हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 62 – राजभाषा विशेष – अपनी हिंदी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर समसामयिक रचना अपनी हिंदी…… । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 62 ☆

☆ राजभाषा विशेष – अपनी हिंदी….  ☆  

 

हिंदी अपनी सहज सरल है

पानी जैसी शुद्ध तरल है।

पढ़ने  सुनने  में  है प्यारी

जैसे घर की हो फुलवारी

झर झर बहती मुख से हिंदी

ज्यों निर्मल जलवाहक नल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

 

हिंदी  सबके  मन  को भाए

कथा कहानी औ’ कविताएं

ज्ञान ध्यान विज्ञान की इसमें

सारी दुनिया की हलचल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

 

संविधान में यह शामिल है

देशवासियों का ये दिल है

अपनाया संसार ने हिंदी

इसमें जीवन सूत्र सबल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

 

संस्कृत से निकली है हिंदी

लोकबोलियां मिश्रित हिंदी

पुण्य प्रतापी इस हिंदी में

गंगा की मधुरिम कल-कल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है।।

 

हिंदी में ही जन गण मन है

हिंदी  में  साहित्य सृजन है

हिंदी  का  सम्मान  करें,

अपनी हिंदी निश्छल निर्मल है।

हिंदी अपनी सहज सरल है

पानी जैसी शुद्ध तरल है।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 43 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – राजभाषा विशेष – महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा

 

गांधीजी बहुभाषी थे। गुजराती उनकी मातृ भाषा थी, अंग्रेजी और संस्कृत उन्होंने स्कूली शिक्षा के दौरान सीखी, लैटिन जब  इंग्लैंड में बैरिस्टर बन रहे तब सीखी और तमिल व उर्दू दक्षिण अफ्रीका में सीखनी पडी क्योंकि उनके मुवक्किल उर्दू भाषी मुसलमान थे या दक्षिण भारतीय तमिल भाषी। बाद में जब वे 1922 में यरवदा जेल में कैद थे तब इन भाषाओं में प्रवीणता हांसिल कर उन्होने काफी पुस्तकें पढी। गांधीजी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे और इस हेतु वे पांच तर्क देते थे :

  1. हिन्दी ऐसी भाषा जिसे समझना और उपयोग में लाना सरकारी कर्मचारियों के लिए अन्य भाषाओं की तुलना में आसान है। अंग्रेजों के लम्बे शासन के बाद भी बहुत कम भारतीय कर्मचारी अंग्रेजी में पारंगत हुए और इसी प्रकार मुग़ल बादशाह भी फारसी-अरबी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके उन्होंने भी हिन्दी की व्याकरण के आधार पर नई भाषा उर्दू से काम चलाया।
  2. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसके उपयोग से भारतीयों का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज आसानी से हो सकता है। हिन्दुओं के कर्मकांड संस्कृत में होते हैं लेकिन आमजन उसे हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में सुनना पसंद करते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम व ईसाई धर्मावलम्बी भी अपनी प्रार्थना में हिन्दी का प्रयोग बहुतायत में करते हैं।
  3. हिन्दी ऐसी भाषा है जिसे अधिकाँश भारतीय बोल सकते हैं और उसमे आसानी से पारंगत भी हो सकते हैं।
  1. हिन्दी भाषा राष्ट्र के लिए आसान है। लोग इसे सीख सकते हैं और अनेक प्रांतीय भाषाएं संस्कृत परिवार से निकली हैं अत: उनमे काफी हद तक समानता भी है।
  2. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाएँ क्षणिक समय के लिए तो राज-काज की भाषा हो सकती है लेकिन आगे चलकर उसकी आवश्यकता अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक कामकाज के अलावा नहीं रहेगी।

लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर गांधीजी का सपना आज भी अधूरा ही है वह अनेक प्रयासों के बाद भी  पूरा नहीं हुआ है। मातृ भाषा में शिक्षा को लेकर जो भी प्रयास हुए वे सफल नहीं हो सके और इसने लोगों के मध्य आर्थिक व वैचारिक खाई को और चौड़ा किया है। अंग्रेजी आभिजात्य समुदाय की भाषा थी और अंग्रेजी में विशेष कौशल के दम पर यह समुदाय भारत की नौकरशाही की रीढ़ बना रहा। मध्यमवर्गीय परिवारों ने साठ-सत्तर के दशक में अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाया लेकिन कालांतर में जब उन्हें अपने सपने पूरे करने में अंग्रेजी की कमी अखरी तो उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना शुरू किया। शहर के मध्यमवर्गीय परिवारों से शुरू हुई यह बीमारी आज गावों और निम्न आय वर्ग को लोगों में भी फैल गई है। इसने ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने का दावा करने वाले निजी स्कूलों की बाढ़ सी ला दी है और यह शिक्षण अभी केवल लड़कों को उपलब्ध है और इस प्रकार अंग्रेजी आज लैंगिक भेदभाव का भी पोषक बन गई है।

हिन्दी को लेकर दक्षिण भारत में अस्वीकार्यता तो शुरू से ही रही है और 1960-70 के दौरान तो वहाँ उग्र हिन्दी विरोधी आन्दोलन हुए। लेकिन सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक क्षेत्रों, बैंको आदि  में रोजगार के अवसर तलाशने उत्तर भारत आए दक्षिण भारतीयों ने हिन्दी को प्रेम से अपनाया। आज इन लोगों के बच्चे हिन्दी लिखने, पढने व बोलने में पारंगत हैं लेकिन वे अपनी मातृ भाषा केवल बोल सकते हैं लिख-पढ़ नहीं सकते। अब सरकारों  व बैंकों में  नौकरियों में भर्ती  कम होने से दक्षिण भारतीयों का उत्तर भारत आना कम हुआ है और इससे उनका हिन्दी सीखना भी प्रभावित हुआ है। दूसरी ओर दक्षिण भारत में रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं और उत्तर भारत से इंजीनियर से लेकर मजदूर तक दक्षिण भारत की ओर रुख कर रहे हैं और वहाँ जाकर दोनों पक्ष एक दूसरे की भाषा सीख रहे हैं। इससे आशा की जा सकती है कि हिन्दी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने का अवसर बढेगा।

नई शिक्षा नीति में सरकार ने यह प्रस्ताव किया था कि प्राथमिक स्कूल स्तर बच्चे मातृ भाषा के अलावा एक भारतीय क्षेत्रीय भाषा और मिडिल स्कूल में  अंग्रेजी भाषा सीखे लेकिन क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक विरोध के कारण यह प्रस्ताव वापस ले लिया गया है। आज़ाद भारत में यह पहला अवसर नहीं है जब भाषा को लेकर राजनीतिक टकराव न हुआ हो। पुराने अनुभव यही बताते हैं कि एक राष्ट्र एक भाषा का नारा राजनीतिक दलों के हीन दृष्टिकोण  की बलि   चढ़ता रहेगा। एक देश की एक भाषा का सपना केवल जनता की इच्छा शक्ति ही पूरा कर सकती है।

सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुली किताब ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब

 

जब खुली किताब थी मेरी जिंदगी,

तब किसी ने पढ़ी नही, सब जिंदगी के अनचाहे पन्ने ही पढ़ते रहे ||

 

दुनिया मुझे गुनाहगार ठहराती रही,

मेरे लफ्ज़ मेरी बेगुनाही की कहानी चीख़-चीख़ कर कहते रहे ||

 

किसी ने मेरी आवाज सुनी नहीं,

सब मेरी जिंदगी की किताब को रद्दी समझ इधर-उधर पटकते रहे ||

 

आज जब जिंदगी की किताब पूरी हो गयी,

सब लोग आज मेरी जिंदगी के सुनहरे पन्नों के कसीदे पड़ने लगे ||

 

कल तक जो मुझे देखना पसन्द नहीं करते थे,

वे आज मेरी जिंदगी की किताब के पन्ने पलट-पलट कर रोने लगे ||

 

कल तक जो मुझ पर थूकना पसन्द नही करते थे,

वे ही आज मेरी लाश पर सर पटक-पटक कर बेतहाशा रोने लगे ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 43 ☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  रचना  स्वार्थ कितना गिराता है । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 42 ☆

☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆

 

मन में जो बस गये

दिल में जो उतर गये

 

इक झलक क्या देखी

अपने ही होश कतर गये

 

है हरजाई वह  बेदर्दी

क्षणिक प्यार को तरस  गये

 

दूरियां कम होंगी सोचा था

पर खाईयों के पल बढ़ गये

 

स्वार्थ कितना गिराता है

सच को मसल आगे बढ़ गये

 

दिल रोया तड़प उठा था

बदल जाने किस बात पर  गये

 

सच खूब कहा है किसी ने

हैं कुछ और  कुछ और दिखा गये

 

मैं गलत थी सच सामने था

प्यार मे  हैं   कुछ और दिखा गये

 

प्यार उनका रहे सलामत

उस राह हम क्यों चले गये

 

लौटते हैं आज हम अपने में

चले थे पर वहीं फिर  आ गये।

 

न भरोसा न विश्वास अब नहीं

अपना काम  साथ बस यही

 

ईश्वर की करामात रही

उसने ही हकीकत दिखाई।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 64 – पूर्वज ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक विषय पर आधारित अतिसुन्दर रचना  पूर्वज। सुश्री प्रभा जी ने इस काव्याभिव्यक्ति में वरिष्ठतम पीढ़ी के माध्यम से अपने पूर्वजों का स्मरण किया है। जो निश्चित ही अभूतपूर्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 64 ☆

☆ पूर्वज  ☆

 

ते कोण असतात? कुठून आलेले??

आपल्याला माहित नसते त्यांच्याबद्दल फारसे काही…..

किंवा सांगीवांगी ,

ऐकून असतो आपण,

त्यांच्या पराक्रमाच्या गाथा!

मूळगावातला तो भग्न पडका वाडा पाहून—-

दाटून आली मनात अपार कृतज्ञता,

किती पराक्रमी होते आपले पूर्वज!

वारसदारांपैकी एकच आनंदी चेह-याची बाई,

तग धरून त्या वाड्यात—-

आपले म्हातारपण सांभाळत!

तिने सांगितले अभिमानाने—

आपला धडा आहे इतिहासात,

कोणत्या लढाईत मिळाली होती….सात गावं इनाम आणि हा बुलंद वाडाही!

आपण इनामदार, देशमुख,

अमक्या तमक्याचे वंशज—-

असे बरेच सांगत राहिली ती……

मुले शहरात बंगला बांधून सुखसोयीत रहात असताना…..

ती इथे एकटी….

 

वाड्याच्या वैभवशाली खुणा सांगत—-

किती ऊंट किती हत्ती घोडे, किती जमीन….किती पायदळ!किती लढाया!!

 

हे सारे खरे असले तरी,

पूर्वज ठेऊन जातात, जमीनजुमला, घरे,वाडे…..

ते कुठे राहते  टिकून काळाच्या प्रवाहात??

कुणी म्हणतही असेल तिला,

वाड्याची मालकीणबाई…

 

पण प्रत्येकाला जिंकायची असते आता….

आयुष्याची लढाई स्वतःच स्वतःसाठी…..

हेच सांगते ती ऐंशी वर्षाची म्हातारी,

चुलीवरचा चहा उकळत असताना !

लढण्याचं बळ देतात पूर्वज…..

 

हिच काय ती पूर्वपुण्याई !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 50 ☆ पूनम के चाँद  ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “पूनम के चाँद  ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 50 ☆

पूनम के चाँद  ☆

 

बेपरवाह सी रात

और बेपरवाह सी मैं!

 

क्यों हो गयी हूँ इतनी बेफिक्र?

क्यों नहीं बचा कोई डर,

जबकि एक समय ऐसा भी था जब

ज़हन के हर टुकड़े में

बस घबराहट समाई रहती थी?

ज़रा सी बात पर

अमावस्या होने की आहट भी से

सीना कांप उठता था,

रूह थरथरा उठती थी

और मैं छुप जाती थी

किसी किताब के पीछे?

 

अब तो

न अमावस्या से रूह कांपती है

न पूनम के चाँद को देखकर

खुशी की गंगा बहती है –

अब तो मेरे रग-रग में

यूँ ही ख़ुशी भर उठी है

और बस गए हैं मेरे जिगर में

पूनम के कई चाँद!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 38 ☆ ललित निबंध संग्रह – तन रागी मन बैरागी – डा देवेन्द्र जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डा देवेन्द्र जोशी जी  के  ललित निबंध संग्रह  “तन रागी मन बैरागी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 38 ☆ 

तन रागी मन बैरागी (ललित निबंध संग्रह)

लेखक –  डा देवेन्द्र जोशी 

प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा

मूल्य  १२५ रु

पृष्ठ ११२

☆ पुस्तक चर्चा –ललित निबंध संग्रह   – तन रागी मन बैरागी  – लेखक – डा देवेन्द्र जोशी 

मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है

जीवन जीना सहज न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी है

… निदा फाजली

जीवन  का भाव  पक्ष सदैव मर्मस्पर्शी होता है.  जब अपने स्वयं के अनुभवो के आधार पर कोई ललित निबंध लिखा जाता है तो वह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है व पाठक को सीधा हृदयंगम हो, उसके अंतः को प्रभावित करता है.  ऐसे निबंध पाठक को जीवन दृष्टि देते हैं, उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं.  तन रागी मन बैरागी में संकलित प्रत्येक निबंध मैंने फुरसत से पढ़ा है, मैं कह सकता हूं कि ये निबंध डा जोशी की वैचारिक अभिव्यक्ति हैं, जो पाठक को चिंतन की प्रचुर समृद्ध सामग्री व दिशा देते हैं.  निदा फाजली के जिस शेर से मैंने अपनी बात शुरू की है, उसके बिल्कुल अनुरूप इस पुस्तक का प्रत्येक निबंध जीवन की फनकारी सिखलाता है.  लेखक डा देवेन्द्र जोशी चेतावनी के स्पष्ट स्वर में प्रारंभ में ही लिखते हैं, जिनमें जिंदा रहने का अहसास मर चुका है कृपया वे इस पुस्तक को न पढ़ें, सचमुच संग्रह के सभी निबंध जिंदगी के बहुत निकट हम सबके बिल्कुल आसपास के विषयों पर हैं.  अनावश्यक विस्तार  से मुक्त, छोटे छोटे निबंध हैं,  शीर्षक की सीधी वैचारिक अनुकरणीय विवेचना है.  पहला संस्करण हाल ही प्रकाशित हुआ है.

हिन्दी में ललित निबंध को  विधा के स्वरूप में अभिस्वीकृति का साहित्यिक इतिहास भी रोचक व विवादास्पद रहा है, लगभग वैसा ही जैसा व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करने की यात्रा रही है.  अब ललित निबंध की सात्विक सत्ता भी प्रतिष्ठित हो चुकी है, और व्यंग्य की भी.  डा देवेंद्र जोशी दोनो ही विधाओ के साथ विज्ञान लेखन के भी पारंगत सुस्थापित विद्वान हैं. वे कवि हैं , संपादक है, मंच संचालक हैं, शोधार्थी हैं.  बिना उनसे मिले मैं कह सकता हूं कि  बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डा जोशी सबसे पहले एक अच्छे इंसान हैं, क्योंकि ऐसा लेखन एक सदाशयी व्यक्ति ही कर सकता है.

उनमें सूत्र वाक्य लेखन की विशेषता है जैसे वे लिखते हैं ” निर्धन के अभाव की पूर्ति तो धन से संभव है, पर लालच और धन लोलुप प्रवृत्ति की पूर्ति कोई नहीं कर सकता”, या ” लक्ष्यहीन जीवन को जीवन की श्रेणि में नहीं रखा जा सकता‍‌. . चलना ही जिंदगी “, ” व्यक्तित्व विकास की प्रथम सीढ़ी है. .आत्म साक्षात्कार ” मैंने पुस्तक पढ़ते हुये ऐसे अनेक वाक्यो को रेखांकित किया है, ये उद्वरण  केवल इसलिये कि आप की जिज्ञासा पुस्तक पढ़ने के लिये जागृत हो.

जिन विषयो पर लेखक ने निबंध लिखे हैं उनमें ये शीर्षक शामिल हैं, राष्ट्रीयता का बोध, समय से पहले भाग्य से ज्यादा, माँ, प्यार का अहसास,युवा उम्र का रोमांच,रिश्तों की गर्माहट, स्वभाव के प्रतिकूल, बड़प्पन,सामाजिक सरोकार, पद की गरिमा, बाल मनोविज्ञान,सफलता का जश्न, अवसाद के क्षण,अकेलापन, श्मशान बैराग्य आदि आदि कुल तीस हम सबके जीवन के रोजमर्रा के विषय हैं.

प्रत्येक निबंध विषय की व्याख्या करते हुये एक निर्णायक मार्गदर्शक बिन्दु पर अंत होता है, उदाहरण स्वरूप वे बचपन की मीठी यादें निबंध का अंत इस शेर से करते हैं

घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं करें

किसी रोते हुये बच्चे को हंसाया जाये

अकेलापन निबंध का अंतिम वाक्य है ” अकेलापन हमारी कमजोरी बने उसके पहले उसे अपनी ताकत बनाना सीख लें.  ”

भाषा के लालित्य के मोती, भाव,  शिल्प के स्तर पर बुने हुये सभी निबंध प्रेरक हैं. अभिधा में सशक्त मनोहारी अभिव्यक्ति के सामर्थ्य के चलते  लेखक डा देवेन्द्र जोशी को श्रेष्ठ निबंधकार कहा जाना  सर्वथा तर्कसंगत है. यह  कृति हर उस पाठक को अवश्य पढ़नी चाहिये जो जीवन के किसी मोड़ पर किंकर्तव्य विमूढ़ हो, और इसे पूरा पढ़कर मैं सुनिश्चित हूं कि उसे अवश्य ही निराशा से मुक्ति मिलेगी व उसका भविष्य प्रदर्शित हो सकेगा.  इस दृष्टि से कृति जीवन की सफलता के सूत्र प्रतिपादित करती है.  संदर्भ हेतु संग्रहणीय व बार बार पठनीय है.  अभी ऐसी कई पुस्तकें लेखक से हिन्दी साहित्य को मिलें इसी शुभाशंसा के साथ.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 63 – श्राद्ध से मुक्ति ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “श्राद्ध से मुक्ति।  वर्तमान पीढ़ी न तो जानती है और न ही जानना चाहती है कि  श्राद्ध क्या और क्यों किये जाते  हैं। उन्हें जीते जी किया भी जाता है या नहीं ? पितृ पक्ष में इस सार्थक  एवं  समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 63 ☆

☆ लघुकथा – श्राद्ध से मुक्ति

रामदयाल जी पेशे से अध्यापक थे। गांव में बहुत मान सम्मान था। बेटे को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। उसकी इच्छानुसार काफी खर्च कर विदेश भेज दिया पढ़ने और अपने मन से सर्विस करने के लिए।

बरसों हो गए बेटे अभिमन्यु को विदेश गए हुए। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी अकेले हो गए। बीच के वर्षों में एक बार या दो बार बेटा आ गया था। परंतु उसके बाद केवल मोबाइल का सहारा। गांव में होने के कारण अभिमन्यु कहता था…. नेटवर्क की समस्या रहती है जब बहुत जरूरी हो तभी फोन किया करें। बेटे ने वहाँ अपनी पसंद से विवाह कर लिया। माँ पिताजी को बताना भी उचित नहीं समझा। बस फोन पर कह दिया कि उसने अपनी लाइफ पार्टनर ढूंढ लिया है।

माँ को बहुत झटका लगा। लगातार चिंता और दुखी रहने के कारण उम्र के इस पड़ाव पर वह जल्द ही बीमार हो चली। फिर एक दिन सब कुछ छोड़ रामदयाल को अकेले कर वह चल बसी। बेटे को फोन किया गया।  वह बोला… अभी कंपनी के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं। मुझे अभी आने में वक्त लग सकता है। मैं जल्द ही आऊंगा आप अपना ध्यान रखना।

कहते-कहते बरस बीत गए। माता जी के श्राद्ध का दिन आने वाला था। पिताजी ने फोन से कहा… बेटे जीव की मुक्ति के लिए श्राद्ध का होना जरूरी होता है तुम्हारा आना आवश्यक है। झल्ला कर अभिमन्यु ने कहा… ठीक है मैं आ जाऊंगा। बहू को भी ले आना… ठीक है ठीक है ले आऊंगा… सारी तैयारी करके रखियेगा। मुझे ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।

पिताजी खुश हो गए कि बेटा बहू आ रहे हैं। रामदयाल जी पत्नी के श्राद्ध को भूल कर बेटे के आने की खुशी में घर को सजा संवार कर खुश हो रहे थे कि बेटा बहू आ रहे हैं।

निश्चित समय पर बेटा बहू आ गए। पूजा पाठ के बाद घर के नौकर के साथ मिलकर पास पड़ोस में सभी को खाना खिलाया गया। रामदयाल जी बहुत खुश थे कि अपनी माँ का श्राद्ध कर रहा है। इसी बीच जाने कब बेटे ने पिता जी से एक कोरे कागज पर दस्तखत करवा लिया कि उसे विदेश में एक छोटा सा घर लेना है। जिसमें आपके पहचान की आवश्यकता है।

पिताजी ने खुशी से वह काम कर दिया। सभी काम निपटने के बाद रात को सभी चले गए। नौकर भी रामदयाल के पास सो रहा था। देर रात खटर-पटर की आवाज से वह उठ गया। देखा अभिमन्यु और बहू घर का सारा सामान भर चुके थे। सामने दो गाडियाँ खड़ी थी। उसे समझते देर न लगी। उनमें एक गाड़ी अनाथ आश्रम की गाड़ी थी। उसने तत्काल रामदयाल जी को उठाया। अभिमन्यु ने कहा… पिताजी मुझे बार-बार आना अब नहीं होगा। मैंने यह मकान बेच दिया है और आपकी व्यवस्था आपके जीते जी रहने के लिए अच्छे से अनाथ आश्रम में करवा दिया है।

नौकर का भी हिसाब कर पैसा और गांव में रहने की व्यवस्था कर दिया है। कल सुबह वह चला जाएगा।

और हां एक बात और मैंने… पंडित जी से कहकर आपका भी “श्राद्ध” करवा दिया है। अब किसी प्रकार के डरने की आवश्यकता नहीं है। आपकी मुक्ति हो जाएगी।

रामदयाल चश्मे को निकाल आँसू पोछते नौकर से बोले… चलो अच्छा हुआ जीते जी बेटे ने श्राद्ध कर मुझे मुक्ति दे दी।

अनाथ आश्रम के आदमी रामदयाल जी को बड़े आदर के साथ पकड़ कर अपनी गाड़ी की ओर ले चले। गरीब नौकर हैरान था ये कैसी “श्राद्ध से मुक्ति” ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 19 ☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 19 ☆ 

☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

अंधकार के कितने बादल आये,

नीर की कितनी बारिश हो जाये,

रात की कितनी कलिमा छा जाये,

हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,

रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,

ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,

तू एक उजाला, तू एक सूरज सारे जगत को रोशन करता,

तू असीम, तू अनन्त, तू आरुष का साथी ।

 

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ परिंदे ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना  “परिंदे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ 

☆ परिंदे ☆ 

गर्मी के दिनों में

सुबह सुबह का अखबार

विज्ञापनों की भरमार

पत्नी के हाथ

चाय की चुस्कियां

खबरों की सुर्खियां

मजे ले लेकर पढ़ता हूं

जब पत्नी कहां है –

देखने आगें बढता हूं

वो गॅलरी में

चिड़ियां और उसके बच्चों को

दाने खिलाती रहती है

अलग से कटोरों मेंं

साफ पानी रख

उन्हें पिलाती रहती है

उनके घोंसलों को

साफ करती है

रूई, पैरा उसमें भरती है

अपना कार्य करती है यतन से

बड़े ही जिम्मेदारी, जतन से

मैंने एक दिन पूछा,’ भाग्यवान !

रूत बदलते ही यह उड़ जायेंगे

फिर यहां लौटकर नहीं आयेंगे ?

पत्नी मुझ पर कटाक्ष करते हुए बोली-

जिनको उड़ना था

वो परिंदे उड़ गए

अपने अलग-अलग

घोंसले बना

उससे जुड़ गए

ये परिंदे ही तो अब हमारे हैं

हमारे बुढ़ापे में

सुख दुःख के सहारे हैं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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