हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 53 ☆ पाँच दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “पाँच दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 53 ☆

☆ पाँच दोहे ☆ 

जीवन हो सुख सुरभि- सा, बाँटें सबको प्यार।

दान, यज्ञ ,तप नित करें,ये ही जीवन सार।।

 

नए कलेवर योग में, छिपे अनत भंडार।

जो जितना अंतः घुसे, मिलती शक्ति अपार।।

 

सविता अपने देव हैं, करते हैं कल्याण।

देव दिवाकर, भास्कर,  सबके ही हैं प्राण।।

 

अंतरिक्ष में हैं छिपे , ज्ञान और विज्ञान।

सृष्टि का आधार यह , मानव मन पहचान।।

 

देता मैं शुभकामना, सब ही रहें निरोग।

अहम स्वार्थ को त्यागकर, करें प्रेम औ योग।।

 

डॉ राकेश चक्र ,90 बी,शिवपुरी

मुरादाबाद 244001,उ.प्र .

9456201857

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ।)

☆ लघुकथा – दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆

[1] नयी माँ

कचरा बीनने वाली ने कचरे के ढेर में नवजात कन्या को बिलखते देखा तो हक्का बक्का रह गयी.

कैसी होगी इसकी निष्ठुर मां… राम-राम इसके बदन पर तो कीड़े रेंग रहे हैं…खून रिस रहा है.. मुंह झोंसी… किसका पाप यहां डाल गयी है रे. उसके मुंह से धाराप्रवाह निकल रहा था.

न जाने कबसे भूखी होगी रे… कहते – कहते उसने अपना स्तन बच्ची के मुँह में डाल दिया.

बच्ची अब टुकुर टुकुर इस नई मां को देख रही थी. उमंग से हुलसती बच्ची के चेहरे पर वात्सल्य पसारता जा रहा था.

 

[2]  वर्चस्व

न जाने कितने कितने वर्षों बाद एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है.

अब तक मात्र छः महिलाएं ही तो बनी हैं,  इसकी गिनती सातवीं है. हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते.

महिला मंडल में एक विचार विमर्श चल रहा था. तब एक समझौता वाली महिला चुप न रह सकी.

बहिनों, जरा विराम लो, हम जो कुछ भी हैं पुरुषों के बल पर ही तो हैं. वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाईयां प्रदान करते हैं. इसे नकारना मिथ्या है. भाई-पिता-पति के बिना हम एक कदम भी बढ़ सकने में समर्थ हो सकेंगे?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -2”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -2 ☆

हमारी सामासिक संस्कृति का एक और स्तम्भ है मुस्लिम व हिन्दू धर्म के बीच मेलमिलाप से विकसित हुई गंगा जमुनी तहजीब। इस्लाम भारत में दो रास्तों से आया एक तो सुदूर दक्षिण में अरब व्यापारियों के शांतिपूर्ण माध्यम से सातवीं सदी में  और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दी में, अफगान , तुर्क आदि मुस्लिम आक्रान्ताओं की, तलवार से । हिन्दू और मुस्लिम घुल मिलकर एक तो नहीं हो सके पर दोनों सम्प्रदायों की अनेक बातें एक दूसरे में ऐसे समाहित हुई जैसे दूध में चीनी। हिन्दुओं में व्याप्त अनेक अन्धविश्वासों व रुढियों को मुसलामानों ने अपनाया तो मुसलामानों के खान पान व पहनावे हिन्दुओं ने पसंद किये। इन दो संस्कृतियों के मेलमिलाप ने जहाँ एक ओर गंडा ताबीज, पीर, ख्वाजा, पर्दा प्रथा , सगुन-अपसगुन आदि  को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर इस्लाम ने भारतीय राजा महराजाओं की रेशम, मलमल और कीमती जेवरों से सजी पोशाकों को अंगीकृत कर लिया। चीरा और पाग हिन्दुस्तानियों के पहनावे का अंग थे तो बदले में इस्लाम ने कसे चुस्त पायजामे हमें दिए।

सौभाग्यवती मुस्लिम महिलाओं ने अपनी हिन्दू सखियों की भाँति मांग में सिंदूर भरना, हाथ में चूड़ियाँ व नाक में नथ पहनना शुरू कर दिया। दोनों संस्कृतियों के मिलन से इस्लाम धर्म के मानने वालों को फलों से अचार बनाने की विधि पता चली तो दूसरी ओर उनके द्वारा खाया जाने वाला लजीज पुलाव और कोरमा वैसा नहीं रह गया जो इरान और खुरासान में खाया जाता था। आज भी हमारे देश में लजीज जायकेदार  मुगलई व अवधी खान पान इसी मुस्लिम संस्कृति की देन है। कला संगीत और साहित्य के क्षेत्र में इन दो विपरीत ध्रुवों वाली संस्कृतियों के मिलन ने अच्छा  खासा प्रभाव डाला। यदपि संगीत इस्लाम में वर्जित था तथापि मुस्लिम सूफी संतों ने हिन्दू भक्ति के तरीके को अपनाया और संगीत साधना की और उनकी यह साधना कव्वाली के रूप में हमारे देश में दोनों सम्प्रदायों के अनुयायियों आज भी आकर्षित करती है।

भारतीय व ईरानी संगीत तथा वाद्य यंत्रों के मिलन से अनेक नवीन रागों व संगीत के यंत्रों की उत्पति हुई। ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा को देखकर ही सितार की खोज करी। संगीत के माध्यम से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के बहुत करीब आये। हमारे देश के बहुसंख्य वर्ग द्वारा बोली जाने वाली खड़ी बोली  हिन्दी एवं अल्पसंख्यक मुस्लिमों के मध्य लोकप्रिय उर्दू इसी गंगा जमुनी तहजीब में फली फूली व विकसित हुईं। हिन्दू व मुस्लिम सभ्यता के मिलन ने शिल्प कला, चित्र कला आदि को नया आयाम दिया. इस मिलन ने चित्रकला के क्षेत्र में अनेक नई  शैलियों यथा मुग़ल शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली को  जन्म दिया तो बेमिसाल महलो, किलों, मस्जिदों,मकबरों का निर्माण भी इंडो इस्लामिक शैली में हुआ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता देश का गौरव हो तुम अभिनंदन। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन

देश का गौरव हो तुम अभिनंदन,

छूट कर पँजे से दुश्मन के घर को वापिस आ गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर शिकन तक ना थी तुम्हारे ,

मातृभूमि के लिए अपनी जान पर तुम खेल गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरा आत्मविश्वास से भरा था तुम्हारा,

ख़ौफ़ तो पाक सैनिकों के चेहरे पर दिख रहा था,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

झुके नहीं, बिल्कुल टूटे नहीं तुम दुश्मन के सामने,

गजब का जज्बा दुनिया को तुमने दिखा दिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर तुम्हारे लालिमा चमक रही थी,

आत्मविश्वास दिखा सबका दिल तुमने जीत लिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 77 – आलेख – सहजीवन ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 77 ☆

☆ आलेख –  सहजीवन  ☆

आमचं लग्न झालं तेव्हा मी वीस वर्षांची आणि हे बावीस वर्षाचे होते. वडिलोपार्जित दुग्ध व्यवसाय-म्हशींचे गोठे आणि गावाला शेती होती.ह्यांचा जन्म पुण्यातला,पदवीधर असूनही विचारसरणी सनातन- “न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति” अशी मनुवादी!  खुप जुन्या वळणाचं सासर, एकत्र कुटुंब, सणवार, कुळधर्म, कुळाचार, रांधा,वाढा उष्टी काढा हेच आयुष्य असायला हवं होतं, पण मी त्यात रमले नाही.

बाहेर जायला विरोध होता, कविता करणं, ते सादर करायला बाहेर जाणं एकूणच उंबरठा ओलांडून बाहेर काही करणं निषिध्द !

प्रतिकुल परिस्थितीत बाहेर पडले,कुणीही प्रोत्साहन दिलं नाही तरी लग्नानंतर चौदा वर्षांनी एम.ए.ला अॅडमिशन घेतलं ….पुढे पीएचडी चं रजिस्ट्रेशन केलं…पूर्ण करू शकले नाही. स्वतःच्या अपयशाचं खापर मी इतर कोणावर फोडत नाही. नवरा डाॅमिनेटिंग नेचरचा आहे पण माझी जिद्द ही कमी पडली.

पण आज या वयात माझा नवरा आजारपणात माझी जी काळजी घेतो त्याला तोड नाही…..

चाकोरीबाहेरचे अनुभव घेतले, चारभिंती बाहेर पडले खुप प्रतिकुल परिस्थितीत थोडं मुक्त होता आलं याचं आज समाधान आहे.

आणि पतंगासारखं काही काळ आकाशात उंच उडता आलं हा आनंद, पतंगांचा मांजा कुणी पुरूष बाप, भाऊ, नवरा नसताना नियतीने ती दोर कवितेच्या रूपाने पाठवली. जो मिल गया उसीको मुकद्दर समझ लिया ।

ते पदवीधर मी पदव्युत्तर शिक्षण घेतलं पण तो प्रश्न कधी आला नाही आमच्यात! प्रोत्साहन दिले नाही तरी शिक्षणाला विरोधही झाला नाही फारसा!

एका विशिष्ट वयानंतर “अभिमान” ची संकल्पना नाहीशी होते, कधीच पतंगाची दोर न बनलेल्या जोडीदाराविषयीही कृतज्ञताच वाटू लागते!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆ आतिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “आतिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆

☆ आतिश

जब जुस्तजू का गला

सूख सा जाए

और कहीं पानी की बूंद नज़र न आये,

जब जोश के स्क्रू ढीले पड़ जाएँ

और किसी भी

पेंचकस से टाइट न हो पायें,

जब उम्मीद की चिंगारी

बुझती सी दिखे

और कोई अलाव नज़र न आये-

तुम्हें घुटने के बल बैठकर

और अपनी ठुड्डी घुटनों पर रखकर

हार थोड़े ही माननी है!

और रोना –

आंसू तो बिलकुल नहीं बहाना है!

 

ऐसे वक़्त तुम

चुरा लो तारों से रौशनी,

हासिल कर लो चाँद से चांदनी,

चूस लो आफताब का तेज,

बस याद रखना होगा तुम्हें सिर्फ एक बात

कि तुम्हारे ज़हन के भीतर

आतिश जलती ही रहनी है!

 

उसी आतिश के सहारे

खुल जायेंगे तुम्हारे पर

और तुम उड़ने लगोगे

नीले आसमान को चूमते हुए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 71 – लघुकथा – परिचय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  लघुकथा  “परिचय।  हम जानते हैं कि शक का कोई इलाज़ नहीं फिर भी उसके शिकार होकर अक्सर हम अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। जब ऑंखें खुलती हैं तब बहुत देर हो जाती है और पश्चाताप होता है। किन्तु, दुर्लभ मानव जीवन और समय लौट कर नहीं आता। सकारात्मक सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 71 ☆

☆ लघुकथा – परिचय ☆

माया ने आज फिर तकिए से वही पुराना कागज निकाला। जिसमें सुबोध ने लिखा था…. निकल जाओ मेरी जिंदगी से फिर लौट कर कभी नहीं आना.. तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारी वजह से। दोनों आँखों से अश्रुओं की धार बह चली। उस का क्या कसूर था, बस इसी सवाल को लेकर फिर वह रोते रोते तकिए पर सर रखकर लेट गई।

जाने कब तरुण ने आकर लाइट जलाया और बाल सँवार कर प्यार से पूछने लगा…. फिर पुरानी बातों में खो गई। बेटा आता होगा, तैयार हो जाओ अच्छा नहीं लगेगा।

माया झटपट मुँह धोकर चेहरे को साफ कर अपने आप को संभालती हुई बाहर आई।

दरवाजे पर बेटे की गाड़ी आकर रुक गई। तरुण और माया बेटे के साथ आज एक अजनबी को  देख रहे थे। जिस की बढ़ी हुई दाढी और फटेहाल दशा बता रही थी कि वह बहुत ही तंग हालत पर है।

पास आने पर माया ने ठिठक कर कुर्सी पकड़ ली। तरुण समझ गया यह वही सुबोध है।

उसी समय बेटे ने कहा मम्मी यह व्यक्ति आप के बारे में पूछ रहा था ऑफिस में। आपसे मिलना है कह रहा था। पुरानी पहचान बता रहा था।

मैं इन्हें घर ले लाया। माया ने तुरंत अपने बेटे को कहा बेटे इन्हें हमारे बैठक में बिठा  दो। यह हमारे दूर के परिचय वाले है। मैं चाय नाश्ता का इंतजाम करती हूं।

सुबोध को इसकी उम्मीद नहीं थी वह देखता रहा अपने को दूर का परिचय वाला।

अंदर तक हिल गया वह। बेटा अपने कमरे में चला गया। माया के अंदर जाने के बाद तरुण ने हाथ जोड सुबोध से बाहर जाने को कहा।

सुबोध समझ चुका उसे उसकी कर्मों की सजा मिली चुकी है। सुबोध और माया पति-पत्नी दोनों ही ऑफिस में काम करते थे। परन्तु, माया को बस से आने में थोड़ी देरी हो जाती थी। बस इसी बात से हमेशा दोनों में लड़ाई हो जाती थी और बसी बसाई गृहस्थी को आग लगाकर अलग हो गया था।

यह भी नहीं देखा कि माया माँ बनने वाली है। बेटे ने बाहर आकर देखा।

मम्मी पापा दोनों एक दूसरे से लिपटे थे और मम्मी की आँसू की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  बेटे ने सोचा यह कैसा परिचित है, इसका क्या परिचय है। मम्मी-पापा क्यों परेशान होकर रो रहे हैं?

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 76 ☆ अंधार पसरला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 76 ☆ अंधार पसरला  ☆

रात्रीचा अंधार पसरला

वाट कुणाची बघतो आहे

अंधाराचे बोट धरून हा

जीव कशाला जगतो आहे

 

तारुण्याची हिरवळ होती

टाळ कधी ना धरला हाती

उतार वय हे झाले देवा

तुझी पायरी चढतो आहे

 

आकाशातील चंद्र चांदणे

नकोच त्यांच्यासाठी थांबणे

अंधारातील प्रवास माझा

पडतो आहे उठतो आहे

 

कणा पाठीचा धनुष्य झाला

देऊ काठीचा आधार त्याला

जवळच्याच या पल्ल्यासाठी

पुन्हा चालणे शिकतो आहे

 

रात्र रात्र मी उगा जागतो

कसली आहे सजा भोगतो

निद्रा घ्यावी म्हणतो तरीही

सूर्य कुठे हा ढळतो आहे ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पोटापुरता पसा …. महाकवी ग.दि. माडगूळकर ☆ कवितेचे रसग्रहण☆ प्रस्तुति – सौ. अमृता देशपांडे

स्व गजानन दिगंबर माडगूळकर ‘गदिमा’

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जन्म – 1 ओक्टोबर 1919  मृत्यु – 14 डिसेंबर 1977 ☆

☆ कवितेचा उत्सव ☆ पोटापुरता पसा …. महाकवी ग.दि. माडगूळकर  ☆ कवितेचे रसग्रहण ☆ प्रस्तुति – सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

पोटापुरता पसा पाहिजे नको पिकाया पोळी

देणार्याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी

 

हवाच तितका पाडी पाऊस देवा वेळोवेळी

चोचिपुरता देई दाणा माय माऊली काळी

एकवेळच्या भुकेस पुरते तळहाताची खाळी ll

 

महाल माड्या नकोत नाथा माथ्यावर दे छाया

गरजे पुरती देई वसने जतन कराया काया

गोठविणारा नको कडाका नको उन्हाची होळी ll

 

सोसे तितुके देई याहुन हट्ट नसे गा माझा

सौख्य देई वा दु:ख ईश्वरा रंक करी वा राजा

अपुरेपणहि न लगे, न लगे पस्तावाची पाळी

 

देणा-याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी ll

गीतकार- महाकवी ग.दि. माडगूळकर

चित्र : साभार Gajanan Digambar Madgulkar – Wikipedia

(या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये दिले आहे.)

प्रस्तुति –  सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दहकन तन मन में हुई, पारो हुई पलाश ।

देवदास के भाग्य में, एक शब्द है काश।।

 

पीत वसन मनहर हंसल, कनक कसीली  देह।

पीतांबर की प्रीतिया, बरसा मनका मेह।।

 

पुखराजी विन्यास में, सिमटा हुआ शवाब ।

एक दृष्टि में लग गया, पुष्पित पीत गुलाब।।

 

मन के सुग्गे ने किया, अपने प्रिय का ध्यान।

प्रिया पहन कर आ गई, शुक पंखी परिधान।।

 

प्रीति दिवस ने दे दिया, संजीवन उपहार ।

सांसो ने सौगंध दी, कमल माल गल हार।।

 

बौहों में भर देह को, देही हुआ विदेह।

सत्य सत्य कैसे हुआ, प्रश्नाकुल संदेह।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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