English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 23 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 23 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 23) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 23☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तमाम  उम्र  मैं  इक

अजनबी घर में  रहा

सफ़र न करते हुए भी

हमेशा  सफ़र में  रहा

 

वो  तो जिस्म ही था जो

भटका किया  ज़माने में,

मगर दिल तो मेरा हमेशा

तेरी डगर में भटकता रहा…

 

All my life kept staying

In  a  stranger’s  house

Even while not traveling

I remained in journey only

 

That was just my body which

Kept wandering everywhere,

But my heart always kept

Following  your footsteps…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरी मोहब्बत ने हमे

तो बेनाम कर दिया,

हमे  हर  ख़ुशी  से

मरहूम  कर  दिया

 

हमने तो कभी चाहा ही

नहीं कि हमे मोहब्बत हो,

मगर तेरी पहली नज़र ने

हमें तो नीलाम कर दिया…

 

Your love has made

Me utterly nameless,

It  deprived  me  of 

every possible pleasure

      

I had never desired

To ever fall in love, but

Your very glance itself

Got  me  auctioned …

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 23 ☆ गीत – आज के इस दौर में भी☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी का एक  गीत – आज के इस दौर में भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 23 ☆ 

☆ गीत – आज के इस दौर में भी ☆ 

आज के इस दौर में भी समर्पण अध्याय हम

साधना संजीव होती किस तरह पर्याय हम

 

मन सतत बहता रहा है नर्मदा के घाट पर

तन तुम्हें तहता रहा है श्वास की हर बाट पर

जब भरी निश्वास; साहस शांति आशा ने दिया

सदा करता राज बहादुर; हुए सदुपाय हम

 

आपदा पहली नहीं कोविद; अनेकों झेलकर

लिखी मन्वन्तर कथाएँ अगिन लड़-भिड़ मेलकर

साक्ष्य तुहिना-कण कहें हर कली झरकर फिर खिले

हौसला धरकर; मुसीबत हर मिटाने धाय हम

 

ओम पुष्पा व्योम में, हनुमान सूरज की किरण

वरण कर को विद यहाँ? खोजें करें भारत भ्रमण

सूर सुषमा कृष्ण मोहन की सके बिन नयन लख

खिल गया राजीव पूनम में विनत मुस्काय हम

 

महामारी पूजते हम तुम्हें; माता शीतला

मिटा निर्बल मंदमति, मेटो मलिनता बन बला

श्लोक दुर्गा शती, चौपाई लिए मानस मुदित

काय को रोना?, न कोरोना हुए निरुपाय हम

 

गीत गूँजेंगे मिलन के, सृजन के निश-दिन सुनो

जहाँ थे हम बहुत आगे बढ़ेंगे, तुम सिर धुनो

बुनो सपने मीत मिल, अरि शीघ्र माटी में मिलो

सात पग धर, सात जन्मों संग पा हर्षाय हम

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२९-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग-१ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

श्लोक—

यत्रसाक्षान्महादेवो देहान्तेस्ययीश्वर:।  व्याचष्टे तारकंब्रह्म तत्रैवहविमुक्तके।।१।।

वरूणायास्थ चास्येमध्ये वाराणसीं पुरी। तत्रैवस्थितंतत्वं नित्यमेव विभुक्तमं।।२।।

वाराणस्या:परस्थानं भूतों न भविष्यति। यत्र नारायणो देवों महादेवों दीवीश्वर:।।३।।

महापातकिनों देवी ये तेभ्यपापवृत्तमा:। वाराणसींसमासाद्यं तेयांति परमांम् गति।।४।।

तस्मान्मुमुक्षुर्नियतो बसे द्वै मरणांतकम्। वाराणस्यो महादेवान्ज्ञान लब्ध्वा विमुच्यते।।५।।

(पद्मपुराण स्वर्गखंड ३३–४६—४९–५०–५२—५३)

अर्थात् अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी में (वरूणा और असि) के बीच के क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होने पर मैं अर्थात महादेव जीवन जगत को तारक मंत्र (रामनाम) का उपदेश दे कर मोक्ष प्रदान करता हूँ। वरूणा और असि का यह क्षेत्र ही वाराणसी पुरी के नाम से विख्यात है। जहां नित्य विमुक्त तत्व विराज मान है। वाराणसी से उत्तम स्थान न तो हुआ है न तो होगा। जहां भगवान श्री नारायण हरि तथा मै महादेव स्वयं काशी के कण कण में विराजमान हूँ। हे देवि जो महापात की पापाचार में लिप्त है, वो वाराणसी में आकर समस्त पापों से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त करता है। मुमुक्षु पुरुष तो मृत्यु पर्यंत काशी वास की कामना करते हैं। जहां वह मुझसे आत्मज्ञान पा परमगति मोक्ष पा कर बंधनों से मुक्त हो जाता है।

पौराणिक श्रुति के अनुसार इस काशी का अस्तित्व शिव के त्रिशूल पर टिका है, जहां पिशाच मोचन कुंड पर भगवान विश्वनाथ कपर्दीश्वर महादेव के रूप में पूजित हो जीव को प्रेत योनि से मुक्त करते हैं। और व्यक्ति ब्रह्महत्या के पातक दोष से मुक्त हो जाता है। इस क्रम में पद्मपुराण में वर्णित  शंकुकर्ण ऋषि तथा प्रेतात्मा संवाद कथा पठन योग्य है। जहां धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी व्यक्ति प्रेतात्मा दोष निवारणार्थ तथा पितृ मोक्ष हेतु गया तीर्थ जाने से पूर्व पिशाच मोचन कुंड में स्नान कर  कपर्दीश्वर महादेव का पूजन कर पिंडदान करने का शास्त्रोक्त विधान है।

चौपाई —

विश्वनाथ मम नाथ पुरारी,

त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी।

(रा०च०मानस० बा०काण्ड१०६)

श्रीरामचरितमानस का पाठ करते समय अचानक इस चौ० के चरणांश पर नजरें सहसा ठिठक जाती है। तब काशी के अधिष्ठाता भगवान विश्वनाथ का स्वरूप काशी की महिमा उसकी अलमस्त शाही फकीराना अंदाज की जीवन शैली तथा काशी का प्राचीन इतिहास हमारी स्मृतियों में सजीव हो झांक उठता है।

ये वही काशी है, जिसकी आत्मा, मिट्टी तथा जीवन शैली में अध्यात्म गहराई से रचा बसा है। यहाँ की गलियों में बसे मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों, गिरजाघरों से उठती धूप, दीप, लोहबान, फूलो, अगरबत्तियों आदि की सुगंध तथा पवित्र मन से की गई पूजा आराधना घंटों घड़ियालों की ध्वनि वेद ऋचाओं का पाठ, मस्जिदों के परकोटो से आती अजान की ध्वनि, यहाँ की फक्कड़पन भरी जीवन शैली वाली फिज़ा में अमृत वर्षा करती कानों में मिठास घोल जाती है। गंगा घाटों के उपर मंडराते प्रवासी पक्षियों के झुंड तथा मस्ज़िदों के परकोटे पर दाना चुगते परिंदो की जमातें, जाति धर्म के झगड़ो से परे प्यार की बोली, भाषा समझने वाले जीव उन्मुक्त गगन में पंख  पसारे सिर के उपर गुजरते है तो बहुत कुछ कह जाते है। वे कभी मंदिर मस्जिद में भेद नहीं मानते।

वहीं पर गंगा की धारा पर स्वछंद अठखेलियां करती, विचरती  रंग बिरंगी नावें सहजता से आकाश में उड़ने वाली  पतंगो का भ्रम पैदा कर देती है। ऐसा लगता है कि रंग-बिरंगी पतंगों से आच्छादित आकाशगंगा धरती पर उतर आई हो। वहीं उन नावों में सवार  यात्री समूहों से उठने वाली भक्ति रस से सराबोर लोक धुनों पर आधारित स्वर लहरियां बरबस ही लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र ‌बिंदु बन जाती है।

वे ध्वनियां जब कर्णपटल से टकराती है, तब मन के तार झंकृत करती हुई दिल में उतर जाती हैं। यहाँ की प्राचीन सभ्यता आज भी अपने आप में ‌इंसानियत का दामन थामे शांति पूर्ण सौहार्द के वातावरण का सृजन करती है।

यही कारण है कि आज भी हिंदू धर्मावलंबी मोक्षकामना लिए तथा अन्य लोग शांति की चाह लेकर काशी की जीवन पद्धति समझने के लिए आते हैं और अपने जीवन के अनमोल क्षण काशी को समर्पित करना चाहते हैं। कुछ तो मोक्ष की चाहत में यहीं के होकर रह जाते हैं।

श्री रामचरितमानस जिसकी रचना संत तुलसीदास जी ने काशी की गोद में बैठ कर की थी, काशी की महिमा लिखते हुए कहते हैं।

सोरठा—

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।

तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥

(रा०च०मानस किष्किंधा—२)

अर्थात् जो जन्म के बंधनों से मुक्ति देती है, ज्ञान की खान है पापों का नाश करने वाली है, उस काशी का सेवन क्यों न करें। जब काल कूट बिष के प्रभाव से सृष्टि का जीवन जल रहा था, उस विष को लोक हित में  जिसने पिया हो, ऐ मूढ़ मतिमंद इस शिव के समान दूसरा कौन कृपालु है जिसके लिए तूं अन्यत्र भटक रहा है, वैसे काशी और काशी के नाथ विश्वनाथ का इतिहास युगों-युगों पुराना है, ऐसा विद्वानों तथा पुराणों का मत है। लेकिन मेरा अपना मानना है कि काशी गंगा से भी अतिप्राचीन इतिहास के कालखंड का हिस्सा है। पौराणिक काल की गंगा अवतरण का किस्सा तो राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयास का परिणाम है, लेकिन उनके कई पीढ़ी पूर्व उनके पूर्वज काशी आकर सत्यपथ का अनुसरण कर खुद को डोमराजा के हाथ बेच चुके थे। यह तथ्य पौराणिक कथाओं के अध्ययन से  उद्घाटित होता है। इसकी अपनी अलग ही सांस्कृतिक विरासत तथा समृद्धशाली जीवन शैली है। जहां के लोग कुछ पाने नहीं कुछ देने का भाव रखते हैं।

ये वही काशी है जहां की गरिमा तथा मर्यादा की रक्षा में विरक्तिपूर्ण त्यागमयी जीवन शैली अपनाकर नित्य उच्च आदर्शो के नये किर्तिमान गढ़ते संत समाज के दर्शन किए जा सकते हैं। इसी जीवन क्रम में शंकराचार्य, संत रविदास, संत कबीर दास, संत तुलसीदास, पं मदन मोहन मालवीय, मीरा, झांसी की रानी (मनु), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रशेखर आजाद के त्याग तपस्या, भक्ति तथा साहित्य साधना के कर्मों के इतिहास सिमटे भरे पड़े हैं, जो काशी को गरिमामयी गौरव प्रदान करते हैं तथा काशी की गरिमा में चार चांद लगा देते हैं।

शेष क्रमशः अगले अंक में ——-

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 10 ☆ वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  1962 के भारत चीन युद्ध की एक वीरगाथा पर आधारित  कविता  वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य  एवं उनसे सम्बंधित आलेख।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 10☆

☆ वीर शहीद जसवंत सिंह का जीवंत शौर्य ☆

 हैं हिंद की सेना में कई वीर यों महान

सुन जिनका पराक्रम सभी रह जाते हैरान

 

मन में उमड़ता जोश आता खून में उबाल

बांहें फड़कती खींच लेने दुश्मनों की खाल

 

अरुणाचल में जसवंतगढ़ नूरा तांग के पास

ऐसे ही वीर जसवंत का जीवंत है इतिहास

 

उनकी ही याद में वहां उनका मंदिर बना हुआ

जिसमें सुरक्षित आज भी उनका सभी सामान

 

गहरा था उन्हें  देश प्रेम घने आस्था विश्वास

लड़ते रहे वे तीन दिनों तज भूख और प्यास

 

शैला और नूरा बहनों ने दे भोजन किया उपकार

जिससे बढा था हौसला दुश्मन को सके  मार

 

उनने अकेले तीन सौ चीनियों को मारा

पकड़ा उन्हें जब वे  थे थके अकेला बेसहारा

 

यह महावीर योद्धा थे जसवंत सिंह रावत

जो सच में सिंह से निडर थे जैसी है कहावत

 

गढ़वाल देवभूमि के थे वे मूल निवासी

कर्तव्य ऐसा प्यारा कि मरकर भी करें ड्यूटी

वीर वे अब भी हैं वहां अशरीर  निगहवान

भारत महान धन्य जिसे ऐसे वीरों का वरदान

 

देवभूमि उत्तराखंड ना केवल अपने देवी-देवताओं और उनके मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है बल्कि यह अपनी वीरता के लिए भी मशहूर है। देवभूमि का एक ऐसा ही महान वीर था जसवंत सिंह रावत। भारत और चीन के बीच 1962 की लड़ाई में वीर जसवंत सिंह रावत ने चीनी सेना को नाको चने चबवा दिया था। उन्होंने अकेले ही 72 घंटो तक चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतारा दिया। जानकार कहते हैं कि जसवंत सिंह एक की वीरता का लोहा चीनी सेना ने भी माना था। उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए देश और पूरा उत्तराखंड हमेशा उन्हें याद रखेगा। आइए जानते हैं कि कैसे जसवंत सिंह ने तीन दिन तक चीनी सेना की नाक में दम करके रखा।

जसवसंत सिंह रावत हैं कौन

वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के ग्राम-बाड्यूं ,पट्टी-खाटली,ब्लाक-बीरोखाल, जिला-पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। आपको बता दें कि जिस समय जसवंत सिंह सेना में भर्ती होने गए थे उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी। जिस कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक दिया गया था। इसके बाद फिर उनकी उम्र होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती किया गया। वह 1962 की लड़ाई में चीनी सेना के खिलाफ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

नूरानांग युद्ध

चीन ने 17 नवंबर 1962 को अरुणाचल प्रदेश पर पर कब्जा करने के लिए चौथा व आखिरी हमला किया। जिस समय चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर हमला किया उस समय अरुणाचल की सीमा पर भारतीय सेना की तैनाती नहीं थी। जिसका फायदा उठाकर चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। चीन ने अरुणाचल पर हमला कर काफी तबाही मचाई और महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले गए। चीनी सेना ने वहां औरतों की इज्जत भी लूटी।

गढ़वाल राइफल की तैनाती

चीनी सेना को रोकने के लिए वहां गढ़वाल रायफल की 4ह्लद्ध बटालियन को वहां भेजा गया। वीर जसवंत सिंह रावत इस बटालियन के एक सिपाही थ, लेकिन सेना के जवानों के पास चीनी सेना का भरपूर जवाब देने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद उपलब्ध नहीं था। जिस कारण चीनी सेना अरुणाचल से सेना के जवानों को वापस बुलाने का फैसला किया गया। सरकार के आदेश के बाद पूरी गढ़वाल बटालियन वापस लौट आई। लेकिन गढ़वाल राइफल के तीन जवान रायफल मैन जसवंत सिंह रावत, लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी, रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं वापस नहीं लौटे। वीर जसवंत सिंह ने अपने दोनों साथियों लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी और रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं को वापस भेज दिया और खुद नूरानांग की पोस्ट पर तैनात होकर चीनी सेना को आगे बढऩे से रोकने का फैसला किया।

जसवसंत सिंह रावत ने 300 चीनी सैनिकों को उतारा मौत के घाट

वीर जसवंत सिंह ने अकेले ही 72 घंटो तक लड़ते हुए चीनी सेना के 300 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और किसी को भी आगे नहीं बढऩे दिया गया। वीर जसवंत सिंह जितने बहादुर थे उतने ही वह चालाक भी थे। उन्होंने अपनी चतुराई और बहादुरी के बल पर चीनी सेना को 3 घंटों तक रोके रखा। इसके लिए उन्होंने पोस्ट की अलग अलग जगहों पर रायफल तैनात कर दी थी और कुछ इस तरह से फायरिंग कर रहे थे जिससे की चीन की सेना को लगा यहां एक अकेला जवान नहीं बल्कि पूरी की पूरी बटालियन मौजूद हैं।

शैला और नूरा ने क्या किया

इस बीच रावत के लिए खाने पीने का सामान और उनकी रसद आपूर्ति वहां की दो बहनों शैला और नूरा ने की जिनकी शहादत को भी कम नहीं आंका जा सकता। 72 घंटे तक चीन की सेना ये नहीं समझ पाई की उनके साथ लडऩे वाला एक अकेला सैनिक है। फिर 3 दिन के बाद जब नूरा को चीनी सैनिको ने पकड़ दिया तो उन्होंने इधर से रसद आपूर्ति करने वाली शैला पर ग्रेनेड से हमला किया और वीरांगना शैला शहीद हो गई। उसके बाद उन्होंने नूरा को भी मार दिया दिया और इनकी इतनी बड़ी शहादत को हमेशा के लिए जिंदा रखने के लिए आज भी नूरनाग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाडिय़ा है जिनको नूरा और शैला के नाम से जाना जाता है।

चीनी सेना ने जसवंत सिंह की बहादुरी को किया सम्मानित

नूरा और शैला की शहादत के बाद वीर जसवंत सिंह को मिलने वाली रसद आपर्ति कमजोर पडऩे लगी। बावजूद इसके वह दुश्मनों से लड़ते रहे, लेकिन रसद आपूर्ति की कमी के चलते आखिरकार उन्होंने 17 नवम्बर 1962 को खुद को गोली मार ली। चीनी सैनिको को जब पता चला कि वह 3 दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे तो वो भी हैरान रह गए। चीनी सेना जसवंत सिंह रावत का सर काटकर अपने देश ले गई। अंत में 20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। जिसके बाद चीनी कमांडर ने जसवंत सिंह की इस साहसिक बहादुरी को देखते हुए न सिर्फ जसवंत सिंह का शीश वापस लौटाया बल्कि सम्मान स्वरुप एक कांस की बनी हुई उनकी मूर्ति भी भेंट की।

वीर जसवंत के नाम का स्मारक

जसवंत सिंह ने जिस जगह पर चीनी सेना के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर उनके नाम का एक मंदिर बनाया गया है। जहां पर चीनी कमांडर द्वारा सौंपी गई जसवंत सिंह की मूर्ति को भी रखा गया है। भारतीय सेना का हर जवान उनको शीश झुकाने के बाद ड्यूटी करता है। वहां तैनात कई जवानों का कहना है कि जब भी कोई जवान ड्यूटी पर सोता है जसवंत सिंह रावत उनको थप्पड़ मारकर जगाते हैं। मानो वह उनके कानों में कहते हो की मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी करो क्योंकि देश की सुरक्षा तुम्हारे हाथो में है।

इनके नाम से नुरानांग में जसवंत गढ़ के नाम से एक जगह भी है। जहां इनका बहुत बड़ा स्मारक है। बता दें कि इस स्मारक में उनकी हर चीज को संभाल कर रखा गया है। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भी यहां इनके कपड़ो पर रोज प्रेस की जाती है। साथ ही रोज इनके बूटो पर पोलिश भी की जाती है। यही नहीं रोज सुबह दिन और रात की भोजन की पहली थाली जसवंत सिंह रावत जी को ही परोसी जाती ह। जसवंत सिंह रावत जी  भारतीय सेना के ऐसे पहले जवान है जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। रायफल मैन जसवंत सिंह आज कैप्टेन की पोस्ट पर हैं और उनके परिवार वालो को उनकी पूरी सैलरी दी जाती है।

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 56 – मला वाटले… ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #56 ☆ 

☆ मला वाटले … ☆ 

 

मला वाटले ,भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही,कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

येते म्हणाली ,होतीस तेव्हा जाता जाता

किती वाढले,दोघांमधले अंतर अंतर…!

 

रोज वाचतो,तू दिलेली ती पत्रे बित्रे

भिजून जाते,पत्रांमधले अक्षर अक्षर…!

 

तूला शोधतो,अजून मी ही जिकडेतिकडे

मला वाटते,मिळेल एखादे उत्तर बित्तर…!

 

स्वप्नात माझ्या,येतेस एकटी रात्री रात्री

नको वाटते,पहाट कधी ही रात्री नंतर…!

 

उभा राहिलो,ज्या वाटेवर एकटा एकटा

त्या वाटेचाही,रस्ता झाला नंतर नंतर…!

 

विसरून जावे,म्हणतो आता सारे सारे

कुठून येते,तूझी आठवण नंतर नंतर…!

 

मला वाटले,भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही,कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  का महात्मा गाँधी जयंती पर विशेष आलेख  “गांधी और जीवन मूल्य “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के आज के सन्दर्भ में इस सार्थक एवं  विचारणीय विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य  

जीवन मूल्य सामाजिक अभिलाषाओं का वह रूप होते हैं जो एक मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाते हैं और ये ऐसे नैतिक सिद्धांत व विश्वास भी हैं जो व्यक्ति के साथ-साथ समाज को भी उत्प्रेरित करते हैं।  इतना ही नहीं किसी भी संस्कृति के आध्यात्मिक, भौतिक और सौंदर्य परक मूल्यों में ये मानवीय मूल्य भीतरी तह तक समाए हुए होते हैं और मनुष्य को मानवता की ओर ले जाते हैं। उसे सामान्य मानव से ऊपर उठाकर उच्च और उदात्त मनुष्य बनाते हैं।

दुनिया भर के सभी महापुरुषों के जीवन मूल्य कमोबेश एक जैसे होते हैं। प्राय:शाश्वत और समावेशी होते हैं। लेकिन जब हम बापू के संदर्भ में मानवीय मूल्यों की बात करते हैं तो उनमें सबसे पहले मानवीय संवेदना आती है जिसे वह सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,अपरिग्रह, त्याग, निर्लोभ, वात्सल्य, करुणा और निर्लिप्त प्रेम से पोषित करते हैं। बापू के ये मानवीय मूल्य शाश्वतता के साथ ही अपनी समसामयिक आवश्यकता और प्रासंगिकता से लैस हैं। उनके ये मूल्य आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के काफ़ी बाद तक जन-जन में फैले हुए देखे जा सकते हैं।

वे मानवीय मूल्यों को समय और समाज के संदर्भ में देखते थे। उनके जीवन दर्शन से पता चलता है कि कभी बहुमूल्य रहे मानवीय मूल्यों को वह कभी सीधे-सीधे अपनाते नहीं हैं।  अपितु यथास्थिति वादियों से लोहा लते हुए समय और समाज के सापेक्ष रखकर तोलते हैं। यदि वे अनुकूल पाए जाते हैं तभी उन्हें अपनाते हैं फिर वे चाहे ब्राह्मण,उपनिषद या पौराणिक काल की मिथकीय धरोहर क्यों हों। ब्राह्मण कालीन कर्मकांड को उन्होंने अपने आचरण का हिस्सा नहीं बनाया। किसी भी धर्मग्रन्थ का जो हिस्सा उपयोगी था उसे लेकर शेष छोड़ दिया। प्राचीन काल से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को भले ही वह नकारते नहीं लेकिन उसमें व्याप्त अस्पृश्यता को वे सिरे से खारिज़ करते हैं और हृदय परिवर्तन के साथ वह उस वर्ग को अपनाते हैं, गले लगाते हैं, जिसे समाज वर्षो से उपेक्षित किए हुए था।  दलित बनाए हुए था ।

उनके मानवीय मूल्य लोकतंत्र के पोषक मूल्य हैं। जनकल्याण के पक्षधर मूल्य हैं। लोक कल्याणकारी सरकार की संस्थापना हेतु उन्होंने तुलसी का रामराज्य लिया और स्वराज की कल्पना को साकार करने में प्राणपण से जुट गए।

उनमें पक्षपात नहीं है। बुद्ध की करुणा की तरह ही इनकी करुणा भी एकरस होकर बहती है ।  वह किसी- किसी के लिए और कभी- कभी नहीं बहती और न ही कभी अवरुद्ध होती है बल्कि सभी के लिए अनवरत और अनवरुद्ध बहती है। उनका प्रेम किसी वर्ग या वर्ण के लिए आरक्षित न होकर पशु पक्षी से लेकर समस्त मानव जगत तक व्याप्त है।

हर जीव के जीवन को बहुमूल्य मानना भी उनका जीवन मूल्य है। लेकिन उनके अनुसार मनुष्य जीवन तो अनमोल है। उनमें संस्कार बहुत ज़रूरी है। वे निश्छल और सरल मन बच्चे को ही नहीं अपितु बड़े से बड़े पापी को भी संस्कारित करने की बात करते हैं । इसलिए वह उनमें भी संस्कार डालकर हृदय परिवर्तन कर मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने में विश्वास करते हैं। वे जीवन को गढ़ना सामाजिक धर्म मानते हैं और मूल्य भी।  बचपन में देखा गया नाटक सत्यवादी हरिश्चंद्र उनके जीवन को परिवर्तित करने वाला नाटक इसलिए भी सिद्ध हो सका क्योंकि उनमें बालपन से ही ऐसे संस्कार थे,जो मानव मूल्यों से आपूरित थे।  सत्य की रक्षा के लिए अपने राजपाट से लेकर अपनी संतान तक का खोना हरिश्चंद्र के लिए ही नहीं बापू के लिए भी आदर्श रहा और उसे उन्होंने जीवन भर भी निभाया। उन्होंने अपने प्राण सत्य, अहिंसा और मानवीय मूल्यों के लिए ही अर्पित कर दिये।

अत्याचार और असत्य का दृढ़ता से प्रतिकार उनका बहुमूल्य और समसामयिक  जीवन मूल्य रहा है। इसीलिए वे सदियों से शोषित समाज के उत्थान के लिए सत्य की प्रयोगशाला में परीक्षित मानववादी जीवन मूल्यों के पुरस्कर्ता बां सके थे । चुनौतियों के सामने पहाड़ की श्वेत धवल,शीतल बरफ़ीली चोटी-से निर्भय खड़े-खड़े सामना करने का साहस   रखने वाले अपराजेय योद्धा के रूप में  उन्हें सामने पाकर आखिरकार ब्रिटिश अत्याचार का ज्वालामुखी भी एक दिन ठण्डा ही पड़ गया।

अंतत:उनके जैसे अहिंसा और  सत्य के नि:शस्त्र आग्रही के आगे असत्य का क्रूर दानव नतमस्तक हो गया। वह इसलिए कि वे वर्तमान के स्रष्टा और भविष्य के द्रष्टा थे।   वे पराई पीर को अन्तर्मन से समझने वाले वैष्णव थे।

असहमति का विवेक उनका ऐसा जीवन मूल्य था जो उनके जीवन में विवादों का कारण रहा। लेकिन वे इससे रंच भी विचलित नहीं हुए।   गांधी जी अपने सत्याग्रह की व्याख्या में यह कहना नहीं भूलते कि उनके सत्याग्रह में केवल उन्हीं का सत्य शामिल नहीं है बल्कि विपक्षी का सत्य भी शामिल है। इसी के साथ वे असहमति के विवेक को भी बराबर महत्त्व देते थे। इसी कारण से वे अपने ‘हरिजन’और आंबेडकर के दलित विमर्श की सहमति -असहमति से ऊपर उठकर ‘पूना पैक्ट’ में सफल हुए थे। आंबेडकर के जाति उच्छेद को वे सही नहीं मानते थे। जाति उन्मूलन की ज़गह वे अस्पृश्यता का उच्छेद सही मानते थे। इस संदर्भ में उनका यह स्पष्ट कहना था कि,’स्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन हृदय परिवर्तन का आन्दोलन है। ‘जबकि बाबा साहेब आंबेडकर इनके ‘हरिजन’ शब्द से नफ़रत करते थे और मानते थे कि अगर जाति का नाश नहीं होगा तो स्पृश्यता का नाश सपना ही रह जाएगा।  किसी हद तक गाँधी के विचार आज अधिक प्रासंगिक लग रहे हैं कि अस्पृश्यता तो समाप्त हो गई पर जाति व्यवस्था अब भी है। स्वयं दलित ही आज अपनी जाति की पहचान को इसलिए नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि इससे उनके आरक्षण के अधिकार को आघात लगने का भय दिखता है।

वे मानव मूल्यों को केवल मानते ही नहीं थे,उनके पोषक भी थे। इन्हीं कारणों से एक आदर्श और नैतिक पिता के रूप में हम बापू को पाते हैं। इसीलिये तो वे सर्व स्वीकार्य राष्ट्रपिता हैं।

माता-पिता के दैहिक रूप पर कोई नहीं   रीझता। इसी से हर बच्चे को उसकी माँ ही सबसे प्यारी होती है उसके बाद पिता।  माँ के पहचनवाने पर कि उसका पिता कौन है बच्चा भी रूप-कुरूप के भेद से परे भाव से उसे अपना लेता है। मेरी माँ ने भी मुझे किसी शिशु के हिसाब से  डरावनी मूंछों वाले मेरे पिता से कब और कैसे परिचय कराया होगा यह तो होश नहीं लेकिन राष्ट्रपिता से परिचय का होश है।  मेरी माँ के ‘बापू’अवतारी थे और अवतारी नहीं थे तो कम से कम सिद्ध पुरुष अवश्य थे जो लखनऊ में ज़मीन में प्रवेश करके सीतापुर में निकलकर उनके बाबा से मिले थे।

विद्यालय में बापू के जिस चित्र को देखते हुए हम बड़े हुए वह पसलियां दर्शाती दुर्बल काया थी। आगे के दांत टूटे।  हाथ में लाठी लिए तेज़-तेज़ चलता अर्धनग्न शरीर वाला फ़कीर।

भौतिक आँखें तो चमक देखती हैं फिर वह चाहे सोने की हों या पीतल की।  ऐसे में वे भला रीझें  भी तो किस पर। बाहरी आंखों को क्या पता  कि वे रूपवान नहीं चरित्रवान थे और चरित्र तो नंगी आंखों देखा नहीं जा सकता उसके लिए तो भीतरी आँखें  चाहिए।

गाँधी अपने वात्सल्य और चरित्र के कारण आज भारत ही नहीं सारी दुनिया में पूजे जा रहे  हैं। सारी दुनिया उन्हें पिता मान रही है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि  अपने मानव मूूल्यों के चलते ही हमारे राष्ट्र पिता आज विश्व पिता हो गए हैं।

इस दुनिया का बच्चा- बच्चा गाँधी से प्रभावित हुआ है तो हम  भला कैसे अछूते रह जाते।  हम भी प्रभावित हुए थे।   लेकिन गांधी के विचारों को मलिन करने वालों के कारण हमारा बालमन उस समय आहत हुआ था जब गाँँधी के कुटीर उद्दयोग  में इकलौते बचे उनके चरखे की अर्थी उठाकर हम भी दस-ग्यारह विद्यार्थी पहली बार गांव से बाहर  पांचवीं की परीक्षा देने गए थे। हाथ में रुई (कपास) लिए-लिए उकता गए थे।  चरखा एक, कातने वाले दस । अपनी बारी आने तक रुई हथेली के पसीने से भीग भी गई थी। इसके बाद उसे काता हमारे गुरु जी ने था। यह गाँधी दर्शन और उनके आर्थिक विचारों का उनकी ही संतानों द्वारा किया जा रहा अन्तिम सम्मान या संस्कार था, जिससे पूर्व किशोरवास्था में ही हमारा परिचय हो गया था। उस इम्तिहान से पहले हमने सिर्फ तकली,रुई और बापू को देखा था लेकिन चरखे को नहीं। यहाँ तक कि चित्र में भी नहीं। शायद इसीलिए बचपन में तो उतना नहीं रीझे जितनी मेरी माँ रीझी थी।   अपनी  माँ की तरह ही थोड़ा बड़े यानी समझने लायक होने पर मैं भी रीझा और पाया कि अपने ही घर में उपेक्षित होने के बावजूद बापू पर मैं ही क्या  सारी दुनिया रीझी हुई है और ऐसी रीझी हुई है कि जैसे चुंबक  पर लोहा रीझता है।  उनकी आत्मा के चुंबक के जो भी  करीब आया उसे  ऐसे चिपकाया जैसे जनम-जनम से वह उनका ही रहा हो या  होकर रह गया हो और अब तो पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि  उनपर जो नहीं रीझा या रीझ रहा वह संवेदनशील मनुष्य तो क्या  हाँड़-माँस  का   विवेक शून्य पशु भी नहीं यहाँँ तक कि  जड़  भी  नहीं।

मूल्य भले अमूर्त होते हैं लेकिन आचरण में ढलकर मूर्त हो उठते हैं। गांंधी का चरित्र  बड़ा कीमती चरित्र इसलिए बन सका है कि मूल्य उनके आचरण की टकसाल में ढाले गए हैं।  वे जितना जज के लिए कीमती हैं उतना ही किसी  अपराधी के लिए भी। उनके विचार एक विशुद्ध दार्शनिक के ही विचार नहीं बल्कि सहृदय और विवेकशील पिता के  भी विचार हैं । ‘आँख के बदले आँख’ से तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी और ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के माध्यम सेे वे जहाँ जज के लिए मार्गदर्शन करते हैं  वहीं चोर के लिए भी आत्म सुधार का रास्ता खोलते हैं। हृदय परिवर्तन से पापी में भी सच्चाई,ईमानदारी,कर्तव्यनिष्ठा,सहिष्णुता,करुणा,अहिंसा,प्रेम,सौहार्द,विश्वास,आस्था और आदर भाव जैसे मानवीय मूल्य स्थापित किए जा सकने में पूरा विश्वास रखते थे।

वे साध्य की शुद्धता से अधिक साधन की शुद्धता पर जोर देते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में यही सबसे सुंदर और कारगर औजार था जिससे हम सुंदर समाज की संरचना कर सकते थे। इसीलिए गांधी   क्या उनके हर अनुयायी को  इन  दो बातों से चिढ़ थी। एक ओर  सब  कुुुछ  चुपचाप   सहे  जाना और दूसरी ओर  सारे शोषण को रातोंरात मिटा देने का उन्माद। अत:बापू के  हिसाब से  अत्याचार सहना स्पष्टत: कायरता थी। ऐसे निर्भय और  आत्मनिर्भर  समाज की सरंचना  करनेे वाले को आज दबे-छिपे और कहीं-कहीं तो खुलेआम  भी  गालियाँ  दी जा रही हैं ।  लेकिन वे इसके परिणाम पहले ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी एक सटीक बात कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों ,परस्पर सम्मान,और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार करते हैं।   ”

वे सौंदर्य परक मूल्यों को अच्छी तरह समझते थे। लेकिन वे उन्हें रोटी,कपड़ा और मकान के भौतिक मूल्यों से जोड़कर देखने के पक्षधर थे। गाँव -गाँव  और घर-घर स्वच्छता और खुशहाली चाहते थे। समता और बंधुता उनके मूल्य ही नहीं आत्मीय संकल्प थे। इसके वे औरों के सामने जीवंत आदर्श रख रहे थे । वह इसलिए भी कि इससे उनका दिल दुखता था।  अस्पृश्यता का निवारण वे शब्दों से नहीं आचरण से चाहते थे। इसीलिए वे अपने शौचालय स्वयं साफ़ करें। श्रम की कद्र करने के लिये वे अपने जूते-चप्पल स्वयं भी गांठते थे। उनके  अनुसार खादी और ग्रामोद्योग से बिना पूंजी और कौशल के भी  ग्रामीणों को रोजगार मिल सकता है। वे कहते थे,”बुद्धि, श्रम और कौशल   को अलग करने से गांवों की  अनदेखी का अपराध हुआ है और  इसी लिए हमें गांवों में  सौन्दर्य की जगह कूड़े के ढेर  नज़र आते हैं । ”

निर्भयता और अचौर्य भी उनके अपरिहार्य जीवन मूल्य थे। प्राय: हम लोग उनकी अहिंसा को कायरता समझते हैं लेकिन यह हमारी भारी भूल है। वह एक अहिंसक को निडर व्यक्ति बनाते हैं, कायर नहीं । उनका मानना है कि कायर कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता। हम दुर्बल हैं।  हिंसक हैं। कायर हैं। इसलिए बापू को नहीं समझ पाते।  हम बापू को इसलिए भी नहीं समझ पाते क्योंकि हम भीतर से चोर और बाहर से कोतवाल हैं। बहुत से लोगों का आरोप है कि गाँधी जी ने शहीद भगत सिंह की पैरवी नहीं की। इसे मैं मारीशस के यशस्वी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के ‘गांधी जी बोले थे’ उपन्यास के पात्र  देवराज का सहारा लेते हुए साफ़ करना चाहूँगा कि यही एक पड़ाव है जहाँ वे अपने सिद्धांत के विरुद्ध जाते हुए मिलते हैं, जिसे एक विदेशी साहित्यकार तो स्वीकारता है लेकिन हममें वैसा साहस नहीं।  क्योंकि हमें उनके व्यक्तित्त्व की विराटता सहन नहीं होती। इसलिए हर बड़ी लकीर की तरह इसे भी छोटी करने के उपक्रम करते रहते हैं। हिंसा के बदले हिंसा वाला चरित्र बताता है कि उपन्यासकार के मनो मस्तिष्क में स्वाधीनता के लिये हिंसा के पक्षधर क्रान्तिकारियों का पक्ष भी है और उनके प्रति अहिंसक गाँधी का सॉफ़्ट कार्नर भी। उसे वह गांधीवादी मदन के माध्यम से कहलवाता है कि,”देव !तुम निर्दोषों को फांसी चढ़ने से रोकने के लिए खुद अपनी गर्दन में फंदा डाल बैठे। ”    यह गांंधी का  ईमानदार   चारित्र  ही है जो  उन्हें  देश-काल से  बाहर ले जाता है ।

अचौर्य व अपरिग्रह का पाठ  उन्होंने जन-जन को पढ़ाया  कि किसी के खेत से कुछ मत छूना। जो लेना हो बस अपने खेत से लाओ।  अपने आचरण से हमें अपरिग्रह भी सिखाया और अहिंसा भी।

उनके आचरण की पाठशाला जीवन्त दूर शिक्षण शाला की तरह थी। इसी से बापू से ही सीख कर जो बड़े स्तर पर बापू ने सारी दुनिया के लिए  किया वही  मेेेरी माँ ने मेरे लिए किया।  बचपन मेें मुझे मेरी निरक्षर माँ  पढ़ाती थी और किसी के घर या खेत से कुछ लाने के लिए साफ़ मना करती थी।    वह जहाँ पढ़ी  थी वह पाठशाला बापू की जीवनी थी और  वहाँ उसका शिक्षक कोई और नहीं बस बापू का सुना-सुनाया आचरण था।  इस अर्थ मेें बापू सारी दुनिया  केे लिए   एक आदर्श पिता के साथ-साथ प्राथमिक अध्यापक भी कहे जा सकते हैं।

वे एक जागरूक पिता की तरह सेवा और सदाचार भाव के साथ भारतीय जनमानस को तैयार कर रहे थे,जिसमें धर्म सर्वोपरि था। लेकिन उनका धर्म ऐसा धर्म था जिसमें सच में सारी वसुधा और उसके जन समाए हुए थे फिर वे चाहे किसी भी भूभाग के या किसी भी पंथ को मानने वाले क्यों नहों। उनके इसी विराट वैश्विक व्यक्तित्त्व वाले सजग नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस  पला -पुसा। भटके और डरे हुए भारत को वे धर्माध्यात्म,नीति,समाजनीति,संयम,सत्याचरण ,अहिंसा, राजनीति,आत्मबल वाली जीवनोपयोगी शिक्षा और दर्शन सब एक साथ सिखा-समझा रहे थे।  गाँधी  और उनके जीवन-दर्शन के विशेषज्ञ आचार्य नन्द किशोर कहते हैं,”महात्मा गांधी जब सत्य को ही ईश्वर कहते हैं तो स्पष्टत: धर्म से उनका आशय सत्य की साधना के उपाय से हो जाता है।  वे संपूर्ण सृष्टि को सत्य अर्थात् ईश्वर और उसकी सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते हैं। इस तरह  मानवता की सेवा ही गांधी जी के लिए धर्म है,क्योंकि उसके माध्यम से वे सत्य को पा सकते हैं। “गांधी जी ने साफ़  शब्दों में कहा है कि ,”जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है,वे धर्म का अर्थ नहीं जानते। ”

गाँधी सब धर्मों से प्रभावित हैं।  इसलिए उनके राजनीतिक मूल्य मानवीय मूल्यों के पोषक मूल्य हैं। वे उनके दुरुपयोग  से भी भिज्ञ थे। ऋषि  हृदय बापू को पूर्वाभास था कि एक न एक दिन मंदिर-मस्ज़िद,गिरिजाघर और गुरुद्वारे में राजनीति और राजनीतिक  दलों के कार्यालयों और सभा स्थलों पर किसान,मज़दूर और मज़बूर के दर्द के बजाय अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म की तकरीरें होंगी। शायद इसीलिए वे कहते थे,”धर्मों के भीतर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से लुप्त हो रहा है। ” इसके दुष्परिणाम बापू  भलीभाँति जानते थे ।

प्रयोगधर्मिता भी उनका मानवीय मूल्य था। इसीलिए दुनियावी दृष्टि में यदि कहीं विफल नज़र आएँ तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञान में भी सारे प्रयोग सफल नहीं होते। जो प्रयोग सफल होता है उसी पर सिद्धांत बनते हैं। इसीलिए बापू की किसी विफलता के पहले उनका यह विचार जानना बहुत ज़रूरी है कि उनका आखिरी कथन,विचार या प्रयोग ही अमल में लाया जाए । इस परिप्रेक्ष्य में यह कथन बहुत उपयोगी है कि ‘उनका जीवन ही उनका संदेश है। ‘

जो गांधी की विफलता का ढोल पीटते हैं और उसे  रेखांकित करते हुए यह बार-बार बताते हैं कि उन्होंने देश का सत्यानाश कर दिया, उन्हें  बापू को तोपों वाली सेना के सामने निडर खड़े भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में समझना होगा।  उनको उनके ही समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर पता चलेगा कि वे(बापू) कितने कीमती थे,जिनके व्यक्तित्त्व का असर देश की सीमाओं को लाँघ सात समुद्र पार तक पहुँच गया था ।

नैतिकता और पवित्रता भी बापू के जीवन मूल्य थे। इसी से वे पूँजी के प्रवाह में प्रगतिगामी नैतिकता को प्रमुख स्थान देते हैं और ट्रस्टीशिप जैसे मूल्य को जोड़ कर उसके प्रवाह को गंगा की तरह पवित्र बनाना चाहते हैं।  बापू   को  समझने  वाले जानते  हैं  कि  वे निर्धन समाज के लिए उसी तरह बराबर चिंतित रहे जिस तरह से कोई भी पिता अपनी संतानों में सबसे अधिक निकटता अपनी कमजोर  संतान के प्रति   रखता है। वे भी इनके प्रति ऐसे ही चिंतित रहे जैसे बापू की चिंता के केंद्र में दुनिया भर के दुखी -दरिद्र रहे।  मारीशस और दक्षिण अफ्रीका के गिरटिया मज़दूरों और  शोषित लोगों के साथ तो वे प्रत्यक्ष रूप से भी खड़े रहे। उनकेअर्थ दर्शन के पीछे  यथार्थ की आँच में तपे प्रौढ़  और अनुभवी मुखिया का अर्थिक चिंतन था।  बापूअर्थशास्त्र की बुनियादी चिंताओं की  ओर ध्यान देने वाले राजनीतिज्ञ थे। प्लेटो के बाद बापू ही दुनिया के सबसे आध्यात्मिक राजनीतिक विचारक हैं।

मेरी राय में वे किसी देश की अर्थ व्यस्था को भी घर की तरह चलाने में विश्वास करने वाले एक सच्चे राष्ट्र पिता थे।   संसाधनों का आवंटन, आजीविका की रचना, वस्तुओं व सेवाओं का  उत्पादन व वितरण,उत्पादकों के साधनों के स्वामित्व की  प्रकृति और उनके न्यायोचित वितरण के पक्षधर राष्ट्रीय चिंतक थे।  गरीबी, ढांचागत संरचना,हिंसा और अन्याय  को लेकर गहरी चिंता उनके आर्थिक चिंतन का मूल थी।  गांधी के ‘दरिद्र नारायण की छवि हम सबको  इस  विश्वास से भी मुक्त करती है कि भौतिक वस्तु ही इंसानी अहमियत का वास्तविक पैमाना होती है और इसलिए इन्हें हासिल करना ही सबसे उपयोगी पुरुषार्थ है। ‘  गांधी ने ईश्वर को इसी दरिद्र का या दरिद्र को ईश्वर का और आगे चलकर सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप देकर दरअसल ईश्वर की अवधारणा को उसकी मूल रूपांतरकारी और मुक्त करने वाली क्षमता लौटा दी।  बापू की दरिद्र नारायण की धारणा बहुत सार्थक है लेकिन वह संपन्न लोगों को नहीं भाई । इसी तरह ट्रस्टीशिप का विचार भी सबके लिए है। यह विचार पूंजी के संचयन व संग्रहण के खिलाफ नहीं बल्कि नैतिक अनिवार्यता के तौर पर पुनर्विचार तथा  न्याय का ख्याल रखना है।

प्रताड़ना का प्रतिकार उनका प्रगतिशील मानव मूल्य है। “गरीब को शरीर की हिंसा से बचाने का एकमात्र तरीका मानक व्यवहार अपनाने का है चाहे वह ईश्वर में व्याप्त हो, दरिद्र नारायण में या ईश्वर के किसी संदर्भ के बिना ट्रस्टीशिप में। ” बापू का यही स्वरूप हमें इस रूप में भी लुभाता है कि  राजनेता या आध्यात्मिक संत के रूप में वे भले अपूर्ण लगते हों पर  पिता के रूप में संपूर्ण थे।    वे ऐसे पिता थे जो अपने बच्चों का भौतिक  विकास तो चाहता है पर पूर्ण   नैतिकता के साथ। वह अपनी संतति को संपन्न तो बनाना चाहते थे लेकिन अपरिग्रह की भावना के साथ।  वह हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं जगतपिता थे।  इसलिए उनका नैतिक धर्म था कि वह राष्ट्र और दुनिया को चरित्रवान बनाएँ  । नैतिक और अपरिग्रही बनाएँ ताकि दुनियाभर के सभी भाई-बहन समृद्ध और सुखी जीवन जी सकें। वह अपनी संतानों को अमीर के बजाय सही अर्थों में सुखी बनाना चाहते थे। शारीरिक या मानसिक रोगी बनाने के बजाय संपूर्ण रूप से स्वस्थ बनाना चाहते थे। इसी लिए बापू खानपान पर भी जगह-जगह विचार करते हुए मिलते हैं। उन्होंने स्वयं सालों तक शाकाहारी बनने के लिए संघर्ष किया । गाय तक का दूध  छोड़ा।  वह साबुत और कच्चे अनाज व  मूंगफली के दूध पर विश्वास करते थे। उपवास पर भी उनका अपूर्व विश्वास था। देश और दुनिया की सेवा के लिए उनका स्वस्थ रहना भी ज़रूरी था। इसीलिए अंततः उन्होंने बकरी के दूध को एक उत्तम और अन्यतम विकल्प के रूप में स्वीकार कर ही लिया।

बापू से पहले अध्यात्म प्रेरित राजनीतिक चिंतक विगत पांच हज़ार सालों में भगवान श्री कृष्ण के अलावा दूसरा कोई न हुआ। बहुत संभव है कि  पिछले इन सालों के  शुरुआती हज़ार-दो हज़ार साल इसी ऊहापोह में बीत गए हों कि कहीं महाभारत के सूत्रधार कृष्ण ही तो नहीं हैं।   संभव यह भी है कि गांधारी के द्वारा दिए गए  शाप को समाज इसीलिए स्वीकार करता  हो कि वह भी उन्हें महाभारत के महाविनाश का दोषी मानता रहा हो ।  हो तो यह भी  सकता है कि  गान्धारी कोई और नहीं स्वयं जनमानस हो और जिसने गांधारी की ओट ली हो।  बापू को भी समझने में हज़ार साल  तो लगेगा ही। इस अर्थ में आइंस्टीन का यह कहना भी गलत न होगा  कि,’हज़ार साल  बाद  लोग यह विश्वास  ही नहीं करेंगे कि धरती पर हांड़- मास का ऐसा पुतला जन्मा था। ‘ यह भी  असंभव नहीं कि हज़ार दो हज़ार साल बाद बापू को भी उसी तरह अवतार भी मान लिया जाए जैसे बुद्ध को मान लिया गया और यह अवतार सारी दुनिया का सर्वमान्य अवतार हो।

ब्रह्मचर्य उनका एक ऐसा जीवन मूल्य रहा जो सर्वाधिक विवादास्पद हुआ। कुछ विरोधियों को तो जैसे एक धारदार हथियार बापू ने खुद पकड़ा दिया। लेकिन उसे समझने के उसी कोटि के चरित्र की आवश्यकता है जो आधुनिक काल में बापू और ओशो के सिवा किसी के पास नहीं है। आधुनिक काल के ये दो महान प्रयोग धर्मी महापुरुष (बापू और ओशो)बहुतों से समझे ही नहीं गए। जिन्होंने थोड़ा -बहुत इन्हें समझा भी तो दूसरों को सही से समझा नहीं पाए । बापू ने  राजनीति के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए तो  ओशो ने अध्यात्म के क्षेत्र में और  ऐसे- ऐसे प्रयोग किए जो सामान्य जन के लिये अबूझ पहेली और जादू की तरह समझ व पकड़ से परे रहे। हम इन्हें क्यों नहीं समझ पाए इसका उत्तर भी बहुत सीधा-सा है कि चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो या फिर राजनीति का दोनों क्षेत्रों में हम पूर्ण ईमानदार कभी नहीं रहे। हमने सत्य और अहिंसा का पथ इस तरह अपनाया कि बाहर से कोतवाल और भीतर से चोर बने रहे। उनकी देह को तो केवल एक ने ही गोली मारी पर उनके विचारों को अनेक ने मारा ।  मारा ही नहीं बल्कि निशाना  साध-साध कर छलनी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं उनके सत्य,अहिंसा और असहयोग जैसे उपयोगी औजारों को उन्हीं के साथ जला भी दिया गया। उनके चरखे को उनके फूलों वाली हंडिया के साथ पीपल पर लटका दिया गया। यही कारण है कि गांधी जहां दुनिया भर की समझ में आ गए हम उनके बारे में  असमंजस में ही पड़े रहे ।

बापू को ठीक से समझने के लिए पहले हमें भी अपने बारे में गांधी की ही तरह ईमानदार होकर पीपल पर लटकी उनके फूलों(अस्थियों)की हांड़ी को हिम्मत से उतारना होगा।  चरित्र से पवित्र होना होगा अन्यथा उनके पवित्र फूल अपवित्र हो जाएँगे।  हमें भीतर से पूर्ण अहिंसक और सत्य का पक्षधर बनना होगा तब जाकर हम उन्हें समझने लायक बन सकेंगे। इतना सब होने में ही सौ-दो सौ साल लग जाएँगे। जो उन्हें केवल मुसलमानों का पक्षधर  मानते हैं उन्हें बिल्कुल समझ नहीं पाए। हिंदू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य के संबंध में उनका विचलित रूप ऐसा लगता है जैसे कि  कोई पिता बँटवारे के बावज़ूद अपनी संतानों में असहमति का विवेक पैदा करके उन्हें प्रेम से रहना सिखाना चाहने के मूड में हो और ऐसा होते न पाकर झुंझला रहा हो।

आज का तथाकथित गांधीवाद की जुगाली करने वाला वर्ग अपने स्वार्थ से गांधी  पर लिख और बोल रहा है। वह वैसे ही भ्रमित है जैसे एक वासनांध युवा प्रेम के मर्म को समझने के लिए  फुटपाथ पर कोक शास्त्र की किताब खोज रहा हो।  हम गाँधी की तस्वीर लगाकर गाँधी छाप बटोर रहे हैं।  पता  नहीं किस भ्रम में जी रहे हैं। हम सामने वाले से उसकी मज़बूरी या छोटे से स्वार्थ के बदले उसका सारा ईमान गिरवीं रख ले रहे हैं। ऊपर से यह मानने-मनवाने का मुगालता भी रखते हैं कि वह हमें अपना ट्रस्टी समझे। बापू की ट्रस्टीशिप वह नहीं है जो हम समझ और कर रहे हैं। उनकी ट्रस्टीशिप का ट्रस्टी एक संपूर्ण पिता है।  उसमें त्याग ही त्याग है लाभ-लोभ का लेश भी नहीं।

बापू का एकांगी आकलन करने वाले  हम अपने आचरण को देखें तो पता चलेगा कि हम भी कुछ  वैसा ही कर  रहे  हैं  जैसे कोई डॉक्टर  शरीर का पोस्टमार्टम करके   उससे हत्यारे की मंशा जांचने की कोशिश कर रहा  हो । लेकिन ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि शरीर के घाव भला हत्यारे की मंशा को कैसे और कितना बता पाएंगे।

शुद्धाचरण उनका बेशकीमती जीवन मूल्य है। उनको जानने-समझने के लिये हमें भी शुद्धाचरण अपनाना होगा। इसके लिए पहली शर्त ही यह है कि तन के बजाय मन को धोना होगा। लेकिन हम मन के बजाय तन धो रहे हैं। जीवन रस से हीन मुर्दे तनों में  कलम   लगा   रहे हैं।  गाँधी को जीने और उनपर सोचने-विचारने के पहले  हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मुर्दों  के भीतर नहीं अपितु जीवितों में विचारों को जीवित करना होगा,जैसा बापू ने किया था। उन्होंने ज़िन्दा तनों में कलमें लगाई थीं मुर्दे तानों में नहीं। क्योंकि कलमें भी ज़िन्दा पेड़ में ही लगती हैं।

कहीं  हम ‘बापू – बापू’ का नाटक तो नहीं  खेल रहे हैं।  आखिर उन पर नाटक खेलने के लिए भी तो उनकी लुंगी और लाठी  के बजाय उनके चारित्र को भी जीना होगा। उनके विचारों में उन्हें साक्षात्  जीवित देखते हुए उनकी भावनाओं को समझना होगा।  हमें यह भी समझना होगा कि वह अहिंसा के कितने पक्षधर थे और  हम कितने हैं।    इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि  जहाँ एक ओर बापू को पूजा जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनकी अहिंसा को खुलेआम गालियाँ  दी जा रही हैं।  लेकिन वे इस परिणाम को भी पहले से ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी ठीक ही कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों  वाले  हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों,परस्पर सम्मान, और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार भी करते हैं। ”

बापू की अहिंसा के कारण उन्हें असफल और भोला राजनेता कहा गया।  गोली का जवाब गोली से देने वालों के लिए उन्होंने साफ़ संदेश दे ही दिया था कि आँख के बदले आँख से सारी दुनिया अंधी हो जाएगी।  इसके बावजूद लोग उनसे जबरन हिंसक आंदोलन में समर्थन चाहते रहे।  इनकी निश्छलता के कारण कुछ पाश्चात्य चिंतकों ने भी इन्हें भोला अहिंसक कहा है।  मार्टिन बूबर जैसे तत्कालीन चर्चित  विचारक  का  भी मानना था  कि यदि बापू  जर्मनी में होते तो सत्याग्रह के पहले कदम पर ही  नाज़ियों ने  उन्हें मिटा दिया होता। लेकिन मेरा विश्वास है की बूबर का विश्वास गलत है। सही यह है कि जर्मनी का यह दुर्भाग्य है कि बापू जर्मनी में पैदा नहीं हुए। जिस ब्रिटिश सत्ता को बापू ने घुटने टिकवा दिये उसके भय से कायर हिटलर को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। क्रूरता,विवशता और कायरता का पर्याय हिटलर बापू के सामने टिक ही नहीं पाता।

बापू हर देश और काल के लिए प्रासंगिक राजनीतिज्ञ ही नहीं सच्चे मार्गदर्शक महात्मा और पिता हैं।  अपने बापू को अगर सही अर्थों में याद करना है तो    उनके जीवन    मूल्यों को समझना होगा।  उनके  राजनीतिक विचारों के साथ-साथ धर्म संबंधी विचारों को  भी समझना होगा।

सच्ची मानवता के  निश्छल पुजारी और परमहंसी भावधारा वाले संत बापू को कोई सिरफिरा कहे या  सफल पाखंडी या फिर उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को भी उनकी सनक कहे तो  कहता रहे। हम तो उनके  सबकी कुशल-क्षेम के साधक विश्व के सबसे बड़े व बहुजातीय राष्ट्र वाले लोकतंत्र के उस संपूर्ण  और नियामक पिता रूप के पुजारी हैं जो हमारे लिए आधी रोटी खाकर उठ जाता रहा हो।  अधनंगे बदन पर शीत ,ताप और बारिश सहते हुए निष्काम योगी -सा गाँव- गाँव,देश-देश भरमा हो।  अपनी गंभीर रूप से बीमार संतानों के भले के लिए अस्पताल-अस्पताल भटका हो।  कलश,गुंबद या मीनार में भेद किए बिना दर-दर माथा टेका हो ।  अपने बूढ़े शरीर का होश रखे बिना पागल जवानी के खूनी उन्माद का उपचार करने के लिए नंगे पाँवों हाँफते हुए   बिना रुके और थके भूखे-प्यासे बदहवास भागता रहा हो ।

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

इस आलेख में व्यक्त विचार साहित्यकार के व्यक्तिगत विचार हैं।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 63 ☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष – दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  महात्मा गाँधी जी के जन्मदिवस पर “गांधी जी के संदर्भ  – दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 63– साहित्य निकुंज ☆

☆ गांधीजी के जन्मोत्सव पर विशेष  – दोहे ☆

 

बलिदानों के बाद ही, आया नवल विहान।

तिमिर पाश को चीरकर, निकला हिंदुस्तान।

*

संत महात्मा आदमी, राजा रंक फकीर।

गांधी जी के रूप में, पाई एक नजीर।।

*

 आने वाली पीढ़ियाँ, भले करें संदेह ।

किंतु कभी यह देश था, गांधीजी का गेह ।

*

बापू, गांधी, महात्मा, जन के मुक्ति मुकाम।

मुक्ति मंत्र तुमने दिया, तुमको विनत प्रणाम।

*

देश कहाँ पर जा रहा, जाएगा किस ओर।

आशाओं के धनुष की, खींची हुई है डोर।

*

संकल्पों की साधना, कब होती आसान।

बलिवेदी पर देश की, करो समर्पित प्राण।

*

जय भारत जय हिंद का, गूंज रहा जयघोष

जय बोलो जय मातरम, मन में भरकर जोश।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 64 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख जीने का हुनर। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 64 ☆

☆ जीने का हुनर ☆

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात निसंकोच, स्पष्ट रूप से सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला भी आनी चाहिए, जिसके लिए आप में संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल  सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सब से दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते, आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलिए, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलिए, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ

दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर  परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दांव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन, शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था  विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि-नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में कैसी भी विषम परिस्थितियां हों, मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए…समभाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लांघ जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं, उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानूकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग कीजिए। हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच, मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर, शेष को त्याग दें। क्रोध में मानव अक्सर कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो, सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं, जिनके इलाज के लिए कोई मरह़म नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा है…इसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लो, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखो।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है।  वास्तव में यह मानव-मन में गहरायी से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित हो ‘हैलो-हॉय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करो और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहो। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है, सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास कर के, मन की बात न कहने का संदेश दिया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख, आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों से सावधान रहिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हांट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं। दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइये। हर क्षण को जियें, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्- प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि यह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है, नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण करो और धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है… परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो, फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय’ अर्थात् भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 54 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 54☆

☆ संतोष के दोहे ☆

 

गुलाब

होरी मन महुआ हुआ, महका बदन गुलाब

पिया मिलन की लालसा, पल पल पलते ख्वाब

 

प्रफुल्लित

हृदय प्रफुल्लित देख कर, मन माँ का हर्षाय

बच्चों से माँ की खुशी, दुख में बने सहाय

 

कमान

बच्चों के हाथों लगे, अक्सर हाथ कमान

देख बुढ़ापे में यही, जीवन की पहिचान

 

क्वाँर

क्वाँर माह जस गाइये, माँ का कर गुणगान

माँ की महिमा जगत में, अजब निराली शान

 

करार

प्रियतम को देखे बिना, दिल में नहीं करार

जैसे चाँद-चकोर बिन, पाता नहीं करार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 66 – राष्ट्रपिता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  महात्मा गांधी जी के जन्मदिवस पर एक समसामयिक एवं विचारणीय कविता राष्ट्रपितामुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 66 ☆

☆ गांधी जन्मोत्सव विशेष – राष्ट्रपिता ☆

 

कळू लागलं लहान मुलाला की,

पहिले राजकिय नेते—-

येतात समोर ते गांधीजीच !

पद्धत आहे आपल्याकडे…

लहान मुलांच्या हाती नोट द्यायची!

 

मलाही भेटले गांधीजी

लहानपणी,

आजीने सांगितलेल्या गोष्टीत,

आजीही सहभागी झाली होती म्हणे,

स्वदेशीच्या चळवळीत!

 

ऐकलं जायचं, बोललं जायचं,

खुपच भक्तीयुक्त प्रेमभावाने गांधीजींबद्दल—-घरी, दारी, शाळेत, सिनेमा गृहात!

 

“ती पहा ती पहा बापूजींची प्राणज्योती, तारकांच्या सुमनमाला  देव त्यांना वाहताती”

ही कविताही तोंडपाठ होती,

एकसूरात म्हणत असू खुप आदराने!

गांधीजी भेटायचे कवितेत, धड्यात, शाळेच्या वार्षिक स्नेहसंमेलनाच्या एखाद्या नाट्यच्च्छटेत, पंधरा ऑगस्टच्या भाषणात!

 

अगदी आमच्या गावातला,

गणपत गायकवाड ही करायचा दावा, “येरवडा जेल मध्ये मी केली आहे गांधीजींची दाढी !”

हजामती करता करता मारायचा फुशारकी!

 

एकूण काय तर—

जनमानसात खुपच भक्तिभाव गांधीजींविषयी!

नंतर गांधीजी भेटले, आगा खान पॅलेस मध्ये,

बेन किंग्जले च्या ‘गांधी ‘ या सिनेमात

त्यानंतर अहमदाबाद ला गेले असताना,

साबरमती च्या आश्रमात!

मला सप्रेम भेट मिळालेल्या,

सविता सिंग लिखित “सत्याग्रहा”या इंग्रजी पुस्तकातही !

 

अलिकडे गांधीजी भेटतात इंटरनेटवर, बदलत्या विचारधारेत

लोकापवादात, उलट सुलट चर्चेत!

पण मला -आमच्या पिढीला,

ते माहित आहेत,

महात्मा, राष्ट्रपिता, गांधीजी म्हणूनच,

आणि त्यांची ती तीन माकडं आहेत आदर्श आमच्यासाठी—-

“बुरा मत कहो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो ।” सांगणारी!

 

© प्रभा सोनवणे

२९ सप्टेंबर २०२०

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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