मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 8 ☆ त्या कोणत्या क्षणाला……. ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “त्या कोणत्या क्षणाला…….“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 8 ☆

☆ कविता – त्या कोणत्या क्षणाला…….

 

त्या धुंद सुगंधाने,मदहोश जाहलो मी

सगळे कळे तरीही, बेहोश जाहलो मी ।।

 

धुंदीत मती गुंग,गुंगीत प्यायलो मी

संपुर्ण विश्र्व सोडूनी,पेल्यात मावलो मी।।

 

पेले असे शराबी,अडखळत पावलांनी

रिचवीत मात्र गेलो,थरथरती हात दोन्ही।।

 

त्या कोणत्या क्षणाला ,हा येथ धावलो मी

माझ्याच भविष्याच्या,काळ्यास भोवलो मी।।

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पथराई आंखों का सपना भाग -2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

श्री सूबेदार पाण्डेय जी का आग्रह –  इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” की अंतिम कड़ी और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक व्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।)

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(आपने पढा़—-किस प्रकार मंगरी चकरघिन्नी बनी कभी वकील की चौकी कभी न्यायालय के दफ्तर कभी पुलिस थाने का चक्कर काटती न्याय की आस में भटक रही थी, उसकी आंखों में न्याय पाने की आस तथा सबका उपेक्षित व्यवहार ही उसके साथ होता।  अब आगे पढ़े——)  

दुख जब ज्यादा होता धैर्य जब छूट जाता तो किसी कोने में बैठ चुपचाप रो लेती।  फिर चुप हो जाती इस उम्मीद में अपने दिल को दिलासा दे लेती कि एक न एक दिन सत्य की जीत अवश्य होगी।

इन्ही उम्मीद के सहारे तो उसने अपने बेटे का नाम सत्यजीत रखा था। लेकिन तब उसे कहाँ पता था कि सत्य के पीछे चलती हुई वह एक दिन खुद इस जहाँ से चली जायेगी, और फिर वह सत्य को विजेता होते कभी भी नहीं देख पायेगी।

इन्ही आशा और निराशा के बीच झूलती मंगरी को उत्साह जनक खबर मिली कि उसके मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई है।  न्यायधीश ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। फैसले की तारीख नियत हो गई है।  इस सुखद खबर ने एक बार फिर मंगरी के टूटते हौसले को सहारा दिया।  जिसने उसके दिल में जोत तथा आंखों में भविष्य के सपनें सजा दिये थे।  उसके फड़कते बायें अंग तथा दिल की धड़कन से अपनी विजय का शंखनाद स्पष्ट सुनाई दे रहा था।

लेकिन इंतजार की घड़ियाँ लंबी हो चली थी।  उसके एक एक दिन एक एक युग के समान बीत रहे थे। इस बीच बड़ी मुश्किल से मंगरी ने अपने श्रम तथा घर में रखे अन्न बेच कर ही वकील के फीस का इंतजाम किया था। फिर भी गाँव से शहर के न्यायालय आने के लिए बस के किराये के पैसे कम पड़ रहे थे।

आज फैसले का दिन था, वह सुबह सबेरे बिना कुछ खाये पिये मारे खुशी के खाली पेट ही घर से चल पडी़ थी, गाँव के चौक की तरफ जंहा से बसें जाती है शहर को।  उसने रास्ते के लिए चार मोटी रोटियां तथा अचार के कुछ टुकड़े भर लिए थे अपने झोले में और बस स्टैंड तक पहुँच शहर जाने वाली बस में बैठ गई थी।

बस तय समय पर अपने गंतव्य पथ की तरफ चली, लेकिन किराया न चुकाने के कारण कंडक्टर ने भुनभुनाते हुये मंगरी को बस से नीचे उतार दिया था।
। उसने हाथ पांव जोड़े लाख अनुनय विनय किया गिड़गिडा़यी लेकिन कंडक्टर ने उसकी एक भी नहीं सुनी।  असहाय मंगरी जाती हुई बस को आंखों से ओझल होने तक हसरत भरे नेत्रों से देखती रही।

मई माह का मध्य महीना भगवान भाष्कर अपने प्रचंड तापवेग से तप रहे थे, ऐसे में तेज पछुआ हवा के थपेड़े गर्म लू का अहसास करा रहे थे, क्या पशु क्या पंछी क्या जानवर क्या इंसान सभी गर्मी के प्रचंड ताप वेग से छांव की ठांव ले बैठे थे।  सहसा मंगरी की तंद्रा भंग हुई।  उन विपरीत परिस्थितियों की परवाह न करके अपने छोटे बच्चे का हाथ थामे लगभग दौड़ने वाले अंदाज में पैदल ही धूप में जलती चलती जा रही थी अपने लक्ष्य की ओर।  न्याय पाने की खुशी में लू की गर्मी तथा तेज धूप की जलन का अहसास ही नहीं था उसे।  उसे जल्दी पडी़ थी कि कहीं उसे न्यायालय पहुचने मे देर न हो जाये और वह अपने भाग्य का फैसला सुनने से वंचित न रह जाय।

वह तेज चाल से लगभग दौडती हुई बच्चे के साथपहुंच न्यायालय के दरवाजे के खंभे के पास खडी़ हांफ रही थीं तथा अपनी उखड़ी सांसों पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रही थी कि तभी न्यायिक परिसर में उसके नाम की आवाज गूंजी और वह सुनते ही दौड़ पडी़ न्यायधीश के कक्ष की तरफ। वह न्यायिक कुर्सी के सामने  पंहुची ही थी कि वहीं पर भहरा कर गिर पडी़ उसकी आखें पथरा गईं, मुंह खुला रह गया। न्याय पाने के पहले ही न्याय की आस लिए उसके प्राण पखेरू इस नश्वर संसार से अनंत की ओर उड़ चले।  उसके झोले से बाहर बिखरी रोटियां उसके भूख पीडा़ बेबसी की दास्ताँ बयां कर रहे थे  और न्याय कक्ष में उपस्थित वादी प्रति वादी गण उसकी  आंखों में झांक अपने न्याय का भविष्य तलाश रहे थे। क्योंकि  लगभग उन्ही परिस्थितियों से वे भी दो चार हो रहे थे।  उसकी पथराई आंखों में अब भी अपने बेटे के लिए न्याय पाने का सपना मचल रहा था।

न्याय कक्ष में स्थापित न्याय की देवी के आंखों में बधी पट्टी के नीचे गीलापन मांनो मंगरी की विवशता पर संवेदनायें व्यक्त कर रही थी।  वहीं पर न्यायालय के छत पर टंगे पंखे की खटर पटर की आ रही आवाजों के बीच पंखे के हवा के झोकों  से न्याय की देवी के हाथ में थमें तराजू के पलड़े उपर नीचे होते हुये न्यायिक देरी से हुये वादी के प्रति अन्याय की दुविधा को प्रकट करते जान पडे़ थे और न्यायधीश महोदय अपने माथे पर हाथ धरे सिर नीचे किये चिंतित मुद्रा में कुछ सोच रहे थे।  उनके माथे पर चुहचुहा आई पसीने की बूंदें सबेरे की ओस का आभास करा रही थी।

उनके ठीक सामने दीवार पर उत्कीर्ण सूत्र वाक्य (सत्यमेव जयते) मानों हवा के झोकों से उड़ रहे कानून की किताब के पन्नों को मुंह चिढा़ रहे थे। आज के दिन पहली बार  किसी वादी को मिलने वाला न्यायिक फैसला पढ़ा नहीं जा सका और अन्याय से लड़ने का उसका हौसला समूची कानूनी प्रक्रिया के  सामने यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडा़ था। जो पुलिसिया तंत्र जीते जी मंगरी को गुजारा भत्ता तथा न्याय नहीं दिलवा सका वही तंत्र आज चाक चौबंद हो पोस्ट मार्टम प्रक्रिया हेतु पांच गज मारकीन  के कपड़े में लिपटी मंगरी की लाश को उठाते हुये संवेदना प्रकट कर रहा था। न्यायिक कक्ष के बाहर खड़े सत्यजीत का हाथ थामे मंगरी का पिता उस अनाथ को परिसर से बाहर ले श्मशान घाट की तरफ बढ़ चला था। मंगरी की चिता को अग्नि का दान करने।

न्यायिक कक्ष में छाई खामोशी अब भी कुछ यक्ष प्रश्न लिए खडी़ थी।

मंगरी की मौत का जिम्मेदार कोन???????

सारे प्रश्न अनुत्तरित।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 – ज़ानी वॉकर ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर पर आलेख ।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर ☆ 

बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी, जिन्हें फ़िल्मी नाम जॉनी वाकर से जाना जाता था, एक हिंदी फ़िल्म  अभिनेता थे। जॉनी वाकर का जन्म 11 नवम्बर 1926 को ब्रिटिश भारत के खरगोन  जिले (बड़वानी) अब मध्य प्रदेश के मेहतागोव गाँव में एक मिल मजदूर के घर हुआ था। जिन्होंने लगभग 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया था।

बडवानी जिले से जानी वाकर का परिवार इन्दौर आया यहां उनके वालिद कपडा मिल मे नौकरी करने लगे, यहीं उनके साथ वह  हादसा हुआ और वे घर बैठ गये, अब परिवार को पालने की जिम्मेदारी जानीवाकर पर आ गई, इन्दौर मे भी बस कन्डक्टरी करी, ठेले पर सामान बेचा, छावनी इन्दौर मे क्रिकेटर मुशताक अली उनके पडोसी व मित्र हुआ करते थे।

दुर्घटना ने उनके पिता को पंगु करके निरर्थक बना दिया और वे रोज़ीरोटी की तलाश में सपरिवार बंबई चले आए। काजी ने परिवार के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में विभिन्न नौकरियां कीं, अंततः वे बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (BEST) में बस कंडक्टर बन गए। परिवार के एकमात्र कमाऊ जानी दिन भर कई मील की बसयात्रा के बाद कैंडी, फल, सब्जियां, स्टेशनरी और अन्य सामान फेरी लगाकर बेचते थे।

जॉनी वॉकर बसों में काम करते हुए यात्रियों का मनोरंजन किया करते थे। उन दिनों वामपंथी नाटक संगठन इपटा से जुड़े कलाकार एक कमरे के कम्यून में रहते और बसों से यात्रा करते थे। अभिनेता बलराज साहनी ने उन्हें बस यात्रा के दौरान एक दिन भिन्न-भिन्न भावभंगिमाओं  से चुटकुले बाज़ी और चुहल करते देख गुरुदत्त का पता देकर उनसे मिलने की सलाह दी।  बलराज साहनी और गुरुदत्त उस समय मिलकर बाजी (1951) की पटकथा लिख रहे थे। गुरुदत्त बतौर निर्देशक देवनांद, गीताबाली, कलप्ना कार्तिक और के एन सिंग को लेकर बाज़ी के लिए कलाकारों को ले रहे थे उसमें एक शराबी की भी भूमिका थी। गुरुदत्त ने काजी को शराब पीकर शराबी का अभिनय करने को कहा। काजी ने बिना शराब पिए बड़े बढ़िया अन्दाज़ में शराबी का अभिनय कर दिखाया, उन्हें बाज़ी में एक भूमिका मिली।

उस दौर में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ा होने से मुस्लिम कलाकारों को हिंदू नाम देने का चलन चल पड़ा था जैसे देविका रानी ने यूसुफ़ खान को दिलीप कुमार नाम दिया था वैसे ही मुस्लिम कलाकारों को मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस इत्यादि नाम  मिले थे। गुरुदत्त जब उसी दिन शाम को के एन सिंग के साथ जॉनीवाकर ब्रांड की स्कॉच व्हिस्की का ज़ाम चढ़ा रहे थे, उन्होंने दो पेग चढ़ाने के बाद पहले सुरूर में ही के एन सिंग के मशवरे पर क़ाज़ी को जॉनीवाकर नाम दे दिया था। इस प्रकार फ़िल्मी पर्दे पर जॉनीवाकर नामक मसखरे का आगमन हुआ।

उसके  बाद ज़ानी वाकर गुरुदत्त की सभी फ़िल्मों में दिखाई दिए। वे मुख्य रूप से हास्य भूमिकाओं के अभिनेता थे लेकिन पटकथा में उनकी भूमिका कथानक को आगे बढ़ाने वाली होती थी न कि ज़बरजस्ती ठूँसने वाले बेहूदा हँसोडियों जैसी।  राजेंद्र कुमार के साथ मेरे महबूब, देवानंद के साथ सीआईडी, गुरुदत्त के साथ प्यासा, दिलीप कुमार के साथ मधुमती और राजकपूर के साथ चोरी-चोरी जैसी फिल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया। वे 1950 और 1960 के दशक में नायक  के साथ फ़िल्म सुपर हिट होने की गारंटी हुआ करते थे।  1964 में गुरुदत्त की मृत्यु से उनका केरियर  प्रभावित हुआ। फिर उन्होंने बिमल रॉय और विजय आनंद जैसे निर्देशकों के साथ काम किया लेकिन 1980 के दशक में उनका करियर फीका पड़ने लगा। वे कहते थे कि “उन दिनों हम साफ-सुथरी कॉमेडी करते थे। हम जानते थे कि जो व्यक्ति सिनेमा में आया है, वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया है … कहानी सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी। कहानी चुनने के बाद ही अबरार अल्वी और गुरुदत्त उपयुक्त अदाकार  ढूंढते थे, अब यह सब उल्टा हो गया है … वे एक बड़े नायक के लिए एक कहानी लिखाते हैं जिसमें फिट होने के लिए हास्य अभिनेता एक चरित्र बनना बंद कर दिया है, वह दृश्यों के बीच फिट होने के लिए कुछ बन गया है। कॉमेडी अश्लीलता की बंधक बन गई थी। मैंने 300 फिल्मों में अभिनय किया और सेंसर बोर्ड ने कभी भी एक लाइन भी नहीं काटी।”

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ सुन ऐ जिंदगी! ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆

 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆

सुन ऐ जिंदगी!

तुम चाहती थी ना

कि मैं डूब जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की गहराई में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं छुप जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की भँवर में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिखर जाऊँ

यह लो आज मैं

रेगिस्तान में बिखर गई हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिसर जाऊँ

यह लो आज दुनिया ने

मुझे बिसरा दिया है ।

 

सुन ऐ जिंदगी!

अब तो तुम खुश हो ना??

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 40 – दस महाविद्याएँ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  शिक्षाप्रद आलेख  “दस महाविद्याएँ । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 40 ☆

☆ दस महाविद्याएँ

पहली महाविद्या देवी ‘काली‘ है जिसका अर्थ ‘समय’ या ‘काल’ या ‘परिवर्तन की शक्ति’ है वह निष्क्रिय गतिशीलता, विकास की संभावित ऊर्जा, ब्रह्मांड में महत्वपूर्ण या प्राणिक शक्ति अर्थात समय की गति ही काली है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति! अंधकार से जन्मा होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं । देवी, प्राण-शक्ति स्वरूप में शिव रूपी शव के ऊपर आरूढ़ हैं, जिसके कारण जीवित देह शक्ति सम्पन्न या प्राण युक्त हैं । देवी अपने भक्तों के विकार शून्य हृदय (जिसमें समस्त विकारों का दाह होता हैं) में निवास करती हैं, जिसका दार्शनिक अभिप्राय श्मशान से भी हैं । देवी श्मशान भूमि (जहाँ शव दाह होता हैं) वासी हैं । मुखतः देवी अपने दो स्वरूपों में विख्यात हैं, ‘दक्षिणा काली’ जो चार भुजाओं से युक्त हैं तथा ‘महा-काली’ के रूप में देवी की 20 भुजायें हैं । स्कन्द (कार्तिक) पुराण, के अनुसार ‘देवी आद्या शक्ति काली’ की उत्पत्ति आश्विन मास की कृष्णा चतुर्दशी तिथि मध्य रात्रि के घोर में अंधकार से हुई थी । परिणामस्वरूप अगले दिन कार्तिक अमावस्या को उनकी पूजा-आराधना तीनों लोकों में की जाती है, यह पर्व दीपावली या दीवाली नाम से विख्यात हैं तथा समस्त हिन्दू समाजों द्वारा मनाई जाती हैं । शक्ति तथा शैव समुदाय का अनुसरण करने वाले इस दिन देवी काली की पूजा करते हैं तथा वैष्णव समुदाय महा लक्ष्मी जी की, वास्तव में महा काली तथा महा लक्ष्मी दोनों एक ही हैं । भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति या संहारक शक्ति ‘मायामय या आदि शक्ति’ ही हैं, महालक्ष्मी रूप में देवी उनकी पत्नी हैं तथा धन-सुख-वैभव की अधिष्ठात्री देवी हैं । दस महा-विद्याओं में देवी काली, उग्र तथा सौम्य रूप में विद्यमान हैं, देवी काली अपने अनेक अन्य नामों से प्रसिद्ध हैं, जो भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाली हैं ।

देवी काली मुख्यतः आठ नामों से जानी जाती हैं और ‘अष्ट काली’, समूह का निर्माण करती हैं ।

  1.  चिंता मणि काली
  2.  स्पर्श मणि काली
  3.  संतति प्रदा काली
  4.  सिद्धि काली
  5.  दक्षिणा काली
  6.  कार्य कला काली
  7.  हंस काली
  8.  गुह्य काली

 

© आशीष कुमार 

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 32– शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की पड़ोस में रहने वाली हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी की सदस्य के  102 वे  जन्मदिवस पर  शुभकामनाएं देती एक कविता  “शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा”। अंकों में 102 वर्ष हमारी पीढ़ी की  कल्पना के परे है। उनके ही शब्दों में  “आमच्या शेजारी रहाणाऱ्या  ‘आठल्यांच्या मम्मी ‘  यांच्या शतकोत्तर म्हणजे १०२ व्या वाढदिवसाची भेंट स्वरूप कविता।” उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 32 ☆

☆ शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा ☆ 

 

गोरा गोरा रंग,

ठेंगणा ठुसका बांधा !

 

तरतरीत नाक, सुंदर नाजूक देखण्या !

आमच्या आठल्यांच्या मम्मी !!

 

पेठेत आमच्या आहेत सर्वांनाच त्या परिचित !

घरी येवो कुणी,

अथवा भेटो रस्त्यात !

मधाळ हसून स्वागत

त्या करणार !

आवर्जून घरी बोलावणार !

न चुकता गोडाची वाटी हातात देणार !

घरच्या साऱ्यांची विचारपूस करणार !

वाटीतला खाऊ संपल्याबिगर,

त्या कुणालाही जिना नाही उतरु देणार !!

 

मृदू बोलायचे षट्कार अन्

मधुर हास्याचे चौकार मारत

त्यांनी शतक अन् दोन केली पूर्ण !

अगदी गोड बोलायचे आणि नेहमी शांत रहायचे

त्यांच्याकडे आहे एक नामी चूर्ण !!

 

आम्हा सर्वांना ते खायची आहे मनापासून इच्छा !

अन् शतकोत्तर वाढदिवसाच्या

मम्मींना खूप सुंदर शुभेच्छा !!

खूप सुंदर शुभेच्छा !!!

 

©️®️ उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक : २५-४-२०

भ्रमण:9028815585

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 43 ☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक आलेख आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत जिसे चारु चिंतन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 43 ☆

☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत

 

‘ज़िंदगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समय की बर्बादी से छोटी बनायी जा सकती है’  जॉनसन का यह कथन आलसी लोगों के लिए रामबाण है, जो अपना समय ऊल-ज़लूल बातों में नष्ट कर देते हैं; आज का काम कल पर टाल देते हैं, जबकि कल कभी आता नहीं। ‘जो भी है, बस यही एक पल है/ कर ले पूरी आरज़ू’ वक्त की ये पंक्तियां भी आज अथवा इसी पल की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने अथवा जीने का संदेश देती हैं। कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में परलय होयगी,मूरख करेगा कब ‘ आज अर्थात् वर्तमान की महिमा को दर्शाते हुए सचेत करते हैं कि ‘कल कभी आने वाला नहीं और कौन जानता है, कौन सा पल आखिरी पल बन जाए और सृष्टि में प्रलय आ जाए। चारवॉक दर्शन का संदेश ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ आज की युवा-पीढ़ी के जीवन का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए वे आज ही अपनी हर तमन्ना पूरी कर लेना चाहते हैं। कल अनिश्चित है और किसने देखा है? इसलिए वे भविष्य की चिंता नहीं करते; हर सुख को इसी पल भोग लेना चाहते हैं। वैसे तो ठीक से पता नहीं कि अगली सांस आए या नहीं। सो! कल के बारे में सोचना, कल की प्रतीक्षा करना और सपनों के महल बनाने का औचित्य नहीं है।

ऐसी विचारधारा के लोगों का आस्तिकता से कोसों दूर का नाता होता है। वे ईश्वर की सत्ता व अस्तित्व को नहीं स्वीकारते तथा अपनी ‘मैं’ अथवा अहं में मस्त रहते हैं। उनकी यही अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता की भावना उन्हें सबसे दूर ले जाती है तथा आत्मकेंद्रित कर देती है। वास्तव में एकांतवास अथवा आइसोलेशन–कारण भले ही कोरोना ही क्यों न हो।

कोरोना वायरस ने भले ही पूरे विश्व में तहलक़ा मचा रखा है, परंतु उसने हमें अपने घर की चारदीवारी में, अपने प्रियजनों के सानिध्य में रहने और बच्चों के साथ मान-मनुहार करने का अवसर प्रदान किया …अक्सर लोगों को वह भी पसंद नहीं आया। मौन एकांत का जनक है, जो हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है और सृष्टि के विभिन्न रहस्यों को उजागर करता है। सो! एकांतवास की अवधि में हम आत्मचिंतन कर, ख़ुद से मुलाकात कर सकते हैं, जो जीवन में असफलता व तनाव से बचने के लिए ज़रूरी है। इतना ही नहीं, यह स्वर्णिम अवसर है; अपनों के साथ रहकर समय बिताने का, ग़िले- शिक़वे मिटाने का, ख़ुद में ख़ुद को तलाशने का, मन के भटकाव को मिटा कर, अंतर्मन में प्रभु के दर्शन पाने का। सो! एकांत वह सकारात्मक भाव है, जो हमारे अवचेतन मन को जाग्रत कर, सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने अथवा अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। आपाधापी भरे आधुनिक युग में रिश्तों में खटास व अविश्वास से उपजा अजनबीपन का अहसास मानव को अलगाव की स्थिति तक पहुंचाने का एकमात्र कारक है और व्यक्ति उस मानसिक प्रदूषण अर्थात् चिंता, तनाव व अवसाद की ऊहापोह से बाहर आना चाहता है।

जब व्यक्ति एकांतवास में होता है, जीवन की विभिन्न घटनाएं मानस-पटल पर सिनेमा की रील की भांति आती-जाती रहती हैं और वह सुख-दु:ख की मन:स्थिति में डूबता-उतराता रहता है। इस मनोदशा से उबरने का साधन है एकांत, जिसका प्रमाण हैं– लेखक, गायक और प्रेरक वक्ता विली जोली, जो 1989 में न्यूज़ रूम कैफ़े में अपना कार्यक्रम पेश किया करते थे। उनकी लाजवाब प्रस्तुति के लिए उन्हें अनगिनत पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज़ा गया था। परंतु मालिक के छंटनी के निर्णय ने उन्हें आकाश से धरा पर ला पटका और उन्होंने कुछ दिन एकांत अर्थात् आइसोलेशन में रहने का निर्णय कर लिया। एक सप्ताह तक आइसोलेशन की स्थिति में रहने के पश्चात् उनकी ऊर्जा, एकाग्रता व कार्य- क्षमता में विचित्र-सी वृद्धि हुई। सो! उन्होंने अपनी शक्तियों को संचित कर, स्कूलों में प्रेरक भाषण देने प्रारंभ कर दिए और वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। एक दिन लुइस ब्राउन ने उन्हें अपने साथ कार्यक्रम आयोजित करने को आमंत्रित किया,जिसने उनकी ज़िंदगी को ही बदल कर रख दिया। इससे उन्हें एक नई पहचान मिली, जिसका श्रेय वे क्लब-मालिक के साथ-साथ आइसोलेशन को भी देते हैं। इस स्थिति में वे गंभीरता से अपने अवगुणों व कमियों को जानने के पश्चात्, तनाव से मुक्ति प्राप्त कर सके। सो! एकांतवास द्वारा हम अपने हृदय की पीड़ा व दर्द को…अपनी आत्मचेतना को जाग्रत करने के पश्चात्, अदम्य साहस व शक्ति से सितारों में बदल सकते हैं अर्थात् अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।

ब्रूसली के मतानुसार ग़लतियां हमेशा क्षमा की जा सकती हैं; यदि आपके पास उन्हें स्वीकारने का साहस है। दूसरे शब्दों में यह ही प्रायश्चित है। परंतु अपनी भूल को स्वीकारना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है, क्योंकि हमारा अहं इसकी अनुमति प्रदान नहीं करता; हमारी राह में पर्वत की भांति अड़कर खड़ा हो जाता है। अब्दुल कलाम जी के मतानुसार ‘इंसान को कठिनाइयों की भी आवश्यकता होती है। सफलता का आनंद उठाने के लिए यह ज़रूरी और अकाट्य सत्य भी है कि यदि जीवन में कठिनाइयां, बाधाएं व आपदाएं न आएं, तो आप अपनी क्षमता से अवगत नहीं हो सकते।’ कहां जान पाते हो आप कि ‘मैं यह कर सकता हूं?’ सो! कृष्ण की बुआ  कुंती ने का कृष्ण से यह वरदान मांगना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘उसके जीवन में कष्ट आते रहें, ताकि प्रभु की स्मृति बनी रहे।’ मानव का स्वभाव है कि वह सुख में उसे कभी याद नहीं करता, बल्कि स्वयं को ख़ुदा अर्थात् विधाता समझ बैठता है। ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोई /जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ अर्थात् सुख- दु:ख में प्रभु की सुधि बनी रहे, यही सफल जीवन का राज़ है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग–जब एक राजा ने भाव-विभोर होकर संत से अनुरोध किया कि वे प्रसन्नता से उनकी मुराद पूरी करना चाहते हैं। संत ने उन्हें कृतज्ञता-पूर्वक मनचाहा देने को कहा और राजा ने राज्य देने की पेशकश की, जिस पर उन्होंने कहा –राज्य तो जनता का है, तुम केवल उसके संरक्षक हो। महल व सवारी भेंट-स्वरूप देने के अनुरोध पर संत ने उन्हें भी राज-काज चलाने की मात्र सुविधाएं बताया। तीसरे विकल्प में राजा ने देह-दान की अनुमति मांगी। परंतु संत ने उसे भी पत्नी व बच्चों की अमानत कह कर ठुकरा दिया। अंत में संत ने राजा को अहं त्यागने को कहा,क्योंकि वह सबसे सख्त बंधन होता है। सो! राजा को अहं त्याग करने के पश्चात् असीम शांति व अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई।

अंतर्मन की शुद्धता व नाम-स्मरण ही कलयुग में पाप-कर्मों से मुक्ति पाने का साधन है। अंतस शुद्ध होगा, तो केवल पुण्य कर्म होंगे और पापों से मुक्ति मिल जाएगी। विकृत मन से अधर्म व पाप होंगे। हृदय की शुद्धता, प्रेम, करुणा व ध्यान से प्राप्त होती है… उसे पूजा-पाठ, तीर्थ-यात्रा व धर्म-शास्त्र के अध्ययन से पाना संभव नहीं है। सो! जहां अहं नहीं, वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा व एकाग्रता का निवास होता है। आशा, विश्वास व निष्ठा जीवन का संबल हैं। तुलसीदास जी का ‘एक भरोसो,एक बल, एक आस विश्वास/ एक राम,घनश्याम हित चातक  तुलसीदास।’ आशा ही जीवन है। डूबते को तिनके का सहारा…घोर संकट में आशा की किरण, भले ही जुगनू के रूप में हो; उसका पथ-प्रदर्शन करती है; धैर्य बंधाती है; हृदय में आस जगाती है। ‘नर हो ना निराश करो मन को/ कुछ काम करो, कुछ काम करो’ मानव को निरंतर कर्मशीलता के साथ आशा का दामन थामे रखने का संदेश देता है…यदि एक द्वार बंद हो जाता है, तो किस्मत उसके सम्मुख दस द्वार खोल देती है। सो! उम्मीद जिजीविषा की सबसे बड़ी ताकत है। राबर्ट ब्रॉउनिंग का यह कथन ‘आई ऑलवेज रिमेन ए फॉइटर/ सो वन, फॉइट नन/ बैस्ट एंड द लॉस्ट।’ सो! उम्मीद का दीपक सदैव जलाए रखें। विनाश ही सृजन का मूल है। भूख, प्यास, निद्रा –आशा व विश्वास के सम्मुख नहीं ठहर सकतीं; वे मूल्यहीन हैं।

सो! आइसोलेशन मन की वह सकारात्मक सोच है, जिसमें मानव समस्याओं को नकार कर, स्वस्थ मन से चिंतन-मनन करता है। चिंता मन को आकुल- व्याकुल व  हैरान-परेशान करती है और चिंतन सकारात्मकता प्रदान करता है। चिंतन से मानव सर्वश्रेष्ठ को पा लेता है। राबर्ट हिल्येर के शब्दों में ‘यदि आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे रहे हैं, तो आपके पास असफलता की चिंता करने का समय ही नहीं रहेगा।’ असफलता हमें चिंतन के अथाह सागर में अवगाहन करने को विवश कर देती है, तो सफलता चिंतन करने को, ताकि वह सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंच सके। सो! एकांतवास वरदान है, अभिशाप नहीं; इसे भरपूर जीएं, क्योंकि यह विद्वतजनों की बपौती है, जो केवल भाग्यशाली लोगों के हिस्से में ही आती है। इस लिए आइसोलेशन के अनमोल समय को अपना भाग्य कोसने व दूसरों की निंदा करने में नष्ट मत करो। जीवन में जब जो, जैसा मिले, उसमें संतोष पाना सीख लें, आप दुनिया के सबसे महान् सम्राट् बन जाओगे। जीवन में चिंता नहीं, चिंतन करो…यही सर्वोत्तम मार्ग है; उस सृष्टि-नियंता को पाने का; आत्मावलोकन कर विषम परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना कर, सर्वश्रेष्ठ दिखाने का। सो! हर पल का आनंद लो, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौट कर नहीं आता…जिसके लिए अपेक्षित है; अहम् का त्याग;  अथवा अपनी ‘मैं’  को मारना। जब ‘मैं’… ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है, तो तुम अदृश्य हो जाता है। यही है अलौकिक आनंद की स्थिति; राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठने की मनोदशा, जहां केवल ‘तू ही तू’ अर्थात् सृष्टि के कण-कण में प्रभु ही नज़र आता है। सो! आइसोलेशन अथवा एकांत एक बहुमूल्य तोहफ़ा है… इसे अनमोल धरोहर-सम स्वीकारिए व सहेजिए तथा जीवन को उत्सव समझ, आत्मोन्नति हेतु हर लम्हे का भरपूर सदुपयोग कर, अलौकिक आनंद प्राप्त कीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 16 ☆ व्यंग्य – स्विच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है मेरी एक समसामयिक व्यंग्य  “स्विच ”।  कल रात्रि लिखी यह रचना आप अवश्य पढ़िएगा । आखिर वह स्विच कौन सा है ? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 16

☆ व्यंग्य – स्विच ☆

आज के अखबार की हेडलाइन्स ने चौंका दिया ….. देश के सभी धार्मिक स्थल के भक्त-निवासों को अस्पताल के वार्ड में तब्दील करने का निर्णय ……  तालों में बंद ईश्वर की मौन अनुमति  ….. सभी देवी देवताओं और नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियों के दानदाताओं द्वारा उतनी ही या उससे अधिक राशि अस्पताल और जनसेवाओं के लिए दान में देने का निर्णय ……

बड़ा अजीब माहौल है …… कोई मेरी ओर देख ही नहीं रहा …… सब अपने आप में मशगूल हैं। मैं सोसायटी गेट से बाहर निकल रहा हूँ …… गार्ड रोकना चाह रहा है…… किन्तु, मैं अपने में ही मशगूल हूँ …… बाहर निकल गया हूँ …… सब कुछ शांत …… पूरी सड़क सुनसान …… सिर्फ दूध और दवा की दुकान खुली है और दारू की बन्द है ….. मुझे चिंता होने लगी है कि सरकार के आय का बड़ा स्रोत बन्द है तो जनता पर व्यय कैसे होगा ? ….. शायद दान से….. वेतन में कटौती से…… महंगाई भत्ते पर रोक से …… पर पेंशनरों का तो सहारा ही यही है ….. कम से कम पेंशनरों को तो बख्श देते ….. बुढ़ापे में ….. पेंशनरों की वित्तीय समस्या का निर्णय वो लोग क्यों लेते हैं जो स्वयं का वेतन स्वयं निर्धारित करते हैं …… पेंशनरों की समस्या का हल करने की समिति में कोई पेंशनर ही नहीं है …… समस्या कटौती की नहीं है  …… समस्या भविष्य की योजना की है …… कहते हैं बीमा करा लो …… राष्ट्र का बीमा क्यों नहीं ? …… सभी का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ?…… राष्ट्र का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ? …… हमारा पेंशन फंड है ……  राष्ट्र का पेंशन फंड क्यों नहीं?  ……

मैं दुबारा देखता हूँ …… मैंने सही देखा है दारू की दुकान बन्द है ……  सड़क के किनारे फिल्मों के पोस्टर गायब हैं ….. सारे शहर में डॉक्टर, नर्सों, सफाई कर्मियों, पुलिसवालों के मुस्कराते चेहरों वाले पोस्टर लगे हैं। बड़े बड़े नेताओं के पोस्टर लगे हैं ….. सब में एक कॉमन बात दिखाई दे रही है, सब पोस्टर में बड़े अक्षरों में लिखा है COVID-19 और सबने मास्क पहन रखा है…….

सारी की सारी सड़क साफ हो गई है …….. कहीं कोई कचरा नहीं ….. कोई प्लास्टिक बैग / पन्नियाँ नहीं ….. गैर पालतू जानवर आराम से घूम रहे हैं …… जरा भूखे जरूर लग रहे हैं ……  किन्तु, काटने नहीं दौड़ रहे ….. आज तालाब के किनारे वॉकिंग ट्रैक पर कोई वाक नहीं कर रहा ….. तालाब का पानी शीशे की तरह साफ कैसे हो गया?  …… कहीं धूल नहीं ….. हवा में प्रदूषण नहीं ….. ये क्या तालाब के किनारे मंदिर में बहुत बड़ा ताला लगा है ….. पुजारी का अता-पता नहीं है ….. तो पूजा कौन करता है? आगे अस्पताल खुला है ….. सब मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं ….. जैसे गेट पर मेरी प्रतीक्षा के लिए हाथ में लेजर से बुखार नापने का यंत्र  लिए नर्स खड़ी है और कुछ नर्सिंग स्टाफ ….. उन्हें लगा मैं अंदर जाऊंगा ….. उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ता हूँ ….. तिरछी नजर से देखता हूँ ….. शायद वे निराश हो गए …..

आगे मॉल में एक मल्टीप्लेक्स है ….. बाहर बहुत बड़ा पोस्टर लगा है ….. पूरे पोस्टर पर लिखा है COVID-19 ….  शायद साइंटिफिक फंतासी फिल्म हो ….. सोचता हूँ देख ही लूँ …… मॉल में इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं ….. दुकानें बन्द हैं ….. मल्टीप्लेक्स खुले हैं ….. सीधे सिनेमा हाल के गेट तक पहुँच जाता हूँ ….. कोई रोकता क्यों नहीं ? ….. सिनेमा हाल में चला जाता हूँ ….. शायद फिल्म शुरू हो गई है….. अंधेरे में खाली सीट टटोलते हुए एक किनारे की खाली सीट पर बैठ जाता हूँ ….. फिल्म शुरू हो चुकी है ….. विदेश का कोई शहर है ….. अफरा तफरी मची हुई है ….. शायद कोई महामारी फैल रही है….. बीच बीच में कोई वाइरस पूरे स्क्रीन पर उछल कूद मचाते रहता है ….. लोग एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं ….. गले लग रहे हैं ….. फ्लाइट पकड़ कर दूसरे देश जा रहे हैं ….. खुद भी बीमार हो रहे हैं ….. औरों को भी बीमार कर रहे हैं ….. अब तो मौतें भी हो रही हैं …..

अचानक स्क्रीन पर आंकड़े आने लग गए …..पहले विदेशों के ….. फिर अपने देश के ….. आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं ….. अचानक जाना माना टी वी एंकर स्क्रीन पर आ गया ….. एक एक कर वक्ता आने लगे ….. बहस चालू हो गई ….. अरे! ये फिल्म में टी वी एंकर कैसे घुस गया ….. यहाँ भी टी आर पी ….. हाल में रोशनी बढ़ने लगी ….. सबने मास्क लगा रखा था ….. दस्ताने पहन रखे थे …..

एंकर चीख चीख कर कह रहा था ….. अपनी सुरक्षा स्वयं करें ….. सार्वजनिक स्थानों पर मत जाएँ ….. मास्क पहन कर रहें ….. घर से बाहर न निकलें ….. घबरा कर उठ खड़ा होता हूँ ….. और अपने आपको बीच सड़क पर पाता हूँ …..आवाज एंकर की नहीं थी ….. पुलिसवाले अपनी गाड़ी में माइक पर चीख चीख कर कह रहे थे ….. लॉक डाउन में घर से बाहर न निकलें ….. सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन करें …..अचानक पुलिस मुझे घेर लेती है ….. मैं बेतहाशा भागने लगता हूँ ….. तेज …..और तेज …..इतना तेज कि जिंदगी में नहीं दौड़ा …..पुलिस के बूटों की आवाज कम होने लगती है ….. पलट कर देखता हूँ ….. कोई भी नहीं ….. चैन की सांस लेता हूँ जैसे ही पलटता हूँ ….. ये क्या? ….. एक इंस्पेक्टर खड़ा है और कुछ पुलिस वाले….. पुलिस वाले जैसे ही डंडा उठाते हैं…..इंस्पेक्टर रोक देता है….. उम्र का लिहाज कर रहा हूँ ….. दुबारा नहीं छोडूंगा ….. हाथ जोड़ माफी मांग कर घर लौट आता हूँ …..

घर पर कोई नहीं दिखते ….. बाबूजी बहुत याद आ रहे हैं ….. सीधे उनके कमरे में जाता हूँ ….. बाबूजी खिड़की के किनारे अपनी कुर्सी पर बैठकर अपनी डायरी लिख रहे हैं ….. वे मेरी ओर नाराजगी से देखते हैं ….. शायद उन्हें मेरा बाहर जाना अच्छा नहीं लगा ….. उनके कदमों में बैठ कर पाँव पकड़ कर माफी मांगने लगता हूँ …..अरे ये क्या? बाबूजी तो हैं ही नहीं….. बाबूजी तो वास्तव में हैं ही नहीं….. तो वो कौन थे …..उठ कर देखता हूँ बाबूजी की डायरी वैसे ही खुली पड़ी है ….. बाजू में उनका चश्मा ….. और डायरी में कलम ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. अपनी आदत के अनुसार एक लाइन छोड़ कर सुंदर हस्तलिपि में एक एक पंक्तियाँ ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. उनकी सर्वाधिक प्रिय पुराने फिल्मी गानों की एक-एक पंक्तियाँ ….. सब पंक्तियों के अंत में  आँसुओं की कुछ बूंदें …..

गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष पर ………..  

आज है दो अक्तूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान…….

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ……

नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ …….

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की  …….

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा  …….

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी …….

हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के ……..

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ……

डायरी उठाने के लिए जैसे ही हाथ आगे बढ़ाता हूँ तो सब कुछ गायब …… डायरी …… चश्मा …… कलम ……  सब कुछ …… आँखें भर आती हैं …… गला रुँध जाता है ….. रोने की कोशिश करता हूँ …… गले से आवाज ही नहीं निकलती …… गले से सिसकियाँ निकलने लगती हैं ……

सुनिये …… सुनिये …… श्रीमति जी मुझे हिला कर नींद से उठा रही हैं …… पूछ रही हैं …… क्या हुआ? इतनी देर से क्यों रो रहे हैं? श्रीमति से लिपट कर रो पड़ता हूँ ……

सोच रहा हूँ …… आखिर यह स्वप्न है या दुःस्वप्न?  ईश्वर ने इस जटिल मस्तिष्क की रचना भी कितने जतन से की होगी। लोग कहते हैं कि सोचना बंद कर दो। अरे भाई! आपको सारे शरीर में कहीं कोई ऐसा स्विच दिख रहा है क्या कि- ऑफ कर दूँ और सोचना बंद हो जाए? यह तो मस्तिष्क में ही कहीं होगा तो होगा । यदि होगा तो जाते समय अपने आप ऑफ हो जाएगा….

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 43 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 43 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

 

हमने तो अब कर लिया, जीवन का अनुवाद।

पृष्ठ – पृष्ठ पर लिख दिया, दुख,पीड़ा, अवसाद।।

 

तेरा-मेरा हो गया, जन्मों का अनुबंध।

मिटा नहीं सकता कभी, कोई यह संबंध।।

 

रात चाँदनी कर रही, अपने प्रिय से बात।

अंधियारी रातें सदा, करतीं बज्राघात।।

 

दर्शन बिन व्याकुल नयन, खोलो चितवन-द्वार।

बाट पिया की देखती, विरहिन बारंबार।।

 

रात चाँद को देखकर, होता मगन चकोर।

नैन निहारे रात भर, निर्निमेष चितचोर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – ग्रंथगुरू . . . !☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस के अवसर पर आपकी एक समसामयिक कविता  “ग्रंथगुरू . . . !” )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – ग्रंथगुरू . . . ! ☆

 

पूजनीय ग्रंथगुरू

नित्य हवे देणे घेणे

शिकविते चराचर

ज्ञान सृजनाचे लेणे. . . . !

 

वंदनीय ग्रंथगुरू

जगण्याचा मार्ग देते.

कृपा प्रसादे करून

सन्मार्गाच्या पथी येते. . . . . !

 

गुरू ईश्वरी संकेत

संस्काराची जपमाळ

शिकविते जिंकायला

संकटांचा वेळ,  काळ. . . . . !

 

तेजोमयी ग्रूथगुरू

तेज चांदणीला येते

पौर्णिमेत आषाढीच्या

व्यास रूप साकारते.. . . !

 

ज्ञानदायी ग्रंथगुरू

घ्यावे जरा समजून

ऋण मानू त्या दात्यांचे

गुरू पुजन करून. . . . !

 

संस्कारीत ग्रंथगुरू

एक हात देणार्‍याचा

पिढ्या पिढ्या चालू आहे

एक हात घेणार्‍याचा.

 

असे ज्ञानाचे सृजन

ग्रथगुरू धडे देते

जीवनाच्या परीक्षेत

जगायला शिकविते. . . !

 

ज्ञानियांचा ज्ञानराजा

व्यासाचेच नाम घेई.

महाकाव्ये , वेद गाथा

ग्रंथगुरू ज्ञान देई. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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