हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 211 – “वक्त क्यों झुर्रियाँ टटोलता है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत वक्त क्यों झुर्रियाँ टटोलता है...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 211 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “वक्त क्यों झुर्रियाँ टटोलता है...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

सच कहूँ  “सत्य”

यहाँ बोलता है ।

वक्त क्यों झुर्रियाँ

टटोलता है ॥

 

जो हंसता हूँ तो

कान हिलते हैं ।

बाद चुपचाप

होंठ मिलते हैं ।

 

आईना देखदेख

डोलता है ॥

 

सर्द जुल्फें

उड़ान भरती हैं ।

बदलियाँ बूँद –

बूँद झरती हैं ।

 

कपाट ज्यों ललाट

खोलता है ॥

 

दृश्य भर आँख

भी चमकती है ।

लाज तब यहाँ

पर खटकती है ।

 

जिसका अंदाज

कोई तौलता है ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-10-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु”  के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु

☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ ☆

☆ “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

बात सन 1962 की है जब संस्कारधानी के क्राइस्ट चर्च स्कूल के प्रभावशाली शिक्षक पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी महापौर चुने गए । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गुरु जी के गुणों को शब्दों में सहेज पाना न केवल मुश्किल वरन् असंभव है । उन्हें प्रेम और आदर के साथ ‘गुरु जी’ के नाम से ही जाना जाता था । ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ और सिद्धांतों के पक्के गुरुजी महापौर बनने के बाद भी अपने घर से स्कूल साइकिल से ही जाते थे । नगर निगम में महापौर की कुर्सी पर विराजित होने के बाद कार्यालयीन कार्यों के लिए ही वे निगम की कार का प्रयोग करते थे। व्यक्तिगत कार्यों के लिए उन्होंने सदैव साइकिल का ही प्रयोग किया।

प्रखर बुद्धि के स्वामी होने के साथ ही वे सूक्ष्म भावनाओं के सागर भी थे, गुरुजी ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से इसे सही साबित कर दिया। वे एक श्रेष्ठ शिक्षक थे । उनमें आदर्श शिक्षक के समस्त गुण विद्यमान थे।  गणित जैसे रुखे विषय के शिक्षक होने के बावजूद भी वे  विद्यार्थियों में सर्वप्रिय रहे। जीवन की समस्याओं के गणित का समाधान भी उन्होंने सरलता से हंसते मुस्कुराते किया। निराश मन लेकर आने वाले भी उनसे मिलकर आशा का पुंज ले जाते थे। वे सदैव आत्म वंचना, आत्म प्रदर्शन से दूर रहे। अपनी बातों और दूसरों की गलतियों को मधुरता के साथ रेखांकित कर देने का अद्भुत गुण भी था उनमें  । सदैव प्रसन्न रहना, मुस्कुराना उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था। उन्होंने जीवन पथ के कांटों को हटाया ही नहीं वरन वहां  सुमन बिखरते चले गए। अपनी दुख-पीड़ा को न तो प्रदर्शित किया न सार्वजनिक बनाया । इसके विपरीत दूसरों के दुख दर्द में बराबरी से हिस्सा लिया, उसे बांटा और दूर किया। सभी वर्ग, धर्म और बौद्धिक स्तर के लोग उनके सानिध्य में समानता का अनुभव करते थे। वे जबलपुर के गौरव पुरुष, सबके मित्र थे। गुरु जी दान मुक्त हस्त से और प्रशंसा दिल खोलकर करते थे, किंतु अपनी प्रशंसा सुनने से कतराते थे। दूसरों के लिए तन – मन, धन न्यौछावर करने वाले गुरु जी अपने प्रति हमेशा बेपरवाह रहे। देकर भूल जाना उनका स्वभाव था। वे इतने संकोची इतने थे कि कार्य स्वयं कर लेना ही उन्हें आसान लगता था बजाए किसी से कहने या करवाने के । गंभीर बातों को सहजता से लेने वाले गुरु जी सरल और विनोदी स्वभाव के कारण वातावरण को कभी भी बोझिल नहीं बनने देते थे । उपदेश देना उनकी फितरत में नहीं था, उनका सादगी पूर्ण, आडंबर रहित व्यक्तित्व – कृतित्व, आचरण ही लोगों के लिए उपदेश था। याद आ रही है उनके व्यक्तित्व को प्रकाशित करती हुई ये पंक्तियां ..

हम तो बिके जाते हैं उन अहले कर्म के हाथों

करके एहसान भी जो नीचे नजर रखते हैं।

गुरु जी एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। ‘वसुधा’ और ‘प्रहरी’ के अतिरिक्त वे अनेक पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने समाज और जीवन के हर पहलू पर कविताएं लिखीं । सशक्त कवि के रूप में उनकी पहचान दूर-दूर तक थी। शिक्षा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में विशेष रूचि के कारण ही गुरु जी जबलपुर में चंचलबाई महिला महाविद्यालय, भातखंडे संगीत महाविद्यालय, बिदामबाई गुगलिया कन्या विद्यालय, डिसल्वा रतनशी हायर सेकंडरी विद्यालय व भवानी प्रसाद तिवारी शिक्षा मंदिर की  स्थापना में सहभागी बने । यह गर्व की  बात है कि इन संस्थाओं का जैसा गौरवपूर्ण इतिहास रहा वैसा ही उनका वर्तमान भी है। गुरुजी और उनकी मित्र मंडली ने होली को सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व के रूप में स्थापित किया।जिसमें शहर के सभी वर्ग के लोग हर्षोल्लास से मिलते जुलते, नाचते-गाते और होली का आनंद उठाते थे ।

गुरुजी कहते थे कि साहित्यिक, सांस्कृतिक रुचि उन्हें अपने पिता सुविख्यात व्याकरणाचार्य पं. कामता प्रसाद गुरु जी से विरासत में मिली।  समाज की विसंगतियां पर उन्होंने न केवल नजर डाली बल्कि समाज की नजरों में रखा भी। शोषण के विरुद्ध उनका    चिंतित स्वर देखिए –

आज जहर की हंसी हंसा है

पूंजी पति अनजाने में

कौन कयामत आने को है

मुफलिस के वीराने में ।

उनकी एक कविता में दुखती आत्मा का स्वर इस प्रकार रहा ..

जिस्म वही है शक्ल वही है पर मानव दिल बदल गया

धन के इस खूनी चढ़ाव से हिमालय भी दहल गया ।

गुरु जी सड़ी गली परंपरा तोड़ने के पक्षधर थे। वे जानते थे विद्रोह के बिना परिवर्तन संभव नहीं है और विद्रोह करना भी आसान नहीं। इसलिए उन्होंने आव्हान किया –

“आज नया इंसान बनने विद्रोही शुरुआत चाहिए !

वज्र शक्ति संकल्पना वाला विषपाई सुकरात चाहिए!!

आजादी की लड़ाई में कूद पड़ने की प्रेरणा उन्हें अपने  भावुक हृदय से मिली थी किंतु भावनाओं पर उनके मस्तिष्क का नियंत्रण भी था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा तो लिया ही, इसके लिए लोगों को प्रेरित भी किया। उन दिनों उनके द्वारा लिखा गया गीत “खून की मांग” आज भी जन-मन में उत्साह उमंग का संचार करता है । ‘खून की मांग’ उनके अंतर्मन की एक चिंगारी थी जो ज्वाला में तब्दील होकर कविता के रूप में उतरी थी। उसी की एक झलक ..

खून चाहिए प्रेम पर पलती हुई जवान का

खून चाहिए हमें चिता पर जलती हुई जवान का

एक बात है एक मांग है मरघट आज जगा तो यारों

सर पर बांधे  कफन खड़ा हूँ  चलो कि आग लगा दो यारो ।

गुरु जी अब हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके आदर्श मार्ग दर्शक के रूप में हर कदम हमारे साथ हैं ..  सादर नमन।

——————————

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 194 ☆ # “तेरे दरबार में…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “तेरे दरबार में…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 194 ☆

☆ # “तेरे दरबार में…” # ☆

तेरे दरबार में दुहाई है

मेरी मजबूरी खींच लाई है

 

संगी साथी सब छूट गये हैं  

मेरे अपने सब रूठ गये हैं

जो कमाये थे मैंने अब तक

वो खनकते सिक्के सब लुट गये हैं

तुझे जगाने आवाज़ लगाई है

तेरे दरबार में दुहाई है

 

मेरी आंखों के तारे खो गये हैं

भीड़ में किसी के हो गये हैं

मेरी बगिया वीरान हो गई है

मेरे कुचले अरमान सो गये हैं

तेरी शक्ति ने आस बंधाई है

तेरे दरबार में दुहाई है

 

गरीबी नाइलाज मर्ज है

दुनिया बड़ी खुदगर्ज है

ज़ख्मों पर नमक छिड़कती है

रोते-रोते यह मेरी अर्ज है

तूने लाखों की बिगड़ी बनाई है

तेरे दरबार में दुहाई है

 

क्षमा कर दे तू मेरे अवगुण

होंठ गुनगुना रहे हैं तेरी ही धुन

अश्रुओं को चढ़ाने आया हूं

मोतियों को लाया हूं चुन-चुन

अरमानों की माला पिरोकर चढ़ाई है

तेरे दरबार में दुहाई है

मेरी मजबूरी खींच लाई है  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – इंसान तुम बस प्रेम का… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता इंसान तुम बस प्रेम का…।)

☆ कविता  – इंसान तुम बस प्रेम का… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆ 

इंसान तुम बस प्रेम का प्रतिदान बनकर के चलो,

प्रेम का आभास निज उर में सदा रखकर के चलो,

कठिनाइयों से प्यार हो, ना कष्ट का आभास हो,

मुश्किलों में मुस्कुरा, मुस्कान बनकर के चलो,

इंसान तुम बस प्रेम का…

*

राह वीराने में बनाकर, दीप तूफां में जला दो,

हर दिलों में प्यार हो प्रेम की ज्योति जला दो,

भूले बिसरे राही के हमराज बनकर के चलो,

इंसान तुम बस प्रेम का…

*

राह से कंटक हटाकर, राह पुष्पों की बना दो,

प्रेम रूपी राह में प्रीति की कलियां खिला दो,

अंधकार का अंत हो रश्मि पुंज बनकर के चलो,

इंसान तुम बस प्रेम का…

*

महक उठे रजनीगंधा सुरसौरभि का “राज” बना दो,

शांति गीत का हो गुंजन ऐसा प्यार साज बना दो,

हो उदित अनुराग, ऐसी तान बनकर के चलो,

इंसान तुम बस प्रेम का प्रतिदान बनकर के चलो..

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 260 ☆ व्यंग्य – जीवन और भोजन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 260 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जीवन और भोजन ☆    

भोजन सभी जीवो के लिए ज़रूरी है। वन्य पशुओं में भोजन के लिए दिन रात मारकाट चलती है। चौबीस घंटे जीवन संकट में रहता है। मनुष्य  भी भोजन से पोषक तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। समझदार कहते हैं कि बिना भोजन के आदमी का जीवन 35-40 दिन से आगे चलना मुश्किल है।

शुरू में आदमी गुफावासी था और भोजन के लिए उसे बाहर निकल कर पशुओं का शिकार करना पड़ता था। लेकिन वह अक्सर खुद भेड़ियों का शिकार हो जाता था, जो उस पर हमला करके तुरन्त उसका पेट फाड़ देते थे। यानी भोजन की तलाश में प्राण ही दांव पर लग जाते थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में इन स्थितियों का विशद वर्णन मिलता है।

आग का अविष्कार हुआ तो आदमी की ज़िन्दगी कुछ आसान हुई। हिंस्र पशुओं को आग से डरा कर दूर रखा जा सका और भोजन को पका कर कोमल और सुरक्षित बनाया जा सका। दांतों को कसरत और नुकसान से राहत मिली। इसके बाद धातुओं के अविष्कार से भोजन को काटना- छांटना सरल हुआ। कृषि और पशुपालन के साथ आदमी के जीवन में स्थिरता आयी और ख़ानाबदोशी में विराम लगा।

सामन्तों और राजाओं के उदय के साथ प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं को प्रसन्न करने के इरादे से यज्ञ शुरू हुए और इसके साथ पुरोहितों की भूमिका महत्वपूर्ण  हुई। पुण्य कमाने के लिए ब्राह्मणों और अन्य नगरवासियों के भोज की व्यवस्था शुरू हुई। आनन्द और शोक के अवसर पर भोज देने के लिए नियम बने। हाल तक बड़े लोगों के शादी-ब्याह में पूरे गांव की पंगत होती थी। सड़क के किनारे ही आसन और पत्तल बिछ जाते थे। पानी के लिए लोग अपना-अपना लोटा या गिलास लेकर आते। रसूखदार लोगों के साथ उनके सेवक लोटा-गिलास लेकर चलते थे। जिन बिगड़े रईसों के पास सेवक नहीं होते थे वे किसी साधारण आदमी को उनका लोटा-गिलास लेकर चलने के लिए राज़ी करके अपनी इज़्ज़त बचाते थे।

धर्म के अनुसार तेरहीं पर भोज देना भी अनिवार्य था, अत: कई बार मृतक की तेरहीं के साथ जीवितों की भी तेरहीं हो जाती थी। आदमी अब इन कर्मकांडों से मुक्ति के लिए छटपटाता है, लेकिन समाज का दबाव और अदृश्य का भय उसे मुक्ति से दूर रखता है।

धर्म और जाति आये तो ‘रोटी-बेटी’ का परहेज़ भी आया। जिन्हें नीची जाति कहा जाता है उनकी उप-जातियों में भी रोटी-बेटी के संबंध में अड़चन आती है। विडंबना यह है कि मुफ्त में मिली श्रेष्ठता पर लोग गर्व करते हैं। अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के कारण ये परहेज़ टूट रहे हैं, लेकिन उन्हें पोसने और पुष्ट करने वाली शक्तियां भी पूरी तरह सक्रिय हैं।

जल्दी ही आदमी की समझ में आ गया कि भोजन महज़ पेट भरने की चीज़ नहीं है। उससे पुण्य प्राप्ति के अतिरिक्त बहुत से काम साधे जा सकते हैं। अब संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए भोजन का उपयोग किया जाने लगा। लोगों को भरोसा है कि जो नमक खाएगा वह नमक का ऋण ज़रूर चुकाएगा। राणा प्रताप के राजा मानसिंह से संबंध इसलिए दरक गये थे क्योंकि उन्होंने मानसिंह के साथ भोजन पर बैठने से इनकार कर दिया था।

भोजन का उपयोग रोब-दाब के लिए भी होता है। पैसे वाले ब्याह-शादी में भोजन में इतनी विविधता रखते हैं कि आमंत्रितों की आंखें चौंधया जाती हैं । व्यंजनों के दर्शन करते ही मन अघा जाता है।

राजनीतिक पार्टियों ने भी राजनीति के लिए भोजन का महत्व समझ लिया है। इसीलिए 80 करोड़ लोगों को प्रति माह 5 किलो अनाज मुफ्त प्राप्त हो रहा है। कई राज्यों में सस्ते भोजनालय खोले जा रहे हैं।

एक नयी प्रवृत्ति यह पैदा हुई है कि बड़े-बड़े नेता गरीबों के घर में बैठकर भोजन करने लगे हैं। इस बहाने गरीब के घर की सफाई और रंगाई- पुताई हो जाती है। कई बार भोजन होटलों से मंगवा लिया जाता है, गरीब के घर में सिर्फ बैठकर फोटो खिंचाने का काम होता है। जनता अपने नेताओं के इस ढोंग को देखकर अपना भाग्य सराहती है।

कवि ‘धूमिल’ की प्रसिद्ध कविता के अनुसार रोटी बेलने वालों और रोटी खाने वालों के बरक्स एक और वर्ग है जो रोटी से खेलता है। यह तीसरा वर्ग कौन है, इस प्रश्न का जवाब संसद से भी नहीं मिलता।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – देवी – देवता – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– देवी – देवता –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — देवी – देवता — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लड़के ने लाल को पीला बनाने जैसा जादू सीख लिया। उसने अपनी माँ से कहा इस जादू से लोगों को आकर्षित करके वह धनवान हो जाएगा। माँ ने गलत मान कर कहा मेहनत की रोटी खाओ। पर बेटे ने माँ को डाँट कर अपने मन की पूरी कर ली और वाकई लखपति बन गया। माँ दुनिया के रेले – मेले में खो गयी, लेकिन बेटे ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी उसकी माँ देवी थी और वह देवी – पुत्र हुआ।
***
© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 260 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 260 सार्थक… ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है। 

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे, 

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको 

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 207 ☆ आदि शक्ति दुर्गा वंदना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवरात्रि पर्व पर विशेष आदि शक्ति दुर्गा वंदना…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 207 ☆

☆ आदि शक्ति दुर्गा वंदना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.

रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश….

*

पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.

चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार…..

*

अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.

कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..

परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.

दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..

जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.

चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार…..

*

नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.

भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..

दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.

उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.

प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.

चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार…..

*

वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.

क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..

मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-

करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.

ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.

चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-४-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 207 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 207 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 207) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 207 ?

☆☆☆☆☆

काश मिल जाये हमें भी

कोई किसी आईने की तरह

जो हँसे भी साथ साथ

और रोये भी साथ साथ…

☆☆

Wish I could also have

Someone like a mirror

Who could laugh together

And  even  cry together …

☆☆☆☆☆

उन्हें  ठहरे…

समुंदर  ने  डुबोया

जिन्हें  तूफ़ाँ  का…

अंदाज़ा  बहुत  था…

☆☆

Calm seas…

drowned them only…

Who claimed to have great 

experience of braving the storms

☆☆☆☆☆

तकलीफ खुद ही

कम हो गई…

जब अपनों से…

उम्मीद कम हो गई..

☆☆

The suffering itself got

conclusively reduced,

When expectations from

the loved ones minimized…

☆☆☆☆☆

पत्तों सी होती है कई रिश्तों

की उम्र, आज हरे कल सूखे….

क्यों  न  हम जड़ों  से  ही

उम्र भर रिश्ते निभाना सीखें…

☆☆

Age of many relationships is like

leaves; today green, tomorrow dried… 

Why don’t we learn from roots

To maintain the relationship …

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अक्षर… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

🌸 विविधा 🌸

☆ अक्षर…  ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी 

विश्वातील अनादी काळापासून, अक्षरशः अक्षर निर्मिती ! न क्षरती इति 

अक्षर ! ज्याचा नाश कधीच होत नाही असे अक्षर ! अक्षर कुठून तयार झाली ? भाषा व लिपी कोणती जरी असली तरी , अक्षर ही प्रथम नाद निर्माण करतात ! नाद हा परत दोन प्रकारचा आहत आणि अनाहत !  आहत नाद 

मुखातून वा कोणत्याही आघातजन्य पदार्थापासून निर्मित असतो अनित्य असतो. अनाहत नाद हा स्वर्गीय नित्य असतो. मुखातील जिव्हा, टाळू, दंत ओष्ट, नासिक ह्यांच्या आघातामुळे नाद किंवा अक्षर तयार होत असते. 

अ उ म – म्हणजेच ओम  हा आकार, उकार, मकार ह्या तीन धातूंपासून तयार झाला आहे . 

अक्षर हे मानवाचे प्राण आहे ! बघा हं विचित्र वाटेल पण त्रिकालाबाधित सत्य आहे ! जन्मतः प्रसव झाल्यापासून को s हं ? किंवा को अहं ! ह्या अक्षरांना किती महत्व आहे हे तुम्ही जाणताच . बाळ रडले ह्याचा अर्थ त्याचा पहिला श्वास चालू झाला ! रडणे म्हणजेच श्वास घेणे आणि सोडणे , म्हणजेच त्याचा श्वासोच्छ्वास चालू झाला ! ह्यांचाच अर्थ त्याचे फुफ्फुसे व ह्रदय क्रिया चालू झाली !त्याला जीव प्राप्त झाला ! मंडळी  हाच तो अनाहत नाद ! इथे कुठलाच आघात न होता अक्षर तयार झाले ! ईश्वर निर्मित नाद ! अक्षरे देऊन गेला ! प्राण व्यानं उदान ह्या वायूची गती इथे प्राप्त झाली .  प्राण ह्रदयस्थित व्यानं फुफ्फुस स्थित , उदान कंठ स्थित !

आपण बोलताना वरील तिन्ही वायूंचे चलनवलन होत असतेच . अपान वायू मलमूत्र विसर्ग होत असताना कार्य करते . तर समान वायू 

अग्निवर्धन करून अन्न पचन करते. आघात होण्यासाठी वायू व आकाश ह्याची गरज आघात मुखात होतो व तोंडातील वा श्वास मार्गातील पोकळी किंवा अवकाश अक्षर , शब्द निर्मिती करत असते . माणूस सजीव असेपर्यंत अक्षर आवाज जन्मापासून मृत्यू पर्यंत अव्याहतपणे चालू असते ! आघात अक्षर शब्द हे जेव्हा थांबतील तेव्हा जीव नाहीसा होतो ! जीव जात  असताना पण घश्यात घुरघुर लागते व श्वास थांबतो – त्यालाच मृत्यू म्हणतात ! 

अनेक अक्षर मिळून शब्द तयार होतो , परा – पश्चन्ती मध्यमा – वैखरी ही त्याचे सूक्ष्म रूपे होत ! बेंबीच्या देठापासून ते कंठातून – मुखापासून बाहेर पडण्याच्या क्रियेला खरतर फुफ्फुसे व कंठ श्वासपटल मुख ही सर्व कार्यरत असतात ! त्यासाठी वरील तिन्ही वायूचे साक्षात प्राणाचे कार्य अव्याहतपणे चालू असते . शरीरांतर्गत ह्या सूक्ष्म क्रिया असतात . तो सजीव बोलत असतो आहत नादामुळे , मुखातील आघातामुळे ! ह्याच आघातामुळे नादमय संगीत पण तयार होत असते .

अक्षर ही सरस्वती कृत निर्मित ! तर चौदा विद्या चौसस्ट कला ह्या श्री गणेशाधीन श्री गणपती ही त्याची देवता . मग सरस्वती पूजन का ? सरस्वती ही प्रत्येक्ष्यात प्रतिभा ! उत्स्फूर्तता ! सृजनशील ! वाक् – बोलणे , ईश्वरी – अनाहत नाद निर्माण करणारी बीज मंत्र !

अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ आं 

यरळवष श स हं ळ क्ष ज्ञ 

क ख ग ग इत्यादी मुळाक्षरे 

काही भाषेत बाराखडी, तर काही भाषेत चौदाखडी

उदा. कानडी भाषा चौदाखडी ( ह्रस्व आणि दीर्घ ए ) असो. 

पाणिनीला मात्र वेगळीच बीजमंत्र मिळाले . शंकराच्या डमरूतुन त्याला चौदा शब्द समुच्चय मिळाला ! त्यावरच पाणिनीने लघुसिद्धांत कौमुदी हे व्याकरण शास्त्राचे नवीन प्रबंध निर्माण केला . जे आजही व्याकरण शास्त्राचे आधारभूत ग्रंथ म्हणून पाहिले जाते . चार चार अक्षरांचा चौदा समूह तयार करून त्यांनी , अक्षरपट मांडला . विस्तार भयास्तव येथे देत नाही ! तरीपण ह्या शास्त्राला नाद संरचना ( phoneticks ) म्हणून जगात मान्यता आहे ! 

कर्ण बधिर शास्त्रात उपयोग केला गेला ! महत्वाचे म्हणजे मला अस प्रश्न पडतो की ? 

सुदृढ माणूस ऐकू शकतो , बोलू शकतो . मूक बधिरांचं काय ? ? अक्षर समूह म्हणजे शब्द , शब्द समूह म्हणजे वाक्य . नाम क्रियापद कर्म , इत्यादी . 

ही मुळाक्षरे, तसेच संगीत शास्त्रातील , “सा रे ग म प ध नी सा”  सप्तसूर कोमल स्वर 

“मंद्र मध्य तार सप्तक” ह्यांचा  कंठातून होणारा आघात – नादमय ध्वनी इथे मुळाक्षरे सप्तस्वरच राज्य करतात !

अस असलेतरी मुखातून आलेला ध्वनी कर्ण पटलावरच कार्य करतात, किंबहुना कर्ण अबाधित असेलतरच ह्याचे ज्ञान होणार . 

मुळाक्षरे जशी आहेत तशीच बिजाक्षरे पण वेदानी प्रमाणभूत मानली आहेत. हीच बिजाक्षरे देवांच्या प्राण प्रतिष्ठासाठी ग्राह्य मानली जातात. 

आपण वार्षिक गणपतीचा उत्सव दहा दिवस आनंदाने साजरा करतो . दहा दिवस  आपण मनोभावे पूजा करतोच बाजारातून   आणलेला गणपती, घरी पूजेसाठी ज्यावेळी मांडतो त्यावेळी, बिजाक्षरानी त्यात प्राण व्यान उदान अक्षरांनी प्रतिष्ठा केली जाते. ती अक्षरे खालीलप्रमाणे.

ओं आं ह्रिम क्रोम् । 

अं यं रं लं वं शम वं सं हं लं इत्यादी — सर्व अनुनासिक अक्षर 

जन्मतः बाळ रडत ते पण अनुनासिक अक्षर !

को ss हं किंवा टँहै टँह्या ही अशी अनादी अनंत प्रक्रिया सृष्टीत अव्याहत चालू आहेच. बऱ्याच वनस्पतीमध्ये पण ही क्रिया चालू असतेच उदा. केळीचा कोका ज्यावेळी बाहेर पडतो त्यावेळी आवाज येतो. तो अक्षरशः अक्षरांनी. तस बरेच काही अक्षराबद्दल सांगता येईल. ह्या जगात तुम्ही आम्ही असू वा नसू पण अक्षरे ही अबाधित असतील एवढं मात्र खरे !

तेच प्रांजळ सत्य आहे . 

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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