मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – श्रीपांडुरंगाचा फराळ ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ☆

??️ श्रीपांडुरंगाचा फराळ ?️?

खा..ऽ..रे विठ्ठला उपासाची खिचडी..

खा…रे विठ्ठला..खा..!!धृ.!!

 

करायला घेतली उपासाची खिचडी!

साबूदाणा शेंगदाण्याने केली फाकडी !

किसून घातली त्यात मी काकडी!

खा…ऽ.रे विठ्ठला उपासाची खिचडी!!१!!

 

घेतले शेंगदाणे खमंग भाजून !

गूळ वितळवला तूप घालून!

चिक्की बनवली पाटावर थापून!

खा..ऽ..रे विठ्ठला गोड गोड चिक्की !!२!!

 

वरईचा तांदूळ तुपात भाजला !

खुमासदार छान शिजवून घेतला!

चिंच गुळाचा कोळ केला!

दाण्याच्या आमटीला कोळ घातला!

झाली चवदार तांदूळ आमटी!

खा..ऽ.रे विठ्ठला.. वाटी वाटी !!३!!

 

खजूर सोलली बिया काढूनी!

बदाम बेदाणे पिस्ते घालुनी!

मिरची मीठ चवीस घालुनी!

त्याची केली चवदार चटणी!

खा..ऽ..रे विठ्ठला.. खजूराची चटणी!!४!!

 

पिकलेली ती लिंबे आणली!

फोडी करुनी उकडून घेतली!

तिखट मीठ साखर टाकली!

झाले तयार चवदार लोणचे!

खा..ऽ.रे..विठ्ठला उपासाचे लोणचे!!५!!

खा..ऽ ..रे विठ्ठला..खा..ऽ..

 

दिनांक:-१६-११-२०

©️®️ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ मोहे चिन्ता न होय ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मोहे चिन्ता न होययह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 71 ☆

☆ मोहे चिन्ता न होय

‘उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है, लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह खुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब ग़लत है और वे लोग दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते; हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है, जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है और हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं। हम जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, सदैव चीखते -चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। यह सत्य ही है कि जिन्हें खुद पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, संशय, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को संचित कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं; कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेहग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह अंधेरे में गलत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों तक को नकार देता है; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं; हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन करना कैसे करना व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव होगा?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है,– सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की; हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम इन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/ कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख, खशी-ग़म आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सबसे हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय परिवर्तनशील है और यथासमय दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसी संदर्भ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाती प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने भासती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक; धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण; सीता का अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या की ओर गमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है– पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। खुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें।

समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। गलत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि-नियंता को भूलें नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुधबुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पातीं। अंत में कबीरदास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 23 ☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता)

☆ किसलय की कलम से # 23 ☆

☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆

सुख की चाह समग्र जीव जगत में पाई जाती है। इंसान में सुख केवल चाह न रहकर आवश्यकता बनता जा रहा है। सुख की खातिर आदमी आज कुछ भी करने को तैयार है। वह भविष्य को सुखमय बनाने के लिये नैतिक-अनैतिक हर कार्य करने से नहीं हिचकता। आज ईमानदारी, सत्यता और न्याय की बातें किताबी लगने लगी हैं। नीति, आदर्श और परोपकार की कथायें और संस्मरण अब लोग सुनने से भी कतराने लगे हैं। आज के बदलते परिवेश और सुख-स्वार्थ की अन्धी दौड़ में हम अपनी संस्कृति और धर्म को भूलते जा रहे हैं।

हमारा वेदोक्त वाक्य “संतोषम् परम् सुखम्” अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है। संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है। आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े। आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है। आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है। पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।

एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोंपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है, परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छाशक्ति की आती है। संतोष और इच्छाशक्ति का सम्बन्ध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छाशक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छाशक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि, यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृतियाँ छोड़कर जाता है।

आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैं कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाली इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि “अपनत्व” से हम बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह में हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।

हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छाशक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें, उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्मशान्ति को ढूँढें तो हमें “संतोष” ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छाशक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छाशक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 60 ☆ माँ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “माँ । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 60 ☆

☆  माँ  ☆

बच्चे माँ से कर रहे, बस यह एक सवाल

कब दोगी माँ तुम हमें, रोटी के संग दाल

 

माँ की ममता जगत में, होती है अनमोल

जन्नत चरणों में बसे, समझें माँ का मोल

 

बिन शिक्षक शिक्षा नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान

जीवन में मिलता सदा, शिक्षा से सम्मान

 

सूर्योदय लाता सदा, खुशी और उत्साह

केसर-सी चमके किरण, जिसका रंग अथाह

 

रखें राष्ट्र हित सामने, हो ऐसा निर्माण

देश-भक्ति जिनके नहीं, उनके दिल पाषाण

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – साकारली गझल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य – साकारली गझल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अंधार वेधण्याला सोकावली गझल

पाहून दीप दारी, वेडावली गझल…!

 

एकेक माणसांला, वाचीत चाललो

सा-या स्वभाव दोषा, नादावली गझल…!

 

अंधार अंतरीचा, वाटून टाकला

सोशीक यातनांना, लोभावली गझल…!

 

होकार देत गेलो,  प्रत्येक याचका

ते घाव झेलताना, आकारली गझल…..!

 

आसूत नाहलो नी, हासूत थांबलो

शब्दात मांडताना, साकारली गझल….!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 51 ☆ लघुकथा – चकनाचूर सपनें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘चकनाचूर सपनें। ऋचा जी के ही शब्दों में –  “महिलाओं  के  शोषण का यह रूप भी समाज में देखने को मिलता है  । भावनात्मक शोषण  का यह रूप बहुत भयावह होता है क्योंकि अपने ही परिवारजनों द्वारा होने वाले इस कृत्य की  कहीं शिकायत  भी  नही  की जाती   है ।  माँ  पुत्र मोह में  बेटियों के भविष्य का विचार नहीं करती।”डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण और स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 51 ☆

☆  लघुकथा – चकनाचूर सपनें

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के  काम निपटाती जा रही  थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं थी,  शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।  कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे? मैंने उसकी अविवाहित बडी बहन से पूछा, अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है। उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि दो बडी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कुमुद के मन में भी शायद ऐसा ही कुछ चल रहा हो? लडकियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? उनकी भी तो कुछ इच्छाएं, कुछ सपने होंगे? खैर छोडो, दूसरे के फटे में पैर कौन अड़ाए ?

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा हो और आपस में निंदा – पुराण ना हो, ऐसा कभी हो सकता है क्या? महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – जवान बहनें बिनब्याही बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ – बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, कुमुद के लिए तो देखना चाहिए। ढोलक की थाप के साथ नाच – गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। अरे कुमुद ! अबकी तू उठ, बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोडी प्रैक्टिस कर ले – बुआ ने हँसते हुए कहा। भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते, फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो । वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननद रानी से उलझ रही थीं – बहन जी आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने ये सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो – दो लडकियों के हाथ पीले करने  को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है ये बात, पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी —

कुमुद मगन मन नाच रही थी। ढोलक की थाप और तालियों के शोर में माँ की बात उसे  सुनाई नहीं दे रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #82 ☆ कविता – शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के, घर लौटें तो अच्छा हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक कविता  ‘शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो‘। इस सार्थक कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 82 ☆

☆ कविता शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो ☆

 कवि गोष्ठी से मंथन करते , घर लौटें तो अच्छा हो ।

शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

कौन किसे कुछ देता यूँ ही,  कौन किसे सुनता है अब,

छंद सुनें और गाते गाते,  घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

शुष्क समय में शून्य हृदय हैं, सब अपनी मस्ती में गुम,

रचनायें सुन हृदय भिगोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

अपनी अपनी पीड़ाओं से सब पीड़ित, पर सब हैं चुप

पर पीड़ा सुन, खुद को खोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

अपनी अपनी कविताओं पर, आत्ममुग्ध हैं सब के सब,

पर के भाव हृदय में ढोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

कविताओं की विषय वस्तु तो , कवि को ही तय करनी है,

शाश्वत भाव सदा सँजोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

रचना  पढ़े बिना, समझे बिन, नाम देख दे रहे बधाई

आलोचक से सहमत होते, घर लौटें  तो अच्छा हो ।।

 

कई डायरियां, ढेरों कागज, भर डाले सब लिख लिखकर,

छपा स्वयं का पढ़ते पढ़ते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

पढ़ते लिखते उम्र गुजारी, वर्षों गुजरे जलसों में,

अब जलसों में श्रोता बनके, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

बड़ा सरल है वोट न देना,  और कोसना शासन को

वोटिंग कर कर्तव्य निभाते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

पहली बारिश पर मिट्टी की सौंधी खुशबू से तर हो,

खिले खिले कुछ महके महके, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

बच्चों के सुख दुख  के खातिर  जीवन जिसने होम किया,

उसका हाथ थाम कर बच्चे , घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 42 ☆ जोर लगाकर हईशा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जोर लगाकर हईशा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 42 – जोर लगाकर हईशा… ☆

एकता और शक्ति कार्यक्रम में शक्ति का प्रदर्शन चल रहा था। सभी से एकता बनाए रखने की अपील की जा रही थी। पर एकता के तो भाव ही नहीं मिलते हैं। एक- एक मिलकर ग्यारह तो हो सकते हैं। एक- एक जल की बूंद से सागर भर सकता है। एक – एक लकड़ी मिलकर बड़ा सा गट्ठर बना सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के विचारों को एकता के सूत्र में बाँधकर रहना बहुत मुश्किल होता है ।

हर व्यक्ति अपनी ही जीत चाहता है। जिसके लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर गुटबाजी करने से भी नहीं चूकता है। एकता का जाप करते हुए मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा का गीत अवश्य ही उसका नारा होता है। परंतु कथनी और करनी का भेद यहाँ भी टपक पड़ता है। जिस तरह रस्सी खींच प्रतियोगिता में दो गुट बनाकर , दोनों ओर बराबर संख्या में प्रतिभागी होते हैं। वैसा ही किसी भी आयोजन में देखा जाता है। यहाँ लोग पुरानी बातों को एक – एक कर खोलने लगते हैं ताकि सामने वाले का मनोबल कम हो जाए। पर लोगों ने भी कोई कच्ची गोटियाँ नहीं खेली होती हैं। आयोजक ऐसे लोगों को चयनित ही करते हैं। जो आकर्षण के सिद्धांत का पालन करते हुए ही नीतियाँ बनाता और लागू करवाता हो।

जोर लगाकर हईशा…

इस नारे की गूँज से वातावरण गुंजायमान हो गया, सब लोग पूरे दमखम के साथ मैदान पर उतरे हुए थे। बस इंतजार था कि जिस दल की एकता भंग हुई वही चारो खाने चित्त होगा। पर इसकी यही तो खूबी है कि ये सत्ता पक्ष के साथ ही इतराती है। एकता को भी साजो शृंगार की आदत जो ठहरी , ये  वहीं रुकेगी जहाँ स्थायित्व हो। प्रतियोगिता अपने चरम पर थी , दर्शकों की धड़कनें थम गयीं …अब क्या होगा , सभी की निगाहें परिणाम की ओर थीं। दोनों दल पूरे मनोयोग से रस्सी खींच रहे थे। सभी ओर एक से बढ़कर एक नीतिकार योद्धा मौजूद थे। दर्शकों ने भी गुटबाजी में अपनी भलाई समझी ,सो वे भी दो समूहों में बँट कर आंनद लेने लगे। अब तो निर्णायकों को भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। उन्होंने चारों ओर निगाहें दौड़ाई और आँखों ही आँखों में ये तय कर लिया कि यदि समय पूरा हो गया और कोई आशाजनक परिणाम नहीं मिल पाया तो  इस जीत से ज्यादा फायदा जिसके द्वारा हम लोगों को मिल सकता है उसे ही विजेता बना देंगे ।

पर एकता में शक्ति होती है। सो एक समूह जो पहले से ही एकता के सूत्र की मिसाल है वो जीत ही गया क्योंकि एक – एक मोती मिलकर ही सम्पूर्ण माला को बनाते  हैं ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 49 ☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “स्वास्थ्य पर दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 49 ☆

☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ 

 

स्वस्थ वही है “चक्र” सुन , मन जो रखे  प्रसन्न।

शाकाहारी बन सदा, खा ले भाजी-अन्न ।।

 

श्वास-श्वास तेरी सखा, हरदम रहती पास।

“चक्र”समझ ले स्वयम को, ये ही तेरी खास ।।

 

“चक्र”वही रोगी रहें, जो रहते हैं खिन्न ।

जीवन तो उपहार है, रख तू सदा प्रसन्न।।

 

सत्य मार्ग ही श्रेष्ठ है,  करता है उद्धार ।

तन -मन आनंदित रहे , मिले प्रेम का हार ।।

 

जीवन तो अनमोल है, करें सैर और योग।

पाँच मिनट व्यायाम से, सुखमय रहें निरोग।।

 

योग,परिश्रम नित करूँ,सोचूँ शुभ -शुभ काम।

सभी समर्पित ईश को, मुझे कहाँ  विश्राम।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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