मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 70 – मला वाटले भेटशील एकदा …. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #70 ☆ 

☆ मला वाटले भेटशील एकदा …. ☆ 

मला वाटले, भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही, कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

येते म्हणाली, होतीस तेव्हा जाता जाता

किती वाढले, दोघांमधले अंतर अंतर…!

 

रोज वाचतो, तू दिलेली ती पत्रे बित्रे

भिजून जाते, पत्रांमधले अक्षर अक्षर…!

 

तूला शोधतो, अजून मी ही जिकडेतिकडे

मला वाटते, मिळेल एखादे उत्तर बित्तर…!

 

स्वप्नात माझ्या, येतेस एकटी रात्री रात्री

नको वाटते, पहाट कधी ही रात्री नंतर…!

 

उभा राहिलो, ज्या वाटेवर एकटा एकटा

त्या वाटेचाही, रस्ता झाला नंतर नंतर…!

 

विसरून जावे, म्हणतो आता सारे सारे

कुठून येते, तूझी आठवण नंतर नंतर…!

 

मला वाटले, भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही, कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १२) – राग~ वसंत ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १२) – राग~वसंत ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूरसंगतराग~वसंत

ऋतुचक्रांतील वसंत ऋतूचे आगमन झाले की शिशीरांत निष्पर्ण झालेल्या सृष्टीत नवचैतन्य येते. वृक्ष वल्लरींना नवी पालवी फुटून सर्वत्र निसर्ग बहरास येतो. संगीतांतील वसंत रागाचे ह्या ऋतूशी फार जवळचे नाते आहे असे म्हटले तर वावगे ठरणार नाही. वसंताचे अवरोही स्वर कानावर पडले की उत्साहाचे वातावरण निर्माण झालेच पाहीजे.असा हा राग वसंत!

ह्या रागासंबंधी फार मनोरंजक अशी आख्यायिका आहे. असे म्हणतात की बूढन मिश्र नावाच्या एका गायकाने पटमंजीरी हा राग गायला आणि त्याच्या प्रभावाने एक प्रचंड वृक्ष निष्पर्ण झाला. हा चमत्कार पाहून सर्व मंडळी आश्चर्यचकित झाली.  तत्कालीन राजाने त्याच्या या गायनकौशल्यावर खूष होऊन त्याला बक्षीशीही दिली,परंतु त्याचवेळी जयदेव या गायकाला ही बातमी समजल्यावर त्याने वसंत राग आळवून पर्णविरहीत वृक्षावर पुन्हा नवीन पालवी नार्माण केली. वसंत ऋतूतील नवी पालवी आणि हा राग याचे असे हे अतूट नाते आहे. गीत गोविंद या जयदेवाच्या अमर ग्रंथातील”ललित लवंगलता परिशीलन कोमल मलय समीरे” ही अष्टपदी म्हणजे वसंत ऋतूचे सुंदर वर्णन आहे, ती वसंत रागांत गायली तर अधिक मनभावन ठरते.

हा आल्हाददायक राग वसंत ऋतूत केव्हाही गावा, मात्र इतर वेळी तो मुख्यत्वेकरून रात्रीच्या अंतीम प्रहरी गाण्याची/वाजविण्याची प्रथा आहे.

चैत्र~ वैशाख हा वसंत ऋतूचा काळ असला तरी माघातल्या वसंत पंचमीपासून फाल्गुनी पौर्णिमेपर्यंत वसंतोत्सव साजरा केला जातो. या वसंतोत्सवाला फाग म्हणतात. त्यामुळे राधा~कृष्णाच्या रासक्रीडा नृत्य ~संगीतांतून सांगातली जाते.अब्दूलकरीमखाॅं साहेबांची “फगवा ब्रीज खेलनको चलोरी” ही वसंतातली बंदीश आजही पेश केली जाते.’नबी के दरबार’ हा वसंतांतील बडा ख्याल गंगूबाई हनगल, माणिक वर्मा यांच्याकडून रेडिओवर बर्‍याचदां ऐकल्याचे स्मरते.

वसंतच्या शास्त्रीय स्वरूपाबाबत प्राचीन काळापासून बरेच मतभेद आहेत. असे म्हणतात की गंधार व निषाद कोमल असलेला काफी थाटात गायला जात असे. कवी जयदेवाच्या गीतगौविंदमध्ये हा राग असा आहे. जग्गनाथपूरीच्या मंदीरांतही अजूनही काफी थाटातला वसंत गायला जातो. मात्र सध्या प्रचलित असलेला वसंत  पूर्वी थाटांतील आहे. यांतही दोन प्रकार आहेत. एका प्रकारात दोन मध्यम व शुद्ध धैवत घेऊन पंचम वर्ज्य केला जातो तर दुसरा प्रकार संपूर्ण मानला जातो. कितीही वाद असले तरी दोन्ही मध्यमांचा प्रयोग करणारा ललित अंगाचा वसंतच आज अधिक प्रचलित आहे.

वादी व संवादी स्वर अनुक्रमे तार षड्ज व पंचम असे आहेत, शुद्ध धैवताच्या प्रकारांत पंचम वर्ज्य असल्यामुळे शुद्ध मध्यम संवादी मानतात.

या रागाचे वैशिष्ट्य असे की षड्जापर्यंत अवरोह झाल्यावर लगेच शुद्ध मध्यम मुक्तपणे व स्वतंत्र घेतला जातो व नंतर मींडेच्या सहाय्याने ‘नी (ध)(म)(ध) नी सां’ असा आरोह केला जातो.राग ओळखण्याचे हे व्यवच्छेदक लक्षण आहे. उत्तरांगप्रधान असलेला हा राग स्वरसप्तकाच्या उत्तरांगांत अधिक खुलतो.

ह्या वसंत किंवा बसंत रागाबरोबर बसंतबहार, बसंतहिंडोल, बसंती~केदार असे बरेच जोड राग आहेत. कुमार गंधर्वांनी गौरी बसंत तर रातंजनकरबुवांनी बसंत मुखारी हे राग लोकप्रिय करून ठेवले आहेत.

“केतकी गुलाब जूही मन बसंत फूले” ही बसंत बहारची बंदीश प्रसिद्ध आहे. मंदारमाला नाटकांतील पं.राम मराठे आणि प्रसाद सावकार यांची “बसंतकी बहार आयी” ही जुगलबंदी न ऐकलेला श्रोता विरळाच! सर्व सामान्यांसाठी बसंतचे उदाहरण घ्यायचे झाले तर देवदास चित्रपटांतील माधुरी दिक्षित(चंद्रमुखी)हिचे “काहे छेड छेड मोहे गरवा लगाये हे वसंत रागांतील गाण्यावरील नृत्य.

वसंत ऋतूचे स्वागत करणारा आणि कलावंतांच्या विशेष पसंतीचा आणि अतिशय प्राचीन असा हा राग वसंत/बसंत!

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 87 – हम कुछ तो भी हैं……. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी होली के रंग की एक रचना हम कुछ तो भी हैं……. । )

☆  तन्मय साहित्य  #87 ☆

 ☆ हम कुछ तो भी हैं……. ☆

छद्मसिरी साहित्य शिरोमणि

ये भी, वो भी हैं

नीरज, निराला भले नहीं

पर हम कुछ तो भी हैं।

 

फोटो छपती है अपनी

प्रतिदिन अखबारों में

नाम हमारा चर्चित

साहित्यिक फ़नकारों में

पदम सिरी मिलने की

उम्मीदें हमको भी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

सोशल मीडिया पर भी

तो हम ही हम छाएँ हैं

कितने ही सम्मान

यहाँ पर हमने पाएँ हैं,

मोबाईल ने सम्मानों की

फसलें बो दी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

लाज शर्म संकोच छोड़

मुँह मिट्ठू स्वयं बनें

पाने को अमरत्व, सतत

जारी प्रयास अपने,

कविताई के विकट

संक्रमण के हम रोगी हैं

दिनकर नीरज…….।।

 

बात करो मत उसकी

वो हमसे ही सीखा है

क्या सरजन है उसका

रूखा, सूखा, फीका है,

हम तो कर देते अमान्य

लिखता वह जो भी है।

दिनकर नीरज……..।।

 

रोज रोज आते सुंदर

कविताओं के सपने

साधें शब्दजाल से

सब को, हो जाएँ अपने

लिखा, भूख – रोटी पर

खुद कविताएँ रो दी है।

दिनकर नीरज…….।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं – 8 – बिनसर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -8 – बिनसर ☆ 

बिनसर एक छोटा सा गाँव है और यहीँ क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम तीन दिन रुके और प्रत्येक दिन सुबह सबेरे पहाड़ी क्षेत्र में सैर का आनन्द लिया । ऐसी ही सुबह की सैर करते समय दो पांडेय बंधु मिल गए। मेहुल पांचवीं में पढ़ते हैं तो उनके चचेरे भाई वैभव पांडे जवाहर नवोदय विद्यालय की सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं। मेहुल वैज्ञानिक बनने का इच्छुक है और वैभव बड़ा होकर गणित का शिक्षक बनने का सपना संजोए हुए है। वैभव कहता है सफल जीवन के लिए गणित में प्रवीणता जरुरी है, वैज्ञानिक भी वही बन सकता है जिसकी गणित अच्छी हो। मुझे उसकी बातें अच्छी लगी और थोड़ी आत्मग्लानि भी हुई, कारण मुझे तो गणित से शुरू से, बचपन से ही डर लगता था। गणित की कमजोरी ने मुझे जीवन में मनोवांछित सफलता से दूर रखा और दुर्भाग्य देखिए मुझे रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन भी भौतिक रसायन में करना पड़ा जिसे गणित ज्ञान के बिना समझना मुश्किल है फिर नौकरी भी बैंक में की जहां गणित का गुणा-भाग बहुत जरुरी है।  मैंने भी अपने अनुभव के आधार पर उसकी बात का समर्थन किया। पर्यावरण के विषय में दोनों बच्चों से चर्चा हुई, पर जितना स्कूल की किताबों में उन्होंने पढ़ा वे उसे स्पष्ट तौर से बता तो न सके लेकिन मोटा मोटी-मोटी जानकारी उन्हें थी। शायद गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं, उनमें संवाद क्षमता का अभाव होता है। मैंने अपना थोड़ा सा ज्ञान उन्हें दिया। मैंने बताया कि कैसे हिरण आदि जंगली जानवर पर्यावरण की रक्षा करते हैं। उनके द्वारा खाई गई घांस के बीज दूर दूर तक फैलते हैं और  दौड़ने से खुर पत्थर को मुलायम कर देता है इससे जमीन की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। बच्चों ने मुझे बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी देखने की सलाह दी और अनेक जंगली जानवरों, बार्किंग डियर, जंगली बकरी आदि के बारे में बताया। उन्होंने बताया की देवदार का पेड़ काफी उपयोगी है। लकड़ी जलाने के काम आती है और फर्नीचर भी बनता है। बच्चों से मैंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में पूंछा । उन्हें  एकाएक याद तो नहीं आया पर जब मैंने पेड़ों की कटाई रोकने के योगदान की बात छेड़ी तो मेहुल बोल पड़ा हां चिपको आन्दोलन के बारे में उसने सुना है।

बच्चों को गांधी जी के बारे में भी मालूम है।  गांधी जी के नाम से लेकर उनके माता पिता कानाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान आदि सब वैभव ने एक सांस में सुना दिया। अब मेहुल की बारी थी, उसने गांधी जी की हत्या की कहानी सुनाई कि 30 जनवरी को उन्हें तीन गोलियां मारी गई थी। मैंने पूंछा गांधी जी के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो, वे बोले हम तो गांधीजी के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ते ही हैं फिर हमारे   परदादा स्व.श्री हर प्रसाद पाण्डेय (1907-1978 ) स्वतंत्रता सेनानी थे और अल्मोड़ा जेल में भी बंद रहे। हालांकि बच्चों ने उन्हें गांधी जी के साथ जेल में बंद होना बताया पर शायद वे नेहरू जी के साथ बंद रहे। उनकी मूर्ति भी गांव में लगाई गई है। पर मूर्त्ति में लगा उनका नाम पट्ट  छोटा है और उद्घाटनकर्ताओं की पट्टिका बहुत लंबी चौड़ी है।

दोनों बच्चों से मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वे सवर्ण समुदाय के हैं और तरक्की करना चाहते हैं। उनकी यह सोच मुझे सबसे अच्छी  लगी, अद्भुत व अद्वतीय लगी। ऐसी सोच का मुझे मध्य प्रदेश के सवर्ण छात्रों में अभाव दिखा है और उन्हें भी शनै शनै धार्मिक कट्टरवाद की ओर ढकेला जा रहा है। वैभव को जवाहर नवोदय विद्यालय में , प्रतियोगिता से प्रवेश मिला था, पूरे ब्लाक से उसका अकेला चयन हुआ। दोनों के पिता साधारण कर्मचारी हैं और उन्होंने अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का जो सपना संजोया है उसे पूरा करने में अपनी ओर से कोताही नहीं बरती है।अब सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके सपने ध्वस्त न होने दें। अगर वैभव सरीखे बच्चे आगे बढ़ेंगे तो देश का भविष्य संवरेगा और यह बच्चे आगे बढ़ें, खूब पढ़ें , तरक्की करें इसकी जिम्मेदारी समाज की है, हम सबकी भी है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆ रुखसत हो गयी जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रुखसत हो गयी जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆

☆ रुखसत हो गयी जिंदगी 

 

रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,

मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||

 

कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,

जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||

 

जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,

हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||

 

होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,

हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||

 

जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,

खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||

 

दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,

बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 90 – ☆ कमळखुणा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 90 ☆

 ☆ कमळखुणा  ☆ 

आठवणी आता पुसट होत  चालल्यात सखी,

गढुळ पाण्यातल्या प्रतिबिंबासारख्या !

त्याच पाण्यात फुलल्या होत्या कधी,

शुभ्र कुमुदिनी,

आकांक्षेचं नीळं कमळ,

याच पाण्यात पाहिलं होतं ना आपण?

एक डोळा बंद करून,

कॅलिडोस्कोपमध्ये दिसणारी

हसरी, नाचरी, रंगीबेरंगी

असंख्य काचकमळं

फेर धरून नाचत रहायची!

 

रविवारची साद….

चर्चच्या घंटेचा नाद

एक भावणारा निनाद,

जाईच्या मांडवाखाली

पसरलेल्या वाळूत

काच लपविण्याचा खेळ

“काचापाणी”

तेव्हा ठाऊक तरी होतं का ?

भविष्यात पायाखाली

काचाच काचा अन् डोळाभर

पाणीच पाणी !

आठवणी आता पुसट होत चालल्या तरी,

कमळखुणा खुपतात ग काळजापाशी!

© प्रभा सोनवणे

(अनिकेत काव्यसंग्रह १९९७)

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆

☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆

नाशाद है दिल बस, हारा नहीं है

ज़िंदगी की शय से, मारा नहीं है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी की शाम में और भी फ़साने हैं

वो भी एक ज़माना था, और भी ज़माने हैं

इंतज़ार नहीं तो क्या, कुछ तो लिखा होगा

लिखाई जानने के हम कितने ही दीवाने हैं

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

महफ़िल ये दोस्तों की, लहर लहर बहती है

इतराती ये शान से, कहानी कोई कहती है

भूल ही जाओ ग़म सब, ख़ुशी में अब खोना है

मुस्कान सी जाने क्यूँ आरिज़ पर अब रहती है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी ये बस लम्हे की चुटकी भर के हैं पल

जुस्तजू तुम बिखेर दो खिल उठें कई कमल

धुंआ धुंआ सा अब नहीं हमें यूँ बिखेरना है

लम्हे ये नदिया से बहने लगे हैं कल कल

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 – लघुकथा – क्षमादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा  “क्षमादान ।  बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 82 ☆

? लघुकथा – क्षमादान ?

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।

आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।

परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।

उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।

स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार  पसंद आएगा।”  वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।

उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”

“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”

वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 89 ☆ देहचा सागर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 89 ☆

☆ देहचा सागर ☆

नको उगाळूस दुःख

नाही चंदन ते बाई

दुःख माती मोल त्याला

गंध सुटणार नाही

 

तुझ्या कष्टाच्या घामाचे

नाही कुणालाच काही

पदराला ते कळले

टीप कागद तो होई

 

पापण्यांच्या पात्यावर

दव करतात दाटी

हलकासा हुंदका ही

फुटू देत नाही ओठी

 

तुझ्या देहचा सागर

सारे सामावून घेई

नाही कुणाला दिसलं

किती दुःख तुझ्या देही

 

संसाराला टाचताना

बघ टोचली ना सुई

कर हाताचा विचार

नको करू अशी घाई

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#42 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।

भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।

 

कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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