हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तिनकों सा बहना…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रूखी-सूखी

एक नदी का

तट बनकर रहना

यही नियति है

सदा बाढ़ में

तिनकों सा बहना।

*

क्या गंगाजल

पाप-पुण्य की

धो पाया गठरी

भाग्य लिखी है

बस अभाव की

एक अदद कथरी

*

करनी-कथनी

के मरुथल में

प्यास लिए फिरना।

*

अधुनातन की

भाग-दौड़ में

हुए स्वयं से दूर

सच के मारे

झूठ ओढ़कर

जीने को मजबूर

*

ऊबड़-खाबड़

पगडंडी पर

सड़कों का सपना।

*

धर्म-कर्म के

पाखंडों में

खोज रहे तिनका

उमर कर रही

लेखा-जोखा

एक-एक दिन का

*

समय निरंतर

कहता रहता

नहीं कहीं रुकना।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तख़्त का तज मोह सच को देखिए“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆

✍ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सीट कम हों भय हुआ सच बात है

मौन संसद रह रहा सच बात है

सौ से ऊपर मर गए सत्संग में

हाथरस मक़तल बना सच बात है

 *

ढोंग से पर्दा हटेगा कब तलक

हादसों का सिलसिला सच बात है

 *

फुलरई मथुरा या सिरसा जोधपुर

दर्द अपना कह दिया सच बात है

 *

मुख्य आरोपी न मुलजिम नामजद

आसरा है धर्म का सच बात है

 *

हो रही तफ्तीश कैसी कुछ बता

झूठ हावी हो गया सच बात है

 *

सिरफिरों की फौज आई सामने

राज्य शासन तक झुका सच बात है

 *

सत्य हैं आरोप झूठे सन्त पर

क्यों तू झुठलाने लगा सच बात है

 *

तख़्त का तज मोह सच को देखिए

जाति गत ये दबदबा सच बात है

 *

अय अरुण बाबा बनो तो है मजा

छंद का छोड़ो नशा सच बात है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है ! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  नौकरी फुटबाल नहीं है!“

☆ कथा-कहानी # 117 –  नौकरी फुटबाल नहीं है!  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.

एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 38 – मित्रता…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 38 – मित्रता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जय और अनुराग मित्र दोनों खेलते खेलते थक गए और कुछ बातें करने लगे, बातें करते-करते वे लोग आगे निकल गये।

अनुराग हम कहाँ आ गए यह तो कुछ अलग सी जगह लग रही है?

अब घर कैसे पहुंचेंगे ?

ये सब तुम्हारे कारण हुआ, और दोनों के बीच झगड़ा हो गया । जय ने अनुराग को जोर से थप्पड़ मार दिया फिर इस बात को सड़क के किनारे फूल तोड़ कर के अनुराग ने फूलों से जय का नाम लिख दिया।

थोड़ा आगे निकलने के बाद उन दोनों को बहुत जोर से प्यास लगी, आगे चलने के बाद एक नदी दिखाई दी दोनों ने पानी पिया और अनुराग ने कहा चलो?

हम लोग स्नान करते हैं?

जय को तैरना नहीं आता था वह किनारे नहाने लगा फिसल गया और डूबने लगा अनुराग ने उसे बचा लिया । तभी वहां पर एक पुलिस वाला दिखाई दिया।

उसने कहा- “अरे लड़कों तुम लोग कहां भटक रहे हो?

उन्होंने कहा बताया कि हम रास्ता भूल गए हैं।

उसने उन्हें उनके घर में अपनी गाड़ी में बिठा कर छोड़ दिया।

दोनों ने कहा थैंक यू अंकल

पुलिस वालों ने कहा – ऐसे कहीं अकेले मत घूमना।

दोनों के घर आमने-सामने थे। पुलिस वाले ने उनके माता-पिता को पूरी घटना बताई।

वे दोनों अपने घर जाते एक दूसरे को ध्यान से देखते रहे, सच्ची मित्रता आंखों में दिख रही थी…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 70 – तो सुख सारे मिल जायें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना –तो सुख सारे मिल जायें।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 70 – तो सुख सारे मिल जायें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हृदय हमारे मिल जायें 

तो सुख सारे मिल जायें

*

दाह बुझे, जो अधरों के 

ये अंगारे मिल जायें

*

तुम चाहो, तो दोनों के

दिल बेचारे मिल जायें

*

जलूँ शौक से, यदि छूने 

रूप शरारे, मिल जायें

*

डूबूं तेरे संग, भले 

मुझे किनारे मिल जायें

*

तू न मिले तो, व्यर्थ मुझे 

चाँद-सितारे मिल जायें

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 143 – मौन  छा गया घर-आँगन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “मौन  छा गया घर-आँगन में…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 143 – मौन  छा गया घर-आँगन में… ☆

मौन  छा गया घर-आँगन में।

जीवन फँसा कठिन उलझन में।।

*

आई संध्या-काल घड़ी जब।

किसकी नजर लगी उपवन में?

*

राह देखती रही हमारी,

प्रिय बहना रक्षाबंधन में।

*

कैसी भगवन हुई परीक्षा,

विश्वासों के उत्पीड़न में!

*

मात-पिता की याद आ गई,

चिंता-मुक्त खेल-बचपन में।

*

अधिकारी नेता की चाहत,

धनसंचय के आराधन में।

*

मानवता के शत्रु बन गए,

धर्म-पताका आरोहण में।

*

आजादी की बिछी बिछायत,

सत्ता पाने की अनबन में।

*

भरा पेट हो या खाली हो,

देखो बैठ रहे अनशन में।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 169 ☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री नीलोत्पल मृणाल जी द्वारा लिखित पुस्तक औघड़पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 169 ☆

☆ “औघड़” – लेखक … श्री नीलोत्पल मृणाल ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक …औघड़

उपन्यासकार …नीलोत्पल मृणाल

प्रकाशक …हिन्द युग्म, नोएडा

पृष्ठ …३८८, मूल्य …२०० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास

हिन्द युग्म “नई वाली हिंदी” का जश्न मनाने वाला, युवाओ द्वारा प्रारंभ की गई साहित्यिक यात्रा का मंच है। ब्लागिंग के प्रारंभिक दिनों में शैलेश भारतवासी ने हिन्दयुग्म प्रकाशन शुरु किया था। काव्य पल्लवन ब्लाग से मैं भी हिन्द युग्म के प्रारंभिक समय से जुडा रहा हूं। हिन्द युग्म ने कई हिट्स साहित्य जगत को दिये हैं। नीलोत्पल का “औघड़” भी उनमें से एक है। मलखानपुर गांव के इकतीस शब्द दृश्य बेबाकी से यथार्थ बयानी करते हैं। नीलोत्पल की लेखनी में प्रवाह है।

चाय की गुमटी वाले मुरारी, पंडित जी, जग्गू दा, जगदीश यादव, डागदर साहब, गणेशी, आदि आदि चरित्र पात्रों के संग कथानक के नायक सामंतवाद के प्रतिनिधि पुरोषत्तम सिंह और फूंकन सिंह वर्सेस पेशाब की धार को हथियार बनाकर जमीदार की हवेली पर प्रहार करने वाला औघड़ गंजेड़ी बिरंचिया … सब को बड़ी सहजता से “औघड़” में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है। बिना नायिका के भी उपन्यास पाठक को अपने साथ बनाये रखने में पूरी तरह सफल है।

नीलोत्पल मृणाल नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों में से हैं, उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल चुका है। औघड़ लोकभाषा और उसी टोन में गांव की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया उपन्यास है।

रोजमर्रा की ग्रामीण समस्याओ को रेखांकित किया गया है, उपन्यास अंश उधृत है ” रमनी देवी ने कई बार कहा था कि रात-बिरात हरदम बाहर जाना पड़ता है। सुबह खेत जाओ तो लाज लगता है। कल के दिन घर में बहू आएगी तऽ ऊहो का ऐसे ही खेत जाएगी? काम भर के खाने-पीने का फसल हो ही जाता है। क्या घर में एक ठो लैटरिंग रूम नहीं बन सकता ? गरीब और किसान घर की औरत का इज्जत पानी नहीं है का? एक दिन रात को बलेसर के पतोह को दू-चार लफुआ मोटरसायकिल के लाइट मार रहा था। बेचारी कैसहूँ इज्जत ढक भागी। काहे नहीं बनवा देते हैं घर में लैटरिंग रूम ?”

इसी तरह भूत प्रेत टोना टुटके पर ग्रामीण नजरिये का अंदाजा इस अंश में देखिये “अरे, धीरे बोलिए ना आप। काहे हमारा प्राण लेने पर तुल गए हैं बाबा। अरे बाबा हम तो कह रहे हैं कि 1000 परसेंट भूत ही पकड़ा है चंदन बाबा को। लेकिन ई भूत हिंदू भूत है ही नहीं, महराज यह मुसलमान है, मुसलमान भूत। तब ना इतना उत्पात मचा रहा है। मुसलमानी भूत को क्या कर लेगा आपका जंतर-मंतर। ” लटकु भंडारी ने यह बता जैसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य खोलकर रख दिया हो। “

नीलोत्पल के वाक्य विन्यास व्याकरण की सीमाओ से परे बोलचाल की ग्रामीण भाषा में ही है।

नमूना देखिये ” गहरा साँवला रंग। हड्डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी वैजनाथ की। “

सहज दृश्य वर्णन में वे नये उपमान रचते हैं, ” समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था “, “मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था। चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, “अल्लाह हू अकबर… “लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम। ” मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवाताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। ” …. यह गाँव ही था जहां आम कुत्ते भी हीरा, मोती, शेरा नाम से जाने जाते थे ” .

उपन्यास में गांवो के सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियां, धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिलाओ की स्थिति का यथार्थ, अपराध और प्रसाशन के गठजोड़, झोलाछाप स्वास्थ्य व्यवस्था, सामंतवादी सोच के खिलाफ मध्य वर्ग की चेतना आदि विषयों को पूरी गंभीरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है।

बिरंचिया गंजेड़ी है। वह फूंकन सिंह की हवेली के सामने के नल से ही पानी पीकर पीछे की दीवार पर पेशाब कर उसे कमजोर करने की मशक्कत में लगा रहता है। उसके माध्यम से व्यंजना में बिटवीन द लाइन्स लेखक ने सामंतवाद के विरोध में बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है। बिरंचिया की असामयिक मौत के 13 दिन बाद अंतिम पृष्ठ से उधृत है …. ” रात के 11:30 बजे थे। पुरुषोत्तम सिंह की पत्नी आँगन में कुछ सामान लेने गई थी। तभी उसे लगा कि हाते के पास कुछ आकृति जैसी दिखी हो। उसने करीब जाकर दीवार के पार झाँका। झाँकते ही वह बदहवास उल्टे पाँव चिल्लाकर दौड़ी। घर के लोग तब तक लगभग सो चुके थे। आवाज सुनकर सबसे पहले पुरुषोत्तम सिंह हड़बड़ाकर जागे। “अरे क्या हुआ ? अरे हुआ क्या, काहे चिल्लाए हैं?” पुरुषोत्तम सिंह ने अपने कमरे से बाहर आकर पूछा। “अजी बिरंचिया। बिरंचिया को देखे हम। वहाँ है। वहाँ खड़ा है। ” क्षणभर में पसीने से नहा चुकी, डर से थर-थर काँप रही पत्नी माला देवी ने बताया। “का ? दिमाग खराब है क्या तुम्हारा माँ!” तब तक उठकर आ चुका फूँकन सिंह अंदर के बरामदे से बोला। बाप-बेटे ने लाठी-टॉर्च लेकर पीछे जाकर देखा।

फूंकन सिंह लपक के दीवार पर चढ़ा और पुरुषोत्तम सिंह एक ऊँचा स्टूल लेकर टॉर्च मारने लगे। एक जगह टार्च जाते ही सिहर उठे दोनों। दीवार का एक कोना भीगा हुआ था। फूँकन सिंह तो देखते ही दीवार से कूदकर आँगन में आ गया था। पुरुषोत्तम सिंह ने काँपते कलेजे को सँभालते हुए एक बार सीधी रेखा में टार्च मारी। उन्हें भी लगा कि कोई आदमी काला कंबल ओढ़े दूर खेतों की ओर से निकल रहा है। पुरुषोत्तम सिंह को भी जो दिखा उस पर खुद भी यकीन नहीं कर पा रहे थे। … आखिर कौन था वो आदमी ? कोई तो था। बाप-बेटे अंदर से हिल चुके थे। पसीने से तरबतर, एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। दीवार अब भी खतरे में थी।

कुल जमा सहज भाषा में नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास है। कूब पढ़ा जा रहा है, प्रिंट रिप्रिंट जारी है, अमेजन पर सुलभ है, आप भी पढ़िये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ?

(14 फरवरी 2020)

वेरावल शहर छोटा सा बंदरगाह है। समुद्र तट की सुंदरता के अलावा खास दर्शनीय कुछ  और नहीं है। हमारे हाथ में एक दिन बचा था तो सोमनाथ देखने के बाद दूसरे दिन हम दिव (Diu ) के लिए रवाना हुए।

सोमनाथ से दिव 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह समुद्री तट पर बसा शहर है। हम से टैक्सी चालक ने कहा कि हम एक दिन में ही दिव देखकर लौट सकते हैं। हमें दिव पहुँचने में 2.50 मिनिट लगे। रास्ता बहुत ही मखमली होने के कारण यह एक आरामदायक सफ़र रहा। हम हभी साधारणतया दमन और दिव कहते हैं पर ये दोनों अलग -अलग शहर हैं।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुजरात में सड़कों पर हमारे देश के अन्य शहरों की तरह ढाबे या रेस्तराँ की भरमार नहीं है। यहाँ के निवासी घर से ही थेपला, फाफड़ा, ढोकला, फरसाण आदि भोजन पदार्थ अपने साथ लेकर चलते हैं जिस कारण ढाबे या रेस्तराँ का खास प्रचलन नहीं है। हम लोग प्रातः सात बजे निकले थे तो अपने साथ कुछ भोजन सामग्री लेकर ही चले थे।

कुछ 30 कि.मी. जाने के बाद चाय पीने की इच्छा हुई और सड़क से हटकर ज़रा दूर एक ढाबा सा दिखा। हमने वहाँ अपनी गाड़ी मोड़ ली। ढाबे के बाहर रेतीली भूमि थी जिस पर कुछ  चारपाइयाँ रखी हुई थीं। साथ में एक प्लास्टिक की मेज़ थी जिसके पायों को  रेत में धँसा दिया गया था। अभी सुबह का ही समय था तो हमें गरमागरम चाय और पकौड़े मिले। हम अपने साथ ब्रेड और मक्खन लेकर गए थे तो सब कुछ मिलाकर बढ़िया नाश्ता हो गया।

कुछ दो घंटे बाद हम दिव पहुँचे।

दिव सुंदर स्वच्छ शहर है। पर आज भी वहाँ पुर्तगाली संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोगों में लेट बैक एटिट्यूड दिखाई देता है। पुर्तगाली तो चले गए पर अपना असर छोड़ गए। देर सबेरे तक शहर भर में कहीं कोई नज़र नहीं आता। यहाँ लोगों के दिन की शुरुआत भी देर से ही होती है। तब तक सभी दुकानें बंद ही होती हैं।

यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। शहर में ख़ास हलचल नहीं है, न ही भीड़भाड़ है। इस तरह का वातावरण और समानता हमने गोवा और पोर्त्युगल में भी अनुभव किया है। यहाँ की आबादी खास नहीं है।

रास्ते से जब टैक्सी गुज़रने लगी तो अधिकतर घर बंद नज़र आए जिन पर ताले जड़े दिखे। पूछने पर चालक ने बताया कि पुर्तगाल से उन स्थानों के निवासियों को स्थायी नागरिकता के लिए वीज़ा दिया जा रहा है जहाँ पुर्तगाली राज्य किया करते थे। हमने सिर पीट लिया। 450 वर्ष की गुलामी के बाद 1961 के करीब देश को उनसे मुक्ति मिली थी और अब यह क्या हो रहा है?

जिन लोगों के दादा – परदादा ने पुर्तगालियों की गुलामी की थी, अत्याचार सहे थे, जबरन ईसाई बनने के लिए मजबूर किए गए थे या प्राण बचाने के डर से अन्यत्र भाग गए थे या मार दिए गए थे उसी  दामन और दिव की आज की यह पीढ़ी  पचास साल बाद पुर्तगाल जाकर बस रही है!

पुर्तगाली स्वभाव से आलसी हैं, उन्हें सब प्रकार के काम करने के लिए लोग चाहिए इसलिए तो वीज़ा दे रहे हैं। न जाने कितने ही लोग विदेश में रहने के लालच में यहाँ से वहाँ चले गए। हमारे देशवासियों को सफेद चमड़े के प्रति इतना आकर्षण है कि फिर एक बार गुलाम बनने को तैयार हो गए। सुना है अवैध रूप से कई कागज़ात बनाकर लोग जाने की ताक में बैठे हैं। पता नहीं हम अपनी भूमि से प्रेम करना कब सीखेंगे!

भारी मन से हम आगे बढ़े। यहाँ कुछ पुराने चर्च हैं, जहाँ रविवार के दिन प्रार्थना सभा होती है। कुछ चर्च तीन सौ वर्ष पुराने भी हैं। इन सभी जगहों पर पर्यटक घूमते दिखाई देते हैं। हम एक विशाल चर्च में घुसे। हम सनातनी धर्म के अनुयायी मंदिर हो या चर्च अपने जूते उतारकर ही भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे लिए  देवालय चाहे किसी का भी हो पूजनीय स्थान होता है।

वहाँ बैठा प्रहरी बोला जूते पहनकर जाओ माताजी, यहाँ जूते नहीं निकालते। हम आश्चर्य चकित हुए पर फिर भी जूते उतारकर ही भीतर गए। हमारी संस्कृति किसी दूसरे धर्म के ईश्वर का अपमान करने का अधिकार नहीं देती। चर्च के भीतर कुछ पुरानी मूर्तियाँ देखने को मिलीं बाकी कुछ खास नहीं। सूली पर चढ़ी उदास ईशु की मूर्ति चुपचाप सी नज़र आई। कुछ धूलयुक्त प्लास्टिक की माला गले में पड़ी थी। वैसे फूल-माला चढ़ाने की कोई प्रथा ईसाई समुदाय में नहीं है। संभवतः यह भारत भूमि पर खड़ा गिरजाघर है तो कभी किसी न चढ़ाया होगा। किसी धर्म के पैगंबर को इस तरह देखकर मन भीतर तक उदास हो उठा पर हमारे लिए झुककर प्रणाम करने के अलावा करणीय कुछ भी न था।

आज शहर में निवासी ही नहीं तो चर्च की सटीक देखभाल भी नहीं। पर अपने समय में यह एक जीता जागता प्रार्थनागृह रहा होगा क्योंकि इसकी इमारत बहुत विशाल और भव्य है।

हम घूमते हुए समुद्र तट के पास आ पहुँचे।

इस शहर में समुद्र के किनारे एक बहुत पुराना मंदिर है। कहा जाता है यह मंदिर पांडवों के समय का बना हुआ है। उस समय यहाँ तक समुद्र का जल नहीं आता था। मंदिर गुफानुमा बना हुआ है। गुफा की दीवार पर बड़ा – सा पंचमुखी नाग बनाया हुआ है और नीचे पाँच शिवलिंग हैं। कहा जाता है कि कभी वनवास के दौरान पांडव वहाँ आए थे और पूजा किया करते थे। इसे गंगेश्वर मंदिर कहते हैं। आज समुद्र का जल न जाने कितनी ही बार उन पाँच शिवलिंगों को नहला जाता है। दोपहर को पानी जब भाटे के कारण दूर सरक जाता है तब आराम से दर्शन करना संभव होता है। हम दोपहर को पानी उतरने के बाद ही मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। मंदिर स्वच्छ था। कई सीढ़ियाँ उतरकर हम मंदिर के पास पहुँचे जहाँ शिवलिंग बने हुए हैं। एक स्थान पर बड़े से छोटे पाँच शिवलिंगों का दर्शन आश्चर्य की ही बात थी। मूलतः हर शिव मंदिर में एक ही शिवलिंग का दर्शन होता है। यह महाभारत की कथा के अनुसार एक गवाह के रूप में दिखाई देने वाला स्थान है। हमसे पूर्व लोगों ने शिवलिंगों की पूजा की थी। वहाँ खूब सारे नारियल चढ़ावे में रखे हुए थे।

हम और आगे अब समुद्र तट की ओर निकले। पास ही एक पुराना किला बना था जो समुद्र  से होनेवाले आक्रमणों से बचने के लिए बनाया गया था। यह किला भी कुछ तीन सौ वर्ष पुराना ही था। भाटा पूरे ज़ोर पर था जिस  कारण पानी उतर चुका था और बड़े -बड़े पत्थर तथा  चट्टानें अब समुद्र के जल से ऊपर बाहर की ओर निकल आई  थीं। ऐसा लग रहा था मानो विशाल मत्स्य जल से निकलकर हवा को सूँघ रहा हो।

दोपहर का समय था पर समुद्री तट पर शीतल हवा थी। हमें ज़रा भी गर्मी का अहसास नहीं हुआ। तट से दूर समुद्र की लहरें कदमताल करती आतीं और दूर से ही लौट जातीं। उन लहरों पर जब सूरज की किरणें पड़तीं तो असंख्य लहरों के ऊपरी हिस्से यों चमकते मानो कई बड़े से नाग अपने फन पर मणि लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हों। आँखों को एक अद्भुत सुकून का अहसास हो रहा था। हम सभी निःशब्द इस सौंदर्य को सम्मोहित – सा  होकर निहार रहे थे।

समुद्र पर सफ़ेद महीन, मुलायम कपास के समान सुकोमल  रेत फैली थी। पैर मानो उसमें धँसे जा रहे थे और उस मुलायम रेत के भीतर ठंडी रेत जब पैरों को छू रही थी तो पैरों को एक अद्भुत गुदगुदी के साथ आराम का भी अहसास हो रहा था। दोपहर का सूरज सिर पर था। रेत में बहुत ही छोटी -छोटी  सींपियाँ और शंख थे जिन्हें बड़ी संख्या में हम चुनने में व्यस्त हो गए।

एक लड़के ने पास आकर कहा, “ताल ले लो माई” हमारी तंद्रा टूटी। काले से ताल के भीतर मुलायम मीठे नारियल की गरी के समान ताल की मलाई उसने निकालकर हमें दी। मीठा, रसीला स्वादिष्ट! हमने पूछा, “कहाँ से लाया ?”

तो उसने उँगली ऊपर करके तट की ओर इशारा किया। समुद्र के तट पर दूर तक जहाँ नज़र दौड़ाते ताल के ही वृक्ष सजे हुए दिखाई दिए। इतनी देर तक हम सब लहरों को देखकर मुग्ध हो रहे थे उस बालक के कहने पर हमने सुदूर  तट की ओर रुख किया। हवा की वेग से उसके झालरदार पत्ते झूम रहे थे मानो कोई मतवाला हाथी सिर हिलाता हुआ झूम रहा हो।

देर दोपहर तक हम तट पर ही बैठे रहे। शांत वातावरण में लहरों की ध्वनि किसी गीत के धुन के समान कर्ण प्रिय लग रही थी। हम सबने वहीं बैठकर न जाने पृथ्वी के कितने ही विभिन्न समुद्र तट और अपने अनुभवों की चर्चा करते रहे। एक महिला अंगीठी पर भुट्टे भूनकर दे रही थी। हम लोगों ने दोपहर का भोजन तो किया ही न था। जो कुछ साथ लाए थे वही चबाते रहे। भुट्टे के भुनने की तीव्र गंध ने नथुनों को फुला दिया और हमारे पेट में भूख जाग उठी। बड़े -बड़े भुट्टे कोयले की आग पर  सेंके गए और उस पर नींबू और मसाला लगाकर दिया गया। हमने मानो बचपन को फिर एक बार जी लिया।

शाम होने लगी। पानी अब तट की ओर बढ़ने लगा। हमने भी प्रस्थान करना उचित समझा।

रास्ते में एक ढाबे पर गरम थेपले और इलायची अदरकवाली चाय का हमने आनंद लिया। प्रशंसनीय तो यह बात थी कि उस ढाबे को चलानेवाली और काम करनेवाली सभी महिलाएँ ही थीं। साथ में यह संदेश भी मिला कि वहाँ महिलाओं के लिए कोई डरवाली बात नहीं होती है। वे स्वाधीनता से अपना जीवन जीती हैं। वे सब बहुत सुरक्षित महसूस करती हैं। वाह! रे मेरे गुजरात !

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 – हवेली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हवेली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 ☆

🌻लघु कथा🌻 हवेली 🌻

बहुत पुरानी हवेली। हवेली का नाम लेते ही मन में उठने लगता है, शानदार बड़े-बड़े झरोखे, बड़े-बड़े लकड़ी के कशीदाकारी दरवाजे, यहाँ से वहाँ तक का फैला हुआ दालान, बीचों बीच बड़ा सा आँगन, चारों तरफ किनारों में तरह-तरह के पुष्प लता के सुंदर-सुंदर पेड़ पौधे।

परंतु जिस हवेली की बात हम कह रहे हैं वह तो सिर्फ एक खंडहर दीवाल सी शेष रह गई थी। बंद दरवाजे और दरवाजे की छोटी-छोटी खिड़की नुमा झरोखे से झांकती दो आँखें। कुछ अपनों का बिछोह और कुछ प्राकृतिक कहर। जो पास है वह आना नहीं चाहते।

हवेली मानो कह रही हो काश वह पल लौट आए और यह फिर से हरा भरा हो जाए। कोई भी आना-जाना पसंद नहीं करता था। सिर्फ एक नौकर का आना-जाना था। जो बाहर से सामान आदि लाते जाते दिखता। पता नहीं रहने वाले कैसे रह लेते होंगे?

जय गणेश, जय गणेश बच्चे ठेले के साथ धक्का मुक्की करते चले जा रहे थे और ठेले में गणपति बप्पा विराजमान थे। बारिश ने कहर मचाया। छाँव की खोज करते भगवान को पन्नी तालपतरी से ढकते बच्चे बड़े सभी इस हवेली के पास पहुंचे थे।

अचानक दो हाथ झरोखे से इशारे से लगातार बुला रही थी। बच्चों ने देखा, बस उन्हें किसी से और कोई मतलब नहीं। अपने बप्पा को ठेले सहित हवेली के अंदर ले गए।

बारिश से राहत मिली लगातार हो रही बारिश से सभी परेशान थे। कांपते हाथों से बड़ी सी थाली में थोड़ा सा खाने का सामान और साथ में दो लोटे जल के साथ एक सयानी बुढ़ी दादी निकल कर आई।

आज से पहले वह इतनी खुश कभी नहीं दिखी थीं। आकर कहने लगी तुम सब यह खाओं।

बच्चों ने आँखों – आँखों में निर्णय लिया। इससे अच्छी जगह गणेश पंडाल नहीं बनेगा। बस फिर क्या था तैयारी शुरू।

शाम के आते- आते, जगमग रोशन हवेली ताम-झाम और बप्पा की जय, जय गणेश, हवेली जिंदाबाद के नारे लगने लगे।

दीपों की थाल लिए आज हवेली से सोलह श्रृंगार कर दादा- दादी उतरकर आने लगे। एक बार फिर से हवेली गुलजार हो गई।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 99 – देश-परदेश – एकाग्रता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 99 ☆ देश-परदेश – एकाग्रता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में पाठशाला में गुरुजी हमेशा धनुर्धर अर्जुन का उदाहरण देकर एकाग्रता के लिए प्रेरित करते थे। हमारा तो कभी भी पढ़ाई/ लिखाई में मन ही नहीं लगता था, फिर एकाग्रता कैसे आती ?परिणाम सामने है, जीवन में मन चाई सफलता नहीं प्राप्त हुई हैं। अभी भी प्रयासरत हैं।

मनपसंद किए जा रहे कार्य से एकाग्रता बनना स्वाभाविक होता हैं। आज प्रातः मन लगाकर जब समाचार पत्र पठन कर रहे थे, तो उपरोक्त समाचार पढ़ते पढ़ते इतने तल्लीन हो गए, की पास में रखे हुए गर्म चाय के कप को पकड़ते हुए चाय में ही हाथ डाल दिया, और अपनी तीन उंगलियां ही जला कर रख दी, ये तो अच्छा हुआ हमने अपना बयां हाथ चाय में डाला, वर्ना अभी ये टाइप भी नहीं कर पाते।

जीवन के छः दशक से अधिक का समय प्रतिदिन पेपर पढ़ने से ही आरंभ होता आ रहा है। मोबाईल का साथ तो अभी एक दशक से हुआ हैं। दो युवाओं का क्या दोष ? वो तो खुली हवा में धूप/ वर्षा का प्राकृतिक आनंद लेते हुए मोबाईल में मग्न थे। इससे पूर्व में भी लोग पतंग, कंचे या गिल्ली डंडा खेलते हुए रेल से दुर्घटना ग्रस्त होते थे। कुछ दशक पूर्व रेल की पांत पर ही कुछ युवा कर्नल रंजीत के नोवल पढ़ते हुए भी घायल हुआ करते थे।

एकाग्रता सभी व्यक्तियों में होती है, विषय अलग अलग होता हैं। समय, स्थान, साधन से एकाग्रता भी परिवर्तित होती रहती हैं। अभी आप सब भी तो कितनी एकाग्रता से इस आलेख को पढ़ रहे हैं। भले ही श्रीमती जी, आपकी मोबाइल की इस आदत को लेकर अनेक बार आक्रोश जाहिर कर चुकी होंगी, लेकिन मोबाईल अब आदत से लत बन चुका हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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