हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 59 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 59 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

कलम

कलम आज जो लिख रही,

जीवन का संग्राम।

दर्ज हुआ इतिहास में,

रणवीरों के नाम।।

 

यामा

यामा के संघर्ष को,

मिला अंततः न्याय।

चाहत ने अभिनव लिखा,

जीवन का अध्याय।।

 

आमंत्रण

आमंत्रण अनुराग का,

करते हैं स्वीकार।

हल्दी, कुमकुम में रचा,

बसा तुम्हारा प्यार।।

 

अनुराग

प्रियतम के प्रति चित्त में,

यह कैसा अनुराग।

प्रति दिन छल करता रहा,

किया नहीं पर त्याग।।

 

नलिनी

नलिनी जब खिलने लगी,

हर्षित हुए तड़ाग।

कल-कल कल झरना बहे,

मधुरिम गाता राग।।

 

अनुराग

कभी प्रेम की बांसुरी,

कभी सुरों का राग।

कभी पिया की रागिनी,

जीने का अनुराग ।।

 

तर्पण

है आमंत्रण काग को,

जगे काग के भाग।

पितरों को तर्पण करें,

बुला मुँडेर काग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 50 ☆ एक बुन्देली रचना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “एक बुन्देली रचना। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 50☆

☆ एक बुन्देली रचना ☆

 

आपहुं आप मुंह फुला ऱए काय के लाने

बिन बुलाए ही घर खों आ ऱए काय के लाने

 

कभहुँ बात समझ कछु आतई नइयां

जबरन हम खों चाटे जा ऱए काय के लाने

 

नेता के संग बहुतई घूम घूम खें

उसई सब खों धमका ऱए काय के लाने

 

कहवे खों तो झट बुरो मान रए दद्दा

मास्क मुँह में नहीं लगा रए काय के लाने

 

कोरोना में लूट मची अस्पतालन की

लाखों खों खर्चा बता रए काय के लाने

 

कोरोना की आड़ में जबरन डर फैला खें

जइ बहाने खूब कमा रए काय के लाने

 

ढ़ीली कर दी सरकारों ने लगाम अब तो

जन-जन खों “संतोष” भी नइयां काय के लाने

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई !।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 42 ☆

☆  लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई !

वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई  से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था  उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए  इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर- घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता- पिता अकेले पडे बुढापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।

उसे देखकर अच्छा लगा- रंग निखर गया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता  है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” भारत की जैसी गंदगी नहीं है वहाँ।”

बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में  घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !

बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- सुना है अमेरिका में बच्चे पढाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति  ने अपने भाषण में भी कहा था कि सब सुविधाएं होते हुए भी अमेरिकी  युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढकर जाते हैं।

वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।

मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर —   वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है, कुछ सालों बाद सब ठीक हो जाएगा । मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।

मैं सोच रही थी कि अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के  भारतीय युवक  अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 61 – जापानी विधा ‘हाइबन’ ☆ एक परिचय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। 

आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के विशेष अनुरोध पर श्री ओमप्रकाश जी का आलेख  जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 61 ☆

☆ जापानी विधा ‘हाइबन’ – एक परिचय ☆

हाइबन एक जापानी विधा है। इसमें हाइकु के साथ साहित्य की अन्य विधा का गठजोड़ होता है। पहले साहित्य की अन्य विधा को लिखा जाता है। इसके अंत में एक हाइकू होता है। इसके संयुक्त रुप को हाइबन कहते हैं। संक्षेप में कहें तो किसी भी विधा में प्रकृति की व्याख्या अथवा रचना के बाद या रोचक विवरण के बाद अंत में एक हाइकू की रचना की जाती है। इस रचना को  हाइबन कहते हैं।

इसके प्रथम भाग में डायरी, संस्मरण,लघुकथा, संक्षिप्त कहानी, यात्रा वृतांत के रोचक प्राकृतिक तथ्य, प्रेरक पूरक, गद्य की रोचक व संपूर्ण रचना अथवा प्रकृति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे भाग में 17 वर्णोँ  में अपनी बात नियमों के तहत रखनी होती है। इन 17 वर्णों में प्रथम पंक्ति में पांच वर्ण होते हैं । दूसरी पंक्ति में 7 वर्ण और तीसरी में फिर 5 वर्ण होते हैं। इस तरह हाइकु की रचना की जाती है। मसलन –

तोरणद्वार~

सेल्फी लेते फिसली

नवब्याहता।

हाइकु में दो वाक्य होते हैं। इसमें दो बिंब का समावेश होना अनिवार्य शर्त होती हैं। दोनों बिंब दर्शनीय हो । वह आंखों के सामने स्पष्ट नजर आए । अर्थात फोटो खींचने की तरह वह दृश्य आंखों के सामने स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाए । इसका सीधा मतलब यही है।

हाइकु के दोनों वाक्य स्वतंत्र होते हैं। प्रथम या अंतिम पांच वर्ण में क्रिया नहीं होनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चीजों का वर्णन इसकी अनिवार्य शर्त है। जिससे उसका बिंब आंखों के सामने दृष्टिगोचर हो जाए। मुँह से आह और वाह निकल जाएं।

दूसरे भाग में 12 वर्णों में दूसरा बिंब खींचा जाता है। यह प्रथम व द्वितीय अथवा द्वितीय व तृतीय पंक्ति हो सकती हैं। यह पूरा एक वाक्य होता है । इस तरह हाइकू  17 वर्गों में रची गई एक रोचक काव्य रचना होती है। इसमें नियमों के तहत एक सुंदरतायुक्त, संक्षिप्त, बिंबयुक्त काव्य रचना रची जाती है।

एक तरह से यह 17 वर्णों की सबसे छोटी काव्य रचना है। इसमें अपनी बात प्राकृतिक तत्वों के अंतर्गत रखना होती है । इस कारण इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं होता है। आप तुलना नहीं कर सकते हैं । इसमें कोई साधारण वाक्य नहीं होना चाहिए । इस कारण इसमें धार्मिकता का प्रयोग वर्जित होता है।

हाइबन में धार्मिक स्थानों का वर्णन उसके अन्य महत्व के आधार पर किया जा सकता है। इसके अंतर्गत वास्तुकला की बारीकी, उसकी पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से दर्शनीय कला, उस की मोहकता  और वस्तुकला संबंधित दर्शनीयता का चित्र खींच सकते हैं । मगर यहां आपको कोई कल्पना नहीं करनी है क्योंकि काव्य की तरह हाइकु में कल्पना करना वर्जित है।

इसमें किसी दृश्य यानी फोटो को शब्दों के माध्यम से पाठकों को सम्मुख 17 वर्णों में व्यक्त कर दिखाना होता है। वह भी सीमित वर्णों में दो चित्र वाले यानी बिंब को साकार करना होता है। इसमें किसी एक 5 वर्ण वाली पंक्ति में क्रिया के उपयोग की मनाई होती है।

हाइकु वर्तमान काल में लिखी जाने वाली काव्य रचना या कृति होती है ।इसके वाक्यों में वर्तमान काल का प्रयोग किया जाता है ।जो सम्मुख हो रहा है या दिख रहा है वही शब्दों में दिखाना पड़ता है । इस कारण इसमें भूतकाल और भविष्य काल की क्रिया की मनाही होती है।

विवरण इस तरह लिखना होता है कि वह दो दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाए । इसमें भी दोनों दृश्य में कार्य कारण का संबंध न हो। दोनों दृश्य अलग-अलग हो।मसलन-चूहा भाग रहा है और सांप पीछे आ रहा है। जैसे दो दृश्य आप नहीं दिखा सकते हैं। क्योंकि इसमें कार्य और कारण का संबंध उपस्थित होता है।

एक दृश्य दूसरा दृश्य से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए। दोनों दृश्य एक साथ आंखों के सामने दृष्टिगत हो जाए। इन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है ।उनमें कार्य फल का सिद्धांत लागू नहीं होना चाहिए।

इसके अलावा हाइकू की रचना करने में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है। इसमें प्रकृति का मानवीकरण नहीं किया जा सकता है। दो वाक्य स्वतंत्र होते हैं। इस रचना में शब्दों का दोहराव वर्जित होता है। इस को धर्म विशेष व्यक्ति विशेष के वर्णन से मुक्त रखा गया है। मगर विरोधीभाषी वाक्य लिखे जा सकते हैं। तुकबंदी का प्रयोग पूर्णत वर्जित होता है।

यह विधा पूर्णता प्रकृतिमूलक है। इसी कारण इसमें प्राकृतिक दृश्यों का होना अनिवार्य है ।दूसरे वाक्य में आप अन्य स्पष्ट प्रतिबिंब दर्शा सकते हैं। यही हाइकु की संक्षिप्त विशेषता होती है।

हाइकु लेखन विधा में दो मत प्रचलित है । एक हाइकू को  5,7,5 वर्ण की तुकान्त और सौंदर्ययुक्त भावनात्मक रचना मानते हैं। जिसमें भरपुर कल्पना, मानवीकरण और तुकबंदी के साथसाथ मनोदशा का सुन्दर वर्णन कर सकते हैं। इस काव्य की सब से छोटी रचना में अपनेमन के भावों को उंडैल देते हैं। मसलन- इस रचनाकार की एक रचना देखिए।

शक की सुई~

पंचर कर देती

रिश्तों की गाड़ी।

यह हाइकु के नियमों से मुक्त होकर लिखी गई काव्य रचना है। यानी इस रचना में दूसरे मत वाले हाइकु को प्रतिनिधित्व मिलता है। इस हाइकु में हाइकु  की तरह कोई प्राकृतिक दृश्य नहीं है। केवल 5, 7, 5 के वर्णों में लिखी गई रचना है। मगर भाव का सुंदर समन्वय लिए हुए हैं । यह रचना कई मंचों पर सराही गई है।

मगर हाइकु के उपरोक्त नियम नियमानुसार नहीं है। इसमें निम्नानुसार दो दृश्य नहीं है । केवल भाव का सुंदर समन्वय है। सुनने में भावोक्ति भरी बेहतरीन रचना है।

हाइकु में दो वाक्यों के बीच विभेदक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसे अंग्रेजी में कटमार्क कहते हैं। इससे दो वाक्यों को अलग-अलग दर्शाया जाता है । इसे हम दो वाक्यों का विभाजक चिह्न कह सकते हैं।

इस तरह हाइबन में जिस बिंब या दृश्य की प्रथम भाग में रचना करते हैं उसे दूसरे भाग में हाइकू के रुप में लिख कर दृश्य रुप में साकार करते हैं। अंत में हाइकू नियमानुसार हाइकू विधा में लिखा जाता है। हाइबन के प्रथम भाग में कोई व्याख्या, रोचक वर्णन, लोककथा, लघुकथा, प्रेरक प्रसंग, दृश्य या कोई विवरण होता है । उसके बाद अंत में हाइकु की रचना की जाती है। इस संपूर्ण रचना को हाइबन कहते हैं। हाइबन लिखने में आपको पद्य और गद्य लिखने में माहिर होना पड़ता है। तभी यह प्रभावी बन पाता है।

इस रचनाकार का एक हाइबन देखकर आप इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं । इस हाइबन का शीर्षक है- नभ की छवि । इसके द्वारा आप हाइबन को और स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे।

हाइबन—नभ में छवि

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़तीघुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हां बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

” अच्छा !”

” हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 68 ☆ कोरोना काल और व्यंग्य लेखन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का समसामयिक  विषय पर आधारित रचनाकारों की मनोदशा दर्शाता आलेख  कोरोना काल और व्यंग्य लेखन। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 68 ☆

☆ व्यंग्य – कोरोना काल और व्यंग्य लेखन ☆

कोरोना जैसे वायरस के लगभग 100 वर्षों के अंतराल में एक बार आने की आवृत्ति देखी गई है । विकिपीडिया के अनुसार 1820 मैं वैश्विक प्लेग के बाद 1920 में स्पेनिश फ्लू और अब 2020 में  कोरोना का प्रकोप दुनियाभर में है । इस वायरस ने सबको अचानक एकाकी कर दिया है ।

प्रायः रचनाकार के एकाकी मन में अभिव्यक्ति की छटपटाहट होती है

कोरोना काल का यह अत्यंत दुखद पहलू रहा की यह समय विसंगतियों से भरपूर है,अनायास बिना स्पष्ट प्लानिंग के टोटल लाकडाउन सुदूर गांवों तक लागू हुआ जो जहां था वहीं अटक गया ।

सारे देश मे सोनूसूद की जिजीविषा, गुरुद्वारों के लंगर की  जरूरत महसूस हो रही थी,  छोटे छोटे प्रयास हर शख्स ने किए भी, मध्यवर्ग ने अपनी कामवाली, माली, चौकीदार,ड्राइवर को बिना काम वेतन दिए, सरकार ने भी उनकी समझ में बहुत कुछ किया पर यह सब नाकाफी सिध्द हो रहा है, देश, परिवार, संस्थाओं की आर्थिक स्थितियां गड़बड़ा गई हैं ।

व्यंग्यकार जो हर छोटी बडी घटना पर लिखता है, इस सब परिवेश पर चुप रह ही नही सकता, फिर खाली समय ने अतिरिक्त सहयोग किया ।

स्वयं मैंने लाकडाउन शीर्षक से एक व्यंग्य संकलन वैश्विक स्तर पर संकलित किया जो छपने को है, व्यक्तिगत स्तर पर अनेक व्यंग्य लिखे जो कोरोना की वैश्विक विसंगतियों पर केंद्रीय भाव के  साथ हैं।

इस परिचर्चा के संदर्भ में आशय यही है कि कोरोना जनित अभूतपूर्व स्थितियो में व्यंग्यकर्मियो के लिए असीमित कैनवास पर अपने अपने अनुभवों के आधार मनचाहे चित्रांकन के अवसर को हम व्यंग्य यात्रियों ने यथासम्भव सकारात्मक तरीके से उपयोग किया है ।

लेखन, प्रकाशन हमारी इसी ऊर्जा का सुपरिणाम है ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 31 ☆ अभिमान की डिजिटल गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “अभिमान की डिजिटल गाथा यह रचना एडमिन द्वारा संचालित सोशल साइट्स के कार्यप्रणाली और सदस्यों के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 31 – अभिमान की डिजिटल गाथा ☆

भाव बढ़ने के साथ; प्रभाव का बढ़ना तय ही समझ लीजिए। जीवन में भले ही अभावों का दौर चल रहा हो किन्तु स्वभाव तो ऐसा रखेंगे; जिससे दुर्भाव ही उत्पन्न होता हो। क्या किया जाए ये अभिमान चीज ही ऐसी है कि जिसे हुआ समझो वो अपने साथ- साथ सबको ले डूबता है। घमंड का साथ हो और छप्पर फाड़ कर जब अनायास कुछ मिलने लगता है, तो बहुत सारे प्रतिद्वंद्वी भी तैयार हो जाते हैं। ऐसी ही कुछ कहानी डिजिटल समूहों के एडमिन की भी होती है।

जरा – जरा सी बात पर हाय तौबा करना, पूरे पटल को सिर पर उठा लेना। नए- नए नियमों को बनाना फिर लागू करवाना। अरे भई संख्या बल यहाँ भी आ टपकता है। जब अपनी पकड़ मजबूत हो तो जिसे जो जी चाहे कहते रहो, पूरे सदस्य का भरा- पूरा डिजिटल परिवार है। कुछ लोग रूठ कर चले भी जाएँ, तो क्या फर्क पड़ता है। जहाँ भी जायेंगे यही राम कहानी गायेंगे, इससे मुफ्त का प्रचार होगा। कि फलाँ ग्रुप बहुत अहंकारी है, नए नियमों की तो रोज ही बौछार करता है। और  जितनी भी बुराई हो सकती है, कर देंगे।

पर मजे की बात तो ये है, कि व्यक्ति वहीं आकर्षित होता है, जहाँ पूछ- परख कम होती हो। कुछ नया सीखने को मिलता हो। जब तक नयापन हो तभी तक लगाव जायज रहता है,जैसे ही वहाँ पहचान बढ़ी, तो  अड़ंगेबाज लोग अपनी असलियत पर उतर ही आते हैं और सुझावों का दौर शुरू कर देते हैं।

अरे भई जोड़- तोड़,और सलाह  देने में तो हम सबकी मास्टरी है, बस आवश्यकता उन लोगों की है जो नियमों का पालन करें।

ऐसे लोगों की खोजबीन में सारे एडमिन लगे रहते हैं, जैसे ही कोई जुझारू व्यक्ति मिला, बस उसकी धरपकड़  शुरू हो गयी। मीठी भाषा से रिझा कर कार्य करवाना व सम्मानित करना तो अभिमान की पहली सीढ़ी है। बस समझो सफल शुरुआत हो गयी। बदलाव करते रहिए, बढ़ते रहिए।

कुछ न कुछ करते रहने वालों का सम्मान तो बनता है, भले ही अभिमान क्यों न सिर पर चढ़ने लगे। धीरे- धीरे कब ये सारे चरण पार कर सुप्रीमों की श्रेणी में आ बैठता है, पता ही नहीं चलता। हद तो तब होती है जब ये एडमिन को ही अपना असली रूप दिखाने लगता है। बस फिर क्या एक झटके में रिमूव रूपी तलवार से काम तमाम।

अभिमान और अहंकार तो किसी के नहीं टिकते तो इन सामान्य डिजिटल सदस्यों के कैसे बचेंगे,इसी पर चिंतन – मनन जारी है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 60 – अखबारों में छपी खबर है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’


(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक कालजयी रचना अखबारों में छपी खबर है…..…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 60 ☆

☆ अखबारों में छपी खबर है….. ☆  

 

पढ़ने में आया है कि अब

नहीं किसी को कोई डर है

अखबारों में छपी खबर है।

 

भूखे कोई नहीं रहेंगे

खुशियों से दामन भर देंगे

करते रहो नमन हमको तुम

सारी विपदाएं हर लेंगे,

डोंडी पीट रहा है हाकिम

नगर – नगर है।

अखबारों में छपी खबर है।

 

पारदर्शी मौसम विज्ञानी

किस बादल में कितना पानी

अलादीन चालीस चोरों की

लोकतंत्र से जुड़ी कहानी,

घात लगाए राहों में

निर्मम अजगर है।

अखबारों में छपी खबर है।

 

बांध बनाए बिजली आई

खेतों में हो रही सिंचाई

खुश हैं साहूकार मन ही मन

जमकर होगी माल उगाही,

चिंता से कृषकों की अवगत

विकल नहर है।

अखबारों में छपी खबर है।

 

पूर्ण सुरक्षित कोमल कलियाँ

चौकस गाँव शहर घर गलियां

उदघोषित से शोर-शराबे

वन,उपवन में बैठे छलिया,

चौराहे बाजार भीड़ में

पग-पग डर है।

अखबारों में छपी खबर है।

 

इनमें-उनमें बैर नहीं है

मुख पृष्ठों पर लिखा यही है

इश्तहार कुछ और दिखाएं

पर सच जो वह छुपा नहीं है,

मौन जिन्हें रहना है वे ही

आज  मुखर हैं

अखबारों में छपी खबर है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 41 – बापू के संस्मरण-15- काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ……… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 41 – बापू के संस्मरण – 15 – काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए ………

 नहाते समय गांधीजी साबुन का प्रयोग नहीं करते थे । अपने पास एक खुरदरा पत्थर रखते थे।  वर्षों पहले मीराबहन ने उन्हें यह पत्थर दिया था । नोआखाली की यात्रा के समय एक बार पत्थर संयोग से पिछले पड़ाव पर छूट गया । उस समय मनु गांधीजी के साथ रहती थी । स्नानघर में जब उसने गांधीजी से कहा, बापूजी, नहाते समय आप जिस पत्थर का प्रयोग करते हैं, वह मैं कहीं भूल आई हूं । कल जिस जुलाहे के घर ठहरे थे, शायद वह वहीं छूट गया है । अब क्या करूं?”

गांधीजी कुछ देर सोचते रहे । फिर बोले, तुझसे गलती हुई, तू उस पत्थर को खुद खोजकर ला।”

सुनकर मनु सकपका गई। फिर झिझकते हुए पूछा,”गांव में बहुत से स्वयंसेवक हैं, उनमें से किसी को साथ ले जाऊं?”

बापू ने पूछा, “क्यों?”

मनु को क्रोध आ गया । बापूजी सब कुछ जानते हैं, फिर भी पूछते हैं. यहां नारियल और सुपारी के घने जंगल हैं । अनजान आदमी तो उसमें खो जाये । फिर ये तूफान के दिन हैं । आदमी, आदमी का गला काटता है। आदमी, आदमी की लाज लूटता है। राह एकदम वीरान और उजाड़ है । उस पर कोई अकेले कैसे जाये? मगर भूल जो हुई थी। उसने क्यों का कोई जवाब नहीं दिया । किसी को साथ भी नहीं लिया, अकेली ही उस राह पर चल पड़ी । कांप रही थी, पर उसके कदम आगे बढ़ रहे थे। पैरों के निशान देखती जाती थी, रामनाम लेती जाती थी और चलती जाती थी । आखिर वह उस जुलाहे के घर पहुंच गई । उस घर में उस वक्त केवल एक बुढ़िया रहती थी । वह क्या जाने कि वह पत्थर कितना कीमती था । शायद उसने तो उसे फेंक दिया था । मनु इधर-उधर ढ़ूंढने लगी। आखिर वह मिल गया । मनु के आनंद का पार न रहा ।  खुशी-खुशी लौटी ।

डेरे पर पहुंचते-पहुंचते एक बज गया । जोर की भूख लग आई थी और इस बात का दुख भी था कि इस भूल के कारण वह अपने बापू की सेवा से वंचित रह गई । इसीलिए वह उन्हें पत्थर देते समय रो पड़ी । उसे समझाते हुए गांधीजी बोले, “इस पत्थर के निमित्त आज तेरी परीक्षा हुई । इसमें तू पास हुई । इससे मुझे कितनी खुशी हो रही है । यह पत्थर मेरा पच्चीस साल का साथी । जेल में, महल में, जहां भी मैं जाता हूं, यह मेरे साथ रहता है । अगर यह खो जाता तो मुझे और मीराबहन को बहुत दुख होता ।

तूने आज एक पाठ सीखा । ऐसे पत्थर बहुत मिल जायेंगे, दूसरा ढ़ूंढ लेंगे, इस खयाल से बेपरवाह नहीं होना चाहिए । काम की हर चीज को संभालकर रखना सीखना चाहिए।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 40 ☆ सजल – फौलाद-वक्ष  हिन्द के हर  वीर  का तना है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  समसामयिक रचना  फौलाद-वक्ष  हिन्द के हर  वीर  का तना है । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 40 ☆

☆ सजल – फौलाद-वक्ष  हिन्द के हर  वीर  का तना है ☆

 

गिरता  चरित्र   चीन  का  उदाहरण  घना  है

जग-आपदा के दोषों से उसका कर सना है

 

उसके लिए दो कौड़ी है मोल  मनुजता का

छल, दंभ, कपट, धोखे, औ’ स्वार्थ साधना है

 

घुसपैठ कर रहा है, छुप-छुप के वार करता

भारत   मगर   चबाता   नाकों  उसे  चना  है

 

इस मातृभूमि पर क्यों, है  कुटिल  दृष्टि  तेरी

भू-चोर तू भारत का, चोरों  का सरगना है

 

कितनी भी कोशिशें कर, तू वज्र भी चलाले

फौलाद-वक्ष  हिन्द के हर  वीर  का तना है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 11 – शब्द की गाथा ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता शब्द की गाथा।) 
अभी हाल ही में आपकी नवीन पुस्तक ” Wing Commander Abhinandan Varthaman, a Real Hero” प्रकाशित हुई है जो कि अमेजन पर भी उपलब्ध है। आपको ई – अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें ।

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 11 – शब्द की गाथा

 

शब्द में समाया है फलसफा जिंदगी का,

शब्द में समाया है गम, शब्द में ही भरी है खुशी,

शब्द से मिलती अथाह पीड़ा, शब्द से ही भरता घाव ।।

 

शब्द रिश्तों में उलझन पैदा कराता,

शब्द राह में कांटे बिछाता, शब्द ही राह में फूल बिछाता,

शब्द रिश्तों में कराता टकराव, शब्द बढ़ाता रिश्तों में प्यार ।।

 

शब्द-जाल मधुमक्खी का छत्ता,

शब्द अपनों में जहर घोलता, शब्द ही अपनों में मधु घोलता,

शब्द बनाता अपने को पराया, शब्द बनाता पराये को अपना।।

 

तोड़ दो शब्दों का भ्रमजाल,

शब्द से वाणी पर रहे संयम, शब्दों में हो सबका मान,

शब्दों के निकाल दो विष बाण, शब्दों में हो सिर्फ अमृत वाण।|

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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