हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 50 ☆ गीत – कुछ दीवाने कम भले हों ….. ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत  “कुछ दीवाने कम भले हों …..। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 50 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – कुछ दीवाने कम भले हों …..  ☆

 

कुछ दीवाने कम भले हो,प्यार तो करते रहें।

जिंदगी में फासले हो,फिर भी हम चलते रहे।।

 

चित्र तेरा देखकर ही सोचता मैं रह गया।

आते रहते स्वप्न तेरे पीर सहता रह गया।

जाने कितने देखे हमने सपन तो पलते रहे।

कुछ दीवाने कम भले हो,प्यार तो करते रहें।

 

जो हुआ विश्वास मन का टूटता ही रह गया।

जो किया संकल्प हमने छूटता ही रह गया।

क्यों करे कोई शिकायत हाथ मलते ही रहे।

कुछ दीवाने कम भले हो,प्यार तो करते रहें।

 

हो अगर प्रतिकूल जीवन,तो है तुमसे वास्ता।

वरना इस जीवन में अपना अलग ही रास्ता।

हम समय के साथ  संध्या की तरह ढलते रहे।

कुछ दीवाने कम भले हो,प्यार तो करते रहें।

 

कुछ दीवाने कम भले हो,प्यार तो करते रहें।

जिंदगी में फासले हो,फिर भी हम चलते रहे।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 41 ☆ धन – वैभव …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “ धन – वैभव ….. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 41 ☆

☆ धन – वैभव ....

 

धन-वैभव में डूब कर, निश दिन करते पाप।

अहंकार पाले हृदय, रख दौलत का ताप  ।।

 

तृष्णा लेकर जी रहे, मन में रखें विकार  ।

अक्सर कंजूसी उन्हें, करती नित्य शिकार।।

 

धन वैभव किस काम का, जब घेरे हों रोग  ।

शांति और सुख के लिए , हो यह देह निरोग ।।

 

मिलता यश वैभव सुफल, जब होते सद्कर्म  ।

रोशन सच से ज़िन्दगी,  समझें इसका मर्म  ।।

 

बुद्धि- ज्ञान शिक्षा सुमति, और सत्य की राह ।

चले धरम के मार्ग पर, उसे न धन की चाह   ।।

 

मन के पीछे जो चला, उसके बिगड़े काम ।

मन माया का दूत है,  इस पर रखें लगाम ।।

 

कोरोना के दौर में, काम न आया दाम  ।

धन-वैभव फीके पड़े, याद रहे श्रीराम ।।

 

बेटी धन अनमोल है, उसका हो सम्मान  ।

दो कुल को रोशन करे, रख कर सबका मान ।।

 

सुख-वैभव की लालसा, रखते हैं सब लोग ।

आये जब “संतोष”धन, छूटे माया रोग  ।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – अबोल मैत्री  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  कामगारों के जीवन पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “अबोल मैत्री  )

☆ विजय साहित्य – अबोल मैत्री  ☆

 

अबोल मैत्री सांगून जाते

शब्दांच्याही पलीकडले.

नजरेमधुनी कळते भाषा

कसे जीवावर जीव जडले

 

अबोल मैत्री अनुभव लेणे

माणूस माणूस वाचत जाणे

स्नेहमिलनी स्वभावदोषी

दृढ मैत्रीचे वाजे नाणे.. . !

 

अबोल मैत्री नाही कौतुक

शिकवून जाते धडा नवा

कसे जगावे जीवनात या

या मैत्रीचा नाद हवा.. !

 

अबोल मैत्री आहे कविता

संवादातून कळलेली

अंतरातली ओढ मनीची

अंतराकडे वळलेली.. !

 

अबोल मैत्री म्हणजे  जाणिव

परस्परांना झालेली

तू माझा नी मीच तुझा रे

मने मनाला कळलेली.. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 34 ☆ लघुकथा – जेनरेशन  गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “जेनरेशन  गैप”। यह अक्सर होता है हमारी वर्तमान पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के बीच के  जनरेशन गैप को पाटने में पूरी  मानसिक ऊर्जा झोंक देती है फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती है। संभवतः प्रत्येक पीढ़ी इसी दौर से गुजरती है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 34 ☆

☆  लघुकथा – जेनरेशन  गैप

समय की  रफ्तार को कोई रोक सका है भला ?  यही तो है जो चलता चला जाता है. उंगली पकडकर चलना सीखनेवाले बच्चे सडक पार करते समय कब  माता – पिता का सहारा बनने लगते हैं, पता ही नहीं चलता . तब लगता है कि बच्चे बडे और हम छोटे हो रहे हैं,  पर क्या सचमुच ऐसा होता है ? क्या जीवन की उम्र, उसके अनुभव कोई मायने नहीं रखते, बेमानी हो जाते हैं सब ?

माँ !  मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, घुटन होती है. जानवरों की तरह  पिंजरे में बंद रहो.

सुरक्षा के लिए जरूरी होता है, समय से आओ – जाओ.

इसे बंधन कहते हैं, जेल में कैदी के जैसे.

जेल नहीं, हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं.

नियम सिर्फ लडकियों के लिए होते हैं, लडकों के हॉस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं  होता, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या ?

माँ सकपकाई — उन्हें भी सुरक्षा चाहिए, लडकों के हॉस्टल में भी ऐसे नियम होने चाहिए. पर लडकियाँ अँधेरा होने से पहले हॉस्टल या घर  आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है.

क्यों ? क्या दिन में लडकियाँ सुरक्षित हैं ? आपको याद है ना दिन में ट्रेन में चढते समय क्या हुआ था मेरे साथ? और कब तक चिंता करती रहेंगी आप?

हाँ, रहने दे बस सब याद है – माँ ने बात को टालते हुए कहा  पर चिंता —–

पर – वर कुछ नहीं, मुझे  बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लडकियाँ को घर जल्दी आ जाना चाहिए, हॉस्टल में भी  बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ. बोलिए ना !

माँ चुप रही —

बात – बात में बेटी माँ से कहती है –  आप समझती ही नहीं छोडिए , बेकार है आपसे बात करना.  आप नहीं समझेंगी आज के समय की इन मॉर्डन बातों को, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई. तेज आवाज के साथ उसके कमरे का दरवाजा बंद हो गया.

माँ जिसे सुरक्षा बता रही थी, बेटी के लिए वह बंधन था. माँ के लिए हॉस्टल के नियम जरूरी थे, बेटी को उसमें कोई लॉजिक नहीं लग रहा था. बेटी की नजरों में दुराचार की घटनाओं के लिए दिन और रात का कोई अंतर नहीं था, माँ की आँखों में रात में घटी  बलात्कार की अनेक घटनाएं  जिंदा थीं.  माँ की माथे की लकीरें कह रही थीं  चिंता तो होती है बेटी —-.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 55 ☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “पादुकाओ की आत्म कथा।  यह बिलकुल सच है कि पादुका का स्थान पैर ही है यदि गलती से  या जान बूझ कर  वे हाथ में आ गई तो क्या हो सकता है, आप स्वयं ही पढ़ लीजिये। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 55 ☆ 

☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆

मैं पादुका हूं. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज  चलाने का विशद  अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूं, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को  को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है.   मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने , कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे, मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं, जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं. फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूं.दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.

तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार, डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूं, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में  वे  हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं ? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम  मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से  अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी. निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता  ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं. पर जब मेरा इस्तेमाल हाथो से होता है तो मैं अकेली ही काफी  होती हूं किसी को भी पीटने के लिये या मसल डालने के लिये. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.

वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं, मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूं, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं, उनका कम्फर्ट लेवल क्या है, यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है.एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें. ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि  दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो. जूते तो अपने आविष्कार के बाद से निरंतर चल रहे हैं, कदम दर कदम प्रगति पथ पर बढ़ रहे हैं,  जूतो की टैग लाइन ही है,चरैवेति चरैवेति. पैरो में नही तो हाथो से चलेंगे पर चलेंगे जरूर. मै तो देश बक्ति में यही गुनगुनाती प्रसन्न रहती हूं, “मेरा जूता है जापानी, सर पर लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “.तो जूता कोई भी पहने पर दिल हिन्दुस्तानी बनाये रखें. इति मम आत्मकथा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 22 ☆ परीक्षा की घड़ी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “परीक्षा की घड़ी ।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है।  समाज में कुछ प्रतिशत लोग समय की गंभीरता को क्यों नहीं समझ रहे हैं? यह प्रश्न अपने आप में गंभीर है। श्रीमती छाया जी न केवल प्रश्न उठाती हैं अपितु, उनका सकारात्मक निदान भी साझा करती हैं।  इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 22 ☆

☆ परीक्षा की घड़ी 

अचानक क्या से क्या हो सकता है;  ये तो हम सभी देख ही रहे हैं ।  इस अवधि में सभी ने अपने – अपने स्तरों पर स्वयं का अवलोकन कर अपने में सकारात्मक सुधार किए हैं । जहाँ एक ओर कुशल शिक्षक बच्चों को पढ़ाता है, तो दूसरी ओर एक गुरु अपने सभी शिष्यों को शिक्षित करता है,   और तीसरी ओर प्रकृति जब कोई पाठ पढ़ाती है,  तो परिणाम सबके अलग-अलग आते हैं ।

कारण साफ है कि सीखने वाला जिस भाव के साथ सीखेगा उसको उतना ही समझ में आयेगा । लगभग 70 दिनों से अधिक लॉक डाउन में रहने के बाद भी लोग आज भी वही गलतियाँ कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि अनलॉक -1,  4 – 4 लॉक पर भारी पड़ रहा है। जैसे पंछी मौका पाते ही फुर्र से उड़ जाता है वैसे ही अधिकांश लोग बिना कार्य ही घूमने निकल पड़े हैं। सोशल डिस्टेंस तो मानो बीते युग की बात हो, मास्क के नाम पर कुछ भी लपेटा और चल दिये।

चारों ओर फिर से मरीज दिखने लगे, अब तो डॉक्टर ये भी नहीं पता लगा पा रहे कि ये रोग रोगियों को कैसे लगा। रोगों के लक्षण भी नहीं दिख रहे। पर कहते हैं न कि  सच्ची शिक्षा कभी व्यर्थ नहीं जाती तो कुछ लोगों ने ये ठान लिया है कि इससे निजात पाना ही है। सो अच्छाई ने पंख धारण कर उड़ान भरना शुरू कर दिया है। अब लोग न केवल खुद जागरुक हो रहे हैं वरन जो लापरवाही करते दिख रहा है उसे भी टोकते हैं। जिस प्रकार एक मॉनिटर पूरे क्लास को संभाल लेता है वैसे ही सच्चे नागरिक को स्वयं जिम्मेदार नागरिक का फर्ज निभाते हुए  सारे सुरक्षा  नियमों का पालन करना व करवाना चाहिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 52 – नई राह ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नई राह। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 52 ☆

☆ लघुकथा –  नई राह ☆

 

“बेटा  ! ये भगवा वस्त्र क्यों धारण कर लिए. क्या शादी नहीं करोगे ?”

“नहीं काका ! मुझे मेरे मम्मी-पापा जैसा नहीं बनाना है.”

“तब क्या करोगे तुम.”

“पहले प्रकृतिस्थ बनूंगा.”

“मतलब ?”

“पहले मैं नदी से सरसता व सरलता का पाठ सीखूंगा . फिर कबूतर जैसा शांत बनूँगा. तब मेरे इस कुत्ते से वफादारी ग्रहण करूँगा.”

“मगर यह सब क्यों बेटा?”

“ताकि मम्मी-पापा की तरह नफरत व छल-कपट की तरह जीने वाले माता-पिता को एक नई राह दिखा सकू.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१५/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 31 ☆ कोरोना पर वार करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण कविता  “कोरोना पर वार करो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 31 ☆

☆  कोरोना पर वार करो  ☆ 

देश हमें यदि प्यारा है तो

कोरोना पर वार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है

मिलकर सभी प्रहार करो

 

बचो-बचाओ मिलने से भी

घर से बाहर कम निकलो

भीड़-भाड़ में कभी न जाओ

कुछ दिन अंदर ही रह लो

 

हाथ मिलाना छोड़ो मित्रो

हाथ जोड़कर प्यार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है

मिलकर सभी प्रहार करो

 

साफ-सफाई रखो सदा ही

घर पर हों या बाहर भी

हाथ साफ करना मत भूलो

यही प्राथमिक मंतर भी

 

करना है तो मन से करना

सबका ही उपकार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है

मिलकर सभी प्रहार करो

 

मन को रखना बस में अपने

बाहर का खाना छोड़ें

घर में व्यंजन स्वयं बनाना

बाहर से लाना छोड़ें

 

शाकाहारी भोजन अच्छा

उसका ही सत्कार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है

मिलकर सभी प्रहार करो

 

अपने को मजबूत बनाओ

योगासन-व्यायाम करो

बातों में मत समय गँवाओ

दिनचर्या अभिराम करो

 

प्रातःकाल जगें खुश होकर

आदत स्वयं सुधार करो

हम सबका जीवन अमूल्य है

मिलकर सभी प्रहार करो

देश हमें यदि प्यारा है तो

कोरोना पर वार करो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विडंबन कविता – आम्ही  बुढ्या—– ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है नाटक—शारदा. गीत—म्हातारा इतुका न– पर आधारित आपकी एक विडंबन कविता – आम्ही  बुढ्या—–  हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆ विडंबन  गीत—-आम्ही  बुढ्या—– ☆

 

म्हातार्ऱ्या  इतुक्या न  अवघे पाऊणशे  वयमान.

ऊर्जा अजून महान अवघे पाऊणशे वयमान  ।।

 

दंताजींच्या  जागी  बसली ‘ कवळी ‘ कोवळि छान

फ्याशन चा चष्मा चेहर्ऱ्याला, देइ पोक्तशी  शान.

 

अशक्त  थोडे कान  काढती तर्काने अनुमान

‘हो ना हो ना’करते अजुनी  ताठ आमुची मान ।।

 

ड्रेस, गाऊन, बॉयकट  करुनी  परत  जाहलो सान

एसटी  देते  तिकीट  अर्धे  पुन्हां  उलटले  पान ।।

 

‘वय  झाले  वय झाले ‘म्हणुनी गात राहतो  गान

चूक भूलही  क्षम्य  अम्हाला  समाज देतो  मान ।।

 

सिनिअर  सिटिझन  ‘स्मार्ट  पदविने त्रुप्त जाहले कान

म्हातार्ऱ्या म्हणु नकाच, अवघे पाऊणशे वयमान ।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372, 8806955070

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 49 –एक छोटासा प्रयत्न…. ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “एक छोटासा प्रयत्न….”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #49 ☆ 

☆ एक छोटासा प्रयत्न…. ☆ 

 

एकटा एकटा घाबरतो मी

जेवढे तेवढे सावरतो मी…!

 

भेटलो मी तुला आठवतो का

बोलता बोलता चाचरतो मी…!

 

ऐवढे का मनी साठवते तू

तू मला सांगना आवरतो मी ….!

 

हे तुझे लाजणे जागवते ही

रात्रही चांदणी पांघरतो मी…!

 

ऐवढी तू मला घाबरते की

पाहता पाहता बावरतो मी…

 

का अशी सांगना रागवते तू

घेऊनी काळजी वावरतो मी…!

 

हा असा मी तुला आवडतो ना …

का सुज्या एवढा गांगरतो मी…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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