हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#41 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

मन ने जब मांगा तुम्हें, मिला सहज ही साथ ।

याचक की तृष्णा बढ़ी, फैलाए  हैं हाथ ।।

 

अकुल होता मन मगर, रह जाता मन मार ।

खंडहर भी तो चाहते, शब्दों की झंकार ।।

 

शिरोधार्य संकेत है, इच्छा करें उपास।

मैं चातक की भांति ही, रोक सकूंगा प्यास।।

 

शब्द और संकेत के, सारे व्यर्थ प्रयास।

चातक भी कहने लगा, मुझे लगी है प्यास।।

 

मूरत का मन हो गया, चलें दूसरे गांव।

भक्त बेचारे भटक कर, तोड़ रहे हैं पांव।।

 

यार बना जाएं कहां, तुमने किया अनंग।

डोर तुम्हारे हाथ है, हम तो बनी पतंग।।

 

मृग ने किस से कब कहा, मुझे लगी है प्यास ।

उत्कटता यह मिलन की, जल दिखता है पास।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 40 – कहाँ खो गई सच में वह… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “कहाँ खो गई सच में वह … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 40 ।। अभिनव गीत ।।

कहाँ खो गई सच में वह…  ☆

अब तो बेशक नहीं बीनती

मुन्नू की बीबी है पन्नी

ना  ही अब वह कटे बाल की

लड़की काटा करती  कन्नी

 

शर्मा चाची के घुटनों में

गठिया आकर बैठ गई है

और मौसमी जंतर मंतर

के कामों से ऐंठ गई है

 

हर गुनिया चबूतरे वाला

कमर सम्हाले दोहरा होकर

कहता ईश्वर मुझे उठा ले

क्या आया था मोती बो कर

 

पता नहीं है कहाँ खो गया

नहीं बेचने हींग आता है

लगता उसका नहीं रहा

इस मिर्च मसाले से नाता है

 

मिस्सी वाली भी मर खप कर

चली गई ईश्वर के घर में

गाँव और उसकी बातों की

याद बच गई एक अठन्नी

 

नही आ रहा इधर बेचने

खालिश भेड़ ऊन का कम्बल

नाही हरियाणे की खेसें

और नहीं पंजाबी चावल

 

कहाँ खो गई बुढलाडा की

संतति देती प्रेम पियारी

कहाँ खो गई सागर की

फरमाइश करती राम दुलारी

 

लील गई महगाई वर्तन

कलईदार मुरादाबादी

घर में बची रह गई केवल

रमुआ से बुनवाई खादी

 

आँखों से कमजोर हुई है

वही साहसी धनिया नाइन

गा पाती अब नही पुराने

सधे गले से बन्ना बन्नी

 

कहाँ खो गई सच में वह

केसर कस्तूरी वाली मुनिया

और कहाँ बेचा करती है

अपनी चूड़ी, भौजी रमिया

 

नहीं दिखाई देती है वह

कंता छींके- रस्सी वाली

और कहाँ मर गया बिचारा

रंगोली वाला बेताली

 

कहाँ खो गई निपटअकेली

फल वाली वह दुर्बल चाची

जिसकी साल गिरह पर अपनी

सारी बस्ती मिलकर नाची

 

देख नहीं पाती आँखों से

दुर्जन की दुबली सी दादी

जो बचपन में दे देती थी

मुझको पीली एक इकन्नी

 

कहाँ खो गया  जुगत भिड़ाता

अपना वह अर्जुन पटवारी’

कहाँ गई तकनीक बताती

लछमन की भोली- महतारी

 

कहाँ गया तुलसी की माला

पहने वैद्य लटेरी वाला

कहाँ गया सिद्धांत बताता

उसका, संग में आया साला

 

कहाँ गये परसाद बांटते

चौबे जी चन्दापुर वाले

कहाँ गई जो रही वेचती

अलीगढ़ी ,मनसुखिया ताले

 

इन्हें तपेदिक ले डूबा है

सबसुख ,निरपत, गनपत ,भूरे

जगपरसाद, निरंजन, भगवत

रज्जन, निर्भय,ओमी, धन्नी

 

निपट गया इस कोरोना में

वह काना कल्लू पनवाड़ी

रोज रोज डाला करता था

पानों में वह सड़ी सुपाड़ी

 

जस्सू की बिटिया रामू संग

भाग गई है चुपके पटना

नहीं बच सका जस्सू बेशक

हुई जान लेवा यह घटना

 

ठाकुर के गुण्डों ने पिछले

दिनों जला डाली थी फसलें

किंकर ने मागी थी माफी

सोचा शायद इससे बच लें

 

दिया उजाड़ सभी कुछ उसका

नहीं बचा पाया वह अपनी

जायदाद का तिनका-तिनका

रात कह गई ,संध्या बिन्नी

 

नहीं बनाया करता है अब

गुड़-बिसवार-घी-डले लड्डू

मरा चिकनगुनिया से सनकी

मेंढक सा दिखता वह डड्डू

 

महराजिन जो सुबह सुबह आ

पुड़ी-परांठे तलती घर के

उसको गुण्डे उठा ले गये

क्या बतलायें इसी शहर के

 

छम्मू का अपहरण हो गया

केवल एक चेन के कारण

दो दिन बाद लाश खेतों में

मिली मरा वह नहीं अकारण

 

उसकी चेन रही पीतल की

बदमाशों को पता चला जब

गला दबाकर उसको फेंका

बतलायी थी मौसी चन्नी

 

पूरा गाँव पिया करता है

चुप महुये की कच्ची दारु

निर्थन क्या, अमीर  क्या सारे

मानुष क्या और क्या मेहरारू

 

बाकी लोग जुये सट्टे में

गाफिल रहते हैं सारे दिन

बचे रहे जो मोबाइल पर

रखे हुये हैं उसकी ही धुन

 

चुप है सभी समाज वेत्ता

चेतन के पुरजोर समर्थक

साबित हुये सभी विद्वत्‌ जन

झूठे, निष्क्रिय और निरर्थक

 

सुधर सके ये काश बदल

जायेगा ग्राम हमारा बेशक

हम उम्मीद रखा करते है

रुपये में बस एक चवन्नी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 86 ☆ कविता – जीतने वाले…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता जीतने वाले….। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 86

☆ कविता – जीतने वाले…. ☆

कविता__

 

जीत के

अक्षर में

शब्द हंसते हैं,

 

शब्द हमेशा

टटोलते हैं

जीत का मतलब,

 

जीतने वाले

शब्दों से

खेलते नहीं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मान देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मधुर बनाते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

हंसी देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

नये अर्थ देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

आत्मसात करते हैं,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #33 ☆ वो सुनती रही ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महिला दिवस पर सार्थक एवं भावप्रवण कविता “वो सुनती रही ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 33 ☆

☆ महिला दिवस विशेष – वो सुनती रही ☆ 

बचपन से वो

दादा -दादी, नाना -नानी

माता-पिता की सुनती रही

स्कूल मे टीचर की सुनती रही

युवावस्था मे

सहेलियों की सुनती रही

यौवन की पहली सीढ़ी पर

जमाने की सुनती रही

विवाह के बाद

पति की सुनती रही

ससुराल मे  सास-ससुर की

सुनती रही

बच्चे हुये तो

बच्चो की सुनती रही

बच्चो के विवाह के बाद

बेटे-बहू की सुनती रही

अब प्रोढ़ावस्था मे जब

उसने मुँह  खोला

तर्क देकर मनका भेद  बोला

तो घर हो या  बाहर

सबने  कहा –

वोतो सठीया गई है

उसमें तर्क संगत बात करने की

बुध्दि कहां रही है

उसका  जीवन सुनते सुनते ही बीता है

ना जाने हर युग मे

क्यों वनवास मे सिर्फ सीता  है ?

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 17 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 17 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

ज्या प्रमाणे  कळीमधून कमळ हळू हळू उमलत जावे, त्याममाणे माझा सर्वांगीण विकास हळूहळू होत होता. माझ्या व्यक्तिमत्वातील सूप्त गुण फुलत होते. नवरत्न दिवाळी अंकाच्या माध्यमातून आमचा छोटासा महिला वाचन कट्टा तयार झाला. त्यामध्ये आम्ही कविता वाचन हिरीरीने करतो. त्यातीलच सौ.मुग्धा कानिटकर यांनी त्यांच्या घरी हॉल मध्ये माझ्या एकटीचा नृत्याचा कार्यक्रम ठेवला होता. त्यांनी आपल्या अनेक मैत्रिणींना आमंत्रित केले होते. त्यामध्ये मी भरतनाट्यम चा नृत्याविष्कार सादर केला आणि कविताही सादर केल्या नाट्य सादर केले.त्या सर्वांनी माझे तोंड भरुन कौतुक केले.त्यांच्या शाब्बासकी मुळे मला खूप प्रोत्साहन मिळाले.

त्यापाठोपाठ तसाच कार्यक्रम मिरजेतील पाठक वृद्धाश्रमात मला आठ मार्च महिला दिनी कार्यक्रम सादर करण्याची संधी मिळाली. सर्व आजी कंपनी मनापासून आनंद देऊन गेल्या आणि त्यांनी मला भरभरून आशीर्वाद दिले.

5 जानेवारी 2020 रोजी आमच्या नवरत्न दिवाळी अंकाच्या पुरस्कार वितरण सोहळा, सेलिब्रिटी श्रीयुत प्रसाद पंडित यांच्या उपस्थितीत साजरा झाला. त्याप्रसंगी मला स्वातंत्र्यवीर सावरकरांचे जयोस्तुते हे गीत नृत्य रुपात सादर करायला मिळाले.विशेष म्हणजे सुरवाती पासूनच सर्व प्रेक्षकांनी टाळ्यांचा ठेका धरला होता आणि नृत्य संपल्यावर सर्वांनी त्या गाण्याला आणि नृत्याला उभे राहून टाळ्यांच्या कडकडाटात अभिवादन केले. अर्थात हे मला नंतर सांगितल्या वर समजल. विशेष म्हणजे श्री प्रसाद पंडित यांनी कौतुकाची थाप दिली आणि मला म्हणाले, ” शिल्पाताई, आता आम्हाला तुमच्या बरोबर फोटो काढून घ्यायचाय.”

माझ्यातील वक्तृत्वकला ओळखून मी सूत्रसंचालन ही करू शकेनअसे वाटल्याने लागोपाठ तीन मोठ्या कार्यक्रमांचे सूत्रसंचालन करण्याची संधी मला दिली गेली. एका नवरत्न दिवाळी अंकाच्या प्रकाशनाचे सूत्रसंचालन गोखले काकू यांच्या मदतीने मी यशस्वी करून दाखवले.ते अध्यक्षांना नाही इतके भावले की त्यांनीच माझा शाल श्रीफळ देऊन सत्कार केला.त्यानंतर माझा भाऊ पंकज न्यायाधीश झाल्यानंतर आई-बाबांनी एक कौतुक सोहळा ठेवला होता. त्याचेही दमदार सुत्रसंचलन मीच केले ज्याचे सर्वांनी खूप कौतुक केले. दुसऱ्या दिवशी पंकज दादा मला म्हणाला, ” शिल्पू ने समोर कागद नसतानाही काल तोंडाचा पट्टा दाणदाण सोडला होता.” तसेच माझी मैत्रिण अनिता खाडिलकर हिच्या “मनपंख” पुस्तकाचे प्रकाशनझाले त्यावेळी त्या पुस्तकाच्या प्रकाशनाचे सूत्रसंचालन ही मी यशस्वी रित्या पार पाडले.

माझ्या डोळ्यासमोर कायमस्वरूपी फक्त आणि फक्त गडद काळोख असूनही मी माझ्या परिचितांच्या कार्यक्रमांमध्ये सुत्रसंचलन रुपी प्रकाशाची तिरीप आणू शकले याचे मला खूप समाधान आहे.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 89 ☆ व्यंग्य – मेरे ग़मगुसार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘मेरे ग़मगुसार‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 89 ☆

☆ व्यंग्य – मेरे ग़मगुसार

एक दिन ऐसा हुआ कि अचानक मेरी पत्नी का पाँव टूट गया। आजकल हाथ-पाँव टूटने का इलाज इतना मँहगा हो गया है कि दुख बाद में होता है, पहले खर्च की चिन्ता में दिमाग़ सुन्न हो जाता है। गिरने वाले पर सहानुभूति की जगह गुस्सा आता है कि इसने कहाँ से मुसीबत में डाल दिया। हमदर्दी के दो बोल बोलने के बजाय पतिदेव मुँह टेढ़ा करके पूछने लगते हैं, ‘पाँव संभाल कर नहीं रख सकती थीं?’ या ‘सीढ़ियों से उतरते में देख कर पाँव नहीं रख सकती थीं?’

कहने की ज़रूरत नहीं कि पत्नी की टाँग टूटने से मेरी कमर टूट गयी। करीब दो हज़ार की चोट लगी। पत्नी प्लास्टर चढ़वा कर आराम करने और सेवा कराने की स्थिति में आ गयीं। (नोट- पति से सेवा कराने पर पत्नी नर्क की अधिकारी बनती है। )

प्लास्टर वगैर से फुरसत पाकर उन सुखों का इंतज़ार करने लगा जो इस तरह की दुर्घटना के फलस्वरूप मिलते हैं, यानी पड़ोसियों और मुहल्लेवालों की सहानुभूति बटोरना। पत्नी से पूछ लिया कि सहानुभूति दिखाने के लिए आने वालों की ख़ातिर के लिए घर में पर्याप्त चाय-चीनी है या नहीं।

मुहल्ले के मल्होत्रा साहब के आने की तो उम्मीद नहीं थी क्योंकि पिछले साल जब उनकी पत्नी स्कूटर से लुढ़क कर ज़ख्मी हो गयी थीं, तब मैं उन्हें सहानुभूति दिखाने से चूक गया था। शहर में रिश्ते ऐसे ही काँटे की तौल पर होते हैं।

वर्मा जी के आने का सवाल इसलिए नहीं उठता था क्योंकि दो महीने पहले मैने उन्हें आधी रात को सक्सेना साहब के ईंटों के चट्टे से ईंटें चुराते हुए देखकर सक्सेना साहब को आवश्यक सूचना दे दी थी। तब से वे मुझसे बेहद ख़फ़ा थे।

बाकी लोगों के आने की उम्मीद थी और मैं उसी उम्मीद को लिये दरवाज़े की तरफ ताकता रहता था। कुछ रिश्तेदार आ चुके थे और श्रीमतीजी उन्हें अपना प्लास्टर इस तरह दिखा चुकी थीं जैसे कोई नयी साड़ी खरीद कर लायी हों।

जिस दिन प्लास्टर चढ़ा उस दिन शाम को बैरागी जी सपत्नीक आये। थोड़ा-बहुत दुख प्रकट करने के बाद वे आधा घंटा तक अपनी टाँग के बारे में बताते रहे जो पन्द्रह साल पहले टूटी थी। इस धूल-धूसरित इतिहास में भला मेरी क्या दिलचस्पी हो सकती थी, लेकिन वे अपनी पैंट ऊपर खिसकाकर मुझे मौका-मुआयना कराते रहे और मैं झूठी दिलचस्पी दिखाते हुए सिर हिलाता रहा।

जैसे ही उन्होंने थोड़ा दम लिया, मैंने पत्नी की टाँग को फिर फोकस में लाने की कोशिश की। लेकिन अफसोस, अब तक बैरागी जी टूटी टाँगों से ऊपर उठकर हमारे टीवी की तरफ मुखातिब हो गये थे, जिस पर ‘भाभीजी घर पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया था। वे अपनी पत्नी से बोले, ‘अब यह प्रोग्राम देख कर ही चलेंगे। अभी चलने से मिस हो जाएगा। ’मैं खून के घूँट पीता शिष्टाचार दिखाता रहा। लगता था वे सहानुभूति दिखाने नहीं, सिर्फ चाय पीने, अपनी टाँग का पुराना किस्सा सुनाने और टीवी देखने आये थे। उनके जाने के बाद मैं बड़ी देर तक दाँत पीसता रहा।

पत्नी की टाँग तो टूटी ही थी, बैरागी जी ने मेरा दिल तोड़ दिया था। अब उम्मीद दूसरे पड़ोसियों से थी।

दूसरे दिन लल्लू भाई भाभी के साथ आये। उन्होंने पूरे विधि-विधान से सहानुभूति दिखायी। पत्नी का प्लास्टर इस तरह आँखें फाड़कर देखा जैसे ज़िन्दगी में पहली बार प्लास्टर देखा हो। पन्द्रह मिनट में पन्द्रह बार ‘बहुत अफसोस हुआ’ कहा। मेरा दिल खुश हुआ। लल्लू भाई ने सहानुभूति की रस्म पूरी करने के बाद ही चाय का प्याला ओठों से लगाया।

सहानुभूति के बाद लल्लू भाई चलने को हुए और हरे सिग्नल की तरह मैंने उनके सामने  सौंफ-सुपारी पेश कर दी। तभी टीवी पर ‘जीजाजी छत पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया और लल्लू भाई दुनिया भूल कर उस तरफ मुड़ गये। उस दिन का एपिसोड भी ख़ासा दिलचस्प था। लल्लू भाई थोड़ी ही देर में ताली मार मार कर इस तरह हँस रहे थे जैसे अपने ही घर में बैठे हों। साफ था कि उन्होंने फिलहाल जाने का इरादा छोड़ दिया था।

थोड़ी देर में चोपड़ा जी सपत्नीक आ गये। आते ही उन्होंने ‘अफसोस हुआ’ वाला जुमला बोला। मैं आश्वस्त हुआ कि फिर मिजाज़पुर्सी का वातावरण बनेगा। चोपड़ा जी दुखी मुँह बनाये लल्लू भाई की बगल में बैठ गये। लेकिन दो मिनट बाद ही उनका मुखौटा गिर गया और वे भी लल्लू भाई की तरह ताली पीट पीट कर ठहाके लगाने लगे। मेरा दिल ख़ासा दुखी हो गया। एक तरफ मैं सहानुभूति की उम्मीद में उन्हें चाय पिला रहा था, दूसरी तरफ वे हँस हँस कर लोट-पोट हो रहे थे।

कार्यक्रम ख़त्म होने और लल्लू भाई के जाने के बाद चोपड़ा जी ने अपने मुँह को खींच-खाँच कर थोड़ा मातमी बनाया और हमदर्दी की बाकी रस्म पूरी की।

मैं समझ गया कि टीवी के रहते मेरे घर में हमदर्दी का सही वातावरण नहीं बनेगा। दूसरे दिन मैंने टीवी को दूसरे कमरे में रखवा दिया। सोचा, अब एकदम ठोस हमदर्दी का वातावरण रहेगा।

अगली शाम मेरे मुहल्ले के ठाकुर साहब सपत्नीक पधारे। मैंने सोच लिया कि अब हमदर्दी के सिवाय कुछ और नहीं होगा। ठाकुर साहब ने भी बाकायदा हमदर्दी की रस्में पूरी कीं। लेकिन चाय पीते वक्त लगा जैसे उनकी आँखें कुछ ढूँढ़ रही हों।

दो चार बार खाँसने के बाद उन्होंने पूछा, ‘आपका टीवी कहाँ गया?’

मैं तुरन्त सावधान हुआ, कहा, ‘खराब हो गया।’

उनके चेहरे पर अब असली दुख आ गया। बोले, ‘यह आपने बुरी खबर सुनायी। मेरा टीवी भी खराब है। अभी आठ बजे ‘मुगलेआज़म’ फिल्म आनी है। सोचा था आपको हमदर्दी दे देंगे और फिल्म भी देख लेंगे। यह तो बहुत गड़बड़ हो गया।’ सुनकर मुझे लगा वे मुझसे ज़्यादा हमदर्दी के काबिल हैं।

वे अपनी पत्नी से बोले, ‘जल्दी चलो, तिवारी जी के यहाँ चलते हैं।’ फिर वे हड़बड़ी में विदा लेकर चलते बने।

अगले दिन मुहल्ले की महिलाओं का जत्था आ गया। फिर उम्मीद बँधी। उन्होंने पत्नी का प्लास्टर देखकर खूब हल्लागुल्ला मचाया। मुझे भी अच्छा लगा। लेकिन इसके बाद वे सब ड्राइंगरूम में बैठ गयीं और चाय पीते हुए ऐसे बातें करने लगीं जैसे पिकनिक पर आयी हों। अब वे मेरी पत्नी की टाँग भूलकर चीख चीख कर यह बतला रही थीं कि किस सीरियल का हीरो बड़ा ‘क्यूट’ है और कौन सी हीरोइन पूरी बेशरम है। मुझे डर लगने लगा कि इन अहम मुद्दों पर यहाँ मारपीट हो जाएगी। मेरा जी फिर खिन्न हो गया।

घंटे भर तक मेरा घर सिर पर उठाने के बाद पत्नी को ‘बाय’ और ‘सी यू’ बोल कर वे विदा हुईं।

इन दुर्घटनाओं के बाद मेरा पड़ोसियों पर से भरोसा उठ गया है। असली हमदर्दी की उम्मीद जाती रही है और पत्नी की टाँग पर हुआ खर्च मुझे बुरी तरह साल रहा है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 44 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 44 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 44) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 44☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरे होने में किसी तौर से

शामिल  हो  जाओ,

गर तुम मसीहा नहीं होते हो

तो क़ातिल ही हो जाओ…

 

Merge in my existence in

some way or the other,

If you can’t become Messiah,

then try being an assassin!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

ख़ुदा  करे कि तुझे

इश्क हो मेरे जैसा

और तुझे महबूब

मिले खुद तेरे जैसा…

 

May God make you

fall in love like me…

And,  may  you  get

a lover like yourself…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रिश्वत भी नहीं लेती

मुझे छोड़ने की…

कम्बख्त ये तेरी यादें

भी ईमानदार लगती हैं…

 

They don’t even take

bribe to leave me…

Your wretched memories

also seem to be honest..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सितमग़र का हर निशाना

बे-ख़ता  रहा …

हर बार तीर निकला

ज़िगर  चीरता  हुआ…

 

Every aim of the tyrant

was bang on the target

Each  time  it  pierced

through the heart only…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 45 ☆ हिंदी आरती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘हिंदी आरती। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 45 ☆ 

☆ हिंदी आरती ☆ 

*

भारती भाषा प्यारी की।

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

वर्ण हिंदी के अति सोहें,

शब्द मानव मन को मोहें।

काव्य रचना सुडौल सुन्दर

वाक्य लेते सबका मन हर।

छंद-सुमनों की क्यारी की

आरती हिंदी न्यारी की।।

*

रखे ग्यारह-तेरह दोहा,

सुमात्रा-लय ने मन मोहा।

न भूलें गति-यति बंधन को-

न छोड़ें मुक्तक लेखन को।

छंद संख्या अति भारी की

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

विश्व की भाषा है हिंदी,

हिंद की आशा है हिंदी।

करोड़ों जिव्हाओं-आसीन

न कोई सकता इसको छीन।

ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 – उजालों का उपहार ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक रोचक एवं भावपूर्ण रचना  “उजालों का उपहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 ☆ उजालों का उपहार ☆

आंखें मानव को दी गई ईश्वरीय उपहार हैं। इनमें ज्योति के बिना जीवन सूना हो जाता है  और मानव बाहरी दुनिया देखने वंचित रहता है। इन आंखों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे आंख, नयन, अम्बक, अक्षि, चक्षु, चश्म, दृग, दीदा, नेत्र, लोचन, इक्षण, विलोचन आदि और ना कितने नाम।  इन आंखों के विषय में बहुत सारी रोचक जानकारी हमें हिंदी साहित्य, फिल्मी दुनिया तथा अध्यात्म जगत में अध्ययन के समय दृष्टिगोचर होती है। आइए इन से कुछ रोचक जानकारी प्राप्त करें।

अनेक फिल्मों के गीत हमें आंखों की भाव भंगिमा उपयोग तथा सौंदर्य बोध कराते हैं जैसे —

तेरी ? आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है,

ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढ़ले,

मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले।

तो वहीं दूसरा उदाहरण देखें। नायिका कहती हैं–

इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं।

तो वहीं एक उदाहरण और प्रस्तुत है जब नायिका अंखियों के झरोखों से झांकने की बात करती है–

अंखियों के झरोखों से, तूने देखा जो झांक के, मुझे तूं नजर आये, बड़ी दूर नज़र आये।

वहीं कोई नायक गा उठता है — आंख मारे इक लड़की आंख मारें।

वहीं पर कोई नायक अपनी आंखों से नेत्रहीन नायिका के नैनों के दीप जलाने अर्थात् अपनी आंखों से दुनियां दिखाने का भरोसा दिलाने का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है।

तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा,

अपनी आंखों से दुनियां दिखलाऊंगा।

तो इन्हीं भावों को समेटे बिहारी जी अपने दोहों में नेत्रकोणों की उपयोगिता दर्शाते हुए कहते हैं —

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हंसै, देन कहै नटि जाय।

में नायिका की शरारत भरी कुटिलता दर्शाती है तो उनका दूसरा उदाहरण जो आंखों में छुपे भावों को दर्शाता है जैसे —

अमिय हलाहल मद भरे,

श्वेत श्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत,

जेहि चितवत इक बार।।

तो वहीं पर आंखों के सौंदर्य बोध से प्रभावित तमाम साहित्यकारों ने पशु पक्षियों, पुष्पों की पंखुड़ियों से आंखों की उपमा दी है जैसे — मृगनयनी, मृगलोचनि, खंजनलोचनी, तो वहीं पर भगवान के नेत्रों के लिए कमलनयन, त्रिलोचन शब्दों की उपमा दी गई है। कमलवत नयन जहां आंखों का सौंदर्य बोध करता है वही शिव का तीसरा नेत्र क्रोध को प्रर्दशित करता है। जैसे —

तब शिव तीसर नेत्र उघारा,

चितवत काम भयउ जरि छारा।।

वहीं पर नेत्रहीनों का अंतर्नेत्र या अंतरचक्षु आत्मज्ञान  की महत्ता दर्शाता है।

वहीं कोई उर्दू भाषी उर्दू जुबान बोलने वाला आंखों की शान में चंद लब्ज बोलता है कि —

नजर ऊंची कर ली, दुआ बन गई,

नजर नीची कर ली, हया(शर्म) बन गई।

नजर तिरछी कर ली कज़ा बन गई।

तो वहीं हिंदी साहित्य में आंखों को संबोधित तमाम मुहावरों का भी खूब खुल कर प्रयोग हुआ हैं, जैसे आंखें मारना, इशारो में संकेत देना, आंखों से गिर जाना – मर्यादा खो देना, आंखों का तारा बनना – चहेता बन जाना, आंख कान खुला रखना – सतर्क रहना आदि।

वहीं पर भगवान की बाल लीलाओं में भी आंखों से देखने का प्रभाव उनके मानस पर उनकी भाव-भंगिमाओं मे दीखता है, जैसे –

कबहूं शशि मांगत रारि करैं,

कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरैं।

कबहूं करतारि बजाई के नाचैं,

मातु सबै मन मोद भरैं।

कोई भक्त भी पुकारता दिख जाता है — अंखियां हरि दर्शन की प्यासी।

इस प्रकार हमारे जीवन में आंखें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।

मृत्यु के पश्चात हम अपनी तथा परिजनों का नेत्रदान संपन्न करा कर किसी की जिंदगी को उजालों का उपहार दे सकते हैं।

#सर्वेभवन्तु सुखिन: के साथ #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-२०) – ‘सुषीरवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-२०) – ‘सुषीरवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

मागच्या लेखात एक उल्लेख अनावधानाने राहून गेला त्याविषयी…

तालवाद्यांपैकी ज्या वाद्यांमधे प्राण्यांचं कातडं वापरलेलं असतं त्यांना ‘अवनद्ध वाद्ये’ किंवा ‘चर्मवाद्ये’ असं म्हणतात, त्याचं कारण ‘अवनद्ध’ ह्या शब्दाचा अर्थच ‘कातड्याने मढवलेले’ हे आपण पाहिलं. मात्र तालवाद्यांपैकी इतर वाद्यं, ज्यामधे धातूचे, लाकडाचे दोन तुकडे किंवा चकत्या किंवा नळ्या/काठ्यांचा एकमेकांवर आघात झाल्याने नादनिर्मिती होते त्या वाद्यांना घनवाद्ये असं म्हणतात. दोन्ही प्रकारातली वाद्यं ही तालवाद्यंच आहेत आणि दोन्हींतही नादनिर्मिती ही आघातानेच होते… फरक आहे तो फक्त कातड्याचा वापर त्या वाद्यात झाला आहे कि नाही, इतकंच!

सुषीर वाद्यांकडं वळायचं म्हटलं कि पटकन आपल्या डोळ्यांसमोर उभा राहातो मनमोहन मुरलीधर कृष्ण… आपल्या मुरलीवादनानं अवघ्या जगताला संमोहित करणारा! त्याचं वाद्य म्हणजे ‘बासरी’ ज्यात फक्त एका आकारबद्ध पोकळीत फुंकर मारल्यानंतर निर्माण होणाऱ्या कंपनांतून नादनिर्मिती होते. सर्व सुषीर वाद्यांमधे हे एकच तत्व लागू आहे. मात्र मुळात ह्या तत्वाचा शोध कसा लागला असावा? ह्या तत्वानुसार माणसाकडून अंत:प्रेरणेनं घडणारी गोष्ट म्हणजे शीळ! कोणत्याही वाद्याचा आधार न घेता गोड, मधूर शीळ कशी घातली जाते? तर तिथं असतं ते फक्त एकच तत्व, फुंकरीतून म्हणजेच हवेच्या साहाय्यानं केली जाणारी नादनिर्मिती! शीळ घालत असताना आपसूक निर्माण होणाऱ्या आपल्या तोंडाच्या आणि ओठांच्या स्थितीचा विचार केला असता लक्षात येईल कि, ह्या प्रक्रियेत घशातून येणारा हवेचा झोत तोंडाची पोकळीतून मार्गस्थ होऊन ओठांच्या एका विशिष्ट आकारामुळे योग्यप्रकारे नियंत्रित होत असल्यानं नेटकी व सुंदर नादनिर्मिती होते.

जुन्या ग्रंथांमधे उल्लेख आढळतात कि, प्राचीन काळी ‘अन्न’ म्हणून प्राण्यांची शिकार केल्यावर त्यांचं मांस खाल्यानंतर उरलेले अवयव शिल्लक तसेच राहात असतील. कधीतरी गमतीतच कुणीतरी प्राण्यांच्या शिंगांमधे फुंकर मारून पाहिली असेल आणि असं केलं तर त्यातून छान आवाज येतो हे लक्षात आलं असेल. हळूहळू पुढं हेही लक्षात आलं असेल कि शिंगांचा आकार, लांबी बदलली कि आवाजाची जात बदलते. नंतर ह्या गोष्टीचा उपयोग माणूस एखाद्या कारणासाठी सगळ्यांना एकत्र जमवण्यासाठी किंवा एकमेकांना काही संकेत देण्यासाठी करू लागला.

सर्वांना माहीत असणारी ह्याबाबतीतली काही उदाहरणं म्हणजे… ‘रणशिंग’ हे युद्ध सुरू होत असल्याचा संकेत देणारं वाद्य!… काही मंगल प्रसंगाच्या सुरुवातीला वाजवलं जाणारं व सैन्यसंचालन, मिरवणुकी ह्यातही आढळून येणारं अर्धचंद्राकृती ‘शृंग’ हे वाद्य, शिवाय ‘तुतारी’ हे वाद्यही बऱ्याच जणांना माहिती असेल. ह्या वाद्यांना मंगलवाद्यं मानलं जातं. कारण ही वाद्यं म्हणजे प्राण्यांची शिंगं, म्हणजे नैसर्गिकरीत्या अस्तित्वात आलेली!… पुढं मग इतर वाद्यांप्रमाणं वेगवेगळे प्रयोग ह्यात झाले. आज धातूचीही ह्या प्रकारची वाद्यं आपल्याला पहायला मिळतात, काही थोडा भाग धातूचा आणि उर्वरित भाग लाकडाचा अशीही असतात, मात्र त्यांचं मूळ हे प्राण्यांचं शिंग आहे.

ह्याच बरोबर बांबूसारख्या पोकळ नळकांडीत फुंकर मारून बघितली असतानाही आवाज येतोय हेही लक्षात आलं आणि त्यातून हळूहळू पावा, अलगूज, वेणू, बासरी ह्यांनी जन्म घेतला. झाडाच्या पातळ पानाची गुंडाळी (ज्याला बहुधा आपण पुंगळी म्हणायचो) करून त्यात फुंकल्यावरही सुंदर आवाज येतो हे आपण सर्वांनीच लहानपणी करून पाहिलं असेल. ही पिपाणीची शिशुअवस्था म्हणता येईल.

त्याचबरोबर झाडांची पानं एकावर एक ठेवून ती ओठांत धरून त्यात फुंकर मारून आवाज काढण्याचा उद्योगही आपण सर्वांनीच केला आहे. दोन पानांच्यामधे आपसूक तयार होणाऱ्या हवेच्या छोट्याशा पोकळीत फुंकर मारली गेल्यानंच त्यातून आवाज निघत असतो. आज ज्या वाद्यांमधे ‘रीड’ ही संकल्पना वापरलेली दिसून येते तिचा जन्म ह्या प्रकारातूनच झाला असावा.

अशाप्रकारे नादनिर्मिती होऊ शकते हे एकदा लक्षात आल्यावर ‘शंख’ हेही एक नैसर्गिक वाद्य माणसाला सापडलं. प्राचीन काळापासून हे वाद्य पवित्र मानलं गेलं आहे त्याचं कारणच कदाचित ‘परमशक्तीकडून झालेली ह्या वाद्याची निर्मिती’ हे असावं! नैसर्गिक शक्तीनं तयार स्वरूपातच आपल्याला बहाल केलेलं हे वाद्य वाजवताना मानवाला फक्त त्यात फुंकर मारण्याशिवाय काहीच करायचं नसतं आणि ‘परमोच्च शक्तीनं’ तयार केलेलं वाद्य म्हणजे त्यात काहीतरी शक्ती असणंही अपरिहार्यच! म्हणूनच जिथं शंख फुंकला जातो त्या जागेतील सर्व नकारात्मक शक्ती नाश पावून तिथलं वातावरण शुद्ध होतं असं आपल्याकडं विश्वासानं मानलं जातं. घराघरांतून पूजाविधीच्या वेळी शंखपूजन आणि शंख फुंकण्याचं कारणही हेच असावं.

गारुड्याची पुंगी म्हणजेही सुषीर वाद्यच! छोट्या आकाराच्या भोपळ्याच्या खालच्या भागात एकसारख्या लांबीच्या बांबूच्या दोन नळ्या प्रत्येकी एकेरी जिव्हाळीसहीत (रीड) मेणाने घट्ट बसवलेल्या असतात. त्यातल्या एका नळीला छिद्रं असतात व दुसरी नळी एकच आधारस्वर निर्माण करत राहाते. वरती भोपळ्याच्याच निमुळत्या भागातून फुंकर मारली कि नादनिर्मिती होते.

ह्या प्रकारच्या वाद्यांपैकी शास्त्रीय संगीतनिर्मिती करू शकण्याइतपत विकसित, प्रगत अवस्थेला पोहोचलेली वाद्यं म्हणजे बासरी, शहनाई, सुंद्री आणि दक्षिण प्रांतातील नादस्वरम्‌ ! ह्या प्रकरातील वाद्यं वाजवण्याच्या दोन पद्धती आहेत. काही वाद्यांचं निमुळतं टोक ओठांत धरून मग त्यात फुंकर मारली जाते, उदा. शहनाई, सुंद्री, पुंगी, पावा इ. आणि काही वाद्यांमधे बाहेरून फुंकर घालून नादनिर्मिती केली जाते. उदा. बासरी, शंख इ.!

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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