मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ ओढ़ ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ 

☆ ओढ….

ओढ कृष्णाची

मिरेस होती

कृष्ण ध्यासात

पूर्ण निमग्न ती

 

तिला नको होते

अजून ते काही

फक्त एक कान्हा

त्याची होण्यास ती पाही

 

तुपाचा घास तिला

विष भासत होता

प्रत्यक्ष विष प्याला

तिने प्यायला होता

 

दिली विष परीक्षा

ओढ प्रबळ झाली

त्या मुळेच विष

अमृतवेल बनली…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 10 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 10 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

अंदमानच्या त्या रमणीय प्रवासाने माझ्या नृत्याच्या क्षेत्रात आणि माझ्या आयुष्यातही मानाचा शिरपेच खोचला गेला. अंदमान हून परतल्यानंतर मला ठिकठिकाणी नृत्याच्या कार्यक्रमासाठी आमंत्रणे येऊ लागली. अनेक छोट्यामोठ्या ठिकाणी अगदी गल्लीबोळातून सुद्धा मी माझे नृत्याचे कार्यक्रम सादर केले आणि माझ्या परीने सावरकर विचार जनमानसापर्यंत पोहोचविण्याचा प्रयत्न केला. माझी ती झेप आणि प्रयत्न खारुटीचा असला तरी माझ्या आणि रसिक प्रेक्षकांच्या मनात आनंद निर्माण करणारा होता. माझ्या या जिद्दीची दखल मिरजकर यांनी सुद्धा घेतली आणि 2011 च्या डिसेंबर महिन्यात झालेल्या मिरज महोत्सवांमध्ये “मिरज भूषण” हा पुरस्कार देऊन मला सन्मानित केले.

अपंग सेवा केंद्राच्या संस्थेने मला “जीवन गौरव” हा पुरस्कार देऊन पुरस्कृत केले. मी शिकत असलेल्या कन्या महाविद्यालयात “मातोश्री” हा पुरस्कार देऊन माझ्या विशेष सन्मान केला.

माझा नृत्याचा हा सुवर्णकाळ सुरू असताना माझ्या गुरु धनश्री ताई यांच्या मनामध्ये वेगळाच विचार सुरू होता. त्यांना केवळ एवढ्यातच मला समाधानी ठेवायचे नव्हते. त्यांचा विचार ऐकून मला केशवसुतांच्या कवितेच्या ओळी आठवल्या, “खादाड असे माझी भूक, चकोराने मला न सुख कूपातील मी नच मंडूक, मनास माझ्या कुंपण पडणे अगदी न मला हे  साहे. ”

आणि ताईनी मला भरत नाट्य घेऊन एम ए करण्याविषयी चा विचार माझ्यासमोर मांडला. ज्याला मी सहजच होकार दिला. कारण ताईंना अगदी प्राथमिक स्वरूपातली आणि नृत्याच्या वर्गात छंद म्हणून नृत्य करणारी मुलगी नको होती तर त्यांना माझ्यातून एक प्रगल्भ, परिपक्व आणि विकसित झालेली नर्तिका हवी होती कि जिच्या माध्यमातून भारतीय शास्त्रीय नृत्य “भरतनाट्यम” या प्रकाराचा प्रचार आणि प्रसार योग्यरीतीने सर्वत्र केला जावा.

ताइनी केवळ प्रेक्षकांचा प्रतिसाद आणि स्वतःच्या मनावर अवलंबून न राहता त्यांनी माझे नृत्य त्यांच्या गुरु सुचेता चाफेकर आणि नृत्यातील सहकारी वर्ग यांच्यासमोर सादर करून, त्यांच्याकडून पोच पावती मिळवली आणि मला एम ए करण्यासाठी हिरवा कंदील मिळाला.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 79 ☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मेरा ग़रीबख़ाना और वे’। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 79 ☆

☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे

फोकटी मास्टर को मुहल्ले में सब जानते हैं और सब उनसे बचते हैं। उनका असली नाम लोग भूल गये हैं क्योंकि अब पीठ पीछे यही नाम चलता है। यह नाम मुहल्लेवालों ने उनका चरित्र देखकर उन्हें सर्वसम्मति से प्रदान किया है। उनके मुँह पर लोग ‘मासाब’ कह कर काम चला लेते हैं।

कहीं पान या चाय के ठेले पर हम खड़े हों तो फोकटी मास्टर अचानक मिसाइल की तरह गिरते हैं। पान-चाय के बारे में जहाँ किसी ने मुँह छुआ कि फोकटी मास्टर प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार करके पानवाले को बताना शुरू कर देते हैं कि कौन कौन सा मसाला, ज़र्दा, किवाम, दस नंबर, बीस नंबर उनके पान में डाला जाएगा। कई बार लोग जानबूझकर उनसे पूछने में देर कर देते हैं तो फोकटी मास्टर धीरज खोकर खुद ही पूछ लेते हैं, ‘क्यों भैया, आज चाय नहीं पिलाओगे क्या?हम इतनी देर से खड़े हैं, तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो।’

फोकटी मास्टर की नज़र में दूसरों का पैसा हाथ का मैल है और अपना पैसा हाथ की शोभा। दूसरों पर पैसा खर्च करने में उनकी आत्मा शरीर से बाहर निकलने लगती है। चेहरा सफेद पड़ जाता है और हाथ-पाँव ठंडे हो जाते हैं। इसीलिए वे अकेले कभी पान की दूकान पर खड़े नहीं होते। आर्डर देकर दूर खड़े हो जाते हैं, और फिर चील की तरह झपट्टा मारकर पान की पुड़िया उठा कर खिसक लेते हैं। अगर आसपास कोई परिचित न दिखा तो पैसे दे देते हैं, अगर मानुस-गंध आयी तो ‘शाम को पैसे दूँगा’ कह कर बिना अगल-बगल देखे आगे बढ़ जाते हैं। इसी तरह फ़िज़ूलखर्ची से बचकर फोकटी मास्टर ने मुहल्ले में दोमंज़िला मकान खड़ा कर लिया है।

इन्हीं फोकटी मास्टर की आवाज़ उस दिन सबेरे सबेरे मेरे घर में सुनायी दी। वह सुहानी सुबह थी और मैं नहा-धो कर प्रसन्न भाव से भजन गुनगुनाता घूम रहा था। फोकटी की आवाज़ सुनकर मेरे मुँह का स्वाद बिगड़ गया। भजन की जगह मुँह से गाली निकली। मनहूस की आवाज़ सुनी, चेहरा भी देखना पड़ेगा। दिन का सत्यानाश होगा।

फोकटी चिल्ला रहे थे, ‘अरे भाई, कहाँ हो? बाहर निकलो। देखो हम किसे लाये हैं।’

मैं उत्सुकतावश बाहर आया। बाहर आकर जो देखा उससे मेरा माथा घूम गया। फोकटी मास्टर की बगल में बड़े रोब के साथ नज्जू विराजे थे। नज्जू हमारे इलाके के मशहूर गुंडे थे। इलाके में उनकी अघोषित सरकार चलती थी और हम तथाकथित शरीफ़ लोग उनसे बाँस भर की दूरी रखते थे। मुहल्ले के इसी रत्न को फोकटी मेरे घर में ले आये थे। मैं पशोपेश में था कि इस स्थिति से कैसे निपटूँ।

फोकटी मगन थे। उनके चेहरे से खुशी के कल्ले फूट रहे थे। उनके व्यवहार से लगता था जैसे कोई मैदान मार लिया हो। गर्व से अकड़े जा रहे थे।

मैंने बैठकर पूछा, ‘आज सबेरे सबेरे इस तरफ कैसे?’

फोकटी खुशी में अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘बस ऐसे ही। दो दिन पहले चौराहे पर नज्जू भाई मिल गये। हमसे कहने लगे कि हमारे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। तो हमने सोचा कि इन्हें अपने सभी दोस्तों से मिलवा दें। जब नज्जू भाई मेहरबान हैं तो सब को फायदा मिलना चाहिए।’

मैंने धीरे से कहा, ‘अच्छा किया।’

फोकटी उमंग से बोले, ‘मैं तो नज्जू भाई की शराफत का कायल हुआ भाई। जब भी मिलते हैं, पहले ये ही सलाम करते हैं। इतने पावर वाले आदमी होते हुए भी घमंड छू नहीं गया है। ये सलाम में पहले हाथ उठा देते हैं तो हमें बड़ी शर्म लगती है। इनके सामने हम क्या हैं भई!’

नज्जू भाई पान चबाते हुए बड़ी शालीनता से बोले, ‘हमारा फर्ज बनता है। आप गुरू हैं। बच्चों को तालीम देते हैं।’

फोकटी भावविभोर होकर हाथ उठाकर बोले, ‘देखा, हम न कहते थे! इसी को कहते हैं शराफत।’

मैंने पूछा, ‘चाय तो चलेगी?’

नज्जू के कुछ बोलने से पहले फोकटी उत्साह में बोले, ‘क्यों नहीं चलेगी? नज्जू भाई पहली बार आये हैं। चाय भी नहीं पिलाओगे?’

और जिन नज्जू को देखकर मैं हमेशा कन्नी काट जाता था, उन्हीं के लिए चाय के इन्तज़ाम में लग गया।

चाय पर फोकटी बोले, ‘वह अपना कार्पोरेशन वाला मामला नज्जू भाई को समझा दो। ये तुम्हारा काम करा देंगे।’

नज्जू बोले, ‘हमें बता दीजिएगा। हम सब ठीक कर देंगे। लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे।’

मैंने जान छुड़ाने के लिए कहा, ‘मैं कागज़ात निकाल कर आपको समझा दूँगा।’

फोकटी बिस्कुट चबाते हुए बोले, ‘ऐसा करते हैं,एक दिन सब लोग नज्जू भाई के नेतृत्व में कार्पोरेशन चलें। मुहल्ले की जितनी समस्याएं हैं सब का एक बार में निपटारा हो जाए। क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई गंभीरता से सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ, हाँ, कभी भी चलिए।’

फोकटी उमंग में बोले, ‘हम तो यह सोच रहे हैं कि मुहल्ले की एक कमेटी बनाकर नज्जू भाई को उसका अध्यक्ष बना दिया जाए। उनके साथ आप सेक्रेटरी बन जाइए। तब काम आसान हो जाएगा।’

मैंने घबराकर कहा, ‘पहले मुहल्ले वालों से बात कर लें। वैसे नज्जू भाई के साथ काम करने के लिए आप ही सही आदमी हैं।’

मेरी बात सुनकर फोकटी खुशी से दाँत निकालकर बोले, ‘हम तो हैं ही। जहाँ आप लोग कह देंगे, अड़ जाएंगे।’

फिर व्यस्तता से खड़े होते हुए बोले, ‘टाइम नहीं है। अभी नज्जू भाई को दो चार घरों में और ले जाना है। धीरे धीरे सब से मिला देंगे।’

फिर वे भीतर झाँकते हुए बोले, ‘भाभी जी कहाँ हैं?नज्जू भाई का उनसे भी परिचय करा देते।’

मैंने तुरन्त कहा, ‘वे अभी नहा रही हैं। टाइम लगेगा।’

फोकटी अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘आप कागज़ ज़रूर ढूँढ़ लीजिएगा। आप का काम हो जाएगा। मौके का फायदा उठाना चाहिए।’

फिर चलते चलते दरवाज़े पर रुककर बोले, ‘हमने तो नज्जू भाई से कह दिया है कि आपको आगे रहना है और हम सब आपके पीछे चलेंगे। मुहल्ले में ताकतवर आदमी हो और हम उसका फायदा न लें तो बेवकूफ तो हमीं हुए न! क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई अपने काले काले दाँत चमकाकर हँस दिये और फोकटी उनको अपनी बाँह में घेरकर बाहर ले गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 34 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 34 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 34) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 34☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वो एक अक्स जो पल

भर नज़रों में ठहरा था

तमाम उम्र का इक अब

सिलसिला  है  मेरे  लिए…

 

Image  that  was  held  for

a  moment  in  the  sight…

Now that only has become a

perpetual matter for the life!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ना गिला किया, ना खफा हुए,

यूँ ही  रास्ते  में  जुदा  हुए

ना तू बेवफ़ा, ना मै बेवफ़ा,

जो गुजर गया, सो गुजर गया..!

 

Neither fussed nor got angry,

Parted in way just like that

Neither of us is unfaithful

Let  bygone  be  bygone..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बीती जाती है ज़िन्दगी ये

ढूँढने में कि ढूँढना क्या है…

जबकि मालूम ये भी नहीं,

कि जो है, उसका क्या करें

 

Life keeps on going in finding

what’s  there  to  find,  while

it’s  not  even  known  what

to do with what we have got

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हर रोज चुपके से…

निकल आते हैं नये पत्ते,

ख्वाहिशोंके दरख्तों में

क्यों पतझड़ नहीं होते…

 

Sneakingly  everyday

New leaves  shoot up,

Why isn’t there any autumn

In  the  trees  of desires

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 35 ☆ मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  कविता  ‘मुक्तक सलिला’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 35 ☆ 

☆ मुक्तक सलिला ☆ 

प्रात मात शारदा सुरों से मुझे धन्य कर।

शीश पर विलंब बिन धरो अनन्य दिव्य कर।।

विरंचि से कहें न चित्रगुप्त गुप्त चित्र हो।

नर्मदा का दर्श हो, विमल सलिल सबल मकर।।

*

मलिन बुद्धि अब अमल विमल हो श्री राधे।

नर-नारी सद्भाव प्रबल हो श्री राधे।।

अपराधी मन शांत निबल हो श्री राधे।

सज्जन उन्नत शांत अचल हो श्री राधे।।

*

जागिए मत हे प्रदूषण, शुद्ध रहने दें हवा।

शांत रहिए शोरगुल, हो मौन बहने दें हवा।।

मत जगें अपराधकर्ता, कुंभकर्णी नींद लें-

जी सके सज्जन चिकित्सक या वकीलों के बिना।।

*

विश्व में दिव्यांग जो उनके सहायक हों सदा।

एक दिन देकर नहीं बनिए विधायक, तज अदा।

सहज बढ़ने दें हमें, चढ़ सकेंगे हम सीढ़ियाँ-

पा सकेंगे लक्ष्य चाहे भाग्य में हो ना बदा।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – हे अजातशत्रु जन नायक ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “हे अजातशत्रु जन नायक। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  हे अजातशत्रु जन नायक  ☆

हे‌ राज नीति के भीष्म पितामह,

कवि हृदय हे अटल।

हे शांति ‌मसीहा प्रेम पुजारी,

हे जननायक अविकल।।1।।

 

तुम राष्ट्र धर्म की मर्यादा ‌हो,

चरित रहा उज्जवल।

दृढ़प्रतिज्ञ हो नया लक्ष्य ले,

आगे बढ़े अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक।।2।।

 

आती हो अपार बाधायें ,

मुठ्ठी खोले बाहें फैलाए।

चाहे सन्मुख तूफ़ान खड़ा हो,

चाहे प्रलयंकर घिरें घटायें।

वो राह तुम्हारी रोक सके ना,

चाहे अंबर अग्नि बरसायें।

स्पृहारहित निष्काम भाव,

जो टले नहीं वो अटल।

।।हे अजातशत्रु जननायक।।3।।

 

थी राह कठिन पर रूके नहीं,

पीड़ा सह ली पर झुके नहीं।

अपने ईमान से डिगे नहीं,

परवाह किसी की किये नहीं।

मैं फिर आऊंगा कह करके,

करने से कूच न डरे थे वे।

धूमकेतु बन अंबर में ,

फिर एक बार चमके थे वे।

।।हे अजातशत्रु जन नायक।।4।।

 

काल के ‌कपाल पर ,

खुद ही लिखा खुद ही मिटाया।

शौर्य का प्रतीक बन,

हर बार गीत नया गाया।

लिख लिया अध्याय नूतन,

ना कोई अपना पराया ।

सत्कर्म से अपने सभी के,

आंख का तारा बने ।

पर काल के आगे बिबस हो,

छोड़कर सबको चले।

हम सभी ‌दुख से हैं कातर ,

श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

हिय पटल पर छाप अंकित,

आप ने मेरे किये  ।

।। हे अजातशत्रु जननायक ।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – १०) – राग व समयचक्र ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – १०) – राग व समयचक्र ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆  

मी काम करते त्या कॉलेजमधले माझे एक वयस्कर कलीग त्यांच्या लहानपणीचा एक किस्सा सांगतात. बेंगलोरजवळच्या एका खेडेगावी एक प्रसिद्धीपरान्मुख गायक होते. गुरूंवर नितांत श्रद्धा आणि त्यांनी सांगितल्याबरहुकूम सूरसाधना इतकंच त्यांनी आयुष्यभर केलं. ते अविवाहित असल्यानं कधी गावातलेच कुणीतरी त्यांना पोटाला दोन घास घालायचं. त्यांच्याकडं शिकणाऱ्या शिष्यांकडून मिळालेल्या तुटपुंज्या दक्षिणेतून बाहेर काहीतरी किरकोळ खाऊन ते पोट भरायचे. एकूण परिस्थिती अगदी हालाखीचीच होती.

एके ठिकाणी त्यांना कार्यक्रमाचं आमंत्रण आलं. तिथं गेल्यावर कुणीतरी त्यांना काही अनवट राग गायला सांगितले, जे त्या वेळेनुसार गाण्यायोग्य नव्हते. मात्र काहीजणांना ते राग ऐकून शिकायचे होते कारण बाकी कुणाला ते येते नव्हते. मात्र ‘मी रागसमयाचा भंग करून गाणार नाही. तो माझ्या गुरूंचा अवमान होईल’ असं निक्षून सांगत ते बुजूर्ग गायक स्टेजवरून उठू लागले. तेव्हां काही लोकांनी त्यांना ‘जास्त पैसे देऊ, जेवण देऊ’ असं आमीष दाखवलं तर ते गायक म्हणाले कि, ‘टपरीवर दहा पैशात मिळणाऱ्या चहा-सामोशामधे मी खुश आहे. पैशाची हाव धरून मी असलं पापकृत्य कधीच करणार नाही.’

आजच्या काळानुसार ह्या गोष्टीचा विचार करताना असंख्य प्रश्नचिन्हं मनात उभी राहातात. अलीकडे खूपदा ‘प्रत्येक राग हा निश्चित समयीच गायला जावा’ ह्या परंपरागत प्रघाताविषयी  दुमत असणारे विचार ऐकू येतात आणि ‘थोडीफार लिबर्टी/ कॉन्सेप्च्युअल कॉन्सर्ट्स’ वगैरे लेबलखाली बरीच ‘लिबर्टी’ घेतलीही जाते. आजच्या प्रचंड गतिमान जीवनशैलीत फक्त सुट्टीच्या दिवशी लोकांना मैफिलीला जायला थोडासा वेळ असतो. पूर्वीसारखी चार, सहा तासांच्या मैफिलीची आणि मध्यरात्र, पहाट, सकाळ, दुपार अशी कोणत्याही वेळेची चैन आता परवडण्यासारखी नाही. त्यामुळं क्वचित काही अपवाद वगळता ठराविक वेळांमधेच बहुतांशी मैफिलींचं आयोजन होतं. मग साधारणत: फक्त संध्याकाळी सहा ते आठ ह्या वेळेतलेच राग कलाकाराला गायला/वाजवायला आणि श्रोत्यांना ऐकायला मिळणार का? बाकीचे राग मग कधी गायला/ऐकायला मिळणार? असे प्रश्न निर्माण होतात.

शिवाय दिवसांच्या वेगवेगळ्या प्रहरांमधे वातावरणात आणि माणसाच्या मनोवस्थेत खरंच काही बदल होतात का? त्यानुसार भावणारे राग वेगळे असण्यात खरंच काही तथ्य आहे का? असे सगळेच प्रश्न आजच्या काळाशी सुसंगत जरूर वाटतात, मात्र त्यामागचं कारण आज निसर्गावर अत्याचार केल्याने त्याच्यासोबतच्या जगण्याला वंचित झालेलं आणि बहुतांशी कालावधीसाठी ‘एअर कंडिशन्ड’ असणारं माणसाचं जगणं आहे हे निश्चित… ‘कंडिशन्ड’ मोडमधे निसर्गचक्रानुसार आपसूक बदलत जाणारे वातावरणातील सांगावे आणि त्यानुसार बदलत जाणाऱ्या जिवंत जाणिवा उमजणार कशा!? असं मनात आल्याशिवाय राहात नाही.

ज्या काळी मानवाचं जगणं हे निसर्गाच्या सान्निध्यात, निसर्गाशीच जोडलं गेलेलं, निसर्गाशी अत्यंत जवळीक साधणारं, निसर्गाचा आदर राखणारं होतं त्या काळात एखादी वट, स्वरधून ही एका विशिष्ट वेळेला जास्त प्रभावी वाटते, काळजात जास्त खोलवर रुतते ह्या मानवाच्याच जाणिवेच्या आधारावर प्रत्येक राग गाण्याची वेळ (रागाचा गानसमय) निश्चित केली गेली. सोप्या भाषेत आपण असं म्हणू कि, ‘निसर्गातील बदलाचा मानवी मनावर होणारा परिणाम आणि नेमका तसाच परिणाम साधणारे/गडद करणारे स्वरसमूह’ ह्या परस्परसंबंधातील सूक्ष्म अभ्यासकांच्या मतानुसार ‘काही ठराविक सुरांचं कॉम्बिनेशन हे अमुक एखाद्या वेळी जास्त परिणामकारक ठरतं’ असा विचार पुढं आला आणि त्यावरून रागसंगीतात ‘समयचक्राचा विचार’ (टाईम थिअरी) हे शास्त्र होऊन गेलं.

आपल्या सर्वांच्याच परिचयाची ‘अष्टौप्रहर’ ही संकल्पना आपल्या संस्कृतीशी जोडली गेली आहे. ह्याच आठ प्रहरांचा विचार रागसंगीताबाबतही केला गेला आणि त्यातूनच ‘रागसमय’ संकल्पना मांडली गेली. दिवसाचे एकूण चोवीस तास आणि तीन तासांचा एक प्रहर, त्यामुळे अर्थातच एकूण प्रहर आठ झाले. सकाळी ७ ते १०, सकाळी १० ते दुपारी १, दुपारी एक ते दुपारी चार, दुपारी ४ ते संध्याकाळी ७ याप्रकारे दिवसाचा अनुक्रमे पहिला, दुसरा, तिसरा व चवथा प्रहर मानला गेला आणि ह्याच पद्धतीने संध्याकाळी ७ ते रात्री १०, रात्री १० ते मध्यरात्री १, मध्यरात्री १ ते पहाटे ४ आणि पहाटे ४ ते सकाळी ७ याप्रकारे रात्रीचा अनुक्रमे पहिला, दुसरा, तिसरा व चवथा प्रहर मानला गेला.

थोडक्यात दिवसाचे, दिवस आणि रात्र असे दोन भाग केले गेले (जे नैसर्गिकरीत्याच होतात) आणि त्या प्रत्येक भागाचे चार-चार प्रहर! आता ह्या प्रत्येक भागातील चार प्रहरांपैकी चवथा प्रहर हा ‘संधिप्रकाश’ म्हणून ओळखला जातो. संपूर्ण चोवीस तासांत संधिप्रकाश आपण दोनदा अनुभवतो. दिवस संपून रात्र सुरू होताना आणि रात्र संपून दिवस सुरू होताना… पहाट आणि संध्याकाळ! ही वेळा म्हणजे धड दिवसही नाही आणि रात्रही नाही… हा कालावधीत दिवस व रात्रीचा संधी(व्याकरणीय) होतो. त्यामुळे काहीजण ह्यावेळेत गायल्या जाणऱ्या रागांच्या वेळेचा उल्लेख करताना ‘दिवसाचा/रात्रीचा चवथा प्रहर’ असा करतात. मात्र बहुतांशी लोक एखाद्या रागगायनाची वेळ ‘सकाळचा/संध्याकाळचा संधिप्रकाश’ असे सांगतात व ह्या कालावधीत गायल्या जाणाऱ्या रागांचा ‘संधिप्रकाशी राग’ असाही उल्लेख केला जातो.

दुसरं एक मत असं आहे कि, प्रत्येक राग हा विशिष्ट वेळेतच गायला/वाजवला जावा ह्या नियमाला काहीही अर्थ नाही. उत्तमप्रकारे लावलेले सूर हे कोणत्याही वेळी परिणामकारकच असणार. एका जुन्या ग्रंथात असाही उल्लेख आहे कि, पूर्वीच्या काळी मोठमोठ्या राजांच्या प्रासादांत प्रत्येक प्रहरी गायनाचा/वाद्ये वाजवण्याचा प्रघात होता. मग ‘आता पुढच्या प्रहरी काय गावे/वाजवावे?’ ह्या सततच्या प्रश्नाचे सोपे उत्तर शोधण्यासाठी चतुर संगीत व्यावसायिकांनी एकेका वेळेला एकेक राग/थाट ठरवला आणि पुढे त्यानुसार ‘रागसमय’ निश्चित करण्याची प्रथा पडत गेली असावी.

ही मी माझ्या वाचनात आलेली गोष्ट सांगितली. मात्र संगीतातील ‘टाईम थिअरी’चा नीट अभ्यास केला तर त्यात एक सुसूत्रता, प्रहरानुसार स्वरसमूहांत कसे बदल होत जातात त्याचे काही विशिष्ट नियम स्पष्टपणे जाणवतात. त्यामुळे ते अभ्यांसांती मांडले गेले आहेत म्हणण्यालाच जास्त वाव आहे. फक्त वरती म्हटल्याप्रमाणे आत्ताच्या काळातलं जीवनमान पाहाता समय-मनोवस्था-सूर ह्यातला सूक्ष्म संबंध जाणवण्याइतके भाग्यवान आपण नाही. निसर्गावर कुरघोडी करताकरता आपण आपल्याच जाणिवा हरवून बसल्याचं हे मोठं उदाहरण आहे.

पंडिता किशोरीताई अमोणकरांसारख्या खऱ्या अर्थाने ‘जिनिअस’ व्यक्तीने एका मुलाखतीत म्हटल्याचं आठवतं कि, ‘भरतमुनींनी जे काही लिहिलं असेल ते सहज मनाला आलं म्हणून नक्कीच लिहिलं नसेल. त्यामागं कित्येक प्रयोग, केवढा अभ्यास केला गेला असेल. त्यामुळं मी ते मत मानते. सगळ्यांनीच ते मानावं असंही नाही. मात्र मानायचं नसेल तर ते मत चूक आहे हे कोणत्यातरी ‘कॉंक्रिट’ गोष्टीच्या आधारे अभ्यासांती आधी सिद्ध करून दाखवता आलं पाहिजे. तरच मग ते डावलण्याचा अधिकार आपल्याला प्राप्त होईल.’ किशोरीताईंचा असल्याने हा विचार निश्चितच महत्वाचा, अनमोल आणि आपल्या विचारांना चालना देणारा आहे.

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 21 ☆ आदमी आदमी को करे प्यार जो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  संस्कारधानी जबलपुर शहर पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “आदमी आदमी को करे प्यार जो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 21 ☆

☆  आदमी आदमी को करे प्यार जो 

 

आदमी आदमी को करे प्यार जो, तो धरा स्वर्ग हो मनुज भगवान हो

घुल रहा पर हवा में जहर इस तरह , भूल बैठा मनुज धर्म ईमान को

राह पर चल सके विश्व यह इसलिये , दृष्टि को दीौप्ति दो प्रीति को प्राण दो

 

रोज दुनियां बदलती चली जा रही,  और बदलता चला जा रहा आदमी

आदमी तो बढ़े जा रहे सब तरफ , किन्तु होती चली आदमियत कीकमी

आदमी आदमी बन सके इसलिये , ज्ञान के दीप को नेह का दान दो

 

हर जगह भर रही गंध बारूद की , नाच हिंसा का चलता खुला हर गली

देती बढ़ती सुनाई बमो की धमक , सीधी दुनियां बिगड़ हो रही मनचली

द्वार विश्वास के खुल सकें इसलिये , मन को सद्भाव दो सच की पहचान दो

 

फैलती दिख रही नई चमक और दमक , फूटती सी दिखती सुनहरी किरण

बढ़ रहा साथ ही किंतु भटकाव भी ,  प्रदूषण घुटन से भरा सारा वातावरण

जिन्दगी जिन्दगी जी सके इसलिये स्वार्थ को त्याग दो नीति को मान दो

 

प्यास इतनी बढ़ी है अचानक कि सब चाहते सारी गंगा पे अधिकार हो

भूख ऐसी कि मन चाहता है यही हिमालय से बड़ा खुद का भण्डार हो

जी सकें साथ हिल मिल सभी इसलिये मन को संतोष दो त्रस्त हो त्राण दो

 

देश है ये महावीर का बुद्ध का,  त्याग तप का जहां पै रहा मान है

बाह्य भौतिक सुखो से अधिक आंतरिक शांति आनंद का नित रहा ध्यान है

रह सकें चैन से सब सदा इसलिये त्याग अभिमान दो त्याग अज्ञान दो

 

आदमी के ही हाथों में दुनियां है ये आदमी के ही हाथो में है उसका कल

जैसा चाहे बने औ बनाये इसे स्वर्ग सा सुख सदन या नरक सा विकल

आने वालो और कल की खुशी के लिये युग को मुस्कान का मधुर वरदान दो

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 28 ☆ 74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग? ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग?“)

☆ किसलय की कलम से # 28 ☆

☆ 74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग? ☆

स्वतंत्रता के सही मायने तो स्वातंत्र्यवीरों की कुरबानी एवं उनकी जीवनी पढ़-सुनकर ही पता लगेंगे क्योंकि शाब्दिक अर्थ उसकी सार्थकता सिद्ध करने में असमर्थ है। देश को अंग्रेजों के अत्याचारों एवं चंगुल से छुड़ाने का जज्बा तात्कालिक जनमानस में जुनून की हद पार कर रहा था। यह वो समय था जब देश की आज़ादी के समक्ष देशभक्तों को आत्मबलिदान गौण प्रतीत होने लगे थे। वे भारत माँ की मुक्ति के लिए हँसते-हँसते शहीद होने तत्पर थे। ऐसे असंख्य वीर-सपूतों के जीवनमूल्यों का महान प्रतिदान है ये हमारी स्वतन्त्रता, जिसे उन्होंने हमें ‘रामराज्य’ की कल्पना के साथ सौंपा था। माना कि नवनिर्माण एवं प्रगति एक चुनौती से कम नहीं होती? हमें समय, अर्थ, प्रतिनिधित्व आदि सब कुछ मिला लेकिन हम संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ सके। हम स्वार्थ, आपसी कलह, क्षेत्रीयता, जातीयता, अमीरी-गरीबी के मुद्दों को अपनी-अपनी तराजू में तौलकर बंदरबाँट करते रहे। देश की सुरक्षा, विदेशनीति और राष्ट्रीय विकास के मसलों पर कभी एकमत नहीं हो पाए।

आज केन्द्र और राज्य सरकारें अपनी दलगत नीतियों के अनुरूप ही विकास का राग अलापती रहती हैं। माना कि कुछ क्षेत्रों में विकास हो रहा है, लेकिन यहाँ भी महत्त्वपूर्ण यह है कि विकास किस दिशा में होना चाहिए? क्या एकांगी विकास देश और समाज को संतुलित रख सकेगा? क्या शहरी विकास पर ज्यादा ध्यान देना गाँव की गरीबी और भूख को समाप्त कर सकेगा? क्या मात्र देश की आतंरिक मजबूती देश की चतुर्दिक सीमाओं को सुरक्षित रख पाएगी? क्या हम अपने अधिकांश युवाओं का बौद्धिक व तकनीकि उपयोग अपने देश के लिए कर पा रहे हैं? हम तकनीकि, विज्ञान, चिकित्सा, अन्तरिक्ष आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ें। बढ़ भी रहे हैं लेकिन क्या इसी अनुपात से अन्य क्षेत्रों में भी विकास हुआ है? क्या वास्तव में गरीबी का उन्मूलन हुआ है? क्या ग्रामीण शिक्षा का स्तर समयानुसार ऊपर उठा है? क्या ग्रामीणांचलों में कृषि के अतिरिक्त अन्य पूरक उद्योग, धंधे तथा नौकरी के सुलभ अवसर मिले हैं? क्या अमीरी और गरीबी के अंतर में स्पष्ट रूप से कमी आई है? क्या जातीय और क्षेत्रीयता की भावना से हम ऊपर उठ पाए हैं? यदि हम ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसका सीधा सा आशय यही है कि हम जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं वह स्वतंत्रता के बलिदानियों और देश के समग्र विकास के अनुरूप नहीं है।

आज राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी सोच एवं नीतियाँ बनाना अनिवार्य हो गया है, जो शहर-गाँव, अमीर-गरीब, जाति-पाँति, क्षेत्रीयता-साम्प्रदायिकता के दायरे से परे समान रूप से अमल में लाई जा सकें। आज पुरानी बातों का उद्धरण देकर बहलाना या दिग्भ्रमित करना उचित नहीं है। अब सरकारी तंत्र एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा असंगत पारंपरिक सोच बदलने का वक्त आ गया है। जब तक सोच नहीं बदलेगी, तब तक हम नहीं बदलेंगे और जब हम नहीं बदलेंगे तो राष्ट्र कैसे बदलेगा? आज देश को विश्व के अनुरूप बदलना नितांत आवश्यक हो गया है। देश में उन्नत कृषि हो, गाँव में छोटे-बड़े उद्योग हों, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क-परिवहन और सुलभ संचार माध्यम ही ग्रामीण एवं शहर की खाई को पाट सकेंगे। आज भी लोग गाँवों को पिछड़ेपन का पर्याय मानते हैं। आज भी हमारे जीवन जीने का स्तर अनेक देशों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। ऐसे अनेक देश हैं जो हमसे बाद में स्वतंत्र हुए हैं या उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए कम समय मिला है, फिर भी आज वे हम से कहीं बेहतर स्थिति में हैं, इसका कारण सबके सामने है कि वहाँ के जनप्रतिनिधियों द्वारा अपने देश और प्रजा के लिए निस्वार्थ भाव से योजनाबद्ध कार्य कराया गया है।

आज स्वतन्त्रता के 74 वर्षीय अंतराल में कितनी प्रगति किन क्षेत्रों में की गई यह हमारे सामने है। अब निश्चित रूप से हमें उन क्षेत्रों पर भी ध्यान देना होगा जो देश की सुरक्षा, प्रतिष्ठा और सर्वांगीण विकास हेतु अनिवार्य हैं। आज देश की जनता और जनप्रतिनिधियों की सकारात्मक सोच ही देश की एकता और अखंडता को मजबूती प्रदान कर सकती है। राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु कोई दबाव, कोई भूल या कोताही क्षम्य नहीं होना चाहिए। आज बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार जैसी महामारियों के उपचार तथा प्रतिकार हेतु सशक्त अभियान की महती आवश्यकता है। गहन चिंतन-मनन और प्रभावी तरीके से निपटने की जरूरत है। इस तरह आजादी के इतने बड़े अंतराल के बावजूद  देश की अपेक्षानुरूप कम प्रगति के साथ ही सुदृढ़ता की कमी भी हमारी चिंता को बढाता है। आईये आज हम “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा” को चरितार्थ करने हेतु संकल्पित हो आगे बढ़ें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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