हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 75 ☆ कविता – माहिया ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवणकविता “माहिया। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 75 – साहित्य निकुंज ☆

☆ माहिया ☆

नूतन का सबेरा है

हटता आँखों से

मनका अँधेरा है।

 

यादें तो सुहानी है

जाओ अब तुम भी

बीते की रवानी है।

 

करना है अब तुमको

साल के आने का

स्वागत  अब हम सबको

 

मुझे याद दिला जाना

दिल है तुझको दिया

मुझको न बिसराना।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 65 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 65 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

संज्ञाएँ  चर्चित हुई, सर्वनाम बदनाम

पनपे प्रेम समास से, तब होते शुभ काम

 

नव पीढ़ी की आजकल, बदल रही है सोच

प्रेम प्रदर्शित सड़क पर, करते बिन संकोच

 

मात-पिता अब खोजते, प्रेम और सदभाव

पर बच्चों में गुम हुआ, सेवा भाव लगाव

 

समय कभी रुकता नहीं, तेज समय की चाल

मान समय का कीजिए, तब सुधरेंगे हाल

 

सुरसा सा दिखने लगा, महँगाई का रूप

लगाम भी न लगा सके, कैसे शासक भूप

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – मला तुझ्यात शोध तू. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य ☆ मला तुझ्यात शोध तू. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

वृत्त कलिंदनंदिनी.

चुकेन मी, तरी पुन्हा, वसेन माणसात मी

मला तुझ्यात शोध तू, दिसेन काळजात मी. . . . !

 

मनास सागणे नको, जपावयास गोडवा

हसून गोड बोल तू, फसेन आरशात मी. . . . !

 

उगाच फूल लाजले , तुला उन्हात पाहता

पहा जरा स्वतःकडे, असेन त्या फुलात मी . . . !

 

मनामनात होतसे , क्षणाक्षणात कालवा

हवेत थांब मोकळ्या , घुसेन कुंतलात मी. . . !

 

निघून दूर चालली, प्रवास दूरचा जरी

अबोल प्रीत छेड तू, शिरेन अंतरात मी

खुशाल वाट चाल तू, चुकू नको नव्या पथा

नसेन सोबतीस मी, बसेन आठवात मी. . . !

 

विशाल त्या पथावरी, जपून टाक पावले

नसेन मी तुझा जरी, उरेन आसवात मी. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 55 ☆ लघुकथा – दमडी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘दमडी’। आज की लघुकथा हमें मानवीय संवेदनाओं, मनोविज्ञान एवं  विश्वास -अविश्वास  के विभिन्न परिदृश्यों से अवगत कराती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस  संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 55 ☆

☆  लघुकथा – दमडी

माँ! देखो वह दमडी बैठा है, कहाँ ? सहज उत्सुकता से उसने पूछा।  बेटे ने संगम तट की ढलान पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए भिखारियों की ओर इशारा किया। गौर से देखने पर वह पहचान में आया – हाँ लग तो दमडी ही रहा है पर कुछ ही सालों में कैसा दिखने लगा ? हड्डियों का ढांचा रह गया है। दमडी नाम सुनते ही  मानों किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दमडी की दयनीय अवस्था देखकर दया और क्रोध का भाव एक साथ माँ के मन में उमडा। दमडी ने किया ही कुछ ऐसा था। बीती बातें बरबस याद आने लगीं – दमडी मौहल्ले में ही रहता था, सुना था कि वह दक्षिण के किसी गांव का है। कद काठी में लंबा पर इकहरे शरीर का। बंडी और धोती उसका पहनावा था। हररोज गंगा नहाने जाता था। एक दिन घर के सामने आकर खडा हो गया, बोला –बाई साहेब रहने को जगह मिलेगी क्या ? आपके घर का सारा काम कर दिया करूँगा। माँ ने उसे रहने के लिए नीचे की एक कोठरी दे दी। दमडी  के साथ उसका एक तोता भी आया, सुबह चार बजे से दमडी  उससे बोलना शुरू करता – मिठ्ठू बोलो राम-राम। इसी के साथ उसका पूजा पाठ भी चलता रहता। सुबह हो जाती और दमडी  गंगा नहाने निकल जाता।  सुबह शाम उसके मुँह पर राम-राम ही रहता। माँ खुश थी कि घर में पूजा पाठी आदमी आ गया है। वह घर के काम तो करता ही बच्चों की देखभाल भी बडे प्यार से करता। दमडी  की दिनचर्या और उसके व्यवहार से हम सब उससे हिलमिल गए थे। दमडी  अब हमारे घर का हिस्सा हो गया। यही कारण था कि उसके भरोसे पूरा घर छोडकर हमारा पूरा परिवार देहरादून शादी में चला गया। माँ पिताजी के मन में यही भाव रहा होगा कि दमडी  तो है ही फिर घर की क्या चिंता।

उस समय  मोबाईल फोन था नहीं और घर के हालचाल जानने की जरूरत भी नहीं समझी किसी ने। शादी निपटाकर हम खुशी खुशी घर आ गए। कुछ दिन लगे सफर की थकान उतारने में फिर घर की चीजों पर ध्यान गया। कुछ चीजें जगह से नदारद थी, माँ बोली अरे रखकर भूल गए होगे तुम लोग। एक दिन सिलने के लिए सिलाई मशीन निकाली गई, देखा उसका लकडी का कवर और नीचे का हिस्सा तो था पर सिलाई मशीन गायब। अब स्थिति की गंभीरता समझ में आई और चीजें देखनी शुरु की गई तो लिस्ट बढने लगी। अब पता चला कि सिलाई मशीन, ट्रांजिस्टर, टाईपराईटर, बहुत से नए कपडे और भी बहुत सा सामान  गायब था। दमडी  तो घर में ही था उसका  मिठ्ठू बोलो राम-राम भी हम रोज सुन रहे थे। सब कमरों में ताले वैसे ही लगे थे, जैसे हम लगा गए थे, फिर सामान गया कहाँ ? दमडी को  बुलाया गया वह एक ही बात दोहरा रहा था—बाईसाहेब  मुझे कुछ नहीं पता। कोई आया था घर में, नहीं बाई, तो घर का सामान गया कहाँ ? हारकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। पुलिस मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी कर रही थी, रोज शाम को पुलिसवाले आ जाते, चाय – नाश्ता करते और दमडी की पिटाई होती। पुलिस की मार से दमडी चिल्लाता और हम बच्चे पर्दे के पीछे खडे होकर रोते। रोज के इस दर्दनाक ड्रामे से घबराकर पुलिस के सामने पिताजी ने हाथ जोड लिए। इस पूरी घटना का एक भावुक पहलू यह था कि चोरी गया ट्रांजिस्टर मेरे मामा का दिया हुआ था जिनका बाद में अचानक देहांत हो गया था। माँ दमडी के सामने रो रोकर कह रही थी हमारे भाई की आखिरी निशानी थी बस वह दे दो, किसी को बेचा हो तो हमसे पैसे ले लो, खरीदकर ला दो। माँ के आँसुओं से भी दमडी टस से मस ना हुआ। उसने अंत तक कुछ ना कबूला और माँ ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि तुम्हें देखकर हमें फिर से सारी बातें याद आयेंगी।

इसके बाद कई साल दमडी का कुछ पता ना चला। कोई कहता कि मोहल्ले के लडकों ने उससे चोरी करवाई थी, कोई कुछ और कहता। हम भी धीरे धीरे सब भूलने लगे। आज अचानक उसे इतनी दयनीय स्थिति में देखकर माँ से रहा ना गया पास जाकर बोली – कैसे हो दमडी ? बडी क्षीण सी आवाज में हाथ जोडकर वह बोला – माफ करना बाईसाहेब। माँ वहाँ रुक ना सकी, सोच रही थी पता नहीं इसकी क्या मजबूरी रही होगी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 48 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “वायरल पोस्ट”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 48 – वायरल पोस्ट ☆

आजकल के बच्चे सेल्फी लेने में चैंपियन होते हैं। बस स्टाइल से खड़े होने की देर है , फोटो फेसबुक से लेकर इंस्टा व ट्विटर पर छा जाती है। सब कुछ योजनाबद्ध चरण में होता है। पहले से ही तय रहता है कि किस लोकेशन पर कैसे क्लिक करना है। एक प्रेरक कैप्शन के साथ पोस्ट की गई फोटो पर धड़ाधड़ लाइक और कमेंट आने लगते हैं। जितनी सुंदर फोटो उतनी ही मात्रा में शेयर भी होता है।

ये सब कुछ इतनी तेजी से होता है कि आई टी एक्सपर्ट भी हैरान हो जाते हैं कि हम लोग तो इतनी मशक्कत के बाद भी अपने ब्रांड की वैल्यू नहीं बढ़ा पाते हैं। जीत हासिल करने हेतु न जाने कितने स्लोगन गढ़ते हैं तब जाकर कुछ हासिल होता है। पर ये नवोदित युवा तो एक ही फ़ोटो से रंग बिखेर देते हैं।

ये सब कुछ तो आज की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है। मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में हर दूसरी पोस्ट सोशल मीडिया में घूमती हुई दिखती है। जिसमें मोटिवेशन हो या न हो अलंकरण भरपूर रहता है। जोर शोर से अपनी बात को तर्क सहित रखने की खूबी ही आदर्श बन कर उभरती है। खुद भले ही दूसरों को फॉलो करते हों पर अपनी पोस्ट पर किसी की नज़र न पड़े ये उन्हें मंजूर नहीं होता। जबरदस्त फैन फॉलोइंग ही उनके जीवन का मुख्य सूत्र होता है। नो निगेटिवेव न्यूज को ही आदर्श मान कर पूरा अखबार प्रेरणादायक व्यक्तवों से भरा हुआ रहता है। अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी पोस्ट करने की छूट किस हद तक जायज रहती है इस पर चिंतन होना ही चाहिए।

हम लोग कोई बच्चे तो हैं नहीं कि जो मन आया पोस्ट करें, अधूरी जानकारी को फॉरवर्ड करते हुए किसी को भी वायरल करना तो मीडिया के साथ भी सरासर अन्याय है। इस सबसे तो वायरल फीवर की याद आ जाती है , कि कैसे एक दूसरे के सम्पर्क में आते ही ये बीमारी जोर पकड़ लेती है। दोनों में इतनी साम्यता है कि सोच कर ही मन घबरा जाता है। बीमारी कोई भी हो घातक होती है। पर क्या किया जाए तकनीकी ने ऐसे – ऐसे विकास किए हैं कि सब कुछ एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध हो गया है।

खैर ये सब तो चलता ही रहेगा , बस अच्छी और सच्ची खबरें ही वायरल हों इनका ध्यान हम सबको रखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 72 – हाइबन-कांच का पुल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “ हाइबन-कांच का पुल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 72☆

☆  हाइबन-कांच का पुल ☆

बैमारगिरी पहाड़ के बीच 400 मीटर दूर दो पहाड़ी चोटियां स्थित है।  ये पहाड़ी चोटियां जमीन से 200 फीट ऊंची है । इसी चोटी पर मानव निर्मित पारदर्शी पैदल पुल बनाया जा रहा है । यह पुल जिसे अंग्रेजी में ग्लास स्काईवॉक कहते हैं । जिसका मतलब है आकाश में कांच के पैदल सेतू पर घूमना । उसी का एहसास देता दुनिया का पहला आकाशीय पैदल पथ चीन के हांग झौऊ प्रांत में बनाया गया है। दूसरा पुल भारत के सिक्किम में बनाया गया है। तीसरा और बिहार का पहला एकमात्र आकाशीय पैदल पथ 19 करोड़ की लागत से राजगीर की बैमारगिरी पहाड़ी की चोटी पर बनाया जा रहा है।

इस पुल का 80% कार्य पूर्ण हो चुका है। मार्च 21 में 85 फुट लंबा और 5 फुट चौड़ा पुल दर्शकों के लिए खोल दिया जाएगा । यदि कमजोर दिल वाला कोई व्यक्ति इस पुल के ऊपर से नीचे की ओर, 200 फिट की गहरी खाई को देखे तो तुरंत बेहोश हो सकता है । कारण, वह स्वयं को आकाश में लटका हुआ पाएगा। जिसे महसूस कर के हार्ट अटैक का शिकार हो सकता है। इस कारण इस आकाशीय पैदल पुल पर जाने के लिए मजबूत दिल वालों को ही प्रवेश दिया जाएगा।

 

तपती खाई~

ग्लास ब्रिज के बीच

गिरी युवती।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 55 ☆ परमपिता से चाह ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “परमपिता से चाह.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 55 ☆

☆ परमपिता से चाह ☆ 

निष्काम भक्त

कहाँ है माँगता

धन-दौलत

यश-ऐश्वर्य

देह से देह को

भोगने के लिए

कंचन-कानन मृगनयनियाँ

परमपिता से

 

वह है माँगता

आत्मा की पावनता

निश्छलता

दयालुता

सन्मार्ग दिखाने की चाह

उठते-बैठते

खाते-पीते उसका सुमिरन

प्रदीप्त ज्योतित किरणें

जो मिटा सकें

अज्ञान अँधेरा सदियों का

 

न भटक जाए वह

कहीं अंधकार में

झूठे प्यार में

भौतिक संसार में

 

लेकिन मैं उससे

रहा माँगता

एक प्रबल कामना

हो अंतिम विदाई

सुखद

लोग करें आश्चर्य

अभी तो हँस-बोल रहा था

बिना कष्ट दिए

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सेतू ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ सेतू ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

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गत वर्षाच्या

सरत्या क्षणांबरोबर

विरून जाऊ दे

उदास मलीन धुके

कटू स्मृतींचे

येऊ दे सांगाती

सौरभ

सुमधुर स्मृतींचा

जो सेतू होऊन राहील

भूत – भविष्याचा                 

 

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© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 76 – जीवन यह है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  सकारात्मक एवं संवेदनशील रचनाएँ  हमें इस भागदौड़ भरे जीवन में संजीवनी प्रदान करती हैं। 

कागों की बस्ती में

अब भी, हैं बचे हुए

चिड़ियों के घोंसले,

चहचहाहटें इनकी

उम्मीदें देती है

देती है जीने के हौसले।

 – श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(ई-अभिव्यक्ति परिवार आपके शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना करता है )

☆  तन्मय साहित्य  #  76 ☆ जीवन यह है…. ☆ 

आप सब की मंगल कामनाओं, परिजनों की हंसते-मुस्कुराते अथक सेवा, चिकित्सकों द्वारा सूझबूझ पूर्ण उपचार और परमपिता परमात्मा की कृपा से 10 दिन अस्पताल के ICU में रहने के बाद घर पर आए आज 20 दिन हो गए हैं,  बहुत धीमे सुधार के साथ एक माह बाद भी अभी पूर्णरूप से बेडरेस्ट पर ही हूँ। लंबा समय लगेगा पर विश्वास है ठीक हो जाऊंगा। आज सायं दूध पीते हुए मन में कुछ भाव आये, प्रस्तुत है –

जीवन यह है,

सुखद समुज्ज्वल दूध

दूध में जब खटास का

दुःख जरा सा भी मिल जाए

बदले दही रूप में

लक्षण नव दिखलाए

मंथन से मक्खन, मक्खन से

ऊर्जादायक घी बन जाए।

 

जीवन में भी ऊंच-नीच

नैराश्य-उमंग और

सुख-दुख आते रहते हैं,

ऋतुएँ सर्दी-गर्मी या बरसात

सभी का है महत्व

जो, विचलित हुए बिना

इनके सुख-दुख सहते है

मनुज वही अपने जीवन में

खुश रहते हैं।।

 

सुरेश तन्मय..

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

22 दिसंबर 2020, 11.43

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 27 ☆ तुम कब आओगे ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता तुम कब आओगे। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 27 ☆ तुम कब आओगे

राक्षसों से भर गयी वापिस अब धरा,

तुम्हीं ने सृष्टि का निर्माण किया, तुम्हीं ने मानव-दानव धरती पर बसाए,

इनके पापों का घड़ा अब भर चुका,

लोग भयभीत राक्षस उन्हें निगलने को आतुर, हे ब्रह्मा! तुम कब आओगे ||

 

हे भोले भंडारी! हे त्रिनेत्र धारी!

राक्षसों का तुमने सर्वनाश किया, दैत्य भस्मासुर को तुमने भस्म किया,

भय-मुक्त राक्षस विचरण कर रहे,

फिर तांडव नृत्य कर राक्षसों का वध करने, हे शिव! तुम कब आओगे ||

 

कभी अम्बा तो कभी दुर्गा का रूप धरा,

कभी चण्ड-मुण्ड तो कभी रक्तबीज को मार धरा को असुर मुक्त किया,

हे जगत माँ! तुम्हें शत-शत प्रणाम!

दैत्य धरा पर बढ़ गए अपार, इनका वध करने हे माँ! तुम कब आओगे ||

 

अधर्मी रावण को तुमने मार गिराया,

कितने ही राक्षसों का वध कर ऋषि मुनियों के यज्ञ की रक्षा वचन निभाया,

चारों और असंख्य रावण अवतरित हो गए,

लड़ने की नहीं शक्ति हमारी, रावण वध करने हे राम! तुम कब आओगे ||

 

द्रोपदी की तुमने लाज बचाई,

अब हर तरफ व्याभिचारी खुले आम स्त्रियों का चीरहरण कर रहे हैं,

रोज निधिवन भी तो आते हो,

व्याभिचारियों का नाश कर नारी रक्षा करने हे कृष्ण! तुम कब आओगे ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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