हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

सावन की ऋतु आ गई ,आंखों में परदेस ।

मन का वैसा हाल है ,जैसे बिखरे केश ।।

 

सावन आया गांव में , भूला घर की गैल ।

इच्छा विधवा हो गई ,आंखें हुई रखैल ।।

 

महक महक मेहंदी कहे, मत पालो संत्रास ।

अहम समर्पित तो करो, प्रिय पद करो निवास ।।

 

सावन में संन्यास लें ,औचक उठा विचार।

पर मेहंदी महका गई, संयम के सब द्वार।।

 

सावन में सन्यास लें, ग्रहण करें यह अर्थ ।

गंधहीन जीवन अगर, वह जीवन ही व्यर्थ ।।

 

जलन भरे से दिवस हैं ,उमस भरी है रात ।

अंजुरी भर सावन लिए ,आ जाए बरसात ।।

 

मेहंदी, राखी, आलता, संजो रहा त्यौहार

सावन की संदूक में ,मह मह करता प्यार ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 12 – खामोश जंगल की विविधता ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “खामोश जंगल की विविधता ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ खामोश जंगल की विविधता  ☆

 

किस तरह सिमटी हुई

खामोश जंगल की विविधता

हवा मौसम को उठाये आ रही है

सुबह, जैसे कि किसी मजदूर की बेटी,

खड़ी बेपरवाह हौले से नहाये जा रही है

 

पेड़, पौधे, फूल, तिनके, घास

कच्ची डालियों में, आउलझती धूप वैसी

फिसलती मलमल कमर की घाटियों से

उमस के लम्बे उभरते रुप जैसी

 

किस तरह डगमग रही

संतोष ढोती सी विवशता

ऊब में अफसोस को जैसे बढ़ाये जा रही है

 

धुंध पर्वत की फिसलती, गंधवाही सी हरी पगडंडियों की, अक्षरा बन

नई झालरदार गरिमातीत, बेसुध  सी  तलहटी पर, आ झुकी छोटी बहन

 

किस तरह उफना रही

दोनों किनारों पर सहजता

कथा पानी की सुनाये जा रही है

 

इधर जंगल की सुबासित काँपती

परछाइयाँ तक नील में बादल सरीखी

घुमड़ती हैं और रह रहकर थकी- सी,

पिघलती हैं तिलमिलाती और तीखी

 

किस तरह सहमी हुई अनजान आँखो की व्यवस्था

गाँव में सुनसान अपने पग बढ़ाये

जा रही है

 

© राघवेन्द्र तिवारी

11-07-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

विश्व के प्राय: सभी महान लेखक कथा का सहारा लेते रहें हैं,स्केलेटन के रूप में क्यों न सही ।आप एक ऐसे लेखक हैं जो अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता के समान्तर सदियों से आजमाये इस हथियार को लगातार छोड़ते चले गए। आपने अपना साहित्यिक कैरियर कथाकार के रूप में शुरू किया, किन्तु कालान्तर में आप कथा की दुनिया छोड़ निबंधों की ओर मुड़ गये, अपने इस जोखिम भरे विकास क्रम पर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे ?

हरिशंकर परसाई –

हां, कथा बहुत रोचक होती है और उसके पाठक सबसे अधिक होते हैं। ये भी सही है कि महान साहित्य या तो महाकाव्य में लिखा गया है या उपन्यासों में या कहानियों में। आरंभ में मैंने भी कहानियां लिखीं, उससे मुझे लोकप्रियता भी प्राप्त हुई, कहानियां मैं लगातार लिखता रहा, अभी अभी भी मैं अक्सर कहानी लिख लेता हूं, मेरी करीब 350 कहानियां हैं, परन्तु मुझे इसकी चिंता नहीं कि किस विधा में लिख रहा हूं या मैं उस विधा के नियम मान रहा हूं या नहीं मान रहा हूं। कुछ लोग कहते भी थे कि ये लिखते हैं कहानियां, लेकिन ये कहानी की परिभाषा में नहीं आता…..तो मैं उनसे कहता था कि आप कहानी की परिभाषा बदल दीजिए,इस प्रकार मैंने इन विधाओं के स्ट्रक्चर को उनकी बनावट को भी तोड़ा और परम्परा से जो रीति चली आ रही थी उसको भी मैंने एक नये प्रकार से तोड़ा।

मेरे सामने जो समस्या थी वह कहानी या उपन्यास लिखने की समस्या नहीं थी, और न अभी है। मेरे सामने जो समस्या शुरू से रही है वह यह कि इस पूरे समाज का सर्वेक्षण करके,जीवन को समझकर,जीवन की समीक्षा जो मैं कर रहा हूं, इस समीक्षा के लिए कौन सा माध्यम सबसे उपयोगी होगा तो मुझे लगा निबंध एक बहुत अच्छा माध्यम है इसके लिए। क्योंकि निबंध में स्वतंत्रता होती है। मेरे निबंध न ललित निबंध हैं, जैसा कि आमतौर पर लिखे जाते हैं,वे ठोस विषयों पर लिखे हुए होते हैं, और ठोस परिणति तक पहुंचते हैं। जैसा कि क्रून्सी ने कहा है – “आइडियल शैली आफ माइन्ड” वे भी नहीं हैं वो ।इन निबंधों में मैंने जिस विषय को उठाया है, उसके बहाने मैंने आसपास बिखरे दसों पच्चीसों विषयों पर तिरछे प्रहार किए हैं….तो निबंधों में स्वतंत्रता बहुत होती है। ये नहीं कि कथा यहां अटक गई है उसे अटकना नहीं चाहिए, उसे चलना ही चाहिए। मैं निबंध में एक स्थान पर रुककर किसी दूसरे विषय पर भी व्यंग्य कर देता हूं, तो ये सुभीता व्यंग्य में है। मेरे व्यंग्य भी उतने ही लोकप्रिय हुए जितनी कहानियां…. इसीलिए मैंने व्यंग्य को अपनाया।उसी प्रकार उपन्यास को ले लीजिए ,लघु उपन्यास भी मैंने लिखे। एक तो “तट की खोज” यह देवकथा है । ये लंबी कहानी है, इस लघु उपन्यास में व्यंग्य नहीं है।यह वास्तव में अत्यंत करुण कहानी है, एक लड़की की करुण कहानी है। लेकिन दूसरा जो मैंने लघु उपन्यास लिखा  “रानी नागफनी की कहानी” वह पूरा का पूरा व्यंग्य है। उस व्यंग्य में मैंने एक वर्ग को लिया है। एक मामूली सा प्रेम प्रसंग के बाद मैंने देश की समस्याएं और विश्व की समस्याएं, ये सब की सब उसमें मैं व्यंग्य के द्वारा ले आया हूं, और पुस्तक मात्र 130-140 पेज की है, उसमें पूरे विश्व की समस्याएं ले ली गईं हैं। इसमें पूरा-पूरा व्यंग्य है। तो इस प्रकार के उपन्यास मैं लिख सकता हूं, लेकिन परंपरागत उपन्यास जो हैं उनको लिखना मेरे वश की बात नहीं है। मैं फेन्टेसी लम्बी लिख सकता हूं, हां फेन्टेसी उपन्यास… जैसा कि स्पेनिश लेखक सर्वेन्टीस का है “डान की होट” जिसमें एक सामंत है, वह पगला है और उसका एक पिछलग्गू है और वह भी पगला गया है। और उनके द्वारा लेखक ने यूरोप के सामंतवाद का उपहास किया है। ऐसी लम्बी फेन्टेसी या ऐसा लंबा फेन्टेसी उपन्यास मैं लिखना चाहता था, इसके छह चेप्टर मैंने एक पत्रिका में सीरियलाइज किेए, लेकिन छह केबाद वह पत्रिका ही बंद हो गई (हंसते हुए..)अब छैह के छैह वैसे ही रखे हुए हैं, मैं उसको पूरा नहीं कर पा रहा हूं, इस प्रकार मैं उपन्यास लिखना चाहता था पर नहीं लिख सका।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बरसात ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए।  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता   “बरसात”।  ) 

☆  व्यंग्य कविता – बरसात ☆ 

पहले,

जीवन की तरुणाई में

मौसम की अंगड़ाई में

वर्षा की पहली पहली बुंदे

गर्मी में  कितनी

राहत दिलाती थी

तन और मन भीगोती थी

पहली पहली बारिश मे

पत्नी के आग्रह पर

वो बरसात मे भीगना

एक दूसरे को पानी मे खिंचना

पत्नी का वो पानी उड़ाते हुये चलना

शरारतसे किचड़ मेरे कपड़े पे मलना

भीगी हुयी साड़ी मे उसका  सिमटना

बिजली की कड़क पर लिपटना

बारिश के उमंग मे

बच्चोके संग पत्नी की मस्ती

झूम जाती थी सारी बस्ती

बच्चे -बुढे, तरूण- तरुणियाँ

महिला -पुरुष ,नर- नारियाँ

भीगते थे लेकर हाथो में हाथ

रंगीन हो जाती थी पहली बरसात

बाद में, घर में  पत्नी के हाथ की काॅफी

आँखो में शरारत, होंठो पर माफी

आगोश में  होती थी

जब उसकी  भीगी भीगी काया

लगता था पाली हो दुनिया की माया

और अब-

बालकनी मे बैठकर

पहली बरसात को देखकर

पत्नी कहती है- कैसा जमाना है

हर शख्स बेगाना है

इनमें, ना कोई उल्लास , ना उमंग है

ना मन में  खुशी , ना कोई तरंग  है

सब मशीन से हो गये हैं

अपने आप मे खो गये हैं

और हम दोनों

उम्र के इस पड़ाव पर

मन में द्वंद है

थक के हारकर कमरे में  बंद हैं

पुरानी यादों में खोये हुये

हाथो में  हाथ है

सोच रहे हैं,

वो भी  एक बरसात थी,

ये भी  एक बरसात है.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, भिलाई, जिला – दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 11 ☆ अभंग…☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “ अभंग …)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 11 ☆ 

☆ अभंग… 

केशव माधव,

अनंत अगाध,

झालो मी सावध, परमेशा…०१

 

महाराष्ट्र माझा,

संतांची ही भूमी

माझी कर्मभूमी, हीच झाली…०२

 

देव अवतार,

इथेच जाहले

संतांनी पूजिले, ईश्वर ते…०३

 

सात्विक आचार,

सुंदर विचार

महाराष्ट्र घर, माझे झाले…०४

 

संत ज्ञानेश्वर,

संत तुकाराम

जीवन निष्काम, संतांचे हे…०५

 

शौर्याची पताका,

इथे फडकली

तोफ कडाडली, गडावर…०६

 

शिवबा जन्मला,

शिवबा घडला

माता जिजाऊला, आनंद तो…०७

 

मराठी स्वराज्य,

शिवबा स्थापिले

मोगल पडले, धारातीर्थी…०८

 

ऐसा माझा राजा,

छत्रपती झाला

निर्भेळ तो केला, कारभार…०९

 

दगडांच्या देशा,

प्रणाम करतो

अखंड स्मरतो, बलिदान…१०

 

कुणी आक्रमण,

तुझ्यावर केले

हल्ले किती झाले, पृथ्वीवर…११

 

चिरायू हा होवो,

कण कण तुझा

नमस्कार माझा, स्वीकारावा…१२

 

कवी राज म्हणे,

निसर्ग सौंदर्य

आणि हे औदार्य, कैसे वर्णू…१३

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 61 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  समसामयिक लघुकथा  ‘बदलाव’।  वर्तमान महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति में बदलाव ला दिया है । डॉ परिहार जी  ने इस मनोवैज्ञानिक बदलाव को बखूबी अपनी लघुकथा में दर्शाया है। इस  सार्थक समसामयिक लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

 फोन की घंटी बजी तो मिसेज़ चन्नी ने उठाकर बात की। बात ख़त्म हुई तो माँजी यानी उनकी सास ने चाय पीते पीते पूछा, ‘किसका फोन आ गया सुबे सुबे?’

मिसेज़ चन्नी ने जवाब दिया, ‘वही गीता है। कहती है अब बुला लो। कहती है अन्दर आकर झाड़ू-पोंछा नहीं करेगी, बर्तन धोकर बाहर बाहर चली जाएगी। आधे काम के ही पैसे लेगी। ‘

माँजी बोलीं, ‘बड़ी मुश्किल है। ये बीमारी ऐसी फैली है कि किसी को भी घर में बुलाने में डर लगता है। बाहर से आने वाला कहाँ से आता है, कहाँ जाता है,क्या पता। बड़ा खराब टाइम है भाई। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘कहती है कि बहुत परेशान है। माँ की तबियत खराब है, उसकी दवा के लिए पैसे की दिक्कत है। ‘

माँजी कहती हैं, ‘सोच लो। हमें तो भई डर लगता है। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘डर की बात तो है ही। ये बीमारी ऐसी है कि इसका कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो टाल ही रही हूँ। कह दिया है कि एक दो दिन में बताती हूँ। बार बार रिक्वेस्ट कर रही थी। ‘

शुरू में जब गीता को काम पर आने से मना किया तो मिसेज़ चन्नी बहुत नर्वस हुई थीं। समझ में नहीं आया कि काम कैसे चलेगा। खुद उन्हें ऐसे मेहनत के काम करने की आदत नहीं। एक दिन झाड़ू-पोंछा करना पड़ जाए तो बड़ी थकान लगती है। बर्तन धोना तो पहाड़ लगता है।

राहत की बात यह है कि ये दोनों काम बच्चों ने संभाल लिये हैं। बच्चों के स्कूल बन्द हैं, व्यस्त रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। मोबाइल में उलझे रहने के बजाय झाड़ू लगाने और बर्तन धोने में मज़ा आता है। इसे लेकर निक्कू और निक्की में लड़ाई होती है, इसलिए दोनों के अलग अलग दिन बाँध दिये हैं। एक दिन निक्कू बर्तन धोयेगा तो निक्की झाड़ू-पोंछा करेगी। दूसरे दिन इसका उल्टा होगा। आधे घंटे का काम एक घंटे तक चलता है। उनका काम देखकर मिसेज़ चन्नी और माँजी हुलसती रहती हैं। इनाम में बच्चों को चॉकलेट मिलती है। सब का मनोरंजन होता है।

माँजी ऐसे मौकों पर गीता को याद करती रहती हैं। महामारी फैलने से पहले गीता अपनी तुनकमिजाज़ी के लिए मुहल्ले में बदनाम थी। काम में तो तेज़ थी, लेकिन कोई बात उसके मन के हिसाब से न होने पर उसे काम छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगता था। मिसेज़ चन्नी का काम उसने दो बार छोड़ा था और दोनों बार उसे सिफारिश और खुशामद के बाद वापस लाया गया था।

पहली बार मिसेज़ चन्नी ने बर्तनों में चिकनाहट लगी रहने की शिकायत की थी और वह दूसरे दिन गायब हो गयी थी। फिर मिसेज़ शुक्ला से सिफारिश कराके उसे वापस बुलाया गया, और माँजी ने उसे ‘बेटी बेटी’ करके बड़ी देर तक पुचकारा। तब मामला सीधा हुआ। दूसरी बार बिना बताये छुट्टी लेने पर मिसेज़ चन्नी ने शिकायत की थी और वह फिर अंतर्ध्यान हो गयी थी। तब मिसेज़ चन्नी उसे घर से बुलाकर लायी थीं। आने के बाद भी वह तीन चार दिन मुँह फुलाये रही थी और मिसेज़ चन्नी की साँस ऊपर नीचे होती रही थी।

आखिरकार मिसेज़ चन्नी ने गीता को बुला लिया है। बच्चे घर के काम से अब ऊबने लगे हैं। चार दिन का शौक पूरा हो गया है। पहले काम करने के लिए जल्दी उठ जाते थे, अब उठने में अलसाने लगे हैं। बुलाने के साथ गीता को समझा दिया गया है कि गेट से आकर पीछे बर्तन धो कर चली जाएगी, घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी। गीता तुरन्त राज़ी हो गयी है। समझ में आता है कि रोज़ी की चिन्ता ने उसकी अकड़ को ध्वस्त कर दिया है।

मिसेज़ चन्नी देखती हैं कि दो तीन महीनों में गीता बहुत बदल गयी है। चुपचाप आकर काम करके निकल जाती है। पहले जैसे आँख मिलाकर बात नहीं करती। कभी बर्तन ज़्यादा हो जाएं तो आपत्ति नहीं करती। कभी देर से पहुँचने पर मिसेज़ चन्नी ने झुँझलाहट ज़ाहिर की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसको लेकर अब मिसेज़ चन्नी के मन में कोई तनाव नहीं होता। उन्हें लगता है कि गीता को लेकर अब निश्चिंत हुआ जा सकता है। अब आशंका का कोई कारण नहीं रहा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #59 ☆ अकाल मृत्यु हरणं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – अकाल मृत्यु हरणं ☆

जगत सतत गतिमान है। जगत सतत परिवर्तनशील है। जो कल था, वह आज नहीं है। आज है वह कल नहीं होगा। क्षण-क्षण, हर क्षण परिवर्तन हो रहा है। यह क्षण वर्तमान है। अगले क्षण, पिछला क्षण निवर्तमान है।

उपरोक्त बिंदुओं से लगभग हर व्यक्ति शाब्दिक स्तर पर सहमत होता है। तथापि जैसे ही परिवर्तन स्वयं पर लागू करने का समय आता है वह ठिठक जाता है, ठहर जाता है। अपनी स्थिति में परिवर्तन सहजता से स्वीकार नहीं करता।

अपनी स्थिति में परिवर्तन स्वीकार न कर पाना ही जड़ता है। भौतिकविज्ञान में जड़ता का नियम है। यह नियम कहता है कि किसी वस्तु का वह गुण जो उसकी गति की अवस्था में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध करता है, जड़त्व (इनर्शिया) कहलाता है। यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहना चाहती है और यदि कोई वस्तु एक समान वेग से गतिशील है तो गतिशील रहना चाहती है जब तक की कोई बाह्य बल इसको अपनी अवस्था परिवर्तन के लिए विवश न कर दे।

विज्ञान, जड़त्व के तीन प्रकार प्रतिपादित करता है, 1) विराम का जड़त्व, 2) गति का जड़त्व और 3) दिशा का जड़त्व। ज्ञान अर्थात अध्यात्म जड़त्व को समग्रता से देखता है। विज्ञान नियम को स्थूल के स्तर पर लागू करता है। अध्यात्म इसे सूक्ष्म तक ले जाता है।

जड़त्व हमारे सूक्ष्म में अपनी जगह बना चुका। सास चाहती है कि कुर्सी गत बीस वर्ष से जहाँ रखी जाती है, वहाँ से इंच भर भी दायें-बायें न हिलाई जाय। बहू कुर्सी की दशा और दिशा दोनों बदलना चाहती है। समय के साथ बहू वांछित परिवर्तन कर भी लेती है। लेकिन अब उसे भी अपने कार्यकलाप और कार्यप्रक्रिया में कोई बदलाव स्वीकार नहीं। वह अब अपनी जड़ता का शिकार होने लगती है।

तन और मन में बसी जड़ता परिवर्तन नहीं चाहती। ऑफिस का समय बदल जाय तो लोग असहज होने लगते हैं। ऑफिस में उपस्थिति बायोमेट्रिक हुई तो लगे कोसने। कइयों को तो जो नया है, वह निरर्थक लगता है। कम्प्युटर आया तो मैनुअल तरीके से काम करने के पक्ष में मोर्चे निकले। मोबाइल आया तो लैंडलाइन का जमकर गुणगान करने लगे। कार्यकलाप ऑनलाइन हो चले पर परिवर्तन के विरोध ने ऑफलाइन ही बनाये रखा।

परिवर्तन का विरोध करनेवाला मनुष्य क्या सारे परिवर्तन रोक पाता है? चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ रही हैं। एंटी एजिंग लोशन लगा-लगाकर थक चुके। रोक लो झुर्रियाँ, रोक सकते हो तो! उम्र हाथ से सरपट फिसल रही है, थाम लो, थाम सकते हो तो! जीवन, मृत्यु की दिशा में यात्रा कर रहा है। बदल दो दिशा, बदल सकते हो तो!

वस्तुत: भीतर का भय, परिवर्तन को स्वीकार नहीं करने देता। भयभीत व्यक्ति आगे कदम नहीं उठाता। जहाँ का तहाँ खड़ा रहता है।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो परिवर्तित नहीं होता। परिवर्तन चेतन तत्व है। चेते रहने, चैतन्य रहने के लिए परिवर्तन के साथ चलो, कालानुरूप कदमताल करो। अन्यथा काल चलता रहेगा, जड़ता का शिकार पीछे छूटता जाएगा। सृष्टि साक्षी है कि जो काल से पीछे छूटा, अकाल नाश को प्राप्त हुआ।

सनातन संस्कृति जब प्राणिमात्र के लिए ‘अकाल मृत्यु हरणं’ की कामना करती है तो जड़ता के अवसान और चैतन्य के उत्थान की बात करती है।

जड़ता को झटको। काल के अनुरूप चलो। सदा चैतन्य रहो। कालाय तस्मै नम:।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:53 बजे, 23.8.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-2

निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था। इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का पात्र बन कर उभरे थे। मुझे आज भी वो समय‌ याद है जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हँसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे। इन्ही परिस्थितियों ने रघु काका के हृदय को आंदोलित और  उद्वेलित कर दिया था। वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे। दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने तथा अपना योगदान देने। अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे। वे अब प्रेम विरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देशभक्ति जगाने लगे थे। अब उनके गीतों में भारत माँ के अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।

इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकाये आजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जूलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देशभक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था। देशवासी भारत माता की जय, अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे। तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया। अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी।  निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों  पर सैनिक घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे। तभी अचानक उस जूलूस का नजारा बदल गया। भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ  पिल  पड़ा था   उस पर। वह बूढ़ा आदमी दर्द और पीड़ा से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जय के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था। वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ से छोड़ने के लिए तैयार न था  और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके।  फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश। उनकी आँखों में खून उतर आया था।

उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया। उस बूढ़े को पीछे धकेलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी।  आगे बढ़ कर सड़ाक सड़ाक सड़ाक  पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर। तभी रघु काका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था।  अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौका नहीं दिया। वह अचानक हमले से घबरा गया। फिर तो जूनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर  और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे। उसका रक्त सना चेहरा बड़ा ही वीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था। वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था।  “ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा। अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा। और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये थें। वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी और रघु काका ने ‌अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था। आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था। वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।

लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजनों-बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे। वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे।  लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं थे। वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती। ‌उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ही बर्बर अत्याचार किया था। लेकिन वह रघु के‌ चट्टानी हौसले ‌‌को तोड़ पाने में ‌विफल रहा। वह हर उपाय‌ साम दाम दंड भेद अपना चुका था लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में। न्यायालय से रघु काका को लंबी ‌जेल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें कारागृह की अंधेरी तन्ह काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था। लेकिन वहाँ जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ। उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन‌ के पालन पोषण की ‌जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने उपर ले लिया था। राम खेलावन ने भी अपनी विपरित परिस्थितियों के नजाकत को समझा था और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग  में उच्च पद पर आसीन हो गये थे। वे जिधर भी जाते स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था। वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को।

क्रमशः …. 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 5 ☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( श्री गणेश चतुर्थी पर्व के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  श्री गणेश वंदना सिध्दिदायक गजवदन । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 5 ☆

☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु

सिध्दिदायक  गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन

दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है

हर हृदय में वेदना आतंक का अंधियार है

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है

दीजिये सद्बुध्दि का वरदान हे करूणा अयन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु

सिध्दिदायक  गजवदन

 

आदि वन्द्य मनोज्ञ गणपति सिद्धिप्रद गिरिजा सुवन

पाद पंकज वंदना में नाथ

तव शत-शत नमन

व्यक्ति का हो शुद्ध मन

सदभाव नेह विकास हो

लक्ष्य निश्चित पंथ निश्कंटक आत्मप्रकाश हो

हर हृदय आनंद में हो

हर सदन में शांति हो

राष्ट्र को समृद्धि दो हर विश्वव्यापी भ्रांति को

सब जगह बंधुत्व विकसे

आपसी सम्मान हो

सिद्ध की अवधारणा हो

विश्व का कल्याण हो

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु

सिध्दिदायक  गजवदन

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 15 – व्ही शांताराम-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : व्ही शांताराम पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 15 ☆ 

☆ व्ही शांताराम…2 ☆

इन परिस्थितियों में शांताराम और जयश्री के सम्बंध इतने बिगड़ गए कि उनका 13 नवम्बर 1956  को तलाक़ हो गया और शांताराम ने संध्या से 22 दिसम्बर 1957 को शादी कर ली।

संध्या से शादी के पहले शांताराम ने परिवार नियोजन ऑपरेशन करा लिया था और यह बात संध्या को बता दी थी, इसके बावजूद भी संध्या ने शांताराम की दूसरी पत्नी बनना स्वीकार किया था। वह शांताराम के पहली दो बीबियों से उत्पन्न सात बच्चों को सगी माँ सा प्यार करती थी और राजश्री को फ़िल्मों में केरियर बनाने में मदद करती रहीं। विमला बाई भी संध्या को छोटी बहन सा प्यार देती थी।

‘दो आंखें, बारह हाथ’ वी. शांताराम द्वारा निर्देशित 1957 की हिंदी फिल्म है, जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया। उसे हिंदी सिनेमा के क्लासिक्स में से एक माना जाता है और यह मानवतावादी मनोविज्ञान पर आधारित है। इसने 8वें बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बीयर और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर निर्मित सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नई श्रेणी सैमुअल गोल्डविन इंटरनेशनल फिल्म अवार्ड में गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीता।  यह फिल्म लता मंगेशकर द्वारा गाए और भरत व्यास द्वारा लिखित गीत “ऐ मल्लिक तेरे बंदे हम” के लिए भी याद की जाती है।

फिल्म ” ओपन जेल ” प्रयोग की कहानी से प्रेरित थी। सतारा के साथ औंध की रियासत में स्वतंत्रपुर सांगली जिले में अटपदी तहसील का हिस्सा है। इसे पटकथा लेखक जीडी मडगुलकर ने वी शांताराम को सुनाया था। 2005 में, इंडिया टाइम्स मूवीज ने फिल्म को बॉलीवुड की शीर्ष 25 फिल्मों में रखा था।  फिल्मांकन के दौरान वी शांताराम ने एक बैल के साथ लड़ाई में  एक आँख में चोट आई, लेकिन उसकी रोशनी बच गई।

उन्होंने फिल्म में एक युवा जेल वार्डन आदिनाथ का किरदार निभाया है, जो सदाचार के लोगों को पैरोल पर रिहा किए गए छह खतरनाक कैदियों का पुनर्वास करता है। वह इन कुख्यात, अक्सर सर्जिकल हत्यारों को ले जाता है और उन्हें एक जीर्ण देश के खेत पर उनके साथ कड़ी मेहनत करता है, उन्हें कड़ी मेहनत और दयालु मार्गदर्शन के माध्यम से पुनर्वास करता है क्योंकि वे अंततः एक महान फसल पैदा करते हैं। फिल्म एक भ्रष्ट शत्रु के गुर्गों के हाथों वार्डन की मौत के साथ समाप्त होती है, जो उस लाभदायक बाजार में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं चाहता है जिसे वह नियंत्रित करता है।

यह फिल्म दर्शकों को कई दृश्यों के माध्यम से ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ दर्शक मजबूत नैतिक सबक निर्धारित करते हैं कि कड़ी मेहनत, समर्पण और एकाग्रता के माध्यम से एक व्यक्ति कुछ भी पूरा कर सकता है। साथ ही, यह फिल्म बताती है कि यदि लोग अपनी ऊर्जा को एक योग्य कारण पर केंद्रित करते हैं, तो सफलता की गारंटी होती है।

 

उन्हें झनक-झनक पायल बाजे के लिए 1957 में बेस्ट फ़िल्म, 1958 में दो आँखे बारह हाथ के लिए बेस्ट फ़िल्म अवार्ड मिला था। 1985 में दादा साहब फाल्के अवार्ड और 1992 में मृत्यु उपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। उनकी स्मृति में 2001 में डाक टिकट जारी किया गया था। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार ने मिलकर  V. Shantaram Motion Picture Scientific Research and Cultural Foundation स्थापित किया है जो प्रतिवर्ष 18 नवम्बर को व्ही शांताराम अवार्ड देता है। शांताराम की मृत्यु 30 अप्रेल 1990 को बम्बई में हुई। वे अंतिम समय में कोल्हापुर के निकट पनहला में बस गए थे। वे जिस घर में रहते थे उसे उनकी बेटी सरोज ने अब होटल में तब्दील कर दिया है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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