हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “सब को सदा सद्बुद्धि दो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

? हमारे मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायी गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी को हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा साहित्य भूषण सम्मान द्वारा सम्मानित किये जाने के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें? 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆

☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो 

हे जगत की नियंता सब को सदा सद्बुद्धि दो

सब सदाचारी बनें पारस्परिक सद्भाव हो

मन में रुचि हो धर्म के प्रति सबके प्रति सद्भावना

जगत के कल्याण हित पनपे हृदय में कामना

हो न वैर विरोध कोई किसी से न दुराव हो

प्राणियों और निसर्ग के प्रति सदा पावन भाव हो

जिंदगी निर्मल रहे हो आप की आराधना

बन सके जितना हो संभव सभी के हित साधना

जगत में हर एक से निश्चल सुखद व्यवहार हो

मन में सबके लिए हो करुणा और पावन प्यार हो

उचित अनुचित क्या है करना इसका तो अनुमान हो

हर एक को दो शुभ बुद्धि इतनी सबको इतना ज्ञान दो

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#45 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !  बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी एम.ए. की पढ़ाई ज़ोरों से चल रही थी। लेकिन मुझे प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हुए बिना एम.ए. में प्रवेश नहीं मिलने वाला था। दीदी ने मुझसे पूरी तैयारी करवा ली और मैं प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हो गई। मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थी। एक तरफ जिज्ञासा और खुशी, तो दूसरी तरफ पढ़ाई की जिम्मेदारी। एक तरफ मम्मी पापा के सेहत की बहुत चिंता थी। वैसे देखा जाए तो मुझे और दीदी को यह जिम्मेदारी उठानी थी और हमने वह सफलता से उठाई भी।

नृत्य के पहले दिन की और अभी की पढ़ाई, रियाज में जमीन-आसमान का अंतर था। अब शारीरिक और मानसिक गतिविधि के माध्यम से दर्शकों तक भावनाएं पहुंचानी थी। शारीरिक हलचल मतलब अंग, प्रत्यंग और उपंग। मतलब हाथ, पैर, सिर यह शरीर के अंग; हाथों की उंगलियां, कोहनी, कंधा यह प्रत्यंग और आंख, आंख की पलक, होंठ, नाक, ठोड़ी यह उपांगे। इनके गतिविधि से और मन के भावों से अभिनय को आसान माध्यम से मुझे दर्शकों तक पहुंचाना था। निश्चित रूप से यह मेरे लिए बहुत कठीन था और इसमें बहुत एकाग्रता की जरूरत थी।

नृत्य की शुरूआत के पल में दीदी मुझे स्पर्श से मुद्रा सिखाती थी। उसकी एक संकेतिक भाषा भी निश्चित थी। स्पर्श से मुद्रा जान लेना यह मैंने बहुत आसानी से सीख लिया था और इसकी मैं अभ्यस्त हो गई थी। लेकिन अब मुझे नृत्य का अभिनय कौशल्य, उसकी उत्कृष्टता दर्शकों के मन में अलंकृत होगी ऐसे प्रस्तुत करनी थी और वह भी संगीत के सहयोग से। क्योंकि नृत्य के शुरुआत के पल में बाजू में खड़े हुए व्यक्ति को भी मैं दोनों हाथों की बगल से, सिर्फ उंगली दिखा कर भी पहचान सकती थी। लेकिन अब इन दोनों के साथ मुद्राएं गर्दन, नजर, और  चेहरे के हाव-भाव के साथ, दर्शकों को दिखानी थी। मेरे मामले में नजर का मुद्दा था ही नहीं। मुझे परीक्षक और दर्शक इनको यह चीज बिल्कुल समझ में नहीं आनी चाहिए, ऐसे मेरा अभिनय, नृत्य पेश करना था।

मुझे इस अभ्यास में सबसे ज्यादा पसंद आयी हुई रचना मतलब अभिनय के आधार पर बनी, ‘कृष्णा नी बेगनी बारू’ (कन्नड़-मतलब-कृष्णा तुम मेरे पास आओ) इस पंक्तियों में मुझे यशोदा मां के मन के भाव, मातृभाव, बाल कृष्ण की लीलाएं अभिनय से पेश करना था। इसमें बाल कृष्ण रूठा हुआ है और उसके मनाने के लिए यशोदा मां कभी मक्खन दिखाती है, तो कभी गेंद खेलने बुलाती है। और बाल कृष्ण उसे अपनी लीलाओं से परेशान करता है। आखिर में उसी के मुंह में अपनी माता को ब्रम्हांड का दर्शन करवाता है। यह दोनों भाव अलग अलग तरीके से पेश करना यह मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने वह नृत्य में मग्न होकर, पूरे मन के साथ पेश की और उस अभिनय के लिए सिर्फ परीक्षकों ने हीं नहीं अपितु दर्शकोंने की भी बहुत सराहना मिली।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆

मी एक

असे  आईची आस

बाबांचा श्वास

अंतरीचा

 

मी एक

ताई म्हणे परी

दादाच्या अंतरी

बाहुलीच

 

मी एक

करी प्रयत्न खास

प्रगतीचा ध्यास

अविरत

 

मी एक

राणी आहे सजनाची

माझ्या मनमोहनाची

अखंडीत

 

मी एक

बनली कान्हाची मैय्या

जीवन नैय्या

सानुल्याची

 

मी एक

जरी हातात छडी

मनात गोडी

विद्यार्थ्यांची

 

मी एक

सदा भासते रागीट

प्रेमही अवीट

सर्वांसाठी

 

मी एक

कशी सांगू बाई

सर्वांची माई

योगायोग

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 85 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 85 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत ☆

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह उक्ति कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है; जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है; अपनी-अपनी हाँकता है; सुनने का प्रयास ही नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी रहता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय व दोयम दर्जे का समझते हैं और वे केवल फुंफकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं; जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और निष्प्रयोजन व ऊलज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई मापदंड नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता व्यक्ति-विशेष का गुण होती है। परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व चीनी के प्रयोग से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे तमाम उम्र दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि मानव में विनम्रता का भाव होगा, तो वे बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही सिद्धांत है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसकी उपलब्धि को मान-सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स-सिंबल ही नहीं; उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्वहितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम अर्थात् विवाद शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा उस स्थिति में मानव को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर व ऊल-ज़लूल बोलने में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इन विषम परिस्थितियों में जो मौन रहता है, उसकी अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति मौन रहने में ही बार-बार गौरवानुभूति करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकार फूला नहीं समाता । परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है; जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होती है। ऐसे मूर्ख लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य-व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति प्राप्त होने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

‘रिश्ते वे होते हैं/ जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तकरार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो’…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तकरार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं; जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ‘मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि ग़लत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं।’ वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… ‘मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोलें, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्-साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से मानव अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यह ही है आपके जीवन की पराकाष्ठा।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरुष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए; वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता के आधार पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, वरना तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तू बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो आपको फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ का त्याग कर, सबका मंगल होय’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। ‘रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए।’ दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए ताकि जीवन रूपी गाड़ी सामान्य गति से निरंतर आगे बढ़ती रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 37 ☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ”.)

☆ किसलय की कलम से # 37 ☆

☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆

कोविड के चलते फेसबुक एवं व्हाट्सएप पर जितने चुटकुले व्यंग्य अथवा कार्टून सामने आ रहे हैं उन्हें देख-देख कर भारतीय लोगों की बेवकूफी पर जितना आश्चर्य होता है, उससे कहीं अधिक अब रोना आता है कि इतनी गंभीर और संक्रामक बीमारी में जहां संयमित व्यवहार करना चाहिए, हम इसके ठीक विपरीत कोरोना को एक मजाक बना कर रख दिया है। हम देख भी रहे हैं कि जिस तरह बिजली का करंट किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करता, ठीक उसी तरह वर्तमान में कोरोना भी अपने सामने पड़ने वाले किसी भी इंसान को नहीं छोड़ रहा है। अच्छा हो बुरा हो, मोटा हो पतला हो, धनी हो गरीब हो छोटा हो बड़ा हो अथवा स्त्री-पुरुष कोई भी हो, किसी पर रहम नहीं कर रहा। बेचारे सिक्सटी प्लस एवं एट्टी प्लस वाले तो ‘घर-घुसे’ लोग बन गए हैं। डायबिटीज, हृदयरोग अथवा फेफड़ों की बीमारी वालों के लिए तो दुबले और दो आषाढ़ वाली कहावत फिट बैठ रही है। जब कोई इन दिनों मुझे योग की सलाह देता है तो मुझे वह …. रामदेव बाबा बरबस याद हो उठता है, जो कहा करता है कि योग से सभी रोग दूर भाग जाते हैं। यदि ऐसा होता तो वह दवाईयों का अरबों-खरबों का व्यापार शुरू कर लोगों को क्यों ठगता। वैसे अब सभी बाबाओं की पोलें खुल चुकी हैं। जिनके नाम सामने आए हों अथवा ना आए हों । अब तो सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे लगने लगे हैं। एक-एक करके डॉक्टर्स, नीम हकीम, शासन, सेलिब्रिटीज और मीडिया पर अपने संस्मरण, सलाह और सतर्क करने वाले विशेषज्ञों के तथाकथित इतने बाप पैदा हो गए हैं, और होते जा रहे हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से झड़कर गिरे पत्तों की बहुलता होती है। मुझे तो लगता है कि इन्हें भी उन्हीं पत्तों के समान इकट्ठा कर आग के हवाले कर दिया जाए। ये रोग विशेषज्ञों के बाप ऐसा ऐसा ज्ञान बघारते हैं जैसे कि ये किसी दूसरी दुनिया से कोरोना विषय पर पीएचडी कर के आए हों। कोई कहता है पेट के बल बिस्तर पर लेटने से ऑक्सीजन फेफड़ों में ज्यादा पहुँचती है, क्योंकि फेफड़े पीछे की ओर होते हैं। तब दूसरा डॉक्टर कहता है कि पेट के बल लेटने से हृदयाघात की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी ने कहा हर 20-25 मिनट में हाथ धोते रहें। तो इन सलाहकारों को कौन समझाए कि भाई बार-बार हाथ धोने से उपयोग में लाए जा रहे केमिकल हाथों में फफोलों के साथ साथ अन्य बीमारी भी पैदा कर सकते हैं। इस तरह लोगों में इतना भय भर दिया गया है कि अधिकतर लोग बीमारी से कम घबराहट से ज्यादा मर रहे हैं। कोई बिल्डिंग से छलांग लगा देता है और कोई कोरोना के डर से किसी और तरह अपनी जान गवाँ रहा है। हम तो कहते हैं कि अब समय आ गया है जब लॉकडाउन के स्थान पर फेसबुक, व्हाट्सएप तथा भय और भ्रम फैलाने वाले टी वी चैनलों को कुछ समय के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए, तो लोगों का आधे से ज्यादा भय भाग जाएगा और यह सब रोज पढ़ सुनकर चिंतित होने का मामला ही खत्म हो जाएगा। आज भी देखा गया है कि हमें सुबह शाम तफरी करने जाना ही है। हफ्ते भर के बजाए रोज सब्जी लेने भीड़ में घुसना ही है। इसी तरह आवश्यक न होने पर भी दोस्तों के साथ बैठना, किसी की शव यात्रा में जाना, विवाह और अन्य समारोहों में जाने में फर्ज को बीच में ले आते रहना, साथ ही स्वयं को अमरत्व प्राप्त इंसान मान लेना बेवकूफी से कम नजर नहीं आता। ऐसे लोग खुद तो संक्रमित होते ही हैं अपने घर और पास-पड़ोस वालों की भी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। हमारे एक मित्र कहा करते हैं कि अब कलयुग में पाप ज्यादा बढ़ गए हैं, इसलिए पापियों को मृत्यु लोक से ले जाने के लिए कोरोना वायरस के रूप में स्वयं यमराज पृथ्वी पर आ गए हैं। दूसरे मित्र ने तो यहाँ तक कह दिया है कि-

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थात जब वर्तमान में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि दिखाई देने लगी तब ईश्वर को किसी न किसी रूप में तो आना ही था। अब आप ही बताएँ हम किस-किस का मुँह बंद करें। यदि कुछ ज्यादा बोल दिया तो उल्टा वह हमारा ही सदा सदा के लिए मुँह बंद कर देगा। कोरोना तो बाद में आएगा।

इस महामारी के चलते यदि गंभीरता, सक्रियता, संवेदनशीलता और संकल्पित होना सीखना है तो हमें चीन से सीखना चाहिए जहाँ के वोहान से करोना विश्व में फैला है इस देश में अब तक 5000 लोगों की जानें गई हैं। वहीं भारत में अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा लोग मर चुके हैं। मुझे लगता है कि हम यदि ऐसी ऊपर कही गई कोरी बकवास और चुटकुले बाजी से बचते। अपने साथ साथ दूसरों को सुरक्षित रखने में योगदान देते तो शायद भारत की यह भयावह स्थिति न होती, लेकिन भारतीय हैं कि किसी की मानते कहाँ है। मास्क पहनना शान के खिलाफ होता है। मंदिरों में हाथों पर अल्कोहल (सैनिटाइजर) लगाकर भला कैसे जा सकते हैं, हमारे प्रभु हमें श्राप दे देंगे। अपनों से बड़ों के पास जाकर उनके पैर छूना ही है। 4 दिन दवाईयाँ खा कर खुद डॉक्टर बन जाते हैं और सर्टिफिकेट समझ लेते हैं कि अब हमें कुछ होगा ही नहीं।

लो भैया ऐसे ही सर्टिफिकेट जारी करते रहो और पहले एक लाख, फिर दो लाख और फिर न जाने कितने लोगों की जानें गवाँ के हम होश में आएँगे या फिर खुद भी अपनी जान गवाँ के चिता पर चैन पाएँगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 84 ☆ माहिया ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “माहिया । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 84 – साहित्य निकुंज ☆

☆ माहिया ☆

खामोशी गुनती है

क्या कहना है वो

शब्दों को चुनती है।

 

खामोशी कहती है

पिया तुम तो मेरे

रग रग में बहती हो।

 

खामोशी प्यारी है

चुप चुप रहकर वो

दुनिया में न्यारी है।

 

खामोशी क्या कहती

तेरे दिल में जो

आंखें ही वो पढ़ती।।

 

जन्मों की  कहानी है

माहिया तु है तो

हर रुत सुहानी है।

 

यादों का दरिया है

माहिया तु ही तो

मिलने का जरिया है।

 

फुर्सत है कहां तुम्हें

आए तुम तो नहीं

अब तुमसे क्या कहें

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 74 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 74 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

फसल मिले वैसी हमें, जैसा बोया बीज

जग में कर्म प्रधान है, कर्म बड़ी है चीज

 

जो खेतों में रात दिन, करते हैं श्रम दान

अपने हक को लड़ रहा, पोषक वही किसान

 

गाँवों से अब निकल कर, चले शहर की ओर

श्रमिक खेत को छोड़के, खोज रहे नव ठोर

 

माटी से उपजे सभी, माटी की यह देह

माटी में ही सब मिले, करें ईश से नेह

 

सूने सारे हो गए, खेत और खलिहान

सड़कों पर निकले सभी, हक के लिए किसान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

माय मराठी मराठी, जसे बकुळीचे फूल

दूर दूर पोचवी गं ,  अंतरीचा परीमल . . . !

 

कधी  ओवी ज्ञानेशाची ,  कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह,  गाऊ महती संतांची. . . . !

 

संतकवी,  पंतकवी, संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे,  अभिजात साहित्यात. . .  !

 

कधी भक्ती, कधी शक्ती,  कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,  धावे मराठी ऐटीत. .  !

 

माय मराठीची वाचा,  लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,  नाळ जोडू ह्रदयाशी . .  !

 

कधी मैदानी खेळात, कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते, पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

 

कोसा कोसावरी बघ,  बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी, कधी कोकणी प्रारूप. . . !

 

माय मराठीचे मळे , रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती, सृजनाच्या आरशात. . !

 

महाराष्ट्र भाषिकांची, माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

 

अन्य भाषिक ग्रंथांचे, केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे, करूनीया स्थलांतर. . . !

 

शिकूनीया लेक गेला, परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

 

नवरस,अलंकार, वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला, प्रती शब्द नाही दुजा.. !

 

माय मराठीने दिला, कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा.  !

 

माय मराठीने दिली, नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ, घुमे अंतरात बोल. . .!

 

माय मराठी मराठी, कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला , तीने अमृताचा बोल. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ११) – राग~मधूवंती ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ११) – राग~मधूवंती ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूरसंगतराग~मधूवंती

“रंजयती इति राग” असे संगीतांतील रागांविषयी म्हटले जाते. कोणताही राग घ्या, रसिकांचे मनोरंजन करणे हेच त्याचे काम!राग म्हणजे तरी नेमके काय? तर कमीत कमी पांच व अधिकाधिक सात शुद्ध/कोमल स्वरांची गुंफण!

मधूवंती हा त्यामानाने आधुनिक असा सुमधूर राग.

कुमार गंधर्व आणि वसंतराव देशपांडे यांचे फार जवळचे स्नेहसंबंध होते.वसंतराव कुमारांना गुरू मानत असत.काही कारणांमुळे दोघांत वाद होऊन थोडा दुरावा निर्माण झाला होता,त्यावेळी मनाच्या विमनस्क अवस्थेत वसंतरावांनी

“मैं आऊ तोरे मंदरवा

पैय्या परत देहो मनबसिया”

अशा अस्थाईच्या दोन ओळी लिहून पाठविल्या.त्यावर कुमारांनी ताबडतोब “अरे मेरो मढ्ढैया तोरा आहे रे।काहे धरो चरन मोरे मनबसिया।।” असा अंतरा लिहून पाठविला व बंदीश पूर्ण केली. तीच पुढे मधूवंतीतील बंदीश म्हणून प्रसिद्ध झाली.

“मी तुमचाच आहे, माझे घरही तुमचेच आहे, असे असतांना माझे चरण धरण्याची काय गरज? असा या ओळींचा अर्थ आहे. दोघांच्या मैत्रीतील सामंजस्य जसे यांत दिसून येते तसाच मधूवंती हा शूद्ध मैत्रीचा राग आहे. याच्या नावांतच मधू आहे, तेव्हा या रागांतील माधूर्याविषयी वेगळे सांगावयास नको.

तांत्रिक द्दृष्ट्या हा राग तोडी थाटांतून निर्माण झाला आहे, परंतु तोडीप्रमाणे रिषभ/धैवत कोमल नसून शुद्ध आहेत. ह्याचे चलन तोडीप्रमाणे असल्यामुळे या रागाचा जनक तोडी थाट असावा असे वाटते.

जाति~ओडव/संपूर्ण

वादीपंचम, संवादीषडज्, राग सादर करण्याची वेळ दिवसाचा तिसरा प्रहर. सहाजिकच मध्यम तीव्र आणि गंधार कोमल. वैचित्र्यासाठी कधीकधी अवरोही रचनेत कोमल निषाद वापरण्याची पद्धत आहे.

नि सा (ग)(म)प नि सां

सां नि ध प,(म)प (नि)ध प,(म)(ग)रे सा असे याचे आरोह नि अवरोह.(ग) (म) प नि सां नि ध प,(म) प (ग) (म)प (नी) ध प,(म)प (ग) (म)(ग) रे सा या स्वरसमूहावरून मधूवंतीची ओळख पटते.

सांझ भई,अजहूॅं नही आये प्रीतम प्यारे ही विलंबीत तीनतालमधील अश्विनी भिडे~देशपांडे यांची बंदीश प्रचलित आहे.बैरन बरखा रितू आई ही कुमारांची मध्यलय तीनतालमधील बंदीश वर्षाऋतूचे चित्र डोळ्यासमोर उभे करते.

असे म्हणतात की कोल्हापूरच्या पाध्येबुवांनी अंबिका असा राग तयार केला,पुढे विलायतखाॅंसाहेबांनी त्याचे मधूवंती असे गोजिरे नामकरण केले.

सुमन कल्याणपूर यांचे मधूवंतीच्या सुरासुरांतून आळविते मी नाम। एकदां दर्शन दे घनश्याम।।हे गीत रसिकजनांचे आवडते आहे. गीत रामायणांतील श्रीराम जेव्हा वनवासाला निघण्यापूर्वी सीतेचा निरोप घेण्यासाठी तिच्या महाली गेले तेव्हा काकूळतीने सीतेने हट्ट केला व ती म्हणाली, “निरोप कसला माझा घेता।जेथे राघव तेथे सीता।।” बाबूजींनी ही रचना मधूवंती या रागांतच निबद्ध केली आहे.

वरील गीतांतील शब्दांवरून मधूवंतीच्या स्वरांत विनवणी, नम्रता या भावना साकार होत असल्याचे आपणांस दिसून येते. बहरला पारिजात दारी, फुले कां पडती शेजारी हे माणिक वर्मांचे गाजलेले गीत मधूवंतीच्या सुरांवरच आधारलेले आहे. मनमंदीरमे आयो शाम, रस्मे उल्फतको निभाये, पायलिया बावरी ही काही सिनेगीते मधूवंतीचीच झलक दाखवितात.

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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