हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – ये उत्सव है लोकतंत्र का ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “ये उत्सव है लोकतंत्र का। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  ये उत्सव है लोकतंत्र का ☆

ये उत्सव है लोकतंत्र का,

मतदाता का दिन आया।

 

रणभेरी दुंदुभी बज उठी,

सबने लालच का जाल बिछाया।

अपना अपना मतलब साधे,

देखो उनका अनर्गल प्रलाप।

जाति पांति मजहब भाषा के,

ले मुद्दे करते विलाप।

।। ये उत्सव है लोकतंत्र का ।।1।।

 

ये विकास का ख्वाब दिखाते,

नारों से भरमाते हैं।

जनता की सुधि ले न सके,

बस इसी लिए घबराते हैं।

जाति धर्म से ऊपर उठकर,

राष्ट्र धर्म का गान करो।

लोकतंत्र के उत्सव में

निर्भय हो मतदान करों।

।। ये उत्सव है लोकतंत्र का ।।2।।

 

सजग नागरिक बन करके,

देश के पहरेदार बनो।

मत घायल होने दो भारत मां को,

पीड़ा सह लो दिलदार बनो।

लघु प्रयास मतदाता का ,

अपना रंग दिखायेगा ।

जब प्रत्याशी योग्य चुनोगे तुम

फिर लोकतंत्र जी जायेगा।

।। ये उत्सव है लोकतंत्र का ।।3।।

 

उदासीनता यदि बरती तो,

नहीं किया गर तुमने मतदान ।

फिर चोटिल होगी भारत मां

फिर से सिसकेगा हिंदुस्तान।

मत सोओ आलस निद्रा त्यागो ,

लोकतंत्र में जोश भरो।

रक्षा करो वतन की अपने,

एक नहीं सौ बार‌ मरो ।

।। ये उत्सव है लोकतंत्र का ।।4।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 25 ☆ किसी पावन तत्व से है भरा यह ब्रह्मांड सारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक भावप्रवण कविता  “किसी पावन तत्व से है भरा यह ब्रह्मांड सारा।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 25 ☆

☆ किसी पावन तत्व से है भरा यह ब्रह्मांड सारा ☆

किसी पावन तत्व से है भरा यह ब्रह्मांड सारा

इसी की नियमित कृपा से चल रहा जीवन हमारा

 

आज पर बढ़ते करोना कष्ट से सब डर रहे हैं

लोग कितने विश्व में उपचार के बिन मर रहे हैं

 

स्वार्थी संसार का जनहित विरोधी आचरण है

विचारों और कर्म से दूषित सकल वातावरण है

 

नाम सेवा का बताकर हो रहा है स्वार्थ साधन

इसी अनुचित नीति कर रखा तन मन धन अपावन

 

शुद्धता शुचिता सरलता का अनादर दिख रहा है

इसी से दुख से भरा इतिहास यह युग लिख रहा है

 

आज जग को प्रेम और विश्वास का व्यवहार चहिए

त्रस्त जीवन को परस्पर शांति सुख हित प्यार चहिए

 

किंतु सीधी राह को तज हर एक बढ़ता जा रहा है

इसी से जाता जहां भी वहां पर टकरा रहा है

 

आए दिन जाता उलझता दुखों से यह जग अकारण

प्रदूषित मन बन गया है सब दुखों का प्रमुख कारण

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -5 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -5 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

जब मेरे घर मेरे माता पिता को मालूम पडा कि, मैं अब से कुछ भी नही देख पाऊॅंगी, सचमें मैं कुछ भी नही कर पाऊॅंगी, क्या बीती होगी उन पर। अब मेरी लडकी क्या करेगी? ऐसा सोचना ही बहुत कठिन था।  फिर भी यह एव्हरेस्ट पर चढाई करने जैसा था और यह उन्होंने तय किया। उन्होंने मुझे इतना समझा दिया कि मुझे लगा जैसे मैं आनंद के सागर डूब रही हूँ ।

घर में हमेंशा मां के पीछे-पीछे भागती थी। रसोई घर में इधर-उधर घूमती थी। मां को हमेंशा मेरी तरफ ध्यान देना पडता था। एक दिन मां फुलों की टोकरी मेरे पास लेकर आयी। उसमें से लाल रंग के फूल बाये हाथ में और पीले रंग का फूल दाहिने हाथ में रखा। मेरा हाथ-हाथ में रख कर मुझे स्पर्श ज्ञान से दिखाया। मैंने सीखा भी जल्दी से। सुई में धागा डालकर फुलों की माला बनाना सिखाया। जल्दी ही बाये हाथ से और दाहिने हाथ से, लाल-पीला फूल डालकर दो-दो रंग की माला तैयार होने लगी। बहुत खूबसूरत माला तैयार हो गई। मां का प्रयोग यशस्वी हो गया। मुझे ये करने के लिए बंधन नही किया। जम गया तो जम गया, हम जीत जायेंगे ऐसा ही सोचा। सब्जी साफ करके, उसे काटना भी सिखाया। गाजर, नारियल के छोटे-छोटे टुकडे करना भी सिखाया। मै आज भी अपने आँसू पोछती रहती तो, आज मैं अपना काम आपको दिखा नही सकती थी। घर के काम की ट्रेनिंग मां ने दिया था, अच्छी तरह से। बाहर स्कूल, पढाई के अलावा, वक्तृत्व के पाठ पिताजी ने पढा-पढाकर तैयार किया था। सच में माता और पिताजी का बहुत बडा योगदान है, मेरे व्यक्तित्व विकास में। दोनो ही मेरे लिये बहुत कीमती है। मैं रसोई नही बना सकती यह मुझे मालूम है, पर मैं मां को बहुत कामो में मदद कर सकती हूँ । आज भी मैं मां को मदद कर सकती हूँ।

मैं साधारण तौर पर सातवी कक्षा मैं थी, तबसे ही टेप-रेकॉर्डर, टेलीफोन आ गया था। गाना सुनने के बाद बंद कैसे करना, यह मैंने हाथ के स्पर्श से सीख लिया था। मेरे भाई-बहन ने मेरा बटन बंद करना, चालू करना देखकर, मुझे प्ले, स्टाॅप, रेकॉर्ड बटनों की पहचान कर दी थी। रिवाइंडिंग कैसे करना, यह भी सिखाया। यह सब इस्तेमाल कैसे करना, ये मैं आसानी से सीख गई। M.A. की पढाई करते समय, अध्यापकों ने जो-जो सिखाया, वो सब में रेकॉर्ड करती थी। जब में पढना चाहूँ, तब मैं पढती थी और बार-बार सुनकर ध्यान में रखती थी। ऐसा ही नया आया हुआ फोन देखकर, उत्सुकता से मैं उसकी पहचान कर सकती थी। मेरे भाई ने ‘ how to operate phone?’ मुझे सिखाया था। रिसिव्हर हाथ में देने के बाद १ से ९ अंको तक की पहचान कर दी थी। कैसे दबाना यह भी आसानी से सिखाया था। २२ अंक हो तो दो वाला बटन दो बार दबाना ऐसा सिखाया। मैं वैसा ही करती थी। मुझे अपने आप नंबर ध्यान में आने लगे। बार-बार ध्यान में रखने की जरूरत नही पड़ी।

रेडिओ लगाना आज भी मुझे आसान लगने लगा और मुझे खूब अच्छा लगने लगा। कुछ साल पहले मेंरी आवाज मैं रेडिओ से सुनूंगी, ऐसी मुझे बिलकुल भी कल्पना नहीं थी। सांगली आकाशवाणी और कोल्हापूर आकाशवाणी से मेंरी आवाज प्रसारित भी हो गई,  है ना जादू!

सच में मुझे सब आता है, ऐसा नहीं है। बाहर जाने के लिये मैं आज भी किसी की मदद के बिना नहीं जा सकती। पहले पापा मुझे कहते थे, तुम्ही सफेद रंग की लकडी की काठी ला कर देता हुॅं। उसकी आदत हो जायेगी और तुम आसानी से चल पाओगी। मेरे जैसे हठ करने वाली लडकी सुनेगी तो ना!

हर रोज मैं पाठशाला जाती थी। इसलिये मुझे मॅडम का सिखाया हुआ सब समझ में आता था। इसलिये ब्रेल  लिपि सीखने की मुझे जरूरत नहीं पडी। इस में कुछ महानता भी नहीं लगी। एक-दो बार मैंने समझने की कोशिश की थी। लेकिन उधर मेंरा मन नहीं लगा। मैने सुनकर सीखने का, ध्यान में रखने का, ऐसी ही घोडी की चाल चलने का तय किया। मां कहती थी, जब मैं छोटी थी तब बहुत भाग-दौड करती थी। सीढ़ियाँ भी सहजता से जल्दी-जल्दी उतरती थी। देखने वाले को डर लगता था। दूसरों को, लोगों को मेंरी चिंता लगती थी।

मेरी कंपास, पेन्सिल, पेन सब जगह पर रखती थी। फिर भी मेरे भाई-बहन को मेंरा सामान उठाकर ले जाने की आदत थी। मेरे डांटने के बाद, गुस्सा करते थे। फिर थोडी देर के बाद सब खेलते थे।

मेरे चाची के मम्मी ने स्वेटर बनाना सिखाया था। मैंने रुमाल भी बनाया था। मैने वह रूमाल आज भी संभाल कर रखा है। मैं आज भी लॉकर का इस्तेमाल करती हूॅं।  खुशी मिलती है इसके लिए आज भी रुमाल बनाती हूॅं।

घर में मेंहमान आने के बाद पानी लेकर आती थी। मां कि बनाई हुई चाय भी देकर आती थी। सब लोगों को बहुत आश्चर्य लगता था। मां को मेंरी थोडी मदद होनी चाहिये, उसका थोडा काम हलका होना चाहिए, उसे थोडा ज्यादा आराम मिलना चाहिए, इसके लिये ही मैने सब काम सीख लिया था।

पिछले साल मेरे पिताजी को अस्पताल में लेकर जाना था। पहले मैं डॉक्टर चाचा की फोन  पर अपॉइंटमेंट लेती थी। पापा को रिक्षा में बिठाकर लेकर जाती थी।  लोगोंको कमाल सा लगता था।  उनका प्यार उमड आता था।

लोगों की आवाज सुनकर बराबर जान लेती थी। आज भी लोगों को आवाज से पहचान लेती हूं। अब क्या कहें, मिलने वाले सब लोग मुझसे प्यार ही प्यार करने लगते है, बडी लगन से। मैंने दिमाग में इतना सोच कर रखा  था कि, मैं सब ध्यान में रख सकती हूं। हमारे घर में नया वाॅशिंग मशीन आने पर उसको कैसे चलना चाहिए, यह भी सीख लिया था। आज भी मैं ही वॉशिंग मशीन ऑपरेट करती हुॅं, मां को मदद करने के लिए। उसे थोडा आराम भी मिले। इस बात से मुझे खुशी मिलती है।

कॉलेज की पढाई, वक्तृत्व स्पर्धा, गॅदरिंग, सहेलियों के साथ रहना, मस्ती करना और मां के सिखाये हुए सब काम करते-करते मैने B.A. की पदवी कैसे हासिल की, यह मेरे समझ में भी नहीं आया।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 78 ☆ भाग्य बनाम कर्म ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख भाग्य बनाम कर्म।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 78 ☆

☆ भाग्य बनाम कर्म ☆

‘भाग्य पर नहीं, कर्म पर उम्मीद रखिए। कर्म उम्मीदों को दुगुन्ना कर देता है।’ सो! हौंसला व रुतबा बनाए रखिए… अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। संबंध इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में उमंग-तरंग व आनंदोल्लास जाग्रत करते हैं … अर्थात् प्रेम, खुशी, उल्लास, सत्य व विश्वास उत्पन्न करते हैं– जिसका मूल उद्देश्य है…सम्मान देना। सो! उम्मीद केवल अपनों से अथवा स्वयं से रखिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि अपेक्षा को उपेक्षा में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता और इंसान की सोच, सिद्धांत व मान्यताएं कांच की तरह पल भर में दरक़ जाती है। वैसे भी दूसरों से उम्मीद रखने से दु:ख प्राप्त होता है और स्वयं से प्राप्त प्रेरणा हमें उत्साह से भर देती है…हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जगाती है और हम अपने हाथ जगन्नाथ समझकर कर्म करने में निमग्न हो जाते हैं। सो! इसके लिए आवश्यकता है; एक-चित्त, एक-मन होकर एकाग्रता व तल्लीनता से कर्म करने की… जिसके लिए मानव को, स्वयं को किसी से कम नहीं आंकना चाहिए और अपना रुतबा व मान-सम्मान कायम रखना चाहिए, क्योंकि समय बदलता रहता है, कभी ठहरता नहीं। अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। सुख सुबह के प्रकाश- सम होता है, जो मांगने पर नहीं, जागने पर ही मिलता है। शाम को थका-हारा सूर्य विश्राम करने के पश्चात् भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, संपूर्ण संसार को आह्लादित कर नवीन ऊर्जा से भर देता है और पक्षियों का मधुर कलरव सुन मानव हृदय आंदोलित हो जाता है; खुशी से झूम उठता है। यह सब देखकर मानव ठगा-सा और अचंभित रह जाता है। वह नयी स्फूर्ति व विश्वास के साथ अपनी दिनचर्या में लग जाता है और इस बीच उसके हृदय में कोई नकारात्मक विचार दस्तक नहीं देता; न ही उसे आलस्य का अनुभव होता है, क्योंकि उसे अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर भरोसा होता है। अक्सर लोग आजीवन इस उधेड़बुन में उलझे रहते हैं, परंतु फिर भी उनका किसी से कोई भी संबंध-सरोकार नहीं होता।

शायद! इसलिए ही मानव को दो प्रकार के लोगों से सावधान रहने का संदेश दिया गया है। प्रथम व्यस्त व द्वितीय घमण्डी, क्योंकि व्यस्त मनुष्य अपनी मर्ज़ी व फ़ुर्सत रहने पर बात करता है और घमण्डी केवल अपने मतलब से ही बात करता है। सो! दोनों ही अविश्वसनीय हैं और कभी भी अच्छे मित्र नहीं बन सकते हैं। दूसरे शब्दों में इनसे सजग व सचेत ही नहीं; सावधान रहना भी अपेक्षित है। स्वार्थ पर आधारित संबंधों का फल कभी भी मधुर, शुभ व सकारात्मक नहीं होता। वे सदैव आपको ग़लत राहों की ओर ले जाते हैं और पथ-विचलित कर सुक़ून पाते हैं। सो! संबंध तो इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में सतरंगी भावनाएं–प्रेम, उदासी, खुशी, ग़म आदि जाग्रत करते हैं और रंगीन स्वप्न दिखाते हैं। आकाश में छाए इंद्रधनुषी बादल भी अपनी रंगीन छटा दिखाकर मानव-मन को आंदोलित व आकर्षित करते हैं और सत्यम्, शिवम् सुंदरम् की भावनाओं से ओतप्रोत करते हैं। कभी वह प्रेम भाव मानव हृदय को नवचेतना से आप्लावित व उद्वेलित करता है; मान-मनुहार के भाव जाग्रत करता है, तो कभी उदासी व विरह के भाव उसके हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं। प्रेम के अभाव में विरह पनपता है; जो मन में वेदना, दु:ख व पीड़ा को जाग्रत करता है। सो! मानव कभी खुशी से फूला नहीं समाता, तो कभी दु:ख व ग़मों के सागर में अवगाहन करता हुआ डूबता-उतराता है। कभी उसे यह मायावी जगत् सत्य भासता है और संबंध शाश्वत… जो मन में आस्था व विश्वास जाग्रत करते हैं। अक्सर मानव क्षणिक सौंदर्य को सत्य जान, उसकी ओर आकर्षित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है।  सो! वे भाव जीवन में आस्था व विश्वास जाग्रत  करते हैं और इंसान उसे सत्य जान आसक्त रहता है। परंतु उस स्थिति में वह भूल जाता है कि ज़िंदगी आदान-प्रदान का दूसरा नाम है …’आप जैसा करोगे, वैसा भरोगे’.. ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ और ‘कर भला, हो भला’ के भाव को पोषित करते हैं। इसलिए जब मानव विनम्र भाव से दूसरों को सम्मान देता है, तो उसके हृदय में अहं भाव नदारद रहता है तथा उसे सम्पूर्ण सृष्टि में सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा हुआ दिखाई पड़ता है। वह उन ख़ुशनुमा पलों को अपने आंचल में समेट लेना चाहता है; बाहों में भर लेना चाहता है। परंतु आदि शंकराचार्य के मतानुसार ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या है, नश्वर है अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है; अवश्यांभावी है। इसलिए मानव को सांसारिक आकर्षणों व माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि आसक्ति विनाश का मूल है; जो उसे लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग से भटकाती है।

मानव जीवन का मूल लक्ष्य है… प्रभु अथवा मोक्ष की प्राप्ति; आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार व तादात्म्य, जिसे भुलाने के कारण वह लख चौरासी में भटकता रहता है। वह कभी अपने भाग्य को दोषी ठहराता है; तो कभी नियति पर विश्वास कर, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और सोचता है कि मानव को भाग्य में लिखा अवश्य प्राप्त होता है। सो! वह कर्म में विश्वास नहीं रखता तथा भूल जाता है कि पुरुषार्थ के बिना मानव को मनचाहा प्राप्त नहीं हो सकता। परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी विद्वान बन कर, संसार में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर आधिपत्य स्थापित कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता होती है…सार्थक उद्देश्य व चिंतन-मनन की; जिसके सहारे मानव आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रख सकता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता। एक पत्थर तो तबीयत से उछालो, यारो!’ दुष्यंत की ये पंक्तियां मानव हृदय को आंदोलित व ऊर्जस्वित करती हैं। सो! आवश्यकता है साहस जुटाने की, आज का काम कल पर न छोड़ने की, क्योंकि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयेगी, मूर्ख करेगा कब’… अर्थात् प्रलय के आने पर बावरा मन अपने कार्यों को कैसे संपन्न कर पायेगा? इसलिए भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखिए; आपकी उम्मीदें अवश्य फलित होंगी व रंगीन स्वप्न अवश्य साकार होंगे।

हां! जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं… हम बिना सोचे-समझे व विचार-विमर्श किए, कार्य को अंजाम दे देते हैं। दूसरे आलसी व्यक्ति, जो कर्म करते ही नहीं…दोनों की नियति लगभग एक जैसी होती है और उनका परिणाम भी सुखदायक व मंगलकारी नहीं होता। अक्सर हमारी आंखों पर अहं का परदा पड़ा रहता है, जिसके कारण न हमें दूसरों के गुण दिखाई पड़ते हैं, न ही हम अपने अवगुणों से अवगत होकर उन्हें स्वीकार कर पाते हैं। यही मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। इस स्थिति में मानव में ज्ञान का अभाव होता है और सोचने-समझने की शक्ति भी नहीं होती…उससे भी बढ़कर वह स्वयं से अधिक बुद्धिमान किसी अन्य को स्वीकारता ही नहीं… इसलिए दूसरे की बात को सत्य स्वीकारने व अहमियत देने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अहं को मानव का सबसे बड़ा शत्रु स्वीकारा गया है तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति मानव को पतन की राह की ओर ले जाता है। ‘सो! फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर करना चाहिए; दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति सदैव के लिए स्वयं छूट जाएगी।’ इस स्थिति में दूसरों को आईना दिखाने में अपना समय नष्ट करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना अधिक श्रेयस्कर है। आत्मचिंतन करना मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। मुझे याद आ रही हैं निर्मल वर्मा की ये पंक्तियां… ‘जब मनुष्य के अंदर का देवता मर जाता है, तो वह झूठे देवताओं की शरण में जाता है।’ इसलिए मानव को परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार, उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक रहना चाहिए; न कि तथाकथित संतों व देवी-देवताओं की शरण में आश्रय ग्रहण करना।’ पहले तो ऋषि-मुनि जप-तप आदि करते थे, तथा मानव-मात्र को कल्याण का मार्ग सुझाते थे…जीने का अंदाज़ सिखाते थे। उनका जीवन सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित होता था और वे ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ के अंतर्गत समस्त वसुधा को अपना परिवार स्वीकार उसके मंगल हित कार्यरत रहते थे। परंतु आज के मानव को निजी स्वार्थों में लिप्त रहने के कारण, अपने व अपने परिजनों के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता। इसलिए ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व हितकारी कैसे हो सकता है?

मौन-चिंतन व एकांत मानव का सर्वश्रेष्ठ गुण है और ख़ामोशी की तहज़ीब है, जो संस्कारों की खबर देती है। संस्कृति संस्कारों की जननी है, जो हमें अज्ञान रूपी गहन अंधकार से बाहर निकालती है और तथाकथित अपनों में से अपनों को खोजने व पहचान करने का मार्ग दर्शाती है। मित्र वे नहीं होते, जो आपकी खामोशी का अर्थ न समझ सकें अर्थात् ‘जो ज़ाहिर हो जाए वह दर्द कैसा/ ख़ामोशी न समझ पाए वह हमदर्द कैसा?’ यहां ख़ामोशी का पर्याय है… सच्चा मित्र व हमदर्द है, जिसे समझने के लिए भाषा की दरक़ार नहीं होती। वह आपके चेहरे को देखकर अंतर्मन के भावों को समझ जाता है।

‘ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।’ इसलिए बहुत दूर तक जाना पड़ता है, सिर्फ़ यह जानने के लिए कि नज़दीक कौन है। यह प्रकृति का नियम है कि जब हमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है, ज़िंदगी हमें निष्फल व अस्तित्वहीन लगती है और जब हमें किसी वस्तु का अभाव खलता है; हमें उसकी महत्ता व अहमियत नज़र आती है, क्योंकि लोगों की अहमियत व उनके अस्तित्व का भान हमें उनके न रहने पर अनुभव होता है। इसलिए अहं को अपने शब्दकोश से निकाल बाहर फेंकिए। सब्र व सहनशीलता को जीवन में धारण कर निरंतर प्रयासरत रहिए। इसलिए निष्काम कर्म कीजिए, सहनशील बनिए, क्योंकि जो सहना सीख जाता है, उसे रहना आ जाता है अर्थात् जीना आ जाता है। सो! भाग्यवादी मत बनिये, स्वयं पर भरोसा कीजिए तथा ख़ुद से उम्मीद रखिए, क्योंकि बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं होते। सच्चा व्यक्ति ही केवल आस्तिक होता है, जो स्वयं पर विश्वास रखता है तथा यह अकाट्य सत्य है कि कृत-कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। ‘लफ़्ज़ जब बरसते हैं, बनकर बूंदें/ मौसम कोई भी हो, सब भीग जाते हैं।’ इसलिए ‘अंदाज़ से मत मापिए, किसी इंसान की हस्ती/ ठहरे हुए दरिया अक्सर, गहरे हुआ करते हैं।’ इसलिए लोगों को परखिए… अंदाज़ मत लगाइए और सुंदरता दर्पण में नहीं, लोगों के हृदय में खोजिए।

‘सफल व्यक्ति सीट अथवा कुर्सी पर आराम नहीं करते, उन्हें काम करने में आनंद आता है और वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं ‘ अर्थात् वे सदैव लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और यही होता है उनके जीने का अंदाज़… जो सार्थक है, सुंदर है, अनुकरणीय है। इसलिए जीवन मेंं सब्र व सच्चाई का दामन कभी मत छोड़िए, क्योंकि यह आप को गिरने नहीं देती… न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में। व्यवहार ज्ञान से भी बड़ा होता है, क्योंकि जब विषम परिस्थितियों में ज्ञान फेल हो जाता है, तो व्यवहार अपना करिश्मा दिखाकर उसे सफलता के मार्ग तक ले जाता है। इसलिए विशेष बनने की कोशिश कभी मत कीजिए। यदि आप साधारण हैं, तो साधारण बने रहिए…एक दिन आप अतिविशिष्ट बन जायेंगे। इसके लिए ज़रूरी है ‘आप विचार ऐसे रखिए कि आपके विचार पर दूसरों को विचार करना पड़े।’ सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है, उसी प्रकार मानव संघर्ष रूपी अग्नि में तपकर अर्थात् विभिन्न आपदाओं का सामना कर निखरता है; नये मुक़ाम हासिल करता है। इसलिए   ‘शक्तिशाली विजयी भव’ से अधिक कारग़र है, उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है, सार्थक है, सुंदर है… अनुकरणीय है, मननीय है… ‘संघर्षशील विजयी भव’, क्योंकि वह भाग्य पर विश्वास रखने का पक्षधर नहीं है, बल्कि कर्मशील बनने का प्रेरक और संदेशवाहक है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 77 ☆ मकर संक्रांति – भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  मकरणक्रान्ति पर्व पर “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 77 – साहित्य निकुंज ☆

☆ मकर संक्रांति – भावना के दोहे ☆

उत्तरायणी पर्व का, होता है आगाज।

मकर राशि पर आ गए, सूर्य प्रभाकर आज ।।

 

आसमान को घेरकर, उड़ने लगी पतंग।

कनकौयें भी भिड़ गये, लड़ते जैसे जंग ।।

 

लहर-लहर आकाश में,उ ड़ने लगी पतंग।

छलक रहा उल्लास अति, बाल सखा के संग।।

 

अलग-अलग त्योहार है, रंग अनेकों भ्रांति।

कहीं पर्व पोंगल कहीं, मने मकर संक्रांति।।

 

पर्व मकर संक्रांति का, तिल-गुड़ का त्यौहार।

मिलजुल कर सब रहे, दावत का व्यवहार।।

 

गंगा में डुबकी लगा, करें आचमन नीर

महिमा है संक्रांति की, निर्मल करे शरीर

 

बीत गया पतझड़ अभी, आने लगा बसंत।

अच्छे दिन अब आ गए, हुआ शीत का अंत।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 67 ☆ स्वामी विवेकानंद जयंती – संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 67 ☆

☆ स्वामी विवेकानंद जयंती – संतोष के दोहे  ☆

विवेक और आनन्द का, जिनमें अद्भुत कोष

सत्य,संस्कृति के लिए, किया बहुत जय घोष

 

नव युवकों को जगा कर, दिया नया उत्साह

उठो चलो आगे बढ़ो, उनकी थी यह चाह

 

जिनके तन-मन में रचा, राष्ट्र प्रेम महान

चले साथ लेकर सदा, धर्म और विज्ञान

 

संस्कारी सनातनी, जप-तप और ध्यान

सकल सृष्टि में गूंजता,उ नका ही जय गान

 

कर राष्ट्र आराधना, पाया जीवन-साध्य

राष्ट्र ही जिनके लिए, एकमेव आराध्य

 

सत्य न्याय की राह पर, चले निडर भर जोश

अटल इरादों से सदा, उनको था “संतोष”

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – राजमाता जिजाऊ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य ☆ राजमाता जिजाऊ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 राजमाता जिजाऊने

इतिहास घडविला

सिंदखेड गाव तिचा

कर्तृत्वाने सजविला.. . . !

 

उभारणी स्वराज्याची

शिवबाचा झाली श्वास

स्वाभिमान जागविला

गुलामीचा केला -हास.. . . !

 

सोनियाच्या नांगराने

जनी पेरला विश्वास

माता, भगिनी रक्षण

कर्तृत्वाचा झाली ध्यास.

माय जिजाऊची कथा

मावळ्यांचा काळजात

छत्रपती शिवराय

दैवी लेणे अंतरात.. . !

 

वीरपत्नी , वीरमाता

संघटीत शौर्य शक्ती

भवानीचा अवतार

चेतविली देशभक्ती.. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 57 ☆ लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘टीचर के नाम एक पत्र’।  कुछ शिक्षक कल्पना में ही हैं, इसलिए ऐसा संवाद कल्पना में ही संभव है। और यदि वास्तव में ऐसे शिक्षक अब भी हैं तो वे निश्चित रूप में वंदनीय हैं। मकर संक्रांति पर्व पर एक मीठा एहसास देती लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 57 ☆

☆  लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र

यह पत्र मेरी इंग्लिश टीचर के नाम है। जानती हूँ कि पत्र उन तक नहीं पहुँचेगा पर क्या करूँ इस मन का, मानता ही नहीं, सो लिख रही हूँ।

टीचर! आप जानती हैं कि हम सब आपसे कितना डरते थे? बडा रोबदार चेहरा था आपका। सूती कलफ लगी साडी और आपके बालों में लगा गुलाब का फूल,बहुत अच्छी लगती थीं आप। पर हममें से किसी में साहस कहाँ कि आपके सामने कुछ बोल सकें। आपको देखते ही क्लास में सन्नाटा खिंच जाता था। आप थोडा मुस्कुरातीं तो हम लोगों को हँसने का मौका मिलता। वैसे हँसी तो ईद का चाँद थी आपके चेहरे पर। एक बार आपने मुझसे कहा कि मेरे लिए रोज मेज पर एक गिलास पानी लाकर रखा करो। मैं रोज पानी लाकर रखने लगी, यह देखकर आपने कहा – क्या मुझे रोज पानी पीना पडेगा? मैंने पानी का गिलास रखना बंद कर दिया, तो आपने थोडा डाँटते हुए कहा ‌‌- क्या रोज कहना पडेगा पानी लाने के लिए? मेरी हिम्मत ही कहाँ थी कुछ सफाई देने की? पर आपको अपनी बात याद आ गई थी शायद क्योंकि आप उस समय थोडा मुस्कुराई थीं।

आपके चेहरे की कठोरता तो जानी पहचानी थी लेकिन मन की उदारता का कोना सबसे अछूता था। मैं भी ना जानती अगर आपके घर ट्यूशन पढने ना आती। मेरे पास ट्यूशन फीस देने के पैसे नहीं थे, बडे संकोच से आप से पूछा था कि आप ट्यूशन  पढाएंगी क्या मुझे? आपने कहा – घर आ जाना। मुझे याद है कि आपने कई महीने मुझे ना सिर्फ पढाया बल्कि आने- जाने के रिक्शे के पैसे भी दिए थे। नाश्ता तो बढिया आप कराती ही थीं, आपको याद है ना? ट्यूशन का अंतिम दिन था आपने मुझसे सख्ती से कहा – स्कूल में जाकर गाना गाने की जरूरत नहीं है कि टीचर ने पैसे नहीं लिए, मैं पैसेवालों से फीस जरूर लेती हूँ और जरूरतमंद योग्य बच्चों से कभी पैसे नहीं  लेती। लेकिन इस बात का भी ढिंढोरा नहीं पीटना है। उस समय आपका चेहरा बडा कोमल लग रहा था, आप तब भी मुस्कुराई नहीं थीं पर मैं मुस्कुरा रही थी। टीचर! उस समय आप बिल्कुल मेरी माँ जैसी लग रही थीं।

आपकी एक छात्रा

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #88 ☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘सब जानती हैं वे’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 88 ☆

☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆

सब जानती हैं वे   !

क्योंकि बुहारती हैं वे घर का कोना कोना .

घर की हर खटक को पहचानती हैं वे .

सब जानती हैं वे   !

 

तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हैं वे,

क्योंकि तुम्हें देखा है उन्होंने अनावृत.

उन्हें होती है तुम्हारी हर खबर,

 

घर, बाहर .

सुन सकती हैं तुम्हारी अनकही बातें .

सब जानती हैं वे   !

 

अपनी पीठ से भी वे

पढ़ सकती हैं सारी  आंखें .

होती हैं वे गर जरा भी  बेखबर .

तो हो जाता है उनका बलात्कार .

कितना घटिया समाज है यार .

इसीलिये शायद

सब जानती हैं वे   !

 

पैंट तो पहन लिया है तुमने,

पर उतारी नहीं है पैरों की पायल .

ओढ़ ली है

नारी प्रगति के नाम पर

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर तुमने

बाहर की जबाबदारी

पर अब भी लदी हुई है पूर्ववत

तुम पर घर की जिम्मेदारी .

 

अच्छा लगता है जब तुम्हें देखता हूँ ,

पुरुष साथी को साथ बैठाये

स्कूटी या कार चलाते हुये

पर सोचता हूँ कि

तुम थक जाती होगी ,

क्योंकि

रोटियाँ तो तुमसे ही माँगते हैं बच्चे.

थके हारे क्लाँत पुरुष को

तुम्हारे ही अंक में मिलता है सुकून .

 

तुम्हें पंख लगाकर ,

कतर लिये हैं

फैशन की दुनिया ने

तुम्हारे कपड़े .

 

छद्म रावणों

दुःशासन और दुर्योधनों की

आँखों से घिरी हुई,

महसूस करती हो हर तरफ

मर्यादा का शील हरण .

पर तुम बेबस हो .

 

इस बेबसी का हल है

मेरे पास .

पहनो शिक्षा का गहना ,

मत घोंटने दो

कोख में ही गला

अपनी अजन्मी बेटी का ,

संसद में अक्षम नहीं होगा

स्त्री आरक्षण का बिल

जब सक्षम होगी स्त्री .

 

और जब सक्षम होगी स्त्री

तब तुम

बाहर की दुनियाँ सम्भालो या नहीं

घर , बाहर ससम्मान जी सकोगी .

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 50 ☆ अक्ल से पैदल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अक्ल से पैदल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 50 – अक्ल से पैदल ☆

क्या किया जाए जब सारे अल्पज्ञानी मिलकर अपने -अपने ज्ञान  के अंश को संयोजित कर कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हों ?

कभी- कभी तो लगता है, कि इसमें बुराई ही क्या है  ?

ये सच है, कार्य किसी के लिए नहीं रुकता, चाहे वो कोई भी क्यों न हो । यही तो खूबी है मनुष्य की, वो जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चरैवेति – चरैवेति के पथ पर अग्रसर हो अपने कार्यों को निरन्तर अंजाम देता जा रहा है । इसी कड़ी में यदि मौके पर चौका लगाते हुए लोग भी, गंगा नहा लें तो क्या उन्हें कोई रोक सकता है ? अरे ,रोकें भी क्यों? आखिर जनतंत्र है । भीड़ का जमाना है । जितने हाथ उतने साथ; सभी मिलकर सभाओं की रौनक बनाते हैं । कोई भी सभा हो, वहाँ गाँवों से ट्रालियों में भरकर लोग लाए जाते हैं । उन्हें जिस दल का गमछा मिला उसे लपेटा और बैठ गए; पंडालों में बिछी दरी पर । समय पर चाय नाश्ता व भोजन, बस अब क्या चाहिए ? पूरा परिवार जन बच्चे से ऐसे ही सभी आंदोलनों में शामिल होता रहता है । मजे की बात तो ये की है कि पहले सड़क पर आना खराब समझा जाता था परंतु अब तो सत्याग्रह के नाम पर सड़कों को घेर कर ही आंदोलनकारी अपने आप को गांधी समर्थक मानते हैं ।

धीरे – धीरे ही सही लोग सड़कों पर उतरने को अपना गौरव मानने लगे हैं । चकाजाम तो पहले भी किया जाता रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के सोपान पर चढ़ते हुए हम सड़कों को ही जाम करने लगे हैं । ठीक भी है जब चंद्रमा और मंगलग्रह के वासी होने की इच्छा युवा दिलों में हो तो ऐसा होना लाजमी ही है ।  अब हम लोग हर चीज का उपयोग करते हैं, तो सड़कों का भी ऐसा ही उपयोग करेंगे । भले ही हमारा बसेरा आसमान में हो किन्तु हड़ताल धरती पर ही करेंगे क्योंकि वो तो हमारी माता है और माँ का साथ कोई कैसे छोड़ सकता है ? कभी- कभी तो लगता है ; ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो गाँवों में बसता है । राजनैतिक या धार्मिक कोई भी आयोजन हो सुनने वाले वही लोग होते हैं, जो एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की खूबी रखते हों । ये सब देखते हुए वास्तव में लगता है कि लोकतंत्र कैसे भीड़तंत्र में बदल जाता है और हम लोग असहाय होकर देखते रह जाते हैं ।  लोग बस इधर से उधर तफरी करते हुए घूमते रहते हैं , जहाँ कुछ नया दिखा वहीं की राह पकड़ कर चल देते हैं ।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।

बस इसी दोहे को अपना गुरु मानकर घर से निकल पड़ो और जहाँ आंदोलन हो रहा हो वहाँ जमकर बैठ जाओ । याद रखो कि पहला  कार्य सभी लोग नोटिस करते हैं अतः उसे विशेष रूप से ध्यानपूर्वक करें । जब आपका नाम ऐसे आयोजनों में लिख जाए तो चैन की बंशी बजाते हुए अपनी धूनी रमा लीजिए । यदि उद्बोधनों से आपका नाम छूटने लगे तो समझ लीजिए की आपको अपने ऊपर कार्य करने की जरूरत है । तब पुनः जोर- शोर से कैमरे के सामने आकर हमारी माँगें पूरी करो… का नारा लगाने लगें, भले ही माँग क्या है इसकी जानकारी आपको न हो । क्योंकि प्रश्न पूछने वाले भी प्रायोजित ही होते हैं , ऐसे आयोजनों में उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो अक्ल से पैदल होकर वैसे ही प्रश्नों को पूछें जैसे आयोजक चाहता हो ।

सड़क और ग्यारह नंबर की बस का रिश्ता बहुत गहरा होता है । इनके लिए विशेष रूप से फुटपाथ का निर्माण किया जाता है जहाँ ये आराम से अपना एकछत्र राज्य मानते हुए विचरण कर सकते हैं तो बस ; आंनद लीजिए और दूसरों को भी दीजिए । जो हो रहा है होने दीजिए ।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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