हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ दान : दर्शन और प्रदर्शन (कोरोनावायरस और हम – 7) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – दान : दर्शन और प्रदर्शन  ☆

(कोरोनावायरस और हम, भाग-7)

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से भारत प्रशासनिक स्तर पर अभूतपूर्व रूप से जूझ रहा है। प्रशासन के साथ-साथ आम आदमी भी अपने स्तर पर अपना योगदान देने का प्रयास कर रहा है। योगदान शब्द के अंतिम दो वर्णो पर विचार करें। ‘दान’अर्थात देने का भाव।

भारतीय संस्कृति में दान का संस्कार आरंभ से रहा है। महर्षि दधीचि, राजा शिवि जैसे दान देने की अनन्य परंपरा के असंख्य वाहक हुए हैं।

हिंदू शास्त्रों ने दान के तीन प्रकार बताये हैं, सात्विक, राजसी और तामसी। इन्हें क्रमशः श्रेष्ठ, मध्यम और अधम भी कहा जाता है। केवल दिखावे या प्रदर्शन मात्र के लिए किया गया दान तामसी होता है। विनिमय की इच्छा से अर्थात बदले में कुछ प्राप्त करने की तृष्णा से किया गया दान राजसी कहलाता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान सात्विक होता है। सात्विक में आदान-प्रदान नहीं होता, किसी भी वस्तु या भाव के बदले में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।

हमारे पूर्वज कहते थे कि दान देना हो तो इतना गुप्त रखो कि एक हाथ का दिया, दूसरे हाथ को भी मालूम ना चले। आज स्थितियाँ इससे ठीक विपरीत हैं। हम करते हैं तिल भर, दिखाना चाहते हैं ताड़ जैसा।

सनातन दर्शन ने कहा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अर्थात स्वयं में अंतर्निहित ब्रह्म को देखो ताकि सूक्ष्म में विराजमान विराट के समक्ष स्थूल की नगण्यता का भान रहे। स्थूल ने स्वार्थ और अहंकार को साथ लिया और ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ को सर्वोच्च घोषित करने की कुचेष्टा करने लगा। ‘सेल्फ’ तक सीमित रहने का स्वार्थ ‘सेल्फी कल्चर’ तक पहुँचा और मनुष्य पूरी तरह ‘सेल्फिश’ होता गया।

लॉकडाउन के समय में प्राय: पढ़ने, सुनने और देखने में आ रहा है कि किसी असहाय को भोजन का पैकेट देते समय भी सेल्फी लेने के अहंकार, प्रदर्शन और पाखंड से व्यक्ति मुक्त  नहीं हो पाता। दानवीरों (!) की ऐसी तस्वीरों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक कथन पढ़ने को मिला,..”अपनी गरीबी के चलते मैं तो आपसे खाने का पैकेट लेने को विवश हूँ  लेकिन आप किस कारण मेरे साथ फोटो खिंचवाने को विवश हैं?”

प्रदर्शन की इस मारक विवशता की तुलना रहीम के दर्शन की अनुकरणीय विवशता से कीजिए। अब्दुलरहीम,अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे परम दानी थे। कहा जाता है कि दान देते समय वे अपनी आँखें सदैव नीची रखते थे। इस कारण अनेक लोग दो या तीन या उससे अधिक बार भी दान ले जाते थे। किसी ने रहीम जी के संज्ञान में इस बात को रखा और आँखें नीचे रखने का कारण भी पूछा। रहीम जी ने उत्तर दिया, “देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”

विनय से झुके नैनों की जगह अब प्रदर्शन और अहंकार से उठी आँखों ने ले ली है। ये आँखें  वितृष्णा उत्पन्न करती हैं। इनकी दृष्टि दान का वास्तविक अर्थ समझने की क्षमता ही नहीं रखतीं।

दान का अर्थ केवल वित्त का दान नहीं होता। जिसके पास जो हो, वह दे सकता है। दान ज्ञान का, दान सेवा का, दान संपदा का, दान रोटी का, दान धन का, दान परामर्श का, दान मार्गदर्शन का।

दान, मनुष्य जाति का दर्शन है, प्रदर्शन नहीं। मनुष्य को लौटना होगा दान के मूल भाव और सहयोग के स्वभाव पर। वापसी की इस यात्रा में उसे प्रकृति को अपना गुरु बनाना चाहिए।

प्रकृति अपना सब कुछ लुटा रही है, नि:स्वार्थ दान कर रही है। मनुष्य देह प्रकृति के पंचतत्वों से बनी है। यदि प्रकृति ने इन पंचतत्वों का दान नहीं किया होता तो तुम प्रकृति का घटक कैसे बनते?

और वैसे भी है क्या तुम्हारे पास देने जैसा? जो उससे मिला, उसको अर्पित। था भी उसका, है भी उसका। तुम दानदाता कैसे हुए? सत्य तो यह है कि तुम दान के निमित्त हो।

नीति कहती है, जब आपदा हो तो अपना सर्वस्व अर्पित करो। कलयुग में सर्वस्व नहीं, यथाशक्ति तो अर्पित करो। देने के अपने कर्तव्य की पूर्ति करो। कर्तव्य की पूर्ति करना ही धर्म है।

स्मरण रहे, संसार में तुम्हारा जन्म धर्मार्थ हुआ है।… और यह भी स्मरण रहे कि ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’

*’पीएम केअर्स’ में यथाशक्ति दान करें। कोविड-19 से संघर्ष में सहायक बनें।*

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.09 बजे, 11.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 45 ☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है लघुकथा  ‘आचार्य का हृदय-परिवर्तन ’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है जैसे हम भी पूरे कथानक में  कहीं न कहीं मूक दर्शक बने खड़े हैं। ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 45 ☆

☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆

 

हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान, भाषा-शास्त्र में डी.लिट.,आचार्य रसेन्द्र झा मेरे शहर में एक शोध-छात्र का ‘वायवा’ लेने पधारे थे। पता चला कि वे मेरे गुरू डा. प्रसाद के घर रुके थे जो उस छात्र के ‘गाइड’ थे। उनकी विद्वत्ता की चर्चा से अभिभूत मैं उनके दर्शनार्थ सबेरे सबेरे डा. प्रसाद के घर पहुँचा। देखा तो आचार्य जी गुरूजी के साथ बैठक में नाश्ता कर रहे थे।

मैं आचार्य जी और गुरूजी को प्रणाम करके बैठ गया। गुरूजी ने आचार्य जी को मेरा परिचय दिया।कहा, ‘यह मेरा शिष्य है। बहुत कुशाग्र है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।’

आचार्य जी ने उदासीनता से सिर हिलाया, कहा, ‘अच्छा, अच्छा।’

मैंने कहा, ‘आचार्य जी, आपकी विद्वत्ता की चर्चा बहुत सुनी थी। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, इसी लिए चला आया।’

आचार्य जी ने जमुहाई ली,फिर कहा, ‘ठीक है।’

इसके बाद वे डा. प्रसाद की तरफ मुड़कर अपने दिन के कार्यक्रम की चर्चा करने लगे। मेरी उपस्थिति की तरफ से वे जैसे बिलकुल उदासीन हो गये। मुझे बैठे बैठे संकोच का अनुभव होने लगा।

बात चलते चलते उनके यूनिवर्सिटी के टी.ए.बिल पर आ गयी।

डा. प्रसाद ने मेरी तरफ उँगली उठा दी। कहा, ‘यह सब काम देवेन्द्र करेगा। यह टी.ए.बिल निकलवाने से लेकर सभी कामों में निष्णात है। आप देखिएगा कि आपका भुगतान कराने से लेकर आपको ट्रेन में बैठाने तक का काम किस कुशलता से करता है।’

आचार्य जी का मुख मेरी तरफ घूम गया। अब उनके चेहरे पर मेरे लिए असीम प्रेम का भाव था। उदासीनता और अजनबीपन के सारे पर्दे एक क्षण में गिर गये थे और वे बड़ी आत्मीयता से मेरी तरफ देख रहे थे।

उन्होंने अपनी दाहिनी भुजा मेरी ओर उठायी और प्रेमसिक्त स्वर में कहा, ‘अरे वाह! इतनी दूर क्यों बैठे हो बेटे? इधर आकर मेरी बगल में बैठो।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 29 – दाना – पानी ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘दाना – पानी। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29 – विशाखा की नज़र से

☆ दाना – पानी ☆

नित रखती हूँ परिंदों के लिए दाना – पानी

वो करते हैं मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं रखती हूँ दाना

 

निकलती हूँ घर से , जुटाने दाना – पानी

दिखतें है कई बाजनुमा शिकारी

वो भी रखतें है मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं बन जाती हूँ दाना और

लोलुप जीभ का पानी

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 2 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

 ☆ Anonymous Litterateur of Social  Media # 2/ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 2☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

ज़रा सी कैद से ही

घुटन होने  लगी…

तुम तो पंछी पालने

के  बड़े  शौक़ीन थे…

 

Just a little bit of confinement

Made you feel so suffocated

 But keeping the birds caged

 You were so very fond of…!

§

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….

 

 Silent lips are the sentinels

 Of  the  unfulfilled fairytale…

 Wound is of the spirited soul

 So the pain is rather intense….

§

हंसते हुए चेहरों को गमों से

आजाद ना समझो साहिब

मुस्कुराहट की पनाहों में भी

हजारों  दर्द  छुपे होते  हैं…

 

O’ Dear, Don’t even consider that

Laughing faces are free of sorrow

Innumerable  pains are  hidden

Even behind the walls of a smile…

§

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफर में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस  गुमराह  हो  गए…

 

  Was walking peacefully

  In  the  journey of the life

  Just casting a glance on you

  Made my journey go astray…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ” दोहा सलिला”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ 

☆  दोहा सलिला ☆ 

(व्यंजनाप्रधान)

केवल माया जाल है, जग जीवन जंजाल

घर तज बाहर घूमिए, मुक्ति मिले तत्काल

 

अगर कुशल से बैर है, नहीं चाहिए क्षेम

कोरोना से गले मिल, बनिए फोटो फ्रेम

 

मरघट में घट बन टँगें, तुरत अगर है चाह

जाएँ आप विदेश झट, स्वजन भरेंगे आह

 

कफ़न दफ़न की आरज़ू, पूरी करे तुरंत

कोविद दीनदयाल है, करता जीवन अंत

 

ओवरटाइम कर चुके, थक सारे यमदूत

मिले नहीं अवकाश है, बाकी काम अकूत

 

बाहर जा घर आइए, सबका जीवन अंत

साथ-साथ हो सकेगा, कहता कोविद कंत

 

यायावर बन घूमिए, भला करेंगे राम

राम-धाम पाएँ तुरत, तजकर यह भूधाम

 

स्वागत है व्ही आइ पी, सबसे पहले भेंट

कोरोना से कीजिए, रीते जीवन टेंट

 

जिनको प्रभु पर भरोसा, वे परखें तत्काल

कोरोना खुशहाल को, कर देगा बदहाल

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 6 ☆ लक्ष्मणरेषा ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक एवं शिक्षाप्रद कविता “लक्ष्मणरेषा“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 6 ☆

☆ कविता – लक्ष्मणरेषा

लक्ष्मणाने आखलेली लक्ष्मणरेषा

नाही पाळली सीतेने, म्हणून तिला

पळवून नेली रावणाने

अडविले प्रयत्नपुर्वक जटायुने

विलगीकरणात बसविले

लंकेच्या अशोक वाटिकेने

शोधुन काढले हनुमानाने

सेतू पार केला सुग्रीवसेनेने

रावणाला मारून सोडविले रामलक्ष्मणाने

खरं सांगा, नकोच पार करायला होती नं,

लक्ष्मणरेषा सीतेने……..

 

ललकारले त्वेषात सुग्रीवाने

रोखले गुहेतच पत्नी ताराने

न ऐकता वाली बाहेर आला

अतिशय रागारागाने

शक्तीमान असुनही

विनाकारण मारल्या गेला

केवळ बाहेर आल्याने

खरं सांगा,नकोच बाहेर यायला

पाहिजे होते नं

वाली राजाने………

 

लंकेत सुखी होता रावण

त्याला उचकविले शुर्पनखेने

समज दिली बिभिषनाने

परोपरीने समजाविले मंदोदरीने

नका लंकेबाहेर जाऊ राजन

सीता प्रलोभणाने

पण कुणाचेही न ऐकता

रावण लंकेबाहेर गेला हेक्याने

शेवटी,युद्धात मारला गेला

बंधू पुत्रासह अती गर्वाने

खरं सांगा, नकोच बाहेर जायला पाहिजे होते नं

सीताहरणासाठी रावणाने……….

 

म्हणून सांगतो महिला पुरूषांनो

घरातच राहिले पाहिजे सुखाने

घराची लक्ष्मणरेषा ओलांडून

बाहेर जाऊ नका हेक्याने

नाहीतर कोरोनामुळे विनाकारण बळी जाल धोक्याने..,………

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पथराई आंखों का सपना भाग -1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“ आदरणीय पाठक गण अभी तक आप सभी ने मेरी लघु उपन्यासिका “पगली माई दमयन्ती” को पूरे मनोयोग से पढा़ और उत्साहवर्धन किया। आपकी मिलने वाली फोनकाल प्रतिक्रिया तथा वाट्सएप, फेसबुक के लाइक/कमेंट से  शेयरों की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने लेखन के क्षेत्र में जो उर्जा प्रदान की है, उसके लिए हम आप सभी का कोटिश: अभिनंदन करते हुएआभार ब्यक्त करते हैं। इस प्रतिक्रिया ने ही मुझे लेखन के लिए बाध्य किया है।  उम्मीद है इसी प्रकार मेरी रचना को सम्मान देते हुए प्रतिक्रिया का क्रम बनाए रखेंगें।  प्रतिक्रिया सकारात्मक हो या आलोचनात्मक वह हमें लेखन के क्षेत्र में प्रेरणा तथा नये दृष्टिकोण का संबल प्रदान करती है।

इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक ब्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपने प्रत्येक चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

पूर्वी भारत का एक ग्रामीण अंचल।  उस अंचल का एक गांव जो विकास की किरणों से अब भी कोसों दूर है। जहाँ आज भी न तो आवागमन के अच्छे साधन है न तो अच्छी सड़कें, और न तो विकसित समाज के जीवन यापन की मूलभूत सुविधाएं।  लेकिन फिर भी वहां के ग्रामीण आज भी प्राकृतिक पर्यावरण, अपनी लोक संस्कृति लोक परंपराओं को सहेजे एवम् संजोये हुए हैं। भौतिक संसाधनों का पूर्ण अभाव होते हुए भी उनकी आत्मसंतुष्टि से ओतप्रोत जीवन शैली, जीवन के सुखद होने का एहसास कराती है।

उस समाज में आज भी संयुक्त परिवार का पूरा महत्व है, जिसमें चाचा चाची दादा ताऊ बड़े भइया भाभी के रिश्ते एक दूसरे के प्रति प्रेम, दया, करूणा का भाव समेटे भारतीय संस्कृति के ताने बाने की रक्षा तो करती ही है, पारिवारिक सामाजिक ढ़ांचे को मजबूती भी प्रदान करती हुई, ग्रामीण पृष्ठभूमि की रक्षा का दायित्व भी निभाती है।

ऐसे ही एक संयुक्त परिवार में मंगली का जन्म हुआ था।  मंगलवार के दिन जन्म होने से बड़ी बहू ने प्यार से उसका नाम मंगरी  (मंगली)  रखा था। परिवार में कोई उसे गुड़िया, कोई लाडो कह के बुलाता था।

वह सचमुच गुड़िया जैसी ही प्यारी थी, उसका भी भरापूरा परिवार था जो उसके जन्म के साथ ही बिखरता चला गया। मां उसे जन्म देते ही असमय काल के  गाल में समा गई। पिता सामाजिक जीवन से बैराग ले संन्यासी बन गया।  उसकी माँ असमय मरते मरते तमाम हसरतें लिए ही इस नश्वर संसार से विदा हुई। जाते जाते उसने अपनी नवजात बच्ची को बडी़ बहू के हाथों में सौपते हुये कहा था – “आज से इसकी माँ बाप तुम्ही हो दीदी। इसे संभालना”।

उस नवजात गुड़िया को सौंपते हुये उसके हांथ और होंठ कांप रहे थे।  उसकी आंखें छलछला उठी थी।  उसके चेहरे की भाव भंगिमा देख उसके हृदय में उठते तूफानों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे, फिर भी क्षीण आवाज कांपते ओठों एवम् अस्फुट स्वरों में उसने बडी़ बहू से अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी और हिचकियों के बीच उसकी आंखें मुदती चली गई थी। वह तो इस नश्वर संसार से चली गई लेकिन अपने पीछे छोड़ गई करूणक्रंदन करता परिवार जो बिछोह के गम तथा पीडा़ में डूबा हुआ था।

धार्मिक कर्मकाण्ड के बीच उसके मां की अर्थी को कंधा तथा चिता को मुखाग्नि मंगरी के पिता ने ही दे जीवन साथी होने का फर्ज पूरा किया था तथा उसे सुहागिन बिदा कर अपने पति होने का रस्म पूरा किया।

धीरे धीरे बीतते समय के साथ उसके पिता के हृदय की वेदनायें बढ़ती जा रही थी।  वह प्राय: गुमसुम रहने लगा था।  परिवार तथा रिश्ते वालों ने उसे दूसरी शादी का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उसने मंगरी के जीवन का हवाला दे शादी से इंकार कर दिया था।  वह फिर से घर गृहस्थी के जंजाल में नहीं फंसना चाहता था।  वह पलायन वादी होगया था।

इन परिस्थितियों में बड़ी बहू ने धैर्य का परिचय देते हुए सचमुच ही मंगरी के माँ बाप दोनों के होने का फर्ज निभाया, और मंगरी को अपनी ममता के दामन में समेट लिया और पाल पोस बड़ा किया। यद्यपि उस जमाने में स्कूली शिक्षा पर बहुत जोर नहीं था, फिर भी उसे बडी़ बहू ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई थी। बड़ी ही स्वाभिमानी तथा जहीन लड़की थी मंगरी। बड़ी बहू ने अपनी ममता के साये में पालते हुए अपनी गोद में सुला गीता रामायण तथा भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों की घुट्टी घोंट घोंट पिलाई थी।

अब बीतते समय के साथ मंगरी बड़ी बहू को ताई जी के, संबोधन से संबोधित  करने लगी थी।  बड़ी बहू ने भी उसे कभी मां की कमी खलने नहीं दी थी। मंगरी सोते समय बड़ी बहू के हांथ पांव दबाती, सिर में तेल मालिश करती तो बड़ी बहू उसे दिल से दुआयें देती और वह बड़ी बहू के गले में गलबहियां डाले  लिपट कर सो  जाती।

इस प्रकार मंगरी बड़ी बहू के ममता एवम् प्यार के साये में पल बढ़ कर जवान हुई थी। बड़ी बहू ने अच्छा खासा संपन्न परिवार देख  उसकी शादी भी कर दी थी।  मंगरी के बिवाह में बड़ी बहू ने अपनी औकात से बढ़कर खर्चा किया था। अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करते हुए बिदाई की बेला में फूट फूट कर रोई थी।

उसके कानों में बार बार  मंगरी के मां के कहे शब्द गूंज रहे थे और उसकी मां का चेहरा उसके स्मृति पटल पर उभर रहा था। लेकिन तब तक किसी को भी यह पता नही था कि मंगरी जिस परिवार में जा रही है, वो  साक्षात् नर पिशाच है। उम्मीद से ज्यादा पाने पर भी उनकी इच्छा अभी पूरी नहीं हुईं हैं। और ज्यादा पाने  कि चाह उन नरपिशाचों की आंख में उभरती चली गई।

मँगरी जब ससुराल पंहुची तो अपनी प्रकृति के विपरीत लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई।  इस, कारण सालों साल तक उपेक्षित व्यवहार तथा तानों के बीच उसने अपनी सेवा तथा तथा मृदुल व्यवहार से उनका दिल जीतने का पूरा प्रयास किया था। लेकिन वह सफल न हो सकी अपने उद्देश्य में क्योंकि ससुराल वाले लोगों की मंशा तो कुछ और थी उनके इरादे नेक नहीं थे।

ससुराल में पारिवारिक कलह मनमुटाव कुछ इस तरह बढा कि ससुराली एक दिन गर्भावस्था में ही मायके की सीमा में उसे छोड़ चलते बनें। उस दिन उसके सारे सपने टूट कर बिखर गये।  विवश मंगरी न चाहते हुये भी रोती बिलखती मायके में अपने घर के दरवाजे पर पहुंची। उसे देखते ही बड़ी बहू नें दौड़ कर गले लगा  ममता के आंचल में  समेट लिया था और मंगरी जोर जोर से दहाड़े मार कर रो पड़ी थी।

इसके साथ ही बड़ी बहू की  अनुभवी निगाहों ने सब कुछ समझ लिया था। उन्हें इस  बात का बखूबी एहसास हो गया था कि आज एक बार फिर पुरुष प्रधान समाज नें किसी दूसरी सीता को जीवन की जलती  रेत पर अकेली तड़पनें के लिए छोड़ दिया हो। उसके बाद बड़ी बहू नें रिश्तेदारों परिवार तथा समाज के वरिष्ठ जनों को साथ ले सुलह समझौते का अंतिम प्रयास किया, लेकिन बात बनी नहीं बिगडती ही गई।  सारे प्रयास असफल साबित हुए दवा ज्यों ज्यों की मर्ज बढ़ता गया।  सुलह समझौते का कोई प्रयास काम नहीं आया तो थक हार कर बड़ी बहू नें  न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी और इसी के साथ शुरू हो गया न्यायालय में दांव पेंच की लड़ाई के साथ तारीखों का अंतहीन सिलसिला जो बड़ी बहू के जीवन में खत्म नही हुआ और मंगरी के न्याय की आस मन में लिए ही एक दिन भगवान को प्यारी हो गई।

मंगरी अकेली रह गई जमाने से संघर्ष करने के लिए, उसके हौसलों में फिर भी कोई कमी नहीं आई।

बड़ी बहू की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया था। बड़ी बहू नहीं रही। मंगरी अकेली हो गई।  ससुराल से मायके छोडे़ जाने के बाद उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, सिर से ममता की छाया उठने के बाद उसने अपने तथा बच्चे के भविष्य के लिए बड़ी बहू द्वारा शुरू की गई न्यायिक लड़ाई को उसके आखिरी मुकाम तक पंहुचाने का निर्णय ले लिया था मंगरी ने और उन नर पिशाचों से अपना हक पाने पर आमादा हो गई थी।

न्याय पाने के लिए हर कुर्बानी देना स्वीकार किया था उसने।  वह तारीख़ दर तारीख बच्चे को गोद उठाये सड़कों की धूल फांकती रही। न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर पे चक्कर लगाती गई लेकिन न्याय से भेंट होना उतना ही छलावा निकला जितना अपनी परछाई पकड़ना।

कभी हड़ताल, तो कभी न्यायाधीश का अवकाश लेना, कभी वादी प्रति वादी अधिवक्ताओं का तारीख लेना।  इन्ही दाव पेंचो के बीच फंसी मंगरी की जिन्दगी उस कटी फटी पतंग की तरह झूल रही थी, जो झुरमुटों में फंसी फड़फड़ा तो सकती थी, लेकिन उन्मुक्त हो नीलगगन में उड़ नहीं सकती।

कुछ भी करना बस में नहीं, हताशा और निराशा के क्षणों में डूबती उतराती मंगरी का उन बिपरीत परिस्थितियों से उबरने का संघर्ष जारी था। बड़ी बहू की मृत्यु के बाद एकाकी जीवन के पीड़ा दायक जीवन जीने को विवश थी।  आमदनी का कोई जरिया नहीं घर में गरीबी के डेरे के बीच मंगरी उतना ही कमाई कर पाती जितनें में माँ बेटों के दोनों जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता।

वह पैतृक जमीन तथा बटाई की जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत करती, लेकिन उसकी फसल कभी सूखा, तो कभी बाढ़ की भेंट चढ़ जाती।  उपर से रखवाली न होने से ऩंदी परिवार  तथा नील गायों का आतंक अलग।  इस प्रकार खेती किसानी मंगरी के लिए घाटे का सौदा साबित होती रही।  महाजनों का कर्जा मूल के साथ सूद समेत सुरसा के मुंह की तरह बढता जा रहा था। मंगरी की सारी पैतृक संपदा लील गया था और उसकी संपत्ति सूदखोरों के चंगुल मे फसती चली गई।

अब उसके पास सहारे के रुप में टूटा फूटा घर तथा सिर ढकने को मात्र आंचल का पल्लू ही बचा था, जिसमें वह कभी दुख के पलों में अपना मुंह छुपा रो लेती और अपना गम थोड़ा हल्का कर लेती।  उसका शिशु अब शैशवावस्था से निकल किशोरावस्था में कदम रखने वाला था।  उसकी आंखों में बच्चे को पालपोस पढा लिखा एक अच्छा वकील बनाने का सपना मचल रहा था।

वह रात दिन इसी उधेड़ बुन में रहती थी कि जिस अन्याय की आग में वह तिल तिल कर रोज जली है और लोग न जलने पाये उसका बेटा उन हजारों दीन दुखियों को न्याय दिला सके जो सताये हुए लोग है।

इसी बीच न्यायालय से मंगरी को चार हजार मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित हुआ था, उस दिन मंगरी बड़ी खुश थी।  उसे लगा कि अब उसे न्याय मिल जायेगा उसका बेटे को पढाने लिखाने का सपना साकार हो जायेगा।  उसके जीवन की राहें आसान हो जायगी।

यह सोच उसका न्यायिक ब्यवस्था पर भरोसा दृढ हो गया था। पर हाय रे किस्मत! यथार्थ के धरातल पर उसका सपना सपना ही रहा।  न्यायिक आदेश भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र की भेंट चढ़ फाईलों में दब महत्व हीन हो रह गया।  न्यायिक आदेश तो सिर्फ जायज हक पर मोहर ठोकता है और फिर उसे भूल जाता है, क्योंकि न्यायिक आदेश के अनुपालन कराने के लिए जिस पैसे और पैरवी की जरूरत होती है वे दोनों ही मंगरी के पास नहीं थे,  जिसके चलते आदेश की प्रति फाइलों के अंबार में दबी दम तोड़ गई और उसे न्याय न दिला सकी, गुजारे की राशि मंगरी न पा सकी।

मंगरी चकरघिन्नी बन कभी वकील की चौकी, कभी न्यायालय परिसर, कभी भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र के आगे हाथ जोड़कर रोती गिड़गिड़ाती दिखाई देती।  कभी कोई उसके जवान जिस्म को खा जाने वाले अंदाज में घूरता नजर आता तो वह सहम नजरें झुका कर खुद में सिमटते नजर आती।  उसे समझ नहीं आता कि आखिर वह करे भी तो क्या करे,?

क्रमश: पथराई आंखों का सपना भाग-2

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 32 ☆ अब के पतझड़ में ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “अब के पतझड़ में ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 32 ☆

☆ अब के पतझड़ में ☆

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

शाख से या घर से?

डर से या दर्द से !!

दर से दरबदर होगा

या दर्द से बेदर्द होगा?

बेदर्द इलाज लाएगा

या खुद लाइलाज

बन जाएगा।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

ज़मीं से मिलेगा?

या ज़मीं ही बन जाएगा!!

दरख्त से बिछड़कर

धूल बन जाएगा,

या गर्द में फूल बनकर

डाली पर छा जाएगा!!

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

एक राह चलेगा

या बेराह हो जाएगा ?

राह चलते चलते

गुमराह बन जाएगा

या गुमराह बनकर

गुमनाम हो जाएगा।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

फूलों सा बिखरेगा

या पत्ते सा झड़ जाएगा

डाली पर मलूल बनेगा

या सुर्ख हो जाएगा ।

मकाम को पाएगा

या खुद ही मकाम

बन जाएगा ।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

पतझड़ को जाएगा

तो बसंत में आएगा

या पतझड़ का गया

बारिश में आएगा ।

सावन में मिल पाएगा

या खुद सावन

बन जाएगा ।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

26/2/20

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 38 – ज्योतिष शास्त्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 38 ☆

☆ ज्योतिष शास्त्र

क्या आप जानते हैं कि हमारी सौर प्रणाली की पूरी संरचना ऐसी है कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अंडाकार कक्षा में गति कर रहे हैं । सूर्य के पास पहला ग्रह बुध है, फिर अगली कक्षा में शुक्र आता है । इन दो ग्रहों बुध और शुक्र को पृथ्वी काआंतरिक ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य और पृथ्वी के घूर्णन के बीच में आते हैं । तो शुक्र के बाद, पृथ्वी की कक्षा आती है जिसके चारों ओर हमारा चंद्रमा घूमता है । पृथ्वी के बाद के ग्रहों को बाहरी ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूर्णन की कक्षा के बाहर अपनी अलग अलग कक्षाओं में घूर्णन करते हैं । तो अनुक्रम में पृथ्वी के बाद आने वाले अन्य ग्रह मंगल, बृहस्पति और शनि हैं । तो ग्रहों का अनुक्रम है सूर्य (सूर्य को ज्योतिष के अनुसार ग्रह के रूप में मानें), बुध, शुक्र, पृथ्वी, पृथ्वी का चंद्रमा, मंगल, बृहस्पति, और फिर शनि । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । क्योंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद राहू (अथवा केतु) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं ।

अब अगर हम ज्योतिष की संभावनाओं से देखते हैं, तो ग्रहों की ऊर्जा इस प्रकार है सूर्य हमारी आत्मा या जीवन की रोशनी है, बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बहुत तेजी से बदलते हैं । शुक्र, जो मूल रूप से इच्छाओं की भावनाओं को दिखाता है, भी तेजी से बदलता है, लेकिन बुध की तुलना में कम तेजी से । फिर पृथ्वी आती है, जिस पर हम विभिन्न ग्रहों के प्रभाव देख रहे हैं (जिसे हम मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क आदि मान सकते हैं) । फिर चंद्रमा आता है जो हमारे बदलते मस्तिष्क को दर्शाता है जो परिवर्तन में सबसे तेज़ है ।

फिर मंगल ग्रह आता है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, हमारी क्षमता, सहनशक्ति, क्रोध इत्यादि दर्शाता है । मंगल ग्रह के बाद बृहस्पति आता है, जो दूसरों को सिखाने के लिए ज्ञान, शिक्षण और गुणवत्ता दिखाता है । अंत में शनि आता है, जो हमारे जीवन की उचित संरचना बनाने के लिए हमारे ऊपर लगाने वाले प्रतिबंधों के लिए ज़िम्मेदार है इसे क्रिया स्वामी भी कहा जाता है क्योंकि शनि हमारी जिंदगी की गति में रुकावटें डाल डाल कर हमें एक या अन्य कार्यों में निपुण बनाता है ।

अब यदि हम राशि चक्र में ग्रहों की स्थितियों और उसके ज्योतिषीय ऊर्जा के गुणों की तुलना करते हैं तो हम पायँगे कि ये एकदम सटीक हैं । चलो सूर्य से शुरू करते हैं, यह हमारे सौर मंडल का केंद्र है। सूर्य के चारों ओर सभी ग्रह घूमते हैं । ज्योतिष में भी सूर्य बुनियादी चेतना और ऊर्जा है जिसके साथ हम पृथ्वी पर आये थे । अगला ग्रह बुध है, जिसका घूर्णन चक्र ग्रहों के बीच सबसे छोटा है । इसके अतरिक्त बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बदलता रहता है । दूसरे शब्दों में, संचार के माध्यम से किसी के विषयमें किसी को कुछ बताने में बहुत कम समय लगता है, एवं स्मृति में संस्कारों को संग्रहीत करने और वापस निकालने में बहुत कम समय लगता है और प्रत्येक क्षण में हमारी कुल स्मृति बदलती रहती है ।

अगला ग्रह शुक्र है, जिसके घूर्णन का चक्र ज्योतिष में बुध से बड़ा है । शुक्र इच्छाओं से उत्पन्न भावनाओं को दर्शाता है । प्रेम जैसी कुछ भावनाओं के प्रभाव से वापस सामान्य अवस्था में आने के लिए मानव को कई सप्ताह भी लग सकते हैं । बुध और शुक्र सूर्य और पृथ्वी के बीच में अपनी परिक्रमायें करते हैं, और इसी लिए इन्हे आंतरिक ग्रह कहा जाता है ।

इसके अतरिक्त बुध और शुक्र, जो स्मृति, संचार और भावनाओं से जुड़े हुए ग्रह हैं, हर मानव के आंतरिक मुद्दे हैं और कोई भी बाहरी व्यक्ति बाहरी रूप से देखकर उनके विषय में नहीं बता सकता है । ये मनुष्य के अंदर छिपे हुए व्यक्ति के आंतरिक गुण हैं, इसलिए हमारे राशि चक्र में भी बुध और शुक्र आंतरिक ग्रह हैं । पृथ्वी हमारा शरीर है जिसके संदर्भ से हम सभी ग्रहों के गति को देख रहे हैं । चंद्रमा, जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, हमारे हमेशा बदलते मस्तिष्क को दिखाता है, विशेष रूप से मस्तिष्क का मन वाला भाग, जो मानव का सबसे तेज़ गति से बदलने वाला आंतरिक अंग है । तो पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा के घूर्णन को अन्य ग्रहो के घूर्णन की तुलना में सबसे कम समय लगता है । चंद्रमा के विषय में यह भी महत्वपूर्ण है कि अन्य ग्रहों की गति सूर्य के चारों ओर है, जो किसी व्यक्ति की आत्मा है, लेकिन चंद्रमा की गति पृथ्वी के चारों ओर या व्यक्ति की भौतिक, दृश्य संरचना के चारो ओर है ।

तो चंद्रमा हमारे शरीर के चारों ओर हमारी सोच दर्शाता है, इसका अर्थ मुख्य रूप से भौतिक वस्तुओ के विषय में है, या अधिक स्पष्ट रूप से चंद्रमा का घूर्णन हमारे अन्नमय कोश और प्राणमय कोश को मनोमय कोश के माध्यम से प्रभावित करता है ।

चंद्रमा के बाद बाहरी ग्रहआते हैं । पहला मंगल है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, सहनशक्ति, क्षमता और क्रोध को दर्शाता है । बेशक ये वे गुण हैं जिनका कोई भी मनुष्य किसी की दैनिक गतिविधियों का बाह्य रूप से विश्लेषण करके उनके विषय में बता सकता है । अर्थात मैं बाहर से देखने के बाद बता सकता हूँ कि शारीरिक रूप से आप कितने बलशाली है, बुध, शुक्र और चंद्रमा की तरह इस पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है कि आपके शरीर या मस्तिष्क के अंदर क्या हो रहा है ।

तो बाहरी ग्रह वे गुण दिखाते हैं जो बाहर से दिखाई देते हैं । अगला ग्रह बृहस्पति है, जो आपके ज्ञान और सिखाने की क्षमता दिखाता है जिसे बाहर से तय किया जाता है । अंतिम बाहरी ग्रह शनि है, जो हमारे जीवन में प्रतिबंधों और समस्याओं को दिखाता है जिन्हें बाहर से देखा जा सकता है ।

अब इस बिंदु पर वापस आते हैं कि हमारे ब्रह्मांड का आकार, संरचना और संगठन समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं । मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ । आपने क्षुद्रग्रह पट्टी के विषय में सुना है । क्षुद्रग्रह पट्टी सौर मंडल में स्थिति एक चक्राकार क्षेत्र है जो लगभग मंगल और बृहस्पति ग्रहों की कक्षाओं के बीच स्थित है । यह क्षेत्र क्षुद्रग्रहों या छोटे ग्रहों नामक कई अनियमित आकार वाले निकायों द्वारा भरा हुआ है। क्षुद्रग्रह पट्टी का आधा द्रव्यमान चार सबसे बड़े क्षुद्रग्रहों सेरेस, वेस्ता, पल्लस, और हाइजी में निहित है । असल में ये क्षुद्रग्रह एक आद्य ग्रह के अवशेष हैं जो बहुत पहले एक बड़े टकराव में नष्ट हो गया था; प्रचलित विचार यह है कि क्षुद्रग्रह बचे हुए चट्टानी पदार्थ हैं जो किसी ग्रह में सफलतापूर्वक सहवास नहीं करते हैं ।

© आशीष कुमार 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 30 ☆ कोरोनाची ऐशी तैशी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  कोरोना विषाणु  पर  एक समसामयिक रचना  “कोरोनाची ऐशी तैशी”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 30 ☆

☆ कोरोनाची ऐशी तैशी ☆ 

(काव्यप्रकार:-अभंग रचना)

कोरोनाच्या मुळे !

जग थांबलया !

विश्रांती घेतया !

शांतपणे !!१!!

 

अनेक वर्षांची !

रेल्वेची ती सेवा !

घेतीये विसावा !

मनसोक्त !!२!!

 

वाहणारे रस्ते !

घेतात आराम !

कधीच विश्राम !

नसे त्यांना !!३!!

 

जाहलिये थंड !

वाहनांची गर्दी !

पोलीसांची वर्दी !

जागोजागी !!४!!

 

हात ते हातात !

घेत नाही आम्ही!

म्हणतो हो आम्ही !

रामराम !!५!!

 

हात धुण्यासाठी !

सॅनिटायझर !

हो वापरणार !

घरोघरी !!६!!

 

कोरोना रोखण्या !

डॉक्टर धावती !

सिस्टर पळती !

मदतीला !!७!!

 

घरात बसुनी !

पाळुया नियम !

शासना मदत !

करुयाहो !!८!!

 

घरात राहूनी !

खेळ आम्ही खेळू !

साखर ती दळू !

जात्यावर !!९!!

 

सागर गोट्यांच्या !

खेळात हातांना !

व्यायाम डोळ्यांना !

छान होई !!१०!!

 

सागर किनारी !

स्वच्छंदपणाने !

आनंदे हरिणे !

बागडती !!११!!

 

पिसारा फुलवी !

मोर तो सुंदर !

नाचे रस्त्यावर !

बिनधास्त !!१२!!

 

उर्मिला म्हणते !

नियम ते पाळा !

आरोग्य सांभाळा !

आपुलाले !!१३!!

 

©️®️ उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-११-४-२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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