हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 72 ☆ हास्य कथा – इन्तकाल के बाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर हास्य कथा   ‘इन्तकाल के बाद’।  इस हास्य कथा के लिए डॉ परिहार जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 72 ☆

☆ हास्य कथा – इन्तकाल के बाद

(‘पैनी चीज़ें पीड़ा देती हैं, नदियाँ गीली हैं, तेज़ाब दाग छोड़ते हैं, और दवाओं से जकड़न होती है। बन्दूकें कानूनी नहीं हैं, फन्दे खुल जाते हैं, गैस भयानक गंध छोड़ती है। बेहतर है कि ज़िन्दा ही रहा जाए।’ – डोरोथी पार्कर)

चौधरी गप्पूलाल पुरुषार्थी व्यक्ति हैं। तीस साल के सुखी वैवाहिक जीवन में उन्होंने आठ संतानें पैदा कीं—पाँच बेटे और तीन बेटियाँ। इसके बाद उन्हें भारत देश का खयाल आ गया। वैसे ही देश जनसंख्या समस्या से त्रस्त है, अब और पुरुषार्थ ठीक नहीं।

एक शाम गप्पूलाल जी घर लौटे। लौटकर पलंग पर पसरकर उन्होंने बड़े बेटे को आवाज़ दी, ‘भुल्लन ज़रा सुनना।’

भुल्लन आज्ञाकारी भाव से हाज़िर हुए। बोले, ‘क्या आदेश है, बाउजी?’

गप्पूलाल जी बोले, ‘आज प्रसिद्ध ज्योतसी अटकलनाथ से मिलने गया। उन्होंने बताया कि मेरी जीवन रेखा संकट में चल रही है। जीवन का कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं कब रवाना होना पड़े। इसलिए तैयारी कर लेना चाहिए।’

उनकी पत्नी गोमती देवी कुछ दूर बैठीं पोते के लिए स्वेटर बुन रही थीं। बात को आधा समझकर बोलीं, ‘कहाँ जा रहे हो? खा पी कर जाना। बता देना तो पराठा सब्जी बना दूँगी।’

गप्पूलाल चिढ़ कर बोले, ‘जहाँ हमें जाना है वहाँ पराठा सब्जी नहीं, पाप पुन्न काम आते हैं। हम ऊपर जाने की बात कर रहे हैं। ज्योतसी ने कहा है कि हमारा समय गड़बड़ चल रहा है।’

गोमती देवी शान्ति से बोलीं, ‘जोतखी ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। अपनी सब बीमा पालिसियाँ हमें दे देना। एकाध दिन में चलकर वह दफ्तर भी दिखा देना जहाँ पेमेंट मिलता है। बाद में हम कहाँ भटकते फिरेंगे?’

गप्पूलाल यह सुनकर गोमती देवी को मारने लपके, लेकिन बेटे ने बाँह पकड़कर रोक लिया।

इसी बीच किसी ने भीतर खबर फैला दी कि बाबूजी जायदाद का बँटवारा कर रहे हैं। तत्काल चारों छोटे बेटे बड़ी उम्मीद लिये आकर खड़े हो गये। उनके पीछे, थोड़ा ओट में, बहुएँ भी डट गयीं। बड़ी बहू भी आकर एक खंभे की ओट में खड़ी हो गयी।

गप्पूलाल ने उनकी तरफ देखा, पूछा, ‘तुम लोग किस लिए आये हो?’

दूसरे नंबर का बेटा बोला, ‘कोई कह रहा था कि आपने सब को बुलाया है। ‘

गप्पूलाल गुस्से में बोले, ‘हमें पता है तुम लोग सूँघते हुए आये हो। जहाँ हम ऊपर जाने की बात करते हैं, तुम लोग आसपास मंडराने लगते हो। भागो यहाँ से। तुम्हारी उम्मीद इतनी जल्दी नहीं पूरी होने वाली।’

बेटे और बहुएँ निराशा में मुँह लटकाये, अपने अपने कमरों में चले गये।

गप्पूलाल ने बड़े बेटे से कहा, ‘ज्योतसी ने कहा है तो कुछ ध्यान जरूर देना चाहिए। जायदाद वायदाद तो हमें अपने जीते जी किसी को नहीं देनी, लेकिन कुछ और बातें हैं जिनकी चर्चा करनी है। पहली बात यह है कि अपने धरम में मरने के बाद जो आदमी को जला देते हैं वह अपने को जमता नहीं। आदमी को जरा सी आग छू जाए तो घंटा भर तक कल्लाता है, और यहाँ तो पूरा का पूरा शरीर आग में झोंक देते हैं। किसी को क्या पता कि मुर्दे को क्या तकलीफ होती है। एक बार जाकर कोई लौट कर तो आता नहीं कि कुछ बताये।’

भुल्लन विनम्रता से बोले, ‘बाउजी, मरने के बाद ही जलाते हैं। मरे आदमी को आग का क्या बोध!’

गप्पूलाल हाथ उठाकर बोले, ‘हमें न सिखाओ। हमने एक अखबार में पढ़ा था कि एक साँप ऐसा होता है जो मरने के एक घंटे बाद तक काट सकता है। तो हम तो आदमी हैं, हमारी जान कहाँ और कितनी देर तक अटकी रहती है, किसी को क्या पता।’

भुल्लन बोले, ‘तो फिर क्या हुकुम है बाउजी?’

गप्पूलाल बोले, ‘हुकुम यही है कि हमें आग में मत जलाना। हमें आग बिलकुल बर्दाश्त नहीं होती।’

भुल्लन बोले, ‘आपने बड़े संकट में डाल दिया, बाउजी। अगर आपको आग में जलना पसन्द नहीं तो क्या आप दफनाया जाना पसन्द करेंगे? बता दीजिए तो हम बिरादरी वालों को समझा लेंगे।’

गप्पूलाल दोनों हाथ उठाकर बोले, ‘पागल है क्या? यह भी कोई बात हुई कि आदमी को गढ्ढा खोदकर गाड़ दिया और ऊपर से मिट्टी पत्थर से तोप दिया। मान लो किसी के भीतर साँस बाकी हो और वह साँस लेना चाहे, तो वह तो गया काम से। आदमी अधमरा हो तो मरने का पुख्ता इन्तजाम हो जाता है। नहीं भैया, अपन को यह सिस्टम भी मंजूर नहीं।’

भुल्लन परेशान होकर बोले, ‘तो बाउजी, क्या आपको पारसियों का सिस्टम पसन्द है? वे लोग शरीर को ऊपर टावर पर रख देते हैं और गीध आकर उसे अपना भोजन बना लेते हैं।’

गप्पूलाल गुस्से में बोले, ‘तू मेरा दुश्मन है क्या?तू चाहता है कि मरने के बाद गीध मुझे नोचें? मुझे तकलीफ नहीं होगी क्या?’

भुल्लन हारकर बोले, ‘बाउजी, मेरे खयाल से तो सबसे बढ़िया यह है कि शरीर को नदी में प्रवाहित कर दिया जाए। पवित्र जल में भले भले बह जाए।’

गप्पूलाल बोले, ‘बकवास मत करो। हमें तैरना नहीं आता। तुम हमें नदी में छोड़ोगे और हम सीधे नीचे चले जाएंगे। साँस वाँस सब बन्द हो जाएगी। मछलियाँ चीथेंगीं सो अलग। ना भैया, यह तरीका भी अपने को नहीं जमता।’

इस बीच गप्पूलाल का भतीजा आकर बैठ गया था। मुँहलगा और विनोदी प्रकृति का था। चाचा की बातें सुनकर बोला, ‘चच्चा, सबसे बढ़िया हम आपके शरीर पर मसाला लगवा कर हमेशा के लिए सुरक्षित करवा देंगे और एक कमरे में रख देंगे। जैसे रूस में लेनिन का शरीर रखा रहा ऐसे ही आप भी सालोंसाल आराम फरमाना।’

गप्पूलाल प्रसन्न होकर बोले, ‘आइडिया अच्छा है। इसमें फायदा ये है कि कभी साँस वापस आ गयी तो कम से कम फिर से साबुत खड़े तो हो सकेंगे। देख लेना, अगर तुम लोग खरचा बर्दाश्त कर सको तो ऐसा कर लेना, लेकिन इसमें गड़बड़ यह है कि घर का एक कमरा इसमें फँस जाएगा।’

फिर बोले, ‘फिलहाल ये बातें छोड़ो। ज्योतसी कुछ भी कहे, अभी आठ दस साल हम इस धरती से नहीं हिलने वाले। कभी फुरसत से सोचेंगे कि अपन को कौन सा सिस्टम ‘सूट’ करेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 69 ☆ प्रलय के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 69 – प्रलय के विरुद्ध 

लोकश्रुति है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। पाप की अधिकता होने पर धरती को टिकाए रखना एक दिन शेषनाग के लिए संभव नहीं होगा और प्रलय आ जाएगा। कई लोगों के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि विसंगतियों की पराकाष्ठा के इस समय में अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

इस प्रश्न का एक प्रतिनिधि उत्तर है, ‘धनाजी जगदाले जैसे संतों के कारण।’ तुरंत प्रतिप्रश्न उठेगा कि कौन है धनाजी जगदाले जिनके बारे में कभी सुना ही नहीं?

धनाजी जगदाले, उन असंख्य भारतीयों में से एक हैं जो येन केन प्रकारेण अपना उदरनिर्वाह करते हैं। 54 वर्षीय धनाजी महाराष्ट्र के सातारा ज़िला की माण तहसील के पिंगली गाँव के निवासी हैं।

‘यह सब तो ठीक है पर धनाजी संत कैसे हुआ?’ …’धैर्य रखिए और अगला घटनाक्रम भी जानिए।’

अक्टूबर 2019 में महापर्व दीपावली के दिनों में धनाजी को धन प्राप्ति का एक दैवीय अवसर प्राप्त हुआ।

हुआ यूँ कि शहर के बस अड्डे पर खड़े धनाजी के सामने संकट था अपने गाँव लौटने का। गाँव का टिकट था रु.10/- और धनाजी की जेब में बचे थे केवल 3 रुपये। एकाएक धनाजी ने जो देखा, उससे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। बस अड्डे पर किसी के गलती से  छूट गए थैले में नोटों के बंडल थे। कुल चालीस हज़ार रुपये।

चालीस हज़ार की राशि धनाजी के लिए एक तरह से कुबेर का ख़जाना था पर कुबेर का एक अकिंचन के आगे लज्जित होना अभी बाकी था।

अकिंचन धनाजी ने सतर्क होकर आसपास के लोगों से थैले के मालिक की जानकारी टटोलने का प्रयास किया। उन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। थोड़ी ही देर में एक व्यक्ति बदहवास-सा अपना थैला ढूँढ़ते हुए आया। मालूम पड़ा कि पत्नी के ऑपरेशन के लिए मुश्किल से जुटाए चालीस हज़ार रुपये जिस थैले में रखे थे, वह यहीं-कहीं छूट गया था। पर्याप्त जानकारी लेने के बाद धनाजी ने वह थैला उसके मूल मालिक को लौटा दिया।

आनंदाश्रु के साथ मालिक ने उसमें से एक हज़ार रुपये धनाजी को देने चाहे। विनम्रता से इनाम ठुकराते हुए धनाजी ने अनुरोध किया कि यदि वह देना ही चाहता है तो केवल सात रुपये दे ताकि दस रुपये का टिकट खरीदकर धनाजी अपने गाँव लौट सके।

प्राचीनकाल में सच्चे संत हुआ करते थे। देवताओं द्वारा इन संतों की तपस्या भंग करने के असफल प्रयासों की अनेक कथाएँ भी हैं।  इनमें एक कथा धनाजी जगदाले की अखंडित तपस्या की भी जोड़ लीजिए।…और हाँ, अब यह प्रश्न मत कीजिएगा कि अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

 

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 4 :14 बजे, 7.11.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 28 ☆ नवगीत: बाँस – बाँसलिया ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  की एक  नवगीत  नवगीत: बाँस – बाँसलिया । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 28 ☆ 

☆ नवगीत: बाँस – बाँसलिया ☆ 

भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना

बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना

 

बाँसगुला केश सजा हेरूँ  ऐना

बाँसपिया देख-देख फैले नैना

बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा

लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना

 

बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना

 

बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध

बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड

बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए

बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद

 

बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना

 

बगदई मैया पूजूँ,  बगियाना  भूल

बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल

झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर

कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल

 

बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना

***

शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना,  बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल,  ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती,  सैना = संकेत,  बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना,  बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड – उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना,  बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात,  बिजना = बाँस का पंखा. 

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 14 ☆ सब चाहते जीवन में सदा सुख से रह सकें ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  सब चाहते जीवन में सदा सुख से रह सकें।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 14 ☆

☆ सब चाहते जीवन में सदा सुख से रह सकें

सिख पारसी ज्यू ईसाई हिंदू और मुसलमान

है एक ही भगवान की संतान सब इंसान

हैं धर्म कई एक ही पर सार है सबका

कुदरत ने ही पैदा किए सब को सदा समान

 

सब चाहते जीवन में सदा सुख से रह सकें

आपस में अपनी बातें सभी मिलकर के कह सकें

खुशियों को कभी ना लगे किसी की बुरी नजर

हित के लिए ही करते हैं सब धार्मिक अनुष्ठान

 

हर धर्म के आधार हैं मन के गढ़े विश्वास

सब धार्मिक स्थल हैं हर जगह आसपास

करते जहां सिजदा मनोतियां भी साथ-साथ

दो चार नहीं हैं देश में ऐसे हैं कई स्थान

 

मंदिर हो या मस्जिद हो ,मढ़िया हो या मजार

हर रोज दुआ पाने को जाते हैं कई हजार

सबके वहां है एक भाव  भेद नहीं कुछ

हो धर्म किसी का कोई वे सब पर मेहरबान

 

उस ठौर पर रहता नहीं किसी मन में कोई अभिमान

दरबार में उसके सभी इंसान हैं सब समान

सब चाहते हर ठौर हो दुनिया में कुशलता

अल्लाह कहो ईश्वर कहो वह एक ही भगवान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 – शख़्सियत: गुरुदत्त…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…2।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…2 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

जब गुरु दत्त 16 वर्ष के थे उन्होंने 1941 में पूरे पाँच साल के लिये 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जाकर नृत्य, नाटक व संगीत की तालीम लेनी शुरू। 1944 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेण्टर बन्द हो गया गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आये। यद्यपि आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे स्कूल जाकर अध्ययन तो न कर सके परन्तु रवि शंकर के अग्रज उदय शंकर की संगत में रहकर कला व संगीत के कई गुण अवश्य सीख लिये। यही गुण आगे चलकर कलात्मक फ़िल्मों के निर्माण में उनके लिये सहायक सिद्ध हुए।

गुरुदत्त ने पहले कुछ समय कलकत्ता जाकर लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही वे वहाँ से इस्तीफा देकर 1944 में अपने माता पिता के पास बम्बई लौट आये। उनके चाचा ने उन्हें तीन साल के अनुबन्ध के तहत प्रभात फ़िल्म कम्पनी पूना में काम करने भेज दिया। वहीं सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता व्ही शान्ताराम ने कला मन्दिर के नाम से अपना स्टूडियो खोल रखा था। यहीं रहते हुए गुरु दत्त की मुलाकात फ़िल्म अभिनेता रहमान और देव आनन्द से हुई जो आगे जाकर उनके बहुत अच्छे मित्र बन गये।

उन्हें पूना में सबसे पहले 1944 में चाँद नामक फ़िल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका मिली। 1945 में अभिनय के साथ ही फ़िल्म निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखते थे। 1946 में उन्होंने एक अन्य सहायक निर्देशक पी० एल० संतोषी की फ़िल्म “हम एक हैं” के लिये नृत्य निर्देशन का काम किया। यह अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया। उसके बाद उनकी माँ ने बाबूराव पेंटर जो प्रभात फ़िल्म कम्पनी व स्टूडियो में एक स्वतन्त्र सहायक के रूप में से नौकरी दिलवा दी। वह नौकरी भी छूट गयी तो लगभग दस महीने तक गुरुदत्त बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते रहे। इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की क्षमता विकसित की और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया नामक एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिये लघु कथाएँ लिखने लगे।

उनके संघर्ष का यही वह समय था जब उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में प्यासा फ़िल्म की पटकथा लिखी। मूल रूप से यह पटकथा कश्मकश के नाम से लिखी गयी थी जिसका हिन्दी में अर्थ संघर्ष होता है। बाद में इसी पटकथा को उन्होंने प्यासा के नाम में बदल दिया। यह पटकथा उन्होंने माटुंगा में अपने घर पर रहते हुए लिखी थी। यही वह समय था जब गुरु दत्त ने दो बार शादी भी की; पहली बार विजया नाम की एक लड़की से जिसे वे पूना से लाये थे वह चली गयी तो दूसरी बार अपने माता पिता के कहने पर अपने ही रिश्ते की एक भानजी सुवर्णा से शादी की, जो हैदराबाद की रहने वाली थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ समझ का फेर ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा समझ का फेर।  

☆ लघुकथा – समझ का फेर ☆

मेरे एक  रिश्तेदार कुछ दिन मेरे यहां ठहरने आए मंगलवार उनका मौन व्रत था। वह टीवी देख रहे थे तभी उनसे मिलने उनका  भतीजा आया चरण स्पर्श कर वह बैठ गया, चाचा जी ने कागज कलम उठाई  लिखा  कहां से आ रहे हो? तत्परता से उसने वहां पड़ा दूसरा कागज़ उठाया और पेन निकालकर लिखा घर से सीधे ही आ रहा हूं ।

चाचा जी ऐसे ही लिख-लिख कर प्रश्न करते रहे और वो लिख लिखकर उत्तर देता रहा अचानक  चाचा जी गुस्से में उठ खड़े हुए और जोर से बोले…” बेवकूफ मौन  तो मैं हूं तुम तो बोल सकते हो ।”

रसोई घर में खड़ी मैं सोच रही थी जिंदगी में  हम  सब भी  कुछ बातों को  ठीक से ना समझ पाने के कारण ऐसी ही गलतियां कर बैठते हैं।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भोजपुरी गीत – गांव – गिरांव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित भोजपुरी भाषा  में एक गीत “गांव गिरांवई-अभिव्यक्ति समय समय पर क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य भी प्रकाशित करता रहता है जिनका हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ) 

साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी गीत – गांव – गिरांव 

दो शब्द रचना कार के—प्रस्तुत भोजपुरिया रचना भोजपुरी भाषा में पारिवारिक समाज का दर्पण है, जिसमें टूटते ‌हुए संयुक्त परिवार की पीड़ा का एहसास है, तो बिगड़ते पारिवारिक रिश्तों का दर्द भी है। अपनी बोली की‌ मिठास है तथा‌ माटी‌ की सौंधी सुगंध भी  है। उम्मीद है कि भोजपुरी ‌भाषा को बोलने समझने वाले ‌हृदय की गहराई से इस रचना का आनंद उठा सकेंगे।— सूबेदार पाण्डेय

 

हम गांव हई‌ अपने भितरा‌,

हम सुंदर साज सजाईला।

चनरू मंगरू चिथरू‌ के साथे,

खुशियां रोज मनाई ला।

 

खेते‌ खरिहाने गांव घरे,

खुशहाली चारिउ‌‌ ओर रहल।

दुख‌ में ‌सुख‌ में ‌सब‌ साथ रहल,

घर गांव के‌ खेढा़ (समूह) बनल‌ रहल।

 

दद्दा दादी‌‌ चाची माई भउजी से,

कुनबा (परिवार) सारा भरल रहल।

सुख में दुख ‌मे सब‌ साथ रहै,

रिस्ता सबसे जुड़ल रहल।

 

ना जाने  कइसन‌ आंधी आइल,

सब तिनका-तिनका सब बिखर‌ गयल ।

सब अपने स्वार्थ भुलाई गयल

रिस्ता नाता सब‌‌ बिगरि गयल ।

 

माई‌‌ बाबू अब‌ भार‌ लगै,

ससुराल से रिस्ता नया जुरल।

साली सरहज अब नीक लगै ,

बहिनी से रिस्ता टूटि गयल

भाई के‌ प्रेम‌ के बदले में,

नफ़रत कै उपहार मिलल।

 

घर गांव पराया लगै लगल ,

अपनापन‌ सबसे खतम‌ भयल ।

घर गांव ‌लगै‌ पिछड़ा पिछड़ा

जे  जन्म से ‌तोहरे‌ साथ रहल।

संगी साथी सब बेगाना,

अपनापन शहर से तोहे मिलल।

 

छोड़ला आपन गांव‌ देश,

शहरी पन पे‌  तूं लुभा‌ गइला।

का‌ कुसूर रहल, गांवे कै‌

गांवें से  काहे डेरा गइला।

अपने कुल में दाग लगवला ,

घर गांव क रीत भुला गइला।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 69 ☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर. यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 69 ☆

☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर

‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इनकार कर देते हैं, तो मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि उनके न कहने के कारण ही मैं उसे करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास रखिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। परंतु यदि हम उसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इनकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य को भी क्रियान्वित करने अथवा अंजाम देने में सफल हो जाते हैं। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है, जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता, वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ जैसी होगी।

सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस के भाव संचरित करती है; उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं; आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरुजन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र व उनके ज्ञाता विद्वत्तजन, हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रू-ब-रू कराते हैं और हम उन कल्पनातीत असंभव कार्यों को भी सहजता- पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि वह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।

मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे अंतर्मन में अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।

स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान है और शब्द बारूद के समान हैं– जो पल भर में सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलो और तब तक मत बोलो; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन:स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं वे भोजन व कार्य करते समय भी मौन रहने की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।

सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सके। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और आजीवन निराशा को अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इस स्थिति में दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो आपके लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से मानव कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; आवागमन के चक्र से भी मुक्त कर देते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ जन्मदिवस विशेष – मेरे गांव की कहानी, एक नई सी, एक पुरानी ☆ श्री अजीत सिंह

श्री अजीत सिंह

( हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी ने अपने जीवन का एक संस्मरण  हमारे पाठकों के लिए साझा किया है। यह संस्मरण ही नहीं अपितु हमारी विरासत है। उनके ही शब्दों में  –  “इन मौखिक कहानियों को रिकॉर्ड करने और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की ज़रूरत है। वर्ना ये खूबसूरत कहानियां यूं ही खो जाएंगी। ये हमारी जड़ों की कहानियां हैं। ये जुड़ाव और संघर्ष की कहानियां हैं जो हमें और हमारी संतानों को सम्बल देती रहेंगी। इन कहानियों में गुज़रे वक़्त का समाज शास्त्र है। यह हमारा विरसा है, लोक इतिहास है। कहानियां आपस में उलझी सी हैं पर एक दूसरे को तार्किक बल देती हैं। इन में कुछ आंखों देखी हैं और कुछ सुनी सुनाई पर आपस में जुड़ी हुई। लोक इतिहास ऐसा ही होता है।” – श्री अजीत सिंह जी,  पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

ई -अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ इस अविस्मरणीय संस्मरण को साझा करने के लिए हम आदरणीय श्री अजीत सिंह जी के हृदय से आभारी हैं। )

? श्री अजीत सिंह जी को ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उनके 75 वें जन्मदिवस पर अशेष हार्दिक शुभकामनाएं  ? 

☆ संस्मरण ☆ जन्मदिवस विशेष – मेरे गांव की कहानी, एक नई सी, एक पुरानी ☆ श्री अजीत सिंह ☆

उसका नाम शेरा था। वह पाकिस्तान से आया था अपने, और मेरे, पैतृक गांव हरसिंहपुरा में जो हरियाणा के करनाल ज़िले में स्थित है। वह करीबन 20 साल की उम्र में पाकिस्तान चला गया था सन् 1947 में मारकाट के दौरान। जी हां, जिसे किताबों में स्वतंत्रता काल कहा जाता है, हरसिंहपुरा के लोग उसे आज भी मारकाट के नाम से पुकारते हैं।

वह अनपढ़ आदमी था पर उसे वीज़ा देवबंद में हो रही किसी इस्लामिक कॉन्फ्रेंस के डेलीगेट के तौर पर मिला था। वह वहां के थाने में हाज़री देकर पैतृक गांव में अपने बचपन के संगी साथियों से मिलने पहुंचा था कोई तीस साल बाद। सिर के बाल भी सफेद होने लगे थे उसके और चेहरा मोहरा भी बदल गया था। गांव पहुंचा तो सबसे पहले उसे बारू नाई ने बातचीत के बाद पहचाना। आखिरकार दोनों हम उम्र जो थे और एक दूसरे के खिलाफ कबड्डी खेलते रहे थे।

शेरा ने गांव की पहचान तालाब पर खड़े बड़ और पीपल के पेड़ों से की थी। गांव के घर उसे बदले बदले नज़र आ रहे थे। बारु नाई उसे पूरे गांव में घुमा के लाया। शेरा कहने लगा, गलियां तो वही हैं पर घर सारे ही बदल गए हैं।

बात चली तो तो शेरा ने बताया कि असल में वह मारकाट से पहले की अपनी ज़मीन की जमाबंदी की नकल लेने आया था ताकि उसके सहारे वह पाकिस्तान में उसे अलॉट हुई ज़मीन पर उठे झगड़े को निपटा सके।

फिर शेरा ने एक रोचक बात बताई कि सन् 47 तक  हरसिंहपुरा और साथ लगते चार गांवों में खेती की जमीन का आधा हिस्सा त्यागी बिरादरी के पास था, चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़-मराठा बिरादरी के किसानों के पास था। अन्य जातियों के पास खेती की ज़मीनें नहीं थी।

पर केवल तीन जातियों में ऐसा बटवारा किस आधार पर हुआ?

इसका जवाब मेरे पूछने मेरे पिता ने दिया। जवाब क्या था, एक और रोचक कहानी थी, लगभग दो सौ साल पुरानी।

करनाल ज़िले में, जी टी रोड और यमुना नदी के बीच खादर कहे जाने वाले इलाक़े में आज भी दो गांव हैं पूंडरी और बरसत।

इन गांवों की सरहद पर एक कुआं हुआ करता था जिसमें एक दिन किसी व्यक्ति की लाश पाई गई। थानेदार ने दोनों गांवों के नम्बरदारों  को बुला लिया और कहा कि वे क़ातिल का पता कर उसे  सिपाहियों के हवाले करें। बरसत के नंबरदार ने कहा कि वह कुआं उनके गांव की सीमा में नहीं है। अब ज़िम्मेदारी पूंडरी के त्यागी नंबरदार पर आ गई। कातिल का पता नहीं चला तो सिपाही नंबरदार को ही मुजरिम मानकर ले गए। उसे सज़ा हुई और साथ में उसे मुसलमान बना दिया गया। ऐसी ही सज़ाएं होती थीं उस वक्त। नंबरदार का एक छोटा भाई भी था पर उसकी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। भाइयों में प्यार था पर भतीजे ताऊ को पसंद नहीं करते थे। चिढ़ाते भी थे।

एक बार ताऊ ने एक छप्पर तैयार किया और उसे उठा कर लकड़ी की बल्लियों पर रखने के लिए भतीजों से मदद मांगी। वे यह कहते हुए इनकार कर गए की अल्लाह मियां रखवाएंगे! वे ताऊ का मज़ाक उड़ा रहे थे। ताऊ और उसका इकलौता बेटा बिना मदद के छप्पर नहीं उठा सकते थे।

मुसलमान बुज़ुर्ग नंबरदार ताऊ इसी दुविधा में दुखी मन से बैठा था कि तीन बैलगाड़ियों में सवार कुछ लोग वहां आए । पिताजी ने बताया कि वे सन् 1761 में हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद लुकते छिपते घूम रहे मराठा सैनिक या उनकी अगली पीढ़ी के वंशज थे जो हमारे पूर्वज थे। बुज़ुर्ग के अनुरोध पर उन्होंने उसका छप्पर रखवा दिया। बुज़ुर्ग के भतीजे दूर से घूरते रहे पर पास नहीं आए।

पानी पीकर आराम करने लगे तो मुसलमान बुज़ुर्ग ने पूछा कहां जाओगे। मराठा सरदार ने कहा कि बस कहीं ठिकाना जमाने की कोशिश में हैं। भतीजों की बढ़ती जा रही छेड़छाड़ से तंग बुज़ुर्ग ने कहा कि तुम यहीं ठहर जाओ , मेरे पास। बेटे की तरह रखूंगा। मेरी आधी ज़मीन मेरे बेटे की और आधी तुम्हारी होगी। उसके साथ भाइयों की तरह रहना। बुज़ुर्ग मुसलमान ने अपना वायदा निभाया । पूंडरी गांव की आबादी बढ़ी तो एक के पांच गांव बन गए पर सभी में आम तौर पर  ज़मीन की मलकीयत उसी अनुपात में रही, आधी त्यागी बिरादरी के पास , चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़- मराठा जाति के लोगों के पास।

सन् 1947 तक भी मुसलमानों और मराठों का भाईचारा कायम रहा। हमारे गांव में मारकाट भी नहीं हुई जबकि दूसरे गांवों में बहुत खून खराबा हुआ।  यहां  तक कि मेरे पिता ने अपने करीबी दोस्त मजीद चाचा को पाकिस्तान जाने नहीं दिया। करीब दस साल बाद वे पाकिस्तान गए क्योंकि उनके भाई कमालुद्दीन ने उनके नाम भी ज़मीन अलॉट करा ली थी।

शेरा गांव में दस दिन रहा। पटवारी और तहसील के चक्कर काटता रहा। पुराना रिकॉर्ड करनाल की तहसील में मिला। पटवारी ने बिना रिश्वत के ही काम कर दिया। शेरा का खाना गांव में अलग अलग घरों में हुआ। जाते वक़्त लोगों ने उसे खर्च के लिए 400 रुपए इकठ्ठा कर के दिए। मेरी मां ने चाचा मजीद की  पोती के लिए एक सूट दिया।

मित्रो 5 नवंबर को मेरा जन्म दिन होता है। पिछली बार 74वें जन्मदिन पर मेरे गांव की यह कहानी अनायास ही याद आ गई थी। मेरे बच्चों और उनके बच्चों को यह कहानी बड़ी रोचक लगी। इस शर्त पर कि वे आगे अपने बच्चों और उनके बच्चों तक इस कहानी को पहुंचाएंगे, मैंने इस कहानी को शब्द रूप दे दिया।

आशीर्वाद दें मित्रो, आज मेरा 75 वाँ जन्मदिन है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ प्रभाव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ प्रभाव ☆

कौन कहता है

निर्जीव वस्तुएँ

अजर होती हैं,

घर की कलह से

घर की दीवारें

जर्जर होती हैं !

 

©  संजय भारद्वाज 

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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