हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 91 ☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 91 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 90 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 90 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

विनती प्रभु वर आपसे,

करते बारंबार।

कोरोना के कहर से,

मुक्त करो संसार।।

 

महावीर अब कुछ करो,

सही न जाए पीर।

धीरे धीरे टूटता,

इंसानों का धीर।।

 

समाधान अब चाहिए,

होगा कभी निदान।

धरती देती जा रही,

इंसानों का दान।।

प्राणों की रक्षा करो,

सुनो वीर हनुमान

लाओ तुम संजीवनी ,

बचे सभी के प्राण।।

 

प्रत्याशा अब टूटती,

बची नहीं है आस।

पल पल में अब छूटती,

इंसानों की सांस।।

 

प्रत्याशा मन में रखो,

जीतेंगे संग्राम।

कोरोना के काल में,

जपा करो तुम राम।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 80 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “अपनी-अपनी जान बचाओ। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 80 ☆

☆ अपनी-अपनी जान बचाओ ☆

अपनी-अपनी जान बचाओ

पहले यह सबको समझाओ

 

कोरोना ने पैर पसारा

आत्मबल ही एक सहारा

मास्क मुँह पर सदा लगाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

गीता ने जो हमें सिखाया

कोरोना ने कर दिखलाया

धन-दौलत पर मत इतराओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

कोई नहीं है संगी साथी

छूट गए पीछे बाराती

धीरज-धर्म सदा अपनाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

पल भर में क्या से क्या होता

क्या लाये थे.? किस पर रोता

अहम छोड़ कर अब झुक जाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

एक आस विस्वास वही है

जीवन की हर सांस वही है

प्रभु चरणों में शीश झुकाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

दो गज दूरी बहुत जरूरी

रखो समय के साथ सबूरी

जीवन में कुछ पेड़ लगाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

दिल में गर “संतोष” रहेगा

जीवन में तब जोश रहेगा

मानवता का धर्म निभाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 90 – कुछ दोहे  … हमारे लिए ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपके कुछ दोहे  … हमारे लिए। )

☆  तन्मय साहित्य  # 90  ☆

 ☆ कुछ दोहे  … हमारे लिए ☆

 इधर-उधर सुख ढूँढते, क्यों भरमाये जीव।

बच्चों के सँग बैठ ले, जो है सुख की नींव।।

 

लीलाएं शिशु की अजब, गजब हास्य मुस्कान।

बिरले लोगों को मिले, शैशव सुख वरदान।।

 

शिशु से निश्छल प्रेम ही, है ईश्वर से प्रीत।

आनंदित तन मन रहे, सुखद मधुर संगीत।।

 

रुदन हास्य करुणा मिले, रस वात्सल्य अपार।

नवरस का आनंद है, शैशव नव त्योहार।।

 

स्नेह थपकियाँ मातु की, कुपित प्रेम फटकार।

शिशु अबोध भी जानता, ठंडे गर्म प्रहार।।

 

फैलाए घर आँगने, खेल खिलौने रोज।

नाम धाम औ’ काम की, नई-नई हो खोज।।

 

जातिभेद छोटे-बड़े, पंथ धर्म से दूर।

कच्ची पक्की कुट्टियाँ, बाल सुलभ अमचूर।।

 

बच्चों की तकरार में, जब हो वाद विवाद।

सहज मिलेंगे सूत्र नव, अनुपम से संवाद।।

 

बच्चों में हमको मिले, सकल जगत का प्यार।

बालरूप ईश्वर सदृश, दिव्य रत्न उपहार।।

 

सूने जीवन में भरे, रंग बिरंगे चित्र।

बच्चों सँग बच्चे बनें, उन्हें बनाएं मित्र।।

 

भारी भरकम न रहें, हल्का रखें स्वभाव।

पत्थर पानी में डुबे, रहे तैरती नाव।।

 

बुद्धि विलास बहुत हुआ,तजें कागजी ज्ञान।

सहज सरल हो सीख लें, बच्चों सी मुस्कान।।

 

अधिकाधिक दें हम समय, दें बच्चों पर ध्यान।

बढ़ते बच्चों से बढ़े, मात-पिता की शान।।

 

ज्ञानी ध्यानी संत जन, सब को सुख की चाह।

बस बच्चे बन जाइए, सुख की सच्ची राह।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 11 – जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य ☆ 

 नैनीताल में एक रात बिताकर और हिमालय दर्शन करते हुए हम जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य की ओर चल दिए । नैनीताल के ताल और वन शिखरों को पार करते हुए हम  धीरे-धीरे मैदान की ओर बढ़ रहे थे ।  लेकिन मैदान भी हरे भरे जंगलों और खेतों में उगती हुई नई रबी फसल की  हरियाली  की छटा बिखेर रहे थे । मैं सदैव सोचता हूँ कि रंग बिरंगे फूलों और पत्तों को अपने आँचल में समेटे हुए भारत भूमि के जंगल अद्भुत हैं और यह विश्व भर में इसीलिए भी विलक्षण हैं क्योंकि हमारे जंगलों में रंग-बिरंगी  वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ हैं, हमारी पृकृति एकरंगी नहीं है और इसीलिये हमारी संस्कृति भी बहुरंगी है ।

कार से यह मनमोहक  यात्रा  लगभग तीन घंटे की थी और  इस दौरान हमने तीन  पर्यटक स्थलों का भी भ्रमण किया । नैनीताल से मैदान उतरते ही पहला मनभावक दृश्य कोशी नदी के जल प्रपात का था । थोड़े कम घने जंगलों के मध्य कोई आधा किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम इस जलप्रताप के निकट पहुंचे । शांत प्रकृति के बीच चीतल और लंगूरों के दर्शन हुए तो कुछ पक्षी भी चहचहाते हुए दिख गए । जल प्रताप वन क्षेत्र के अन्दर है और जाहिर है सरकार को शुल्क दिए बिना प्रकृति की इस अनुपम नैसर्गिक  कृति का आनंद आप नहीं ले सकते । कोशी नदी, उत्तराखंड की  प्रमुख पवित्र नदियों मे से के है और  कौसानी के पास से उद्गमित होकर अल्मोड़ा , नैनीताल रामनगर होकर बहती है और आगे रामगंगा से मिल जाती है। यह छोटा सा मनलुभावन जलप्रपात इसी नदी में  कलकल करता बहता है । जलप्रपात जंगल की सीमा के अन्दर है तो इसीलिये बिना टिकट प्रवेश हो नहीं सकता । हम पैदल भी चले और रास्ते भर सागौन के घने  वृक्षों के मध्य जंगली मुर्गियां  व चीतल को निहारते हुए आगे बढ़ते रहे ।

कुछ दूरी पर हनुमानघाट है और यहाँ निर्माणाधीन मंदिर परिसर में हनुमान की चित्ताकर्षक मूर्तियाँ उनके विभिन्न स्वरूपों यथा पंचमुखी हनुमान, बाल हनुमान, राम भक्त हनुमान आदि को दर्शाती हैं और ऊपर की ओर सुन्दरकाण्ड से प्रेरित अनेक भित्तिचित्र हनुमान की महिमा और सीता के खोज के उद्देश्य से उनकी लंका यात्रा को दर्शाते हैं ।

इन दोनों स्थलों को पारकर हम कालाडुंगी पहुँच गए । रास्ते में हमने एक लम्बी और पक्की बाउंड्री वाल भी देखी और फिर जिम कार्बेट का निवास स्थान, उनका अंग्रेजी स्थापत्य की छवि लिए बँगला  भी देखा , जिसे अब इस महान शिकारी, पर्यावरणविद  और भारत प्रेमी की याद में संग्रहालय में बदल दिया गया है । मैं जब महाविद्यालय में अध्ययनरत था तो हमारी अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में एक लम्बी कहानी थी ‘मेन इटर्स आफ कुमायूं’, समय के साथ शिकार की इस कहानी को तो मैं भूल गया पर उसके लेखक जिम कार्बेट की बहादुरी के किस्से मन में बसे रहे और आज उन्ही जिम कार्बेट के बंगले  के सामने मैं खडा था, जहाँ इस मानवता और पशुओं के प्रेमी ने अपनी बहन के साथ भारत के आज़ाद होने तक निवास किया था । जिम कार्बेट की चर्चा चंद पंक्तियों में करना उनके भारत प्रेम के प्रति अन्याय होगा । मैंने संग्रहालय के द्वारा संचालित सुवेनियर शाप से जिम कार्बेट द्वारा लिखी गई  दो पुस्तकें Man Eaters of Kumon व मेरा हिन्दुस्तान (My ।nd।a का हिन्दी अनुवाद ) खरीदी । इस यात्रा वृतांत को लिखते हुए मैं इन दो पुस्तकों को भी पढ़ रहा हूँ और इस महान व्यक्तित्व पर आगे अलग से चर्चा करने का ख्याल मन में उपजने लगा है तो चलिए शिकारी  जिम कार्बेट को यहीँ छोड़कर हम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान का एक चक्कर लगा लें ।

जिम कार्बेट राष्ट्रीय वन अभ्यारण्य के बारे में केवल इतना बताना चाहता हूँ कि 1936 में जब यह अस्तित्व में आया तो इसे हैली नेशनल पार्क नाम दिया गया और फिर 1955-1956 में, जिम कॉर्बेट को श्रद्धांजलि और वन्य जीवन के संरक्षण में उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए, इसे अपना वर्तमान, जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क, नाम मिला। मैं बाघ परियोजना को समर्पित इस उद्द्यान के बारे में इससे ज्यादा चर्चा इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि यह जानकारी तो आपको गूगल महाराज भी दे देंगे । मैं तो आपसे अपनी उस एक मात्र जंगल सफारी की यात्रा का अनुभव साझा करूंगा जिसका भरपूर आनंद मैंने 28 नवम्बर 2020 की हल्की पर चुभन वाली ठण्ड में सुबह सबेरे छह बजे से दस बजे तक लिया । आनलाइन के इस युग में जंगल सफारी के लिए पहले से ही आरक्षण करवाना अनिवार्य है । कोरोना के इस संक्रमण काल में भी जब मैंने रामनगर पहुँच कर इसकी तहकीकात की तो पता चला कि अगले दिन की सफारी मिलना मुश्किल ही है । शुक्र था कि हमने रुपये 3800/- देकर एक जिप्सी पहले ही आरक्षित करवा ली थी । इस लागत में जिप्सी का किराया 2200/- रूपए व वनक्षेत्र में प्रवेश  का शुल्क 1080/-  शामिल है शेष राशि बुकिंग एजेंट के खाते में । हमें गाइड की सुविधा वन विभाग के माध्यम से मिल गई और इसका शुल्क 800/- रुपये अलग से था । झिरना, ढेरा, ढिकाला आदि प्रवेश द्वारों से इस  राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश किया जा सकता है पर हमने बुकिंग एजेंट की सलाह पर बिजरानी गेट से वन गमन सुनिश्चित किया । तराई क्षेत्र के इस घने जंगल के दर्शन तो रामनगर से ही होने लगते है ।  सागौन का सघन  वृक्षारोपण बाहरी इलाके में है और सागौन के ऐसे  लम्बे व मोटे तने युक्त वृक्ष मैंने मध्य प्रदेश के विभिन्न जंगलों में, जहाँ के सागौन की गुणवत्ता सबसे बेहतर है, भी नहीं देखे ।  जंगल के अन्दर तो वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ हैं, ज्यादातर वृक्ष साल के हैं, फिर हल्दू, जामुन, आम, सेमल, बरगद आदि भी बहुतायत में हैं । ऊँचे घने पेड़ों के नीचे लेंटाना व कुरी की झाडियां और घांस सारे जंगल को घेरे हुए हैं। हमारे गाइड ने बताया कि लेंटाना की झाड़ियाँ तेजी से फैलती हैं और इनके उन्मूलन के ‘असफल प्रयास’ वन विभाग द्वारा समय समय पर होते रहते हैं । यह लेंटाना की झाडिया हमने अपने बचपन में भी खूब देखी थी । इसकी बाडी लगाकर बाग़ बगीचों की रक्षा होती थी और लाल पीले रंग के गुच्छेदार फूल व काले रंग के फल किसी काम के न थे । हाँ इसकी बेंत अच्छी बनती थी जिसका उपयोग हमारे शिक्षक व पिताजी हमें सुधारने के लिए अक्सर करते थे । जंगल में अन्दर जाने के पहले हमारे गाइड ने  हमें बताया था कि इस पार्क की खासियत रॉयल बंगाल टाइगर, एशियाई हाथी और घड़ियाल के साथ अन्य  प्रजातियों के जंगली  जानवर जैसे काला  भालू, हिरणों की विभिन्न प्रजातियाँ, बार्किंग डियर, सांभर, चीतल, श्याम मृग आदि  और गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की उपलब्धता है और आपको इन सभी को  देखने का सुनहरा अवसर अवश्य  मिलेगा । इसके अलावा  यहाँ पक्षियों में ग्रेट चितकबरा हॉर्नबिल, सफेद पीठ वाला गिद्ध,मोर, हॉजसन बुशचैट, उल्लू आदि भी दीखते हैं । पर हमारी किस्मत कोई ख़ास अच्छी न थी । हमने बाघ के पदचिन्ह तो खूब देखे पर वनराज हमसे शर्माते ही रहे । गणेश के स्वरुप हाथी तो खैर दिखे ही नहीं बस दो चार ऐसे पेड़ों को हमने देखा जिन्हें रात में हाथियों ने धाराशाई कर दिया था । लेकिन इतनी निराशा की बात भी न थी हम चीतल, सांभर, बार्किंग डियर, जंगली मुर्गियां, सफ़ेद गिद्ध, मोर आदि को उनके ही घर में विचरते हुए देखने  में  कामयाब हुए ।  राम गंगा नदी और दीमक की अनेक विशालकाय बाम्बियाँ हमें जगह जगह दिखी पर मगरमच्छ, और किंग कोबरा जैसे सरीसृप देखने से हम वंचित ही रहे । कोई तीन -चार घंटे हम इस शानदार जंगल में बिताकर वापस अपने ठिकाने क्लब महिंद्रा के जिम कार्बेट रिसोर्ट में वापस आ गए और दोपहर कैसे बिताई जाय इसकी चर्चा रिसार्ट के  गतिविधि विशेषज्ञ से करने पहुँच गए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 41 ☆ तू क्या बला है ए जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘तू क्या बला है ए जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 41 ☆

☆ तू क्या बला है ए जिंदगी 

 

कितने राज छुपा रखे है तूने ए जिंदगी,

आज मुझे किस मोड़ पर पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

दो घड़ी खुशी से गुजारने की तमन्ना थी,

खुशी से पहले ग़मों को पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

दो पल का सब्र तो कर लेती,

क्या पहले कम थे जो और ग़म दे दिए तूने ए जिंदगी ||

सुना था हर रात के बाद एक नई सुबह होती है,

नई सुबह को भी अंधेरी रात में पहुंचा दिया तूने ए जिंदगी ||

एक सीधा सा जीवन ही तो जीना चाहा था,

सुलझे हुए जीवन को उलझा कर रख दिया तूने ए जिंदगी ||

अब तो शाम होने को आई ए जिंदगी,

जाते-जाते तो बतला जा आखिर तू बला क्या है ए जिंदगी ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 93 ☆ आठवण – ७ एप्रिल २०२१ ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 93☆

☆ आठवण – ७ एप्रिल २०२१ ☆ 

आज अभिनेता जितेंद्र चा जन्मदिवस! मी शाळेत असताना जितेंद्र चे खुप सिनेमे पाहिले. शिरूर मध्ये असताना जितेंद्र चं वेड लागलं ! मला आठवतंय, बूँद जो बन गयी मोती, गीत गाया पत्थरों ने, गुनाहों का देवता, अनमोल मोती, औलाद, फर्ज, विश्वास, जिगरी दोस्त…..हे सगळे शिरूर ला तंबूत पाहिलेले सिनेमा.

एकदा मी आणि माझी मैत्रीण ज्योती धनक सतरा कमानी पुलापर्यंत फिरायला गेलो होतो. मी फूल है बहारों का, बाग है नजारों का और चाँद होता है सितारों का…. मेरा तू.. . तू ही तू….  हे गाणं गुणगुणत होते. ज्योती नी विचारलं “जितेंद्र आवडतो का तुला?” मी म्हटलं, हो…” जितेंद्र आणि शशी कपूर…. “त्यावर ज्योती म्हणाली, “शशी कपूर चं लग्न झालंय, जितेंद्र करेल तुझ्याशी लग्न.”

जितेंद्र माझ्याशी लग्न करेल असं मला मुळीच वाटलं नव्हतं, कारण गुड्डी मधल्या जया भादुरी इतकी अतिभावनिक मी कधीच नव्हते. पण ज्योती धनक नी चेष्टेने का होईना , म्हटलेलं ते वाक्य तेव्हा लई भारी वाटलं होतं, त्या नंतर मी जितेंद्र चा प्रत्येक सिनेमा पाहिला.

पन्नास वर्षां पूर्वीची ही आठवण !… जुन्या आठवणी येताहेत कारण आत्मचरित्र लिहायला घेतलं आहे… ज्योती धनक ला आठवतंय का हे पडताळून पहायला आवडेल मला, तसा योग येवो!

*********

आणि तो योग आला व्हाटस् अॅप मुळे जुन्या मित्र मैत्रिणींचे मोबाईल नंबर मिळवणं सोपं झालंय!

एका मित्राने ज्योती धनक चा नंबर दिला. मी तिला फोन केला, आणि विचारलं “तुला आठवतोय का हा जितेंद्रचा किस्सा?”

ती म्हणाली, “म्हणजे काय, मला सगळं आठवलं ”

ज्योती खुप छान बोलली, खुप आपुलकीने, आयुष्यात घडून गेलेल्या घटना परत येत नाहीत पण त्याच्या साक्षीदार असलेल्या मित्र मैत्रिणींमुळे ते क्षण आठवणीत का होईना परत जिवंत करता येतात.

आणि हेच आयुष्यातलं काव्य आहे.

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 103 ☆  संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत   ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय आलेख –  संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत ।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 103☆

? संदर्भ हरिद्वार कुंभ… धार्मिक पर्यटन की हमारी सांस्कृतिक विरासत  ?

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है.  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा , नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं .  हरिद्वार का नैसर्गिक महत्व, ॠषीकेश, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री चार धाम, मनसा देवी पीठ तथा माँ गंगा के कारण हरिद्वार कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर की अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला  विकसित होती है.  प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोजन की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन कुंभ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो कुंभ के विशेषांक ही निकाले हैं. कुंभ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हो रही  हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. कुंभ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं.

कुंभ सदा से धार्मिक ही नहीं एक साहित्य और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा. इस वर्ष कोविड के विचित्र संक्रमण काल में हरिद्वार कुंभ नये चैलेंज लिये आयोजित हो रहा है, हम सब की नैतिक व धार्मिक  सामाजिक जबाबदारी है कि हम कोविड प्रोटोकाल का खयाल व सावधानियां रखते हुये ही कुंभ स्नान व आयोजन में सहभागिता करें, क्योंकि यदि मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन तभी चंगा रह सकता है जब शरीर चंगा रहे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆ इमारतें ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “इमारतें । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆

☆ इमारतें ☆

क्या सोचती हैं यह इमारतें

यूँ ही बरसों से तनहा खड़ी हुई?

 

क्या यह किसी के इंतज़ार में हैं?

या कोई ऐसा दर्द है हो वो

बयान करने में कतराती हैं?

या कोई ऐसा घाव है

जिसपर मरहम तो लगायी कई बार

पर वो उन ज़ख्मों को भर नहीं पायीं?

 

ऊपर से तो कोई दरार नज़र नहीं आती-

पर क्या यह अंदर से टूट चुकी हैं

और कुछ कहती ही नहीं?

 

क्यों नहीं बातें करतीं यह

उनके चहुदिशा में खड़े

उन आसमान छूते दरख्तों से?

या फिर उनपर लहरा रहे पीले फूलों से?

क्या उन्हें सब कुछ बासी सा लगने लगा है?

 

इन इमारतों के भीतर आते-जाते मैंने

कई आदमी देखे हैं…

उनके आगे भी यह क्यों मौन धारण किये हैं?

क्यों नहीं बयान कर देतीं यह अपनी दास्ताँ

किसी ऐसे दोस्त से जो उन्हें समझ सके?

 

सुनो ए इमारत!

बस, अभी तो बसंत का आगमन हुआ है…

यह खिलने का मौसम है,

मुरझाने का नहीं!

चलो, हम-तुम मिलकर ही डोलते हैं

इन लचकती डालियों के संग,

और मस्त हो जाते हैं

इस खूबसूरत समां में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 85 – संस्मरण – बोलता बचपन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “संस्मरण – बोलता बचपन।  हम एक ओर बेटियों को बोझ मानते हैं और दूसरी ओर नवरात्रि पर्व पर उन्हें कन्याभोज देकर  उनके देवी रूप से आशीर्वाद की अपेक्षा करते हैं।  यह दोहरी  मानसिकता नहीं तो क्या है ?  इस  संवेदनशील विषय पर आधारित विचारणीय संस्मरण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 85 ☆

?? संस्मरण – बोलता बचपन ??

‘बेटा भाग्य से और बेटियां सौभाग्य से प्राप्त होती हैं।’  इसी विषय पर पर आज एक  संस्मरण – सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ 

ठंड का मौसम मैं और पतिदेव राजस्थान, कुम्बलगढ़ की यात्रा पर निकले थे। जबलपुर से कोटा और कोटा से ट्रेन बदलकर चित्तौड़गढ़ से कुम्बलगढ ट्रेन पकड़कर जाना था। क्योंकि ट्रेन चित्तौड़गढ़ से ही प्रारंभ होती थी।

हम ट्रेन पर बैठ चुके थे, ट्रेन खड़ी थी। स्टेशन पर मुसाफिरों का आना जाना लगा हुआ था। जैसे ही ट्रेन की सीटी हुई, दौड़ता भागता आता हुआ एक बिल्कुल ही गरीब सा दिखने वाला परिवार अचानक एसी डिब्बा में घुस कर बैठ गया। तीन चार सामान जो उन्होंने साड़ी और चादर की पोटली बना बांध रखा था। तीन बिटियाँ को चढ़ा, एक बेटा और स्वयं पति पत्नी चढ़कर बैठ गए।

सीटी बजते ही ट्रेन चल पड़ी। जल्दी-जल्दी चढ़ने से सभी हाँफ रहे थे, उनको कुछ लोगों ने डाँटा और कुछ सज्जनों ने कहा कि ठीक है अगले स्टेशन पर उतर कर सामान्य डिब्बा में चले जाना।

कंपकंपाती ठंड और उनकी दशा देख बहुत ही दयनीय स्थिति लग रही थी। परंतु बातों से वो बहुत ही बेधड़क, बोले जा रहे थे।

तीनों बच्चियों को महिला बार-बार आँखें दिखा डांट रही थी और पाँच वर्ष का एक बेटा जिसे गोद में बड़े प्यार से बिठा रखी थीं।

बेटे के हिसाब से उसको पूरा स्वेटर मोजा जूता सभी कुछ पहनाया गया था।

परंतु बच्चियों में सिर्फ एक बच्ची के पैरों पर चप्पल दिख रही थी। बाकी दो फटेहाल कपड़ो में दिख रहीं थीं। और फटी साड़ी को आधा – आधा कर सिर  से बांध गले में लपेट पूरे शरीर पर ओढ रखी थीं।

दोनों दंपत्ति भी लगभग कपड़े, स्वेटर, शाल पहने हुए थे। मेरे मन में बड़ी ही छटपटाहट होने लगी।

उसमें से छोटी बच्ची बहुत ही चंचल और नटखट, बार- बार देखकर मुस्कुरा कर कुछ कहना चाह रही थीं।

बातों का सिलसिला शुरु हो गया “आप कहां जा रही हैं आंटी जी?”  बस बात शुरू हो गई। पतिदेव नाराज हो रहे थे परंतु बच्चों की मासूमियत के कारण बात करने लगी।

बात कर ही रही थी कि आँखें दिखा बस महिला बात करना शुरु कर दी…” छोरियां है मैडम जी। बड़ी वाली तो शौक से आई ।बाकी दो छोड़ो वो तो राम जाणे और इस समर्थ बेटे को बहुत मन्नत और पूजा पाठ के बाद पाया है हमणे। या छोरियां तो किसी काम की ना रहेंगी।”

“एक दिन ससुराल चली जाएंगी और वंश तो बेटा ही चलावे है। इसीलिए बेटे की चाह में यह छोरियां हो गई है।”

“इन छोरियों को पालने का जी न करता है, परंतु रुखी- सूखी देकर पाल रहे हैं। सोच रहे हैं बारह-बारह बरस की हो जाएंगी तो शादी कर दूंगी। बाकी खुद जाणेगी।”

पूरे डिब्बे में उनकी बातों को मैं और मेरी सहेली और बाकी सभी सुन रहे थे। सभी आश्चर्य से देखने लगे।

” समर्थ की मन्नत पूरी करने हम चित्तौड़गढ़ माता की मंदिर जा रहे हैं। या छोरियां भी पीछे लग रखी इसलिए लाना पड़ा। बहुत पिटाई की पर नहीं माणी।” तीनों बच्चों के मासूम से मुसकुराते चेहरे हाँ में सिर हिला रहे थे।

ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी। मैं आवाक उसकी बातों को सोचने लगी ‘क्या ऐसा भी होता है कि वाकई माँ- बाप के लिए बेटियां बोझ होती हैं!’ कहने सुनने के लिए शब्द नहीं थे। कुछ बोलने की स्थिति भी नहीं लग रही थीं। तीनों बिटिया गोल बनाकर चिया- चुटिया खेलने में मस्त हो गई थी।

शायद हँसता मुस्कुराता बचपन मानो कह रहा हो “जाने दीजिये हम आखिर छोरियाँ (बेटियाँ) ही तो हैं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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