हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 38 ☆ नवगीत – याद की फसलें कहें…. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘नवगीत – याद की फसलें कहें…’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 39 ☆ 

☆ नवगीत – याद की फसलें कहें…. ☆ 

अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं

शाख पर तो क्या हुआ?

अपर्णा तो है नहीं अमराई

सुख से सोइये

बज रहा चलभाष सुनिए

काम अपना छोड़कर

पत्र आते ही कहाँ जो रखें

उनको मोड़कर

किताबों में गुलाबों की

पंखुड़ी मिलती नहीं

याद की फसलें कहें, किस नदी

तट पर बोइये?

सैंकड़ों शुभकामनायें

मिल रही हैं चैट पर

सिमट सब नाते गए हैं

आजकल अब नैट पर

ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर

बंदगी जो मीत हैं

पड़ गये यदि सामने तो

चीन्ह पहचाने नहीं

चैन मन का, बचा रखिए

भीड़ में मत खोइए

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 38 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 38 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 38) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 38☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

उड़ने दो मिट्टी को फ़लक तक

आखिर  कहाँ  तलक  उड़ेगी,

हवाओं ने जब साथ छोड़ा तो,

आखिर जमीन पर ही गिरेगी !!

 

Let the soil fly high in the sky

How  far will  it  keep  flying,

When  the  wind  deserts  it,

It’ll fall  on  the ground  only!!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

उसने  भी  हँस  के  यूँही

आज पूछ  लिया मिज़ाज

लगता है  कि  उम्र भर के

रंज-ओ-ग़म याद आ गए हैं…

 

Today,  laughingly, she  just

inquired about my well-being

Felt, as if surfaced again are

the age old grief and sorrow

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बस इतनी  सी बात

समुंदर को खल गई

एक कागज़ की नाव

मुझपे कैसे चल गई…

 

The sea just could

not tolerate it that

how could a paper

boat  ever sail on it…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

अब  उस  मुकाम  पे आ

पहुँची  है  जिंदगी  जहाँ,

चीजें तो बहुत सी पसन्द हैं

मगर चाहिए कुछ भी नही…

 

Now the life has reached

that point where many

likeable things are there

but nothing is required…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कलम ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “कलम। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  कलम  ☆

दबों कुचलों का हथियार ‌ये बन जाती है।

इसकी स्याही से इतिहास लिखी जाती है।

जब ये उतर आये अपनी हस्ती पे,

सारी दुनिया को नई राह दिखा जाती है।

मुहब्बत अमन के संदेश कलम लिखती है,

ज़ालिम को फांसी का आदेश कलम‌ लिखती है।

गलत‌ काम पे‌ नकेल कलम कसती है,

जोर जुल्म का‌ विरोध कलम‌ करती है।

कलम खुशियों के गीत लिखती है,

कलम ग़म के‌ संदेश लिखती है।

कभी गीत, गजल कलम लिखती है,

कविता, कहानी ये कलम लिखती है।

आग‌ और अंगार कलम लिखती है,

कभी ‌मासूम खिदमतगार दिखती है।

कौमों तंजीमों के अल्फ़ाज़  बदल डाले हैं,

इस कलम ने तख्तोताज ‌बदल डाले हैं।

कलम से गलत लोग डरा करते हैं,

इसके सिपाही तो फर्जो पे मरा करते हैं।

वो जंगे मैदां में पलट के प्रहार करते हैं,

बिना शमसीर के कलमों से वार करते हैं।

कलम जब तीर बन कर गुजर जाये,

हदों को पार कर जिगर में उतर जाये।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 26 ☆ हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक भावप्रवण कविता  “हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 26 ☆

☆ हिंसा से कभी न होती कोई समस्या दूर ☆

 

मन में कुछ है, मुंह में कुछ है, कैसे बात  बने ?

समय गुजरता जा रहा है और नाहक तने तने ।

 

हल न समस्या का निकला कोई आपस में लड़ते

नये नए मुद्दे और उलझते जाते दिन बढते

 

भिन्न बहाने करते प्रस्तुत, मन में है दुर्भाव

कई कारणों से बढता आया द्वेष दुराव ।

 

हिंसा  से कब मिला कभी भी कोई सार्थक हल

और समस्या बढती जाती नई-नई प्रतिपल

 

हल पाने होती जब भी है मन में में सच्ची चाह

आपस में सद्भाव समन्वय से मिल जाती राह

 

मन में मैल जहाँ भी होता, होती ही नित भूल

सोच अगर सीधी सच्ची हो तो खिलते हैं नित फूल

 

हिंसा से हुई कभी न होती कोई समस्या दूर

जहां अहिंसक भाव है मन में वहीं शान्ति भरपूर

 

मन को स्वतः  टटोलो अपना और करो वह बात

देश के निर्दोषी लोगों को हो न  कोई व्याघात

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

कॉलेज में मजा-मस्ती करते करते साल कैसे गुजर गया मालूम ही नही पड़ा  कुछ दिन के बाद रिझल्ट आ गया और मैं मराठी विषय लेकर बी.ए. अच्छे मार्क्स लेकर पास हो गई। सबको बहुत खुशी हो गई। सब लोगो ने मुझे बधाई दी। प्यार से मिठाई खिलाई।

अब आगे क्या करना है, मन में सवाल उठने लगे। कोई लोग बोले, मराठी में इतने अच्छे मार्क्स मिले है, एम.ए. करो। कोई बोलने लगे, तुम्हारी आवाज इतनी मधुर है, तो गाना सिखो।

बचपन से ही मुझे नाचने का बहुत शौक था। मुझे चौथी कक्षा तक अच्छा दिखाई देता था। जन्म से ही मोतियाबिंद था, तो भी ऑपरेशन के बाद थोडा-थोडा दिखाई देने लगा था। बहुत छोटी थी तब से मोतियाबिंद था इसके लिए कांचबिन्दु बढ़ गया। चौथी कक्षा के बाद से दृष्टि कम होने लगी थी।

बी.ए. होने के बाद २१ साल में मैंने भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। भरतनाट्यम ही क्यूँ? मुझे अभी भी याद आता है। मेरे पिताजी विद्या मंदिर प्रशाला, मिरज, पाठशाला में अध्यापक थे। उस वक्त दिल्ली में एक कोर्स में उनको नया प्रोजेक्टर स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिला था।  उसमें भारत के प्राचीन मंदिरों के स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिले थे। भारतीय नृत्य की सब पहचान, नृत्य की अदाकारी मिली थी। भगवान की कृपा से मुझे जब अच्छी तरह से दिखाई देता था, तब ही नृत्यमुद्रा, सुंदर पहनावा, अच्छे-अच्छे अलंकार मेरे मन को छू गए।  मेरी नजर तो चली गई, फिर भी मन में दृश्य अभी भी आइने के सामने वैसे ही है, जो मैने उस वक्त देखा था। उसका बुलावा मुझे हमेशा साथ देता आ रहा है। अच्छा पेड़ लगाया तो, अच्छी हवा में अच्छी तरह से फैलते है, और बडे होते है, ऐसा बोलते है ना? मेरा मन भी उसी प्रकार ही है। सच में यह सब मेरी नृत्य गुरु के कारण ही हुआ है। मेरी नृत्य गुरु मिरज की सौ. धनश्री आपटे मॅडम। मेरे नृत्य के, मेरे विचारधारा के प्रगति के फूल खिलनेवाली कलियाँ, मेरे आयु का आनंद और एक तरह से मेरे जीवन में बहार देने वाली मेरी दीदी सौ. धनश्री ताई यही मेरी गुरु, मेरी  मॅडम।

 

ऐसे गुरु मुझे सिर्फ नसीब से मिले। मेरी माँ और पिताजी की कृपादृष्टी, भगवान का आशीर्वाद और दीदी का बडप्पन इन सब लोगों की सहायता से प्राप्त हुआ।

बी.ए. पास होने के बाद, मेरी नृत्य सीखने की इच्छा माँ और पिताजी को बतायी। मेरे पिताजी ने सोच समझ कर निर्णय लिया। मुझे कोई तो नृत्य सीखने के लिए गुरु ढूँढने लगे।

धनश्री दीदी के बारे मे मालूम होने के बाद पापाजी मुझे दीदी के पास लेकर गये। पहिला दिन मुझे अभी भी याद है। पापा ने मेरी पहचान दीदी से कर दी। मेरे लडकी को आपके पास नृत्य सीखना है, आपकी अनुमति हो तो ही। मेरा चलना, इधर-उधर घूमना, देखकर मुझे पुरा ही दिखाई नहीं देता, ऐसा उनको नहीं लगा। जब उनके ध्यान में आ गया, तब एक अंध लडकी को सिखाने की चुनौती स्वीकार ली। थोडी देर के लिये तो मैं स्तब्ध ही हो गई। बाद में दीदी ने सोच लिया कि मुझे यह चुनौती स्वीकारनी है तो सोचकर दो दिन के बाद बताऊंगी, ऐसा बोला। बादमें उन्होने हाँ कह दिया। उनका ‘ हाँ ‘ कहना मेरे लिये बहुत ही अहम था। मेरे जिंदगी में उजाला छा गया।

मुझे अकेले को सिखाने के लिए दीदी ने मेरे लिए बुधवार और शुक्रवार का दिन चुना था। एक दिन उनको सिखाने के लिए समय नहीं था। इसके लिये मुझे घर आकर बता कर गई। कोई तो मुझे छोडने के लिए आयेंगे और दीदी नहीं हैं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसके लिये दीदी खुद आकर बता कर गई। उनका स्पष्ट तरह से सोचना, उनकी सच्चाई, इतने साल हो गये तो भी वैसी ही है।

दीदी ने मुझे नृत्य के लिए हाथ पाँव की मुद्रा, नेक चलना, देखना, हँसना, चेहरे के हाव-भाव कैसे चाहिये, यह सिखाया। हाथ की मुद्रा कैसे चाहिये, यह भी सिखाया। पहली उॅंगली और आखरी उॅंगली जोडकर बाकी की तीन उँगलियाँ वैसे ही रखने को बोलती थी। पैरों की हलचल करते वक्त नीचे बैठ कर मेरे हाथ- पाँव कैसे चलना चाहिए, सिखाती थी। मेरे समझ में आने के बाद प्रॅक्टिस कर लेती थी। मेरी एम.ए. की पढाई ही बताती हूँ। गंभीर रूप से नृत्य करना, दशावतार का प्रस्तुतीकरण करना था। सच में मुझे ऐसा लगा कि मैं घोडे पर सवार होकर नृत्य कर रही हूँ। मुझे ये सब कर के प्रसन्नता मिली।

गाने के विशेष बोल, उसका अर्थ, यह सब प्रॅक्टिस से जमने लगा। पहले-पहले मैं शरीर से नाच रही थी। घर में आने के बाद प्रॅक्टिस करती थी। एक बार दीदी को ध्यान में आया की नाच-नाच कर मेरे पाँव में सूजन सी आ रही है। तब दीदी बोली नृत्य सिर्फ शरीर सें नहीं करना चाहिये। बल्की मन से, दिमाग से सोच कर, होशियारी सें मने में उतरना चाहिए। उन्होंने मुझे सौ बाते बतायी, मुझे उसमे से पचास की समझ आयी। दीदी ने मुझे नृत्य में इतना उत्तम बनाया कि आज मैं सो जाऊंगी तो भी कभी भूल नही पाऊंगी। नृत्य की सबसे टेढी चाल सीधी करके सिखाई। मन से नृत्य कैसे करना चाहिए, उसकी ट्रिक भी सिखाई। मुझे अलग सा, मन को प्रसन्न लगने लगा। अब मैं कुछ तो नया बडा नाम कर दूँगी, ऐसा लगने लगा। नृत्य करने का बहुत बड़ा आनंद मुझे मिल गया। मैं भरतनाट्यम की लडकी हूँ। पुरा मैंने सीख लिया है, ऐसा तो मैं नही मानूँगी। फिर भी गांधर्व महाविद्यालय मे सात साल परीक्षाऍं देती रही। आखिर परीक्षा में ‘नृत्य विशारद’ पदवी संपादन कर ली।

जो मैं कर नही सकती, वह आसानी से कैसे करे, यह मैंने मेरी बहन से सीख लिया था। मेरे माँ और पिताजी के बाद, मेरे लिये दीदी का स्थान बडा है। मेरे लिये इन लोगों का स्थान महान है। गुरु कैसे मिलते है, उसके उपर शिष्य की प्रगती निर्भर होती है। मेरे गुरुवर उच्च विचारधारा वाले,  अध्यात्मज्ञान से परिपूर्ण हैं, बड़ा प्यार है। धनश्री दीदी जैसे गुरु ने बीस साल मुझे नृत्य की साधना सिखाई। जो-जो अच्छा मैने सीख लिया है, मेरे लिये अबोध और अद्भुत बात है। यही मेरा अनुभव हैं। यह सब मैं बता रही हूँ लगन से।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 58 – राजमाता स्वराज्याची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 58 – राजमाता स्वराज्याची ☆

राजे लखूजींच्या गृही

जन्मा आली विद्युलता।

ऊरी स्वप्न स्वराज्याचे

गुलामीची ती सांगता।

 

राजकन्या जाधवांची

कुलवधु भोसल्यांची।

मानबिंदू आदर्शाचा

राजमाता स्वराज्याची।

 

दिले अभय जनाला

घडी बसवी राज्याची ।

अराजक दानवांना

धास्ती तुझ्या शासनाची

 

स्वराज्याचे बाळकडू

तूच राजांना पाजले

सिंह सह्याद्री गर्जता

तक्त दिल्लीचे हालले।

 

बालराजे थोपविती

फोज लांखो यवनांची।

राष्ट्रहीता सज्ज पुत्र

धन्य माय साहसाची।

 

आऊ साहेबा समान

राष्ट्रमाता होणे नाही।

करू त्रिवार नमन

याल का हो लवलाही।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 79 ☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख को-रोना बनाम रुदाली।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 79 ☆

☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆

‘कोरोना तो रुदाली करने का बस एक बहाना है। बाकी लोग तो पहले से ही अपनों से दूर हो चुके हैं। वे तो पास होने का केवल नाटक करते हैं।’ राजेंद्र परदेसी जी का यह कथन कोटिशः सत्य है। ‘को-रोना’ काहे का और क्यों रोना’ विडंबना है जीवन की। वास्तव में आधुनिक युग में विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया है और मानव में आत्मकेंद्रितता के भाव में बेतहाशा उछाल आया है, क्योंकि सामाजिक-सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा। जीवन मूल्य दरक़ रहे हैं और रिश्तों की अहमियत रही नहीं। सो! परिवार-व्यवस्था में मानव की आस्था न होने के कारण चहुंओर अविश्वास का वातावरण हावी है। पति-पत्नी अपने-अपने द्वीप में क़ैद हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। स्नेह, सौहार्द, प्रेम व विश्वास जीवन से नदारद हैं। इन विषम परिस्थितियों में पारस्परिक प्रेम व सहानुभुति के भाव होने की कल्पना बेमानी है।

वास्तव में को-रोना तो स्वार्थी मानसिकता वाले  लोगों के लिए वरदान है, जो अपनों के निकट संबंधी होने का दम भरते हैं अर्थात् स्वांग रचते हैं। वास्तव में वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं सकते। इसलिए कोरोना तो रुदाली की भांति लोक-दिखावा है… शोक प्रकट करने का एकमात्र साधन है। कोरोना ने तो उनकी मुश्किलें आसान कर दी हैं। अब उन्हें मातमपुर्सी के लिए किसी के वहां जाने की दरक़ार नहीं, क्योंकि वह एक जानलेवा बीमारी है। इसलिए इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सरकारी सम्पत्ति बन जाता है और पीड़ित का उसके परिवार से ही नहीं, संपूर्ण विश्व से नाता टूट जाता है। दूसरे शब्दों में वह रिश्ते- नातों के जंजाल से जीते-जी मुक्ति पा लेता है।

रुदाली एक प्राचीन परंपरा है और चंद महिलाओं के गुज़र-बसर का साधन, जिसके अंतर्गत उन्हें रोने अथवा मातम मनाने के लिए एक निश्चित अवधि के लिए वहां जाना पड़ता है, जबकि उनका उस व्यक्ति व परिवार से कोई संबंध नहीं होता। आजकल तो संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर रह गए हैं और अपनत्व का भाव भी  जीवन से लुप्त हो चुका है। लोग अक्सर निकट होने का नाटक करते हैं। परंतु संवेदनाएं मर चुकी हैं और रिश्तों को ग्रहण लग गया है। इसलिए कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा।

मुझे स्मरण हो रही है विलियम शेक्सपीयर की ‘सैवन स्टेजिज़ ऑफ मैन’ कविता–जिसमें वे संसार को रंगमंच की संज्ञा देते हुए मानव को एक क़िरदार के रूप में दर्शाते हैं, जो संसार में जन्म लेने के पश्चात् समयानुसार अपने विभिन्न पार्ट अदा कर चल देता है। वास्तव में यही सत्य है जीवन का, क्योंकि सब संबंध स्वार्थ के हैं। सच्चा तो केवल आत्मा-परमात्मा का संबंध है, जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। सो! मानव को सांसारिक मायाजाल से ऊपर उठना चाहिए, ताकि वह मुक्ति को प्राप्त कर सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 31 ☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद”.)

☆ किसलय की कलम से # 31 ☆

☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆

चन्द्रमा और लक्ष्मी दोनों ही समुद्रमंथन से निकले होने के कारण भाई-बहन कहलाते हैं। भगवान विष्णु हमारे जगत पिता और देवी लक्ष्मी हमारी जगत माता हैं। इस रिश्ते के कारण ही देवी लक्ष्मी के भाई चन्द्र देव हम सबके मामा हुए। यही कारण है कि पूरा हिन्दु-विश्व चाँद को “चन्दा मामा” कहता है।

अन्तरिक्ष में पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण चाँद अपनी चाँदनी और अनेक विशेषताओं के कारण प्राणिजगत का अभिन्न अंग है। चाँद के घटते-बढ़ते स्वरूप को हम चन्द्रकलाएँ कहते हैं। इन्हीं कलाओं या स्थितियों को हमारे प्राचीन गणितज्ञों एवं ज्योतिषाचार्यों ने चाँद पर आधारित काल गणना विकसित की। प्रतिपदा से चतुर्दशी पश्चात अमावस्या अथवा पूर्णिमा तक दो पक्ष माने गए। शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष मिलकर एक मास बनाया गया है। आज हिन्दु समाज के सभी संस्कार अथवा कार्यक्रम इन्हीं तिथियों के अनुसार नियत किए जाते हैं। आज भी धार्मिक, श्रद्धालु एवं समस्त सनातनधर्मी जनसमुदाय काल गणना और अपने अधिकांश कार्य चन्द्र तिथियों के अनुसार ही करते हैं। दिन में जहाँ सूर्य अपने आलोक से पृथ्वी को जीवन्त बनाये हुए है, वहीं चाँद रात्रि में अपनी निर्मल चाँदनी से जन मानस को लाभान्वित करने के साथ ही अभिभूत भी करता है।

लोक संस्कृति में आज भी चाँद का महत्त्व सर्वोपरि माना जाता है। दीपावली, दशहरा, होली, रक्षाबंधन, शरद पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, सोमवती अमावस्यायें, कार्तिक पूर्णिमा, जैसे सारे व्रत या पर्व चाँद की तिथियों पर ही आधारित हैं। इनमें से शरद पूर्णिमा तो मुख्यतः चाँद का ही पर्व कहलाता है। इस दिन की चाँदनी यथार्थ में अमृत वर्षा करती प्रतीत होती है।

यदि हम समाज की बात करें तो आज भी छोटे बच्चों को चाँद की ओर इशारा कर के बहलाने का प्रयास किया जाता है। “चन्दा मामा दूर के, पुये पकाए बोर के” जैसे काव्य मुखड़ों से सारा समाज परिचित है। वहीं आज भी भगवान कृष्ण जी पर केन्द्रित गीत के बोल “मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों” किसे याद नहीं है। दूज के चाँद की सुन्दरता अनुपम न होती तो भगवान शिव इसे अपने भाल का श्रृंगार ही क्यों बनाते और वे चंद्रमौलि या चन्द्रशेखर कैसे कहलाते। यहाँ बुन्देली काव्य की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:-

विष्णु को सारो, श्रृंगार महेश को,

सागर को सुत, लक्ष्मी को भाई .

तारन को पति, देवन को धन,

मानुष को है महा सुखदाई ॥

इन पंक्तियों में चाँद को मानव और देवताओं सभी के लिए सुखदाई बताया गया है।

इस तरह चाँद की तुलनाएँ, उपमाएँ और सौन्दर्य वर्णन में उपयोग को देखते हुए लगता है कि यदि चाँद नहीं होता तो कवि-शायरों के पास एक विकट समस्या खड़ी हो जाती। चौदहवीं का चाँद हो, चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, चाँद सी महबूबा हो मेरी, या फिर मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी … आदि सदाबहार गीत हम आज न ही सुन पाते और न ही गुनगुना पाते।

प्रारम्भ से ही चाँद के प्रति प्राणिजगत का गहरा लगाव रहा है। यदि हम यहाँ पर ये कहें कि चाँद के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोग कल्पना करते थे कि चाँद पर कोई बुढ़िया चरखा चला रही है या झाड़ू लगा रही है। भले ही आज मानव चाँद पर जा चुका है पर उसकी विशेषताओं और महत्त्व में अभी तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। चाँद की शीतलता और उसका तारों भरे आकाश में शुभ्र चाँदनी बिखेरना, किसे नही भाता। मेरे ही शब्दों में :-

पर्वतों कि चोटियों पे आ के

बादलों के घूँघटों से झाँके

हो गई ये रात भी सुहानी

चाँद तेरी रौशनी को पा के …

चाँद जहाँ सुन्दरता का प्रतीक माना जाता है, वहीं उस पर दाग होने की कमी भी बताई जाती है। हमारे ग्रंथों में एक स्थान पर तो उसे देखने से ही चोरी के कलंक का कारण भी बताया गया है। इसी सन्दर्भ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा शुक्लपक्षीय भाद्रपद की चतुर्थी के चाँद को देख लेने पर उनके ऊपर “स्यमन्तक मणि” की चोरी का आरोप भी लगा दिया गया था, भले ही बाद में वे निर्दोष सिद्ध हो गए। कहते है चाँदनी रात का सुरम्य, शांत और एकांतप्रिय माहौल कवि-शायरों की साधना के लिए उपयुक्त होता है। वहीं अशांत मन के लिए शान्ति के लिए भी  ऐसे वातावरण सुखद होता है :-

एक शाम सुनसान में,

चाँद था आसमान में।

गुमसुम सा बैठा रहा,

न जाने किस अरमान में।।

चलती रही शीतल पवन,

रात बनी रही दुल्हन।

शान्त नहीं था मन मेरा,

थी अजीब सी वो उलझन।।

हम लोक संस्कृति, काव्य, शायरी, चित्रकारी, धर्म, अथवा समाज कहीं की भी बात करें, चाँद हमारे करीब ही होता है। यह शत-प्रतिशत सत्य है। हम ईद के चाँद की बात करें अथवा करवा चौथ के चाँद की। ये व्यापक और धार्मिक पर्व मुख्यतः चाँद के दर्शन पर ही आश्रित होते हैं। हमारा समाज इन्हें कितनी आस्था और विश्वास के साथ मनाता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

लोक संस्कृति में रचा-बसा, भगवान शिव के मस्तिष्क पर शोभायमान, कवि-शायरों की शृंगारिक विषयवस्तु, मनुष्य और देवताओं के सुखदाई चाँद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 78 ☆ कविता – स्वराज्य ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “ स्वराज्य। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 78 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता –  स्वराज्य ☆

स्वराज्य हमारा नारा है

वतन जान से प्यारा है

झंडा ऊंचा सदा रहे

पावन नदियां की जलधार बहे

वतन जान से प्यारा है

स्वराज्य हमारा नारा है

स्वराज्य हमारा  है स्वाभिमान

तिरंगा हमारी आन बान और  है शान

देश बचाते शहीद हमारे

सीने पर गोली वह खाते

जान गंवाते माँ के दुलारे

तिरंगे का बढ़ाते हैं मान

हमारा गणतंत्र है महान

वतन जान से प्यारा है.

स्वराज्य हमारा नारा है

शहीदों पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते

भारत माँको शीश नवाते

उन वीरों को है शत शत नमन

रोशन हुए वे बने चमन

वतन जान से प्यारा है

स्वराज्य हमारा नारा है

जीते हैं हर वर्ष ऐतिहासिक पल

दिखाते हैं सैन्य दल अपना बल

आओ तिरंगे को लहराए

अपना गणतंत्र हम मनाएं

खुशी से झूमे नाचे गाए

वतन जान से प्यारा है

स्वराज्य हमारा नारा है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 68 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 68 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

 

चाहत दौलत की बढ़ी, चाहें ऊँचा नाम

सदाचार दुबका खड़ा, होते खोटे काम

 

रखें सोच संकीर्ण जो, उनके बिगड़ें काम

सात्विक सच्ची सोच से, होता ऊँचा नाम

 

जीवन सूना सा लगे, अगर न हो पुरुषार्थ

सच्चा मानव वही है, जो करते परमार्थ

 

बढ़ते पूंजीवाद से, शोषण के नव काम

मेहनत कश को न मिलें, श्रम के सच्चे दाम

 

सभा, रैलियां, पोस्टर, लो आ गए चुनाव

घर-घर नेता पहुँचते, दिखा रहे सब दांव

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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