हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 74 ☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा   “सहना नहीं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 74 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆

“कितनी बार कहा, जा चली जा मायके। मेरी नजर से दूर पर जाती ही नहीं।”

“क्यों जाऊं मांजी..? मैं तो यहीं छाती पर होरा  भूंजूँगी । क्या बिगाड़ा है आपका? बहुत सह लिया, अब सहना नहीं।”

“पता नहीं क्या कर रखा है शरीर का? 4 साल में एक बच्चा भी न जन सकी।”

पारो का रोना दिवाकर से देखा नहीं गया। उसने अब फैसला कर लिया बोला – “पारो अब तुम चिंता मत करो।  मैंने 1 साल के लिए मुंबई ब्रांच के काम लिए है … चलने की तैयारी करो।”

“क्या हुआ बेटा कहाँ जा रहे हो?”

“माँ,  मुंबई ट्रांसफर हो गया है,  पारो का चेकअप  भी हो जाएगा  हम जल्दी ही आ जाएंगे।”

“ठीक है बेटा खुश खबरी देना।”

रास्ते में दिवाकर ने कहा “पारो  मेरी कमी के कारण तुम्हें माँ के दिन रात ताने सहने पड़ते है। हमारे  डा. दोस्त ने वचन दिया है 9 महीने के अंदर हमें एक बच्चा गोद दिलवा देंगे। तुम जिंदगी भर तानों से बच जाओगी।”

साल भर बाद माँ बच्चे के साथ पारो का भी स्वागत कर रही थी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 64 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 64 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

निर्मल अंतःकरण हो, अंदर-बाहर एक

बिरले ही ऐसे यहाँ,  जो होते हैं नेक

 

रखें हौसला शेर सा, जिनके हाथ कमान

सैनिक अपने देश के, होते बहुत महान

 

चित्र राम का हृदय में, रखते हरदम भक्त

काज समर्पित राम को, करते प्रभु आसक्त

 

हिल-मिल रहिए प्रेम से, बना रहे सौजन्य

सबको लेकर जो चले, वही जगत में धन्य

 

संगम गंगा-जमुना का, देता शुभ संदेश

मिल-जुल कर रहते सभी, ऐसा अपना देश

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – वाटे तुलाच स्मरावे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य ☆ वाटे तुलाच स्मरावे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(अष्टाक्षरी)

वाटे तुलाच स्मरावे

विरहाची ज्वाला व्हावे.

स्मृती यज्ञी पूर्णाहुती

सुमनांची माला व्हावे .

 

प्रेम, प्रीती अन प्रिया

जगण्याची भाषा झाली.

बकुळीच्या झाडाखाली

जीवनाची वाचा न्हाली.

 

नवथर तारूण्याची

आस मला जगवीते.

हरण्याची नाही चिंता

भास जीवा फसवीते.

 

अनुभूती अन भाषा

रस्ते बदलत आहे .

हळवेल्या भेटी सा-या

शल्य  विचारत आहे.

 

भेटी गाठी श्वास तुझा

पदोपदी जाणवतो.

आठवांचा ऋतू  असा

आठवात घालवतो.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 47 ☆ जागरूक लोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जागरूक लोग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 47 – जागरूक लोग ☆

कथनी और करनी का भेद किसी को भी आगे बढ़ने से रोकता ही  है। इससे आप की विश्वसनीयता कम होने लगती है। न चाहते हुए भी शोभाराम जी अपनी इस आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। बस किसी तरह कोई उनकी बात में आया तो झट से उसे एक साथ इतने दायित्व सौंप देते हैं कि वो राह ही बदल लेता है। कार्य कोई और करे, श्रेय अपनी झोली में करना तो उनकी पुरानी आदत है। खैर आदतों का क्या है ये तो मौसम से भी तेज होती हैं , जब जी चाहा अपने अनुसार बदल लिया।

बदलने की बात हो और वक्त अपना तकाज़ा करने न पहुँचे ऐसा कभी नहीं हुआ। आरोह-अवरोह के साथ कार्य करते हुए बहुत से अवरोधों का सामना करना ही पड़ता है। अपनी विद्वता दिखाने का इससे अच्छा मौका कोई हो ही नहीं सकता। अब तो शोभाराम जी ने तय कर ही लिया कि सारे कार्यकर्ताओं को कोई न कोई पद देना है। बस उनके घोषणा करने की देर थी कि सारे लोग जी हजूरी में जुट गए। बहुत दिनों तक ये नाटक चलता रहा और अंत में उन्होंने सारे पद भाई-भतीजा बाद से प्रेरित होकर अपने रक्त सम्बन्धियों में बाँट दिए।

अब पूर्वाग्रही लोगों ने ये कहते हुए हल्ला बोल दिया कि उनके साथ दुराग्रह हुआ है। जबकि यथार्थवादी लोग पहले से ही इस परिस्थिति से निपटने की रणनीति बना चुके थे। दो खेमों में बटी हुई पार्टी अपना- अपना राग अलापने लगी। जो बात किसी को पसंद न आती उसे उस विशेष व्यक्ति की व्यक्तिगत राय कह कर पार्टी के अन्य लोग पल्ला झाड़ लेते। ऐसा तो सदियों से हो रहा है और होता रहेगा क्योंकि ऐसी ही नीतियों से ही लोकतंत्र का पोषण हो रहा है। लोक और तंत्र को अभिमंत्रित करने वाले गुरु लगातार इस कार्य में जुटे रहते हैं। लगभग पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होता ही रहता है। जब कुछ नहीं समझ में आता है तो दलबदलू लोग ही अपना पाँसा फेक देते हैं। और सत्ता पाने की चाहत पुनः जाग्रत हो जाती है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक सभी सक्रिय राजनीति का हिस्सा होते हैं। आखिर जनता के सेवक जो ठहरे। नौकरशाहों पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ये सभी हर स्तर पर बखूबी निभाते हैं। अब आवश्यकता है तो लोक के जागरूक होने की क्योंकि बिना माँगे कोई अधिकार किसी को नहीं मिलते तो भला सीधे – साधे लोक अर्थात जनमानस को कैसे मिलेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 54 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 54 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ !दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 61 – नशीबाची भाषा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #61 ☆ 

☆ नशीबाची भाषा ☆ 

नशीब म्हणजे  असते काय

बोल मनीचे बोलत जाय .

 

नशीब म्हणजे ओली रेघ

आठवणींचा हळवा मेघ.

 

प्रयत्न सारे अपुल्या हाती

दोष नको रे दुसर्‍या माथी .

 

हसणे रडणे सारे भोग

हे जीवनातील योगायोग.

 

झुलवत ठेवी प्रत्येकाला

नशीब ज्याचे कळे न त्याला.

 

लागून राहे  एकच आशा

कळून यावी,  नशीब भाषा.

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – संस्कार प्रभाव☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – संस्कार प्रभाव ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? बोध कथा?

कथा १२. संस्कार प्रभाव

विंध्यपर्वतावर  एका वटवृक्षावर  पोपटाचे जोडपे वास करत होते.  त्यांना राम व लक्ष्मण अशी दोन पिल्ले होती.  एकदा एका व्याधाने  जाळे पसरवून  त्या दोघांना पकडले. गोदावरी तीरावर राहणाऱ्या एका साधूला  राम विकला व एका कसायाला लक्ष्मण. त्या दोघांनीही छोट्या पोपटांचे प्रेमाने लालन पालन केले. आता त्या पिल्लांचे मातापिता वृद्ध झाले होते. राम व लक्ष्मणाच्या आठवणीने  ते व्यथित  होत होते.  त्यांना त्या दोघांच्या भेटीची ओढ लागली होती. आता दोघांना शोधूनच काढायचा त्यांनी निर्धार केला. त्यानुसार ते जोडपे  पर्वतांवर,  झाडांवर,  गावांमध्ये,  उद्यानात,  देवळांत,  राजवाड्यात इत्यादी सर्व  ठिकाणी  पिल्लांना शोधत कालांतराने गोदावरीच्या तीरावर आले. तेथे साधूच्या कुटीत व कसायाच्या घरात मधुर कूजन करणाऱ्या,  पिंजऱ्यात असलेल्या आपल्या पिल्लांना बघून ते खूप आनंदित झाले .

प्रथम त्या जोडप्याने  साधू जवळ येऊन त्याला प्रणाम केला व पिंजऱ्यातील पोपट आमचा पुत्र आहे असे सांगितले. तेव्हा  साधूने  त्या वृद्ध पोपटांना काही दिवस आदराने स्वतःच्या कुटीत ठेऊन घेतले. साधूने कसायाघरचा पोपटही काही मूल्य देऊन विकत घेतला व दोन्ही पिल्ले वृद्ध पोपटांना दिली. ते जोडपे काही दिवस पिल्लांसह आनंदात राहिले व नंतर मृत्यू पावले. माता-पित्याच्या मृत्युनंतर राम-लक्ष्मणाला एकत्र राहणे अशक्य झाले. ते दोघेही वेगवेगळ्या आम्रवृक्षांच्या फांदीवर घरटे बांधून राहू लागले.

एक दिवस कोणी एक ब्राह्मण नदीवर स्नानासाठी जात असताना थकून लक्ष्मण रहात असलेल्या झाडाखाली विश्रांतीसाठी  बसला. त्याला पाहून लक्ष्मण इतर पक्ष्यांना बोलावून “हा कोणी मनुष्य आला आहे. त्याचे चोचीने डोळे टोचून गळा फोडून खाऊ या” असे जोरजोराने ओरडू लागला. त्याचा तो आक्रोश ऐकून त्रस्त झालेल्या ब्राह्मणाने तेथून पळ काढला, व तो थेट राम रहात असलेल्या झाडाखाली आला.

ब्राह्मणाला पाहताच राम इतर पक्ष्यांना म्हणाला, “हा कोणी थकलेला मनुष्य आला आहे. आपण वृक्षाच्या पानांना जमिनीवर टाकूया, जेणेकरून हा सुखाने त्यावर बसू शकेल. फळेसुद्धा खाली टाकू व या अतिथीचे स्वागत करू.” ते रामशुकाचे बोलणे ऐकून ब्राह्मण आनंदित झाला. त्याने त्या पोपटाला विचारले, “मला प्रथम भेटलेला शुक ‘याला मारा, मारा’ असे ओरडत होता आणि तू तर माझे आतिथ्य करा असे सांगतो आहेस. हे कसे?” तेव्हा रामशुक म्हणाला, “आम्ही दोघे बंधू आहोत. मी साधूच्या घरी वाढलो. तिथे मी साधूला सगळ्यांचे आतिथ्य करताना पहिले. म्हणून माझी बुद्धी तशी संस्कारित झाली. तो कसायाच्या घरी वाढला. तिथे त्याने बोकड, मेंढे वगैरे मारताना पहिले, म्हणून त्याची बुद्धी तशी संस्कारित झाली.”

तात्पर्य – दुष्ट प्रवृत्तीच्या व्यक्तींची पूर्वी जशी दुर्बुद्धी असते, त्याचप्रमाणे ते वर्तन करतात. वृद्धावस्थेत सुद्धा त्यांची दुर्बुद्धी नष्ट होत नाही आणि सुबुद्धी जागृत होत नाही.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 75 – बहे विचारों की सरिता….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  सकारात्मक एवं संवेदनशील रचनाएँ  हमें इस भागदौड़ भरे जीवन में संजीवनी प्रदान करती हैं। आपकी पिछली रचना ने हमें आपकी प्रबल इच्छा शक्ति से अवगत कराया।  ई-अभिव्यक्ति परिवार आपके शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना करता है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी नवीन रचना  “बहे विचारों की सरिता….”आपके दृढ मनोबल के साथ निश्चित ही एक सकारात्मक सन्देश देती है। )

☆  तन्मय साहित्य  #  ☆ बहे विचारों की सरिता…. ☆ 

सुखद कल्पनाओं के

मन में स्वप्न सुनहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम, तट पर ठहरे से।

 

दुनियावी बातों से

बार-बार ये मन भागे

जुड़ने के प्रयास में

रिश्तों के टूटे धागे,

हैं प्रवीण फिर भी जाने क्यों

जुड़े ककहरे से।

 

रागी, भ्रमर भाव से सोचे

स्वतः समर्पण का

उथल-पुथल अंतर की

शंकाओं के तर्पण का,

पर है डर बाहर बैठे

मायावी पहले से।

 

जिसने आग लगाई

उसे पता नहीं पानी का

क्या होगा निष्कर्ष

अजूबी अकथ कहानी का,

भीतर में हलचल

बाहर हैं गूंगे बहरे से।

 

चाह तृप्ति की अंतर में

चिंताओं को लादे

भारी मन से किए जा रहे

वादों पर वादे

सुख की सांसें तभी मिले

निकलें जब गहरे से।

बहे विचारों की …..

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

22 दिसंबर 2020, 11.43

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -3”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -3 ☆

भारत और इसके निवासियों को ईसाइयत ने भी काफी प्रभावित किया। वर्तमान समय की पोशाकें, खानपान के तरीके, आधुनिक शिक्षा, चिकित्सा प्रणाली , तकनीकी ज्ञान और सबसे बढ़कर आधुनिक समाजशास्त्र के नियम, जो रंग, जाति, लिंग का भेदभाव किये बिना सबको जीने का समान अवसर देने के पक्षधर हैं, हमें पाश्च्यात संस्कृति से ही मिले हैं।

हमारे देश के अनेक मनीषियों ने समय समय पर इस सामासिक संस्कृति को आगे बढाने में अपना अमूल्य योगदान दिया है। महान संत रामकृष्ण परमहंस ने तो ईश्वर एक है की अवधारणा की पुष्टि हेतु ईसाइयों के पादरी और मुस्लिम मौलवी का रूप धर लम्बे समय तक परमेश्वर की आराधना उन्ही की पद्धत्ति से की एवं ईश्वर की अनुभूति की। स्वामी विवेकानंद तो कहते थे कि हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिंदुत्व और इस्लाम, मिलकर एक हो जाएँ। वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खडा होगा, वही  भारत की आस्था है। हमारी सामासिक संस्कृति की सच्ची अनुभूति तो महात्मा गांधी को हुई। यंग इंडिया और हरिजन के विभिन्न अंको में लिखे अनेक लेखो व संपादकीय और हिन्द स्वराज नामक पुस्तक के माध्यम से गांधीजी ने हिन्दू मुस्लिम एकता, मिलीजुली संस्कृति,अंधाधुंध  पाश्चातीकरण के दुष्प्रभाव पर प्रकाश डाला है। हिंद्स्वराज में महात्मा गांधी लिखते हैं कि ” हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमे दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगो का समावेश करने का गुण होना चाहिए. हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।” यंग इंडिया के एक अंक में उन्होंने लिखा कि “मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति को सीखूँ, ग्रहण करूँ और उसके अनुसार चलूँ. किन्तु साथ ही वह मुझे दूसरों की संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें तुच्छ समझने से भी रोकता है। ” गांधीजी का मानना था कि हमारा देश विविध संस्कृतियों के समन्वय का पोषक है। इन सभी संस्कृतियों ने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है हमारी संस्कृति की विशेषता है कि उसमे प्रत्येक संस्कृति का अपना उचित स्थान है।

हमारी सामासिक संस्कृति वस्तुतः विश्व की धरोहर है। यह सतरंगी है. इस संस्कृति में अनेक रंगों के फूल अपनी सुन्दरता लिए सदियों से महकते आये हैं। हमारी नदियाँ और पर्वत सभी भारत वासियों को एक ही दृष्टी से आकर्षित करते हैं। भारत एक भूमि का टुकडा मात्र नहीं है। यह अनेक संस्कृतियों का मिलन स्थल है इसलिए वह एक सम्पूर्ण राष्ट्र है। इसमें इतनी विविधताएं हैं कि कई विद्वान् इसे उपमहाद्वीप कहते हैं। हमारी सामासिक संस्कृति आरम्भ से ही सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया  का उद्घोष करती आ रही है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौत भी अचंभित रह गयी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी

मौत से उनकी ठन गयी थी,

यह देख मौत भी अचंभित रह गयी थी,

लुका छिपी का खेल कुछ समय से चल रहा था,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत जूझती रही रोजाना उनसे,

वो मौन रह कर मात देते रहे उसे,

कभी सामने तो कभी पीछे से मौत रोज वार करती ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत बार-बार दस्तक देती रही,

चित्रगुप्तजी का लेखा-जोखा उन्हें बतलाती रही,

मौत बैचेन थी कैसे ले जाऊंगी इन्हें अब,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

हार नहीं मानूँगा यहीं उन्होंने ठानी थी,

साथ लेकर जाऊंगी मौत ने भी ठानी थी,

मौत से ठन जो गयी, मौत थक कर हार मानने को थी,

 

मौत को भी अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

मौत अटल जी से विनती करने लगी,

जो आया है उसे जाना ही है, बहला कर कहने लगी,

चित्रगुप्त जी का लेखा आज तक कभी गलत नहीं हुआ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

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अटल जी भी सत्य के पुजारी थे,

कहा मौत से, शर्मिंदा तुझे होने नहीं दूंगा,

साथ तेरे अवश्य चलूँगा पर एक बात माननी होगी,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

आज पंद्रह अगस्त है देश आजादी के जश्न मे डूबा है,

सारे देश में आज तिरंगा शान से लहरा रहा है,

झुकने नहीं दूंगा आज इसे, लहराने दो तिरंगे को शान से,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

पंद्रह अगस्त को खलल नहीं डालने दिया मौत को,

सौलह हो गयी,मौत घबरा गयी कैसे कंहू अब चलने को,

मौत को परेशां देख अटल जी ने कहा चलो अब सफर करते हैं,

मौत के जान में जान आयी, उसे अहसास था यहां दाल नहीं गलने वाली ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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