हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 70 – लघुकथा – आंवला भात☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  आंवला/इच्छा नवमी पर विशेष लघुकथा  “आंवला भात।  हमारी संस्कृति में प्रत्येक त्योहारों का विशेष महत्व है। वैसे ही यदि हम गंभीरता से देखें तो  आंवला नवमी / इच्छा नवमी पर्व हमें पारिवारिक एकता, वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देते हैं। ऐसे में ऐसी कथाएं हमें निश्चित ही प्रेरणा देती हैं।  शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है।  सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिपेक्ष्य में रचित इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 70 ☆

☆ आंवला/इच्छा नवमी विशेष ☆ लघुकथा – आंवला भात ☆

पुरानी कथा के अनुसार आंवला वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला वृक्ष की पूजन करने से मनचाही इच्छा पूरी होती है। आज आंवला नवमी को पूजन करते हुए कौशल्या और प्रभु दयाल अपने आंगन के आंवला वृक्ष को देखते हुए बहुत ही उदास थे। कभी इसी आंगन पर पूरे परिवार के साथ आंवला भात बनता था। परंतु छोटे भाई के विवाह उपरांत खेत और जमीन जायदाद के बंटवारे के कारण सब अलग-अलग हो गया था।

प्रभुदयाल के कोई संतान नहीं थे। यह बात उनके छोटे भाई समझते थे। परंतु उनकी पत्नी का कहना था कि “हम सेवा जतन नहीं कर पाएंगे।” छोटे भाई के तीनों बच्चो की परवरिश में कौशल्या का हाथ था।

अचानक छत की मुंडेर पर कौवा कांव-कांव की रट लगा इधर-उधर उड़ने लगा। प्रभुदयाल ने कौशल्या से कहां “अब कौन आएगा हमारे यहां सब कुछ तो बिखर गया है।” गांव में अक्सर कौवा बोलने से मेहमान आने का संदेशा माना जाता था। अचानक चश्मे से निहारती कौशल्या दरवाजे की तरफ देखने लगी। दरवाजे से आने वाला और कोई नहीं देवर देवरानी अपने दोनों पुत्र और बहूओं के साथ अंदर आ रहे थे। प्रभुदयाल सन्न सा खड़ा देखता रहा।

छोटे भाई ने कहा – “आज हमारी आंखें खुल गई भईया। मेरे बेटों ने कहा.. कि हम दोनों भाइयों का भी बंटवारा कर दीजिए क्योंकि अब हम यहां कभी नहीं आएंगे। आप लोग समझते हैं कि आप त्यौहार अकेले मनाना चाहते हैं तो मनाइए। हम भी अपने दोस्त यार के साथ शहर में रह सकते हैं। हमें यहां क्यों बुलाया जाता है।”

“मुझे माफ कर दीजिए भईया। परिवार का मतलब बेटे ने अपनी मां को बहुत खरी खोटी सुनाकर समझाया है। वह दोनों हमसे रिश्ता रखना नहीं चाहते। वे आपके पास रहना चाहते हैं। इसलिए अब सभी गलतियों को क्षमा कर। आज आंवला भात हमारे आंगन में सभी परिवार समेत मिलकर खाएंगे।”

देवरानी की शर्मिंदगी को देखते हुए कौशल्या ने आगे बढ़ कर गले लगा लिया और स्नेह से आंखे भर रोते हुए बोली -“आज नवमी (इच्छा नवमी) मुझे तो मेरे सब सोने के आंवले मिल गए। इन्हें मैं सहेज कर तिजोरी में रखती हूं।” सभी बहुत खुश हो गए।

प्रभुदयाल अपने परिवार को फिर से एक साथ देख कर इच्छा नवमी को मन ही मन धन्यवाद कर प्रणाम करते दिखें।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 73 ☆ गीत – लावणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 73 ☆

☆ गीत – लावणी

यूट्यूब लिंक >>  रंगणार विडा नक्की

स्वर : सावनी रविंद्र :: संगीत : सागर – संतोष :: गीत ‌ : अशोक भांबुरे

रंगमहाली बैठक जमली

पानविड्यांनी मैफिल रंगली

 

चुना लावला, कात पेरला, त्यात सुपारी पक्की

रंगणार, राया विडा हा नक्की… धृ

 

पान मनाचं माझ्या कोर

नाजूक देठाच हिरवं गार

अलगद घ्याना तळहातावर

थोडं केशर घाला त्यावर

लवंग टोचा, प्रेमाने खोचा, आत सुपारी कच्ची

रंगणार, राया विडा हा नक्की… १

 

नेसून आले पैठणी कोरी

रागू- मैनेची नक्षी भारी

अवतीभवती होत्या पोरी

तरी दिलाची झालीच चोरी

कुठं शोधावं, काही कळेना, झाले मी वेडी पक्की

रंगणार, राया विडा हा नक्की… २

 

हवा तेवढा देईल मोका

ईश्काचा दोघे घेऊ झोका

चुकेल माझ्या काळजाचा ठोका

द्याल कधी जर मजला धोका

तक्रार देईल, चौकीत नेईल, पिसाया लागल चक्की

रंगणार, राया विडा हा नक्की… ३

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

कभी विहंसती सी  लगे, कभी खिले मुस्कान।

मुख मंडल मुझको प्रिये, लगता जलज समान।।

 

गोधूली में दृष्टिगत, होता चारु  स्वरूप।

कभी झलकती राधिका,कभी कृष्ण का रूप।।

 

वृंदावन उच्चारते, सजलित होते प्राण।

युग से प्यासी दृष्टि को, यही मिलेगा त्राण।।

 

वह शब्दों की माधुरी, वह आंगिक संवाद।

अपने को भूला मगर, सिर्फ वही है याद।।

 

किशमिश रंगी रूप का, चखा चक्षु ने स्वाद।

तृप्ति कपूरी जो मिली, अब तक है वह याद।।

 

प्राण प्रिया की याद में, व्याकुल है मन-मीन।

कितना धौंऊं नयन पट, अब भी बहुत मलीन।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 25 – एक उलझी वंचना का… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “एक उलझी वंचना का…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 25– ।। अभिनव गीत ।।

एक उलझी वंचना का...

 

विजय सा ।

एक चुटकी भर बचा था

दोस्त मुझ में

सहमता, मेरी पड़ोसिन

के हृदय सा ॥

 

एक उलझी वंचना का

था सुखद निक्षेप भर जो ।

लड़ रहा खुद में अपरिचित

द्वंद्व की ही खेप भर जो ।

 

एक बस पच्चीस प्रतिशत

रास्ते के संतुलन में ।

जगमगाती दिया-बाती के

अनौखे चुप समय सा ॥

 

यही हैं जो अंजुरी भर

बचे मौसम के सुनहरे ।

शब्द जिनके बिम्ब पानी में

हुये है  हरे बिखरे ।

 

बस यही बालिश्त भर का

सुख रहा है पास मेरे  ।

जो सदा चलता रहा है

अति नमनशीला विनय सा॥

 

किसी मौलिक वजह का

प्रतिपाद्य है जो सुफलवाला ।

प्रीति कर भी है अनिश्चित

संतुलन की कार्यशाला ।

 

बहुत ऊहापोह में गुजरी

सदी के आचरण को ।

परिस्थितियों से कटा है

सौख्य के अभिनव तनय सा॥

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70☆ आमने-सामने – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे।  आज अंतिम में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी  (जबलपुर), श्री राजशेखर चौबे जी (रायपुर) एवं  श्री आत्माराम भाटी जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70

☆ आमने-सामने  – 6 ☆

श्री रमेश सैनी (जबलपुर)

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है, विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है, जो फसल को नष्ट कर रही है।

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ?

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है, अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता, हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

श्री राजशेखर चौबे (रायपुर) 

आज बहुत सारे व्यंग्यकार सत्ता के साथ खड़े होकर विपक्ष को टारगेट  करते नजर आते हैं ऐसा क्यों है ?

आप इसका क्या कारण मानते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई, शेरदिल धाकड़ व्यंग्यकार यह तो भली-भांति जानता है कि उसका धर्म और दायित्व सत्ता पर अंकुश रखते हुए विपक्ष की भूमिका निभाना है। मीडिया जब कमजोर बना दिया जाता है, या बिक जाता है, विपक्ष भी जब तोड़फोड़ के चक्कर में विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पाता है तब व्यंंग्यकार ही वह महान हस्ती के रूप में विपक्ष की दमदार भूमिका निभाने में सक्षम माना जाता है। तब व्यंंग्यकार ही घोड़े की लगाम खींच खींच कर घोड़े को नियंत्रण में रख पाता है, तो आज के विकट समय में व्यंंग्यकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जो नकली व्यंग्यकार लोभ लालच और पूंछ हिलाने के चक्कर में विपक्ष पर व्यंग्य लिखकर सत्ता पक्ष के सामने इम्प्रैशन जमाकर पुरस्कार लूटना चाहते हैं, वे व्यंंग्यकार नहीं जोकर होते हैं और सियार की खाल पहनकर कूद फांद करने में विश्वास करते हैं।

श्री आत्माराम भाटी

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए।  दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था।  आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

समाप्त

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 26 ☆ इक्कीसवी सदी का भारत ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “इक्कीसवी सदी का भारत”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 26 ☆ 

☆ इक्कीसवी सदी का भारत

 

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को,

अनेकों लुटेरों ने लूटा हैं भारत को,

अंग्रेजों ने लूटा और अत्याचार से पीड़ित किया था भारत को,

सदियों की पराधीनता को सहना पड़ा हैं भारत को,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

गाँधी और नेहरु के पदचिन्हों में चलना हैं भारत को,

लाल, बाल, पाल की दृढ़ता को भरना होगा भारत को,

नेताजी के सपनों को पूरा करना हैं भारत को,

रानी लक्ष्मीबाई की हिम्मत को भरना हैं भारत को,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

विज्ञान एंव कंप्यूटर क्षेत्र में विश्व में सर्वव्यापी होगा,

शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में भारत विश्व में अद्वितीय होगा,

संस्कारों के क्षेत्र में भारत विश्व में अग्रणी होगा,

हमारी परम्पराएं प्रत्येक भारतवासी के जीवन का मूल्य होगी,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

वो नवजात शिशु की भाँति कोमल और विकासशील होगा,

वो निरंतर विधिगत एंव विकासमान राष्ट्र होगा,

वो ऐसा वटवृक्ष होगा जिसकी जड़े गहरी होंगी,

वो गौरवशाली परम्पराओं का रस ग्रहण करने के योग्य होगा,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

आओ इस सपने को पूरा करें हम,

अपने आप को अपने आप से ऊँचा करें हम,

अनेकता में एकता भरें हम,

आओ इस स्वर्ण इतिहास को रत्नमय करने का प्रयास करें हम,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #18 ☆ नशे का जहर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “नशे का जहर”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 18 ☆ 

☆ नशे का जहर ☆ 

दीवाली के दिन

जब उसने संयंत्र से

बोनस पाया

बच्चों के लिए

पटाखे, मिठाईयां

और अपने लिए

देशी बोतल लाया

दीप जले, मिठाईयां बंटी

पटाखे फूटे

द्वार द्वार जगमगाये

उसने बोतल खोलकर

जमकर पी

कि

शायद दुखों को

कुछ पल भूल जायें

लेकिन-

कुछ ही क्षणों बाद

वह मृत्यु से जूझ रहा था

दीवाली का दीपक

बुझने से पहले ही

इस घर का

दीपक बुझ रहा था।

 

पता नहीं

यमराज ने कैसा

खेल रचा था?

सारी बस्ती में

कोहराम मचा था

त्योहारों पर अक्सर

ऐसा ही कुछ

होता रहता है

प्रतिवर्ष हम

जलाते हैं रावण को

फिर भी

वह नहीं मरता है

तब-

दावानल सा

लगता है तन में

अंगारे सा प्रश्न

उठता है मन में

क्या खुशी, गम या

तीज त्योंहारों पर

नशा करना

वाकई जरूरी है?

क्या अभावों की कटुता

कुछ पल भुलाने के लिए

यह जहर पीना

मानवीय मजबूरी है?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 25 ☆ सत्य परिस्थिती… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 25 ☆ 

☆ सत्य परिस्थिती… ☆

अध्याय माझा संपेल

मी रुद्र भूमीत असेल

घरी पेटतील चुली

सडा सारवण होईल

 

जेवायला बसतील सर्व

अश्रू डोळ्यांचे थांबतील

माझ्याच घरातील सर्व

भोजनाचा स्वाद घेतील…

 

स्वाद घेत घेत भोजनाचा

आग्रह एकमेकांना होईल

रुदन संपेल त्या क्षणाला

कामाला हात लागतील…

 

हे जीवन क्षणभंगुर

इथे कुणाचे स्थिर ते काय

आला त्याला जावे लागणार

यात आश्चर्य नाय…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 74 ☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  ‘किस्सा दुखीराम सुखीराम का’।  इस विशिष्ट रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 74 ☆

☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का

एक गाँव में दो आदमी रहते थे। एक दुखीराम, दूसरा सुखीराम। दुखीराम गरीब था, मेहनत-मजूरी करके अपना पेट भरता था। सुखीराम धन-संपत्ति वाला, बड़ी हवेली में रहता था।

लेकिन दरअसल दुखीराम और सुखीराम दोनों ही दुखी थे। दुखीराम इसलिए कि गरीब होने के बावजूद उसे राक्षसी भूख लगती थी। रोटियों की गड्डी मिनटों में ऐसे ग़ायब होती जैसे किसी जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा दी हो। अपना भोजन उदरस्थ कर वह परिवार के दूसरे सदस्यों के भोजन की तरफ टुकुर टुकुर निहारता बैठा रहता। कोई सदस्य नाराज़ होकर हाथ रोक कर अपनी थाली उसकी तरफ सरका देता और दुखीराम झूठा संकोच दिखाता फिर खाने में जुट जाता।

परिवार के लोग दुखीराम की विकराल भूख से परेशान थे। उसकी मजूरी अकेले उसी के लिए काफी न होती। गाँव के लोग भोज में उसे बुलाने से कतराते थे। रिश्तेदार भी उसे अपने यहाँ बुलाने से बचते थे। जिस घर में उसके चरण पड़ते वहाँ मातम छा जाता।

गाँव के दूसरे छोर पर अपनी विशाल हवेली में सुखीराम रहता था। सुखीराम सब तरह से सुखी था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। एक ही रोना था कि सुखीराम को भूख नहीं लगती थी। घर में छप्पन भोजन तैयार होते, लेकिन सुखीराम को उनकी तरफ देखने का मन न होता। किसी तरह एकाध रोटी हलक़ से उतरती। इस चक्कर में सुखीराम ने जाने कितने चूर्ण और भस्म फाँक लिये, लेकिन भूख को नहीं जागना था, सो नहीं जागी। हवेली में सभी लोग परेशान थे। भगवान ने सब कुछ दिया, लेकिन तन में कुछ पहुँचता नहीं। ऐसी समृद्धि किस काम की?

दुखीराम और सुखीराम दोनों ही परेशान थे, एक अपनी सर्वग्रासी भूख से तो दूसरा भूख की बेवफाई से। दोनों ही चिन्ताग्रस्त थे। एक भगवान से भूख घटाने की प्रार्थना करता तो दूसरा भूख बढ़ाने की।

आखिर उनकी प्रार्थना सुनी गयी और एक रात भगवान दोनों के सपने में आये। दोनों ने अपनी अपनी व्यथा सुनायी। भगवान पशोपेश में। एक चाहे भूख कम करना, दूसरा चाहे भूख बढ़ाना। एक की भूख गरम तो दूसरे की नरम। अन्ततः उनकी प्रार्थना मंज़ूर हो गयी। दुखीराम की जठराग्नि सुखीराम के शरीर में स्थानांतरित हो गयी और सुखीराम की जठराग्नि दुखीराम के शरीर में।

दूसरे दिन उठे तो दोनों का व्यवहार आश्चर्यजनक। दुखीराम भोजन की तरफ पीठ फेर कर बैठ गया और सुखीराम दौड़ दौड़ कर भोजन पर हाथ साफ करने लगा। बड़ी मुश्किल से यह शुभ दिन आया था। दोनों के परिवार परम प्रसन्न। दोनों के परिवारों ने मन्दिर जाकर भगवान को धन्यवाद दिया और प्रसाद चढ़ाया। इस चमत्कार के बाद दोनों परिवार दीर्घकाल तक सुखी रहे।

जैसे दुखीराम सुखीराम के दिन बहुरे ऐसे ही सब के बहुरें।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 73 ☆ फादर ऑफ मेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 73 – फादर ऑफ मेन 

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरुआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’…  ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’.. ‘गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’… ‘बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ का हुंकार व्यक्ति को संकीर्णता के पथ पर ढकेलता है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ, बचपन में घोड़ा बनकर,

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था, दूसरे को सीढ़ी बनाकर ऊँचाई हासिल करने के

गुर सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की उसकी अदा पर इठलाता था, जो बोया मेरी राह में अड़ा है, मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है, बीज पर नियंत्रण कर लेता, वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से,

नित लज्जित होना,

मेरा समुचित दंड है!

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा।

इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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