हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 85 ☆ कविता – वे रोते नहीं ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता   सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं साहित्यकार श्री रमेश  सैनी जी का साक्षात्कार। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 85

☆ कविता – वे रोते नहीं ☆

लड़कियां

रो देतीं हैं

छोटी छोटी

बात पर,

 

लड़के

अपना दुख

दिखाते नहीं

हर बात पर

 

लड़कियां

आंसू लिए

बैठीं मिलतीं हैं

हर घाट पर

 

लड़के

आंख के आंसू

पी जाते हैं

बात बात पर

 

लड़कियां

घबड़ा जाती हैं

छोटी छोटी

बात  पर

 

लड़के

जिम्मेदारियां ढोते हैं

हारते नहीं,

बड़ी बात पर

 

लड़कियां

दुख बहा

आतीं हैं

नदी घाट पर

 

लड़के

रोते नहीं

दुख भरे

हाल पर

 

लड़के

हिम्मत देते हैं

रोते नहीं

बिगड़ी बात पर

 

लड़कियां

भूख से लड़कर

हंस लेतीं हैं

बात बात पर

 

लड़के

सहमे सहमे

सकुचाते रहेंगे

भूख की बात पर

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #32 ☆ बसंत आ रहा है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है बसंत ऋतू के आगमन पर एक भावप्रवण कविता “बसंत आ रहा है”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 32 ☆

☆ बसंत आ रहा है ☆ 

यह कैसा बसंत आया है

रंगों के संग

बंदिशें भी लाया है

खुशियां बस थोड़ी थोड़ी है

हर चेहरे पर डर का साया है

वो कहां गई हल्की हल्की

गुनगुनाती धूप?

वो कहां गई अमराई में

कोयल की कूक ?

वो कहां गई पीली पीली सरसों ?

वो कहां गई युवतियों के

सीने की हूक ?

जहां ढोल की थाप पर

थिरकते थे पांव

रंग-बिरंगे परिधानों में

झूमते थे गांव

तरूणाई का मदहोश

करता हुआ नृत्य

यौवन से घिरे हुए

जलतें थे अलाव

आज सबके मन में एक शंका है

कहीं अहित ना हो जाए

यह आशंका है

बुझी बुझी सी आंखें

परेशां  चेहरे हैं

डर है-

कोई छीन ना ले हमसे

हमारी सुनहरी लंका है

क्या आसमान की चुप्पी

कभी टूट पायेगी ?

क्या गरजते बादलों सें

रिमझिम फुहारें आयेंगी ?

यहां बिजली की चमक से

दरक जाती हैं दीवारें

ढह जाते हैं बड़े बड़े महल

हे धरतीपुत्र !

तू जरा संभल संभल के चल

अब-

यह भयानक, डरावना

पतझड़ का मौसम

धीरे धीरे बीतता जा रहा है

खुशबू लुटाता, खिलखिलाता,

हर मन को लुभाता

रंगीन ऋतुराज बसंत

पग पग बढ़ाता

आ रहा है,

बस आ रहा है ।

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ 

☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆

रडणे लहानपणी शोभते

पडणे लहानपणी शोभते…

रडता लहानपणी अश्रू पुसल्या जातात

पडता लहानपणी उचलण्या हात पुढे येतात…

डोळ्यांत अश्रू, बालपणीच शोभतात

मोठेपणी त्यास, षंढ सर्वे समजतात…

बालपणी पडता, प्रत्येक जण हळहळतो

मोठेपणी पडता, अव्हेर तो सतत होतो…

बालपणी रडता, चॉकलेट मिठाई मिळते

मोठेपणी रडता, आहे ते पण सरते…

लहानपणी पडता, मायेची फुंकर सुखावते

मोठेपणी पडता, अडगळ वाटायला लागते…

सांगायचे इतकेच, दिस सर्वे सारखे नसतात

सुकोमल हाताला सुद्धा, रट्टे-घट्टे पडतात…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 88 ☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 88 ☆

☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा

यह दिन की तरह साफ है कि भारत में पतियों की ग्रहदशा गड़बड़ चल रही है। टीवी पर हर दूसरे दिन किसी न किसी पति की फजीहत पत्नी के हाथों हो रही है—वही पत्नी जिसके लिए पति ‘प्रान पियारे’ और ‘प्रान अधार’ हुआ करता था। अब प्रान अधार प्रान बचाते फिर रहे हैं और प्रानपियारी उन्हें पछया रही है। और इन टीवी वालों को भी कोई काम नहीं, कैमरा लटकाये पत्नियों की बगल में दौड़ रहे हैं। घोर कलियुग! महापातक! निश्चय ही ऐसी पत्नियों के साथ ये टीवी वाले भी नर्क के भागी बनेंगे। सबसे खराब बात यह है कि पतियों की पिटाई टीवी पर बार बार दिखायी जाती है, जैसे कि टीवी की सुई वहीं अटक गयी हो। सबेरे सबेरे टीवी खोलते ही कोई न कोई पति पिटता मिल जाता है। निश्चय ही यह स्थिति भारतीय पतियों के मनोबल के लिए घातक है।

एक पति की उनकी पत्नी ने कैमरे के सामने जी भर कर पिटाई की। एक और पति चौराहे पर पत्नी और उसके रिश्तेदारों द्वारा लात जूतों से सम्मानित हुए। एक पत्नी उस वक्त शादी के स्टेज पर पहुँच गयीं जब पतिदेव सज-सँवर कर दूसरी पत्नी के साथ वरमाला की तैयारी में थे। इस घटना में पति के साथ भावी सौत का भी पर्याप्त सम्मान हुआ। एक मोहतरमा अपने पति द्वारा छद्म नाम से की गयी शादी के बाद आयोजित दावत में पहुँच गयीं। वहाँ पतिदेव पर तो कुर्सियाँ फेंकी ही गयीं, वहाँ पधारे मेहमानों की भी अच्छी आवभगत हुई। इसी सिलसिले में एक ऐसे पतिदेव की भी हड्डियाँ टूटीं जो चार बच्चों के बाप होने के बावजूद चुपचाप दूसरी शादी रचा रहे थे।

दरअसल जब से टीवी आया है तब से भारतीय संस्कृति की चूलें हिलने लगी हैं। पहले पति सौत वौत ले आता था तो पत्नी बिलखती हुई गंगा जी का रुख़ करती थी, अब वह सबसे पहले टीवी वालों को ढूँढ़ती है। बेचारा पति बीवी से तो निपट लेता था, लेकिन इन टीवी वालों से कैसे निपटे? ये तो साधु-सन्तों को भी काले धन को सफेद करते दिखा रहे हैं। कोई वर दहेज माँगने पर जेल के सींखचों के पीछे पहुँच जाए तो वहाँ भी टीवी वाले फोटू उतारने पहुँच जाते हैं ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आवे, जबकि सर्वविदित है कि दहेज हमारी सदियों की पाली- पोसी परंपरा है। टीवी ऐसे ही चीरहरण करता रहा तो हमारी संस्कृति की महानता खतरे में पड़ सकती है।

हमारे देश में हमेशा से पति का दर्जा परमेश्वर का रहा है। पत्नियाँ तीजा और करवाचौथ के व्रत रखती रहीं ताकि पतिदेव स्वस्थ प्रसन्न रहें और पत्नी का सुहाग अजर अमर रहे। मैंने एक पत्रिका में पढ़ा था कि एक समय पत्नियाँ पति के पैर के अँगूठे को धोकर जो जल प्राप्त होता था उसी को पीती थीं,और यदि पतिदेव कुछ समय के लिए घर से बाहर जाते थे तो अँगूठा धो धो कर घड़े भर लेती थीं ताकि पतिदेव की अनुपस्थिति में अन्य जल न पीना पड़े। लेख में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अँगूठा धुलवाने से पहले पतिदेव पाँव धोते थे या नहीं। फिल्मों में पत्नियाँ गाती थीं—‘कौन जाए मथुरा, कौन जाए काशी, इन तीर्थों से मुझे क्या काम है; मेरे घर में ही हैं भगवान मेरे, उनके चरणों में मेरे चारों धाम हैं।’

लेकिन अब पत्नियों ने पता नहीं कौन सा चश्मा पहन लिया है कि उन्हें पति में परमेश्वर के बजाय मामूली आदमी नज़र आने लगा है। अर्श से फर्श पर उतरने के बाद बेचारा पति परेशान है क्योंकि वह इस नयी हैसियत से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है।

मेरी मति में पतियों की इस दुर्दशा का कारण स्त्री-शिक्षा का बढ़ना और स्त्री का स्वावलम्बी होना है। पहले स्त्री अल्पशिक्षित होती थी और इस कारण पूरी तरह से पति पर निर्भर होती थी। वह उतनी ही किताबें पढ़ती थी जो पति को परमेश्वर सिद्ध करती थीं और जो उसे सिर्फ चिट्ठी- पत्री के काबिल बनाती थीं। अब स्त्रियाँ दुनिया भर की ऊटपटाँग किताबें पढ़ने लगी हैं और बड़ी बड़ी कुर्सियों पर बैठने लगी हैं। उन्हें पता चल गया है कि संविधान और कानून ने उन्हें बहुत से अधिकार दिये हैं। इस मामले में स्त्रियों को बरगलाने में टीवी ने खूब विध्वंसकारी भूमिका निभायी है। अब कम पढ़ी-लिखी पत्नी भी जानती है कि पतिदेव की टाँग कैसे पकड़ी जा सकती है। नतीजा यह कि पति की हैसियत दो कौड़ी की हो गयी है।

फिर भी पत्नियों को पति के बहकने पर गुस्सा करने से पहले हमारे इतिहास पर विचार करना चाहिए। पुरुषों में दांपत्य के राजमार्ग से बहकने भटकने की प्रवृत्ति हमेशा रही है और स्त्री सदियों से इसे अपनी नियति मानकर सन्तोष करती रही है। एकनिष्ठ होने की अपेक्षा पत्नियों से ही रही है, पतियों से नहीं। धर्मग्रंथों में पतिव्रताओं की महिमा खूब गायी गयी, लेकिन जो पति एकनिष्ठ रहे उनका नाम कोई नहीं लेता। राजाओं नवाबों के रनिवास और हरम पत्नियों से इतने भरे रहे कि पतिदेव अपनी पत्नियों और सन्तानों को पहचान नहीं पाते थे, लेकिन पत्नी बहकी तो गयी काम से। ‘साहब बीवी गुलाम’ के बाबू लोग रोज़ गजरा लपेटकर कोठों की सैर करते थे, लेकिन छोटी बहू ने भूतनाथ से कुछ मन की बात कर ली तो तत्काल उसकी ज़िन्दगी का फैसला हो गया।

इसलिए भारत सरकार से मेरी दरख्वास्त है कि पतियों की पिटाई टीवी पर दिखाने पर तत्काल रोक लगायी जाए और इस संबंध में ज़रूरी कानून बनाया जाए ताकि पतियों की हैसियत और उनके मनोबल मेंं और गिरावट न हो। इसके साथ ही पतियों के खराब ग्रहों की शान्ति के लिए कुछ अनुष्ठान वगैरः भी कराया जाए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 87 ☆ कालाय तस्मै नम: ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 87 ☆ कालाय तस्मै नम: ! ☆ 

संध्या समय प्राय: बालकनी में मालाजप या ध्यान के लिये बैठता हूँ। देखता हूँ कि एक बड़ी-सी छिपकली दीवार से चिपकी है। संभवत: उसे मनुष्य में काल दिखता है। मुझे देखते ही भाग खड़ी होती है। वह भागकर बालकनी के कोने में दीवार से टिकाकर रखी इस्त्री करने की पुरानी फोल्डिंग टेबल के पीछे छिप जाती है।

बालकनी यूँ तो घर में प्रकाश और हवा के लिए आरक्षित क्षेत्र है पर अधिकांश परिवारों की बालकनी का एक कोना पुराने सामान के लिये शनै:-शनै: आरक्षित हो जाता है। इसी कोने में रखी टेबल के पीछे छिपकर छिपकली को लगता होगा कि वह काल को मात दे आई है। काल अब उसे देख नहीं सकता।

यही भूल मनुष्य भी करता है। धन, मद, पद के पर्दे की ओट में स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल। अपने कथित सुरक्षा क्षेत्र में काल को चकमा देकर जीने की भूल। काल की निगाहों में वह उतनी ही धूल झोंक सकता है जितना टेबल के पीछे छुपी छिपकली।

एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अनन्य मूर्तियाँ बनाता था। ऐसी सजीव कि जिस किसीकी मूर्ति बनाये, वह भी मूर्ति के साथ खड़ा हो जाय तो मूल और मूर्ति में अंतर करना कठिन हो।  समय के साथ मूर्तिकार वृद्ध हो चला। ढलती साँसों ने काल को चकमा देने की युक्ति की। मूर्तिकार ने स्वयं की दर्जनों मूर्तियाँ गढ़ डाली। काल की आहट हुई कि स्वयं भी मूर्तियों के बीच खड़ा हो गया। मूल और मूर्ति के मिलाप से काल सचमुच चकरा गया। असली मूर्तिकार कौनसा है, यह जानना कठिन हो चला। अब युक्ति की बारी काल की थी। ऊँचे स्वर में कहा, ‘अद्भुत कलाकार है। ऐसी कलाकारी तो तीन लोक में देखने को नहीं मिलती। ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार ने इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी?” मूर्तिकार ने तुरंत बाहर निकल कर पूछा,” कौनसी भूल?”   काल हँसकर बोला,” स्वयं को कालजयी समझने की भूल।”

दाना चुगने से पहले चिड़िया अनेक बार चारों ओर देखती है कि किसी शिकारी की देह में काल तो नहीं आ धमका? …चिड़िया को भी काल का भान है, केवल मनुष्य बेभान है। सच तो यह है कि काल का कठफोड़वा तने में चोंच मारकर भीतर छिपे  कीटक का शिकार भी कर लेता है। अनेक प्राणी माटी खोदकर अंदर बसे कीड़े-मकोड़ों का भक्ष्ण कर लेते हैं। काल, हर काल में था, काल हर काल में है। काल हर हाल में रहा, काल हर हाल रहेगा।  काल से ही कालचक्र है,  काल ही कालातीत है। उससे बचा या भागा नहीं जा सकता।

थोड़े लिखे को अधिक बाँचना, बहुत अधिक गुनना।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 43 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 43 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 43) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 43☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

भरोसा जितना कीमती होता जाता है

धोखा भी उतना ही महंगा हो जाता है

ईमानदारी का दाम भला कौन जाने

यहाँ हर बेईमान शहंशाह बना जाता है

 

More the trust intensifies

Costlier becomes the betrayal

Who cares the honesty here

Cheats only rules the roost…..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बहुत कुछ बदल जाता है

बढ़ती उम्र के साथ,

पहले हम ज़िद‘  किया करते थे,

अब समझौते‘….

 

A  lot  changes…

With  the  growing  age,

Earlier I’d demand stubbornly

Now just the compromises!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ना जाने कौन रह गया है

भीगने  से  इस  शहर में,

जिसके लिए लौटती है

रह-रह के बारिश फिर से

 

Do not know who is left in

this city from getting wet,

For  whom  the rain keeps

returning again and again…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

एक ख़लिश सी

रह  गयी  दिल  में,

मुझ जैसा इश्क़ करता,

मुझ  से  भी  कोई…

 

A little grudge is

left  in  the  heart,

How I wish someone could

love me like me only…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 44 ☆ भारत का भाषा गीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘भारत का भाषा गीत। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 44 ☆ 

☆ भारत का भाषा गीत ☆ 

*

हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की

अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की

नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम

जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की

संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,

अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,

राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,

भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,

परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी

कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,

सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,

जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,

मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,

कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,

मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू

पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली

​’सलिल’ पचेली, सिंधी हँस व्यवहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़

शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़

गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर

समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़

‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

**

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 76 – आया बसंत आया बसंत ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक सामायिक एवं भावपूर्ण रचना  “आया बसंत आया बसंत। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#76 ☆ आया बसंत आया बसंत ☆

दो शब्द रचना कार के – हेमंत की अवसान बेला में पतझड़ के बाद  जब ऋतु राज बसंत का आगमन होता है, तब   वह सृष्टि के सारे प्राणियों को  अपने रंगीन नजारों के मोहपाश में आबद्ध कर आलिंगनबद्ध हो उठता है। प्राकृतिक रंगों की अनुपम छटा से धरा का कोना कोना सज संवर उठता है, तारों भरा आसमां गा उठता है। धरती खिलखिला उठती है, मानव-मन के वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं। तथा मन मयूर फगुआ और चैता के धुन पर नाच उठता है।

कहीं हरियाली भरे खेतों में खिले पीले पीले सरसों के फूल, तथा कहीं कहीं खिले अलसी के नीले नीले फूल धरती के पीले छींट वाली धानी रंग की चूनर ओढ़े होने का एहसास कराते हैं। तथा धरा पर नीले अंबर के निलिमांयुक्त सागर के उतरने का आभास देते हैं। ऐसे में आम्रमंजरी के खिले पुष्प गुच्छ, कटहलों के फूलों की मादक सुगंध, जब पुरुआ  के झोंको पर सवार होकर भोर की शैर पे निकलती है तो वातावरण को एक नवीन ऊर्जा और चेतना से भर देती है। इसी लिए संभवतः बसंत को ऋतु राज भी  कहा गया है। ऋतु राज के इसी वैभव से ये रचना परिचित कराती है।——-

आया बसंत आया बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

छाया बसंत छाया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।

 

धरती के बाग बगीचों से,

अरहर के झुरमुट खेतों से,

सरसों के पीले फूलों से,

बौराई आम्र मंजरी से,

पी पी पपिहा के तानों से,

कोयल के मीठे गानों से,

तूं देख देख झलके बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।१।।

 

गेंदा गुलाब की क्यारी से,

बेला की फुलवारी से,

चंपा संग चंपक बागों से,

चंचरीक की गुनगुन से

उन्नत वक्ष स्थल गालों में

गोरी के गदराये यौवन पे,

हर तरफ देख छलके बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।२।।

 

ढोलक झांझ मृदंगों से,

भर भर पिचकारी रंगों से।

दानों की लदी बालियों से,

महुआ के रसीले फूलों से,

वो टपके मधुरस के जैसा,

विरहिनि के हिय से हूक उठे,

पिउ पिउ पपिहा के स्वर जैसा,

आमों कटहल के बागों से,

अभिनव सुगंध लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।३।।

 

अलसी के नीले फूलों में,

अंबर के नीले सागर सा,

सरसों के पीले फूलों से,

धरती के धानी चूनर सा

गोरी के उर अंतर में

साजन के प्रेमरंग जैसा,

पनघट वाली के गागर से,

छलके मधुमास शहद जैसा,

बाग-बगीचों अमराई से

झुरझुर चलती पुरवाई से,

नवयौवन की अंगड़ाई से,

बासंती राग विहागों सा,

कुछ नव संदेश लाया बसंत,

चहुंओर धरा से उठा शोर

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।४।।

 

चंहुओर अबीर गुलाल उड़ें,

गोरी के नैन से नैन लड़े।

इक अलग ही मस्ती छाई है,

सारी दुनिया बौराइ है।

कान्हा के रंगीले रंगों में ,

राधा की बांकी चितवन में,

हर तरफ देख बगराया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।५।।

 

धरती का श्रृंगार बसंत है,

नवउर्जा का संचार बसंत है,

खुशियों का अंबार बसंत है,

कामदेव का हार बसंत है,

मासों में मधुमास बसंत है,

पिया मिलन की आस बसंत है,

जीवन ज्योति प्रकाश बसंत है,

रिस्तों की मधुर मिठास बसंत है।

प्रकृति रंग लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।६।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆

☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा

विश्व मे सदभाव फैले हो कही न दुराचरण

व्यर्थवैर विरोध से दूषित न हो वातावरण

हर नया दिन शांति मय हो मुक्त हर जंजाल से

समस्याओं का सदा सदबुद्धि से हो निराकरण

बदलते परिवेश मे जो जहां कोई मतभेद हो

छोड मन के द्वेष सब मिल करें शुभ चिंतन मनन

मूर्खता से पसरता जाता रहा आंतकवाद

रोका जाना चाहिये निर्दोषो का असमय मरण

दुष्टता से हैं त्रसित परिवार जन शासन सभी

समझदारी है जरूरी बंद हो अटपट चलन

आदमी जब मिल के रहता सबो की होती प्रगति

हर एक मन को सुहाता है स्नेह का पावन सृजन

बैर से होती सदा हर व्यक्ति को कठिनाईया

सुख बरसता जब हुआ करता नियम का अनुसरण

मन के बढते मैल से तो बढती जाती दूरियाॅ

आदमी हर चाहता है आपसी मंगल मिलन

युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियाॅ

सदाचारो का किया जाये निरंतर अनुकरण

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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