हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 30 ☆ भारत आरती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  द्वारा रचित आरती भारत आरती । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 30 ☆ 

☆ भारत आरती ☆ 

आरती भारत माता की

सनातन जग विख्याता की

*

सूर्य ऊषा वंदन करते

चाँदनी चाँद नमन करते

सितारे गगन कीर्ति गाते

पवन यश दस दिश गुंजाते

देवगण पुलक, कर रहे तिलक

ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की

आरती भारत माता की

*

हिमालय मुकुट शीश सोहे

चरण सागर पल पल धोए

नर्मदा कावेरी गंगा

ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा

संत-ऋषि विहँस,  कहें यश सरस

असुर सुर मानव त्राता की

आरती भारत माता की

*

करें श्रृंगार सकल मौसम

कहें मैं-तू मिलकर हों हम

ऋचाएँ कहें सनातन सच

सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच

मातृवत परस, दिव्य है दरस

अगिन जनगण सुखदाता की

आरती भारत माता की

*

द्वीप जंबू छवि मनहारी

छटा आर्यावर्ती न्यारी

गोंडवाना है हिंदुस्तान

इंडिया भारत देश महान

दीप्त ज्यों अगन, शुद्ध ज्यों पवन

जीव संजीव विधाता की

आरती भारत माता की

*

मिल अनल भू नभ पवन सलिल

रचें सब सृष्टि रहें अविचल

अगिन पंछी करते कलरव

कृषक श्रम कर वरते वैभव

अहर्निश मगन, परिश्रम लगन

ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की

आरती भारत माता की

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “नेत्रदान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆

अंधापन एक अभिशाप – अंधापन मानव जीवन को जटिल बना देता है, तथा‌ जीवन  को अंधेरे से भर देता है।

अंधापन दो तरह का होता है

१ – जन्मांधता –  जो व्यक्ति जन्म से ही अंधे होते हैं।

२- अस्थाई अंधापन – बीमारी अथवा चोट का कारण से।

१ – जंन्मांधता

जन्मांध व्यक्ति सारी जिंदगी अंधेरे का अभिशाप भोगने के लिए विवश होता है। उसकी आंखें देखने योग्य नहीं होती, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण ‌होती है। ‌वह मजबूर नहीं, वह अपने सारे दैनिक कार्य कर लेता है।  दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अंदाज के सहारे, ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा गया है,  जो अपनी मेहनत तथा लगन से शीर्ष पर स्थापित ‌हुये है।  उनकी कल्पना शक्ति उच्च स्तर की होती है।  यदि हम इतिहास में झांकें तो पायेंगे  इस कड़ी में सफलतम् व्यक्तित्वों की एक लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वोत्कृष्ट प्रर्दशन कर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। इस कड़ी में स्मरण करें  तो भक्ति कालीन महाकवि सूरदास रचित सूरसागर में कृष्ण ‌की‌ बाल लीलाओं का  तथा गोपियों का विरह वर्णन, भला कौन संवदेनशील प्राणी‌ होगा जो उन रचनाओं के संम्मोहन में ‌न फंसा‌ हो।

दूसरा उदाहरण ले रविन्द्र जैन की आवाज का। कौन सा व्यक्ति है जो उनकी हृदयस्पर्शी आवाज का दीवाना नहीं है?

तीसरा उदाहरण है मथुरा के सूर बाबा का, जिनकी कथा शैली  अमृत वर्षा करती है। अगर खोजें तो ऐसे तमाम लोगों की लंबी शृंखला दिखाई देगी, लेकिन उनका इलाज अभी तक संभव नहीं है। भविष्य में चिकित्सा विज्ञान कोई भी चमत्कार  कभी भी कर सकता है।

२ – अस्थाई अंधत्व

जब कि दूसरे तरह के अंधत्व का इलाज समाज के सहयोग ‌से संभव है । चिकित्सा बिज्ञान में इस विधि को रेटिना प्रत्यारोपण कहते हैं जिससे व्यक्ति के आंखों की ज्योति वापस लाई जा सकती है, जो किसी मृतक व्यक्ति के  परिजनों द्वारा नेत्रदान  प्रक्रिया में योगदान से ही संभव है । चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि मृत्यु के आठ घंटे बाद तक नेत्रदान कराया जा सकता है तथा किसी की‌ जिंदगी  को रोशनी का उपहार दिया जा सकता है। यह एक साधारण से छोटे आपरेशन के द्वारा कुछ ही मिनटों में सफलता पूर्वक संपन्न किया जाता है।  मृत्यृ के पश्चात   मृतक को कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन  जागरूकता के अभाव में नेत्रदान   प्राय:  कभी कभी ही  संभव हो पाता है। जिसके पीछे जागरूकता के अभाव तथा अज्ञान को ही कारण  माना जा सकता है।

सामान्यतया हम लोग दान का मतलब धार्मिक कर्मकाण्डो के संपादन, पूजा पाठ तीर्थक्षेत्र की यात्राओं,  थोड़े धन के दान तथा कथा प्रवचन तक ही सीमित समझ लेते है, उसे कभी आचरण में उतार नहीं सके। उसका निहितार्थ नहीं ‌समझ सके। मानव जीवन की रक्षा में अंगदान का बहुत बड़ा महत्व है।  जीवन मे हम अधिकारों के पाने  की बातें करते हैं, लेकिन जहां कर्तव्य निभाने बात आती है‌, तो बगलें झांकने लगते हैं। इस संबंध में तमाम प्रकार की भ्रामक धारणायें  बाधक बन‌ती  है जैसे नेत्रदान आपरेशन के समय पूरी पुतली निकाल ली जाती है और चेहरा विकृत हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। आपरेशन से मात्र नेत्रगोलकों के रेटिना की पतली झिल्ली ही निकाली जाती है । जिससे चेहरे पर कोई विकृति नहीं होती।

हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियों की कल्पना की गयी  है, जो यथार्थ में दिखती भी है, लेकिन यह‌ मान्यता पूरी तरह भ्रामक  निराधार  और असत्य है कि नेत्रदान के पश्चात अगली योनि में नेत्रदाता अंधा पैदा होगा। यह मात्र कुछ अज्ञानी जनों की मिथ्याचारिता है। इसी लिए भय से‌  लोग नेत्रदान से  बचना चाहते‌ है।  जब कि  सच तो यह है कि इस योनि का शरीर मृत्यु के पश्चात जलाने या गाड़ने से नष्ट हो जाता है, अगली योनि के शरीर पर इसका कोई प्रभाव ही नहीं होता। क्यो कि अगली योनि का शरीर योनि गत  अनुवांशिक संरचना पर आधारित होता है। यह एक मिथ्याभ्रामक मान्यताओं पर आधारित गलत अवधारणा है।

नेत्रदान के मार्ग की बाधाएं

नेत्रदान की सबसे बड़ी बाधा जनजागरण का अभाव तथा मानसिक रूप से तैयार न होना है। नेत्रदान के संबंध में जिस ढंग के प्रचार प्रसार की जरूरत महसूस की जा रही है वैसा हो नहीं पा रहा है, इसके लिए तथ्यो की सही जानकारी आम जन तक पहुंचाना, भ्रम का निवारण करने के मिशन को युद्ध स्तर पर चलाना। मृत्यु के पश्चात परिजन नेत्रदान के लिए  इस लिए सहमत नहीं होते, क्यो कि दुखी परिजन मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में लोक कल्याण के बारे में सोच ही नहीं पाते। सामंजस्य स्थापित नही कर पाते। इसके लिए अभियान चला कर लोगों को मानसिक रूप से अपनी विचारधारा से सहमत कर नेत्रदान हेतु मृतक के परिजनों को मृत्यु पूर्व ही प्रेरित करना तथा दान के महत्व को समझाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद अंगदान की अवधारणा पर  उनकी सहमति बन सके। इसके लिए जनजागरण अभियान, समाज सेवकों की टीम गठित करना, लोगों को मीडिया प्रचार, स्थिर चित्र, तथा चलचित्र एवं टेलीविजन से प्रचार प्रसार कर जन जागरण करना तथा अंगदान रक्तदान के महत्व को लोगों को समझाना कि किस प्रकार मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति की रक्त देकर जीवन रक्षा की जा सकती है, तथा नेत्र दान से जीवन में छाया अंधेरा दूर कर व्यक्ति को देखने में सक्षम बनाया जा सकता है इसका मुकाबला कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं कर सकता। लोगों को अपने मिशन के साथ जोड़कर वैचारिक ‌क्रांति पैदा करनी‌ होगी, बल्कि यूं कह लें कि हमें ‌खुद अगुआई करते हुए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

इस बारे में पौराणिक उदाहरण भरे पड़े हैं, जैसे शिबि, दधिचि, हरिश्चंद, कर्ण, कामदेव, रतिदेव, आदि ना जाने अनेकों कितने नाम।

इस संदर्भ में अपनी कविता ” दान  की  महिमा” की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

जीते  जी रक्तदान मरने पर अंगदान,
सबसे बड़ा धर्म है पुराण ये बताता है।
शीबि दधिची हरिश्चंद्र हमें ‌ये बता गये,
सत्कर्मो का धर्म से बड़ा गहरा नाता है।

पर हित सरिस धर्म नहिं,
पर पीडा सम अधर्म नहीं।
रामचरितमानस हमें ये सिखाता है।
जीवों की रक्षा में जिसने विषपान किया,
देवों का देव महादेव ‌वो बन जाता है।।

(दान की महिमा रचना के अंश से) 

इस प्रकार हमारी ‌भारतीय संस्कृति में ‌दान का महत्व ‌लोक‌कल्याण हेतु एक  परंपरा का रूप ले चुका था, लेकिन आज का मानव  समाज अपनी परंपरा भूल चुका है। उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा। इस क्रम में देश के उन जांबाज सेना के जवानों का संकल्प ‌याद आता है जिन्होंने अपना‌ जीवन‌ देश सीमा को तो सौंपा ही है अपने मृत शरीर  का हर अंग समाज सेवा में लोक कल्याण हेतु दान कर अमरत्व की महागाथा लिख दिया ऐसे लोगो का संकल्प, पूजनीय, वंदनीय तथा अभिनंदनीय है हमारे नवयुवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – ५) – सप्तक कथा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – ५) – सप्तक कथा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆   

सप्तक हे नावच त्याची ‘सात’ ह्या संख्येशी बांधिलकी सांगते! संगीतातही ‘सात’ स्वर आहेत, त्या सात स्वरांचा समूह म्हणजे ‘सप्तक’! आपल्याला माहीत असलेले ‘सा, रे, ग, म, प, ध, नि’ हे सुरांच्या नावाचे ‘शॉर्ट फॉर्म्स’ म्हणायला हरकत नाही आणि गाताना अर्थाचच तेच सोयीचे पडतात. ह्या सात स्वरांची पूर्ण नावं आहेत, सा – षड्ज, रे – रिषभ, ग – गंधार, म – मध्यम, प – पंचम, ध – धैवत, नि – निषाद!

गंमत अशी कि हे सात स्वर कसे अस्तित्वात आले ह्याविषयी अनेक सुरम्य कहाण्या वेगवेगळ्या जुन्या ग्रंथांमधे सापडतात. ‘संगीत दर्पण’ ह्या प्राचीन ग्रंथाचे लेखक दामोदर पंडित ह्यांच्यामते काही प्राणी व पक्ष्यांचा आवाजातून ह्या स्वरांची निर्मिती झाली आहे. मोराची केका ‘षड्ज’ जननी, चातकाचा आवाज ‘रिषभ’ जनक, बकऱ्याच्या आवाजात ‘गंधार’ सापडला, ज्ञानोबारायांना शकुन सांगणाऱ्या काऊ(कावळा) ची कावकाव ही ‘मध्यम’निर्माती ठरली, कोकिळ पक्ष्याचं मधुर कुहूकुहू ‘पंचमाचं’ उत्पत्तीस्थान ठरलं, बेडकाच्या ‘डरावडराव’मधून ‘धैवत’ जन्मला आणि हत्तीच्या चित्कारातून ‘निषाद’ उत्पन्न झाला.

ह्याचा सोपा अर्थ लावायचा झाला तर असं म्हणता येईल कि, पूर्वी सगळ्याच अर्थाने ‘प्रदूषण’ विरहित अशा निसर्गाच्या सान्निध्यातच जगणाऱ्या माणसाच्या जाणिवा अत्यंत तरल असाव्या. त्यामुळं निसर्गातून ऐकू येणाऱ्या वेगवेगळ्या आवाजांतल्या ‘फ़्रिक्वेन्सी’ मधला सूक्ष्म फरकही त्याच्या कानांना सहजी जाणवत असावा. हळूहळू कोणत्या सुरापेक्षा कोणता सूर चढा आहे हे जाणवलं तसे हे सात सूर अस्तित्वात आले असतील. अर्थातच नंतर शास्त्रीय दृष्टिकोनातून ह्या सर्वच गोष्टींवर काळानुसार अनेक प्रयोग, बदल होत राहिले.

एका फारसी संगीतज्ञाच्या नोंदणीनुसार, प्राचीन मुस्लीम संत हजरत मूसा हे पहाडी भागांतून फिरत असताना आकाशवाणी झाली कि, ‘हे मूसा हकीकी, तू तुझ्या हातातल्या दंडाने तुझ्या समोरच्या दगडावर प्रहार कर!’ त्याबरहुकूम हजरत मूसांनी हातातल्या दंडाचा(छोटी काठी) समोरच्या दगडावर जोरात प्रहार केला तेव्हां त्या दगडाचे सात तुकडे झाले आणि त्या प्रत्येक तुकड्यातून पाण्याची धार/झरा/निर्झर वाहू लागली. मात्र पाण्याच्या त्या प्रत्येक धारेचा ‘आवाज’ वेगवेगळा होता, म्हणजे त्यातून ऐकू येणारा ‘सूर’ वेगळा होता. हजरत मूसांच्या तरल जाणिवांना तो ‘आवाजां’ मधला फरक उमजला आणि  कानाला जाणवणाऱ्या त्या प्रत्येक ‘फ्रिक्वेन्सीनुसार’ त्यांनी एकेक सूर निर्माण केला आणि ते सूर चढत्या पट्टीत योजत ‘सप्तक’ निर्मिले असेल.

आणखी एका फारसीच संगीतज्ञांच्या मतानुसार पहाडी भागांत ‘मूसीकार’ नावाचा जो पक्षी सापडतो, त्याची चोच खूप लांब असते. बासरीला जशी सात भोकं असतात तशी त्याच्या चोचीलाही सात भोकं असतात. हा पक्षी आवाज करतो तेव्हां त्या सात भोकांमधून वेगवेगळा ‘आवाज’ येतो. त्या वेगवेगळ्या सात आवाजांतूनच सात सुरांची निर्मिती झाली आहे.

ह्या सगळ्या प्रचलित कथांचा विचार केला असता वाटते कि, तेव्हां भले तंत्रज्ञान अस्तित्वात नसेल, पण तरीही कानांवर पडणाऱ्या आवाजाशी सूर जुळवून पाहाणे वगैरे बाबींमधे नकळत का होईना, प्रयोगात्मक, संशोधनात्मक दृष्टिकोन सामावलेला आहे. मात्र मुळात माणसाचं संगीताशी नातं कसं जोडलं गेलं असावं? तर फ्राईड ह्या एका पाश्चात्य विचारवंताच्या मते, संगीत ही माणसाकडून झालेली सहजनिर्मिती आहे! ते म्हणतात कि, माणूस आधी बोलायला शिकला, मग चालणं-फिरणं शिकला आणि हळूहळू तो जास्त क्रियाशील झाला तशी त्याच्याकडून आपोआप संगीताची निर्मिती झाली.

फ्राईड ह्यांच्या विधानावर विचार करत असताना मनात आलं कि, ‘खरंच आहे, आपण स्वत:कडे आणि आपल्या आजूबाजूलाही जाणीवपूर्वक पाहिलं तरी लक्षात येतं कि एखादवेळी आपसूक ‘गुणगुणावंसं’ वाटणं हीच संगीतनिर्मितीची पहिली पायरी असावी. असं ‘गुणगुणणं’ ही सहजप्रक्रियाच आहे, त्यासाठी संगीताचं शास्त्रशुद्ध शिक्षण घेतलेलं असणं हे आवश्यक नाहीच. माणसाच्या मनात कोणताही एखादा भाव प्रचंड प्रमाणात निर्माण झाला कि त्याच्या व्यक्ततेपायी ‘गुणगुणण्यातून’ त्याच्याकडून सूरनिर्मिती, संगीतनिर्मिती होत राहिली असेल आणि हळूहळू त्याला एक छान आकार प्राप्त होत ‘संगीतशास्त्र’ निर्माण होण्याएवढी मानवाने प्रगती केली.

खरंतर संपूर्ण सात सूर एकाचवेळी अस्तित्वात आले असं नाही. आपल्याकडचे मंत्र म्हणून पाहिले कि लक्षात येते कि, ते दोन किंवा तीन स्वरांतच बांधलेले आहेत. काही स्त्रोत्रांमधे मग चार सूर दिसून येतात. ह्याचा अर्थ हळूहळू सूरसंख्या वाढत गेली. सप्तकाची एक जन्मकथा अशी वाचल्याची स्मरते कि, वैदिक काळात जे सामगायन होत असे ते सुरुवातीला तीन अणि नंतर चार सुरांत होऊ लागले. सार्वजनिक ठिकाणी सामुदायिक पद्धतीने हे गायन होत असताना गाणाऱ्यांचे पुरुषगायक व स्त्रीगायक असे दोन गट असायचे. पुरुषगायकांनी गायलेली वेदऋचांची चाल(स्वररचना) पाठोपाठ स्त्रीगायक गात असत. मात्र नैसर्गिकरीत्या सर्वसाधारणपणे स्त्रियांचा आवाज उंच पट्टीचा असतो, त्यामुळे त्यांना पुरुषांच्या पट्टीत गाणे कठीण जायचे. मग तीच स्वरसंगती स्त्रिया त्यांच्या पट्टीत गात असत तेव्हां ते सूर अस्तित्वात असणाऱ्या सुरांपेक्षा भिन्न स्थानांवर असल्याचे लक्षात येत गेले आणि अणखी सूर अस्तित्वात आले. दुसऱ्या भागात आपण गणितीय पद्धतीने स्वरांमधील अंतरे पाहिली आहेत. तर, ‘सा ते म’ आणि ‘प ते वरचा सा’ ह्या स्वरांमधील अंतरे पाहिली तर ती अगदी समान असल्याचे दिसून येते. ती कदाचित ह्या सामगायनाची देणगी असावी, अशी सप्तकाच्या जन्माची ‘वन ऑफ द थिअरी’ म्हणता येईल.

 

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – शख़्सियत: गुरुदत्त…4 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…4।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…4 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

भाग्य भी गुरुदत्त की 1954 की ब्लॉकबस्टर “आर पार” पर मुस्कुराया। इसके बाद 1955 की हिट, मिस्टर एंड मिसेज ’55, उसके बाद सी आई डी, और 1957 में “प्यासा” – दुनिया से खारिज एक कवि की कहानी, जो अपनी मृत्यु के बाद ही सफलता प्राप्त करती है। दत्त ने इन पांच फिल्मों में से तीन में मुख्य भूमिका निभाई।

देवानंद से मित्रवत् करार के मुताबिक़ गुरुदत्त ने देवानंद को हीरो लेकर सी आई डी बनाई जो बहुत कामयाब फ़िल्म सिद्ध हुई। C.I.D. राज खोसला द्वारा निर्देशित और गुरुदत्त द्वारा निर्मित 1956 की अपराध थ्रिलर है। इसमें देवानंद, शकीला, जॉनी वॉकर, के एन सिंह और वहीदा रहमान जैसे सितारे हैं। फिल्म में देव आनंद एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे हैं जो एक हत्या के मामले की जांच कर रहा है। संगीत ओ पी नैय्यर का है और गीत मजरूह सुल्तानपुरी और जाँ निसार अख्तर के हैं। यह वहीदा रहमान की पहली फिल्म थी, और भविष्य के निर्देशक प्रमोद चक्रवर्ती और भप्पी सोनी सहायक निर्देशक के रूप में काम करते थे। गुरुदत्त ने वहीदा रहमान को एक तेलुगु फिल्म में देखा था और प्यासा में लेने के पहले सी.आई.डी. में उसे प्यासा के लिए तैयार करने के लिए क़ाम करवाया।

उनकी 1959 में “कागज़ के फूल” एक गहन निराशा का प्रतिबिम्ब थी। उन्होंने इस फिल्म में बहुत प्यार, पैसा और ऊर्जा का निवेश किया था, जो एक प्रसिद्ध निर्देशक की एक आत्म-कहानी थी, जो एक अभिनेत्री के साथ प्यार में पड़ जाता है। कागज़ के फूल बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। कागज़ के फूल 1959 में बनी गुरुदत्त द्वारा निर्मित और निर्देशित हिंदी फ़िल्म है, जिसने फ़िल्म में मुख्य भूमिका भी निभाई। यह फिल्म सिनेमास्कोप में पहली भारतीय फिल्म मानी गई और निर्देशक के रूप में दत्त की अंतिम फिल्म थी। 1980 के दशक में इसे विश्व सिनेमा की क्लासिक माना जाने लगा। फिल्म का संगीत एस डी बर्मन द्वारा रचा गया था, गीत कैफ़ी आज़मी और शैलेन्द्र द्वारा लिखे गए थे, कई लोग इस फिल्म को अपने समय से बहुत आगे मानते हैं।

फिल्म का संगीत एस डी बर्मन ने तैयार किया था। एस डी बर्मन ने उन्हें “कागज़ के फूल” न बनाने की चेतावनी दी थी, जो उनके खुद के जीवन से मिलता जुलता था। जब गुरुदत्त ने फिल्म बनाने पर जोर दिया, एस.डी. बर्मन ने कहा कि गुरु दत्त के साथ उनकी आखिरी फिल्म होगी।

फिल्मफेयर बेस्ट सिनेमैटोग्राफर अवार्ड – वी.के. मूर्ति

फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन पुरस्कार – एम आर अचरेकर

“चौदहवीं का चाँद” मोहम्मद सादिक द्वारा निर्देशित अत्यंत सफल फिल्म है। यह फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर 1960 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी। गुरुदत्त, रहमान और वहीदा रहमान के बीच एक प्रेम त्रिकोण पर केंद्रित इस फिल्म में रवि का संगीत शामिल हैं। फरीदा जलाल ने इस फिल्म में पहली बार अतिथि भूमिका निभाई। कागज़ के फूल के विनाशकारी बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के बाद गुरुदत्त के लिए यह एक व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म थी, जिसने गुरुदत्त के प्रोडक्शन स्टूडियो को खंडहरों में तब्दील होने से बचा लिया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 16 ☆ अनवरत सेवा हमारे क्लब की जान है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  रोटरी क्लब के लिए एक काव्यात्मक प्रस्तुति  अनवरत सेवा हमारे  क्लब की जान है।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 16 ☆

☆ अनवरत सेवा हमारे  क्लब की जान है 

अनवरत सेवा हमारे  क्लब की जान है

क्योकि सेवा ही सही इंसान की पहचान है

दीन दुखियो में ही  रहता है कहीं भगवान भी

सार हर एक धर्म का बस त्याग ,तप, व्रत , दान है

अनवरत सेवा हमारे  क्लब की जान है

 

आये दिन नई आग में जलता विवश संसार है

हर घाव को भरता जो , वो , केवल प्यार है

दवायें तो बिकती हैं कई यों सभी बाजार में

स्नेह ही लेकिन समस्या का सही उपचार है

अनवरत सेवा हमारे क्लब की जान है

 

जी रहे जो लोग जन जन की खुशी के वास्ते

द्वार से उनके ही मिलते प्रेम के कई रास्ते

निस्वार्थ सेवा सात्विक हो धर्म का उपदेश है

कुछ न कुछ सेवा हमें करनी है  हर दिन याद से

अनवरत सेवा हमारे क्लब की जान है

 

स्वस्थ तन मन और धन भगवान का वरदान है

औरो का हित करने में सुख शांति जग कल्याण है

विश्व सेवा व्रत लिये सर्वस्व सेवा के लिये

विश्व व्यापी संगठन का यह सतत अभियान है

अनवरत सेवा हमारे  क्लब की जान है

 

आदमी दुनियां में दो दिन का ही मेहमान है

जुटाता पर हर तरह सौ साल का सामान है

पर सामाजिक हित हो जिससे, हर किसी को लाभ हो

रोटरी इस पर अमल करते, क्लब को यही अभिमान है .

अनवरत सेवा हमारे क्लब की जान है

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – श्रीपांडुरंगाचा फराळ ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ☆

??️ श्रीपांडुरंगाचा फराळ ?️?

खा..ऽ..रे विठ्ठला उपासाची खिचडी..

खा…रे विठ्ठला..खा..!!धृ.!!

 

करायला घेतली उपासाची खिचडी!

साबूदाणा शेंगदाण्याने केली फाकडी !

किसून घातली त्यात मी काकडी!

खा…ऽ.रे विठ्ठला उपासाची खिचडी!!१!!

 

घेतले शेंगदाणे खमंग भाजून !

गूळ वितळवला तूप घालून!

चिक्की बनवली पाटावर थापून!

खा..ऽ..रे विठ्ठला गोड गोड चिक्की !!२!!

 

वरईचा तांदूळ तुपात भाजला !

खुमासदार छान शिजवून घेतला!

चिंच गुळाचा कोळ केला!

दाण्याच्या आमटीला कोळ घातला!

झाली चवदार तांदूळ आमटी!

खा..ऽ.रे विठ्ठला.. वाटी वाटी !!३!!

 

खजूर सोलली बिया काढूनी!

बदाम बेदाणे पिस्ते घालुनी!

मिरची मीठ चवीस घालुनी!

त्याची केली चवदार चटणी!

खा..ऽ..रे विठ्ठला.. खजूराची चटणी!!४!!

 

पिकलेली ती लिंबे आणली!

फोडी करुनी उकडून घेतली!

तिखट मीठ साखर टाकली!

झाले तयार चवदार लोणचे!

खा..ऽ.रे..विठ्ठला उपासाचे लोणचे!!५!!

खा..ऽ ..रे विठ्ठला..खा..ऽ..

 

दिनांक:-१६-११-२०

©️®️ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ मोहे चिन्ता न होय ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मोहे चिन्ता न होययह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 71 ☆

☆ मोहे चिन्ता न होय

‘उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है, लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह खुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब ग़लत है और वे लोग दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते; हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है, जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है और हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं। हम जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, सदैव चीखते -चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। यह सत्य ही है कि जिन्हें खुद पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, संशय, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को संचित कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं; कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेहग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह अंधेरे में गलत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों तक को नकार देता है; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं; हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन करना कैसे करना व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव होगा?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है,– सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की; हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम इन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/ कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख, खशी-ग़म आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सबसे हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय परिवर्तनशील है और यथासमय दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसी संदर्भ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाती प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने भासती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक; धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण; सीता का अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या की ओर गमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है– पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। खुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें।

समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। गलत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि-नियंता को भूलें नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुधबुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पातीं। अंत में कबीरदास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 23 ☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता)

☆ किसलय की कलम से # 23 ☆

☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆

सुख की चाह समग्र जीव जगत में पाई जाती है। इंसान में सुख केवल चाह न रहकर आवश्यकता बनता जा रहा है। सुख की खातिर आदमी आज कुछ भी करने को तैयार है। वह भविष्य को सुखमय बनाने के लिये नैतिक-अनैतिक हर कार्य करने से नहीं हिचकता। आज ईमानदारी, सत्यता और न्याय की बातें किताबी लगने लगी हैं। नीति, आदर्श और परोपकार की कथायें और संस्मरण अब लोग सुनने से भी कतराने लगे हैं। आज के बदलते परिवेश और सुख-स्वार्थ की अन्धी दौड़ में हम अपनी संस्कृति और धर्म को भूलते जा रहे हैं।

हमारा वेदोक्त वाक्य “संतोषम् परम् सुखम्” अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है। संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है। आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े। आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है। आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है। पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।

एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोंपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है, परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छाशक्ति की आती है। संतोष और इच्छाशक्ति का सम्बन्ध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छाशक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छाशक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि, यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृतियाँ छोड़कर जाता है।

आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैं कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाली इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि “अपनत्व” से हम बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह में हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।

हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छाशक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें, उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्मशान्ति को ढूँढें तो हमें “संतोष” ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छाशक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छाशक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 60 ☆ माँ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “माँ । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 60 ☆

☆  माँ  ☆

बच्चे माँ से कर रहे, बस यह एक सवाल

कब दोगी माँ तुम हमें, रोटी के संग दाल

 

माँ की ममता जगत में, होती है अनमोल

जन्नत चरणों में बसे, समझें माँ का मोल

 

बिन शिक्षक शिक्षा नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान

जीवन में मिलता सदा, शिक्षा से सम्मान

 

सूर्योदय लाता सदा, खुशी और उत्साह

केसर-सी चमके किरण, जिसका रंग अथाह

 

रखें राष्ट्र हित सामने, हो ऐसा निर्माण

देश-भक्ति जिनके नहीं, उनके दिल पाषाण

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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