हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 66 ☆ गुड गोबर न होय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक व्यंग्य  गुड गोबर न होय। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 66 ☆

☆ व्यंग्य – गुड गोबर न होय ☆

कहावत है कि लकड़ी की काठी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती पर वह नेता ही क्या जो कहावतों का कहा मान ले। मेहनत  से क्या नहीं हो सकता? लीक के फकीर तो सभी होते हैं ।पर वास्तविक नेतृत्व वही देता है, जो स्वयं अपनी राह बनाए।

बिहार में लालू जी ने पशुओं के लिए बड़ी मात्रा में चारा खरीदा था, पशु चराने जाने वाले बच्चों के लिए चारागाह में ही विद्यालय खुले थे,  कितने बच्चे क्या पढ़े यह तो नहीं पता लेकिन अपने इन अभिनव बिल्कुल नए प्रयोगों से लालू जी चर्चा में आए थे। और इतनी चर्चा में आए थे कि हावर्ड बिजनेस स्कूल ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया ।

अब जब कोई सरकारी योजना आएगी तो उसे अकेले नेता जी तो क्रियान्वित करेंगे नही।योजना तो होती ही सहभागिता के लिए है।भांति भांति के लोगों के भांति भांति व्यवहार से योजना में घोटाले होते ही हैं।सच तो यह है कि योजना बनते ही उसके लूप होल्स ढूंढ लिए जाते हैं।  चारा घोटाला आज भी सुर्खी में है और बेचारे लालू जी जेल में।

कुछ नया, कुछ इनोवेटिव करने की कोशिश में अब छत्तीसगढ़  ने वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के लिए गोबर की खरीदी का जोर शोर से उद्घाटन किया है। उद्घाटन चल ही रहा है, और विपक्ष टाइप के लोगो को सम्भावित गोबर घोटाले की बू आने लगी है।  जिले जिले के कलेक्टर का अमला गोबर का हिसाब रखने के लिए साफ्टवेयर बनाने में जुट रहा है।न भूतो न भविष्यति, आई ए एस बनने वालों ने कभी सोचा भी न रहा होगा कि कभी उन्हें गोबर का भी गूढ़, गुड़ गोबर करना पड़ेगा ।

जब गोबर की सरकारी खरीद होगी तो पशुपालकों के साथ साथ उससे जुड़े कर्मचारियों से शुरू होकर अधिकारियों और नेताओं तक भी गोबर की गंध पहुंचेगी ही।कही गोबर गैस बनकर रोशनी होगी ।जनसंपर्क विभाग उस  रोशनी को अखबारों में परोस देगा।शायद नेता जी को व्याख्यान के लिए, पुरस्कार के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण मिल जाये।गोबर में बिना हड्डी के बड़े छोटे केचुए पनपेंगे  जो मजे में अफसरों और नेता जी के बटुए में समा जाएंगे।वर्मी कम्पोजड खाद होती ही सोना है।सो गोबर से सोना बनेगा।

जहां केचुए एडजस्ट नही हो पाएंगे वही गोबर से घोटाले की दुर्गंध आएगी यह तय समझिये।

हम तो यही कामना कर सकते हैं कि योजना का गुड़ गोबर न होने पाए।पशुपालन को सच्ची मुच्ची बढ़ावा मिल सके, खेती को ऑर्गेनिक खाद मिले, और योजना सफल हो।यद्यपि पुराने रिकार्ड कहते हैं कि जँह जँह पाँव पड़े नेतन के तँह तँह बंटाधार।चारा घोटाला पुरानी बात हुई पर अब गोबर धन पर काली नजर न लगे।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28 ☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं विचारणीय रचना “सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..। वास्तव में दलबदल का कोई प्रावधान ही नहीं होना चाहिए। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28☆

☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..

कहते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। जितने बार असफल हो उतनी बार उठो और फिर से प्रयास शुरू कर दो। जब परिश्रम का श्रम सिर चढ़कर बोलने लगता है, तो ईश्वर भी आपकी मदद करने हेतु हाजिर हो जाते हैं। ये बात केवल साधारण मनुष्यों तक लागू नहीं होती है। इसी विचारधारा को अपनी प्रेरणा मानते हुए जनप्रतिनिधि भी लगातार श्रेष्ठ आचरण करते हुए दिख रहे हैं। वे सफल होने के लिए दलबदल से भी नहीं हिचकते। चुनाव भले ही किसी भी दल से जीता हो लेकिन वफ़ादारी कुर्सी के प्रति ही रखते हैं। आख़िर कुर्सी भी तो कोई चीज होती है। सोचिए यदि जनता की सेवा करनी है, तो खड़े- खड़े कब तक केवल विपक्ष की तरह अपनी आवाज उठाते रहेंगे। सो अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाते हुए अपने समर्थकों को लेकर स्वतंत्र होने की घोषणा कर ही देते हैं।

इधर दूसरी ओर लोग भी इस ताक में बैठे रहते हैं कि कोई स्वतंत्र पंछी दिखे तो उसे पिंजरे में कैद करें। मानवता के पुजारी दिनभर इसी जुगत में अपना समय पास करते- रहते हैं। पहले तो बहुमत प्राप्त दल  सरकार बनाता तो दूसरा आसानी से स्वयं विपक्षी का फर्ज निभाने लगता था। अब समय बदल रहा है,  पाँच साल तक सब्र रखना कठिन होता जा रहा है, सो सफलता के तत्वों से प्रेरणा ले विपक्षी दल भी सत्तापक्ष पर सेंध लगा ही देता है। पहली बार में असफलता ही हाथ लगती है, फिर दुबारा गलतियाँ कहाँ रह गयीं, किसने गद्दारी की ये सब देख कर पुनः योजना बनाई जाती है। इस बार विश्वास पात्रों को ही इसमें शामिल करते हैं, फिर भी शत प्रतिशत सफलता नहीं मिल पाती। अब तो पार्टी के केंद्रीय मुखिया को जोर लगाना पड़ता है तथा सारा कार्य अपने हाथों में लेते हुए परीक्षा का परिणाम 100 % कर देते हैं और फिर राज्य के विपक्षी प्रमुख को बुला कर उसे कुर्सी सौंप सत्ता पक्ष का ताज पहना कर ही अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।

अरे भाई जनता का कार्य केवल वोट देना है, कुर्सी पर कौन कितनी देर तक टिकेगा इससे न उन्हें मतलब है न होना चाहिए। ये तय है कि चुनाव 5 साल में ही एक बार होगा, क्योंकि खर्च बहुत लगता है, और ये सब जनता का ही तो है ; सो मूक रहकर सब तमाशा देखती रहती है। किसी भी दल को बहुमत से जिता कर भले ही भेज दो पर कुर्सी में वही टिकेगा जो सारे विधयकों या सांसदों को संतुष्ट करने का मंत्र जानता हो।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 37 ☆ प्यार होना चाहिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “प्यार होना चाहिए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 37 ☆

☆ प्यार होना चाहिए ☆ 

 

आदमी को उम्रभर गमख़्वार होना चाहिए।

और दिल में सिर्फ ,उसके प्यार होना चाहिए।

 

जिसकी मिट्टी में फले-फूले सदा खाया रिजक।

नाज उस पर हर किसी को यार होना चाहिए।।

 

मजहबों और जातियों के भेदभावों से अलग।

भाईचारे का नया संसार होना चाहिए।।

 

सुख में तो साथी बहुत मिलते ही रहते हैं मगर।

मुश्किलों की हर घड़ी में यार होना चाहिए।।

 

हर कोई मशगूल है, अपनी भलाई में मगर।

वास्ते औरों के भी उपकार होना चाहिए।।

 

बात जो परदे में हो,अच्छी वो परदे ही में हो।

राज को यों राज ही दरकार होना चाहिए।।

 

चक्र की आवाज पहुँची आप सबके बीच में।

प्यार की वर्षा से यारो प्यार होना चाहिए।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सुजित साहित्य – घुसमट…. ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “घुसमट*….”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆  सुजित साहित्य  –  घुसमट….☆ 

 

दिवसभर टपरीवर

काम करून घरी गेल्यावर

पोराला कुशीत घ्यायचं असुनही…

कुशीत घेता येत नाही

कारण…

कपड्यांना येणाऱ्या तंबाखूच्या वासानं

पोरगं क्षणभरही

माझ्या कुशीत थांबत नाही

तेव्हा वाटतं..

खरडून काढावा हा तंबाखूचा वास

अगदी शरीराच्या कातड्यासकट

जोपर्यंत दिवसभर पानाला कात लावून

रंगलेले हात..

रक्ताने लाल होत नाही तोपर्यंत

कारण..

दिवसभर ज्याच्या साठी मी

जीवाच रान करून झटत असतो

तेच पोरग जेव्हा माझ्याकडे पाठ करून

आईच्या कुशीत शिरत

तेव्हा काळजातल्या वेदनांना अंतच

उरत नाही…

आणि काही केल्या

अंगाला येणारा तंबाखूचा वास काही जात नाही

तेव्हा कुठेतरी आपण करत

असलेल्या कामाचं वाईट वाटतं

वाटतं…!

सोडून द्यावं सारं काही

आणि

लेकराला बरं वाटेल

अंस एखादं काम बघावं

मग कळतं की

आपण करत असलेल हे

काम त्याच्या साठीच आहे

समज आल्यावर,

त्याला आपसूक सारं कळेल

आणि…

बापाच्या कुशीतला तंबाखूचा

वासही मग त्याला

अत्तरा सारखा वाटेल

शेवटी फक्त एवढच वाटतं

आपण करत असलेल काम

आपल्या पोरांन करू नये

त्याच्या लेकरांन तरी त्याच्याकडे

पाठ करून

आईच्या कुशीत झोपु नये…

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो. 7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 57 – उड़नखटोला….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक बाल कविता  उड़नखटोला….. )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 57 ☆

☆ एक बाल कविता – उड़नखटोला….. ☆  

 

उड़न खटोला नाम पुराना

अब कहते हैं एरोप्लेन

उड़े हवा में, दूर-दूर तक

ज्यों उड़ते पंछी दिन-रैन

 

भारी भरकम पंखे इसके

दाब हवा का खूब बनाते

यंत्र महीन लगे इसमें जो

नभ में इसको दिशा दिखाते,

 

पल में, गोआ से दिल्ली

दिल्ली से पहुंचा दे उज्जैन।

उड़न खटोला नाम पुराना

अब कहते हैं एरोप्लेन।।

 

एक देश से, देश दूसरे

शीघ्र हमें सकुशल पहुंचाए

घंटों की दूरी मिनटों में

सात समंदर पार कराए

,सेवाएं ‘एयर होस्टेस’ की

सबके मन को देती चैन।

उड़न खटोला नाम पुराना

अब कहते हैं एरोप्लेन।।

 

पगडंडी से सड़क, सड़क से

पटरी, पटरी से आकाश

चाँद पे पहुंचा मानव

यूं चौतरफा होने लगा विकास

हो जाते हैं चकित देखकर

यह अद्भुत विज्ञान की देन।

 

उड़े हवा में, दूर-दूर तक

ज्यों उड़ते पंछी दिन-रैन

उड़न खटोला नाम पुराना

अब कहते हैं एरोप्लेन।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

07/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 59 – मेघ बरसला आज…..☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  वर्षा ऋतू एवं श्रवण मास  पर आधारित  एक अतिसुन्दर कविता मेघ बरसला आज। श्री प्रभा जी की यह रचना  श्रवण मास का सजीव चित्रण है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

खुप सुंदर श्रावण  असायचा

बालपणीचा…झाडांचा..हिंदोळ्याचा..पानाफुलांचा …देवदर्शनाचा..मेंदीचा…झिम्मा फुगडीचा …..

सगळ्यांना नव्या श्रावणाच्या शुभेच्छा ☘

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 59 ☆

☆मेघ बरसला आज….. ☆

 

मेघ बरसला आज

आल्या श्रावणाच्या सरी

तुझी आठवण येता

झाले कावरी बावरी

 

मेघ बरसला आज

मन सैरभैर झाले

तुझ्या निघून जाण्याचे

दुःख पावसात ओले

 

मेघ बरसला आज

सखे रिकामे अंगण

मुके झाले आहे आज

माझ्या पायीचे पैंजण

 

मेघ बरसला आज

त्याला डोळ्यात जपला

तुझ्या नसण्याने एका

सारा खेळच संपला

 

© प्रभा सोनवणे

 *अनिकेत* -१९९७)

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 37 – बापू के संस्मरण-12- वह मजदूर कहां है ? …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –वह मजदूर कहां है ? ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 38 – बापू के संस्मरण – 12 – वह मजदूर कहां है ? …… 

चम्पारन में निलहे गोरों के विरुद्ध जांच का काम चल रहा था। गांधीजी के आसपास काफी लोग इकट्ठे हो गये थे ।

उनमें कुष्ठ-रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था । वह पैरों में चिथड़े लपेटकर चलता था । उसके घाव खुल गये थे और पैर  सूज गये थे। उसे असह्य वेदना होती थी, लेकिन न जाने किस आत्म- शक्ति के बल पर वह अपना काम कर रहा था ।

एक दिन चलते-चलते उसके पैरों के चिथड़े खुलकर रास्ते में गिर गये, घावों से खून बहने लगा, चलना दूभर हो गया। दूसरे साथी आगे बढ़ गये। गांधीजी तो सबसे तेज चलते थे। वह सबसे आगे थे । उस रोगी की और किसी ने ध्यान नहीं दिया । अपने आवास पर पहुंचकर जब सब लोग प्रार्थना के लिए बैठे तो गांधीजी ने उसको नहीं देखा । पूछा,` हमारे साथ जो मजदूर था, वह कहां है?

एक व्यक्ति ने कहा, वह जल्दी चल नहीं पा रहा था । थक जाने से एक पेड़ के नीचे बैठ गया था । गांधीजी चुप हो गये और हाथ में बत्ती लेकर उसे खोजने निकल पड़े । वह मजदूर एक पेड़ के नीचे बैठा रामनाम ले रहा था। गांधीजी को देखकर उसके चेहरे पर प्रकाश चमक आया ।

गांधीजी ने कहा, तुमसे चला नहीं जा रहा था तो मुझे कहना चाहिए था, भाई ।

उन्होंने उसके खून से सने हुए पैरों की ओर देखा. चादर फाड़कर उन्हें लपेटा । फिर सहारा देकर उसे अपने आवास पर ले आये। उस दिन उसके पैर धोकर ही उन्होंने अपनी प्रार्थना शुरू की ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – हिरवा गाव – ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

अब आप सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी के साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य को प्रत्येक बुधवार आत्मसात कर सकेंगे । आज प्रस्तुत है ग्राम्य संस्कृति की झलक प्रस्तुत कराती एक भावपूर्ण कविता  हिरवा गाव.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – हिरवा गाव – ☆

हिरव्या साडीतली कुलीन  केळ।

मांडवावरची  शालीन  वेल

हिरव्या  पोरी  मारताहेत  भाव

वसलाय तेथे हिरवा  गाव    ।।

 

गुलमोहोराचं गुलजार रूप

प्राजक्त भोळा  फुललाय खूप

पानांत रंगलाय पाखरांचा डाव

वसलाय तेथे ——–

 

शेवंती, चमेली, जाईजुई नाजुक

काट्यांतून हसतय गुलाबाचं कौतुक

कोरांटी, तगरीचा सरळ स्वभाव

वसलाय तेथे ——–

 

ऊंच माडांचे झुलताहेत पंखे

सलामी देताहेत अशोक उलटे

जास्वंद हसतेय लालम् लाल

वसलाय तेथे ——-

 

हिरव्या गावात पावसाचा उत्सव

फुलापानांचं, फळांचं वैभव

ढगांच्या भाराने वाकलंय आभाळ

वसलाय तेथे हिरवा गाव  ।।

 

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372, 8806955070

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 37 ☆ लघुकथा – ईश्वर मनुष्य बन्दर ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत  भावुक लघुकथा  ईश्वर मनुष्य बन्दर।  संयोगवश मैंने भी इस तरह की घटना देखी है जिसमें बिजली के करंट से मृत  बन्दर के बच्चे को  उसकी माँ सीने से लगाकर इधर उधर दौड़ती रही और अंत में एक बूढा बन्दर सब को दूर कहीं दौड़ा कर ले गया। अकस्मात् हुई वह घटना कभी विस्मृत ही नहीं होती । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को को ऐसी संवेदनशील लघुकथा के लिए  नमन ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ईश्वर मनुष्य बन्दर ☆

स्कूल के सामने बिजली के लम्बे-लम्बे तार खिंचे थे उस पर बन्दरों की आवा-जाही अनवरत चलती रहती। अचानक एक बन्दर को बिजली का करंट लगने से वह छोटा सा बन्दर नीचे छटपटा कर गिरा, कुछ ही क्षणों मे जाने कहाँ से पचासों बन्दर वहाँ इकट्ठा हो गये कोई उसका हाथ पकड़ कर हिलाता, कोई उसकी आंख, कोई नाक इस तरह टटोलकर वे उसे किसी तरह उठाना चाह रहे थे। पर वह उठ ही नहीं रहा था।

हम सभी यह दुर्घटना देख उन बन्दरों की कोशिश देख रहे थे। स्कूल के बच्चे यदि उनके जरा भी करीब जाते तो सारे बन्दर खी- खी कर डरा कर उन्हे भगा देते। इतने मे ही नगर निगम की गाड़ी वहां आई, शायद किसी ने फोन कर उसे बुला लिया था, पर सभी बन्दर उस छोटे से बन्दर को एक पल को भी आँखों से ओझल नहीं होने दे रहे थे। वे कभी नगर -निगम की गाड़ी को तो   कभी कर्मचारियों को देख  रहे थे, किसी तरह उन्हें वहां से हटाया गया तो उनमें अफरा -तफरी सी मच गयी। बड़ी मुश्किल से छोटे मृत बन्दर को गाड़ी मे डाला गया।  वे सभी अपनी भाषा मे बोलते, चीखते रहे  और जब कभी ऊपर को देखते भले ही वे पेड़ को देख रहे थे पर हम सबको लग रहा था वे ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारे बच्चे को जीवन दे दो।

और गाड़ी मृत बन्दर को लेकर चली गयी। बाकि जितने भी  बन्दर थे वे भी गाड़ी जाते ही अपने अपने निवास को चले गये।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 8 – कहो तो चले अब ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता कहो तो चले अब. 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 8 – कहो तो चले अब

 

उम्र अब मुझे झझकोरने लगी है, सामने तो कुछ नही कहती,

दबे पांव बीमारी संग कहलाती है, कहो तो चले अब ||

 

उम्र अब मुझे कहलाने लगी है, सामने तो कुछ नही कहती,

शरीर पर पड़ती झुर्रियों संग कहलाती है, कहो तो चले अब||

 

उम्र अब मुझे अहसास कराने लगी है, सामने तो कुछ नहीं कहती,

बैसाखियों के संग कहलाती है, कहो तो चले अब ||

 

उम्र अब मुझसे रूठने लगी है, सामने तो कुछ नहीं कहती,

दिल मधुमेह जैसी बिमारियों संग कहलाती है, कहो तो चले अब ||

 

उम्र अब मुझ पर शिकंजा कसने लगी है, सामने तो कुछ नही कहती,

रोज नयी-नयी बिमारियों संग कहलाती है, कहो तो चले अब ||

 

उम्र जन्म से सांस संग जिस्म में घुसी थी, सामने तो कुछ नही कहती,

रोज अटकती साँस संग कहलाती है, कहो तो चले अब ||

 

उम्र के उतार पर आकर थक गया, सामने तो अब कुछ नही कहती,

हालात से परेशां अब मैं खुद उम्र से कहता हूँ, तैयार हूँ कहो तो चले अब ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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