हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #243 – कविता – ☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #243 ☆

☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जहर भी अब मोल महँगे, शुद्ध मिलता है कहाँ

जरूरी जो वस्तुएं, उनकी करें हम बात क्या।

*

माह सावन और भादो में, तरसते रह गए

बाद मौसम के, बरसते मेह की औकात क्या।

*

तुम जहाँ हो, पूर्व दो दिन और कोई था वहाँ

कल कहीं फिर और, ऐसा अल्पकालिक साथ क्या।

*

चाह मन की तृप्त, तृष्णायें न जब बाकी रहे

सहज जीवन की सरलता में, भला शह-मात क्या।

*

छोड़कर परिवार घर को, वेश साधु का धरा

चिलम बीड़ी न छुटी, यह भी हुआ परित्याग क्या।

*

अब न बिकते बोल मीठे, इस सजे बाजार में

एक रँग में हैं रँगे सब, क्या ही कोयल काग क्या।

*

अनिद्रा से ग्रसित मन, जो रातभर विचरण करे

पूछना उससे कभी, सत्यार्थ में अवसाद क्या।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 67 ☆ गाँव में शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गाँव में शहर…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 67 ☆ गाँव में शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कच्चे से पक्के

घर हो गये मकान

गाँवों में घुस गया शहर।

*

चौपालें ठंडी

आँगन गुमसुम

छप्परों ने पाले

छतों के भरम

*

सीढ़ियाँ उतरते

हैं सहमें दालान

खिड़की में खुल गया शहर।

*

पगडंडी पूछती

सड़क का पता

खेतों की मेड़ें

हुईं लापता

*

सूरज के पाखी

भूल गए उड़ान

आलस बन चुभ गया शहर।

*

मेल मुलाक़ातें

खुरदरे ख़याल

चाय पान के टपरे

नित नये सवाल

*

पीढ़ियाँ जड़ों से

बस खोखली ज़ुबान

साँसों में घुल गया शहर।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 71 ☆ कामनाओं को यूँ विस्तार न दे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कामनाओं को यूँ विस्तार न दे“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 71 ☆

✍ कामनाओं को यूँ विस्तार न दे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

नासमझ इतना ये संसार न दे

तिफ़्ल के हाथ में तलवार न दे

वक़्त पर पीठ दिखाए मुझको

दोस्त ऐसा कोई लाचार न दे

 *

दम घुटा दें ये तुम्हारा इक दिन

कामनाओं को यूँ विस्तार न दे

 *

हादसों का है सफ़र में खतरा

ज़ीस्त की रेल को रफ्तार न दे

 *

तुमसे उम्मीद गुलों की है मुझे

मेरे दामन में कभी ख़ार न दे

 *

सर फिरा दें जो अकड़ से मेरा

शुहरतों की तू वो भरमार न दे

 *

बोलियाँ ज़िस्म की लगती हों जहाँ

ऐसा धरती पे तू बाज़ार न दे

 *

मुँह मियाँ मिठ्ठू जो बनता अक्सर

इस कबीले को वो सरदार न दे

 *

जिसको अज़मत न वतन की प्यारी

देश को एक भी गद्दार न दे

 *

उसका दीदार नहीं हो पाता

एक सप्ताह में इतवार न दे

 *

सोच जिनकी है अक़ीदत खाई

कोई अंधा यूँ परस्तार न दे

 *

हो गई उम्र अब अरुण तेरी

घर की क्यों बेटे को दस्तार न दे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 36 – रिश्ते…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रिश्ते।)

☆ लघुकथा # 36 – रिश्ता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“दीदी तुम हर साल की तरह फिर सुबह से आ गई।”

अनु ने मुस्कुराते हुए कहा-” हां क्या करती तू ही तो मेरा एक भाई है चल जल्दी से तैयार होकर आ राखी बांधना है?”

अरुण ने कहा दीदी -“हां दीदी बस अभी थोड़ी देर में मैं आया।”

“तब तक मैं तेरे लिए चाय बना देती हूं दोनों चाय नाश्ता करेंगे।“

“अरुण बच्चे और नीता दिखाई नहीं दे रहे?”

“दीदी वह लोग कमरे में सो रहे हैं…”

कहते-कहते अरुण रुक गया।

“दीदी मुझे राखी बांधो वाह दीदी साबूदाने की खिचड़ी तुम बनाकर मेरे लिए लाई हो और हलवा इसका कोई जवाब नहीं।“

“बच्चों को मैं उठा दूँ क्या? शायद उठ गए होंगे।”

“रहने दो दीदी सब अपने मन के हो गए हैं। अब मैं तुमसे क्या कहूं चलो हम लोग मम्मी पापा के फ्लैट में चलते हैं और वहीं सुखद पुराने दिन को जीते हैं…।“

तभी नीता उठकर आती है और कहती है- “तुम भाई बहन का गिला शिकवा शुरू हो गया…कितनी बार मना किया कि मेरे फ्लैट में आकर हल्ला मत किया करो लेकिन आप सुनते ही नहीं हो?“

“नीता भाई बहन का प्यार तुम नहीं समझोगी। बहू यह रिश्ता ही अनोखा है।“

“तुम कितना भी अपमान करो पर मैं आऊंगी” अनु ने कहा और वह रोती हुई अपनी मां के पास चली गई…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 115 – कड़कनाथ ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 115 –  कड़कनाथ ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

करुणाकर नाथ एक बैंक के उच्च पदासीन अधिकारी थे, अपने पद की गरिमा और शक्ति से पूरी तरह परिचित. उनको मालुम था कि उनकी नजरें टेढी होना मतलब सामने वाले का बंटाधार होना है. करुणा सिर्फ उनके नाम का हिस्सा भर थी, करुणा से उनका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था. इसलिये ही उनके अधीनस्थ अफसर उनको कड़कनाथ कहते थे.

कड़कनाथ इसलिये भी कि जिससे वो नाराज हो जायें उसका स्थानांतरण वहीं होना सुनिश्चित होता था जहां कड़कनाथ नामक मुर्गे की प्रजाति पाई जाती है, याने बस्तर, मंदसौर और झाबुआ. उनके काटे का कोई इलाज नहीं था याने अगर वो किसी अफसर को इन तीनों में से किसी जगह भेजने का निश्चय कर लें तो फिर अपने कमिटमेंट के विरुद्ध वो अपने आप की भी नहीं सुनते थे. सामने वाले की पीड़ा उन्हें बहुत आनंद देती थी और वो फरियादी की हर इल्तिजा को अपनी अपार तर्कशक्ति से चूर चूर कर देते थे. उनका यह मानना था कि उन जैसे उच्चाधिकारियों के दंड भोगकर ही ये नये नवेड़े बगावती तेवर वाले अफसर न केवल सुधरते हैं बल्कि हर तरह के माहौल में इन अफसरों के ढल जाने से उनकी कार्यकुशलता और सहनशीलता में वृद्धि होती है जो अंतत: बैंक को ही फायदा पहुंचाती है. आखिर वो अकेले अपने दम पर कब तक बैंक की भलाई के बारे में सोचते रहेंगे. उनकी इसी अदा पर उनके बॉस और यूनियन के नेता भी नाखुश रहा करते थे पर अपनी संतुलन बिठाने की जन्मजात प्रतिभा के बल पर वो दोनों को ही किसी न किसी तरह से मना ही लेते थे.

इसी बैंक में एक और भी आयु में वरिष्ठ पर पद में बहुत ही ज्यादा कनिष्ठ अफसर थे: रामभरोसे पंचवेदी जो पांचवें वेद के सिद्ध हस्त और प्रवीण जानकार थे. वैसे तो वेद चार ही होते हैं पर ये जो पांचवा वेद है इसका अध्ययन सेवाकाल में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है और इसके लिखे जाने का प्रयोजन भी यही था. तो रामभरोसे साहब को सिर्फ दो लोगों पर भरोसा था, पहले तो राम पर और दूसरा खुद पर, मज़ाल है कि सामने वाला उनकी बातों के जाल में न फंसे और वो जो ठान कर आये हैं, उस काम को मना कर दे. डिफीकल्ट सेंटर और रूरल पोस्टिंग जैसे शब्द बैंक के गढ़े हुये थे, बैंक की नीतियाँ थीं पर उनकी एक ही नीति थी आराम, इसलिए लोग उनको भी “आराम भरोसे” कहते थे.

वैसे तो कड़कनाथ जी और रामभरोसे जी में कोई तुलना नहीं की जा सकती याने कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली, पर किस्मत ने एक बार दोनों का आमना सामना करा ही दिया. रामभरोसे जी का ट्रांसफर कड़कनाथ मुर्गे वाले एरिया याने बस्तर में हो गया. अब आमना सामना बस्तर नहीं जाने की जिद पकड़ कर बैठे चींटीनुमा अफसर और “ये जायेगा कैसे नहीं” की आन पकड़ कर अकड़े करुणाकर नाथ जी में था.

इस मुलाकात के पहले, प्रयासों का एक सेमीफाइनल भी हुआ था जिसमें हारकर राम भरोसे फाइनल में कड़कनाथ साहब से चैलेंज राउंड खेलने पहुंचे थे.

इस सेमीफाइनल और फाइनल राउंड की दास्तान बखान करना बाकी है.

सेमीफाइनल याने यूनियन का ऑफिस, तो जब रामभरोसे जी बैंक पहुंचे तो भूल गये कि यूनियन का ऑफिस कहां है. यूनियन ऑफिस आने की कभी जहमत उठाते नहीं थे और जब जब भी हड़ताल पर प्रदर्शन होते थे तो उसी वक्त इनके जरूरी काम निकल आते थे, तबियत नासाज़ हो जाती थी. खैर बड़ी मुश्किल से पूछते पाछते पहुंचे तो महासचिव कहीं मीटिंग में जाने वाले थे. पर इनको देखा तो उनको याद आ गया चुनाव के दौरान इनकी ब्रांच में भ्रमण के दौरान इनका बोला हुआ डॉयलाग कि “राम पर भरोसा रखिये, अगर वो आपको जिताना चाहेंगे तो हम वोट दें या न दें कोई फर्क नहीं पड़ता”. आज राम जी ने ही इस ऊंट को पहाड़ के नीचे भेजा है. मुस्कुराते हुये पूछ ही लिया “सर जी यूनियन ऑफिस ढूंढने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई, चाय लेंगे क्या” रामभरोसे जी समझकर भी अनजान बन गये और फरियादी का स्वांग रचते हुये बस्तर नहीं जाने के लिये ऐड़ियां रगड़नी शुरु कर दी.

महासचिव भी इनके कांइयापन से वाकिफ थे तो बोल दिया कि आखिर कोई न कोई तो जायगा ही और जो भी जायेगा वो तो यूनियन का मैंबर ही होगा. तो बहुत तो बच लिये आप, इस बार चले जाइये क्योंकि कड़कनाथ साहब आजकल हम लोगों की भी बहुत सी बातें टाल जाते हैं. आपके लिये हम प्रयास जरूर करेंगे पर अगर रामजी चाहेंगे तो आपका ट्रांसफर कैंसिल हो जायेगा क्योंकि ये गुरुमंत्र तो आपने ही हमको चुनाव के समय आपकी ब्रांच में दिया था. अब मुझे एक मीटिंग में जाना है तो मैं निकल रहा हूँ पर आप चाय पीकर जरूर जाना क्योंकि जो भी इस ऑफिस में पहली बार आता है, हम उनका स्वागत चाय से जरूर करते हैं.

सेमिफाइनल में हारने के बाद रामभरोसे जी फाईनल राउंड में पहुंच गये जहाँ उनका मुकाबला कड़कनाथ साहब से होना था. कड़कनाथ साहब पर काम का बोझ उस दिन बहुत कम था और वो भी शायद इनके आने का पूर्वानुमान लगाकर इंतज़ार में बैठे थे. जैसे ही स्लिप अंदर भेजी, बुलावा आ गया क्योंकि चूहे बिल्ली का खेल खेलना कड़कनाथ साहब का शौक था. बातचीत और फरियाद का दौर इस तरह हुआ.

कड़कनाथ : यस मि. रामभरोसे, वाट्स द प्राब्लम

रामभरोसे : सर प्लीज मेरा बस्तर ट्रांसफर कैंसिल कर दीजिये, इस उम्र में भोपाल से बस्तर, हुजूर रहम कीजिये.

कड़कनाथ : किसी न किसी को तो जाना पड़ेगा, आप क्यों नहीं Transfer is a policy, not your choice.

रामभरोसे : सर मेरे पेरेंट्स बहुत ओल्ड और बीमार हैं, इसलिए आप से रहम की उम्मीद लेकर आया हूँ

कड़कनाथ : जहां तक मुझे मालुम है, आपके पेरेंट्स गांव में रहते हैं, तंदुरूस्त किसान हैं, खेती का सुपरविजन करते हैं

रामभरोसे : सर आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, मैं तो धन्य हो गया कि आप जैसे इतने बड़े अफसर हमारे जैसों के बारे में इतना कुछ जानते हैं. दरअसल अगर वो लोग हफ्ते पंद्रह दिन में मुझसे बात न करें तो बैचेनी हो जाते हैं, उनकी तबियत खराब हो जाती है

कड़कनाथ : अरे भाई इस जमाने में वीडियो कॉल की सुविधा हर जगह है, रोज बात करना पर बैंक टाईम के बाद

रामभरोसे : सर मैं खुद भी बीमार रहता हूँ, डायबिटीज, ब्लडप्रेशर का शिकार हूँ, परेशान हो जाउंगा.

कड़कनाथ : तब तो आपको बस्तर जरूर जाना चाहिए, वहाँ की शुद्ध हवा प्रकृति का साथ और योग आपको स्वस्थ बनाने में बहुत मददगार रहेगा.

रामभरोसे अगले प्वाइंट पर आने वाले थे कि कड़कनाथ जी ने टोक दिया “मुझे मालुम है तुम्हारी बेटी की शादी का कार्ड मेरे पास पिछले साल आया था पर हम लोग नहीं आ पाये. बेटा तो तुम्हारा बंगलौर में जॉब कर रहा है न,  am I right?

कड़कनाथ साहब के चेहरे पर फाइनल जीतने की मुस्कान नज़र आने लगी थी.

पर तभी रामभरोसे जी ने अपना आखिरी अस्त्र फेंका : सर कम से कम एक साल रोक लीजिये, अगले साल मैं खुद आगे बढ़कर बस्तर क्या जहाँ आप भेजेंगे, चला जाउंगा.

कड़कनाथ : एक साल क्यों?

रामभरोसे : सर, वाईफ भी लेडीज़ क्लब की मेंबर हैं और किटी पार्टी अभी एक साल से पहले पूरी नहीं होगी. मैडम (Mrs. K. Nath) के नाम पर तो पिछले महीने ही ओपन हुई है.

कड़कनाथ जी कड़क होने के बावजूद इस तरह जोर से हंसे कि आवाज़ उनके सचिवालय तक पहुंच गई जो शायद उन लोगों ने भी पहली बार सुनी.

कड़कनाथ : यार नहीं जाने का ये कारण मैं पहली बार सुन रहा हूँ और कुछ भी हो तुम्हारी हिम्मत की दाद देता हूं. यहां तो अच्छे अच्छे, यस सर यस सर के आगे नहीं बढ़ पाते हैं और मेरी डांट खाकर चुपचाप निकल जाते हैं. पर खुश होने की जरूरत बिल्कुल नहीं है, बस्तर तो तुमको जाना पड़ेगा, तुम भी जाओगे और तुम्हारी परछाई भी.

तभी अचानक कड़कनाथ साहब का मोबाइल बजा, स्क्रीन पर होम डिसप्ले हो रहा था. मिसेज नाथ से बात करते करते ही उन्होंने रामभरोसे जी को बड़े ध्यान से देखा. फिर मोबाइल ऑफ कर के रामभरोसे जी से मुखातिब हुये और पूछा” तुम्हारी वाईफ का नाम सीता है क्या?

रामभरोसे : Yes sir, Sita is my Wife.

कड़कनाथ : तो मिस्टर रामभरोसे, समझ लो कि आपकी सीता ने आपका वनवास एक साल के लिये टाल दिया है पर ये बात किसी से कहना नहीं वरना़…

रामभरोसे जी इस बात को गुप्त रखने की शपथ खाकर खुशी खुशी बाहर आ गये और ये कहानी भी यहीं पर खत्म हुई.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 243 ☆ अभिमंत्रित वाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 243 ?

☆ अभिमंत्रित वाटा☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्य काजळते अन्

हृदयाशी सलतो काटा

तेव्हाच भेटती सखये

सृजनाच्या अभिमंत्रित वाटा…१

*

दाटते मनात काहूर

भोवती भयाण सन्नाटा

तेव्हाच भेटती सखये

सृजनाच्या अभिमंत्रित वाटा….२

*

सागरी नाव वल्हवता

ग्रासती भयंकर लाटा

तेव्हाच भेटती सखये

सृजनाच्या अभिमंत्रित वाटा….३

*

घडलेले नसता काही

भलताच होई बोभाटा

तेव्हाच भेटती सखये

सृजनाच्या अभिमंत्रित वाटा….४

*

वेगळेपणा जाणवता

ऐहिकास मिळतो फाटा

तेव्हाच भेटती सखये

सृजनाच्या अभिमंत्रित वाटा….५

☆  

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 68 – छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की… आचार्य भगवत दुबे ☆ साभार – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ ☆

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आचार्य दुबे ने सुनाई कविता – छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की

18 अगस्त 24 को संस्कारधानी जबलपुर के साहित्य प्रभाकर, सरल, सहज, मृदुभाषी, आधे सैकड़ा कृतियों के रचयिता, जिन पर दर्जनों शोधपत्र लिखे जा रहे हैं। जिन्होंने चौदह पन्द्रह हजार विविधवर्णी दोहे सृजित किये है। जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कादम्बरी संस्था के यशस्वी अध्यक्ष हैं। जिनका नाम देश-विदेश में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।

ऐसे महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी का बयासी वाँ जन्म दिवस है। मैं विजय तिवारी ‘किसलय’ पूर्वान्ह वरिष्ठ साहित्यकार इंजी. संजीव वर्मा सलिल के साथ उनके निवास पहुँचा। हम दोनों ने 81 वीं वर्षगाँठ पर उनका मुँह मीठा कराया और बधाई दी।

इस अवसर पर मेरे आग्रह पर उन्होंने एक शृंगारिक रचना ‘छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की’ सुनाई। इसे आप भी यहाँ आत्मसात कर सकते हैं। 

– डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 68 – छूते ही हो गई देह कंचन पाषाणों की… आचार्य भगवत दुबे ☆ साभार डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ ✍

(आचार्य भगवत दुबे जी के बयासी वें जन्मदिवस पर)

छूते ही हो गयी देह कंचन पाषाणों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

खंजन नयनों के नूपुर जब तुमने खनकाए

तभी मदन के सुप्तप पखेरू ने पर फैलाए

कामनाओं में होड़ लगी फि‍र उच्चफ उड़ानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

यौवन की फि‍र उमड़ घुमड़ कर बरसीं घनी घटा

संकोचों के सभी आवरण हमने दिए हटा

स्वोत: सरकनें लगी यवनिका मदन मचानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

अधरों से अंगों पर तुमने अगणित छंद लिखे

गीत एक-दो नहीं केलिके कई प्रबन्धन लिखे

हुई निनादित मूक ॠचाएँ प्रणय-पुरोणों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

*

कभी मत्स्यगंधा ने पायी थी सुरभित काया

रोमंचक अध्या‍य वही फि‍र तुमने दुहराया

परिमलवती हुईं कलियाँ उजड़े उद्यानों की

है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 141 – घूमा बहुत विदेश में….🇮🇳 ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “घूमा बहुत विदेश में…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 141 – घूमा बहुत विदेश में… ☆

घूमा बहुत विदेश में, मिला मुझे यह ज्ञान।

मेरा भारतवर्ष यह, जग में बड़ा महान।।

*

विविध संस्कृतियाँ बसीं, हिल-मिल रहते लोग।

हैं स्वतंत्र सब जन सभी, पाते अमृत भोग।।

*

अमृत वर्ष मना रहे, हम भारत के लोग।

प्रगति राष्ट्र उत्थान में, मिल-जुल करते योग।।

*

विश्व जगत में बन गई, स्वाभिमान पहचान।

पाँचवीं अर्थ व्यवस्था, अब भारत की  शान।।

*

आजादी का पर्व यह, संस्कृति का ही पर्व।

सत्य सनातन परंपरा, हम सबको है गर्व।।

*

फहराया है देश में, आज तिरंगा देख।

देश भक्ति की भावना, खिची बड़ी है रेख।।

*

अठत्तरवाँ यह पर्व है, मना रहे हम आज।

देश प्रेम में  हम पगे, लोकतंत्र सरताज।।

*

शस्य श्यामला है धरा, मिली सनातन राह।

कभी तिरंगा झुके न, भारत की यह चाह।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -6 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 6 ?

(30 मार्च 2024)

सुबह भर पेट नाश्ता कर हम फुन्टोशोलिंग के लिए रवाना हुए। मौसम बहुत अच्छा था। रास्ते में पेमा हमारे प्रश्नों का उत्तर देता रहा और भूटान की अन्य जानकारी भी। शिक्षकों की आदत होती है सवाल पूछने की और हमारे सवालों का उत्तर देने के लिए तत्पर था पेमा।

भूटान भारत के बीच का संबंध बहुत पुराना और अच्छा रहा है। हम जब थिम्फू होते हुए गुज़र रहे थे तो हमें एक विशाल अस्पताल दिखाया गया। हाल ही में जब मोदी जी भूटान आए थे तो बच्चों के लिए इस उत्तम अस्पताल का उद्घाटन अपने हाथों से करके गए थे।

इस अस्पताल का एक हिस्सा 2019 में बनाया गया और दूसरा हिस्सा 2023 में पूरा हुआ। यह सारी व्यवस्था भारत के एक्सटर्नल मिनिस्ट्री द्वारा की गई। यह भारत की ओर से सहायता थी।

पेमा ने बताया कि इससे पहले भी भारत ने बड़ी मात्रा में भूटान को औषधीय सहायता प्रदान की है और यह मोदी जी के कार्यकाल से ही अधिक बढ़ा है। मन प्रसन्न हुआ कि मेरा देश पड़ोसी देशों के लिए भी फिक्रमंद है।

भारत से कई वस्तुओं का भूटान में व्यापार होता है। खासकर रोज़ाना लगनेवाली वस्तुएँ जैसे नमक, हल्दी, चायपत्ती, शक्कर गुड़ तथा अन्य भोजन सामग्री। मछली भी बड़ी मात्रा में भेजी जाती है। दवाइयाँ सब यहीं से जाती हैं।

पेमा ने हमें अपना राष्ट्रगान सुनाया और कुछ फिल्मी गीत भी सुनाए। उसका स्वर भी बहुत मधुर है। सात दिन हम साथ घूमते- फिरते परिवार जैसे हो गए।

थिम्फू से उतरते समय पहाड़ी पर हमने मिट्टी से बनी छोटी -छोटी हाँडीनुमा आकृतियाँ देखीं जो ऊपर के हिस्से में पिरामिड जैसी बनी हुई थीं। बड़ी संख्या में पहाड़ों के निचले हिस्से में ये हँडियाँ रखी हुई दिखीं। पूछने पर पेमा ने बताया कि प्रत्येक हाँडी में मंत्र लिखे हुए हैं। किसी के घर में कोई बीमार हो या शैयाग्रस्त हो या मरणासन्न हो या मृत हो ऐसे समय पर घर से दूर वीरान स्थान पर ये हँडियाँ रखी जाती हैं। मृत आत्मा की शांति की प्रार्थना उसमें डाली जाती है। बीमार लोगों को रोगमुक्त करने की प्रार्थना लिखी रहती है। इन हाँडियों को थथा कहा जाता है।

लोगों का विश्वास है कि प्रकृति ही सबकी देखभाल करती है। प्रकृति की ही गोद में जब प्रार्थनाओं से पूरित हँडियाँ सील करके रखी जाती हैं तो प्रकृति सबका ध्यान रखती है। प्रणाम है ऐसी आस्था को जो प्रकृति के प्रति इतनी समर्पित है। महान हैं वे लोग जो सच में प्रकृति को जीवित मानते हैं। उसकी शक्ति को पहचानते हैं और उसमें विश्वास रखते हैं। प्रकृति भूटानियों के प्रतिदिन के जीवन में अत्यंत घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और शायद इसीलिए यहाँ असंख्य वृक्ष स्वच्छंद से श्वास लेते हैं।

थिप्फू दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह पहाड़ी इलाका है। यहाँ लाल रंग के खिले हुए खूब सारे वृक्ष दिखाई दिए। छोटे -बड़े वृक्ष लाल फूलों से लदे हुए हैं। इन्हें रोडोड्रॉनड्रॉन कहा जाता है। ये फूल दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर ही खिलते हैं। अब हम धीरे -धीरे नीचे उतरने लगे। फिर लौटकर गा मे गा नामक होटल में लौटकर आए। एक रात यहाँ रुककर हम अगले दिन 31 तारीख को सुबह बागडोगरा के लिए रवाना हुए। 30 तारीख शाम को ही हमें भूटान के इमीग्रेशन ऑफिस जाकर अपने पेपर जमा करने पड़े। पेमा और साँगे का साथ यहीं तक था।

हम सुखद स्मृतियों के साथ, पड़ोसी देश की अद्भुत जानकारियों के साथ अपने घर लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 167 ☆ “इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजी श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “इत्ती सी बात…” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 167 ☆

“इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह … इत्ती सी बात

लेखक .. विजी श्रीवास्तव, भोपाल

प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन, बिजनौर

पृष्ठ ..२२४, मूल्य ३५० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

सतीश शुक्ल का उपन्यास “इत्ती सी बात” नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी। १९८१ में एक फिल्म आई थी “इतनी सी बात” पारिवारिक ड्रामा था। कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि “इत्ती सी बात” में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं। व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया। पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था, और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा। आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है, सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं। अस्तु।

व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं। किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं, व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है। अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं। और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है। समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है। स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं।

विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे। लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है। कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया, का उल्लेख करता हूं ” गुरु द्रोण तुम कहाँ हो” “सत्य जो ढूँढन मैं चला” “मुझे अवार्ड लौटाना है” “किसान की आत्मा धरने पर” “कट-कॉपी पेस्ट” “हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण” “विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च ” “हिन्दुस्तानी चैनल की बहस” “मौत का मुआवज़ा” “इत्ती सी बात”

” सब कुछ प्रायोजित है” “पेन देंगे भाईसाहब ” …. प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा। पूरी किताब गुदगुदाती है, ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है, बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है, किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से, पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है, उन पर विजी जी ने कलम चलाई है, बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे, व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है। वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। शीर्षक व्यंग्य “इत्ती सी बात ” से उधृत है ” आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते ” कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं ” ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है।

“बड़े बाबू की पर्सनल डायरी” में विजी एक नये तरीके से डायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं। इसी भांति ” तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो ” नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है। अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है, सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा, संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है। “रेप से बेअसर रेपो” कटु सचाई है। दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं। कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है, किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि, और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है, क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं। किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं ” अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी, फेकम फाँक पगे घेवर, गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर, किसी को पच नहीं रहा। …. चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है। “न लीलने की सीमा न उगलने का शउर ” से।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares