मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 186 ☆ अभंग…रक्षाबंध ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 186 ? 

☆ अभंग… रक्षा बंध ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

बहीण भावाचा, सण हा पवित्र

साजरा सर्वत्र, आज होई.!!

*

रक्षाबंध नामे, ओळखती याला

बहीण भावाला, राखी बांधे.!!

*

द्वापार युगात, श्रीकृष्ण द्रौपदी

देऊनिया नांदी, प्रत्यक्षात.!!

*

भरजरी शेला, फाडीला त्यावेळी

सुवर्ण सु-काळी, दिव्य लीळा.!!

*

कवी राज म्हणे, वस्त्र पुरविले

कर्तव्य ही केले, बंधुत्वाचे.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 255 ☆ व्यंग्य – मालदारों का दु:ख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘मलदारों के दुःख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 255 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मालदारों का दु:ख

देश के मालदारों के बीच कुछ दिनों से इस मामले को लेकर सुगबुगाहट थी। जब भी कहीं मालदारों का जमावड़ा होता, वह बात उछल कर सामने आ जाती। मुद्दा यह था कि देश के मालदार शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि वे अपना माल इकट्ठा करने के चक्कर में ज़िन्दगी भर जिल्लतें झेलते हैं, ई.डी., सी. बी. आई., इनकम टैक्स के छापों का सामना करते हैं, सांप की तरह अपनी संपत्ति की रक्षा करते हैं, लेकिन एक दिन सबको सिकन्दर की तरह हाथ पसारे दुनिया  से रुखसत होना पड़ता है। अरबों की संपत्ति में से एक धेला भी साथ नहीं जाता। ऊपर वाले की भी ऐसी नाइंसाफी है कि बिना कोई नोटिस दिये आदमी को अचानक पलक झपकते उठा लिया जाता है।

जमावड़ों में यह बात भी सामने आयी कि अक्सर मालदार के स्वर्गवासी या नरकवासी होने के बाद उसकी सन्तानें बाप की संपत्ति को विलासिता में उड़ा देती हैं या खुर्द-बुर्द  कर देती हैं, जिससे निश्चय ही मरहूम की आत्मा को घोर कष्ट का अनुभव होता होगा।

नतीजतन एक जमावड़े में यह निर्णय लिया गया कि सरकार से दरख्वास्त की जाए कि नई टेक्नोलॉजी का उपयोग करके ऐसा इन्तज़ाम करे  कि मालदारों की मौत के बाद उनकी संपत्ति उनकी इच्छानुसार स्वर्ग या नरक ट्रांसफर की जा सके। कहा गया कि लगता है अभी तक सरकार ने स्वर्ग और नरक को खोजने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। जब वैज्ञानिक चांद और दूसरे ग्रहों तक पहुंच सकते हैं तो स्वर्ग और नरक का पता क्यों नहीं लगा सकते? हर धर्म की किताबें स्वर्ग और नरक के बयानों से पटी हैं। बताया जाता है कि नरक में आत्मा को उबाला या गोदा जाता है और स्वर्ग में उसकी खिदमत के लिए सुन्दरियां या हूरें उपलब्ध रहती हैं। वैसे हमारे अज़ीम शायर ‘दाग़’ देहलवी इस बाबत फरमा गये हैं— ‘जिसमें लाखों बरस की हूरें हों, ऐसी जन्नत का क्या करे कोई?’ फिर भी बहुत से लोग इन हूरों से मुलाकात की उम्मीद में उम्र भर ऊपर की तरफ टकटकी लगाये रहते हैं। यह समझना मुश्किल है कि शरीर-विहीन आत्मा को कैसे उबाला और गोदा जाता है। कोई ‘वहां’ से लौट कर आता भी नहीं है कि कुछ पुख्ता जानकारी मिले। बता दें कि भगवद्गीता ने आत्मा को अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा है।

ऐसा लगता है कि ऊपर कोई सुपर कंप्यूटर है जिसमें आदमी के ज़मीन पर उतरते ही उसकी ज़िन्दगी का लेखा-जोखा अंकित हो जाता है। फिर आदमी को ‘राई घटै,न तिल बढ़ै’ के हिसाब से चलना पड़ेगा। यह प्रश्न उठता है कि पूरी दुनिया के आदमियों के लिए एक ही सुपर कंप्यूटर है या अलग-अलग धर्म के अलग कंप्यूटर हैं? इस भारी-भरकम काम को अकेले चित्रगुप्त संभालते हैं या अलग-अलग धर्म के अलग-अलग चित्रगुप्त हैं? यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या हर धर्म के अपने अलग स्वर्ग और नरक हैं?

जमावड़े के निर्णय के लीक होते ही मालदारों के परिवारों और रिश्तेदारों के बीच हड़कंप मच गया। मालदारों की अनेक संतानें  मायूस होकर ‘डिप्रेशन’ में चली गयीं। बहुत सी बहुओं ने सुबह-शाम ससुर जी के पांव छूना और उनकी आरती उतारना शुरू कर दिया। कुछ बेटों से पिताजी को धमकी मिलने लगी कि अगर उनको अपनी संपत्ति अपने साथ ही ले जाना है तो वे अपना अलग इंतजाम कर लें और उनसे सेवा- ख़िदमत की उम्मीद न रखें। कई परिवारों में बुज़ुर्गों पर नज़र रखी जाने लगी कि वे कहां जाते हैं और किससे मिलते हैं।

उधर सरकार के पास बात पहुंची तो उसकी तरफ से मालदारों को समझाया गया कि इस मांग को छोड़ दें क्योंकि यहां की मुद्रा वहां चलती नहीं है। वहां ‘बार्टर’ या वस्तु-विनिमय चलता है या स्वर्ण का आदान-प्रदान होता है। इस पर मालदारों का जवाब था कि यहां की मुद्रा वहां चले न चले, उनका इरादा उसे बरबादी से बचाना था।

दबाव ज़्यादा बढ़ा तो सरकार की तरफ से निर्णय लिया गया कि तत्काल एक ताकतवर अंतरिक्ष-यान पर काम शुरू किया जाए जो स्वर्ग और नरक तक पहुंच सके और फिर वहां कुछ बैंकों की शाखाएं खोली जाएं जहां मालदारों का माल ट्रांसफर किया जा सके। इसके लिए ऊपर पहुंचे हुए बैंक कर्मचारियों, अधिकारियों की मदद ली जा सकती है।

सरकार से निर्देश पाकर वैज्ञानिक एक पावरफुल अंतरिक्ष-यान के निर्माण में जुट गये हैं जो स्वर्ग और नरक को ढूंढ़ निकालेगा। दूसरी तरफ मालदारों के परिवार-रिश्तेदार ऊपर वाले से प्रार्थना करने में जुट गये हैं कि वैज्ञानिकों की कोशिश कारगर न हो।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 254 – शिवोऽहम्… (5) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 254 शिवोऽहम्… (5) ?

आत्मषटकम् पर मनन-चिंतन की प्रक्रिया में आज पाँचवें श्लोक पर विचार करेंगे। अपने परिचय के क्रम में अगला आयाम आदिगुरु शंकराचार्य कुछ यूँ रखते हैं,

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म:

न बंधुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

इसका शाब्दिक अर्थ है कि न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है। न मेरा कोई पिता है, न कोई माता है, न ही मेरा जन्म हुआ है। न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु  है और न ही कोई शिष्य। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

मृत्यु के संदर्भ में देखें तो शंकराचार्य जी महाराज के कथन से स्पष्ट है कि देह छूटना आशंका नहीं होना चाहिए। यों भी यात्रा में पड़ाव आशंका नहीं हो सकता। यात्रा तो परमात्मा के अंश की है, यात्रा आत्मा की है। यात्रा के सनातन और यात्री के शाश्वत होने का प्रसंग आए और योगेश्वर उवाच स्मृति में न आए, यह संभव ही नहीं। भगवान गीतोपदेश में कहते हैं,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

मैं मृत्यु नहीं हूँ, अत: स्वाभाविक है कि जन्म भी नहीं हूँ। जो कभी जन्मा ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जो कभी मरा ही नहीं, वह जन्मेगा कैसे?..ओशो की समाधि पर लिखा है, ‘नेवर बॉर्न, नेवर डाइड, ऑनली विज़िटेड दिस प्लानेट अर्थ बिटविन….’ उन्होंने न कभी जन्म लिया, न उनकी कभी मृत्यु हुई। वे केवल फलां तिथि से फलां तिथि तक सौरग्रह धरती पर रहे।’

विचार करें तो बस यही अवस्था न्यूनाधिक हर जीवात्मा की है। स्पष्ट है कि केवल जन्म और मृत्यु तक सीमित रखकर जीवन नहीं देखा जा सकता।

पिता न होना अर्थात किसीके जन्म का कारक न बनना और माता न होना अर्थात किसीको जन्म देने का कारण न होना। जन्म से मृत्यु तक जीवात्मा द्वारा देह धारण  करने का कारण और कारक परमात्मा ही हैं। प्राप्त देह, यात्रा की निमित्त मात्र है।

न मार्ग का दर्शन, न मार्ग का अनुसरण.., न गुरु होना, न शिष्य होना। बंधु, मित्र न होना, रक्त का या परिचय का सम्बंध न होना। जगत के सम्बंधों तक सीमित नहीं है अस्तित्व। माता, पिता, गुरु, शिष्य, बंधु, मित्र इहलोक के नश्वर सम्बंध हैं जबकि जीवात्मा ईश्वर का आंशिक अवतरण है।

जातिभेद का उल्लेख करते हुए आदिगुरु स्पष्ट करते हैं कि मैं न कुलविशेष तक सीमित हूँ, न ही वंशविशेष हूँ।  ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ …जाति का एक अर्थ उत्पत्ति भी है। जीवात्मा उत्पत्ति और विनाश से परे है।

जीवात्मा अपरिमेय संभावना है जिसे देह और मर्त्यलोक की आशंका तक सीमित कर हम अपने अस्तित्व को भूल रहे हैं। अपनी एक रचना स्मरण आ रही है,

संभावना क्षीण थी, आशंका घोर,

बायीं ओर से उठाकर, आशंका के सारे शून्य

धर दिये संभावना के दाहिनी ओर..,

गणना की संभावना खो गई,

संभावना अपरिमेय हो गई..!

मनुष्य अपने अस्तित्व की अपरिमेय संभावनाओं को पढ़ने लगे तो कह उठेगा,..’मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ,…शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 201 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 201 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 201) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 201 ?

☆☆☆☆☆

हो के मायूस यूँ ना

शाम से ढलते रहिए

ज़िंदगी आफ़ताब है

रौशन निकलते रहिए…

☆☆

Being  dejected don’t you

ever be the dusking Sun

Life is like the radiant Sun

Keep  rising  resplendently…!

☆☆☆☆☆

ना इलाज  है 

ना   है दवाई….

ए इश्क तेरे टक्कर 

की  बला  है आई…

☆☆

Neither  exists  any  cure

Nor is  there  any medicine

O’ love ailment matching you

Has  emerged on  the earth…!

☆☆☆☆☆

ये जब्र भी देखा है

तारीख की नज़रों ने

लम्हों ने खता की थी

सदियों ने  सजा पाई…!

☆☆

Have also seen such constraints

Through the eyes of the time

Moments had committed mistake

But the centuries got punished!

☆☆☆☆☆

हर बार उड़ जाता है

मेरा कागज़ का महल…!

फ़िर  भी  हवाओं  की

आवारगी पसंद है मुझे…

☆☆

Flies away every time

My cardboard palace …!

Still I adore  the winds

Loafing around freely…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 201 ☆ मुक्तक सलिला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तक सलिला…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 201 ☆

☆ मुक्तक सलिला☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

बोल जब भी जबान से निकले,

पान ज्यों पानदान से निकले।

कान में घोल दे गुलकंद ‘सलिल-

ज्यों उजाला विहान से निकले।।

*

जो मिला उससे है संतोष नहीं,

छोड़ता है कुबेर कोष नहीं।

नाग पी दूध ज़हर देता है-

यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।।

*

बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी,

गंध में गंध घुल रही न्यारी।

मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-

तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।

*

आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,

शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।

नेह की भेंट आप लाई हैं-

चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।

*

ये प्रभाकर ही योगराज रहा,

स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।

ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-

हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।

करी कल्पना सत्य हो रही,

कालिख कपड़े श्वेत धो रही।

कांति न कांता के चहरे पर-

कलिका पथ में शूल बो रही।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-४-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : जागते रहो (लघुकथा संग्रह)

लेखक : मनोज धीमान

प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली।

पृष्ठ : 96

मूल्य : 225 रुपये

☆ मनोज धीमान का “जागते रहो” – समाज को जगाने झकझोरने वाली लघु कथायें – कमलेश भारतीय ☆

मनोज धीमान से कभी रूबरू होने का  मौका तो नहीं बना अभी तक लेकिन पाठक मंच और सिटी एयर न्यूज में हम रोज़ मिलते हैं। बस, मुलाकात होना बाकी है। वे भी मेरी तरह पत्रकार और साहित्यकार हैं। अभी अभी उन्हें गुरु नानक देव‌ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ किसी महत्त्वपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है। यह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है। यह उनकी पहली किताब नहीं है। पर लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संग्रह है -जागते रहो! न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने बहुत खूबसूरत ढंग से और पाॅकेट बुक साइज में प्रकाशित किया है।

अब आते हैं इसकी लघुकथाओं पर! जैसा संग्रह का नाम है, वैसी ही समाज को जगाने व सचेत करने वाली चुटीली लघुकथायें हैं इसमें! सबसे ज्यादा शीर्षक लघुकथा ही जगाने वाली है-जागते रहो, किससे? सरकार की चाल ही नहीं, उसके दुष्प्रचार से क्योंकि धर्म, जाति में बांटने के बाद नये नये न्यूज चैनल चला कर आमजन को गुमराह करने की चाल भी सत्तापक्ष चल रहा है, इसलिए जागते रहो। यह सर्वविदित है कि आज मीडिया किस गहरे गड्ढे में गिर चुका है। मीडिया को सत्तापक्ष ने पालतू बना रखा है, इससे जागते रहो। मदर्ज़ डे को हम मोबाइल पर ही सेलिब्रेट करते हैं जबकि मां दवाई मांग रही है और उसे अनसुना किये जा रहा है बेटा! दिखावा जरूरी, संवेदना गायब! मोबाइल पर, मोबाइल से हमारे जीवन में, रिश्तों में आ रहे बदलाव पर कुछ और लघुकथायें भी हैं। सबसे बड़ी है -झुनझुना! बच्चे जो अपनी खेलों में मस्त रहते थे, झुनझुने से भी खुश हो जाते थे, वही बच्चे अब झुनझुने से नही, मोबाइल से खेलते हैं और दादा का लाया झुनझुना फेंक देते हैं। दंगों में जो आग की लपटें उठती हैं, उनसे दूसरों के घर जलाने वालों के घर भी जल जाते हैं, आग से वे भी कहां बच पाते हैं? यही संदेश देने की कोशिश है! फलों की रेहड़ी लगाने वाला खुद फल खा नहीं पाता और डाॅक्टर सलाह देता है कि फल खाया करो, यह हमारे समाज की बड़ी विडंबना है। नारी के मेकअप का एक पल जब तक खत्म होता है तब तक पति का बाहर जाने का मूड ही नहीं रहता। ऐसी ही रचना लिपस्टिक भी है। महिला रचनाकार के भ्रम में एक पाठक सरोज नाम की लेखिका को मिलने जाता है तो पता चलता है, वे दीना नाथ सरोज हैं यानी सरोज उनका उपनाम है और यह जानकारी मिलते ही प्रशंसक उल्टे पांव भाग लेता है। मेरा खुद का नाम महिलाओं से मिलता होने के चलते ये मज़ेदार स्थितिया़ं अनेक बार आई हैं। ये लेखन के नहीं, महिलाओं के प्रशंसक हैं! भ्रष्टाचार और ईमानदारी की जंग निरंतर जारी है। दलबदल अब किसी गंगा स्नान से कम नहीं, सत्ताधारी दल में शामिल होना किसी गंगास्नान से कम नहीं रहा। लेखकों पर चोट है सोने की कलम! जब सत्ता सम्मान में सोने की कलम दे देती है तो लेखक सत्ता के खिलाफ कलम ही नहीं उठा पाता! काॅफी का स्वाद तब एकदम फीका और बेस्वाद हो जाता है, जब प्रेमिका अपनी शादी की खबर सुनाती है और तुम पहले जैसे नहीं रहे में काॅफी का स्वाद बढ़ जाता है जब पति बधा करवाता है और पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालते हैं। पुलिस ही डाॅन की भूमिका में हैं लेकिन टी शर्ट वाला बाबा जैसी लघुकथा इसमें अखरती है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो सुनील‌ ने लघुकथा पर भूमिका के रूप में गहरी टिप्पणी की है जो लघुकथा को समझने में काम आयेगी। काफी शोध के बाद लिखी लगती है भूमिका!

मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बधाई मनोज‌। 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #250 – 135 – “शायरी का तुम भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल शायरी का तुम भी…” ।)

? ग़ज़ल # 135 – “शायरी का तुम भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मौत को तुम बहुत आसान समझते हो,

उसे चंद लम्हों का मेहमान समझते हो।

*

बीस पच्चीस ग़ज़ले कहकर मशहूर हुए,

शायरी का तुम भी अरकान समझते हो।

*

चार-पाँच कुश्तियाँ लड़ कूदने फाँदने लगे,

तुम ख़ुद को बड़ा पहलवान समझते हो।

*

तुमने आठ-दस किताब समीक्षाएँ लिखीं,

तब से तुम ख़ुद को कद्रदान समझते हो।

*

यार तुम बड़े खेमेबाज़ निकले महफ़िल के,

आतिश ख़ुदको अदब की शान समझते हो।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 127 ☆ हाइकु ☆ ।।नारी… मेरा क्या कसूर।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 127 ☆

हाइकु ☆ ।।नारी… मेरा क्या कसूर।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

आजाद कली

मानवता   क्षरण

वो गई छली।

[2]

वस्तु भोग की

मानसिकता   बनी

आज लोगों की।

[3]

नारी सम्मान

सदा से ही जरूरी

देना ये मान।

[4]

आज मानव

प्रभु क्या हो रहा

बना दानव।

[5]

रावण आज

रावण जिंदा अभी

दुष्कर्म काज।

[6]

नारी अस्मिता

लाज का मोल भूले

यह दुष्टता।

[7]

काम पिपासा

हैवान बना व्यक्ति

मरी है आशा।

[8]

रचनाकार

नारी सृष्टि रचे है

करो स्वीकार।

[9]

ये व्यभिचार

मां पत्नी बेटी देखो

करो विचार।

[10]

नारी बोलती

मेरा   क्या    कसूर

क्यों मैं झेलती।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 191 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – मोहब्बत… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “मोहब्बत। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 191 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत मोहब्बत ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मोहब्बत एक पहेली है जो समझाई नहीं जाती ।

है दिल की वह सहेली जो कि जब आई नहीं जाती ।।

*

किसी की याद में मन भूल सब, बेचैन रहता है,

अकेला बात करता, खुद ही सुनता, खुद से कहता है।

कभी अपने में हँसता या कभी खुद चैन खोता है

मगर मन की लगी औरों से बतलाई नहीं जाती ।। १ ।।

*

जलाती तन को फिर भी मन को अक्सर खूब भाती है।  

भुलाने की करो कोशिश तो ज्यादा याद आती है ।

जो अच्छी लगती सबको, पै जमाना जिस पै हँसता है

बढ़ाती ऐसी बेचैनी जो बतलाई नहीं जाती ।। २ ।।

*

सुहानी रोशनी है जिससे दुनियाँ में उजाला है,

मिली जिसको ये सचमुच वो बड़ी तकदीर वाला है।

सभी तो चाहते, पाते मगर कुछ ही हजारों में है

उलझन ऐसी मीठी जो कि सुलझाई नहीं जाती ।। ३ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #246 ☆ मनन, अनुसरण, अनुभव… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मनन, अनुसरण, अनुभव… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 246 ☆

☆ मनन, अनुसरण, अनुभव… ☆

ज्ञान तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है– प्रथम मनन, जो सबसे श्रेष्ठ है, द्वितीय अनुसरण सबसे आसान है और तृतीय अनुभव जो कटु व कठिन है– सफलता प्राप्ति के मापदंड हैं। इंसान   संसार में जो कुछ देखता-सुनता है, अक्सर उस पर चिंतन-मनन करता है। उसकी उपयोगिता- अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य, ठीक-ग़लत लाभ-हानि आदि विभिन्न पहलुओं के बारे में सोच-विचार करके ही निर्णय लेता है– ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। यह सर्वश्रेष्ठ माध्यम है तथा किसी ग़लती की संभावना नहीं रहती। दूसरा माध्यम है अनुसरण–यह अत्यंत सुविधाजनक है। इंसान महान् विद्वत्तजनों का अनुसरण कर सकता है। इसमें किसी प्रकार की ग़लती की संभावना नहीं रहती तथा इसे अभ्यास की संज्ञा भी दी जाती है। तृतीय अनुभव जो एक कटु मार्ग है, जिसका प्रयोग वे लोग करते हैं, जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते तथा अपने अनुभव से ही सीख लेते हैं। वे उससे होने वाले परिणामों से अवगत नहीं होते। वे यह जानते हैं कि इससे उनका लाभ होने वाला नहीं, परंतु वे उसका अनुभव करके ही साँस लेते हैं। ऐसे लोगों को हानि उठानी पड़ती है तथा आपदाओं का सामना करना पड़ता है।

विद्या रूपी धन बाँटने से बढ़ता है। परंतु इसके लिए ग्रहणशीलता का मादा होना चाहिए तथा उसमें इच्छा भाव होना अपेक्षित है। मानव की इच्छा शक्ति यदि प्रबल होती है, तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो वह सीखना चाहता है, उसमें और अधिक जानने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति महान् आविष्कारक होते हैं। वे निरंतर प्रयासरत रहते हैं तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखते। ऐसे लोगों का अनुसरण करने वाले ही ठीक राह पर चलते हैं; कभी पथ-विचलित नहीं होते। सो! अनुसरण सुगम मार्ग है। तीसरी श्रेणी के लोग कहलाते मूर्ख कहलाते हैं, जो दूसरों की सुनते नहीं और उनमें सोचने-विचारने की शक्ति होती नहीं होती। वे अहंवादी केवल स्वयं पर विश्वास करते हैं तथा सब कुछ जानते हुए भी वे अनुभव करते हैं। जैसे आग में कूदने पर जलना अवश्यम्भावी है, परंतु फिर भी वे ऐसा कर गुज़रते हैं।

मानव में इन चार गुणों का होना आवश्यक है– मुस्कुराना, प्रशंसा करना, सहयोग करना व क्षमा करना। यह एक तरह के धागे होते हैं, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं। दूसरी तरफ रिश्ते हैं जो ज़रा सा उलझते ही टूट जाते हैं। जो व्यक्ति जीवन में सदा प्रसन्न रहता है तथा दूसरों की प्रशंसा कर उन्हें  प्रसन्न करने का प्रयास करता है, सबके हृदय के क़रीब होता है। इतना ही नहीं, जो दूसरों का सहयोग करके प्रसन्न होता है, क्षमाशील कहलाता है। उसकी हर जगह सराहना होती है. वास्तव में यह उन धागों के समान है, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं और रिश्ते ज़रा से उलझते ही टूट जाते हैं। वैसे रिश्तों की अहमियत आजकल कहीं भी रही नहीं। वे तो दरक़ कर टूट जाते हैं काँच की मानिंद।

अविश्वास आजकल सब रिश्तों पर हावी है, जिसके कारण उसमें स्थायित्व होता ही नहीं। मानव आजकल अपने दु:ख से दु:खी नहीं रहता, दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी व परेशान रहता है, क्योंकि उसमें ईर्ष्या भाव होता है। वह निरंतर यह सोचता रहता है कि जो दूसरों के पास है, उसे क्यों नहीं मिला। सो! वह अकारण हरपल दुविधा में रहता है तथा अपने भाग्य को कोसता रहता है, जबकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि इंसान को समय से पहले व भाग्य से अधिक कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए  उसे सदैव समीक्षा करनी चाहिए तथा निरंतर कर्मशील रहना कारग़र है, क्योंकि जो उसके भाग्य में है, अवश्य मिलकर रहेगा। सो!

मानव को प्रभु  पर विश्वास करना चाहिए। ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ‘कलयुग केवल नाम आधारा’ अर्थात् कलयुग में केवल नाम स्मरण ही प्रभु-प्राप्ति का एकमात्र सुगम उपाय है। अंतकाल यही उसके साथ जाता है तथा शेष यहीं धरा रह जाता है।

मौन वाणी की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है और सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसमें नौ गुण निहित रहते हैं। इसलिए मानव को यह शिक्षा दी जाती  है कि उसे तभी मुँह खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अन्यथा उसे मौन को सर्वश्रेष्ठ आभूषण समझ धारण करना चाहिए। सत्य व प्रिय वचन वचन बोलना ही वाणी का सर्वोत्तम  गुण हैं और धर्मगत अथवा कटु व व्यंग्य वचनों का प्रयोग भी हानि पहुंचा सकता है। इसलिए हमें विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि ‘अजीब चलन है ज़माने का/ दीवारों में आएं दरारें तो/ दीवारें गिर जाती हैं। पर रिश्तों आए दरार तो/ दीवारें खड़ी हो जाती हैं।’ इसलिए हमें दरारों को दीवारों का रूप धारण करने से रोकना चाहिए। संवाद के माधुर्य के लिए संबोधन की मधुरता अनिवार्य है। शब्दों का महत्व संबंधों को जीवित रखने की संजीवनी है। सो! संबंध तभी बने रहेंगे, यदि संबोधन में माधुर्य होगा, क्योंकि प्रेम वह चाबी है, जिससे हर ताला खुल सकता है।

‘बहुत से रिश्ते तो इसलिए खत्म हो जाते हैं, क्योंकि एक सही बोल नहीं पाता और दूसरा सही समझ नहीं पाता।’ इसके लिए जहाँ वाणी माधुर्य की आवश्यकता होती है, वहीं उसे सही समझने का गुण भी आवश्यक है। यदि हमारी सोच नकारात्मक है तो हमें ठीक बात भी ग़लत लगना स्वाभाविक है। इसलिए रिश्तों में गर्माहट का होना आवश्यक है और हमें उसे दर्शाना भी चाहिए। जो भी हमें मिला है, उसे खुशी से स्वीकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रहे हैं भगवान कृष्ण के यह शब्द ‘मैं विधाता होकर भी विधि के विधान को नहीं टाल सका। मेरी चाह राधा थी और चाहती मुझे मीरा थी, परंतु मैं रुक्मणी का होकर रह गया। यह विधि का विधान है।’ सो!  होइहि वही जो राम रचि राखा।

रिश्ते ऐसे बनाओ, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो। जो इंसान आपकी भावनाओं को बिना बोले  ही समझ जाए, वही सर्वश्रेष्ठ होता है। सो! कठिन समय में जब मन से धीरे से आवाज़ आती है कि सब अच्छा ही होगा। वह आवाज़ परमात्मा की होती है। इसलिए मानव को मनन करना चाहिए तथा संतजनों के श्रेष्ठ वचनों का अनुसरण करना चाहिए। सत्य में विश्वास कर आगे बढ़ना चाहिए तथा उनके अनुभव से सीखना अर्थात् अनुसरण करना सर्वोत्तम है। व्यर्थ व अकारण अनुभव करने से सदैव मानव को हानि होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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