हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆ कोरोना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “कोरोना”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆

कोरोना

 

लचकती डालियाँ, लहराती नदियाँ,

यही तो क़ुदरत का वरदान हैं

झूलते हुए गुल, मुस्काती कलियाँ

यही तो मेरी धरती की शान हैं

 

उड़ते परिंदे, हवाएं बल खातीं

देखते थे हम सीना तान के

झूमती तितली, लहरें बहकतीं

बसंती दिन थे वो भी शान के

 

छोड़ के वो शान, खो हम गए थे

मोबाइल कहीं, कहीं लैपटॉप है

AC का है युग, क़ुदरत नदारद

नए युग का नया सा ये शौक था

 

बढती दूरियां, कैसी मजबूरियाँ

इंसान के अंदाज़ सिमट रहे थे

कौन था जानता, किसको थी खबर

मुसीबत से हम बस लिपट रहे थे

 

कोरोना का प्रकोप, रुकी ज़िंदगी

दुनिया सारी आज परेशान है

बेकार है कार, मचा हा-हाकार

मिटटी में मिल गयी सब शान है

 

इंसान डर रहा, इंसान मर रहा,

महामारी ने कहाँ किसे छोड़ा

लडखडाये साँस, कोई नहीं पास

दिलों को जाने कितना है तोड़ा

 

मुश्किल है घड़ी, परेशानी बड़ी

हारनी नहीं है पर हमें यह जंग

मुक़ाबला है करना, नहीं डरना

जिगर में तुम फैलने दो उमंग

 

सोचना हमें है, विजयी है होना

फासला हमने अब तक तय किया

जीतेंगे हम सुनो, हम में है दम

जीतेगा एक दिन सारा इंडिया

 

जीतेगा जोश, कोरोना को हरा

हमको लेना होगा सब्र से काम

पास मत आना, नियम तुम मानना

खूबसूरत ही होगा फिर अंजाम

 

बस यह बात तुम कभी न जाना भूल

क़ुदरत को करते रहना रोज़ नमन

क़ुदरत के बिना हम तो अधूरे हैं

महकता है उसी से बस ये जीवन

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 37 ☆ व्यंग्य संग्रह – दिमाग वालों सावधान  – श्री धर्मपाल जैन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री धर्मपाल जैन जी  के  व्यंग्य -संग्रह  “दिमाग वालों सावधान ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 37 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – दिमाग वालों सावधान – व्यंग्यकार – श्री धर्मपाल जैन

दिमाग वालों सावधान

व्यंग्यकार धर्मपाल जैन

किताबगंज प्रकाशन गंगापुर सिटी

ISBN 9789389352634

 

किसी भी किताब में सर्वप्रथम जो चीज पाठक को आकर्षित करती है, वह होता है उसका नाम. व्यंग्य की किताबों के लिये अनेक व्यंग्य लेखो में से एक नाम के आधार पर किताब का नाम रखना सहज परम्परा है. इसी लीक पर चलते हुये व्यंग्यकार धर्मपाल जैन जी ने अपनी नई पुस्तक का नाम दिमाग वालों सावधान रखा है. नाम ध्यान आकर्षित करता है. प्रकाशक ने बिना त्रुटि सम्यक आवरण डिजाइन करवाकर, अच्छे गेटअप में पुस्तक प्रस्तुत की है. पेपरबैक का मूल्य मात्र २५० रु है. कहने का मतलब है कि बुक स्टाल पर मुँह दिखाई में तो पाठक किताब से रिश्ता बना ही सकता है.

अब जब कृति घर आ जाये और तकिये के नीचे तक पहुंच जाये तो उसके कलेवर पर कुछ चर्चा हो जाये.

बैक कवर पर बिंदु रूप लेखक परिचय से समझ आता है कि यह लेखक की दूसरी व्यंग्य की किताब है. किसी की कोई भूमिका नही, कोई आत्मकथन नही. सीधी बात. कुल जमा ५१ सनसनाती व्यंग्य रचनायें समेटे हुये है पुस्तक.

दिमाग चाटने वालो पर है शीर्षक व्यंग्य. छोटे छोटे वाक्य, समझ आने वाली भाषा, प्रभावी शैली का अच्छा व्यंग्य है. कई व्यंग्य ऐसे हैं जिन शीर्षको से मै कई व्यंग्यकारो के लेख पढ़ चुका हूं, बल्कि कई शीर्षको पर तो स्वयं मेरे भी लेख हैं, जैसे झंडा ऊंचा रहे हमारा, अस मानुस की जात, कबिरा खड़ा बाजार में, हिन्दी डे, इन टापिक पर मैं भी व्यंग्य लिख चुका हूं. मतलब साफ है कि व्यंग्यकारों की पीड़ा समान होती है.

“एल्लो सरपंच जी क्या सांड से कम होवे हैं ” ऐसा लेखन केनेडा में बसे हुये व्यंग्यकार लिखे तो समझ लें कि वह जमीन से जुड़ा हुआ आदमी है. यूं भी विदेश में रहकर वहाँकी चकाचौंध से भ्रमित हुये बिना देश से, हिन्दी से, व्यंग्य से सरोकार बनाये रखने के चलते धर्मपाल जी  अपने रचना धर्म का पालन करते नजर आते हैं.

चंद्रयान ३ से भारत प्रधानमंत्री से संवाद शैली में मारक व्यंग्य है. किस तरह चुनाव जीतने में हर तरह की उपलब्धियों का राजनीति उपयोग करती है, यह उजागर करता व्यंग्य है. कमियो की बात करें तो इतना ही कहूंगा कि अनेक स्थानो पर अमिधा में बातें कहने की जगह प्रतीको में बात की जाने की संभावना है, अगले संग्रहों में जैन साहब से व्यंग्य को ओर उम्मीदें हैं.

सबकी हो सबरीमाला, साहित्य की सही रेसिपी, अब मेरे घर में देवता रहते हैं, बापू का आधुनिक बंदर आदि रचनायें मुझे बड़ी पसंद आई. कुल जमा किताब  पढ़े जाने के बाद तकिये के नीचे से निकलकर, बुकशैल्फ में शोभायमान करने योग्य है.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 60 – काला तिल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “काला तिल ।  एक विचारणीय लघुकथा। विवाह के सात फेरों का बंधन और स्त्री के अहं के सामने सब कुछ व्यर्थ है। यही हमें संस्कार में भी मिला है। किन्तु, कितने लोग इस गूढ़ अर्थ को समझते हैं और कितने लोग इसे अपनी नियति मान लेते हैं ?  इस सार्थक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 60 ☆

☆ लघुकथा – काला तिल

तन की सुंदरता अपार और उस पर गोरा रंग, किसी की भी निगाहें  उसे एक टक देखा करती थी।

कहीं भी आए जाए हर समय माता – पिता को अपनी बिटिया दिव्या को लेकर परेशानी होती थी।

समय गुजरता गया पुराने विचारों के कारण दिव्या की कुंडली मिलान कर एक बहुत ही होनहार युवक  से उसका विवाह तय कर दिया गया। गिरधारी अच्छी कंपनी पर नौकरी करता था। परंतु रंग तो ईश्वर का दिया हुआ था, काला रंग और नाम गिरधारी।

दोनों से आज के समय की दिव्या को कुछ नहीं जच रहा था। घरवालों की इच्छा और सभी की खुशियों के लिए उसने विवाह के लिए हाँ कर दी। विवाह उपरान्त ससुराल जाकर वह अपने और गिरधारी के रंग को लेकर बहुत परेशान हुआ करती थी।

कहते हैं सात समंदर पार पुत्री का विवाह, ठीक उसी तरह दिव्या भी बहुत दूर जा चुकी थी, अपने माता-पिता और परिवार से।

पग फेरे के लिए दिव्या को मायके आना था, उसे तो बस इसी दिन का इंतजार था कि अब वह जाएगी तो कभी भी वापस नहीं आएगी और अपनी दुनिया अलग बसा लेगी।

इस बात से गिरधारी परेशान भी था परंतु दिव्या की खुशी के लिए सब कुछ सहन कर लिया।

ट्रेन अपनी तीव्र गति से आगे बढ़ रही थी। दिव्या गिरधारी को जहां पर सीट मिली थी। वहाँपर कुछ मनचले नौजवान भी सफर कर रहे थे। हाव-भाव देकर वह समझ गए कि शायद वह अपने पति को पसंद नहीं करती।

बस फिर क्या था?? सब अपनी-अपनी शेखी  दिखाने लगे। काले रंग को लेकर छीटाकशी और सुंदरता की परख पर उतावले से चर्चा करने लगे।

दिव्या के कारण गिरधारी चुप रहा। शायद वह कुछ बोले तो दिव्या को खराब लगेगा। थोड़ी देर बाद जब हद से ज्यादा मजाक और अभद्र बातें निकलने लगी। उस समय दिव्या बड़ी ही सहज भाव से उठी और एक सुंदर गोरे नौजवान को इशारे से देख बोलने लगी सुनो…. “काले रंग-गोरे रंग पर इतना ज्यादा मत उलझो। मेरी सुंदरता मेरे पति के सुंदर काले रंग से और भी निखर रहा है। मैं तुम्हें समझाती हूं। मान लो मेरा गोरा रंग मेरे पति को लग जाएगा तो लोग उसे बिमारी और त्वचा रोग समझने लग जाएंगे।परन्तु , मेरे पति का थोड़ा सा काला रंग मुझे लग जाएगा, तो मेरे गोरे रंग पर ”काला तिल” बनकर निखर उठेगा। मेरे पति लाखों में एक है। गिरधारीअब तक चुपचाप बैठा था, उठकर दिव्या के पास खड़ा हो गया। आंखों ही आंखों में दोनों ने बातें कर ली। सब कुछ सामान्य और सहज हो गया। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 60 ☆ जोखडाचे भय ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “जोखडाचे भय।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 60 ☆

☆ जोखडाचे भय ☆

 

पाणी डोळ्यांत घेऊन, पाणी शोधाया निघाले

नदी नाले शोधताना, होते रक्तही आटले

 

कंठी घागरीच्या दोर, जाते पाण्यासाठी खोल

गेली ठेचाळत खाली, नाही लाभलेली ओल

 

तुळशीच्या रोपालाही, नाही एक वेळ पाणी

पाने सुकाया लागली, त्यांस वाली नसे कोणी

 

अशी भेगाळली भुई, वाटे बघुनिया भीती

गाई-गुरांना न चारा, कशी जपायची नाती

 

चारा पोटात जाईना, गाय दूधही देईना

दुष्काळाच्या शृंखलेला, काही मार्ग सापडेना

 

योजनांच्या घबाडाचे, वाटेकरी हे लबाड

फळे खातात स्वतः हे, गरिबाला देती फोड

 

होई निसर्गाचा कोप, नाही राजाकडे न्याय

माणसाच्या मानेला या आज जोखडाचे भय

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

सावन की ऋतु आ गई ,आंखों में परदेस ।

मन का वैसा हाल है ,जैसे बिखरे केश ।।

 

सावन आया गांव में , भूला घर की गैल ।

इच्छा विधवा हो गई ,आंखें हुई रखैल ।।

 

महक महक मेहंदी कहे, मत पालो संत्रास ।

अहम समर्पित तो करो, प्रिय पद करो निवास ।।

 

सावन में संन्यास लें ,औचक उठा विचार।

पर मेहंदी महका गई, संयम के सब द्वार।।

 

सावन में सन्यास लें, ग्रहण करें यह अर्थ ।

गंधहीन जीवन अगर, वह जीवन ही व्यर्थ ।।

 

जलन भरे से दिवस हैं ,उमस भरी है रात ।

अंजुरी भर सावन लिए ,आ जाए बरसात ।।

 

मेहंदी, राखी, आलता, संजो रहा त्यौहार

सावन की संदूक में ,मह मह करता प्यार ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 12 – खामोश जंगल की विविधता ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “खामोश जंगल की विविधता ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ खामोश जंगल की विविधता  ☆

 

किस तरह सिमटी हुई

खामोश जंगल की विविधता

हवा मौसम को उठाये आ रही है

सुबह, जैसे कि किसी मजदूर की बेटी,

खड़ी बेपरवाह हौले से नहाये जा रही है

 

पेड़, पौधे, फूल, तिनके, घास

कच्ची डालियों में, आउलझती धूप वैसी

फिसलती मलमल कमर की घाटियों से

उमस के लम्बे उभरते रुप जैसी

 

किस तरह डगमग रही

संतोष ढोती सी विवशता

ऊब में अफसोस को जैसे बढ़ाये जा रही है

 

धुंध पर्वत की फिसलती, गंधवाही सी हरी पगडंडियों की, अक्षरा बन

नई झालरदार गरिमातीत, बेसुध  सी  तलहटी पर, आ झुकी छोटी बहन

 

किस तरह उफना रही

दोनों किनारों पर सहजता

कथा पानी की सुनाये जा रही है

 

इधर जंगल की सुबासित काँपती

परछाइयाँ तक नील में बादल सरीखी

घुमड़ती हैं और रह रहकर थकी- सी,

पिघलती हैं तिलमिलाती और तीखी

 

किस तरह सहमी हुई अनजान आँखो की व्यवस्था

गाँव में सुनसान अपने पग बढ़ाये

जा रही है

 

© राघवेन्द्र तिवारी

11-07-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

विश्व के प्राय: सभी महान लेखक कथा का सहारा लेते रहें हैं,स्केलेटन के रूप में क्यों न सही ।आप एक ऐसे लेखक हैं जो अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता के समान्तर सदियों से आजमाये इस हथियार को लगातार छोड़ते चले गए। आपने अपना साहित्यिक कैरियर कथाकार के रूप में शुरू किया, किन्तु कालान्तर में आप कथा की दुनिया छोड़ निबंधों की ओर मुड़ गये, अपने इस जोखिम भरे विकास क्रम पर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे ?

हरिशंकर परसाई –

हां, कथा बहुत रोचक होती है और उसके पाठक सबसे अधिक होते हैं। ये भी सही है कि महान साहित्य या तो महाकाव्य में लिखा गया है या उपन्यासों में या कहानियों में। आरंभ में मैंने भी कहानियां लिखीं, उससे मुझे लोकप्रियता भी प्राप्त हुई, कहानियां मैं लगातार लिखता रहा, अभी अभी भी मैं अक्सर कहानी लिख लेता हूं, मेरी करीब 350 कहानियां हैं, परन्तु मुझे इसकी चिंता नहीं कि किस विधा में लिख रहा हूं या मैं उस विधा के नियम मान रहा हूं या नहीं मान रहा हूं। कुछ लोग कहते भी थे कि ये लिखते हैं कहानियां, लेकिन ये कहानी की परिभाषा में नहीं आता…..तो मैं उनसे कहता था कि आप कहानी की परिभाषा बदल दीजिए,इस प्रकार मैंने इन विधाओं के स्ट्रक्चर को उनकी बनावट को भी तोड़ा और परम्परा से जो रीति चली आ रही थी उसको भी मैंने एक नये प्रकार से तोड़ा।

मेरे सामने जो समस्या थी वह कहानी या उपन्यास लिखने की समस्या नहीं थी, और न अभी है। मेरे सामने जो समस्या शुरू से रही है वह यह कि इस पूरे समाज का सर्वेक्षण करके,जीवन को समझकर,जीवन की समीक्षा जो मैं कर रहा हूं, इस समीक्षा के लिए कौन सा माध्यम सबसे उपयोगी होगा तो मुझे लगा निबंध एक बहुत अच्छा माध्यम है इसके लिए। क्योंकि निबंध में स्वतंत्रता होती है। मेरे निबंध न ललित निबंध हैं, जैसा कि आमतौर पर लिखे जाते हैं,वे ठोस विषयों पर लिखे हुए होते हैं, और ठोस परिणति तक पहुंचते हैं। जैसा कि क्रून्सी ने कहा है – “आइडियल शैली आफ माइन्ड” वे भी नहीं हैं वो ।इन निबंधों में मैंने जिस विषय को उठाया है, उसके बहाने मैंने आसपास बिखरे दसों पच्चीसों विषयों पर तिरछे प्रहार किए हैं….तो निबंधों में स्वतंत्रता बहुत होती है। ये नहीं कि कथा यहां अटक गई है उसे अटकना नहीं चाहिए, उसे चलना ही चाहिए। मैं निबंध में एक स्थान पर रुककर किसी दूसरे विषय पर भी व्यंग्य कर देता हूं, तो ये सुभीता व्यंग्य में है। मेरे व्यंग्य भी उतने ही लोकप्रिय हुए जितनी कहानियां…. इसीलिए मैंने व्यंग्य को अपनाया।उसी प्रकार उपन्यास को ले लीजिए ,लघु उपन्यास भी मैंने लिखे। एक तो “तट की खोज” यह देवकथा है । ये लंबी कहानी है, इस लघु उपन्यास में व्यंग्य नहीं है।यह वास्तव में अत्यंत करुण कहानी है, एक लड़की की करुण कहानी है। लेकिन दूसरा जो मैंने लघु उपन्यास लिखा  “रानी नागफनी की कहानी” वह पूरा का पूरा व्यंग्य है। उस व्यंग्य में मैंने एक वर्ग को लिया है। एक मामूली सा प्रेम प्रसंग के बाद मैंने देश की समस्याएं और विश्व की समस्याएं, ये सब की सब उसमें मैं व्यंग्य के द्वारा ले आया हूं, और पुस्तक मात्र 130-140 पेज की है, उसमें पूरे विश्व की समस्याएं ले ली गईं हैं। इसमें पूरा-पूरा व्यंग्य है। तो इस प्रकार के उपन्यास मैं लिख सकता हूं, लेकिन परंपरागत उपन्यास जो हैं उनको लिखना मेरे वश की बात नहीं है। मैं फेन्टेसी लम्बी लिख सकता हूं, हां फेन्टेसी उपन्यास… जैसा कि स्पेनिश लेखक सर्वेन्टीस का है “डान की होट” जिसमें एक सामंत है, वह पगला है और उसका एक पिछलग्गू है और वह भी पगला गया है। और उनके द्वारा लेखक ने यूरोप के सामंतवाद का उपहास किया है। ऐसी लम्बी फेन्टेसी या ऐसा लंबा फेन्टेसी उपन्यास मैं लिखना चाहता था, इसके छह चेप्टर मैंने एक पत्रिका में सीरियलाइज किेए, लेकिन छह केबाद वह पत्रिका ही बंद हो गई (हंसते हुए..)अब छैह के छैह वैसे ही रखे हुए हैं, मैं उसको पूरा नहीं कर पा रहा हूं, इस प्रकार मैं उपन्यास लिखना चाहता था पर नहीं लिख सका।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बरसात ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए।  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता   “बरसात”।  ) 

☆  व्यंग्य कविता – बरसात ☆ 

पहले,

जीवन की तरुणाई में

मौसम की अंगड़ाई में

वर्षा की पहली पहली बुंदे

गर्मी में  कितनी

राहत दिलाती थी

तन और मन भीगोती थी

पहली पहली बारिश मे

पत्नी के आग्रह पर

वो बरसात मे भीगना

एक दूसरे को पानी मे खिंचना

पत्नी का वो पानी उड़ाते हुये चलना

शरारतसे किचड़ मेरे कपड़े पे मलना

भीगी हुयी साड़ी मे उसका  सिमटना

बिजली की कड़क पर लिपटना

बारिश के उमंग मे

बच्चोके संग पत्नी की मस्ती

झूम जाती थी सारी बस्ती

बच्चे -बुढे, तरूण- तरुणियाँ

महिला -पुरुष ,नर- नारियाँ

भीगते थे लेकर हाथो में हाथ

रंगीन हो जाती थी पहली बरसात

बाद में, घर में  पत्नी के हाथ की काॅफी

आँखो में शरारत, होंठो पर माफी

आगोश में  होती थी

जब उसकी  भीगी भीगी काया

लगता था पाली हो दुनिया की माया

और अब-

बालकनी मे बैठकर

पहली बरसात को देखकर

पत्नी कहती है- कैसा जमाना है

हर शख्स बेगाना है

इनमें, ना कोई उल्लास , ना उमंग है

ना मन में  खुशी , ना कोई तरंग  है

सब मशीन से हो गये हैं

अपने आप मे खो गये हैं

और हम दोनों

उम्र के इस पड़ाव पर

मन में द्वंद है

थक के हारकर कमरे में  बंद हैं

पुरानी यादों में खोये हुये

हाथो में  हाथ है

सोच रहे हैं,

वो भी  एक बरसात थी,

ये भी  एक बरसात है.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, भिलाई, जिला – दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 11 ☆ अभंग…☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “ अभंग …)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 11 ☆ 

☆ अभंग… 

केशव माधव,

अनंत अगाध,

झालो मी सावध, परमेशा…०१

 

महाराष्ट्र माझा,

संतांची ही भूमी

माझी कर्मभूमी, हीच झाली…०२

 

देव अवतार,

इथेच जाहले

संतांनी पूजिले, ईश्वर ते…०३

 

सात्विक आचार,

सुंदर विचार

महाराष्ट्र घर, माझे झाले…०४

 

संत ज्ञानेश्वर,

संत तुकाराम

जीवन निष्काम, संतांचे हे…०५

 

शौर्याची पताका,

इथे फडकली

तोफ कडाडली, गडावर…०६

 

शिवबा जन्मला,

शिवबा घडला

माता जिजाऊला, आनंद तो…०७

 

मराठी स्वराज्य,

शिवबा स्थापिले

मोगल पडले, धारातीर्थी…०८

 

ऐसा माझा राजा,

छत्रपती झाला

निर्भेळ तो केला, कारभार…०९

 

दगडांच्या देशा,

प्रणाम करतो

अखंड स्मरतो, बलिदान…१०

 

कुणी आक्रमण,

तुझ्यावर केले

हल्ले किती झाले, पृथ्वीवर…११

 

चिरायू हा होवो,

कण कण तुझा

नमस्कार माझा, स्वीकारावा…१२

 

कवी राज म्हणे,

निसर्ग सौंदर्य

आणि हे औदार्य, कैसे वर्णू…१३

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 61 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  समसामयिक लघुकथा  ‘बदलाव’।  वर्तमान महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति में बदलाव ला दिया है । डॉ परिहार जी  ने इस मनोवैज्ञानिक बदलाव को बखूबी अपनी लघुकथा में दर्शाया है। इस  सार्थक समसामयिक लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

 फोन की घंटी बजी तो मिसेज़ चन्नी ने उठाकर बात की। बात ख़त्म हुई तो माँजी यानी उनकी सास ने चाय पीते पीते पूछा, ‘किसका फोन आ गया सुबे सुबे?’

मिसेज़ चन्नी ने जवाब दिया, ‘वही गीता है। कहती है अब बुला लो। कहती है अन्दर आकर झाड़ू-पोंछा नहीं करेगी, बर्तन धोकर बाहर बाहर चली जाएगी। आधे काम के ही पैसे लेगी। ‘

माँजी बोलीं, ‘बड़ी मुश्किल है। ये बीमारी ऐसी फैली है कि किसी को भी घर में बुलाने में डर लगता है। बाहर से आने वाला कहाँ से आता है, कहाँ जाता है,क्या पता। बड़ा खराब टाइम है भाई। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘कहती है कि बहुत परेशान है। माँ की तबियत खराब है, उसकी दवा के लिए पैसे की दिक्कत है। ‘

माँजी कहती हैं, ‘सोच लो। हमें तो भई डर लगता है। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘डर की बात तो है ही। ये बीमारी ऐसी है कि इसका कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो टाल ही रही हूँ। कह दिया है कि एक दो दिन में बताती हूँ। बार बार रिक्वेस्ट कर रही थी। ‘

शुरू में जब गीता को काम पर आने से मना किया तो मिसेज़ चन्नी बहुत नर्वस हुई थीं। समझ में नहीं आया कि काम कैसे चलेगा। खुद उन्हें ऐसे मेहनत के काम करने की आदत नहीं। एक दिन झाड़ू-पोंछा करना पड़ जाए तो बड़ी थकान लगती है। बर्तन धोना तो पहाड़ लगता है।

राहत की बात यह है कि ये दोनों काम बच्चों ने संभाल लिये हैं। बच्चों के स्कूल बन्द हैं, व्यस्त रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। मोबाइल में उलझे रहने के बजाय झाड़ू लगाने और बर्तन धोने में मज़ा आता है। इसे लेकर निक्कू और निक्की में लड़ाई होती है, इसलिए दोनों के अलग अलग दिन बाँध दिये हैं। एक दिन निक्कू बर्तन धोयेगा तो निक्की झाड़ू-पोंछा करेगी। दूसरे दिन इसका उल्टा होगा। आधे घंटे का काम एक घंटे तक चलता है। उनका काम देखकर मिसेज़ चन्नी और माँजी हुलसती रहती हैं। इनाम में बच्चों को चॉकलेट मिलती है। सब का मनोरंजन होता है।

माँजी ऐसे मौकों पर गीता को याद करती रहती हैं। महामारी फैलने से पहले गीता अपनी तुनकमिजाज़ी के लिए मुहल्ले में बदनाम थी। काम में तो तेज़ थी, लेकिन कोई बात उसके मन के हिसाब से न होने पर उसे काम छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगता था। मिसेज़ चन्नी का काम उसने दो बार छोड़ा था और दोनों बार उसे सिफारिश और खुशामद के बाद वापस लाया गया था।

पहली बार मिसेज़ चन्नी ने बर्तनों में चिकनाहट लगी रहने की शिकायत की थी और वह दूसरे दिन गायब हो गयी थी। फिर मिसेज़ शुक्ला से सिफारिश कराके उसे वापस बुलाया गया, और माँजी ने उसे ‘बेटी बेटी’ करके बड़ी देर तक पुचकारा। तब मामला सीधा हुआ। दूसरी बार बिना बताये छुट्टी लेने पर मिसेज़ चन्नी ने शिकायत की थी और वह फिर अंतर्ध्यान हो गयी थी। तब मिसेज़ चन्नी उसे घर से बुलाकर लायी थीं। आने के बाद भी वह तीन चार दिन मुँह फुलाये रही थी और मिसेज़ चन्नी की साँस ऊपर नीचे होती रही थी।

आखिरकार मिसेज़ चन्नी ने गीता को बुला लिया है। बच्चे घर के काम से अब ऊबने लगे हैं। चार दिन का शौक पूरा हो गया है। पहले काम करने के लिए जल्दी उठ जाते थे, अब उठने में अलसाने लगे हैं। बुलाने के साथ गीता को समझा दिया गया है कि गेट से आकर पीछे बर्तन धो कर चली जाएगी, घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी। गीता तुरन्त राज़ी हो गयी है। समझ में आता है कि रोज़ी की चिन्ता ने उसकी अकड़ को ध्वस्त कर दिया है।

मिसेज़ चन्नी देखती हैं कि दो तीन महीनों में गीता बहुत बदल गयी है। चुपचाप आकर काम करके निकल जाती है। पहले जैसे आँख मिलाकर बात नहीं करती। कभी बर्तन ज़्यादा हो जाएं तो आपत्ति नहीं करती। कभी देर से पहुँचने पर मिसेज़ चन्नी ने झुँझलाहट ज़ाहिर की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसको लेकर अब मिसेज़ चन्नी के मन में कोई तनाव नहीं होता। उन्हें लगता है कि गीता को लेकर अब निश्चिंत हुआ जा सकता है। अब आशंका का कोई कारण नहीं रहा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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