मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 53 ☆ पावसाचे थेंब ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत मार्मिक, ह्रदयस्पर्शी एवं भावप्रवण कविता  “पावसाचे थेंब।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 53 ☆

☆ पावसाचे थेंब☆

 

असंख्य पावसाचे थेंब

डोकं आपटून घेतात

रस्त्यावर, खडकावर,

ओघळ होऊन वाहतात,

खड्ड्यांची तळी निर्माण करतात,

डोंगरावरून कोसळतात,

नदीत धावतात,

धरणात साटतात,

मातीला सुखावतात,

अन्नाच्या निर्मितीत योगदान देतात,

सजीवांत जगवण्याची उमेद निर्माण करतात,

समुद्रात माशांना जगवतात,

भूतलावर प्राण्यांना वाढवतात,

कधी पानांच्या कुशीत

मोत्यांचं रूप घेऊन विसावतात,

कधी गोठून घेतात स्वतःचंच अस्तित्व

कधी आग झेलतात, बाष्प होतात,

बहुरुप्यासारखी रुपं बदलतात

पावसाचे थेंब

या साऱ्या उपकाराच्या बदल्यात

काय मागतात ते तुमच्याकडे

पाणी वाचवा पाणी जिरवा

इतकच ना ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 5 – सुखी रहें सब … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “सुखी रहें सब …”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #5 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ सुखी रहें सब …. ☆

 

मुँह बिचकाती लगी गाँव की

तिरस्कृता पछुआ

यहाँ गुजरते हुये शहर ने

जब जब उसे छुआ

 

सड़क उधर की बेशक

आकर सत्‍वर यहाँ मिली

शीलवती, संयमी दिखी है

ग्राम्या गली गली

 

चौपालों का दर्द अनसुना

कर चौराहे भी

जगमग करते रहे सम्हाले

सब अपना बटुआ

 

स्वीमिंग पूल नहाये तन को

जब छू गई नदी

लगा वर्ष के हिस्से आयी

पूरी एक सदी

 

यहाँ कीमियागर सपनों का

स्वयं खोजने को

मॉलों बाजारों से हटकर

सुन्दर लगा सुआ

 

कुंठा, घुटन, तनाव, प्रदूषण,

कचरा नहीं मिला

गाँव, प्राकृतिक कुशल प्रबंधन

का मजबूत किला

 

औद्योगिको तनिक तो मानवता

की खातिर तुम

”सुखी रहें सब” हाथ उठा कर

ऐसी करो दुआ

 

© राघवेन्द्र तिवारी

21-04-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – व्यंग्य का सौदागर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – व्यंग्य का सौदागर  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

बहुत पहले आपने कहीं कहा था कि ” मैं व्यंग्य का सौदागर हूं”  यह बात आपने किस संदर्भ में एवं किस आशय से कही थी ?
हरिशंकर परसाई-
यह निर्विवाद था, मैंने सरकारी नौकरी छोड़ी और पूरी तरह से अपना समय लेखन को दिया और स्वतंत्र लेखक हो गया।मेरी जीविका लेखन से चलती थी, मैं लिखता रहा हूं व्यंग्य।तब तो और भी लिखता था इसलिए मैंने कहा कि व्यंग्य जो है मेरा रोज़गार है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
अनेक महत्वपूर्ण आलोचकों के मतानुसार व्यंग्य किसी भी भाषा, समाज या समय के श्रेष्ठ लेखन का अनिवार्य गुण है जबकि एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जिनका मानना है कि चूंकि व्यंग्य लेखन में जीवन की संपूर्णता में चित्रित करने की क्षमता नहीं होती अत: श्रेष्ठतम व्यंग्य लेखन भी महान साहित्य की श्रेणी में परिगणित नहीं हो सकता। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे ?
हरिशंकर परसाई –
सम्पूर्ण जीवन से क्या अर्थ है, सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तो किसी महाकाव्य या किसी एक उपन्यास तक में भी नहीं आ सकता है। कई उपन्यास हों तो शायद आ भी जावे या भी पूरा न आ पाये। जीवनी उपन्यास हो तो किसी एक व्यक्ति के जीवन, नायक के जीवन का सम्पूर्ण चित्र आ जाता है। मैंने जो व्यंग्य लिखे हैं सिलसिलेवार नहीं, खण्ड खण्ड लिखा है, निबंध, कहानी, लघु उपन्यास, कालम इत्यादि और इन सब में समाज का एक तरह से सर्वेक्षण हो गया है, एक पूरे समाज का सर्वेक्षण कर लेना भी मेरा ख्याल है कि उस समाज को एक टोटलिटी में संपूर्णता से व्यंग्य के द्वारा चित्रित करना ही है, जैसे रवीन्द्रनाथ ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा लेकिन उनकी फुटकर कविताओं में लगभग वह सभी आ गया जो किसी एक महाकाव्य में आता है, ऐसा मेरा ख्याल है और ऐसा ही मेरे लेखन में है। तो ये दावा तो नहीं कर सकता, दास्ताएवस्की कर सकते हैं न बालजाक कर सकते हैं कि उनकी रचना में संपूर्ण जीवन आ गया है पर बहुत अधिक अंशों तक आ गया है। ये हम मान लेते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में लिखने के लिए कोई उपन्यास दो-चार – छह नहीं लिखे। मैंने खण्ड – खण्ड में जीवन को जहां जैसा देखा, उसको वैसा चित्रित किया,उस पर वैसा व्यंग्य किया। अब कालम के द्वारा समसामयिक घटनाओं पर वैसा कर रहा हूं। इस प्रकार समाज का पूरा सर्वेक्षण मेरे लेखन में आ जाता है, लेकिन मैं ये दावा नहीं कर सकता हूं कि जीवन की सम्पूर्णता या सामाजिक जीवन की सम्पूर्णता मेरे लेखन में आ गई है, वो नहीं आई है, और इतना पर्याप्त नहीं है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 7 ☆ सजन रे झूठ ही बोलो” ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “सजन रे झूठ ही बोलो”।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 7 ☆

☆ सजन रे झूठ ही बोलो”

‘सजन रे झूठ मत बोलो…..वहाँ पैदल ही जाना है.’

अपन तो इससे असहमत हैं.

सजन झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ? सजन राजनीति में है. झूठ बोले बिना वहाँ उसका काम चल पाया है कभी. कुर्सी, पद, पोजीशन, पॉवर उसका एक मात्र ख़ुदा है और पैदल चलकर तो उस तक पहुँचा नहीं जा सकता ना. गीतकार ने बिना कुछ देखे ही लिख दिया – न हाथी है न घोड़ा है. श्रीमान ज़रा आकर देखिये तो, हाथी घोड़े अब उसकी रैलियों में निकलते हैं. पैदल तो वो तब था जब उसने राजनीति में अपना पहला कदम रखा था. उधार की बाईक पर झूठ का सहारा लेकर चढ़ा, फिर एम्बेसेडर, मारुती एट-हंड्रेड से बोलेरो और वातानुकूलित रेल से होता हुआ, चार्टर्ड प्लेन से वो तो अपने ख़ुदा तक कब का पहुँच चुका, और आप हैं कि गाना गाते ही रह गये. जो उसने 1966 में शैलेन्द्र के लिखे इस गीत पर भरोसा किया होता तो या तो गुलफाम की तरह मारा गया होता या अभी भी हीरामन की तरह कहीं बैलगाड़ी हांक रहा होता. इसीलिये वो गीतों, कविताओं, रचनाओं, बुद्धिजीवियों के झांसे में नहीं पड़ता. अलबत्ता, उन कलाकारों को जरूर साधकर रखता है जो उसके झूठ को भी सच बना कर गानों के एल्बम जारी कर सकें.

झूठ भी कितने मासूम!! रोजगार बढ़ायेगा. महंगाई कम करेगा. सबको बिजली, पानी, सड़क मिलेगी. सबके लिये सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य और लोक परिवहन. भ्रष्टाचार ढूंढे नहीं मिलेगा. मिनिमम गवर्नमेंट, मेक्सीमम गवर्नेंस की गारंटी. जितने मासूम झूठ हैं उससे ज्यादा मासूम उस पर भरोसा करने वाले. वो विकास का चाँद लाकर सजनिया के जूड़े में सजाने का वादा करता है. इन झूठों पर पैदल उसे नहीं जाना पड़ता, जो यकीन करते हैं – पैदल तो उनको जाना पड़ता है. वो जितनी नफ़ासत से झूठ बोलता है, ‘वी सपोर्ट अवर सजन’ उसके लिये उतना ही अधिक ट्रेंड करता है. गौर से देखिये श्रीमान, ‘सत्य के प्रयोग’ जैसी आत्मकथा के लेखक की समाधि पर, हाथों में श्रद्धा के पुष्प लेकर, वो परिक्रमा लगा रहा है. इस मासूमियत पर कौन ना मर जाये, या ख़ुदा !

सर्फ़ एक्सेल में दाग और राजनीति में झूठ अच्छे हैं. दोनों मुनाफ़ा दिलाते हैं. वो एक झूठा नारा सा गढ़ता है और करोड़ों सजनियाँ उसकी छाप का बटन दबा कर उसे उसके ख़ुदा तक पहुंचा देती हैं. वो मुफलिस सजनियों से सपोर्ट पाता है, रईसों की दौलत में इज़ाफा करने वाली पॉलिसी बनाता है. सजनियों को पता होता है कि वे छली जा रहीं हैं, मगर तब भी अभिभूत रहती हैं.  ‘सजनवा बैरी हो गये हमार’. अब बैरी हो गये हैं तो क्या सपोर्ट करना बंद दें ? कभी कभी कांस्टीट्यूएन्सी में वे गाती हुई निकल पड़ती हैं – साजन साजन पुकारूँ गलियों में. मगर क्या करें, सजन बेवफ़ा बिजी है भोपाल, जयपुर, लखनऊ, पटना या दिल्ली में. पाँच साल बाद ही आ सकेंगे. वहाँ भी वे अकेले नहीं हैं. उनके साथ झूठे खबरची हैं, झूठी ख़बरें हैं, झूठे वीडियो हैं, डॉक्टर्ड फोटो हैं, मनगढ़ंत कहानियाँ हैं, झूठ का एक पूरा सेल है, झूठे हलफ़नामे हैं, घुमावदार बयान हैं, झांसेदार आंकड़े हैं, झूठ की आकाशगंगा में विचरते बेहया सितारे हैं.

वैसे इतना आसान भी नहीं है झूठ बोल पाना. कलर चेंज करना पड़ता है, झूठ सफ़ेद कर लिया जाये तो गले उतारने में आसानी रहती है. ये ऐरे-खैरों के बस का काम नहीं है. प्रजातंत्र के मंदिर के फ्लोर पर मेज ठोक-ठोक के बोलना पड़ता है. ली हुई शपथ भूलनी पड़ती है तब जाकर हिम्मत जुटा पता है बेवफा सजन.

बहरहाल, अब कब वापस आ रहे हैं सजन ? बताया ना अभी, पांच साल बाद, कुछ नये नारे, लुभावने जुमले, मीठे झूठ, फ़रेबी वादों के साथ आपका वोट चुराने आयेंगे वे. डेमोक्रेसी इतनी आसाँ नहीं है श्रीमान, इक झूठ का दरिया है. जो जितने गहरे में डूबा वो उतना ही शीर्ष पर पहुंचा है. तो झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ?

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 12 ☆ मुस्कुराना ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मुस्कुराना”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 12 ☆ 

☆ मुस्कुराना  ☆

 

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना,

ना सोचना किसने दिल दुखाया, सबको माफ कर देना।

 

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना,

हर बाग में फूल और कांटे भी हैं, फूल चुन लेना।

 

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना,

रास्ते आड़े तिरछे और सीधे भी हैं, सीधे चुन लेना।

 

प्यार  में  तकरार में, प्यार को चुन लेना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना,

दोस्त अच्छे और बुरे भी हैं, हर सफर में अच्छे चुन लेना।

 

जब कालिमा और रोशनी राह में मिल जाएगी, रोशनी चुन लेना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

मैं रूठूँ, बात पे अड़ जाऊँ, तुम मना लेना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

मैं चुप हूँ और गम में डूब जाऊँ, तुम चुप्पी तोड़ देना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

बात छोटी हो और दिल पे लगा जाऊँ, तुम हाथ बढ़ा लेना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

जब दरार खाई बन जाये, तो तुम खाई भर देना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

ज़िंदगी यूँ ही कट जाएगी, जब मूँद लू आँखें तो यादों में समेत लेना,

जरा सा मुस्कुरा देना, हर गम को भुला देना।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 4 ☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन..☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण कविता “माझ्या आईचे गुणवर्णन.. ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 4 ☆ 

☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन.. ☆

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मी कसे ते करावे

शब्दात कसे तोलावे.. ०१

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

शब्दातीत आहे आई

बहुगुणी प्रेमळ माई..०२

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

असह्य वेदना तिला झाल्या

न मी पहिल्या, न अनुभवल्या..०३

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

आई प्रेमाचा निर्झर

आई सौख्याचा सागर..०४

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

कोणते कोणते दाखले द्यावे

ऋणातून कैसे मुक्त व्हावे..०५

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

पवित्र तुळस अंगणातली

मंदिरात समई तेवली..०६

 

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मजला न करवे आता

देवा नंतर, तीच खरी माता ..०७

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 54 ☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक बेहतरीन व्यंग्य  ‘हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट’। यह  व्यंग्य विनम्रतापूर्वक  उन सब की  ओर से है जो दर्शनीय स्थल वाले शहरों में रहते हैं। अब इसे लिख दिया तो लिख दिया – ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आये। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 54 ☆

☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆

शुरू शुरू में भेड़ाघाट देखा तो तबियत बाग-बाग हो गयी। बड़ा रमणीक स्थान लगा। दो चार बार और देखा। फिर हुआ यह कि हमारी शादी हो गयी और हम जबलपुर में सद्गृहस्थ के रूप में स्थापित हो गये। फिर जबलपुर के बाहर से हमारे परिचित भेड़ाघाट देखने आने लगे और हमारे पास रुकने लगे। तब हमें महसूस हुआ कि वस्तुतः भेड़ाघाट उतना सुन्दर नहीं है जितना हम समझते थे। भेड़ाघाट के दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका सौन्दर्य हमारी नज़र में निरन्तर गिरता रहा है। और अब तो यह हाल है कि कभी भेड़ाघाट जाते हैं तो ताज्जुब होता है कि इस ऊबड़खाबड़ जगह में लोगों को भला क्या सौन्दर्य नज़र आता है। मेरे खयाल से यह अनुभूति उन सभी लोगों को होती होगी जो दर्शनीय स्थानों में रहते हैं।

घर में जब कोई अतिथि आते हैं तो नाश्ते के बाद वे मुँह पोंछकर पूछते हैं, ‘हाँ भाई, जबलपुर में कौन कौन सी दर्शनीय जगहें हैं?’और मेरा कलेजा नीचे को सरक जाता है। यह भेड़ाघाट इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि अगर मैं दाँत निकालकर कहूँ, ‘अरे भाई, जबलपुर में दर्शनीय स्थल कहाँ?’ तो पक्का लबाड़िया साबित हो जाऊँगा।

और फिर मुहल्ले के कुछ महानुभाव मेरी  चलने भी कहाँ देते हैं। मुहल्ले के दुबे जी, पांडे जी या चौबे जी मेरे अतिथि को सड़क पर रोक कर परिचय प्राप्त करते हैं। फिर कहते हैं, ‘यहाँ तक आये हैं तो भेड़ाघाट ज़रूर देखिएगा, नहीं तो घर जाकर क्या बतलाइएगा?’ मेरा मन होता है कि पांडे जी से कहूँ कि महाराज,वे घर जाकर जो कुछ भी बतायें, लेकिन मैं उनके जाने के बाद आपको ज़रूर कुछ बताऊँगा। और मैंने कई बार ऐसे उत्साही लोगों की खबर भी ली है, लेकिन सवाल यह है कि संसार में किस किस मुँह पर ढक्कन लगाऊँ?

मैं कई लोगों को भेड़ाघाट के प्रभाव के विरुद्ध संघर्ष करते और हारते देखता हूँ। एक मित्र के घर पहुँचता हूँ तो वहाँ अतिथि देवता विराजमान हैं। स्वल्पाहार के बाद वे मित्र से पूछते हैं, ‘हाँ,तो आज दिन का क्या प्रोग्राम है?’ मित्र महोदय दाँत भींचकर उत्तर देते हैं, ‘आज तो भोजन के बाद छः घंटे निद्रा ली जाए। ‘ अतिथि देव सिर हिलाकर हँसते हैं, कहते हैं, ‘उड़ो मत। मैं भेड़ाघाट देखे बिना नहीं मानूँगा। ‘ मित्र भी हँसता है, लेकिन उसकी हँसी देखकर मुझे रोना आता है।

भेड़ाघाट ने जबलपुर वालों की खटिया वैसे ही खड़ी कर रखी है जैसे ताजमहल ने आगरा वालों की खाट खड़ी कर रखी है। नगर निगम वालों ने हमारी मुसीबत लंबी करने के लिए भेड़ाघाट में नौका-विहार की व्यवस्था कर दी है। उस दिन राय साहब रोने लगे। बोले, ‘भैया, कल मेहमानों को भेड़ाघाट ले गया था। डेढ़ हजार रुपया समझो नर्मदा जी में डूब गया। अब खजुराहो देखने की जिद कर रहे हैं। बहकाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन सफलता की आशा कम है। ‘ उन्होंने ऐसी निश्वास छोड़ी कि मेरी कमीज़ थरथरा गयी।

अब पछताता हूँ कि कहाँ दर्शनीय स्थल वाली नगरी में फँस गया। मैं तो भारत सरकार से गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि भेड़ाघाट को कहीं दिल्ली के पास स्थानांतरित कर दिया जाए ताकि जबलपुर वालों का यह ‘तीरे नीमकश’ निकल जाए  और शहर को राहत का अहसास हो। हम सरकार बहादुर के बेहद मशकूर होंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #51 ☆ लॉकडाउन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # लॉकडाउन ☆

ढाई महीने हो गए। लॉकडाउन चल रहा है। घर से बाहर ही नहीं निकले। किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए नहीं। न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।. ..पचास साल की ज़िंदगी बीत गई।  कभी इस तरह का वक्त नहीं भोगा। यह भी कोई जीवन है? लगता है जैसे पागल हो जाऊँगा।

बात तो सही कह रहे हो तुम।…सुनो, एक बात बताना। घर में कोई बुज़ुर्ग है? याद करो, कितने महीने या साल हो गए उन्हें घर से बाहर निकले? किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए? न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।…. उन्हें भी लगता होगा कि  यह भी कोई जीवन है? उन्हें भी लगता होगा जैसे पागल ही हो जाएँगे।

…लेकिन उनकी उम्र हो गई है। जाने की बेला है।… तुम्हें कैसे पता कि उनके जाने की बेला है। हो सकता है कि उनके पास पाँच साल बचे हों और तुम्हारे पास केवल दो साल।…बड़ी उम्र में शारीरिक गतिविधियों की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं पर इनके चलते मृत्यु से पहले कोई जीना छोड़ दे क्या?

वे अनंत समय से लॉकडाउन में हैं। उन्हें ले जाओ बाहर, जीने दो उन्हें।…सुनो, यह चैरिटी नहीं है, तुम्हारा प्राकृतिक कर्तव्य है। उनके प्रति दृष्टिकोण बदलो। उनके लिए न सही, अपने स्वार्थ के लिए बदलो।

जीवनचक्र हरेक को धूप, छाँव, बारिश सब दिखाता है। स्मरण रहे, घात लगाकर बैठा जीवन का यह लॉकडाउन धीरे-धीरे  तुम्हारी ओर भी बढ़ रहा है।

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 4:35 बजे, 6.6.2020

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 10 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 10/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 10 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

दिल ना चाहे फिर भी यारो 

मिलते जुलते रहा करो…

करो शिकायत गुस्से में ही

कुछ ना कुछ तो कहा करो…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 Heart may not desire still 

Friends keep on meeting

Complain even in anger only

But at least say something…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 खामोशियां बोल देती है

ज़िनकी बातें नहीं होती..

दोस्ती उनकी भी क़ायम है

ज़िनकी मुलाक़ातें नहीं होती…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 Silence converses with them 

who don’t talk to each other…

Friendship flourishes of those too,  

Who don’t even get to meet…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 बेदाग़ रख महफूज़ रख

मैली न कर तू ज़िन्दगी…

मिलती नहीं इँसान को…

किरदार की चादर नईं…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 Keep it spotless, keep it secure

Your life don’t you ever stain

For man does not receive again

A fresh mask for his character

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

क्या कहना उनका जो हवाओं में 

सलीक़े से  ख़ुशबू घोल देते हैं 

फ़िज़ाएँ मुश्कबार हो जाती हैं   

फ़क़त जिनके खयाल से…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 12 ☆ मुहावरेदार दोहे☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके मुहावरेदार दोहे. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 12 ☆ 

☆ मुहावरेदार दोहे☆ 

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पाँव जमकर बढ़ ‘सलिल’, तभी रहेगी खैर

पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर

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बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव

बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव

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पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग

पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव

सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव

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जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर

धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सम्हल न पैरों-तले से, खिसके ‘सलिल’ जमीन

तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन

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टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम

टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम

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टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग

एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग

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बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल

लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल

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चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?

पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान

चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?

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©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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