हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 47 ☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  संस्कृति विमर्श  पर आधारित लघुकथा तुम संस्कृति हो ना?  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 47 ☆

☆  लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆

शादी की भीड़-भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पडी। अरे, ये संस्कृति है क्या? पर वह कैसे हो सकती है? मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन – सहन? कोई इतना कोई बदल सकता है कि पहचान में ही ना आए? हाँ ये सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। सारी सुनी-सुनाई बातें थी, हम साथ पढे थे और तब से उससे कभी मिलना हुआ ही नहीं। तब फेसबुक होती तो सबके हाल-चाल मिलते रहते पर उस समय कहाँ था ये सब? स्कूल से निकलो तो कुछ सहेलियां तब छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया किसकी कहाँ  शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। फिर से ध्यान उसकी ओर  ही चला गया – – –  मन उलझ रहा था।

तब तक उसने मुझे देख लिया, बडी नफासत से मुझसे गले मिली – हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना ! ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं और मैं अब भी मानों सकते में थी। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी, चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। कटे हुए स्टाईलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में वह हिंदी बोल रही थी, बहुत बनावटी लग रहा था सब कुछ। मैं खुद को समझा ही नहीं पा रही थी, अपने को संभालते हुए मैंने धीरे से पूछा – तुम संस्कृति ही हो ना? उसे झटका लगा – अरे ! पहचाना नहीं क्या मुझे? मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।

वह खिलखिला कर हँस पडी – यार पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष।  उन लोगों बीच रहना है तो उनके जैसे ही दिखो, उनकी भाषा बोलो। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना? मैंने ओढी हुई मुस्कान के साथ कहा – हाँ, तुम पर सूट कर रहा है पर अपनी पहचान ही बदल दी? अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है ना? – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – क्या करेंगें हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है। मैं बेमन से उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी। मुझे संस्कृति के माता – पिता  याद आ रहे थे जो हमेशा अपना भारत देश, बोली – भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। उन्होंने अपनी माटी, अपने देश के संस्कार दिए थे इसे  फिर भी  खरे देसीपन के वातावरण में पली – बढी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।)

आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख  एवं ई-अभिव्यक्ति  का आह्वान एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें। 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन इस संदर्भ की एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं, लेखकों से हमारा आव्हान है कि इस विषय पर कलम चला कर रचनाएँ भेजें, हम इस का प्रारम्भ करेंगे सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति” आयोजन में प्राप्त चुनी हुई रचनाओं से

☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें  ☆

कोरोना के परिदृश्य में स्पष्ट हो चुका है कि केवल सबके बचाव में ही स्वयं का बचाव संभव है. एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें हैं. जो देश इस कठिनाई के समय में भी विस्तार की नीति अपना रहे हैं, वहां की सरकारें जनता से छल कर रही हैं. दुनियां के लिये यह समय सामंजस्य और एकता के विस्तार का है.

हमारी युवा शक्ति ही देश की सबसे बड़ी ताकत है.बुद्धि और विद्वता के स्तर पर हमारे देश के युवाओ ने सारे विश्व में मुकाम स्थापित किया है. हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर्स  के बगैर किसी अमेरिकन कंपनी का काम नही चलता. हमारी स्त्री शक्ति सशक्त हुई है. देश के युवाओ से यही कहना है कि  हम किसी से कम नही है और हमारे देश को विश्व में नम्बर वन बनाने की जबाबदारी हमारी पीढ़ी की ही है.हमें नीति शिक्षा की किताबो से चारित्रिक उत्थान के पाठ पढ़ने ही नही उसे अपने जीवन में उतारने की जरूरत है. मेरा विश्वास है कि भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व शासन प्रणाली प्रमाणित होगी, इस समय जो कमियां भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, क्षेत्रीयता, भाषावाद, वोटो की खरीद फरोक्त को लेकर देश में दिख रही हैं उन्हें दूर करके हम विश्व नेतृत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् के प्राचीन भारतीय मंत्र को साकार कर दिखायेंगे. आज जब मानवीय मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं, संभवतः रोबोट और मशीनी व्यवस्थायें ही देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर सकती है, जैसा कंप्यूटरीकरण के विस्तार से रेल्वे या अन्य विभिन्न क्षेत्रो में हो भी रहा है.

सैक्स के बाद यदि दुनिया में कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय विषय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है.और सारे विश्व में भारतीय लोकतंत्र न केवल सबसे बड़ा है वरन सबसे  तटस्थ चुनावी प्रणाली के चलते विश्वसनीय भी है. चुनावी उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय  घोषित कर चुके हैं  वह हमसे छिपी नही है,  एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है,वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि  आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है. क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है ? मेरे तो परिवार जन तक मेरे इतने ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है,  राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादात में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में.  जबकि उन्हें पता था कि नेता जी आकर क्या बोलने वाले हैं. इसका अर्थ  यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं जिसे मेरे जैसे मूढ़ बुद्धि शायद समझ नही पा रहे. तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते, देश ही नही दुनिया भर में हमारे रामभरोसे की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. रामभरोसे वोटरे के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से करते रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करती हूं.पिछले अनुभवों में हर बार बेचारा रामभरोसे वोटर ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है रामभरोसे, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर रामभरोसे का सपना टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है, नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं,जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला रामभरोसे पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है.मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम अब तक यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छबिया होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में रामभरोसे के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद   कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल रामभरोसे के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि  नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं रामभरोसे के खर्चे पर, वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. संभवतः सर्वहारा को सर्व शक्तिमान बना सकने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र की सफलता के लिये उसकी ये कमियां स्वीकार करनी जरूरी हैं.जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है, तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है.

भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली की वैधानिक व्यवस्थायें अमेरिकन व इंगलैण्ड सहित दुनिया के विभिन्न संविधानो के अध्ययन के उपरांत भीमराव अम्बेडकर जैसे विद्वानो ने निर्धारित की थीं. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तो विजयी उम्मीदवारों में से सबसे बड़े दल के सांसद,अपना नेता चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिये राष्ट्रपति के सम्मुख अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करता है, अर्थात जनता अपने वोट से सीधे रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव नही करती यद्यपि सत्ता की मूल शक्ति प्रधानमंत्री में ही सन्नहित होती है . जबकि अमेरिकन प्रणाली में राष्ट्रपति सत्ता की शक्ति का केंद्र होता है, और उसका सीधा चुनाव जनता अपने मत से करती है.

अब जन आकांक्षा केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस चाहती है . सरकार से हमें देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें  हैं . सरकार सबके हितो के लिये काम करे न कि पार्टी विशेष के, पर्दे के सामने या पीछे के नुमाइन्दो से सिफारिश पर, केवल उन लोगो के काम हो जिन के पास वह खास सिफारिश हो. जो उम्मीदें चुनावी भाषणो और रैलियो में जगाई गई हैं, वे बिना भ्रष्टाचार के मूर्त रूप लें .महिलाओ को सुरक्षा मिले, पुरुषो की बराबरी का अधिकार मिले. युवाओ को अच्छी शिक्षा तथा रोजगार मिले. आम आदमी को मंहगाई और भ्रष्टाचार से निजात मिले. अल्पसंख्यको को विश्वास मिले. देश का सर्वांगीण विकास हो सके.राष्ट्र कूटनीतिक रूप से, तकनीकी रूप से,सक्षम हो.  विकास के रथ पर सवार होकर हमारा देश दुनिया के सामने एक विकसित राष्ट्र के रूप में पहचान बनाये यह हर भारतीय की आकांक्षा है, और यही  सरकार की चुनौती है.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते विकास के सारे मापदण्ड छिन्न भिन्न हैं  निश्चित ही सारी जबाबदारी केवल सरकार पर नही डाली जा सकती, हर नागरिक को भी इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही  होगी. सरकार विकास का वातावरण बना सकती है, सुविधायें जुटा सकती है, पर विकास तो तभी होगा जब प्रत्येक इकाई विकसित होगी, हर नागरिक सुशिक्षित बनेगा. जब देशप्रेम की भावना का अभ्युदय  हर बच्चे में होगा तो स्वहित के साथ साथ देशहित भी हर नागरिक के मन मस्तिष्क का मंथन करेगा. भ्रष्टाचार स्वयमेव नियंत्रित होता जायेगा और देश उत्तरोत्तर विकसित हो सकेगा. अतः नागरिको में सुसंस्कार विकसित करना भी नई सरकार के सम्मुख एक चुनौती है.

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 66 – रतनगढ़ का हमाम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “रतनगढ़ का हमाम। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 66 ☆

☆ रतनगढ़ का हमाम ☆

चित्तौड़गढ़ से 70 किलोमीटर पूर्व में अरावली की पहाड़ी पर  तीनों ओर गहरी खाई के घुमावदार हिस्से पर रतनगढ़ का किला 11 वीं शताब्दी का बना हुआ है। इसे राजा रतनसिंह के नाम पर रतनगढ़ का किला कहते हैं। इसी से गांव का नाम रतनगढ़ पड़ा है।

यह रतनगढ़ सिंगोली तहसील जिला नीमच मध्यप्रदेश में स्थित है। पूर्व में यह जागीर ग्वालियर रियासत को इंदौर रियासत द्वारा स्थानांतरित की गई थी।

खंडहर हो चुके किले में एक अद्भुत हमाम घर है। यह हमामघर रूपी बावड़ी आज भी बनी हुई है । जिसमें 12 महीने पानी आज भी भरा रहता है । इसकी बनावट, तकनीकी व खुबसूरती से जमीन के अंदर की निर्माण कला की उत्कृष्टता का बखूबी समझा जा सकता है। जब यह बावड़ी सह हमाम घर आज के समय यह इतना बेजोड़ और उम्दा है तो उस जमाने में कैसा रहा होगा ?

प्राचीन समय में जमीन से इतनी ऊपर पहाड़ी पर इतनी जोरदार वास्तुकला की यह बावड़ी आधुनिक स्विमिंग पूल को भी मात देती है । यह ऊंची पहाड़ी पर समतल जमीन से तीन मंजिला नीचे दो भागों में विभाजित स्विमिंग पुल यानी पुराना हमामघर बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बनाया गया है।

इसी किले पर बड़ी-बड़ी धान भरने की गोलाकार कोठियां बनी हुई है । जिनका दीवारों पर लगा चिकना प्लास्टर आज भी विद्यमान है । कई शताब्दी बीत जाने के बाद भी यह कोठियां आज भी बेहतर हालत में विद्यमान है। इससे भारतीय कामगारों की उत्कृष्टता और गुणवत्ता युक्त सामग्री का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रतन-गढ़~

धानकोठी में गिरा

चूहा ले सांप।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 36 ☆ भागमभाग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “भागमभाग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 36 – भागमभाग ☆

कुर्सी दौड़ का आयोजन चल रहा था। एक आनर सौ बीमार का दृश्य। आयोजक भी बहुत होशियार अपनी कुर्सी तो फिक्स करके बैठ गए बाकी सब को संगीत की धुन पर दौड़ा दिया। जो प्रतिभागी उनकी ओर विश्वास की दृष्टि से देखता, उसी की कुर्सी छिन जाती।  खेल शुरू हो गया। हर राउंड में, एक कुर्सी कम हो जाती , कुर्सी छोड़ कर  जाने वाला कातर निगाह से देखता और मन ही मन बड़बड़ाते हुए चला जाता। देखते ही देखते बस तीन लोग बचे अब तो समझ में ही नहीं आ रहा था कौन जीतेगा। बस आयोजक ही पूर्ण आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे।  अन्य दो प्रतिभागियों ने उनकी कुर्सी की जाँच करवाने के लिए कहा तो वो तैयार ही न हुए।

दूर बैठे वो सभी लोग जो अभी तक इस दौड़ में शामिल थे आ धमके और आयोजक को पूरी ताकत से हटाने लगे पर वो तो अपनी कुर्सी से हिल ही नहीं रहे थे।

किसी ने कहा फेविकोल का जोड़ है, हटेगा नहीं , कुर्सी ही तोड़ दो, तो न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी।

तोड़- फोड़ शुरू हो गयी। एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप की झड़ी लग चुकी थी तभी  समझाइश लाल जी देवदूत के समान आ पहुँचे। अब तो सबकी निगाहें उनकी ओर ही लगी हुई थी।

उन्होंने सर्वप्रथम कुर्सी दौड़ के आयोजक को धन्यवाद देते हुए कहा आप सचमुच बधाई के पात्र हैं , जो सबको इस तरह से जोड़ कर रखे हुए हैं। अपने भावों को व्यक्त करने का ये सशक्त माध्यम है।  मन की बात अगर मन में रह जाए,  तो ये किसी भी काल में उचित नहीं रहा है। हम सब लोग चाय पर चर्चा करते हुए इस समस्या का निराकरण भी कर लेंगे।

चाय की चुस्कियों के साथ जब – जब चर्चा होती है , तब- तब बात केवल नाश्ते पर ही रुक जाती है। क्योंकि चाय और नाश्ते का चोली दामन का साथ जो ठहरा।

खैर निष्कर्ष वही ढाक के तीन पात, जिसको इस आयोजन में भाग लेना हो वो रुके अन्यथा द्वारा खुले है। जो नियमों के अनुसार नहीं चलेगा वो जा सकता है।

अगले महीने पुनः प्रथम रविवार को कुर्सी दौड़ की प्रतियोगिता होगी जो भी जुड़ना चाहे जुड़ सकता है , बस आयोजक के नियमों को मानना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 43 ☆ हम बढ़े-बढ़े चले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “हम बढ़े-बढ़े चले.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 43 ☆

☆ हम बढ़े-बढ़े चले ☆ 

हम बढ़े- बढ़े चले

राह भी बढ़ी चली।

जीत- हार जिंदगी

खिल उठी कली- कली।।

 

सत्य मेरा मीत है

बढ़ रहा अतीत है

लिख गए हैं शब्द- शब्द

जिंदगी की प्रीति है

 

गाँव छूटता गया

शाम तो ढली-ढली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

बाँटता हूँ हर्ष मैं

कर रहा विमर्श मैं

जो मिला है ईश से

ले रहा सहर्ष मैं

 

शिशुओं की चिर हँसी

लग रही भली- भली।

जीत हार जिंदगी

खिल उठी कली- कली।।

 

पीढ़ियाँ बदल रहीं

सीढ़ियाँ मचल रहीं

नीतियाँ बदल रहीं

रीतियाँ फिसल रहीं

 

अब नदी में मैल है

भर गई तली-तली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

कुछ यहाँ से जा रहे

कुछ यहाँ पर आ रहे

जो मिला है प्रेम से

आज हम लुटा रहे

 

श्वांस-श्वांस विष भरा

आग भी जली-जली।

जीत-हार जिंदगी

खिल उठी कली-कली।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 65 – घी निकालना है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना घी निकालना है तो…। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 65 ☆

☆ घी निकालना है तो… ☆  

 

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर

या फिर श्री चरणों में उनके

अपना मस्तक धर।

 

नब्ज पकड़ कर इनकी

जमकर अपनी बात बता

चाहे तो पहले इसके

ले, जी भर इन्हें सता,

कुछ पिघलेगा, किंतु

दिखाएगा कुछ और असर

घी निकालना है तो …….।।

 

धूर्त चीन सी चालें

और चलेंगे ये बेशर्म

हमको भी ऊर्जस्वित हो

फिर हो जाना है गर्म

रखें पूँछ पर पांव, तभी

हलचल करते अजगर।

घी निकालना है तो……….।।

 

लंपट, धूर्त स्वार्थ में डूबे

इनका क्या है मोल

रहे बदलते सदा देश का

ये इतिहास भूगोल

दहन करें होली पर इनका

या की दशहरे पर।

घी निकालना है………..।।

 

सीधे-साधे लोगों की

क्या कीमत क्या है तोल

ऊपर से नीचे तक

नीचे से ऊपर तक पोल

किंतु जगा अब देश

ढहेंगे इनके छत्र-चँवर।

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16 – ☆ ख़ुशी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ख़ुशी ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16   ☆– ख़ुशी

 

एक दिन घर की खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी वहां से गुजर रही थी,

 

मैंने उसे इशारे से रोका मगर वो आगे निकल गयी ,

देखा खुशी दो दुःख दरवाज़े पर छोड़ चली गयी ||

 

दरवाजा बन्द रखने लगा दुखों के आने के डर से,

एक दिन फिर किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

दरवाजा खोलकर देखा ख़ुशी जा चुकी थी,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

एक दिन फिर खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी गुजर रही थी, मैंने रोकने की कोशिश की,

खुशी बोली कभी शक्ल देखी है अपनी आईने में,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

दुखों से संघर्ष करके जिंदगी हार गया,

खिड़की बन्द देख खुशी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

देखों आज तुम्हारे लिए खुशियों की सौगात लायी हूँ,

मुझे बेजान देख खुशी दरवाजे पर खुशियां छोड़ चली गयी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 67 – गझल – वृत्त – पीनाकी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 67 ☆

☆ गझल – वृत्त – पीनाकी ☆

(लगागागा लगागागा लगागागा लगागा)

 

अता वाटे खरेतर हे जगा माहीत होते

कशाला मी उगाचच लपविले का भीत होते

 

असावे पूर्वजन्मीचे ऋणादीबंध काही

जसे राधा मुरारीही जुने मनमीत होते

 

गझल अद्यापही ज्यांची मना वेढून आहे

कळाले नाव ते चित्रा सहित जगजीत होते

 

मला आल्या पुन्हा हाका दिशा दाही उजळल्या

तुला सांगू कसे हे काय धुंडाळीत होते

 

अशी आहे नशा जगण्यात गझलेचीच सारी

थवे आजन्म शब्दांचेच कुरवाळीत  होते

 

फुले वाट्यास आलेली जरी बेरंग  होती

तरीही  क्षण सुखाचे पूर्ण गंधाळीत होते

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 40 ☆ व्यंग्य संग्रह – ५ वां कबीर – श्री बुलाकी शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री बुलाकी शर्मा जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “५ वां कबीर  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 40 ☆ 

पुस्तक – ५ वां कबीर

व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

पृष्ठ – ११२

मूल्य – १०० रु

पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह   – ५ वां कबीर  – व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

व्यंग्य यात्रा में हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है.. जाने माने व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य उनके मुख से सुन चुका हूं. पढ़ने तो वे प्रायः मिल ही जाते हैं. प्रकाशन के वर्तमान परिदृश्य के सर्वथा अनुरूप ११२ पृष्ठीय ” ५ वां कबीर ” में बुलाकी जी के कोई ४० व्यंग्य संग्रहित हैं. स्पष्ट है व्यंग्य ८०० शब्दो के सीमित विस्तार में हैं. इस सीमित विस्तार में अपना मंतव्य पायक तक पहुंचाने की कला ही लेखन की सफलता होती है. वे इस कला में पारंगत हैं.

जितने भी लोग नये साल को किसी कारण से जश्न की तरह नही मना पाते वे नये साल के संकल्प जरूर लेते हैं, अपने पहले ही लेख में लेखक भी संकल्प लेते हैं, और आत्मनिर्भरता के संकल्प को पूरा करने के आशान्वित भरोसे के साथ व्यंग्य पूरा करते हैं. जरूर यह व्यंग्य जनवरी में छपा रहा होगा, तब किसे पता था कि कोरोना इस बार भी संकल्प पर तुषारापात कर डालेगा. दुख के हम साथी, फिर बापू के तीन बंदर पढ़ना आज २ अक्टूबर को बड़ा प्रासंगिक रहा, जब बापू के बंदर बापू को बता रहे थे कि वे न बुरा देखते, सुनते या बोलते हैं, तो टी वी पर हाथरस की रपट देख रहा मैं सोच रहा था कि हम तो बुरा मानते भी  नहीं हैं…… पांचवे कबीर के अवतरण की सूचना पढ़ लगा अच्छा हुआ कि कबीर साहब के अनुनायियों ने यह नहीं पढ़ा, वरना बिना कबीर को समझे, बिना व्यंग्य के मर्म को समझे केवल चित्र या नाम देखकर भी इस देश में कट्टरपंथियो की भावनाओ को आहत होते देख शासन प्रशासन बहुत कुछ करने को मजबूर हो जाता है. लेकिन वह व्यंग्यकार ही क्या जो ऐसे डर से अपनी अभिव्यक्ति बदल दे. बुलाकी जी कबीर की काली कम्बलिया में लिखते हैं ” मन चंचल है किंतु बंधु आप अपने मन को संयमित करने का यत्न कीजीये. ” प्याज ऐसा विषय बन गया है जिसका वार्षिक समारोह होना चाहिये, जब जब चुनाव आयेंगे, प्याज, शक्कर, स्टील, सीमेंट कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही.उनका प्याज व्यंग्यकार से कहता है कि वह बाहर से खुश्बूदार होने का भ्रम पैदा करता है पर है बद्बूदार. अब यह हम व्यंग्यकारो पर है कि हम अंदर बाहर में कितना कैसा समन्वय कर पाते हैं.

अस्तु कवि, साहित्य, साहित्यिक संस्थायें आदि पर खूब सारे व्यंग्य लिखे हैं उन्होने, मतलब अनुभव की गठरी खोल कर रख दी है. बगावती वायरस बिन्दु रूप लिखा गया शैली की दृष्टि से नयापन लिये हुये है. डायरी के चुनिंदा पृष्ठ भी अच्छे हैं.

मेरी रेटिंग, पैसा वसूल ।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆ प्रीतिचा झरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “प्रीतिचा झरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆

☆ प्रीतिचा झरा 

 

डावी खिडकी हृदयाची या उघडायाला हवी

शुद्ध येईल हवा प्रीतिची तेव्हा हृदयी नवी

 

शृंगाराचा ऐवज माझा मी तर आहे परी

सुरूंग लावू आभाळाला बरसतील या सरी

 

चिरून घेते हृदय कोवळे फाळाकडुनी धरा

पाटामधुनी वहात आहे कसा प्रीतिचा झरा

 

अंधाराचे राज्य संपले वाटतोस तू रवी

प्रकाश किरणें मला खुलवती साथ तुझी रे हवी

 

असे गीत हे गाऊ आपण असेल त्याला गती

तुझ्या नि माझ्या मधे यायला नको कधीही यती

 

प्रीत सागरा नसे किनारा अधी वाटले बला

सहज पोहून गेलो नंतर छान वाटली कला

 

जमवू काड्या बांधू घरटे घरात लावू दिवा

कुणी तरी हा पुढे वारसा सांभाळाया हवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares