हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 18 ?

? मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम-  मैं कविता नहीं करता

विधा- कविता

कवि- डॉ. सत्येंद्र सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

संवेदना कविता का प्राणतत्व है। स्वाभाविक है कि कवि संवेदनशील होता है। कवि भौतिकता की अपेक्षा वैचारिकता में जीवन व्यतीत करता है। उसके चिंतन का आधार मनुष्य के चोले में बीत रहे जीवन की सार्थकता है। प्रस्तुत कवितासंग्रह  ‘मैं कविता नहीं करता’ में कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह मनुष्य के रूप में जीवन की पड़ताल करते हुए दिखाई देते हैं।

मैं कविता नहीं करता

अपने आपको देखता हूँ…,

कब मुझे प्रभावित किया-

अहंकार ने, क्रोध ने, लालच ने

और मैं कब गिरा, कब खड़ा हुआ..।

मनुष्यता की भावनाओं में कृतज्ञता प्रमुख है। जिनसे जीवन पाया, जिनके चलते पोषण मिला,जिनसे जीवन का अर्थ मिला, जिन्होंने जीवन को सही मार्ग दिखाया, जिनके कारण जीवन जी सके, उन सब के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना मनुष्यता है। ‘दीप की चाहत’ कविता में यह कृतज्ञता कुछ यूँ शब्द पाती है-

मैं दीप जलाना चाहता हूँ,

उस खेत के कोने में-

जहाँ एक पूरे परिवार ने,

अपने परिश्रम से हमें

अनाज, फल, सब्जी देकर

ज़िंदा बनाए रखा।

कृतज्ञता के साथ सामासिकता और समता भी मानवता के तत्व हैं। कवि की यह आकांक्षा देखिए-

न प्रतिभा दमन हो,

न हो श्रम शोषण,

अखंड विकास ही

केवल साध्य हो।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज, समूह से बनता है। इस सत्य से परिचित होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की यह नादानी भी देखिए-

मुझसे कोई श्रेष्ठ नहीं,

मुझसे कोई ज्येष्ठ नहीं,

जो हूँ, मैं ही हूँ, बस

और कोई नहीं..!

नादानी की पराकाष्ठा है कि मनुष्य आत्मकेंद्रित संसार बनाने के मंसूबे बांधना नहीं छोड़ता। इस संदर्भ में कवि की स्पष्टोक्ति देखिए-

हाँ,‘मैं’ का संसार बन सकता है,

अहंकार का संसार बन सकता है,

पर वह होगा नितांत आभासी,

जब तक मेरे साथ तू न होगा.

तब तक संसार नहीं होगा।

कवि अदृश्य ईश्वर को दृश्यमान बनता देखता है और लिखता है-

कहते रहे लोग,

सुनते रहे हम,

रचयिता अदृश्य है

और देखते भी रहे

रचयिता को

दृश्यमान बना रहे हैं लोग।

दृश्यमान की संभावना को अपरिमित करते हुए कवि फिर प्रश्न करता है-

तुम कण-कण में हो-

आप्त वचन है,

फिर एक ही प्रस्तर में क्यों?

यह कोई साधारण प्रश्न नहीं है। कण-कण में ईश्वर को देखने के लिए दृष्टि के पार जाना होता है। पार के बाद अपार होता है और अपार में अपरंपार का दर्शन होता है।

मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ में सेवाएँ दे चुका व्यक्तित्व स्वाभाविक है कि अपने भीतर एक आध्यात्मिक, दार्शनिक उमड़-घुमड़ अनुभव करे। इस आध्यात्मिकता और दर्शनिकता का सराहनीय पक्ष यह है कि कोई मुलम्मा चढ़ाए बिना, अलंकार और रस की चाशनी में डुबोए बिना, कवि जो देखता है, कवि जो सोचता है, वही लिखता है।

यद्यपि कवि ने संग्रह को ’मैं कविता नहीं करता’ शीर्षक दिया है तथापि अनेक स्थानों पर भीतर का कवित्व गागर में सागर-सा प्रकट हुआ है।

निरालंब होने हेतु

ढूँढ़ता हूँ अवलंब..!

मानवता के इतिहास के उपलब्ध न होने की दस्तावेज़ी बात कविता में थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त होती है। कुछ पंक्तियों में लघुता से प्रभुता की यात्रा पूर्ण होती है।

इतिहास के लिए

कुछ करना होता है,

…जैसे युद्ध।

बिना युद्ध वालों का ज़िक्र

कहीं मिला तो

युद्ध के कारण ही।

…इसीलिए

मनुष्यता का

कोई इतिहास नहीं है।

बुज़ुर्ग रचनाकार के पास जीवन का विपुल अनुभव है।  यह अनुभव आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन के रूप में कविता में स्थान पाता है। कुछ बानगियाँ देखिए-

जिस विगत की उपेक्षा की,

वर्तमान बदलने की इच्छा की,

तो आगत भयावह बन गया,

जो स्वयं नहीं किया कभी,

औरों के  लिए  उद्देश्य बन गया।

अस्तित्व जिस रूप में है,

स्वीकार करो, उपभोग करो,

अपना जीवन सार्थक करो।

अतीत में ही बने रहना,

आदमी का वृद्धत्व है,

कहते गए विद्वान जग में,

आज में जाग बुुद्धत्व है।

यह सूचनाक्रांति का युग है। हर क्षण चारों ओर से मत-मतांतर उँड़ेले जा रहे हैं। अनुभव-संपन्न और प्रबुद्ध होने पर भी दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है- 

मैं सोचता रहता हूँ कि

मैं, मैं हूँ या एक विचार,

जिसका स्थायित्व नहीं

अस्तित्व नहीं,

पता नहीं कब बन जाती है

विचारों की दुनिया,..मेरी दुनिया,

जहाँ विचार ही होते हैं

पर मैं कहीं नहीं होता।

पूरे संग्रह में आम नागरिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा है कवि। आम नागरिक, जिसकी बड़ी आकांक्षाएँ नहीं हैं। आम नागरिक, जो बोलता कम है, लेकिन समझता सब है। आम नागरिक, जिसके लिए उसका राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति प्रेम अहम बिंदु हैं (संदर्भ-भारत माता, 26 जनवरी, देशप्रेम व अन्य कविताएँ)। आम नागरिक जिसे रामराज्य चाहिए, माता जानकी का निर्वासन नहीं (संदर्भ- ओ अयोध्या वालो!)। आम नागरिक जो जानता है कि राजनीति कैसे सब्ज़बाग दिखाती है। जनता को उपदेश पिलाना और पालन के नाम पर स्वयं, शून्य रहना अब सामान्य बात हो चली है। (संदर्भ- कर्तव्य की वेदी पर)। कवि ने जो भोगा है, जो अनुभव किया है, किसी नामोल्लेख के बिना पद्य में अनेक स्थानों पर उसे संस्मरण-सा लिखा है (संदर्भ-कंधे और कुछ अन्य कविताएँ)।

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ भारत के आम आदमी का प्रतिरूप है। एक वाक्य में कहूँ तो- ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ हैं, ‘मैं कविता नहीं करता।’

इस आम आदमी का कहना कि मैं कविता नहीं करता, एक रूप में सही है। उनके शब्द सहज हैं, सरल हैं। इनमें भाव हैं, ये अनुभव से उपजे हैं। ये प्राकृतिक रूप से उमगे हैं, इन्हें  कविता में लिखने का प्रयास नहीं किया गया है।

तथापि इन रचनाओं के शब्द इतने व्यापक और मुखर हैं कि व्यक्तिगत होते हुए भी इनका भावजगत, इनकी ईमानदारी, इन्हें समष्टिगत   कर देती है। तब कहना पड़ता है कि ’यह आदमी करता है कविता।’

कामना है कि कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह के इस संग्रह को पाठकों का समुचित समर्थन मिले।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #25 – गीत – जीवन है अनमोल… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत जीवन है अनमोल

स्वाभिमान मंच पंजाब द्वारा प्रस्तुत एवं सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ जी के गीतों पर आधारित कार्यक्रम “चलो माँ के दर्शन को…🙏” 

? रचना संसार # 25 – गीत – जीवन है अनमोल…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

भटक रहा ये मनवा क्यों है,

दूर करो अँधियार।

ध्यान करोगे प्रभु का जब तुम,

तब होगा उजियार।।

 *

डोरी कच्ची है जीवन की,

कर लो अच्छे काम।

राग द्वेष को छोड़ जपो तुम

निशदिन प्रभु का नाम।।

अंतस के दर्पण में प्राणी,

रख लो श्रेष्ठ विचार।।

 *

धरती से नभ तक है सत्ता,

महिमा प्रभु की जान,

जीव जीव में प्रभु बसते हैं,

सत्य यही पहचान,

सबके पाप पुण्य का लेखा ,

रखते हैं करतार।।

 *

मानवता की ज्योत जलाकर,

कर सबसे अनुराग।

साथ नहीं जाती धन दौलत

अहंकार को त्याग,

खोल झरोखे बुद्धि ज्ञान के,

आत्मशक्ति स्वीकार।।

 *

सदा धर्म की राह चलो हम

जीवन है अनमोल       

दीन दुखी की कर लें सेवा

मीठी वाणी बोल।।

शीलवंत गुणवंत बनें हम

तब होगा उद्धार।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #253 ☆ भावना के दोहे – अम्बे माँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – अम्बे माँ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 253 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  अम्बे माँ  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

माँ तुम जननी जगत की, करती जग उद्धार।

कृपा आपकी बरसती, मिलता प्यार अपार।।

*

दीप ज्ञान का जल रहा, लगता माँ में ध्यान।

 राह कठिन है माँ करो, मेरा तुम कल्याण।।

*

ब्रह्मचारिणी  मातु को, करते सभी प्रणाम।

नौ देवी की नवरात्रि, द्वितीय तेरे नाम।।

*

तप करती  तपश्चारिणी, निर्जल निरहार।

हाथ जोड़कर पूजते, हो देवी अवतार।।

*

करना अंबे तुम दया, रखना मेरी लाज।

भक्तों के तुम कर रही, माता पूरे काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #234 ☆ संतोष के दोहे – श्री राजेश पाठक प्रवीण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 235 ☆

☆ संतोष के दोहे – श्री राजेश पाठक प्रवीण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(संस्कारधानी जबलपुर के सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हमारे अनुज श्री राजेश पाठक प्रवीण पर कुछ दोहे)

हर दिल में बसते सदा, सबके प्रिय राजेश

बिन बोले ही समझते, भाव सभी भावेश

*

संकट में भी साथ दें, दिल है बहुत उदार

रख मन में संवेदना, सुनते करुण पुकार

*

मित्रों के भी मित्र हैं, और बड़े सालार

जब जो भी इनसे मिला, माने वो आभार

*

एक बार जो भी मिले, इनका ही हो जाय

राधा, मीरा सी बने, प्रेम न हृदय समाय

*

तुमसे मिल बजने लगे, कानों में संगीत

प्रीत पनपती हृदय में, लगते सबके मीत

*

एक बार सौभाग्य से, साथ गए बैंकॉक

हिंदी भाषा की वहां, खूब जमाई धाक

*

मित्र नहीं राजेश सा, अपना यह अहसास

चलते उनके साथ जब, बन जाते हैं खास

*

गिरते को जो थाम ले, ऐसे सच्चे मित्र

सबको ही संतोष हो, ऐसा सुखद चरित्र

*

करती हैं माँ शारदे, जिन पर कृपा सदैव

जब जैसा वह चाहते, होता वही तथैव

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 145 ☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 145 ☆

☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू –पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? ‘

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी ! कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं। एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग —- ‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 216 ☆ बिन माँगे मोती मिले… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिन माँगे मोती मिले। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 216 ☆ बिन माँगे मोती मिले

स्वदेश, परदेश, उपदेश का बहुत गहरा नाता है लोग चाहें या न चाहें ज्ञान बाँट देते हैं। जैसे ही पता चलता है कोई अनचाही समस्या से ग्रस्त है तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने हेतु दिग्गजों की लाइन लग जाती है। एक गया नहीं कि दूसरा हाजिर अब बेचारी घर की महिलाएँ तो चाय पानी में व्यस्त हो जातीं हैं।

दुःखी व्यक्ति सबकी सलाह सुनकर मन ही मन प्रण लेता है कि अब कुछ हो जाए किसी के सामने उदास नहीं होना वरना इतने सुझाव मिलते हैं कि कौन सा अपनाएँ यही समझ में नहीं आता। हर पल सकारात्मक रहिए, ऐसा व्यवहार कि आपसे मिलकर जो भी जाए वो मुस्कुराते हुए दिखना चाहिए। मधुर व्यवहार की कला जिसको आती है उसे सबको अपना बनाने में देर नहीं लगती है। चीजों को अपने अनुरूप करने के लिए खुले मन से

सबके विचारों का स्वागत करें, पहले जाँचे परखे फिर समाधान की ओर कदम बढ़ाइए। सुनिए सबकी करिए अपने मन की। बस बढ़े हुए कदम रुकने नहीं चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना लॉगिन और लॉगाऊट )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

रामस्वरूप के आंगन में पहले हमेशा चहल-पहल हुआ करती थी, लेकिन अब वह दौर भी बीत चुका था। 70 साल का रामस्वरूप, जो कभी बुद्धिजीवी कहलाता था, अब आंगन में चौकी पर बैठकर आसमान निहार रहा था। उसके पास उसका 25 साल का पोता गोपाल मोबाइल में आंखें गड़ाए बैठा था, उसकी उंगलियां तेजी से स्क्रीन पर चल रही थीं, मानो उंगलियों में ही पूरी दुनिया समा गई हो। इस बीच श्यामलाल, रामस्वरूप का पुराना दोस्त, कुर्सी खींचकर बगल में बैठ गया। दोनों दोस्त एक ही जमाने के थे, साथ-साथ जवानी बिताई और अब साथ-साथ बुढ़ापे का बोझ ढो रहे थे।

रामस्वरूप ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अरे भाई, ये दुनिया कहां जा रही है? हमारे जमाने में आदमी काम करता था, अब तो मोबाइल सब काम कर रहा है। इंसान खत्म हो रहा है, सब कुछ डिजिटल हो गया है।” श्यामलाल हंस पड़ा और मजाकिया लहजे में बोला, “अरे यार! अब सब कुछ ‘वायरलेस’ हो गया है। अब आदमी के पास ताकत नहीं, डेटा पैक की मोल-तोल है। जितना बड़ा डेटा पैक, उतनी बड़ी जिंदगी।” रामस्वरूप उसकी बातों को गंभीरता से सुन रहा था और पास बैठे गोपाल ने मोबाइल से नजरें उठाकर बोला, “दादा, आप लोग पुराने जमाने की बातें करते हो। अब सब डिजिटल हो गया है, असली जिंदगी तो ऑनलाइन चलती है।”

रामस्वरूप ने हल्की हंसी दबाते हुए कहा, “हां, अब आदमी का दिल नहीं, ‘वाइ-फाइ’ धड़कता है। पहले लोग मिलते थे, अब ‘ब्लूटूथ’ से जुड़ते हैं।” गोपाल ने सिर हिलाया, जैसे वह इन बातों को सुनकर बोर हो गया हो। तभी मालती, जो अंदर से बर्तन उठा रही थी, बातों में शामिल हो गई। उसने कहा, “रामस्वरूप, लड़के की बात समझो। अब जमाना बदल गया है। अब सब कुछ ‘इंस्टेंट’ हो गया है। पहले चिट्ठियां लिखी जाती थीं, अब ‘वॉट्सऐप’ पर बात होती है। उंगली हिलाओ, और काम हो जाता है।”

श्यामलाल ने ठहाका मारते हुए कहा, “बिल्कुल सही! अब दिल नहीं टूटते, नेटवर्क टूटते हैं। प्यार ‘डेटा पैक’ पर चलता है और रिश्ते ‘वायरलेस’ हो गए हैं।” रामस्वरूप ने सिर हिलाया और गहरी सांस लेते हुए कहा, “पहले प्यार इंतजार करता था, अब ‘ब्लॉक’ करता है। पहले लोग असलियत में मिलते थे, अब चाय पर बातें नहीं, ‘फ्री डेटा’ पर जिंदगी कटती है। आदमी के पास प्यार के लिए वक्त नहीं है, पर ‘नेटफ्लिक्स’ के लिए जरूर है।”

गोपाल ने फिर से मोबाइल से नजर हटाकर जवाब दिया, “दादा, अब लोग ‘ऑफलाइन’ ही नहीं होते। अब ‘ऑफलाइन’ होने का मतलब है कि आप दुनिया से गायब हो गए।” रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां, अब आदमी ‘ऑफलाइन’ होते ही जंगल में खो जाता है। पहले जंगल थे, अब डिजिटल जाल है, जिसमें आदमी फंसता है।” श्यामलाल ने फिर से मजाक में कहा, “सच में, अब आदमी की जिंदगी ‘लॉगइन’ और ‘लॉगआउट’ के बीच ही रह गई है।”

रामस्वरूप ने गोपाल की तरफ देखा, जो एक बार फिर मोबाइल में डूब चुका था। उसने गोपाल से मोबाइल छीनते हुए कहा, “सुन बेटा, तुम लोग डिजिटल हो गए हो, लेकिन याद रखना, जब ये डिजिटल दुनिया टूटेगी, तब असली जिंदगी का एहसास होगा। उस दिन न डेटा पैक काम आएगा, न ‘लाइक’। असली खुशी तब होगी, जब तुम असलियत में किसी को छू सकोगे, महसूस कर सकोगे।” श्यामलाल ने रामस्वरूप की बात का समर्थन करते हुए कहा, “बिल्कुल यार, अब आदमी की खुशी ‘फिल्टर’ और ‘स्पैम’ के बीच कहीं खो गई है। जिंदगी एक ‘स्क्रीनशॉट’ बनकर रह गई है, जिसे कोई देखता भी नहीं।”

रामस्वरूप और श्यामलाल हंसते रहे, जबकि गोपाल फिर से मोबाइल में खो गया। मालती चाय लेकर आई, लेकिन किसी को उसे पीने की फुर्सत नहीं थी।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #189 – कहानी- मित्र की सरलता – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी – “मित्र की सरलता) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 189 ☆

कहानी- मित्र की सरलता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

राहुल व देवांश सड़क पर खड़े बातें कर रहे थे। तभी एक मोटरसाइकिल आकर उनके पास रूकी।

“क्यों रे! अपने आप को बहुत होशियार समझता है,” जैसे ही मोटरसाइकिल पर सवार रघु ने कहा तो राहुल उसे देख कर चौंक गया।

“क..क.. क्या?” उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। वह डर गया था। रघुवीर उर्फ रघु उसके स्कूल का दादा था। उसकी एक गैंग थी। वह सभी पर रौब जमाता था। इसलिए सभी उससे डरते थे।

“ज्यादा होशियार बनता है क्यों?” उसने आंखें तरेर कर कहा, “यदि मैं तेरी कॉपी से जरा सा देख लेता तो तेरा बाप का क्या बिगड़ जाता? तेरी परीक्षा थोड़ी ही रुक जाती।” उसने राहुल को घुरा।

जैसे ही रघु ने यह कहा देवांश को सब माजरा समझ में आ गया। राहुल ने परीक्षा में रघु को नकल नहीं करने दी थी इस कारण वह भड़का हुआ था। उसने जब देखा राहुल कुछ नहीं बोल पा रहा है तो रघु को ओर भी तेज गुस्सा आ गया।

“अरे! बोलता क्यों नहीं? सांप सूंघ गया है क्या?”

“वो.. वो सर देख लेते!”

“सर देख लेते,” रघु ने चिढ़कर कहा, “सर की इतनी हिम्मत, मेरे सामने मैं कुछ बोलते,” कहते हुए रघु ने राहुल के सिर पर एक चपत जमा दी, “साला! साणा बनता है।”

यह देखकर देवांश को बहुत बुरा लगा। वह अपने मामाजी के यहां गांव में आया हुआ था। इसलिए वह समझ गया कि रघु की दादागिरी स्कूल के साथ-साथ बाहर भी चलती है। इसलिए उसने राहुल से कहा, “चल यार! मुझे काम है। चलते हैं,” कहने के साथ देवांश ने राहुल का हाथ पकड़ा कर खींचा।

“अबे! कहां जाता है?” रघु ने अकड़ कर कहा, “यदि कल के पेपर में देखने नहीं दिया तो ध्यान रखना हाथपैर तोड़ दूंगा।”

“जी,” राहुल ने कहा तो देवांश को एक तरकीब सुझाई दे गई। वह इस तरकीब से रघु की दादागिरी उतार सकता था, इसलिए उसने कहा, “अरे रघु भाई!”

“क्या है?” रघु ने चौंक कर पूछा, “बोल।”

“अरे रघु भाई, राहुल की इतनी हिम्मत नहीं कि वह आपको नकल करने से मना कर सकें। मगर वह क्या है..,” कह कर देवांश रुका।

रघु का पारा चढ़ा हुआ था। उसने कहा, ” वह क्या है? बोल जल्दी।”

“इसका भाई है ना वह,” कहते हुए देवांश ने खेत की ओर इशारा किया, “उसका कहना है कि तूने किसी को नकल कराई तो तेरी खैर नहीं है।”

“उसने कहा था,” रघु बोला, “वह तो साला एक नंबर का डरपोक और मरियल है।”

यह सुनकर राहुल डर गया था। उसने झट से कहा, “नहीं-नहीं, उसने नहीं बोला था।”

“अच्छा!”

“हां तो क्या हुआ?” देवांश ने रघु को उकसाया, “अगर वाकई तुम रघु दादा हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”

रघु को कोई चैलेंज करें वह कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उसने कहा, “तू रघु दादा को चैलेंज दे रहा है। इसका अंजाम जानता है?”

“हां-हां जानता हूं। ऐसे बहुत से दादा देखे हैं मैंने शहर में, हिम्मत हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”

यह सुनकर रघु का पारा चढ़ गया। वह झट से मोटरसाइकिल से उतरा,” तू यहां रुक सोनू, मैं भी उसे सबक सिखा कर आता हूं,” कहते हुए वह खेत की मुंडेर कूद कर विकास के पास पहुंच गया।

वहां जाकर उसने सीधे विकास का गिरेबान पकड़ा और कहा, ” क्यों रे डेढ़ फसली, दादा बनता है,” कहने के साथ रघु ने विकास का कालर पकड़ कर दो थप्पड़ जड़ दिए।

विकास कुछ समझ नहीं पाया। यह क्या हुआ? तभी पास ही चर रहे बैल की निगाहें रघु की हरकत पर चली गई। वह विकास को थप्पड़ मार रहा था।

तभी अचानक वह दौड़कर आया। उसने आते ही सिंग से रघु को उठाया। हवा में उछाल दिया। रघु इसके लिए तैयार नहीं था। वह हवा में उछला। पत्थर की मुंडेर पर जाकर गिरा।

यह सब अचानक हुआ था। वह बहुत तेजी से उछला था और पत्थर पर गिरा था। गिरते ही उसके हाथ की हड्डी टूट गई थी। विकास कुछ-कुछ सम्हल चुका था। वह चिल्लाकर बोला,” रामू! रुक जा!”

मगर रामू बैल कहां रुकने वाला था। वह गुस्से में था। उसके मालिक को कोई हाथ लगाएं, यह उसे बर्दाश्त नहीं था। रघु ने उसे थप्पड़ जड़ दिए थे इस कारण वह बहुत तेजी से चिल्लाते हुए अपना गुस्सा उतार रहा था।

दोबारा रघु की ओर तेजी से दौड़ा। यह देखकर रघु घबरा गया। उसके सामने साक्षात मोड़ तांडव कर रही थी। मगर वह उठ नहीं पा रहा था इसलिए जोर से चिल्ला पड़ा, “अरे! मार डाला! कोई बचाओ!” कह कर वह चीखा। तभी उसका मित्र सोनू वहां आ गया।

तभी विकास ने सोनू को इशारा कर दिया। वह अंदर नहीं आए। इसी के साथ विकास तेजी से रघु के पास पहुंच गया, “नहीं रामू, इसे छोड़ दो।”

मगर रामू ने तेज गर्दन हिलाकर जोर से हुंकार भरी। जैसे वह रघु को जोरदार सबक सिखाना चाहता है।

विकास रामू का गुस्सा जानता था। वह तुरंत रामू के पास गया। उसे गले से लगाते हुए बोला, “नहीं रामू, इसे छोड़ दे।”

तभी विकास में तुरंत उसके दोस्त सोनू कहा, “सोनू! इसे ले जा। नहीं तो यह बैल इसको मार डालेगा।”

सोनू तुरंत रघु के पास गया। उसको हाथ टूट चुका था। पैर में चोट आई हुई थी। उसे पकड़ कर सोनू तुरंत खेत के बाहर ले गया। इस तरह रघु अपनी जान बचा कर भाग गया।

इस घटना के बाद से रघु ने दादागिरी लगाना छोड़ दिया। वह समझ गया था कि किसी का सरल व हृदय मित्र उसे कभी भी सबक सिखा सकता है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-01-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 223 ☆ बाल गीत – मुझे सुनाओ नई कहानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 223 ☆ 

बाल गीत – मुझे सुनाओ नई कहानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मीठा-मीठा बोलो नानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

चीख-चीख कर कभी न बोलो।

वाणी में मिश्री-सी घोलो।

मैं बच्चा करता नादानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मम्मी डाँटें , तुम भी डांटो।

मेरा प्यार कभी मत बाँटो।

चलो पार्क में हवा सुहानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

नाना कभी-कभी हैं आते।

लेकिन मेरे मन को भाते।

कभी न करते वे मनमानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मूड रखें सब हरदम अच्छा।

सभी बड़ों से सीखे बच्चा।

नाना घूँट-घूँट पीते हैं पानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मम्मा , नानी संग न खेलें।

नाना के संग चलती रेलें।

नाना – सा ना कोई सानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग २९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग २९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- खूप दिवस वाट पाहून त्या दोघांनी घरच्या विरोधाला न जुमानता नुकतंच परस्पर रजिस्टर लग्न करून टाकलं होतं. दोन्ही घरच्यांनी या लग्नाला ठाम विरोध होताच. प्रतिष्ठेचा प्रश्न बनवून या दोघांनाही त्यांनी बेदखल केलं. त्यामुळे सुजाता नेहमीच दडपणाखाली असायची. तिने नवऱ्याच्या शिक्षणाची आणि घरखर्चाची सगळी जबाबदारी स्वतःच्या शिरावर घेऊन वेगळं बि-हाड केलं आणि तिची तारेवरची कसरत सुरू झाली. मी जॉईन झालो त्याच दिवशी तिचा मॅटर्निटी लिव्हचा अर्ज माझ्या टेबलवर होता!) 

हीच सुजाता बोबडे मला लवकरच येणाऱ्या त्या अतर्क्य आणि गूढ अशा अनुभवाला निमित्त ठरणार होती याची त्या क्षणी मला कल्पना कुठून असायला?)

ब्रँचचा चार्ज घेऊन झाल्यानंतर लगेचच मी महत्वपूर्ण ग्राहकांना भेटून त्यांच्याशी संवाद साधायला सुरुवात केली. घरापासून ब्रॅंचपर्यंतच्या रस्त्याला लागून थोड्याच अंतरावर असलेल्या ‘लिटिल् फ्लॉवर कॉन्व्हेंट स्कूल’ चा मी मनोमन तयार केलेल्या आमच्या महत्त्वपूर्ण ग्राहकांच्या यादीत खूप वरचा नंबर होता. मिशनऱ्यांनी चालवलेल्या या संस्थेच्या बचतखात्यांत बरीच मोठी रक्कम शिल्लक असायची. शिवाय आठवड्यातून दोन-तीनदा तरी थोड्याफार रकमेचा भरणा नियमित होत असेच.

विशेषतः सोलापूर कॅम्पसारख्या लहान ब्रॅंचसाठी खास करुन अशा ग्राहकांना सांभाळणं गरजेचं असायचं. त्या दिवशी सकाळी थोडं लवकर निघून मी मिस् डिसोझांना भेटण्यासाठी प्रथमच त्या संस्थेत गेलो. मिस् डिसोझा ‘लिटिल् फ्लॉवर कॉन्व्हेंट स्कूल’ च्या प्रिन्सिपल कम व्यवस्थापक होत्या. अतिशय शांत, हसतमुख चेहरा. प्रसन्न आणि आदबशीर वागणं. कॉन्व्हेंटमधील स्टाफ नन्सची कार्यतत्पर लगबग आणि लक्षात यावी, रहावी अशी काटेकोर शिस्त मी प्रथमच अनुभवत होतो. प्रकर्षाने जाणवणारी प्रसन्न शांतता आणि मेणबत्तीच्या प्रकाशात अधिकच तेजोमय भासणारी येशूची मूर्ती माझ्या मनावर गारुड करतेय असं मला वाटू लागलं!

मी स्वतःची ओळख करून दिली. मिस् डिसोझांनी माझं हसतमुखानं स्वागत केलं. गप्पांच्या ओघात मी चांगलं सहकार्य आणि सेवेबद्दल त्यांना आश्वस्त करून त्यांच्याकडूनही सहकार्याची अपेक्षा व्यक्त केली तेव्हा मात्र त्या थोड्या गंभीर झाल्यासारख्या वाटल्या. त्यांच्या चेहऱ्यावरचा प्रसन्नपणा लोपला. नजरेतलं हसरेपणही अलगद विरून गेलं. पण क्षणभरच. लगेचच त्यांनी स्वतःला सावरलं.

“सी मिस्टर लिमये.. ” त्या बोलू लागल्या.

आमच्या ब्रॅंचमधील सेवेबद्दल त्या फारशा समाधानी नव्हत्या. आक्रस्तळेपणा किंवा आदळआपट न करता त्यांच्या मनातली ती नाराजी त्यांनी अतिशय सौम्य पण स्पष्ट शब्दात आणि तेवढ्याच डिसेंटली माझ्यासमोर व्यक्त केली.

हाकेच्या अंतरावरच्या आमच्या ब्रॅंचमधे आठवड्यातून दोन दिवस हातातली कामं बाजूला ठेवून त्यांची स्टाफ नन् पैसे भरायला बँकेत यायची. साधारण वीस-पंचवीस हजारांची रक्कम बँकेत भरून परत जायला तिला किमान दोन तास तरी लागायचे. घाईगडबडीच्या कामांमुळे, एवढा अनावश्यक दीर्घकाळ एका स्टाफला स्पेअर करणं त्यांना शक्य नव्हतं. त्यांची तत्पर सेवेची सरळसाधी अपेक्षा होती आणि त्यात मी लक्ष घालावं अशी त्यांनी विनंती केली. ‘बँकेतला एखादा कॅशियर इथे पाठवून आठवड्यातले दोन दिवस इथून कॅश कलेक्ट करणं शक्य होईल का?’ असंही त्यांनी मला मोकळेपणानं विचारलं. यातून मार्ग काढायचं आश्वासन देऊन मी त्यांचा निरोप घेतला.

त्यांच्या विनंतीचा विचार करायचा तर दोन कॅश-काऊंटर्सपैकी एक काऊंटर थोडा वेळ बंद ठेवून तो कॅशिअर स्पेअर करणं मला प्रॅक्टिकल वाटत नव्हतं. दोघांपैकी हेडकॅशियरना या छोट्याशा कामासाठी पाठवणं योग्यही नव्हतं. रहाता राहिली सुजाता बोबडे. पण तिच्या सध्याच्या अवस्थेत तिला हे काम सांगणं रास्त नव्हतं.

‘खरंतर ब्रॅंचमधे नेहमी येणारी पेट्रोलपंपाची कॅश वगळता रिसिव्हि़ंग कॅशकाऊंटरला फारशी गर्दी नसायचीच. तरीही स्टाफ ननला बँकेत पैसे भरून बाहेर पडायला इतका उशीर का व्हावा?’ मला प्रश्न पडला.

मी सुजाताला केबिनमधे बोलावलं. ‘लिटिल् फ्लाॅवर’चा विषय काढताच ती चपापली.

“.. त्यांची कॅश.. मी नाही सर, सुहास गर्देच घेतात. “

“कां? रिसीव्हिंग काउंटरला आहात ना तुम्ही?मग तुम्ही कां घेत नाही?” माझा आवाज मलाच चढल्यासारखा वाटला.

मान खाली घालून ती गप्प उभी होती.

“कांही प्रॉब्लेम?”

तिचे डोळे भरून आले.

“ठीक आहे. तुम्ही जा. सुहासना पाठवा. मी त्यांच्याशीच बोलेन. “

ती केबिनबाहेर गेली. त्या क्षणी मला तिचा भयंकर रागही आला आणि तिची 

कीवही वाटली.

पण जेव्हा सुहास गर्दे केबिनमधे आले आणि त्यांनी सर्व पार्श्वभूमी मला समजावून सांगितली तेव्हा मात्र ते ऐकून मला आश्चर्य तर वाटलंच आणि हसूही आलं. प्रश्न मी समजत होतो तेवढा गंभीर नव्हताच. गंमत म्हणजे एरवी स्ट्रिक्ट डिसिप्लिन असणाऱ्या मिशनरी सिस्टीममधल्या ‘लिटिल् फ्लॉवर’ मधील स्टाफ ननज् आणि मिस् डिसोझानाही बँकेमधे रोख रक्कम भरण्याच्या साध्या साध्या प्राथमिक नियमांचीही काहीच जाण नव्हती. रोख भरणा करायच्या रकमेतल्या नोटा कशाही उलट सुलट लावलेल्या असायच्या. शिवाय पैसे भरण्याच्या स्लिपमधे नोटांचं विवरणही, किती रुपयांच्या किती नोटा वगैरे.. , भरलेलंच नसायचं. त्यामुळे या सगळ्या दुरुस्त्या आणि त्रुटी प्रत्येकवेळी स्वतः दूर करून त्या स्टाफ ननसमोर पैसे मोजून घेण्यात खूप वेळ जायचा. तिला थांबावं तर लागायचंच शिवाय या एकाच कामात गुंतून पडल्यामुळे सुजाताच्या काऊंटरसमोर ग्राहकांची गर्दी वाढत गेली की सुजाता भांबावून जायची. आत्मविश्वास गमावून बसायची. त्यामुळे सहजसोपा आणि सोयीचा मार्ग म्हणून सुहास गर्देनी ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची कॅश स्वीकारायचं काम स्वतःकडेच घेतलं होतं. यामुळे सुजातापुरता प्रश्न सुटला तरी ‘लिटिल् फ्लावर’ चा प्रश्न मात्र अधांतरीच राहिला होता. आता मात्र स्वतः पुढाकार घेऊन तो मलाच सोडवायला हवा होता.

खरंतर त्यांचं काय चुकतंय हे त्यांना भेटून कुणी आवर्जून समजून सांगितलेलंच नव्हतं. बँकेकडून चांगल्या आणि तत्पर सेवेची अपेक्षा करणाऱ्या त्यांना ते सांगणं मला त्याक्षणी आवश्यक वाटलं.

पूर्वनियोजित वेळ ठरवून मी पुन्हा मिस् डिसोझांची भेट घेतली. त्यांना संबंधित सगळे नियम, पध्दती व्यवस्थित समजावून सांगितल्या. त्याचं महत्त्व विशद केलं. त्या दिवशीची भरणा करायची रोख रक्कम आणि त्यांचं स्लिपबुक मागून घेतलं. त्यांनी स्टाफ-ननलाही बोलावून समोर बसवून घेतलं. हे सगळं नीट समजून शिकून घ्यायला सांगितलं. नोटा कशा अॅरेंज करायच्या, त्यांचं विवरण स्लिपमधे कसं भरायचं हे सगळं मी त्यांना समजून सांगितलं. त्याबरहुकूम स्वतःच करूनही दाखवलं.

“मी आज बॅंकेत जाताजाताच आलोय. तुमची हरकत नसेल तर आज हे स्लिपबुक आणि पैसे मी स्वतः बरोबर घेऊन जातो. वेळ मिळेल तेव्हा स्टाफ ननला स्लीपबुक घेण्यासाठी नंतर पाठवून द्या”असं सांगून मी त्यांचा निरोप घेतला. ब्रँचमधे पोचताच कॅश न् स्लीपबुक सुजाताच्या ताब्यात दिलं. थोड्या वेळानं नन् आली. स्लीपबुक घेऊन दोन मिनिटात परतही गेली. एका गंभीर बनू पहाणाऱ्या साध्या प्रश्नाचं हे सोपं उत्तर सर्वांसाठीच सोयीचं होणाराय हे लक्षात आलं आणि आठवड्यातून ठरलेले दोन दिवस बँकेत येतानाच त्यांच्याकडे जाऊन, कॅश व्यवस्थित मोजून घेऊन मी ती बँकेत घेऊन येऊ लागलो. सर्व ग्राहकांच्या बाबतीत ही अशी सेवा देणं शक्यही नसतं आणि ग्राहकांची तशी अपेक्षाही नसते. पण कधीकधी अशा अपवादात्मक प्रसंगी प्रश्न लगोलग सुटावा व महत्त्वपूर्ण ग्राहकाचं समाधान व्हावं यासाठी असे निर्णय घ्यावेच लागतात. कायदा आणि व्यवहार यांची अशी सांगड परिस्थितीनुसार घालावीच लागते.

‘ब्रँच मॅनेजर’ हे पद दुरून पहाताना कितीही मानाचं आणि आकर्षक वाटत असलं तरी खरं तर ते जबाबदारीचंच जास्त असतं. ग्राहक, कर्मचारी आणि वरिष्ठ या परस्परविरोधी पातळ्यांमधला महत्त्वाचा दुवा म्हणून काम करताना सन्मानाची झूल अशी बऱ्याचदा स्वतःचा आब राखून उतरवून बाजूला ठेवावी लागते. मी तेच केलं होतं! 

काही दिवस हे असंच सुरळीत सुरू राहिलं. पण अचानक एक दिवस कांही घटनांना अनपेक्षितपणे वेगळं वळण लागलं आणि एका अनपेक्षित क्षणी या सगळ्या चांगल्यात मिठाचा खडा पडला आणि पुढे मला मुळापासून हादरवून सोडणारी ती एक नाट्यपूर्ण कलाटणी ठरली जी क्षणकाळापुरतं कां असेना मला हतबल करून गेली होती!

पुढे मला येऊ पहाणाऱ्या एका अतर्क्य आणि गूढ अशा अनुभवाची हीच पार्श्वभूमी ठरणार होती आणि सुरुवात सुद्धा!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares
image_print