हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#45 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #45 –  दोहे  ✍

प्यार प्रकट हमने किया, उसने दिया जवाब।

याद दर्द आंसू दिये, बिखराये सब ख्वाब।।

 

आंखें होती चार जब,  जलता प्रेम प्रदीप।

मोती मिलकर जनमते, हो जाते तन सीप।।

 

सुध बुध अपनी भूलकर, खो बैठे सन्यास।

मुनि कौशिक जी ये हुए, रूपराशि के दास।।

 

बादल आकर छा गए, आंखों के आकाश।

मन की धरती सूखती, कौन बुझाए प्यास।।

 

गंध कहीं से आ रही म हक उठा मन देश।

बिखराये हैं आपने, शायद सुरभित केश।।

 

गलत सही जो कुछ कहो, याकि भाव अतिरेक।

जिसको मैं अर्पित हुआ, वह है केवल एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 22 ☆ व्यंग्य ☆ एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 22 ☆

☆ व्यंग्य – एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆

स्वेजनहर में फंसे एवरगिवन जहाज़ के चालक दल के सभी पच्चीस सदस्य भारतीय अवश्य थे मगर वे इंदौरी नहीं थे. होते तो जाम लगने की वजह भी खुद बनते और खुद ही निकाल भी ले जाते. अपन के शहर में ये ट्रेनिंग अलग से नहीं देना पड़ती, आदमी दो-चार बार खजूरी बाज़ार से गुजर भर जाये, बस. एक इंदौरियन विकट जाम में कैसा भी वाहन निकाल सकता है. डिवाईडरों की दो फीट दीवारों पर से एक्टिवा तो वो यूं निकाल जाता है जैसे मौत के कुएँ में करतब दिखा रहा हो. वो ओटलों, दुकानों में से होता हुआ तिरि-भिन्नाट जा सकता है. जब एक्सिलरेटर दबाता है तब जाम में उसके आगे फंसे वाहनों की दीवार ताश के पत्तों सी भरभरा कर ढह जाती हैं. इस वाले काउंट पे जेंडर इक्वलिटी है, मैडम भी स्कूटी ऐसे ई निकाल लेती है.

आईये आपको घुमाकर लाते हैं. ये देखिये, ये अपन की एवरगिवन है, मारुति सियाज़ और ये है अपन की स्वेज़ नहर, खजूरी बाजार इंदौर. इत्ती पतली नहर और इत्ता चौड़ा एवरगिवन!! निकल जाएगी भिया – सीधी आन दो, डिरेवर तरफ काट के, भोत जगा है, सीधी आन दो. अपन की स्वेज़ नहर में अपन की एवरगिवन डेढ़ इंच भी टेढ़ा होना अफोर्ड नहीं कर पाती. हो जाये तो जो जाम लग जाता है उसमें अपन की वाली को टगबोट लगाकर सीधा नहीं करना पड़ता. वो आसपास से गुजरनेवाली आंटियों की गुस्से भरी नज़र से ही सीधी हो जाती है. गुस्सा क्यों न करें श्रीमान ? एक तो चिलचिलाती धूप में एक हाथ मोबाइल कान पर रखने में इंगेज़ है, दूसरे में मटकेवाली कुल्फी का एक टुकड़ा पिघलकर गिरा गिरा जा रहा है, उपर से जेम्स बॉन्ड का नाती हॉर्न पर हॉर्न बजाये जा रहा है. एक टुकड़ा कुल्फी ही तो सुख है – उड़ती धूल, जहरीला धुआँ, कानफोडू हॉर्न, डीजल और पेट्रोल की बदबू के बीच. ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ – शहरयार साहब अब इस दुनिया में रहे नहीं वरना अपने इस सवाल का जवाब उन्हें यहीं मिल जाता.

कहते हैं ताईवान के एवरगिवन के नीचे से रेत निकाली गयी तब जाकर वह हिला. अपन के इधर नीचे गड्ढ़े में रेत भरनी पड़ती है तब जाकर एवरगिवन बाहर आ पाती है. मिस्र देश की नहर में दिक्कत ये है कि पानी गहरा होने के कारण दुकान का काउंटर साढ़े छह फीट आगे तक नहीं निकाला नहीं जा सकता. इधर की स्वेज़ में ये सुविधा है. सुविधाएं और भी हैं – सड़क पे ई होता वेल्डिंग, पंक्चर पकाने की सुविधा, भजिये के ठेले और सांड की टहलकदमी, जुगाड़ के वाहन, बच्चों से लदा-फदा स्कूल-ऑटो, एम्बुलेंस, सूट-टाई में गर्दन पर पैंतीस हारों का बोझ लादे शाकिरमियां की घोड़ी पर पसीने से तरबतर बन्ना और राजकमल बैंड के ‘दिल ले गई कुडी पंजाब दी’ पर झूमते बाराती. बताईये पानी वाली नहर में कहाँ ये सुख है.

चलिये अच्छा उधर देखिये, मैजिक पूरा भरे जाने के लिये बीचोंबीच खड़ा है, इस बीच सामने से आता हुआ दूसरा मैजिक रुक गया है, सवारी को अपने घर के सामने ही उतरना है, वो उतर भी गयी है मगर नाराज़ है. उसका मकान पांच मकान पीछे था, मैजिकवाले ने बिरेक देर से मारा. अब पीछे की ओर ज्यादा चलना पड़ेगा अगले को, पूरे तेरह कदम.

आपके यहाँ गाड़ियों के लिये अलग अलग लेन नहीं होती ? नहीं जनाब, ट्रैफिक के मामले में हम शुरू से ही बे-लेन रेते हेंगे. हम लोग जाम से शिकायत नहीं रखते उसे एंजॉय करते हैं. किवाम-चटनी के मीठेपत्ते का मजा ही कनछेदी की दुकान के सामने बाईक आड़ी टिका के चबाने-थूकने में है, अब जाम लगे तो लगे. मेरिन पुलिस टाइप भी कुछ है नहीं यहाँ. जाम से असंपृक्त वो जो दो पुलिसवाले खड़े हैं रात आठ बजे बाद के जाम का इंतज़ाम मुकम्मल कर रहे हैं. एक के हाथ में रसीद कट्टा है और दूसरे के डंडा. जुगलबंदी कारगर.

ऐसे घनघोर माहौल में कोई इंदौरियन ही वाहन सनन निकाल सकता है, फिर वो स्वेज़ में फंसा एवरगिवन ही क्यों न हो, विकट भिया.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 44 – पेड़ सभी बन गए बिजूके  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “पेड़ सभी बन गए बिजूके … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 44 ।। अभिनव गीत ।।

☆ पेड़ सभी बन गए बिजूके  …  ☆

अध-बहियाँ

पहन कर सलूके ||

धूप , छेद ढूंढती

रफू के ||

 

आ बैठी रेस्त्रां

दोपहरी

देख रही मीनू

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के ||

 

स्वेद सनी

गीली बहस सी

लहलहा उठी

फसल उमस की

 

पेड़ सभी

बन गए बिजूके ||

 

बादल के श्वेत –

श्याम द्वीपों

गरमी है खुले

अंतरीपों

 

मैके में

मौसमी  बहू के ||

 

इधर -उधर

भटकी छायायें

अब उन्हें कहो

घर चली जायें

 

बादल शौक़ीन

कुंग- फू के ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

३०-०३-२०१७

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 90 ☆ परसाई की कलम से …. ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं 9साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है विशेष आलेख परसाई की कलम से ….। )  

स्व.  हरीशंकर परसाई 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 90

☆ परसाई की कलम से …. – प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे ‘यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फ़नी थिंग्ज़।’

एक मेरे पाठक (अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह की हँसी की तिड़तिड़ाहट करते मेरी तरफ़ बढ़ते हैं, जैसे दीवाली पर बच्चे ‘तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ  ले लेते हैं और ही-ही करते हुए कहते हैं—‘वाह यार, खूब मिले। मज़ा आ गया।’ उन्होंने कभी कोई चीज़ मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों में कोई चीज़ नहीं पढ़ी; यह मैं जानता हूँ।

एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं, दूर से ही चिल्लाते हैं ‘परसाईजी, नमस्कार ! मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना !’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में’ एक मज़ाक़िया लेख लिखा था, ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीज़ों के लिए मुझे ज़िम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस, वे जहाँ मिलते ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना’ चिल्लाकर मेरा अभिवादन करते हैं।

कुछ पाठक यह समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हलकेपन के मूड में रहता हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं ! एक पत्र मेरे सामने है। लिखा है—‘कहिए जनाब, बरसात का मज़ा ले रहे हैं न ! मेंढकों की जलतरंग सुन रहे होंगे। इस पर भी लिख डालिए न कुछ।’

बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘तुमने मेरे मामा का, जो फ़ारेस्ट अफ़सर हैं, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।’

कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलाँचें मारता, उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मज़ाक़ शुरू करुँगा तो हम सारा दिन दाँत निकालते गुज़ार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलनेवाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफ़ी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।

एक पाठिका ने एक दिन कहा—‘आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहीं लिखते ?’

और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे—‘तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिए। इट इज़ हाई टाइम !’

व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजडी कोई एक नहीं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है। मज़ा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रियाएँ उसे सुननी पड़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा, काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिए साद गबद्दूपन होता है।

लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते या लिखते हैं, तो मज़ाक़ के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं

जिन पर मैंने व्यंग्य किया है, वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।

आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है, समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी—वग़ैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहें ? अकसर वह यह कहता है—हिन्दी में शिष्ट हास्य का अभाव है। (हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिन्दी में हास्य-व्यंग्य का अभाव है) हाँ, वे  यह और कहते हैं—विद्रूप का उद्घाटन कर दिया,  पर्दाफ़ाश कर दिया है, करारी चोट की है, गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा और क्या करे ?

जीवन-बोध, व्यंग्यकार की दृष्टि, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश के प्रति उसकी प्रतिक्रिया, विसंगतियों की व्यापकता और उनकी अहमियत, व्यंग्य-संकेतों के प्रकार, उनकी प्रभावशीलता, व्यंग्यकार की आस्था, विश्वास—आदि बातें समझ और मेहनत की माँग करती हैं। किसे पड़ी है ?

अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने को ‘प्राफ़ेट’ समझते हो ? ‘फ़नी’ कहने पर बुरा मानते हो। खुद हँसते हो और लोग हँसकर कहते हैं—मज़ा आ गया, तो बुरा मानते हो और कहते हो—सिर्फ़ मज़ा आ गया ? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनाएं हलकी मानी जाती हैं और दो घड़ी की हँसी के लिए पढ़ी जाती हैं।

(यह बात मैं अपने आपसे कहता हूँ, अपने आपसे ही सवाल करता हूँ।) जवाब : हँसना अच्छी बात है। पकौड़े-जैसी नाक को देखकर भी हँसा जाता है, आदमी कुत्ते-जैसे भौंके तो भी लोग हँसते हैं। साइकिल पर डबल सवार गिरें, तो भी लोग हँसते हैं। संगति के कुछ मान बने हुए होते हैं—जैसे इतने बड़े शरीर में इतनी बड़ी नाक होनी चाहिए। उससे बड़ी होती है, तो हँसी होती है। आदमी आदमी की ही बोली बोले, ऐसी संगति मानी हुई है। वह कुत्ते-जैसा भौंके तो यह विसंगति हुई और हँसी का कारण। असामंजस्य, अनुपातहीनता, विसंगति हमारी चेतना को छेड़ देते हैं। तब हँसी भी आ सकती है और हँसी नहीं भी आ सकती—चेतना पर आघात पड़ सकता है। मगर विसंगतियों के भी स्तर और प्रकार होते हैं। आदमी कुत्ते की बोली बोले—एक यह विसंगति है। और वन-महोत्सव का आयोजन करने के लिए पेड़ काटकर साफ़ किये जायें, जहाँ मन्त्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष’ की कलम रोपें—यह भी एक विसंगति है। दोनों में भेद, गो दोनों से हँसी आती है। मेरा मतलब है—विसंगति की क्या अहमियत है, वह जीवन में किस हद तक महत्त्वपूर्ण है, वह कितनी व्यापक है, उसका कितना प्रभाव है—ये सब बातें विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।

—लेकिन यार, इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हलका ही माना जाता है।

—माना जाता है तो मैं क्या करूँ ? भारतेन्दु युग में प्रताप नारायण मित्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे, वह कितनी पीड़ा से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी क़ौम के रहनुमा से ज़्यादा रोते थे। हाँ, यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ। ‘मदारी’ और ‘डमरू’, ‘टुनटुन’—जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’—जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिए रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यह मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है कि काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना ही कार्टून छापना पड़ता है। बात यह है कि उर्दू-हिन्दी की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली, जिसने हास्यरस को भड़ौआ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की ज़रूरत में से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुगताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं ! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हलके, ग़ैर-ज़िम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।

—और ‘पत्नीवाद’ वाला हास्यरस ! वह तो स्वस्थ है ? उसमें पारिवारिक सम्बन्धों की निर्मल आत्मीयता होती है ?

—स्त्री से मज़ाक़ एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुए का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही, उसका कोई अस्तित्व नहीं बनने दिया गया, वह अशिक्षित रही, ऐसी रही—तब उसकी हीनता का मजा़क़ करना ‘सेफ़’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये—ख़ास कर साला; गो हर आदमी किसी-न-किसी का साला होता है। इस तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईसज़ादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख, सनकी और पौरुषहीन हो, वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिए सिकन्दर मियाँ चाहे बुद्धिमान हों, मगर जानबूझकर बेवकूफ़ बन जाते हैं। क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्दीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नज़र से उस परिवार की कहानी कहें, तो और अच्छा हो।

—तो क्या पत्नी, साला, नौकर, नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है ?

—‘वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें देखकर बीवी की मूर्खता बयान करना बड़ी संकीर्णता है।

और ‘शिष्ट’ और ‘अशिष्ट’ क्या है ? अकसर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं, जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या साले की मज़ाक़ का ‘शिष्ट’ हास्य करते रहें और उसपर चोट न करें वह ‘अशिष्ट’ है। हमारे यहाँ तो हत्यारे ‘भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी शिष्टता बरतने की माँग की जाती है—‘अगर जनाब बुरा न मानें तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर’। व्यंग्य में चोट होती ही है। जिन पर होती है वे कहते हैं—‘इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिए।’

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 40 ☆ थेंब … ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 40 ☆ 

☆ थेंब … ☆

थेंबाला माहीत नव्हतं

कुठे कसं पडायचं

आभाळाने सोडल्यावर

कुणाच्या आश्रित व्हायचं…१

 

आला बिचारा खाली

वेग त्याचा मंदावला

असंख्य थेंबात मग

त्याला सहारा मिळाला…२

 

कुणी कुठे कुणी कुठे

याला गटार मिळाली

हवेच्या प्रचंड झोतात

याची दिशा बदलली…३

 

थेंब अवतरण्यापूर्वी

होता शुद्ध, निर्मळ

गटारात पडताच पहा

याच्या भोवती कश्मळ…४

 

सहवास महत्वाचा असतो

आचार तेव्हाच साधतो

जन्माने कुणीच नसतो श्रेष्ठ

कर्माचा वाटा, मोठा ठरतो…५

 

मला इतकेच, सांगायचे

राज हेच होते, खोलायचे

उच नीच श्रेष्ठ नि कनिष्ठ

यातून बाहेर सर्वांनी पडायचे…६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 93 ☆ व्यंग्य – देश के काले सपूतों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘देश के काले सपूतों की कथा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 93 ☆

☆ व्यंग्य – देश के काले सपूतों की कथा

जब देश के समझदार लोगों के हिसाब से देश की अर्थव्यवस्था नाजुक हालात में पहुँच गयी, भुगतान संतुलन एकदम बरखिलाफ हो गया और हमारे विदेशी महाजन कर्ज़ देने के नाम पर मुँह बनाने लगे, तब हमारी गौरमेंट ने देश के उन सपूतों को याद किया जिनकी कमाई अभी तक काली कमाई कहलाती थी और जिसे बाहर निकलवाने के लिए सरकार कई ‘स्वैच्छिक घोषणा’ योजनाएं लागू कर चुकी थी। इन काले सपूतों से सरकार ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि वे मातृभूमि की सेवा को आगे आएँ और अपने तथाकथित काले धन का सफेद निवेश कर देश की तरक्की में अपना अमूल्य योगदान दें। बड़े बड़े उद्योग स्थापित कर देश की गरीबी को दूर करें और बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराएं। उनके काले धन को पूरी तरह सफेद समझा जाएगा और उनसे कोई नहीं पूछेगा कि उन्होंने उसे कब, कैसे और कहाँ से कमाया। अगर गौरमेंट ने उनकी शान के खिलाफ कभी कुछ कह दिया हो तो उसे दिल में न रखें।

यह घोषणा होते ही देश के सभी शहरों से तथाकथित काले धन के स्वामियों की टोलियों की टोलियाँ निकल कर सड़कों पर आने लगीं। इनमें मामूली क्लर्कों से लेकर भारी भरकम अधिकारी तक कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे। पुराने खुर्राट भी थे और नये नये रंगरूट भी। सभी का चेहरा मातृभूमि की सेवा के भाव से दपदपा रहा था। देर आयद दुरुस्त आयद। देर से ही सही, गौरमेंट ने उनकी अहमियत को समझा तो। आखिरकार सरकार की समझ में आ गया कि उनके बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता।

सभी खास शहरों में ऐसे सपूतों की सभाएं हुईं। जलसे का आलम था। लाउडस्पीकर पर गीत बज रहा था—‘चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।’

शुरू में सभाओं में कुछ दिक्कत हुई। आला अफसरों ने कहा कि अलग अलग वर्गों की सभाएं अलग अलग होनी चाहिए। भला आला अफसर और मामूली क्लर्क एक ही मंच पर कैसे बैठ सकते हैं?इस पर कुछ क्लर्कों ने छाती ठोक कर कहा कि हैसियत नाप कर देख लो,माल कमाने के मामले में हम अफसरों से कम नहीं हैं। अन्ततः यह झगड़ा अगली सभा के लिए टाल दिया गया और सब जाति-धर्म वाले सारे भेद भुलाकर एक ही मंच पर विराजमान हुए।

मेरे शहर की सभा में सबसे पहले तीरथ प्रसाद जी का अभिनन्दन हुआ जिनके सारे केश काली कमाई बटोरते बटोरते सफेद हो गये थे। तीरथ प्रसाद जी रेत से तेल निकालने के विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्होंने कई नौसिखियों को ट्रेनिंग देकर अपने पैरों पर खड़े होने योग्य बनाया था। वे अपने भाषण में बोले, ‘मुझे खुशी है कि सरकार ने हमारी योग्यता और क्षमता को समझा। जब जागे तभी सबेरा। समाज को भी समझना चाहिए कि पैसा उसी के पास आता है जिसमें सामर्थ्य होती है। जब तुलसीदास ने कहा है ‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं’ तो हम पर दोष कैसे लगाया जा सकता है?अब वक्त आ गया है कि समाज हमारी कदर करे और हमें वह इज़्ज़त दे जिसके हम हकदार हैं।’

एक वक्ता बोले, ‘समाज आलोचना तो  करता है,लेकिन यह नहीं समझता कि काली कमाई क्या चीज़ है। काली कमाई सब धर्मों और जातियों से ऊपर है और सब धर्मों जातियों को एक दूसरे से बाँधती है। हम काली कमाई वाले सब मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे को सहयोग देते हैं और मैत्रीभाव रखते हैं। आपने कभी नहीं सुना होगा कि एक काली कमाई वाले ने दूसरे की पोल खोल दी। धर्म और जाति से परे ऐसी एकता का नमूना आपको कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए हमें समाज की नासमझी पर तरस आता है।’

एक और वक्ता बोले, ‘सरकार बैंक खोलकर लोगों की कमाई इकट्ठी करती है ताकि वह देश और समाज के काम आ सके। हम भी अपने स्तर पर वही काम करते हैं। हमारे पास बहुत से लोगों की कमाई इकट्ठी है। सरकार दो नंबर का लेबिल हमारे ऊपर से हटाये तो उसे देश के उत्थान के लिए सामने लायें ‘

एक वक्ता बड़े गुस्से में थे। फुफकार कर बोले, ‘इस काली कमाई के ठप्पे की वजह से हमें कितना पाखंड करना पड़ा। हम हवाई जहाज पर चलने की ताकत रखते हैं लेकिन मजबूरन ट्रेन के सेकंड क्लास स्लीपर में चलना पड़ता है। मर्सिडीज कार खरीदने की क्षमता रखते हुए भी स्कूटर से काम चलाना पड़ता है। महलों में रहने की सामर्थ्य होते हुए भी छोटे से घर में गुज़र करनी पड़ती है।  काली कमाई का हौवा दिखाकर हमें चोरों की तरह रहने के लिए मजबूर किया गया। हमें अपना जीवन जिस तरह झूठे अभावों और ओढ़े हुए दुखों में गुज़ारना पड़ा है उसके लिए क्या सरकार भारापाई करेगी? क्या सरकार हमारे उस वक्त को लौटा सकती है?’

कई श्रोता रूमाल से अपनी आँखें पोंछने लगे।

एक वक्ता मंच पर खड़े होते ही माइक पकड़कर रोने लगे। कुछ संयत हुए तो सुबकते हुए बोले, ‘इस सरकारी नीति ने हमारा लाखों का नुकसान किया है। मैंने पकड़े जाने के डर से अपनी तीन बसें अपने एक साले के नाम कर दी थीं। वह साला उन तीनों को हजम कर गया। आजकल बात भी नहीं करता। अब मेरी समझ में आया कि लोग ‘साला’ को गाली की तरह क्यों इस्तेमाल करते हैं। एक और साले ने सात लाख रुपये उधार लिये थे। अब वह भी नट रहा है। कहता है समझो हराम की कमाई हराम में चली गयी। एक साढ़ू के नाम से होटल खोला है, लेकिन हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं वह भी बेईमान न हो जाए। मैं इतना परेशान रहता हूँ कि मेरा ब्लडप्रेशर बढ़ गया है। ईमानदारी तो कहीं रही नहीं। हम अपनी गाढ़ी कमाई कहाँ रखें? अब सरकार हमारी कमाई को मान्यता दे रही है। अब एक एक को समझ लूँगा।’

वातावरण बिगड़ते देख तीरथ प्रसाद जी ने लपक कर फिर से माइक थाम लिया। बोले, ‘भाइयो, आज का दिन गिलों शिकवों का नहीं है। आज का दिन तो खुशी और आभार प्रदर्शन का है। आज से हम समाज में गर्व से सिर उठाकर चल सकते हैं। आज हम यहाँ शपथ लें कि हम तन, मन और धन से देश के उत्थान में समर्पित हो जाएंगे। आज इस मंच से हम देश और प्रदेश की सरकारों से अनुरोध करते हैं कि विकास और वित्त के सभी महत्वपूर्ण मामलों में हमारी राय ली जाए। हमारे पास इन विषयों के विशेषज्ञ मौजूद हैं। बस मौका मिलने की देर है।’

इसके बाद सभी ने छाती पर हाथ रखकर शपथ ली कि वे पूरी ईमानदारी से देश की बहबूदी और समृद्धि में लग जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक हमारा देश विकास के शिखर पर स्थापित न हो जाए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 92 ☆ जागरण ☆

माँ, सुबह के कामकाज करते हुए अपने मीठे सुर में एक भजन गाती थीं, “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।”

बरसों से माँ का यह स्वर कानों में बसा है। माँ अब भी गाती हैं। अब कुछ शरीर साथ नहीं देता, कुछ भूल गईं तो समय के साथ कुछ भजन भी बदल गये।

यह बदलाव केवल भजन में नहीं हम सबकी जीवनशैली में भी हुआ है। अब 24×7 का ज़माना है। तीन शिफ्टों में काम करती अधिकतम दोहन की व्यवस्था है। रैन और नींद का समीकरण चरमरा गया है। ‘किचन’ में ज़बरिया तब्दील किया जा चुका चौका है, चौके के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ी पड़ी हैं। आधी रात को माइक्रोवेव के ऑन-ऑफ होने और फ्रिज के खुलते-बंद होते दरवाज़े की आवाज़े हैं। टीवी की स्क्रिन में धँसी आँखें प्लेट में रखा फास्ट फूड अनुमान से तलाश कर मुँह में ठूँस रही हैं।

हमने सब ध्वस्त कर दिया है। प्रकृति के साथ, प्राकृतिक शैली के साथ भारी उलट-पुलट कर दिया है। भोजन की पौष्टिकता और उसके पाचन में सूर्यप्रकाश व उष्मा की भूमिका हम बिसर चुके। मुँह अँधेरे दिशा-मैदान की आवश्यकता अनुभव करना अब किवदंती हो चुका। अब ऑफिस निकलने से पहले समकालीन महारोग कब्ज़ियत से किंचित छुटकारा पाने की तिकड़में हैं।

देर तक सोना अब रिवाज़ है। बुजुर्ग माँ-बाप जल्दी उठकर दैनिक काम निपटा रहे हैं। बेटे-बहू के कमरे का दरवाज़ा खुलने में पहला पहर लगभग निपट ही जाता है। ‘हाई प्रोफाइल’ के मारों  के लिए तो शनिवार और रविवार ‘रिज़र्व्ड टू स्लिप’ ही है। बिना लांघा रोज होता सूर्योदय देखने से वंचित शहरी वयस्क नागरिकों की संख्या नए कीर्तिमान बना रही है।

कबीरदास जी ने लिखा है-

कबीर सुता क्या करे, जागिन जपे मुरारि

इक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारि।

लम्बे पाँव पसार कर सोने की बेला से पहले हम उठ जाएँ तो बहुत है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 48 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 48 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 48) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 48☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हुजूर, दोस्ती में कहाँ

कोई उसूल होता  है

जो  जैसा  है  वैसे

ही  कुबूल  होता  है..!

 

When does friendship

 follow any principle

Friends  are  always

accepted as they are!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कब धूप चली, कब शाम ढली

किस  को  ख़बर  है…

इक उम्र से मैं अपने ही

साये  में  खड़ा  हूँ…

 

Who knows if it was sunshine

or when would Sun set in,

I’ve just been standing in my

own  shadow  since  ages..!

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खाक उड़ती है रात भर मुझ में

कौन फिरता है दर-ब-दर मुझ में,

मुझको खुद में जगह नहीं मिलती,

तू  है मौजूद इस  कदर  मुझ में…!

 

Dust blows into me 

through out the night

Who is that always

wanders around in me…

 

I do not find a place

for myself in me…

You are filled in me

to  such  an  extent…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फिर मेरे हिस्से में आएगा

समझौता  कोई…

आज फिर कोई कह रहा था

समझदार  हो  तुम…

 

Yet again a compromise

will be coming in  my share…

Today again someone was

saying you are intelligent…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 49 ☆ सरस्वती वंदना अलंकार युक्त ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  एक रचना   ‘सरस्वती वंदना अलंकार युक्त। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 49 ☆ 

☆ सरस्वती वंदना अलंकार युक्त ☆

*

वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ

– वृत्यानुप्रास  (आवृत्ति व्)

कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ

-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)

*

नित सूरज  दैदीप्य हो, करता तव वंदन

– श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)

ऊषा गाती-लुभाती, करती अभिनंदन

– अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती) 

*

शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार

– वैणसगाई (श, क) 

हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार

– लाटानुप्रास (हंस)

*

बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार

– पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)

जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार

– यमक (जल = पानी, आँसू)

*

मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव

– श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)

रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव? 

– वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)  

*

कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम 

– पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)

मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम

– उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), – अनन्वय (शारद)

*

सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो ‘सलिल’ चकोर 

– रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)

शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर 

– व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 81 ☆ लोकगीत – मरल बेचारा गांव …. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावपूर्ण रचना  “मरल बेचारा गांव….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 81 ☆ लोकगीत – लोकगीत – मरल बेचारा गांव…. ☆

घरे के उजरल ओर बड़ेर,

सगरो उजरल गाॅव।

दुअरा के कुलि पेड़ कटि गयल,

ना बचल दुआरें छांव।

खतम हो गइल  पोखर ताल ,

सूखि गइल कुअंना गांवे कै‌।

खतम भयल पनघट राधा के,

बांसुरी मौन भईल मोहन के।।१।।

 

कउआ गांवै छोडि परइलै ,

गोरिया के सगुन बिचारी के।

सुन्न हो गयल पितर पक्ख,

आवा काग पुकारी के।

झुरा गइल तुलसी कै बिरवा,

अंगना दुअरा के बुहारी के।

लोक परंपरा लुप्त भईल ,

एकर दुख धनिया बनवारी के।।२।।

 

बाग बगइचा कुलि कटि गइलै,

आल्हा कजरी बिला गयल।

चिरई चहकब खतम भयल,

झुरमुट बंसवारी कै उजरि गयल।

नाहीं बा घिसुआ कै मड़ई,

नाहीं रहल अलाव।

अब नांहीं गांवन में गलियां,

नाहीं रहल ऊ गांव।।३।।

 

अब नांही बा हुक्का-पानी,

ना गांवन में लोग।

जब से छोरियां गइल सहर में,

ली आइल बा प्रेम का रोग।

जब से गगरी बनल सुराही,

शहर चलल गांवों की ओर।

लोक धुनें सब खतम भइल,

खाली डी जे कै रहि गयल शोर।

अब गावें से खतम भयल बा,

गुड़ शर्बत औ पानी।

अब ठेला पर बिकात हौ,

थम्स अप कोका बोतल में पानी।।४।।

 

जब-जब सूरू भइल गांवे में,

आधुनिक दिखै के अंधी रेस।

गांव में गोधना मजनूं बनि के,

धइले बा जोकर कै भेष ।

जवने दिन शहर गांव में आइल,

उजरि गइल ममता कै छांव।

सब कुछ खतम भयल गांवें से,

मरल बेचारा प्यारा गांव।।५।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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