करिए। यहाँ हम लोग रिमूवल रूपी अस्त्र लेकर बैठे हैं ज्यादा होशियारी आपको भारी पड़ेगी। जो मन हों लिखें पर पूछने आए तो छुट्टी निश्चित मिलेगी।

हम तो मनोरंजन हेतु लिखने- पढ़ने में जुटे हुए हैं। ज्यादा से ज्यादा स्वान्तः सुखाय तक ही हमारी पहुँच है। सो मूक बनकर देखते रहते हैं। हालांकि इस पंक्ति की याद आते ही मन विचलित जरूर होता है –

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।

राहत की खोजबीन में लगा हुआ व्यक्ति इधर से उधर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भटक रहा है, पर हर जगह पॉलिटिक्स का कब्जा है। कोई किसी को आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहता। सब मेरा हो इस सोच ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है।

अब ये आप पर निर्भर है कि राहत आपको  कैसे और कहाँ मिलेगी।

चाहत सबकी बढ़ रही, राहत ढूंढ़े रोज।

बार- बार आहत हुए, रुकी न फिर भी खोज।।

बड़ी बोली वे बोलें।

राज अपने ही खोलें।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 – लघुकथा – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – कारण।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 ☆

☆ लघुकथा – कारण ☆ 

“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।” 

 इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे। और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे। मोबाइल पर कुछ देखेंगे।” 

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकूँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, ” तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आंख से आंसू निकल गए, ” घर जा कर सास की जलीकटी बातें सुनने से अच्छा है यहां सुकून  के दो-चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 71 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – दशम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  दशम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 71 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – दशम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का दशम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

ऐश्वर्य – श्रीभगवान ने अपने ऐश्वर्य के बारे में अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान देकर बताया

 

महाबाहु मेरी सुनो, तुम हो प्रियवर मित्र।

श्रेष्ठ ज्ञान मैं दे रहा, खिलें फूल से चित्र।। 1

 

यश वैभव उत्पत्ति को , नहीं जानते देव।

उद्गम सबका मैं सखे, करता प्रकट स्वमेव।। 2

 

मैं स्वामी हर लोक का, अजर अनादि अनंत।

जो जाने इस ज्ञान को, मुक्ति पंथ गह अंत।। 3

 

सत्य-ज्ञान, सद्बुद्धि सब, मैं ही देता प्राण।

मोह विसंशय,मुक्त कर, हर लेता सब त्राण।। 4

यश-अपयश-तप-दान भी, मैं ही करूँ प्रदत्त।

क्षमा भाव जीवन-मरण, सुख-दुख चक्रावर्त।। 4

 

विविध गुणों का स्वामि मैं,  मन निग्रही अनादि।

इन्द्रिय-निग्रह मैं करूँ, हर लेता भय आदि।। 5

 

सप्तऋषी गण, मनु सभी, अन्य महर्षी चार।

उदगम मूलाधार मैं, फैले लोक अपार।। 6

 

जानें मम ऐश्वर्य को, जो योगी आश्वस्त।

करते भक्ति अनन्य जो,मैं उनका विश्वस्त।। 7

 

सकल-सृष्टि आध्यात्म का, सबका मैं हूँ सार।

सबका ही उद्भूत मैं, सबका पालन हार।। 8

 

शुद्ध भक्त जो भी करे, मन में शुद्ध विचार।

बाँटें मेरे ज्ञान को, अंतःगति उद्धार।। 9

 

मेरी सेवा भक्ति से,करते हैं जो प्रेम।

उनको देता ज्ञान मैं, सुभग योग अरु क्षेम।। 10

 

कृपा विशेषी मैं करूँ, करता उर में वास।

दीप जलाऊँ ज्ञान का, फैले दिव्य प्रकाश।। 11

 

अर्जुन ने श्रीभगवान के बारे में कुछ  इस तरह कहा—

 

आप परम् भगवान हैं, परमा-सत्य पवित्र।

आप अजन्मा-दिव्य हैं, आदि पुरुष हैं पित्र।। 12

 

आप सर्वथा हैं महत, कहते नारद सत्य।

असित, व्यास, देवल कहें, यही सत्य का तथ्य।। 13

 

माधव तुमने जो कहा, वही पूर्ण है सत्य।

देव-असुर अनभिज्ञ सब, ना जानें यह सत्य।। 14

 

सबके उदगम आप हैं, सबके स्वामी आप।

सब देवों के देव हैं, ब्रह्माण्डों के बाप।।15

 

सदय कहें विस्तार से, यह निज दैविक मर्म।

सर्वलोक स्वामी तुम्हीं , सबके पालक धर्म।। 16

 

चिंतन कैसे मैं करूँ, मुझको प्रिय बतायं।

कैसे जानूँ आपको, कैसे ह्रदय   बसायं। 17

 

योगशक्ति-ऐश्वर्य का, वर्णन करो दुबार।

तृप्त नहीं माधव हुआ, कहिए अमृत- विचार।। 18

 

श्रीभगवान ने अर्जुन को अपने सूक्ष्म ऐश्वर्य के बारे में इस प्रकार वर्णन किया—–

 

मुख्य-मुख्य वैभव कहूँ, तुमसे अर्जुन आज।

मेरा चिर-ऎश्वर्य है, चिर सर्वत्री राज।। 19

 

सब जीवों के ह्रदय में, मेरा रहता वास।

आदि-अंत औ’ मध्य मैं, मैं ही भरूँ प्रकाश।। 20

 

आदित्यों में विष्णु मैं, तेजों में रवि सन्द्र।

मरुतों मध्य मरीचि मैं,नक्षत्रों में चन्द्र।। 21

 

वेदों में  मैं साम हूँ, देवों में हूँ इन्द्र।

इंद्रियों में मन रहूँ, जीवनशक्ति-मन्त्र।। 22

 

सब रुद्रों में शिव स्वयं, दानव-यक्ष कुबेर।

वसुओं में मैं अग्नि हूँ, सब पर्वत में मेरु।। 23

 

पुरोहितों में वृहस्पति, मैं ही कार्तिकेय।

जलाशयों में जलधि हूँ, जानो मेरा ध्येय।। 24

 

महर्षियों में भृगु हूँ, दिव्य-वाणि ओंकार।

यज्ञों में जप-कीर्तना, मैं  हिमवान-प्रसार।। 25

 

वृक्षों में पीपल रहूँ , चित्ररथी -गंधर्व।

सिद्धों में मुनि कपिल हूँ, नारद- देव रिश्रर्व। 26

 

उच्चै:श्रवा अश्व मैं,  प्रकटा सागर गर्भ।

ऐरावत गजराज मैं, राजा मानव धर्म।। 27

 

शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गऊओं में सुरीभि।

कामदेव में प्रेम हूँ, सर्पों में वासूकि।। 28

 

फणधारि में अनन्त हूँ, जलचरा वरुणदेव।

पितरों में मैं अर्यमा, न्यायधीश यमदेव।। 29

 

दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमनों में महाकाल।

पशुओं में मैं सिंह हूँ, खग में गरुड़ विशाल।। 30

 

पवित्र-धारि में वायु हूँ, शस्त्रधारि में राम।

मीनों में मैं मगर हूँ, सरि में गंगा नाम।। 31

 

सकल सृष्टि में आदि मैं, मध्य और हूँ अंत।

विद्या में अध्यात्म हूँ, सत्य और बलवंत।। 32

 

अक्षर मध्य अकार हूँ, समासों में द्वंद्व ।

मैं ही शाश्वत काल हूँ, सृष्टा ब्रह्म निद्वन्द।। 33

 

मैं सबभक्षी मृत्यु हूँ, मैं ही भूत-भविष्य।

सात नारि में मैं रहूँ, कीर्ति-श्री -सी हस्य।। 34

मैं और मेधा-सुस्मृति , मैं ही धृति हूँ भव्य।

मैं  ही क्षमा सुनारि हूँ, मैं ही वाक सुनव्य।। 34

 

सामवेद वृहत्साम हूँ, ऋतुओं  में मधुमास।

छन्दों में मैं गायत्री,  अगहन उत्तम मास।। 35

 

छलियों में मैं जुआ हूँ, तेजवान में तेज।

पराक्रमी की विजयी प्रिय, बलवानों की सेज।। 36

 

वृष्णिवंशी वसुदेव हूँ, पांडवों में अर्जुन।

मुनियों में मैं व्यास हूँ, महान उशना- जन।। 37

 

अपराधी का दण्ड मैं, और न्याय की नीति।

रहस्य का मैं मौन हूँ, ज्ञान-बुद्धि की रीति।। 38

 

जनक बीज मैं सृष्टि का, चर-अचरा सब कोय।

नहीं रह सके मुझ बिना, सब जग मुझ में होय।। 39

 

अंत न दैव- विभूति का, यह अनन्त आख्यान।

विशद विभूति हैं मेरी, सार प्रिये तू जान।। 40

 

जो सारा ऐश्वर्य है, या जो है सौंदर्य।

मेरी अनुपम सृष्टि है, सब कुछ मेरा कर्य।। 41

 

विशद ज्ञान ब्रह्मांड का, अंशमात्र यह दृश्य।

सब कुछ धारण मैं करूँ, चले जगत कर्तव्य।। 42

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” ऐश्वर्य वर्णन” दसवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 75 – आठवण ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #75 ☆ 

☆ आठवण ☆ 

किती सांभाळावे स्वतःला कळत नाही

तुला आठवण हल्ली माझी येत नाही…!

 

तू येशील असे मला रोज वाटते बस्

तुला भेटण्याची ओढ जगू ही देत नाही…!

 

मी लपवून ठेवतो तुझ्या आठवणींचा पसारा

हे हसणे ही वरवरचे कितीदा रडू देत नाही…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 93 – अदले-बदले की दुनियॉ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता   ‘अदले-बदले की दुनियॉ….। )

☆  तन्मय साहित्य  # 93  ☆

 ☆ अदले-बदले की दुनियॉ…. ☆

साँझ ढली, सँग सूरज भी ढल जाए

ऊषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

 

अदले-बदले की,  दुनिया के रिश्ते हैं

जो न समझ पाते, कष्टों में पिसते हैं

कठपुतली से रहें, नाचते पर वश में,

स्वाभाविक ही, मन को यही लुभाए।

साँझ ढली……

 

थे जो मित्र, आज वे ही प्रतिद्वंदी हैं

आत्म नियंत्रण कहाँ, सभी स्वच्छंदी हैं

अतिशय प्रेम जहाँ, ईर्ष्या भी वहीं बसे,

प्रिय अपना ही, झूठे स्वप्न दिखाए।

साँझ ढली……

 

चाह सभी को बस, आगे बढ़ने की है

कैसे भी हों सफल, शिखर चढ़ने की है

खेल चल रहे हैं, शह-मात अजूबे से,

समय आज का सब को, यही सिखाए।

साँझ ढली……

 

आदर्शों को पकड़े, अब भी हैं ऐसे

कीमत जिनकी, आँक रहे कंकड़ जैसे

हर मौसम के वार सहे, आहत मन पर,

रूख हवा का नहीं, समझ जो पाए।

साँझ ढली, सँग सूरज भी ढल जाए।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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