हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆ मंजिल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मंजिल। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆

☆ मंजिल ☆

जाने की सोची थी ये कहाँ, कहाँ चल दिए हम

लिखा हो जो रास्ता सो हो, कहाँ हमें कोई ग़म

 

ज़िंदगी की अपनी ही ताल है, लय पर चलती है

कठपुतली हैं हम, चल देते हैं, जहां ले जाते कदम

 

करें क्या बात आशनाई की, कहाँ सबको साथ है

उम्मीद नहीं इतनी वफ़ा की, कोई दे साथ हरदम

 

झुक जाता है सर रब के आगे, यार सा लगता है

चलता ही रहा थामे हाथ, ग़म ने जब घेरा दामन

 

बहुत दिनों की कहाँ जीस्त, ख़त्म ही हो जायेगी

उम्मीद यही है रब से अब, चलती रहे ये कलम

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 100 ☆ संवाद संजीवनी है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है पारिवारिक, सार्वजनिक जीवन में एवं राष्ट्रीय स्तर पर संवाद की  भूमिका। वास्तव में समय पर संवाद संजीवनी ही है।  इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

? श्री विवेक जी ने ई- अभिव्यक्ति में  अपने साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ में 100 रचनाओं के साथ अभूतपूर्व साहित्यिक सहयोग  किया ?

?अभिनन्दन ?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 100☆

? संवाद संजीवनी है ?

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है.

संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है. वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिटा देता है. जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती है.

इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है. कठनाईयां मिटती हैं. बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं. डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये.

यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंगल  भटकना न पड़ता. विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन,मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 90 ☆ कधी व्हायची सकाळ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 90 ☆

☆ कधी व्हायची सकाळ 

काळ्या ढगात झाली किरणे गहाळ सूर्या

तेजोवलये घेउन मिरवी टवाळ सूर्या

 

मराठीतुनी गीता सांगे ज्ञानेश्वर हा

जीवन ओवी व्हावी येथे मधाळ सूर्या

 

समजविण्याचे दिवसच नाही आता उरले

मध्यस्थाचे फुटले येथे कपाळ सूर्या

 

किती बेसुरे जीवन झाले कसे गाउ मी

सूरच झाले सारे आता रटाळ सूर्या

 

व्यवहाराचा किती वाढला टक्का आहे

वृद्ध पोसता होणारच ना अबाळ सूर्या

 

चिपाड होता काया माझी अशी फेकली

कधीतरी मी ऊसच होतो रसाळ सूर्या

 

रथ घोड्यांचा घेउन गेला सांग कुठे तू

कधी व्हायची सांग मला रे सकाळ सूर्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#43 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #43 – दोहे  ✍

पहर पहर दिन चढ़ गया, पकी समय की धूप ।

आंखों में अंजने लगा, सपनों का प्रारूप।

 

ग्रंथ, पिटक या पुस्तकें, कर न सके उद्धार ।

मुक्ति चाहिए तो भरो, अपने मन में प्यार ।।

 

प्यार नहीं करता कभी, प्रियतम को स्वच्छंद ।

यदि उसका ही वश चले, रखे नयन में बंद।।

 

धड़कन बढ़ती ह्रदय की, सुनने को पदचाप।

दीवारें ही गुन रही, मन का मौन प्रलाप ।।

 

पागल के पल भोगता, पल-पल है बेचैन।

कहां चैन की चांदनी, खोज रही है नैन ।।

 

आस उड़ी बन कर तुहिन, हत आशा अंगार।

दर्पण दरका तो हुआ, नष्ट भ्रष्ट श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 20 ☆ व्यंग्य ☆ हरदम बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में अलीबाबा का प्रवेश ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  विचारणीय व्यंग्य  “हरदम बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में अलीबाबा का प्रवेश । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 20 ☆

☆ व्यंग्य – हरदम बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में अलीबाबा का प्रवेश ☆

“खुलजा सिमसिम” अलीबाबा ने कहा मगर दरवाजा नहीं खुला. इधर उसे मुद्राओं की सख्त जरूरत थी और उधर ‘पासवर्ड इन्करेक्ट’. उसने सिमसिम को खिमसिम ट्राय करके देखा, नहीं लगा. उसे लगा कि शायद पिछली बार जब उसे पासवर्ड बदलने को मजबूर किया गया था तब उसने सि को खि कर दिया होगा. उसने सिमखिम ट्राय किया वो भी नहीं लगा. सिमसिम@1958, सिमखिम$1958 ट्राय किये. नहीं लगे. पाँच अटैम्प्ट पूरे हो जाने पर अलीबाबा लॉक कर दिया गया. उसने फरगॉट पासवर्ड पर क्लिक किया तो कन्सोल पर क्वेस्चन वही उभर कर सामने आया जो उसने इलेक्ट्रॉनिक दरवाजा सेट-अप कराते समय चुना था – ‘नेम यूअर फेवरिट पेट एनिमल’. माल ढ़ोनेवाले गधों के अतिरिक्त अलीबाबा के पास कोई और जानवर था नहीं और इतने सारे गधों के नाम में से उसने किसका नाम रखा था याद नहीं आ रहा. एक बार उसने एक प्रिय गधे के नाम पर पासवर्ड रखा, और जब जब पासवर्ड बदलना पड़ा उसी समय गधे का नाम भी बदल लिया. दुर्योग से वो गधा अल्लाह को प्यारा हो गया. अलीबाबा फिर पुराने ढर्रे पर लौट आया. मेमोरी बढ़ाने के उसने अनेक जतन किये, एवकाडो फल खाया, ब्लूबेरी खाई, बेगमजान से सिर में बादाम तेल की मालिश करवाई, दिन में छह बार शहद के साथ कलौंजी चाटी, यूनानी नेमोनिक तकनीक का प्रयोग किया, मगर तब भी बेवफा मेमोरी उस दिन दगा दे गई जिस दिन अलीबाबा को मुद्राओं की सख्त जरूरत थी.

वैसे कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था. सिम्पल ‘सिमसिम’ से काम चल ही रहा था. फिर उसने गुफा में एक इलेक्ट्रॉनिक गेट लगवा लिया. इसके साथ ही वो बार बार बदले जानेवाले स्ट्रांग पासवर्ड की जटिल और बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में प्रवेश कर गया था. उसे हर समय एक धुकधुकी सी बनी रहती – पासवर्ड भूल न जाऊँ. कभी-कभी वो इतना घबराया हुआ रहता कि पासवर्ड लिखकर रख लेता, मगर लिखा हुआ कहाँ रखा है, एनवक्त पर यह भी याद नहीं पड़ता. मिल जाये तो पता लगता है कि इस लिखे के बाद तो पाँच बार बदला जा चुका है पासवर्ड. फिलवक्त, उसे मुद्राओं की सख्त जरूरत है और पासवर्ड लग नहीं रहा.

‘कहाँ हो इतनी देर से ?’ – फोन पर मिसेज अलीबाबा थीं.

‘आ तो रहा हूँ, पासवर्ड लग नहीं रहा.’

‘मोर्गियाना एट सिक्स्टीन लगाकर देखो. वही कलमुंही चढ़ी रहती है तुम्हारी जुबान पर.’ – मिसेज अलीबाबा को घर की नौकरानी पर शक रहता था.

‘कुछ भी मत बको, बेगमजान’

‘बहुत दिनों से तुम्हारी लीला देख रही हूँ मैं. पासवर्ड याद रखने के बहाने दिन भर उसका नाम जपते रहते हो.’ – मिसेस अलीबाबा बिफर पड़ीं.

“मुसीबतें तो सारी तुम्हारे नाम से शुरू होती हैं, बेगमजान. आज भी यही हुआ लगता है, तुम्हारा नाम और शादी का साल मिलाकर बनाया था पासवर्ड. केरेक्टर गलत हो रहा है शायद.”

“हाय अल्लाह, मेरा केरेक्टर बखान रहे हो.”

“अरे वो वाला केरेक्टर नहीं बेगमजान…..”

“वो मैं सब समझती हूँ, घर आओ तो बताती हूँ तुम्हारे पूरे खानदान का केरेक्टर. मुझे केरिये हैं के केरेक्टर गलत है, मुझे!!” – बुक्का फाड़ कर रोने लगीं मिसेज अलीबाबा. पासवर्ड के कारण वो एक नई मुसीबत में पड़ गया. खैर, उससे वह बाद में घर जाकर निपट लेगा फिलहाल जरूरी दरवाजा खुल नहीं रहा.

अलीबाबा ने कॉल सेंटर फोन किया. एक मधुर स्वर ने उसे वेलकम कहा, फिर अपनी लैंगवेज़ चुनने को कहा. फारसी का ऑप्शन था नहीं और अंग्रेज़ी अलीबाबा को बस काम चलाऊ ही आती थी. कुछेक सवालों को जैसे तैसे पकड़कर बात करने की कोशिश की तो समझ में आया कि कंपनी पासवर्ड रिसेट नहीं करेगी, लॉक सिस्टम पूरा रिप्लेस करना पड़ेगा जो काफी महंगा है. उसने मिन्नतें की, मगर हर सेंटेन्स के बाद कोकिल कंठ क्षमा मांगते हुवे उसे वही वही रिप्लाय रिपीट कर देती. खीज गया अलीबाबा. ‘आपका दिन शुभ हो’ से संवाद खत्म हुआ.

और चालीस चोर!! वे साइबर क्रिमिनल्स की भूमिका में पर्शिया से लेकर इधर झूमरी तलैया और उधर नाईजीरिया तक फैल गये हैं. अब वे तेल के पीपों में भरकर नहीं आते, सिस्टम में ट्रोजन हार्स की तरह घुस जाते हैं. अलीबाबा अपना पासवर्ड रिकवर कर पाये न कर पाये – चालीस चोरों में कोई किसी दिन उसे क्रेक कर ही लेगा. उसकी चिंता का यही सबसे बड़ा सबब है. फ़िलवक्त, वह सिर पकड़ कर गुफा के बंद दरवाजे के बाहर बैठा है. घर वापसी के लिये पास ही निरापद, निस्तब्ध, नीरव मुद्रा में खड़े गधे ने अपने मालिक को इतना निराश, उदास, चिंतित, घबराया सा, बेचैन कभी नहीं देखा. अलीबाबा की दुनिया इतनी जटिल भले हो गई हो उसकी सवारी की दुनिया अब भी वैसी की वैसी है.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 42 – घाटी से उतरी नदी कोई… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “घाटी से उतरी नदी कोई … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 42 ।। अभिनव गीत ।।

घाटी से उतरी नदी कोई…  ☆

टिप्पणियाँ शाम की किताब पर

ऐसी क्या छाप दीं उन्होंने

रीत चले धूप के भगौने

 

दूब के चुनिंदा मैदान सभी

हरयाले मोरपंख जैसे

घाटी से उतरी नदी कोई

संग लिये सीप-शंख ऐसे

 

जैसे परछाईं हो लम्बग्रीव

पसर गई है कौन-कोने

 

पेड़ मौन सभापति सरीखे

जड़वत हैं किंतु राह ताकते

पूछ रहे पक्षी घर लौटते

आपस में अपने अते-पते

 

झूठी मर्यादा को लाँघते

नकली व्यक्तित्व पड़े ढोने

 

पनिहारिन हवा सहम घाट पर

संकोचों को सहेज  पूछती

लौटेंगे अलगोजे, चरवाहे

गली-गली बालों को ऊँछती

 

चला गया सूरज अस्ताचल को

रक्तवर्ण लगाकर दिठौने

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

28-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 88 ☆ विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन – प्रवाह ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता – – –

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 88

☆ विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन – प्रवाह ☆

सबसे बड़ी होती है आग ,

और सबसे बड़ा होता है पानी ,

 

तुम आग पानी से बच गए ,

तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती ,

 

धरती से पहचान कर लोगे ,

तो हवा भी मिल सकती है ,

 

धरती के आंचल से लिपट लोगे ,

तो रोशनी में पहचान बन सकती है ,

 

तुम चाहो तो धरती की गोद में ,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो ,

 

धरती को नाखूनों से खोदकर ,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो ,

 

या धरती में खड़े होकर ,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो ,

 

तुम मन भर जी भी सकते हो ,

धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो ,

 

कोई फर्क नहीं पड़ता ,

यदि जीवन खतम होने लगे ,

 

असली बात तो ये है कि ,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे ,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #35 ☆ मैं स्वाभिमानी हूँ ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “मैं स्वाभिमानी हूँ ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 35 ☆

☆ मैं स्वाभिमानी हूँ ☆ 

जिंदगी में सदा मुझको अंधेरे मिलें

उजाले के लिए मैं लड़ता रहा

पथ में बिछें थे कांटे मगर

मैं जख्मी होकर भी चलता रहा

 

तूफानों ने मुझको कई बार रोका

घर उजाड़ने काफी था एक झोंका

तिनके तिनके जोड़कर बनाया

था आशियाना

सजाया-संवारा जब भी मिला मौका

 

राह में एक खूबसूरत हमसफ़र मिलीं थीं

हाथ थामे संग संग

कुछ दूर चली थी

परंपराओं के, रूढियोंके बंधन

ना वो तोड़ पायी

बिखर गए सपने

पर वो लड़की भली थी

अपनों ने मुझको हमेशा रूलाया

ना दर्द बांटा, ना पास बिठाया

हिम्मत दी मुझको, जो थे पराये

खिलाया निवाला, गले से लगाया

 

मैंने अपने उसूलों  सें

समझौता नहीं किया

सत्य के मार्ग पर चला

झूठ का सहारा नहीं लिया

हो उनको मुबारक,

ये दौलत, ये महल सारे

मै स्वाभिमानी हूँ

मैंने भीख में कुछ नहीं लिया

#

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 38 ☆ महिमा भक्तीचा… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 38 ☆ 

☆ महिमा भक्तीचा… ☆

(अष्ट-अक्षरी… काव्य)

(सदर रचनेमध्ये दोन दुवे आहेत… एक अष्ट-अक्षरी.. आणि दुसरे… अंत्य-ओळ…)

कसे सांगू सांगा तुम्ही

गोड महिमा भक्तीचा

भक्ती-विना होत नाही

मार्ग मोकळा मुक्तीचा…०१

 

मार्ग मोकळा मुक्तीचा

करा धावा श्रीप्रभुचा

तोच आहे वाली आता

अन्य कोणी न कामाचा…०२

 

अन्य कोणी न कामाचा

सर्व लोभी आहेत हो

अर्थ असेल तरच

मैत्री, ती  करतात हो…०३

 

मैत्री, ती करतात हो

धर्म हा लोप पावला

अंध-वृत्ती वर आली

सुज्ञ इथेच  वेडावला…०४

 

सुज्ञ इथेच  वेडावला

पाश-मोह आवळला

जाण इतुकीही न आता

ज्ञान-दीप मावळला…०५

 

ज्ञान-दीप मावळला

राज सहज बोलला

कृष्ण-भक्ती, ही सोज्वळ

स्मरा त्या श्रीगोविंदाला …०७

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 91 ☆ व्यंग्य – शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  समसामयिक विषय पर विचारणीय व्यंग्य  ‘शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 91 ☆

☆ व्यंग्य – शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव 

बंगाल में अफरातफरी का माहौल है। तू चल मैं आया की स्थिति है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि रोज़ पार्टी बदल रहे हैं। हर दूसरे चौथे दिन पार्टी-परिवर्तन के जलसे हो रहे हैं। गले में नयी पार्टी के दुपट्टे डाले जा रहे हैं, चरन-धूल बटोरी जा रही है। पता नहीं कभी माता- पिता के चरन भी छुए थे या नहीं। दल-बदलुओं के मुख पर चौड़ी मुस्कान है,  पुरानी पार्टी छोड़ने का कोई मलाल नहीं है। जैसे गंगा-स्नान को आये हों। जनता भकुआयी देख रही है। यह सब किसके लाभार्थ हो रहा है? यह हृदय-परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ? जिन्हें कल तक गाली देते मुँह सूखता था, अब उन्हीं के लिए मुख से फूल झर रहे हैं। लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। हमारा देश विश्वगुरू है, सौ टंच ईमानदार है। यहाँ यह सब होता रहता है, फिर भी हमारी महानता बेदाग़ रहती है। यहाँ चार पाँच बार पार्टी बदल चुके सिद्धांतवादी भी बैठे हैं। याद करना मुश्किल है कि कब कहाँ से चले थे और किस किस घाट का पानी पीकर इस घाट लगे। जहाँ भी जाएंगे, दाना-पानी तो पायेंगे ही।

विधायक गुन्नू बाबू से पूछा जाता है कि पार्टी क्यों बदल रहे हैं। जवाब मिलता है, ‘अरे भाई,  क्या बताएँ! बहुत तकलीफ है। अंतरात्मा चैन से नहीं बैठने देती। बार बार पुकारती है ‘पार्टी बदलो, पार्टी बदलो’। इतना परेशान करती है कि रात को नींद नहीं आती। उठ उठ के बैठ जाता हूँ। उठ के लॉन में चक्कर लगाता हूँ, फिर भी चैन नहीं मिलता। पार्टी छोड़ना कोई आसान काम है क्या? अरे राम राम!’

सवाल होता है,  ‘अंतरात्मा क्यों परेशान करती है,  गुन्नू बाबू?’

गुन्नू बाबू बड़े भोलेपन से उत्तर देते हैं,  ‘देखो भाई,  हम पॉलिटिक्स में जनता की सेवा के लिए आये हैं। अब हमारी पार्टी में जनता की सेवा का मौका नहीं मिलता। जनता की सेवा का मौका नहीं मिलेगा तो हम पार्टी में कैसे रहेंगे? जनता को क्या मुँह दिखायेंगे?’

फिर कहते हैं,  ‘हमको एक ही काम आता है—जनता की सेवा करना। दूसरा काम नहीं आता। तीन पीढ़ी से यही कर रहे हैं और बाल-बच्चों को भी इसी की ट्रेनिंग दे रहे हैं। पूरी जिन्दगी जनता को समर्पित है। जनता के लिए जीना है और जनता के लिए मरना है। जनता की सेवा जैसा संतोष कहीं नहीं।’

रिपोर्टर पूछता है,  ‘कोई पद-पैसे का लालच है क्या?’

गुन्नू बाबू कानों को हाथ लगाते हैं,  कहते हैं,  ‘अरे राम राम! जनता की सेवा में पद-पैसे का क्या सवाल? ये तो अपने ध्यान में आता ही नहीं है। बस अंतरात्मा की पुकार सुनना है और जिधर जनता की सेवा का मौका मिले उधर जाना है। फायदा नुकसान का एकदम नहीं सोचना है। भारत माता की जय।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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