हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 227 ☆ बहती धारा अनवरत… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बहती धारा अनवरत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 227 ☆ बहती धारा अनवरत

प्रकृति में वही व्यक्ति या वस्तु अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते।

यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्य एक न एक दिन लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।

निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।

बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आंकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है, सच पूछे तो वास्तविक आंनद तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले।

नदियों की धारा जुड़ी, राह को बनाते मुड़ी

जल का प्रवाह बढ़ा, कल- कल सी बहे।

*

सागर की ओर चली, बन मतवाली कली

बूंद- बूंद वन- वन, छल- छल सी रहे।।

*

संगम को अकुलाई, बिना रुके चल आई

जीवन को सौंप दिया, सुकुमारी सी कहे।

*

जल बिन कैसे जियें, घूँट- घूँट कैसे पियें

शुद्धता का भाव धारे, मौन मूक सी सहे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव हरिपुर में पंचायत का बड़ा आयोजन था। ऐसा कहा जा रहा था कि इस बार ‘विकास’ नामक अमूल्य वस्तु का वितरण होगा। विकास वही जादुई चीज थी, जिसे नेता जी चुनावों के दौरान दिखाते थे लेकिन बाद में वो कहीं गुम हो जाती थी। पंचायत भवन पर बैनर लगा था – “हरिपुर: आधुनिकता की ओर पहला कदम।”

सभा शुरू हुई। नेता जी आए, हाथ जोड़कर मुस्कुराए और बोले, “गाँववालों, इस बार हमने विकास का पूरा खाका तैयार किया है।” फिर वे चुप हो गए, मानो खाका दिखाना भूल गए हों। तभी पीछे से चौधरी रामलाल खड़े हुए और बोले, “नेता जी, खाका तो दिखाइए!”

नेता जी झेंप गए। बोले, “खाका अभी प्रक्रिया में है। लेकिन विकास के लिए हमने दो योजनाएँ बनाई हैं। पहली योजना है ‘हर घर पिज्जा योजना’।”

गाँववालों की आँखें चमक उठीं। पिज्जा का नाम सुनते ही बच्चा-बूढ़ा सब खुश हो गए। किसी ने पूछा, “पिज्जा का क्या मतलब है?”

नेता जी ने समझाया, “पिज्जा का मतलब है बदलाव। बदलाव का स्वाद, जिसे हर घर तक पहुँचाया जाएगा।”

सभा में तालियाँ गूँज उठीं।

दूसरी योजना थी – ‘गड्ढों में गगनचुंबी सपने।’ नेता जी ने कहा, “हम सड़कों पर गड्ढे नहीं भरेंगे। गड्ढे हमारे इतिहास की धरोहर हैं। लेकिन हर गड्ढे के बगल में एक ‘स्वप्न-झूला’ लगाएँगे।”

गाँववालों को समझ नहीं आया कि यह स्वप्न-झूला क्या है। नेता जी ने बताया, “जब आप झूले पर बैठेंगे, तो आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी मेट्रो सिटी की सड़क पर चल रहे हैं। यह झूला सस्ती दरों पर किराए पर मिलेगा।”

सभा में हलचल मच गई। लोग आपस में कानाफूसी करने लगे। लेकिन कोई खुलकर विरोध नहीं कर पाया, क्योंकि विरोध करने वाले को नेता जी के चमचों से तुरंत ‘अविकसित’ घोषित कर दिया जाता था।

सभा के अंत में विकास का प्रतीक – ‘पिज्जा बॉक्स’ – हर सरपंच को सौंपा गया। यह पिज्जा बॉक्स असल में खाली था। नेता जी ने मुस्कुराकर कहा, “यह खाली बॉक्स हमारे सपनों का प्रतीक है। आप इसे अपने घर सजाकर रखिए, ताकि हर दिन आपको विकास की याद आए।”

सभा खत्म हुई। पंचायत भवन के बाहर चाय-पकौड़े की दुकान पर लोग चर्चा कर रहे थे।

“ये विकास का पिज्जा तो बड़ा स्वादिष्ट है। न खाने को कुछ और न शिकायत करने का मौका!” रामलाल बोले।

चायवाले ने हँसकर कहा, “गाँव का विकास अब पिज्जा के बक्सों में सिमट गया है। और वो झूले, वो तो बस हवा में सपने देखने का एक और बहाना है।”

नेता जी अपनी गाड़ी में बैठे, हाथ हिलाते हुए बोले, “गाँववालों, अगले चुनाव में मिलते हैं। तब तक झूलते रहिए और पिज्जा का मज़ा लेते रहिए।”

और इस तरह हरिपुर का आधुनिकता की ओर पहला कदम हवा में लटका रह गया।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 326 ☆ आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 326 ☆

? आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे स्मरण है, पहले पहल जब टी वी आया तब पत्रिकाओं और किताबो पर इसे मीडीया का खतरा बताया गया था। फिर सोशल मीडीया का स्वसंपादित युग आ गया। अतः यह बहस लाजिमी ही है कि इसका पत्रिकाओं पर क्या प्रभाव हो रहा है। जो भी हो दुनियां भर में केवल प्रकाशित साहित्य ही ऐसी वस्तु हैं जिनके मूल्य की कोई सीमा नही है, इसका कारण है पुस्तको में समाहित ज्ञान। और ज्ञान अनमोल होता है। लघु पत्रिकाओं के वितरण का कोई स्थाई नेटवर्क नहीं है। वे डाक विभाग पर ही निर्भर हैं, अब सस्ते बुक पोस्ट की समाप्ति हो गई है। अतः मुद्रण से लेकर वितरण तक ये पत्रिकाएं जूझ रही हैं। इसलिए ई बुक फ्लिप फॉर्मेट, पीडीएफ में सॉफ्ट स्वरूप मददगार साबित हो रहा है। पठनीयता का अभाव, कागज और पर्यावरण की चिंता पुस्तको के हार्ड कापी स्वरूप पर की जा रही है। सचमुच एक कागज खराब करने का अर्थ एक बांस को नष्ट करना होता है यह तथ्य अंतस में स्थापित करने की जरूरत है।

प्रकाशन सुविधाओं के विस्तार से आज रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है। आज लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं। लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है। माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है। पर आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी हृास हुआ है। साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है। आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये। पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये। आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है। इस दिशा में लघु पत्रिकाओं का महत्व निर्विवाद है। लघु पत्रिकाओं का विषय केंद्रित, सुरुचिपूर्ण, अनियतकालीन प्रकाशन और समर्पण, पाठकों तक सीमित संसार रोचक है।

समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग्य के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का प्रमुख हिस्सा बनाया जा सकता है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं। जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं। समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है। निश्चित ही आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा।

किताबें तब से अपनी जगह स्थाई रही हैं जब पत्तो पर हाथों से लिखी जाती थीं। मेरी पीढ़ी को हस्त लिखित और सायक्लोस्टाईल पत्रिका का भी स्मरण है। , मैंने स्वयं अपने हाथो, स्कूल में सायक्लोस्टाईल व स्क्रीन प्रिंटेड एक एक पृष्ठ छाप कर पत्रिका छापी है। आगे और भी परिवर्तन होंगे क्योंकि विज्ञान नित नये पृष्ठ लिख रहा है, मेरा बेटा न्यूयार्क में है, वह ज्यादातर आडियो बुक्स ही सुनता गुनता है। किन्तु मेरे लिये बिस्तर पर नींद से पहले हार्ड कापी की लघु पत्रिकाओं और किताब का ही बोलबाला है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #199 – लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 199 ☆

☆ लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा,हम ने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसू​ता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.

” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”

इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.”

” फिर ?”

” मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में ​प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”

” क्या ?” डॉक्टर साहिबा को यकीन नहीं हुआ, ” उसने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?”

सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”

” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”

यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.

” इस की समाजसेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७.०३.२०१८

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 234 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 234 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दक्षिण ध्रुव की बर्फ में रहता

सागर में खाता गोता।

पंख नहीं वह न उड़ सकता

पक्षी है सबको मोहता।

 *

बर्फ पर चलता अंडे देता

कूद-फाँद वह कर सकता।

सागर की तलहटी चूमे

मित्र मनुज का बन सकता।

 *

दाँत नहीं हैं इसके होते

चोंच से करता सदा शिकार।

आधा धवल , शेष है काला

रोचक है इसका संसार।

 *

कई प्रजाति इसकी होतीं

अन्टार्कटिका है मुख्य स्थान।

बर्फ है इसकी जीवन साथी

पूँछ , पैर है इसकी शान।

 *

दुर्गम क्षेत्र ढके बर्फ से

वहीं बसाता सदा बस्तियाँ।

अधिक ठंड में झुंड में रहता

करता रहता खूब मस्तियाँ ।

 *

पच्चीस अप्रैल दिवस संरक्षण

अंतिम अक्षर उसके इन।

रोचक है पेंगु की दुनिया

जलवायु परिवर्तन से खिन।

 *

उत्तर – पेंगुइन पक्षी।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

२ ) विविधा — ( लेख श्री. पंडित पाठवणार आहेत. )

“ तो आणि मी.. “ – भाग ३८ लेखक : अरविंद लिमये

तो आणि मी

 ——-(अरविंद लिमये, सांगली)

 (क्रमश:-दर गुरुवारी)

 भाग-३८

 ————————–

(पूर्वसूत्र- तो प्रसंग लिलाताईच्या दत्तगुरुंवरील श्रध्देची कसोटी पहाणारा ठरला होता आणि माझ्या बाबांकडून तिच्या विचारांना अकल्पित मिळालेल्या योग्य दिशेमुळे ती त्या कसोटीला उतरलीही!

तो दिवस आणि ती घटना दोन्हीही माझ्या मनातील लिलाताईच्या संदर्भातील आठवणींचा अविभाज्य भाग बनून गेलेले आहेत!)

आदल्या दिवशीच्या रात्री घडलेली ती घटना! त्या कॉलनीतली आमची घरं म्हणजे मधे भिंत असलेली दोन जोडघरेच होती.

त्या रात्री निजानीज होऊन बराच वेळ झाल्यानंतर अचानक मी पलिकडून येणाऱ्या जोरजोरात बोलण्याच्या आवाजाने दचकून जागा झालो. पाहिलं तर आई-बाबाही उठून बसलेले. हलक्या आवाजात एकमेकाशी कांहीतरी बोलत होते. इतर भावंडेही झोप चाळवल्याने माझ्या आधीच जागी झाली होती. रडत, मोठ्या आवाजात बोलण्याचा पलीकडून येणारा तो आवाज लिलाताईचा होता! ती तिच्या वडलांना दुखावलेल्या, चिडलेल्या आवाजात ताडताड बोलत होती. बाकी सर्वजण गप्प राहून ऐकत असणार कारण बाकी कुणाचाच आवाज येत नव्हता.

बाबांनी दटावून आम्हाला झोपण्यास सांगितले. ते दोघे मात्र नंतर बराच वेळ जागे असणार नक्कीच.

सकाळी उठलो तसं मी हे सगळं विसरूनही गेलो होतो. पण ते तात्पुरतंच. कारण बाबांनी पादुकांची पूजा आवरली तसं नेहमीप्रमाणे तीर्थप्रसाद घेण्यासाठी बाहेर आलेल्या

लीलाताईने हात पुढे केला तेव्हा तिला प्रसाद न देताच बाबा आत निघून आले आणि त्यामुळे दुखावलेली लिलाताई रात्री घडलेल्या प्रसंगाची पुन्हा आठवण करुन द्यायला आल्यासारखी बाबांच्या पाठोपाठ खाली मान घालून आमच्या घरात आली!

“काका, कां हो असं? आज मला तीर्थ न् प्रसाद कां बरं नाही दिलात?.. ”

” का नसेल दिला?” बाबांनी तिच्याकडे रोखून पहात तिलाच विचारलं. मान खाली घालून तिथेच अभ्यास करीत बसलेल्या मी दचकून बाबांकडे पाहिलं.

“कां? कांही चुकलं का माझं?” तिने विचारलं.

“ते मीच सांगायला हवं कां? सांगतो. ही आत चहा टाकतेय. तूही घे घोटभर. जा. मी आलोच. ”

ती कांही न बोलता खालमानेनं आमच्या

स्वयंपाकघरांत गेली. आई चुलीवर चहाचं आधण ठेवत होती. लिलाताईला पहाताच आईने तिला भिंतीजवळचा पाट घ्यायला सांगितलं. “बैस” म्हणाली. तोवर बाबाही आत आले.

“चहा घे आणि बाहेर जाऊन पादुकांना रोजच्यासारखा एकाग्रतेने मनापासून नमस्कार करून ये. मघाशी तू स्वस्थचित्त नसावीस बहुतेक. त्यामुळेच असेल, आरती होताच तू

नेहमीसारखा देवाला नमस्कार न करताच तीर्थ घ्यायला हात पुढं केला होतास. आठवतंय?म्हणून तुला तीर्थ दिलं नव्हतं. ” बाबा शांतपणे म्हणाले.

तिचे डोळे भरून आले.

“गप. रडू नको. डोळे पूस बरं. ” आई म्हणाली.

“तुम्हा दोघांनाही माझंच चुकलंय असंच वाटतंय माहितीय मला. ” ती नाराजीने म्हणाली.

“तसं नाहीये” बाबा म्हणाले. “आपण चूक की बरोबर हे ज्याचं त्यानंच ठरवायचं असतं. तुझं काही चुकलंय कां हे आम्ही कोण ठरवणार? तो निवाडा काल रात्री तू स्वत:च तर करुन टाकलायस आणि तुझ्या दृष्टीने जो चूक, त्याला त्याची पूरेपूर शिक्षाही देऊन टाकलीयस. ”

“म्हणजे माझ्या बाबांना. असंच ना? मी त्यांना जे बोलले त्यातला एक शब्द तरी खोटा होता कां सांगा ना ” ती कळवळून म्हणाली.

“खोटं काहीच नसतं. पण संपूर्ण खरंही काहीच नसतं. आणि खरं असेल तेही कसं बोलावं किंवा बोलावं की नाही हे ज्याचं त्यानं ठरवायचं. तू जे आणि जसं बोललीस त्यात तुझं काही चुकलं नाही असं तुला वाटत असेल तर तू अस्वस्थ कां आहेस याचा विचार कर. तुझ्या प्रश्नाचं उत्तर तुझं तुलाच मिळेल. ”

“हो. बाबांना काल बोलले मी खूप. काय चुकलं माझं?मला खूप रागच नव्हता आला त्यांचा तर दुखावलेही गेले होते मी. अजूनही शांत नाहीये मन माझं. मीच सगळं कां सहन करायचं सांगा ना?” आवाज भरून आला तसं ती थांबली. घुसमटत रडत राहिली.

“तू शांत हो बरं आधी. असा त्रागा करुन तुलाच त्रास होईल ना बाळा?” आई म्हणाली.

“तुम्ही आज ओळखता कां काकू मला? तुम्हाला इथं

येऊन चार वर्षं होऊन गेलीयत. इतक्या वर्षात मला एकदा तरी असा इतका त्रागा केलेलं पाहिलंयत कां तुम्ही सांगा बघू…. ” ती बोलू लागली. जखमेला धक्का लागताच ती भळभळून वहात रहावी तसं बोलत राहिली. तिचा प्रत्येक शब्द ऐकणाऱ्यालाही अस्वस्थ करणारा होता. आईचे डोळेही भरुन आले होते तसे बाबाही चलबिचल झाले.

तिची कशाचबद्दल कधीच कांही तक्रार नसायची. जे तिनंच करायला हवं ते कुणी न सांगता तोवर निमूटपणे करतच तर आलेली होती. तिची आई, वडील, सगळी भावंडं ही सगळी आपलीच तर आहेत हीच तिची भावना असायची. आजपर्यंत तिने घरबसल्या स्वकष्टाने मिळवलेल्या पैशातली एक दमडीही कधी स्वत:साठी खर्च केलेली नव्हती. जे केलं ते सर्वांसाठीच तर केलं होतं. स्वत:चं कर्तव्य तोंडातून चकार शब्द न काढता जर ती पार पाडत आली होती तर तिच्या बाबतीतलं त्यांचं कर्तव्यही बाबांनीही कां नाही पार पाडायचं हा तिचा प्रश्न होता! काल रात्री हेच ती आपल्या वडलांना पुन:पुन्हा विचारत राहिली होती. खरं तर असा विचार तोपर्यंत तिच्या मनात खरंच कधीच डोकावलाही नव्हता,… पण काल… ?

काल तिच्या पाठच्या बहिणीसाठी, बेबीताईसाठी सांगून आलेल्या स्थळाला होकार कळवून तिचे बाबा मोकळे झाले होते त्यामुळे ही दुखावली गेली आणि आज तेच सगळं आठवून तिचे डोळे पाझरत राहिले होते..

“माझ्यापेक्षा फक्त दोन वर्षानं लहान असलेली माझी बहीण आहे ती. तिचं कांही चांगलं होत असेल तर मी कां वाईट वाटून घेऊ सांगा ना?फक्त बहिणीच नाही तर दोन मैत्रिणींसारख्याच आम्ही लहानाच्या मोठ्या झालोयत. तिचं लग्न होतंय, ती मार्गाला लागतेय याचा आनंदच आहे मला. त्यासाठी चिडेन कां मी? पण हा निर्णय घेताना माझ्या वडलांनी मला गृहीत कां धरायचं? मला विश्वासात घेऊन त्यांनी आधी हे कां नाही सांगायचं? खूप शिकायचं, खूप मोठ्ठं व्हायचं असं स्वप्न होतं हो माझं. पण दोघांचे फॉर्म भरायला पुरेशा पैशाची सोय झाली नाही म्हणून एकाचाच फॉर्म भरायची वेळ आली तेव्हाही मला असंच गृहितच तर धरलं होतं त्यांनी. तेव्हाही प्राधान्य कुणाला दिलं तर आण्णाला. तो हुशार नव्हता, पुढं फारसा शिकणार नव्हता तरीही प्राधान्य त्याला. कां तर तो मुलगा म्हणून. म्हणजे मी… मी मुलगी आहे हाच माझा गुन्हा होता कां?तसं असेल तर मी हुशार असून उपयोग काय त्याचा? तेव्हाही आतल्या आत सगळं गिळून तोंडातून ‘ब्र’ही न काढता मी गप्प बसलेच होते ना हो?असंच कां आणि किती दिवस गप्प बसायचं ?

मला संताप अनावर झाला त्याला हे निमित्त झालं फक्त. पण मला राग यायचं कारण वेगळंच आहे. या स्थळाकडून विचारणा आल्यापासून मला विश्वासात घेऊन एका शब्दानेही कांही सांगावं, विचारावं असं त्यांना वाटलंच नाहीय याचा राग आलाय मला. ‘हिला काय विचारायचं? हिला काय सांगायचं? ही थोडीच नाही, नको म्हणणाराय?’ असं त्यांनी गृहितच धरलं याचा राग आला मला. मीही माणूसच आहे ना हो काका? मलाही मन आहे, भावना आहेत हे जन्मदात्या वडलांनी तरी समजून घ्यायला नको कां? हे सगळं स्वतःच स्वत:च्या तोंडानं ठणकावून सांगताना कालही आनंद नव्हताच झाला हो मला. पण न बोलता होणारी घुसमटही सहन होत नव्हती… “

आवाज भरून आला तशी ती बोलायची थांबली.

अस्वस्थपणे येरझारा घालणाऱ्या बाबांनी चमकून तिच्याकडे पाहिलं.

“हे बघ, तू हुशार आहेस. मनानं चांगली आहेस. मी सांगेन ते समजून घेशील असं वाटतंय म्हणून सांगणाराय. ऐकशील?” ते म्हणाले.

तिने डोळे पुसत होकारार्थी मान हलवली.

“हे बघ. आता या सगळ्याचा तू त्यांच्या दृष्टीकोनातून विचार करुन बघ. बेबीसाठी जे स्थळ आलंय ते बिजवराचं आहे. पहिली तीन वर्षांची एक मुलगी आहे त्याला. तो शिकलेला, सुखवस्तू आहे, तरीही कमी शिकलेली मुलगी स्वीकारायला तो तयार होता कारण पहिल्या मुलीचं सगळं प्रेमानं करणारी मुलगी त्याला हवी होती. याबाबतीत काय निर्णय घ्यावा याचं दडपण आपल्या वडलांच्या मनावर असणाराय याचा विचार स्वतःबद्दलच्या एकांगी विचारांच्या गर्दीत तुझ्या मनात डोकावला होता कां? नव्हता. हो ना? खरंतर तुझ्या आधाराची खरी गरज त्या क्षणी त्यांना होती. इतकी वर्षं मी पहातोय एकही दिवस तो माणूस स्वतःसाठी जगलेला नाहीय. राबतोय, कष्ट करतोय, दिवसभर आणि रात्रपाळ्या असताना आठ आठ तास रात्रीही मशीनसमोर उभं राहून दमून भागून घरी आल्यानंतर समोर येईल तेवढा घोटभर चहा आणि शिळंपाकंही गोड मानून तो राबतोय. तरीही राग, संताप, त्रागा, आरडाओरडा यांचा लवलेश तरी आहे कां त्याच्यात? त्या माणसाची स्वत:च्या मुलीनेच केलेली निर्भत्सना निमूट ऐकून घेऊनही शांत रहाताना त्याच्या मनाची आतल्याआत किती घालमेल झाली असेल याचा विचार कर आणि मग मला सांग. शांतपणे विचार करुन सांग. कारणं कांहीही असोत पण आज तो हतबल आहे हे तुझ्यासारख्या समंजस मुलीने समजून घ्यायचं नाही तर कुणी? आणि लग्नाचं काय गं ?तू काय किंवा बेबी काय तुमची लग्नं ठरवायचा निर्णय घेणारे तुझे वडील कोण? ते तर निमित्त आहेत फक्त. या गाठी बांधणारा ‘तो’ त्या तिथे बाहेर औदुंबराखाली बसलाय हे विसरु नकोस. जा. ऊठ. त्याला नेहमीसारखा मनापासून नमस्कार कर फक्त. कांहीही मागू नकोस. जे त्याला द्यावंसं वाटेल ते तो न मागता देत असतो हे लक्षात ठेव. जा. नमस्कार करुन ये आणि मघाशी राहिलेला तीर्थ न् प्रसाद घेऊन जा” बाबा म्हणाले.

त्यांच्याकडून तीर्थ घेण्यासाठी तिने हात पुढे केला तेव्हाही तिचे डोळे पाझरतंच होते.

“शांत हो. काळजी नको करू. सगळं व्यवस्थित होईल. बेबीचं तर होईलच तसंच तुझंही होईल. येत्या चार दिवसात तुला दत्त महाराजांनी ठरवलेल्या स्थळाकडूनच मागणी येईल. बघशील तू “

बाबा गंमतीने हसत म्हणाले. काहीच न समजल्यासारखी ती त्यांच्याकडे पहातच राहिली…!

हा सगळाच प्रसंग माझ्या कायमचा लक्षात राहिलाय ते बाबांना लाभलेल्या वाचासिद्धीची यावेळीही पुन्हा एकदा प्रचिती आली म्हणूनच नव्हे फक्त तर या सगळ्या प्रसंगाचे धागेदोरे माझ्याशीही जोडले जाणार आहेत हे यथावकाश माझ्या अनुभवाला आल्यामुळेच!!

 क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #262 – कविता – ☆ भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #262 ☆

☆ भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

सदा प्रयोजन रख समक्ष संयोजन किया अक्षरों का

भाव जगत से शब्द लिए, फिर बुनते रहे बुनकरों सा

देखा-सीखा-लिखा लगी जुड़ने

 फिर सँग में कईं विधाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

जीना सिखा दिया सँग में, जिज्ञासा के वरदान मिले

प्रश्न खड़े करती कविता, उत्तर भी तो इससे ही मिले

सुख-दुख हर्षोल्लास विषाद,

विषमता,जन-मन की विपदाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

एक नई पहचान इसी से मिली अमूल्य सुनहरी सी

मिली सोच को नई उड़ानें सम्बल बन कर प्रहरी सी

विविध भाव धाराएँ बन कर

 बहती रहती दाएँ-बाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

खड़े धरातल पर यथार्थ से, परिचय होने रोज लगा

नित्य-अनित्य झूठ-सच, कौन पराया अपना कौन सगा

समताबोध मिला अनुभव से

कैसे सुखमय जीवन पाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 86 ☆ नहीं आए तुम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नहीं आए तुम…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 86 ☆ नहीं आए तुम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

तुम्हारी राह में

आँखें हुईं पत्थर

फिर भी नहीं आए तुम ।

 

तुम्हे मन में

नयन में

बसाया हमने

ढाल शब्दों में

तुमको गीत

सा गाया हमने

 

हृदय की कामनाएँ

रह गईं अक्सर

ख़ाली भर न पाए तुम ।

 

सदा उन्मुक्त हो

नभ में

उड़े बनकर के पाखी

क्षितिज के पार

घर की चाह

लेकर जिए एकाकी

 

हवा पर तैरते

निकले ज़रा छूकर

घटा से छा गए तुम ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “किस तरह की रोशनी है शहर में“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆

✍ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सबको अपनी ही पड़ी है शहर में

हाय दिल की मुफ़लिसी है शहर में

*

रात पूनम सी कही पर तीरगी

किस तरह की रोशनी है शहर में

*

बिल्डिंगों के साथ फैलीं झोपडीं

साथ दौलत के कमी है शहर में

*

शानो-शौक़त का दिखावा बढ़ गया

सादगी बेहिस हुई है शहर में

*

हर गली में एक मयखाना खुला

मयकशी ही मयकशी है शहर में

*

जुत रहा दिन रात औसत आदमी

यूँ मशीनी ज़िंदगी है शहर में

*

नाम पर तालीम के सब लुट रहे

फीस आफ़त हो रही है शहर में

*

सभ्य वासी बन रहे पर सच यही

नाम की कब आज़ज़ी है शहर में

*

है अरुण सुविधा मयस्सर सब मगर

कब फ़ज़ा इक गाँव सी है शहर में

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “घोंसला“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆

✍ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

रोज की तरह संजय बैंच पर आकर विकास के पास बैठ तो गए पर लग ऐसा रहा था कि वे वहाँ उपस्थित ही नहीं हैं। वे अच्छी पोस्ट से रिटायर  हुए हैं। अच्छी खासी पैंशन मिल रही है फिर भी बेचैन रहते हैं।  विकास ने पूछ ही लिया कि भाई क्या बात है, आज इतने उदास क्यों हैं । मायूस होकर संजय बोले क्या बताऊँ यार घर मेंं रहना मुश्किल हो गया है। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है मेरी पत्नी। जब तक माँ जिंदा थी तो किसी न किसी बात पर झगड़ती थी।  माँ को कभी बहू का सुख नहीं मिला। दुखी मन से चली गई बेचारी। बेटे की शादी करके लाए, घर में बहू आ गई। सब खुश थे पर मेरी पत्नी नहीं। दहेज में उसे अपने लिए अँगूठी चाहिए थी, वह नहीं मिली  तो बहू को ताना मारती रहती। ऐसा लगता था कि वह ताना मारने के अवसर ढूँढ़ती रहती । बेटा बहू दोनों नौकरी करते थे पर घर आने  पर  अपनी माँ का मुँह फूला हुआ पाते। उन दोनों को शाम को घर आते समय कभी हँसी खुशी  स्वागत किया हो, ऐसा अवसर सोचने पर भी याद नहीं आता। आखिर वे दोनों घर छोड़ कर चले गए। किराए का फ्लैट ले लिया।

मेरे साथ तो कभी ढँग से बात की ही नहीं। अगर पड़ोसी कोई महिला मुझसे हँसकर बात करले तो बस दिन भर बड़ बड़। खाने पीने पार्टी करने, दोस्तो यारों में रहना मुझे अच्छा लगता है पर उसे अच्छा नहीं लगता। अब तो यही पता नहीं चलता कि वह किस बात से नाराज है। घर में कोई कमी नहीं। एक बेटी है वह भी अपनी माँ के चरण चिन्हों पर चल रही है। उसकी शादी कर दी है,  पर माँ है कि उसे अपनी ससुराल में नहीं रहने देती। पति, सास, ससुर के खिलाफ हमेशा भडकाती रहती है। और तो और, मेरे साथ लड़ने को माँ बेटी एक हो जाती हैं। मैं दिन में घर से बाहर निकलता हूँ तो प्रश्नों की झडी लग जाती है कि कहाँ जा रहे हो, जा रहे हो तो यह ले आना,वह ले आना और जल्दी आना। अब रिटायर होने के बाद कोई काम तो है नहीं । इनके क्लेश से घर में रहना मुश्किल हो जाता तो शाम को घूमने के बहाने यहाँ पार्क में आ जाता हूँ। लौटने की इच्छा ही नहीं होती क्योंकि घर जाने पर पता नहीं माँ बेटी से किस बात पर क्या सुनने को मिले। पेट की आग तो बुझानी है, चुपचाप दो रोटी खा लेता हूँ। पता नहीं आज दोनों किस बात से नाराज़ हैं। जब मैं घर से निकल रहा था तो पीछे से कह रहींं थीं कि लौट के आने की जरूरत नहीं। विकास चुपचाप सुन रहे थे और पेड़  से गिरे बिखरे घोंसले को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा, कभी वे इसी घोंसले में बैठते थे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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