हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 75 ☆ एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य’।  इस व्यंग्य में  वे समस्त तथ्य आपको मिल जायेंगे जो एक व्यंग्यकार भलीभांति जानता है किन्तु, लिख नहीं पाटा। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 75 ☆

☆ एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य

जैसा कि आप जानते ही होंगे, आपका यह सेवक (देखी विनम्रता?) पिछले पच्चीस- तीस साल से व्यंग्य लिख रहा है। नहीं जानते हों तो क्यों नहीं जानते?कुछ पढ़ते लिखते रहिए। कुछ और न पढ़ें तो कम से कम मेरा लिखा तो पढ़िए। कोई भी लेखक साहित्य को पतन की ओर अग्रसर तभी मानता है जब उसका खुद का लिखा कोई नहीं पढ़ता। दूसरे का लिखा न पढ़ा जाए तो साहित्य में कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाँ, तो कह यह रहा था कि मैं पिछले पच्चीस-तीस साल से श्रेष्ठतम, विश्व-स्तर का व्यंग्य-लेखन कर रहा हूँ। मुझे इसमें रंच मात्र भी शक नहीं है कि चेखव, गोगोल, सर्वेंटीज़, बर्नार्ड शॉ,मार्क ट्वेन के कद में और मेरे कद में बस एक दो सेंटीमीटर का ही फर्क है। मुझे पूरा भरोसा है कि जल्दी ही मेरा कद इन सब महानुभावों से एक दो सेंटीमीटर ऊँचा हो जाएगा। ठोस कारण यह है कि ये सब महानुभाव दिवंगत हुए जबकि मैं आप सब पाठकों की दुआ से मैदान में हूँ।

अपने बारे में कुछ तफसील से बता दूँ। व्यंग्यकार के रूप में मेरा काम सामाजिक विसंगतियों को उघाड़ना, पाखंड का पर्दाफाश करना और मुखौटों को नोचना है। पच्चीस-तीस साल से मैं यह काम पूरी निष्ठा से कर रहा हूँ। मेरे घर आएंगे तो आपको सौ-दो सौ मुखौटे इधर उधर बिखरे मिलेंगे।

मैं बड़े उसूलों वाला हूँ।  ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और विश्वबंधुत्व में विश्वास रखता हूँ, लेकिन अपनी जाति के लिए मेरे मन में बड़ी कमज़ोरी है। अपनी जाति के आदमी को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। अपनी जाति के स्थानीय संगठन का अध्यक्ष और राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य हूँ। आप मानें या न मानें, लेकिन जो बात मेरी जाति में है वह दूसरी जातियों में कहाँ। अन्तर्जातीय विवाह का पुरज़ोर समर्थन करता हूँ लेकिन अपने सुपुत्र के कान में फूँकता रहता हूँ कि मेरे लाल, किसी दूसरी जाति की बहू लाएगा तो मैं दुख के मारे स्वर्गलोक चला जाऊँगा।

बहुत प्रगतिशील और नये विचारों वाला हूँ,लेकिन पाँचों उँगलियों में तुरत फलदायी, विघ्नविनाशक, चमत्कारी रत्नों वाली अँगूठियाँ पहनता हूँ। ज्योतिषियों से पूछे बिना यात्रा नहीं करता। व्यंग्य-गोष्ठियों में जाता हूँ तो अपनी नज़र उतरवा लेता हूँ। अनिष्ट के निवारण के लिए यज्ञ, अनुष्ठान कराता हूँ। ज़िन्दगी में दोनों नावों पर पैर रखकर चलने से मन शान्त रहता है और ज़िन्दगी आराम से कट जाती है।

वैसे मैं एक दफ्तर में आला अफसर हूँ। आपकी दुआ से पचास-साठ आदमी मेरे मातहत हैं। अच्छा रोब-दाब है। शहर के बड़े बड़े लोगों से रसूख है। इनमें से कई भ्रष्टाचारी और पाखंडी हैं, लेकिन क्या कीजिएगा? पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर तो नहीं किया जा सकता। डायन भी एकाध घर छोड़ देती है। इसलिए कहीं आँख खोलकर और कहीं आँख मूँदकर चलता हूँ। इसीलिये ख़ुशोखुर्रम हूँ। सुख की नींद सोता हूँ। कबीर नासमझ थे जो जागते और रोते थे।

लेखन के लिए मुझे अतिरिक्त समय की ज़रूरत नहीं पड़ती। दफ्तर में बहुत समय मिलता है। देश तो भगवान भरोसे चल ही रहा है। दफ्तर के कागज़ का सदुपयोग हो जाता है। दफ्तर का टाइपिस्ट टाइप कर देता है। मेरी रचनाएं टाइप करते करते उसका हाथ साफ हो गया है। आजकल हर काम में हाथ की सफाई का महत्व है। मुझे पता है कि कुछ लोग रचनाएं दफ्तर में टाइप कराने के लिए पीठ पीछे मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन मैं ऐसे छिद्रान्वेषण की परवाह नहीं करता।

मेरे दफ्तर की एक लाइब्रेरी है। जिन जिन पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं छप सकती हैं उनको दफ्तर की लाइब्रेरी में मंगाता हूँ। संपादक जी जानते हैं कि मैं सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हूँ,इसलिए मुझसे बड़े प्रेम से पेश आते हैं। जो संपादक पत्रिका निकालने के साथ पुस्तकों का प्रकाशन भी करते हैं उनकी पुस्तकें लाइब्रेरी में खरीद लेता हूँ। इसलिए मेरे कई संपादकों से गाढ़े संबंध बन गये हैं। पत्र-व्यवहार होता रहता है और प्रेम-भाव बना रहता है।

जब कहीं से साहित्यिक कार्यक्रम का बुलावा आता है तो उस शहर का आफिशियल टूर निकाल लेता हूँ।  ‘गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट’ हो जाती है। दफ्तर की कृपा से साहित्य का भरपूर सुख मिलता रहता है। किराया गाँठ से जाए तो साहित्य बेमज़ा हो जाता है।

आजकल हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवि-सम्मेलनों में जाने लगा हूँ। तुकबन्दी से तीन चार कविताएं गढ़ ली हैं,उन्हीं को पढ़ देता हूँ। कहीं लेख पढ़ देता हूँ। रचना कमज़ोर होती है, लेकिन हाव-भाव और अभिनय से श्रोताओं को खुश कर लेता हूँ। कहीं कुत्ते का ज़िक्र आता है तो पिल्ले की आवाज़ निकाल देता हूँ, बिल्ली का ज़िक्र आता है तो ‘म्याऊँ म्याऊँ’ कर देता हूँ। श्रोता ‘खी खी’ करते लोट-पोट हो जाते हैं। नेता पर व्यंग्य करता हूँ तो खादी की टोपी पहन लेता हूँ। एक कविता बीवी पर है, उसे पढ़ते वक्त दुपट्टा ओढ़ लेता हूँ। आपकी दुआ से धंधा अच्छा चल रहा है। श्रोताओं के बीच पहचान बन गयी है। कवि-सम्मेलनों के आयोजकों की नज़र में मैं चलने वाला सिक्का हूँ। कुछ जगह तो श्रोता मुझे देखते ही खिखियाने लगते हैं। माइक  पर पहुँचते ही आँखें गोल-गोल घुमाता हूँ और श्रोता मगन हो जाते हैं।

आजकल मेरी नज़र पुरस्कारों पर है। ज़्यादा बड़ा नहीं तो पाँच दस हज़ार का ही कोई पुरस्कार जम जाए। कोशिश कर रहा हूँ। कई जगह प्रेम-पत्र लिखे हैं। लेखन भले ही काम न दे,संबंध तो काम देते ही हैं। इसीलिए लेखन से ज़्यादा मेहनत संबंध बनाने पर करता हूँ। आपकी दुआ रही तो जल्दी ही कोई न कोई पुरस्कार इस ख़ाकसार की झोली में गिरेगा। बस दुआ करते रहिए।

अगले हफ्ते मेरी पहली किताब का विमोचन एक मंत्री के कर-कमलों से होगा। मुख्यमंत्री के लिए जुगाड़ बैठाया था लेकिन  गोटी न बैठा सका। मंत्री जी विमोचन कर दें तो किताब का प्रचार-प्रसार हो जाएगा। फिर सरकारी खरीद के लिए जुगत भिड़ाऊँगा। सफलता ज़रूर मिलेगी क्योंकि अफसर से लेकर संतरी तक की नब्ज़ मैं पहचानता हूँ।

किस्सा मुख़्तसर यह कि मैं पिछले पच्चीस-तीस साल से विसंगतियों को उघाड़ रहा हूँ और पाखंडियों की नींद हराम कर रहा हूँ। आपका आशीर्वाद मिलता रहा तो आगे भी इसी तरह दुनिया को सुधारने के काम में लगा रहूँगा।

कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 74 ☆ चेत जाओ ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 74 – चेत जाओ ! 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। देखता हूँ कि साठ से ऊपर की एक स्त्री है संभवतः जिसके स्वरयंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर बस इतना कि बच्चे के स्वर को बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है जबकि यह स्वर बिना थके इतना लगातार है कि खीज़ पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख की ज़द से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा से वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती, बेंच पर बैठे एक यात्री से अकस्मात उसका बैग छीनने लगी। उस स्टेशन से रोज़ यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 31 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 31 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 31) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 31☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इक तुम्हारा ख्याल

ही  मुकम्मल  है…

वो कितना खुशनसीब

जिसे तू हासिल है…

 

Your thought alone is

unblemishedly complete

How lucky is that person

who possesses you..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रफ़्तार ज़िन्दगी की कुछ

यूँ  बनाये रख ग़ालिबकि

दुश्मन भले आगे निकल जाए

पर कभी कोई दोस्त न पीछे छूटे…

 

Just keep the speed of life

in  such a  way  that  the

Enemy may overtake, but a

friend is  never  left behind..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अगर दिल खोला होता

अपने यारो के साथ, तो

आज खोलना न पड़ता

इसे  औजारो  के  साथ

 

If  only  I’d  opened  the

heart with  the friends,

then it won’t have to be

opened today with tools

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

भीगी हुई इक शाम

की दहलीज़ पे बैठे…

हम दिल के सुलगने

का सबब सोच रहे हैं..

 

Sitting on the threshold

of  a  saddened  evening…

I’m trying to reason out

smoldering  of  heart…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  द्वारा रचित एक गीत अपने अम्बर का छोर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ 

☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ 

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

हल धर कर

हलधर से, हल ना हुए सवाल

पनघट में

पन घट कर, पैदा करे बवाल

कूद रहे

बेताल, मना वैलेंटाइन

जंगल कटे,

खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल

पजर गयी

अमराई, कोयल झुलस गयी-

नैन पुतरिया

टँगी डाल पर, रोये भोर.…

*

लूट सिया-सत

हाय! सियासत इठलायी

रक्षक पुलिस

हुई भक्षक, शामत आयी

अँधा तौले

न्याय, कोट काला ले-दे

शगुन विचारे

शकुनी, कृष्णा पछतायी

युवा सनसनी

मस्ती मौज मजा चाहें-

आँख लड़ायें

फिरा, न पोछें भीगी कोर….

*

सुर करते हैं

भोग प्रलोभन दे-देकर

असुर भोगते

बल के दम पर दम देकर

संयम खो,

छलकर नर-नारी पतित हुए

पाप छिपायें

दोष और को दे-देकर

मना जान की

खैर, जानकी छली गयी-

चला न आरक्षित

जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर….

*

सरहद पर

सर हद करने आतंक डटा

दल-दल का

दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा

बढ़ी अमीरी

अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी

अंतर में पलता

अंतर, बढ़ नहीं पटा

रमा रमा में

मन, आराम-विराम चहे-

कहे नहीं ‘आ

राम’ रहा नाहक शोर….

*

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “कजरी क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ?

भारतीय गेय विधा में अनेकों  राग  में देश-काल समय के अनुसार गाते जाने वाले गीत है। इनकी प्रस्तुति अलग-अलग संगीत घरानों द्वारा दी जाती रही है, जिसमें होली, चैता, कजरी, दादरा, ठुमरी आदि शामिल हैं।

कजरी महिला समूहों द्वारा गाया जाने वाला बरखा ऋतु का लोक गीत है। इसका उद्गमस्थल गंगा की गोद में बसा मिर्जापुर का इलाका है, जहां पहले इसे महिला समूहों द्वारा ढ़ुनमुनियां कजरी के रूप में गाया जाने लगा था।  लेकिन समय के साथ इसका रंग रुप भाव अंदाज़ सभी कुछ बदलता चला गया। अब यह पूरे भोजपुरी समुदाय द्वारा गाई जाने वाली विधा बन गया है।  इसमें पहले विरह का भाव प्रमुख होता था। अब यह संयोग-वियोग, श्रृंगार, विरह प्रधान हो गया है। अब धीरे-धीरे इसमें पौराणिक कथाओं तथा व्याकरण का भी समावेश हो गया है तथा अब इसको  पूर्ण रूप से शास्त्रीय घरानों द्वारा अंगीकार कर लिया गया है। इसे उत्सव के रूप में भाद्र पद मास के कृ ष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कजरी तीज के रूप में महिलाएं मनाती हैं।

माना जाता है कि वर्षा ऋतु में पिउ जब परदेश  में ‌होता है उस समय किसी विरहनी की विरह वेदना को  अगर गहराई से एहसास करना हो तो व्यक्ति को कजरी अवश्य सुनना चाहिए। इसी क्रम में विरह वेदना से चित्रांकित कजरी गीत के भावों से रूबरू कराता मेरे द्वारा रचित उदाहरण देखें

कजरी गीत

हो घटा घेरि  घेरि,बरसै ये बदरिया ना । टेर। हो घटा घेरि घेरि।।

हरियर भइल बा सिवान, गोरिया मिल के रोपे धान। गोरिया मिल के रोपै धान।

झिर झिर बुन्नी परे ,भिजे थे चुनरिया ना।। हो घटाघेरि घेरि बरसै ये बदरिया ना।।1।

बहे पुरूआ झकझोर, टूटे देहिया पोर पोर।
घरवां कंता नाही, सूनी ये सेजरिया ना।। हो घटा घेरि घेरि।।2।।

दादुर पपिहा के बोली,,मारे जियरा में गोली,

सखियां खेलै लगली, तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि।।3।।

एक त बरखा बा तूफानी,चूवै हमरी छप्पर छानी (झोपड़ी की छत)।

काटे मच्छर औ खटकीरा, बूझा हमरे जिव के पीरा।।हो घटा घेरि घेरि बरसै।।4।।

घरवां माई बा बिमार,आवै खांसी अउर बोखार।

दूजे देवरा बा शैतान,रोजवै करें परेशान।।हो घटाघेरि घेरि।।5।।

बतिया कवन हम बताइ ,केतनी बिपत हम गिनाई।

सदियां सून कइला तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि बरसै रे ।।6।।

मन में बढ़ल बेकरारी,पाती गोरिया लिख लिख हारी।

अब तो कंता घरे आजा, आके हियवा में समाजा।। घटा घेर घेर बरसै रे।।7।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆ रामचरितमानस ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  raamcharitmanas।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆

☆ रामचरितमानस 

रामचरित मानस कथा आकर्षक वृतांत

श्रद्धापूर्वक पाठ से मन होता है शांत

 

शब्द भाव अभिव्यक्ति पै रख पूरा अधिकार

तुलसी ने इसमे भरा है जीवन का सार

 

भव्य चरित्र श्री राम का मर्यादित व्यवहार

पढे औ समझे मनुज तो हो सुखमय संसार

 

कहीं न ऐसा कोई भी जिसे नही प्रिय राम

निशाचरों ने भी उन्हें मन से किया प्रणाम

 

दिया राम ने विश्व को वह जीवन आदर्श

करके जिसका अनुकरण जीवन में हो हर्ष

 

देता निश्छल नेह ही हर मन को मुस्कान

धरती पै प्रचलित यही शाश्वत सहज विधान

 

लोभ द्वेष छल नीचता काम क्रोध टकरार

शत्रु है वे जिनसे मिटे अब तक कई परिवार

 

सदाचार ही संजीवनी है समाज का प्राण

सत्य प्रेम तप त्याग से मिलते है भगवान

 

भक्ति प्रमुख भगवान की देती सुख आंनद

निर्मल मन मंदिर मे भी बसे सच्चिदानंद

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 – शख़्सियत: गुरुदत्त…5 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…5।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…5 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

लखनऊ शहर में इस्लामिक संस्कृति पनपी है। इस शहर में रहने वाले दो सबसे अच्छे दोस्तों को जमीला नाम की महिला से प्यार हो जाता है, असलम (गुरुदत्त) और नवाब (रहमान) इस प्रेम त्रिकोण में जमीला (वहीदा रहमान) के साथ दो दोस्त जुड़ जाते हैं। गुरुदत्त फिल्म का एक अभिन्न हिस्सा जॉनी वॉकर हास्य भूमिका में हैं जबकि फरीदा मिर्जा मसरदिक की भूमिका में है।

गुरुदत्त के पहले की फ़िल्मों के संगीतकार, एसडी बर्मन ने उन्हें कागज़ के फूल (1959) नहीं बनाने की चेतावनी दी थी, जिसकी कहानी उनके खुद के जीवन से मिलती जुलती थी। जब गुरुदत्त ने फिल्म बनाने पर जोर दिया, तो एसडी बर्मन ने कहा कि गुरुदत्त के साथ उनकी आखिरी फिल्म होगी। इसलिए, संगीतकार रवि को इस फिल्म के संगीत की पेशकश की गई थी और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित किया गया था, और उनके सभी पसंदीदा पसंदीदा शकील बदायुनी ने गीत लिखे थे। यह गुरुदत्त की एक रचनात्मक पसंद थी, जिसका शीर्षक रंग में था जबकि बाकी फिल्म काले और सफेद रंग में थी।

सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायक का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड – मोहम्मद रफ़ी (1961) – “चौदहवीं का चाँद” (1960) के लिए

सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए फिल्मफेयर अवार्ड – शकील बदायुनी (1961) – “चौदहवीं का चाँद” (1960) के लिए

सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए फिल्मफेयर अवार्ड – बीरेन नाग

साहिब बीबी और ग़ुलाम गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अलवी द्वारा निर्देशित १९६२ की भारतीय हिन्दी फ़िल्म है। यह बिमल मित्रा द्वारा लिखी गई एक बंगाली उपन्यास, शाहेब बीबी गोलाम पर आधारित है और ब्रिटिश राज के दौरान १९वीं शताब्दी के अंत तथा २०वीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल में ज़मींदारी और सामंतवाद के दुखद पतन की झलक है। फ़िल्म एक कुलीन (साहिब) की एक सुंदर, अकेली पत्नी (बीबी) और एक कम आय अंशकालिक दास (ग़ुलाम) के बीच एक आदर्शवादी दोस्ती को दर्शाने की कोशिश करती है। फ़िल्म का संगीत हेमंत कुमार और गीत शकील बदायूँनी ने दिए हैं। फ़िल्म के मुख्य कलाकार गुरु दत्त, मीना कुमारी, रहमान, वहीदा रहमान और नज़ीर हुसैन थे।

इस फ़िल्म को कुल चार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिनमें से एक फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार भी था।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सखी माझी तुळस ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ☆

??️  सखी माझी तुळस  ?️?

सखी माझी तुळशीमाई

तुला लाविते अंगणी!

रोज सकाळी नेमाने

घालिते गं तुला पाणी!!१!!

 

तिन्ही सांजेच्या वेळेला

दिवा तुला मी लाविते!

हळदीकुंकू वाहुनिया

औक्ष सर्वांना मागते !!२!!

 

दगडविटा आणुनिया

बांधिले मी वृंदावन!

अंगणात करिते रोज

रंगावली संमार्जन !!३!!

 

वृंदावनाच्या भोवती

बांधविला ओटा सुबक!

बसुनिया त्याच्यावरी

करिते मी हितगुज !!४!!

 

तुझ्या डोईवरल्या निळ्या

मोहकशा त्या मंजिऱ्या !

लेकीसुना नातीपणती

माझ्या साजिऱ्या गोजिऱ्या  !!५!!

 

माझ्या सोनियाच्या घरा

तुझ्यामुळे आली शोभा!

बाळकृष्ण तुझा सखा

हाती मुरली पुढे उभा !!६!!

 

भरजरी मुकुटावरी

शोभे त्याच्या मोरपीस!

नाही आला मुरलीरव

होई जीव कासावीस !!७!!

 

दिनांक:-२७-११-२०.

©️®️ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ संतान का सुख : संतान से सुख ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख संतान का सुख : संतान से सुखयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 72 ☆

☆ संतान का सुख : संतान से सुख

‘संतान का सुख तो हज़ारों मां-बाप के पास है, परंतु वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने मां-बाप के पास है, अत्यंत चिंता का विषय है…संस्कारों पर धब्बा है’… इस वाक्य ने अंतर्मन को झकझोर- झिंझोड़ कर रख दिया और सोचने पर विवश कर दिया…क्या आज की युवा-पीढ़ी समाज को आईना नहीं दिखा रही? क्या वह पाश्चात्य-सभ्यता का अंधानुकरण कर, उन की जूठन स्वीकार कर इतरा नहीं रही? क्या यह मानव-मूल्यों का पतन और संस्कारों का हनन नहीं है? आखिर माता-पिता बच्चों को संस्कारित करने में स्वयं को अक्षम क्यों अनुभव करते हैं…यह चंद प्रश्न मन को हरदम उद्वेलित करते हैं और एक लम्बे अंतराल के पश्चात् भी मानव इनका समाधान क्यों नहीं खोज पाया है?

संतान सुख अर्थात् संतान प्राप्त करने के पश्चात् माता-पिता कहलाना तो बहुत आसान है, परंतु उन्हें सुसंस्कारित कर, एक अच्छा इंसान बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। घर में धमा-चौकड़ी मचाते, माता- पिता के कदमों से लिपट मान-मनुहार करते, अपनी बात मनवाने की ज़िद्द करते बच्चे; जहां मन-आंगन को महकाते हैं; वहीं जीवन को खुशियों से भी सराबोर कर देते हैं…इन सबसे बढ़कर औरत को बांझ होने के कलंक से बचाने में भी अहम् भूमिका अदा करते हैं। संतान-प्राप्ति के पश्चात् वह स्वयं को सौभाग्य-शालिनी मां, बच्चों की हर इच्छा को पूर्ण करने में प्रयासरत रहती है और उन्हें सुसंस्कारों से पल्लवित करने की भरपूर चेष्टा करती है। परंतु आधुनिक युग में टी•वी•, मोबाइल व मीडिया के प्रभाव-स्वरूप बच्चे इस क़दर उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं कि वे दिन-भर उनमें आंखें गढ़ाए बैठे रहते हैं। माता-पिता की अति-व्यस्तता व उपेक्षा के कारण, बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। ब्लू फिल्म्स् व अपराध जगत् की चकाचौंध देखने के पश्चात्, वे अनजाने में कब अपराध-जगत् में प्रवेश पा जाते हैं, इसकी खबर उनके माता-पिता को मिल ही नहीं पाती। इसका पर्दाफ़ाश तब होता है, जब वे नशे की आदत में इस क़दर लिप्त हो जाते हैं कि अपहरण, फ़िरौती, चोरी-डकैती, लूटपाट आदि उनके शौक़ बन जाते हैं। वास्तव में कम से कम में समय में, अधिकाधिक धन-संपदा व प्रतिष्ठा पा लेने का जुनून उन्हें ले डूबता है। विद्यार्थी जीवन में ही वे ऐसे घिनौने दुष्कृत्यों को अंजाम देकर, स्वयं को उस नरक में धकेल देते हैं, जिससे मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इसके प्रतिक्रिया-स्वरूप माता-पिता का एक-दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इन असामान्य परिस्थितियों में, वे जीवन में समझौता करने को तत्पर हो जाते हैं, परंतु बहुत देर हो चुकी होती है। प्रायश्चित-स्वरूप बच्चों को नशे की गिरफ़्त से मुक्त करवा कर लिवा लाने के लिए, मंदिर-मस्जिद में माथा रगड़ने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है, जो लम्बे समय तक चलता रहता है। परंतु तब बहुत देर हो चुकी होती है …उनका सुखी संसार लुट चुका होता है और उनके पास आंसू बहाने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं बचता ही नहीं।

इसका दूसरा पक्ष है, ‘वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने माता-पिता को प्राप्त हो पाता है’…यह चिंतनीय व मननीय विषय है कि संतान के रहते कितने माता-पिता आत्म-संतुष्ट हैं तथा संतान से प्रसन्न हैं, सुखी हैं? आधुनिक युग में भले ही भौगोलिक दूरियां कम हो गई हैं, परंतु पारस्परिक- प्रतिस्पर्द्धा के कारण दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं और इन खाईयों को पाटना मानव के वश की बात नहीं रही। आज की युवा-पीढ़ी किसी भी कीमत पर; कम से कम समय में अधिकाधिक धनोपार्जन कर इच्छाओं व ख़्वाहिशों को पूरा कर; अपने सपनों को साकार कर लेना चाहती है– जिसके लिए उसे अपने घर-परिवार की खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है। इसका भीषण परिणाम हम संयुक्त-परिवार व्यवस्था के स्थान पर, एकल-परिवार व्यवस्था के काबिज़ होने के रूप में देख रहे हैं।

‘हम दो हमारे दो’ का नारा अब ‘हम दो हमारा एक’ तक सिमट कर रह गया है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज की युवा-पीढ़ी अपने भविष्य के प्रति कितनी सजग है…इसका अनुमान आप उन की सोच को देख कर लगा सकते हैं। आजकल वे संतान को जन्म देकर, किसी बंधन में बंधना नहीं चाहते..सभी दायित्वों से मुक्त रहना पसंद करते हैं। शायद! वे इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि बच्चे माता-पिता के संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की धुरी होते हैं..परिवारजनों में पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व विश्वास में वृद्धि करने का माध्यम होते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संतान सुख प्राप्त करने के पश्चात् भी, एक छत के नीचे रहते हुए भी पति-पत्नी के मध्य अजनबीपन का अहसास बना रहता है, जिसका दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वे आत्मकेंद्रित होकर रह जाते हैं तथा घर से बाहर सुक़ून की तलाश करते हैं, जिसका घातक परिणाम हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल मोबाइल, वॉट्सएप, फेसबुक व इंस्टाग्राम आदि पारस्परिक संवाद व भावों के आदान-प्रदान के माध्यम बनकर रह गये हैं।

इक्कीसवीं सदी में बच्चों से लेकर वृद्ध अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं…किसी के पास, किसी के लिए समय नहीं होता…फिर भावनाओं व संवेदनाओं की अहमियत का प्रश्न ही कहां उठता है? मानव आज कल संवेदनहीन होता जा रहा है…दूसरे शब्दों में आत्मकेंद्रितता के भाव ने उसे जकड़ रखा है, जिसके कारण वह निपट स्वार्थी होता जा रहा है। जहां तक सामाजिक सरोकारों का संबंध है, आजकल हर व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेल रहा है। सबके अपने-अपने सुख-दु:ख हैं, जिनके व्यूह से मुक्ति पाने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। संबंधों की डोर टूट रही है और परिवार रूपी माला के मनके एक-एक कर बिखर रहे हैं, जिसका आभास माता-पिता को एक लंबे अंतराल के पश्चात् होता है; तब तक सब कुछ लुट चुका होता है। इस असमंजस की स्थिति में मानव कोई भी निर्णय नहीं ले पाता और एक दिन बच्चे अपने नए घरौंदों की तलाश में अक्सर विदेशों में शरण लेते हैं या मेट्रोपोलिटन शहरों की ओर रुख करते हैं, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह पाए और वे आज की दुनिया के बाशिंदे कहलाने में फ़ख्र महसूस कर सकें। सो! वे सुख- सुविधाओं से सुसज्जित अपने अलग नीड़ का निर्माण कर, खुशी व सुख का अनुभव करते हैं। इसलिए परिवार की परिभाषा आजकल मम्मी-पापा व बच्चों के दायरे में सिमट कर रह गई है; जिस में किसी अन्य का स्थान नहीं होता। वैसे आजकल तो काम-वाली बाईयां भी आधुनिक परिवार की परिभाषा से बखूबी परिचित हैं और वे भी उन्हीं परिवारों में काम करना पसंद करती हैं, जहां तीन या चार प्राणियों का बसेरा हो।

चलिए! हम चर्चा करते हैं, बच्चों से सुख प्राप्त करने की…जो आजकल कल्पनातीत है। बच्चे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, क्योंकि संबंधों व सरोकारों की अहमियत वे समझते ही नहीं। वास्तव में संस्कार व संबंध वह धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है… परंतु अब यह धारणा अस्तित्वहीन हो चुकी है। एकल परिवार-व्यवस्था में माता-पिता– दादा-दादी से अलग-थलग रहते हैं। सो! नाना-नानी और अन्य रिश्तों की अहमियत व गरिमा कहां सुरक्षित रह पाती है? प्रश्न उठता है…’ उनके लिए तो संबंधों व सरोकारों की महत्ता बेमानी होगी, क्योंकि वे आत्ममुग्ध व अहंनिष्ठ प्राणी एकांगी जीवन जीने के आदी हो चुके होते हैं। बचपन से दि -रात नैनी व आया के संरक्षण व उनके साये में रहना, उन बच्चों की नियति बन जाती है। सो! वे अपने माता-पिता से अधिक अहमियत, अपनी नैनी व स्कूल की शिक्षिका को देकर सब को धत्ता बता देते हैं। उस समय उनके माता-पिता की दशा ‘जल बिच मीन पियासी’ जैसी होती है, क्योंकि उनके जन्मदाता होने पर भी उन्हें अपेक्षित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है… जिसके वे अधिकारी होते हैं, हक़दार होते हैं। धीरे-धीरे संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर, अंतिम सांसें लेते दिखाई पड़ते हैं। इस स्थिति में उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होता है और वे अपने आत्मजों से लौट कर आने का अनुरोध करते हैं, परंतु सब निष्फल।

‘गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता’ यह शाश्वत सत्य है। वे अब प्रायश्चित-स्वरूप परिवार में लौट आना चाहते हैं, परंतु उनके हाथ खाली रह जाते हैं। किसी ने सत्य कहा है कि ‘आप जो करते हैं, वह इसी जीवन में, उसी रूप में लौटकर आपके समक्ष आता है। एकल परिवार व्यवस्था में बूढ़े माता-पिता को घर में तो स्थान मिलता नहीं और वे अपना अलग आशियां बना कर रहने को विवश होते हैं तथा असामान्य परिस्थितियों में वृद्धाश्रम की ओर रुख करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब वृद्धाश्रम में रहते हुए एक महिला ने जीवन की अंतिम बेला में, अपने पुत्र को वृद्धाश्रम में आमंत्रित किया और अपनी अंतिम इच्छा से अवगत कराया…’बेटा! तुम यहां पंखे लगवा देना।’ बेटे ने तुरंत प्रश्न किया ‘मां! अब तो तुम संसार से विदा हो रही हो… यह सब तो तुम्हें पहले बताना चाहिए था।’ मां का उत्तर सुन बेटा अचंभित रह गया। ‘मुझे तेरी चिंता है…चंद वर्षों बाद जब तू यहां आकर रहेगा, तुझ से भयंकर गर्मी बर्दाश्त नहीं होगी।’ यह सुनकर बेटा बहुत शर्मिंदा हुआ और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।

परंतु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। मां इस संसार को अलविदा कह जा चुकी थी। शेष बची थीं, उसकी स्मृतियां। वर्तमान परिवेश में तो परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। आजकल बच्चों को किसी प्रकार के बंधन अर्थात् मर्यादा में रहना पसंद नहीं है। बच्चे क्या, पति-पत्नी के मध्य बढ़ती दूरियां अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं। हर तीसरी महिला इस विषम परिस्थिति से जूझ रही है। चारवॉक दर्शन युवा पीढ़ी की पसंद है..’खाओ पियो, मौज उड़ाओ’ की अवधारणा तो अब बहुत पीछे छूट चुकी है। अब तो ‘तू नहीं और सही’ का बोलबाला है। उनके अहं टकराते हैं; जो उन्हें उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां से लौटना असंभव अर्थात् नामुमक़िन होता है।

यदि हम इन असामान्य व विषम स्थितियों का चिंतन करें, तो हमें अपसंस्कृति अर्थात् समाज में बढ़ रही संस्कारहीनता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा। सामाजिक अव्यवस्थाओं व व्यस्तताओं के कारण हमारे पास बच्चों को सुसंस्कारित करने का समय ही नहीं है। हम उन्हें सुख-सुविधाएं तो प्रदान कर सकते हैं, परंतु समय नहीं, क्योंकि कॉरपोरेट जगत् में दिन-रात का भेद नहीं होता। सो! बच्चों की खुशियों को नकार; उनके जीवन को दांव पर लगा देना; उनकी विवशता का रूप धारण कर लेती है।

इंसान दुनिया की सारी दौलत देकर, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकता, जिसका आभास मानव को सर्वस्व लुट जाने के पश्चात् होता है। यह तो हुई न ‘घर फूंक कर तमाशा देखने वाली बात’ अर्थात् उस मन:स्थिति में वह आंसू बहाने और प्रायश्चित करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाता… क्योंकि उनकी संतान समय के साथ बहुत दूर निकल चुकी होती है तथा उनके माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं। फलत: वे दूसरों को यही सीख देते हैं कि ‘बच्चों से उनका बचपन मत छीनो। एक छत के नीचे रहते हुए, दिलों में दरारें मत पनपने दो, बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करो; उन्हें भरपूर खुशियां प्रदान करो; उनका पूरा ख्याल रखो तथा उनके सुख-दु:ख के साथी बनो।’ सो! आप से अपेक्षा है कि आप अपने हृदय में दैवीय गुणों को विकसित कर, उनके सम्मुख आदर्श स्थापित करें, ताकि वे आपका अनुसरण करें और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। यही मानव जीवन का सार है, मक़सद है, लक्ष्य है। मानव को सृष्टि के विकास में योगदान देकर, अपना दायित्व-वहन करना चाहिए, ताकि संतान के सुख-दु:ख का दायरा, उनके इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए तथा माता-पिता को यह कहने की आवश्यकता ही अनुभव न हो कि यह हमारी संतान है, बल्कि माता-पिता संतान के नाम से जाने जाएं अर्थात् उनकी संतान ही उनकी पहचान बने…यही मानव-जीवन की सार्थकता है, अलौकिक आनंद है, जीते जी मुक्ति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दरार ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”दरार”।)

☆ लघुकथा – दरार ☆

एक माँ ने उसकी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गयी. सबसे पहले उसने एक प्यारी सी नदी बनाई. नदी के दोनो ओर हरे भरे पेड़, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाडी़ के पीछे एक ऊगता हुआ सूरज और एक सुंदर सी झोपड़ी.

बच्ची खुशी से नाचने लगी. उसने अपनी माँ को आवाज लगाई- माँ देखिए न मैंने कितनी सुंदर सीनरी बनाई है.

चोके से ही माँ ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढाया. कला जीवंत हो उठी.

थोड़ी देर बाद बच्ची घबराकर बोली- माँ गजब  ह़ो गया. दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं  है

माँ आवाज आई – आगे आउट हाउस बना दो, दादा दादी वहीं रह लेंगे.

बच्ची को लगा कि सीनरी बदरंग हो गई है. चित्रकारी पर स्याही फिर गयी है.

झोपड़ी के बीच से एक मोटी सी दरार पड़ गयी है.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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