हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 53 – लघुकथा दिवस विशेष – ग्रहण ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ग्रहण । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 53 ☆

☆ लघुकथा दिवस विशेष – ग्रहण ☆  

इस वर्ष की पदोन्नति सूची आने में अभी एक दिन शेष था, इसके पूर्व ही रामदीन को मित्रों से बधाईयां मिलने लगी थी। यहाँ तक कि, उसके निकटस्थ अधिकारी तिवारी जी से भी प्रमोशन की पुष्टि के साथ उसे अग्रिम बधाई मिल गई थी।

परन्तु यह क्या —–? आज घोषित पदोन्नति  सूची में शुरू से अंत तक रामदीन का कहीं भी नाम नहीं था।

खिन्न मन से अधिकारी तिवारी जी के केबिन में जा कर उनसे पूछा—–

“सर, आपने तो कल ही मुझे बधाई दे दी थी, फिर ये कैसे हो गया! क्या आपने भी दूसरों की देखा-देखी अनुमान के आधार पर बधाई दी थी?”

“नहीं रामदीन! ये कैसे हो गया, मैं भी यही सोच रहा हूँ। कल सूची में मैंने स्वयं तुम्हारा नाम देखा था। रात्रि साढ़े नौ बजे तक मैं महाप्रबंधक जी के कक्ष में था, –  तब भी वही प्रमोशन लिस्ट हमे दिखाई गई थी। पता नहीं इसके बाद किस कारण से तुम्हारा नाम हटाया गया। अचम्भित हूँ मैं भी।”

हताश, रामदीन कारण जानने हेतु हिम्मत कर महाप्रबंधक के पास पहुंचा,——-

“मान्यवर जी—-! मैं जानना चाहता हूँ कि, पात्रता के बावजूद मुझे अयोग्य क्यों समझा गया,यदि आप मेरी कमियाँ बता सकें तो आगे मैं उन्हें सुधारने की कोशिश करूंगा।”

“नहीं रामदीन! — तुममें कोई कमी नहीं है। तुम हर प्रकार से योग्य हो, किन्तु हुआ यह कि, हमारी पदोन्नति सूचि में शासन के नियमानुसार आरक्षित वर्ग की एक संख्या कम रह जाने की भूल के चलते ऊपर से आदेश हुआ था, सूची में एक आरक्षित वर्ग के व्यक्ति को अनिवार्य रूप से शामिल करने का।”

“पर तुम चिंता नहीं करो रामदीन! अगले वर्ष के लिए अभी से तुम्हारा प्रमोशन पक्का है।”

“किन्तु श्रीमान जी—- मेरा ही नाम क्यों काटा गया? सूची में मुझसे कमतर और नाम भी तो थे। और फिर मेरे बदले में जिसे आपने पदोन्नति दी है उसके विषय में भी आप भलीभांति परीचित हैं।”

“हाँ रामदीन, —सब कुछ जानते हुए भी विवश हैं हम। और तुम्हारा ही नाम क्यों!   तो सुनो एक उदाहरण से—— यह एक सर्वविदित तथ्य है जिसे सब जानते हैं, और तुम भी, कि, कुल्हाड़ी लिए लकड़हारा जब जंगल मे घुसता है तो आड़े-टेढ़े व असामान्य बांसोंसे अपने को बचाते हुए जो सब से सीधा और सही बांस दिखता है, वह उसी पर कुल्हाड़ी से वार करता है। समझ रहे हो न रामदीन तुम, मेरे कहने का आशय?”

“जी मान्यवर,— समझ रहा हूँ और शायद नहीं भी।”

“नहीं भी से क्या तात्पर्य है तुम्हारा?” महाप्रबंधक ने उत्सुकता से पूछा।

“मान्यवर—! कटने के बाद भी ‘सीधे बांस’ की उपयोगिता कहाँ-कहाँ और क्या-क्या होती है इससे तो आप कदापि अनभिज्ञ नहीं होंगे।”

“वही आड़े-टेढ़े बांस “मौसम परिवर्तन”के साथ ही आपस मे टकराते हुए जल कर राख हो जाते हैं, या सूख कर वहीं ठूंठ बने इधर-उधर से थपेड़े खाते रहते हैं।”

महाप्रबंधक जी निरुत्तर हो,अपने दाएं-बाएं झांकने लगे।

झूठ की इस जंग में हार कर भी रामदीन विजयी मुस्कान के साथ अपने कार्यस्थल की और लौट रहा था।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

12/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 55 – पितृ दिवस विशेष – गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  परम आदरणीय पिताश्री को समर्पित एक भावप्रवण  “गझल”।  यह एक शाश्वत सत्य है कि बचपन से लेकर जीवनपर्यन्त माँ पिता को कैसे भूला जा सकता है। हमारी एक एक सांस उनकी ऋणी है। पितृ दिवस के अवसर वास्तव में यह गझल हमें उनकी एक एक बात स्मरण कराती है।  सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित  इस भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 55 ☆

☆ पितृ दिवस विशेष – गझल ☆ 

 मला केवढी उदास करते गोष्ट वडिलांची

धुक्या सारखी मनी पसरते गोष्ट वडिलांची

 

जुनी खेळणी, डबा टिफिनचा बंब घंगाळे

किती कौतुके करीत बसते  गोष्ट वडिलांची

 

नवी बाहुली , कधी दुपारी डाव पत्त्यांचा

लपंडाव ते कसे विसरते गोष्ट वडिलांची

 

नसे आठवत जत्रा,सिनेमा,सर्कस ,बगीचा

पुन्हा केवढी उरात सलते गोष्ट वडिलांची

 

कधी एकटी स्मरणसिमेवर पाहते त्यांना

मुक्या पापणीतुन झरझरते   गोष्ट वडिलांची

 

कुणी दाखवा अता जुना तो काळ  सोनेरी

मनीमानसी सदैव वसते गोष्ट वडिलांची

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 34 – बापू के संस्मरण-8 देश-सेवा की और पहला कदम ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – देश-सेवा की और पहला कदम”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 34 – बापू के संस्मरण – 8 – देश-सेवा की और पहला कदम☆ 

गांधीजी ने साबरमती में आश्रम खोला था एक भाई उनसे मिलने आये । वह बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते थे और मानते थे कि बढिया अंग्रेजी में लेख लिखना देश की सेवा करना हैं । उन्होंने  गांधीजी से कहा, “मेरे योग्य कोई हो तो बताइये” । उनका विचार था कि गांधीजी उनसे अंग्रेजी में लेख लिखने के लिए कहेंगे, पर बात कुछ और ही हुई उस समय गांधीजी गेहूं साफ कर रहे थे । उन्होंने कहा, “वाह यह  तो बहुत अच्छी बात है ये गेहूं बीनने है आप मदद करेंगे?”

वह भाई सकपका गये अच्छा नहीं लगा, परन्तु मना भी कैसे करते! बोले, “अवश्य मदद करुंगा” । वह गेहूं बीनने लगे ऊपर से शान्त, मन में सोच रहे थे कि कहां आ फंसा! गांधीजी कैसे हैं? इतनी बढ़िया अंग्रेजी जाननेवाले से गेहूं बिनवाते हैं! किसी तरह राम-राम करके उसने घंटा पूरा किया फिर बोला, “बहुत समय हो गया, अब जाना चाहता हूं” । गांधीजी ने कहा, “बस घबरा गये?” उसने कहा, “नहीं, घबराया तो नहीं, पर घर पर जरूरी काम है” ।

गांधीजी ने पूछा, “क्या काम है?” वह भाई बोले, “जी, रात को खाने में देर हो जाती है, इससे संध्या का नाश्ता कर लेता हूं, उसी का समय हो रहा है” ।

गांधीजी हंस पड़े बोले, “इसके लिये घर जाने की जरूरत नहीं है हमारा भोजन भी बस तैयार होने वाला है ।

हमें भी एक बार अपने साथ भोजन करने का मौका दीजिये हमारी नमक-रोटी आपको पसन्द होगी न? मैं काम में लगा हुआ था आपसे बातें नहीं कर सका माफ करें,अब खाते समय बातें भी कर लेंगे”।  वह भाई क्या करते! रुकना पड़ा कुछ देर में खाने का समय हो गया भोजन एकदम सादा रूखी रोटी, चावल और दाल का पानी न घी, न अचार, न मिर्च, न मसाले।

बापू ने उन भाई को अपने पास बैठाया बड़े प्यार से खाना परोसा भोजन शुरु होते ही बातें भी शुरु हो गई, पर उन भाई की बुरी हालत थी वह ठहरे मेवा-मिठाई से नाश्ता करने वाले  और वहां थी रुखी रोटी।  एक टुकड़ा मुंह में दें और एक घूंट पानी पिये तब भी एक रोटी पूरी न खा सके ।  इतने पर भी छुट्टी मिल जाती तो गनीमत थी वहां तो अपने बरतन आप मांजने का नियम था । जैसे-तैसे वह काम भी किया तब कहीं जाकर जाने का अवसर आया ।

जाते समय गांधीजी ने उनसे कहा, “आप देश की सेवा करना चाहते हैं, यह अच्छी बात है आपके ज्ञान और आपकी सूझ-बूझ का अच्छा उपयोग हो सकता है लेकिन इसके लिए शरीर का निरोग और मजबूत होना जरूरी हैं आप अभी से उसकी तैयारी करें यही आपका देश-सेवा की ओर पहला कदम होगा”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 4 – हर फूल में महक हो जरूरी नहीं ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता हर फूल में महक हो जरूरी नहीं. 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 4 – हर फूल में महक हो जरूरी नहीं ☆

 

हर फूल में महक हो यह कोई जरूरी नहीं,

बस खिल कर किसी के काम आ जाए यह क्या कम है?

 

हर फूल का इत्र बने यह कोई जरूरी नहीं,

बस खिल कर बगिया को रोशन कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल बगिया को रोशन करे यह जरूरी नहीं,

भगवान के चरणों में जगह पा धन्य हो जाए यह क्या कम है?

 

हर फूल मंदिर में चढ़ पवित्र हो जाए यह जरूरी नहीं,

किसी तस्वीर पर चढ़ लोगों की आंखे नम कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल तस्वीर पर चढ़े यह भी कोई जरूरी नही,

फूल खिलकर बगियाँ को रंग-बिरंगा कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल पर कांटों का पहरा हो यह कोई जरूरी नही,

रंग बिरंगे फूल फिजा में खुशबू फैला दे यह क्या कम है?

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 33 ☆ ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 33 ☆

☆ ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है ☆

जाने क्या हो जाय पल में है

जिन्दगी का पता कल में है

 

चलने की ताकत तो पैरों  में है,

फिसलन तो होती दल दल में है

 

चलते ही जाना तो जीवन है

पावनता सरिता के जल में है

 

क्या होगा कल, ये पहेली है

मजा इस पहेली के हल में है

 

हो गुलाब काँटो की  सेज पर

ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 41 ☆ नदी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “नदी ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 41 ☆

☆ नदी  ☆

कभी नदी को देखा है तुमने

अपने रास्ते खुद खोजते हुए?

 

इस बार जब गुजरो उसके करीब से

तो ज़रा ध्यान से देखना

उसके पागलपन को

जो उसे रुकने नहीं देता

और वो पत्थरों को काटती,

पहाड़ों को भेदती,

जंगलों को लांघती,

बढती ही जाती है…

 

यदि नदी

किसी सहारे या साथ को खोजती रहे

तो कहाँ चल पाएगी वो?

 

सुनो,

कोई साथ दे दे

तो उसकी ऊँगली ज़रूर पकड़ना,

पर कभी अपना वजूद मत भूल जाना

और बढती रहना

नदी सी

सिर्फ अपनी रूह के भरोसे पर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 21 ☆ कविता – मूर्ति उवाच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “मूर्ति उवाच ”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 21

☆ मूर्ति उवाच ☆

मुझे

कैसे भी कर लो तैयार

ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस

या संगमरमर

कीमती पत्थर

या किसी कीमती

धातु को तराशकर

फिर

रख दो किसी चौराहे पर

दर्शनीय पर्यटन स्थल पर

या

विद्या के मंदिर पर

अच्छी तरह सजाकर।

 

मैं न तो  हूँ ईश्वर

न ही नश्वर*

और

न ही कोई आत्मा अमर

किन्तु,

मैं रहूँगा तो  मात्र

मूर्ति ही

निर्जीव-निष्प्राण।

 

इतिहास भी नहीं है अमिट

वास्तव में

इतिहास कुछ होता ही नहीं है

जो इतिहास है

वो इतिहास था

ये युग है

वो युग था

जरूरी नहीं कि

इतिहास

सबको पसंद आएगा

तुममें से कोई आयेगा

और

मेरा इतिहास बदल जाएगा।

 

मेरा अस्तित्व

इतिहास से जुड़ा है

और

जब भी लोकतन्त्र

भीड़तंत्र में खो जाएगा

इतिहास बदल जाएगा

फिर

तुममें से कोई  आएगा

और

मेरा अस्तित्व बदल जाएगा

इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।

 

फिर

चाहो तो

कर सकते हो पुष्प अर्पण

या

कर सकते हो पुनः तर्पण।

 

 * विचारधारा (नश्वर)

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 58 ☆ संस्मरण – हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर संस्मरण “हमारे मित्र  डॉ लालित्य ललित जी।  श्री विवेक जी ने  डॉ लालित्य ललित जी  के बारे में थोड़ा  लिखा  ज्यादा पढ़ें की शैली में बेहद संजीदगी से यह संस्मरण साझा किया है।। इस संस्मरण  को हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 58 ☆

 

☆ संस्मरण –  हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆

खाने के शौकीन, घुमक्कड़, मन से कवि,  कलम से व्यंग्यकार हमारे मित्र  लालित्य ललित जी!

गूगल के सर्च इंजिन में किसी खोज के जो स्थापित मापदण्ड हैं उनमें वीडियो, समाचार, चित्र, पुस्तकें प्रमुख हैं.

जब मैंने गूगल सर्च बार पर हिन्दी में लालित्य ललित लिखा और एंटर का बटन दबाया तो आधे मिनट में ही लगभग ३१ लाख परिणाम मेरे सामने मिले. यह खोज मेरे लिये विस्मयकारी है. यह इस तथ्य की ओर भी इंगित करती है कि लालित्य जी कितने कम्प्यूटर फ्रेंडली हैं, और उन पर कितना कुछ लिखा गया है.

सोशल मीडिया पर अनायास ही किसी स्वादिष्ट भोज पदार्थ की प्लेट थामें परिवार या मित्रो के साथ  उनके  चित्र मिल जाते हैं. और खाने के ऐसे शीौकीन हमारे लालित्य जी उतने ही घूमक्कड़ प्रवृत्ति के भी हैं. देश विदेश घूमना उनकी रुचि भी है, और संभवतः उनकी नौकरी का हिस्सा भी. पुस्तक मेले के सिलसिले में वे जगह जगह घूमते लोगों से मिलते रहते हैं.

मेरा उनसे पहला परिचय ही तब हुआ जब वे एक व्यंग्य आयोजन के सिलसिले में श्री प्रेम जनमेजय जी व सहगल जी के साथ व्यंग्य की राजधानी, परसाई जी की हमारी नगरी जबलपुर आये थे. शाम को रानी दुर्गावती संग्रहालय के सभागार में व्यंग्य पर भव्य आयोजन संपन्न हुआ, दूसरे दिन भेड़ागाट पर्यटन पर जाने से पहले उन्होने पोहा जलेबी की प्लेटस के साथ तस्वीर खिंचवाई और शाम की ट्रेन से वापसी की.

मुझे स्मरण है कि ट्रेन की बर्थ पर बैठे हम मित्र रमेश सैनी जी ट्रेन छूटने तक लम्बी साहित्यिक चर्चायें करते रहे थे.

इसके बाद उन्हें लगातार बहुत पढ़ा, वे बहुप्रकाशित, खूब लिख्खाड़ लेखक हैं. व्यग्यम की गोष्ठियो में हम व्यकार मित्रो ने उनकी किताबों पर समीक्षायें भी की हैं. मैं अपने समीक्षा के साप्ताहिक स्तंभ में उनकी पुस्तक पर लिख भी चुका हूं. वे अच्छे कवि, सफल व्यंग्यकार तो हैं ही सबसे पहले एक खुशमिजाज सहृदय इंसान हैं, जो यत्र तत्र हर किसी की हर संभव सहायता हेतु तत्पर मिलता है. अपनी व्यस्त नौकरी के बीच इस सब साहित्यिक गतिविधियो  के लिये समय निकाल लेना उनकी विशेषता है.

वे बड़े पारिवारिक व्यक्ति भी हैं, भाभी जी और बच्चो में रमे रहते हुये भी निरंतर लिख लेने की खासियत उन्ही में है. इतना ही नही व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप व अब फेसबुक पर भी समूह के द्वारा देश विदेश के ख्याति लब्ध व्यंग्यकारो को जोड़कर सकारात्मक, रचनात्मक, अन्वेषी गतिविधियों को वे सहजता से संचालित करते दिखते हैं.

मैं उनके यश्स्वी सुदीर्घ सुखी जीवन की कामना करता हूं, व अपेक्षा करता हूं कि उनका स्नेह व आत्मीय भाव दिन पर दिन मुझे द्विगुणित होकर सदा मिलता रहेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 9 – मागोवा ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘मागोवा

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 9 ☆ 

☆ मागोवा  

आज घेताना मागोवा

जुनी वाट झाकोळावी

दूर धुक्यातून कोणी

जुनी कथा रेखाटावी.

 

आज व्हावा डोळाबंद

रंगरूप पळसाचे

जागवावे भाव मनी

भोळ्या खुळ्या शेवंतीचे

 

अर्धखुल्या पापणीत

स्वप्न सारे साठवावे.

कण क्षण सोशिलेले

दिठीदिठीत मिटावे.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 54 ☆ देहाची शाल ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत मार्मिक, ह्रदयस्पर्शी एवं भावप्रवण कविता  “देहाची शाल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 54 ☆

☆ देहाची शाल☆

 

ती सुगंध उधळित यावी मी मलाच उधळुन द्यावे

ती लाजत मुरडत जाता डोळ्यांत साठवुन घ्यावे

 

तो वसंत येतो जेव्हा ती फूल होउनी जाते

श्वासात उतरते तेव्हा माझाच श्वास ती होते

 

चंद्राचे रूप धवल हे त्या मुखकमळावर येते

ती प्रकाशकिरणे त्यातिल मज जाता जाता देते

 

पाहतो किनारा आहे किती व्याकुळतेने वाट

ती फेसाळत मग येते होऊन प्रीतीची लाट

 

तिमिराचा डाव उधळण्या काजवे घेउनी आलो

ती प्रसन्न व्हावी म्हणुनी मी वात दिव्याची झालो

 

प्रीतीच्या झाडावरती राघुने बांधले घरटे

मैना जे घेउन येते नसतेच गवत ते खुरटे

 

देहाची शाल करावी नि तिला लपेटुनी घ्यावे

मी भ्रमर होउनी अमृत त्या गुलाबातले प्यावे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

 

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

 

Please share your Post !

Shares