हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 44 ☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘उसूल वाला आदमी ’  निश्चित ही  आपको कार्यालयों में कार्यरत उसूलों वाली कई लोगों के चरित्र को उघाड़ कर रख देगा । मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  ऐसे कई उसूल वाले लोगों के चरित्र को उजागर कर दिया है ।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 44 ☆

☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆

 

उस दफ्तर में घुसते ही एक खास गंध आती है। सच तो यह है कि ज़्यादातर दफ्तरों से यह गंध आती है। अहाते में घुसते ही वहाँ घूमते कर्मचारी आँखें सिकोड़कर मुझे नापने-तौलने लगते हैं। सबकी आँखों में एक तराजू टंगा है, आदमी की हैसियत की नाप-तौल करने वाला।

मैदान के कोने से एक आदमी मेरी तरफ बढ़ता है। उसकी आँखों में चालाकी और लोभ की पर्त है जिसके पार उसके भीतर के आदमी को खोज पाना मुश्किल है। मेरे पास आकर झूठी विनम्रता से पूछता है, ‘मेरे लायक सेवा, हुज़ूर?’

मैं पूछता हूँ, ‘आप क्या करते हैं?’

वह हाथ फैलाकर कहता है, ‘बस जनसेवा करता हूँ हुज़ूर। कमिश्नर से लेकर मामूली कारिन्दे तक कोई काम हो, मुझे मौका दीजिए। महीनों का काम घंटों में कराता हूँ। दरअसल दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं है। दिक्कत यह है कि लोग सही रास्ता अख्तियार नहीं करते।’

मैं समझ गया कि वह दलाल था। ग्राहक से लेकर बड़ा टुकड़ा  ऊपर पहुँचाता था और छोटा टुकड़ा अपने पेट में डालता था,या शायद छोटा टुकड़ा ऊपर पहुँचाता था और बड़ा टुकड़ा खुद गटक जाता था।

वह बड़ी उम्मीद से मुझे देख रहा था। मैंने कहा, ‘मुझे नौरंगी बाबू से मिलना है। ‘

नौरंगी बाबू का नाम सुनते ही उसके चेहरे की चमक किसी फ्यूज़्ड बल्ब की तरह बुझ गयी। कुछ निराशा के स्वर में बोला, ‘ऊपर चले जाइए हुज़ूर। नौरंगी बाबू उसूल वाले आदमी हैं। उनके काम में कोई दखल नहीं देता। सीधे उन्हीं से मिल लीजिए। काम ज़रूर हो जाएगा।’

वह मुझसे निराश होकर किसी दूसरे ग्राहक की खोज में निकल गया और मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

नौरंगी बाबू मेरे लिए अपरिचित नहीं थे। सलाम-दुआ का रिश्ता था, लेकिन उनसे दफ्तर में मिलने के सौभाग्य से मैं अभी तक वंचित था।

नौरंगी बाबू को ढूँढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। वे कई मेज़ों के पार अपनी कुर्सी पर आसीन थे। बीच वाली मेज़ों के लोगों ने उम्मीद की नज़रों से मेरी तरफ देखा और मुझे आगे बढ़ते देख नज़रें झुका लीं। नौरंगी बाबू ने मुझे दूर से चश्मे के ऊपर से देखा और फिर वापस फाइल पर निगाहें टिका दीं। जब बिलकुल नज़दीक पहुँच गया तब फिर आँखें उठाकर देखा और हँसकर नमस्कार किया।

मुझे बैठाने के बाद वे स्नेह-पगे स्वर में बोले, ‘कैसे तकलीफ की?’

मैंने अपना काम बताया तो वे बोले, ‘हाँ,आपकी फाइल मेरे पास है। मैं उम्मीद भी कर रहा था कि आप किसी दिन पधारेंगे। ‘

उन्होंने कागज़ों के ढेर से मेरी फाइल का अन्वेषण किया और उसकी धूल झाड़कर उसे उलटा पलटा।

मैंने पूछा, ‘तो कब तक काम हो जाएगा?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘अरे, जब हमारे पास है तो काम तो हो गया समझो। ‘

फिर वे कुछ क्षण मौन रहकर बोले, ‘दरअसल मैं एक धर्मसंकट में फंस गया था। इसीलिए आपकी फाइल रुक गयी।’

मैंने पूछा, ‘कैसा धर्मसंकट?’

नौरंगी बाबू बोले, ‘धर्मसंकट ऐसा है भइया, कि पहले मैं अपने परिचितों दोस्तों की सेवा बिना किसी लालच के कर देता था और अपरिचितों से अपने पेट के लिए कुछ दक्षिणा ले लेता था। लेकिन इस भेदभाव की नीति के कारण मुझे कई बार नीचा देखना पड़ा, कई बार लोगों की बातें सुननी पड़ीं। एक से लें और दूसरे से न लें,यह तो अन्याय वाली बात हो गयी न?तो मैंने उसूल बना लिया कि सबसे समान व्यवहार करना, चाहे अपनी आत्मा को कितना भी कष्ट क्यों न हो। दोस्तों से लेने में आत्मा को कष्ट तो होगा न?’

मैंने सहमति में सिर हिलाया तो वे बोले, ‘अब मेरे उसूल की रक्षा करना आप लोगों का काम है। आप लोग नाराज़ हो जाओगे तो हमारा उसूल कैसे निभेगा?’

फिर वे कुछ याद करते हुए बोले, ‘मेरे परिचित एक विभाग के इंस्पेक्टर थे। पक्के उसूल वाले। सबके साथ एक सा व्यवहार। एक बार एक आदमी से दो सौ में सौदा हुआ। वह आदमी आया और उनकी मुट्ठी में पैसे दबाकर चला गया। इंस्पेक्टर साहब ने मुट्ठी खोलकर गिने तो पाँच रुपये कम थे। तुरन्त स्कूटर पर भागे और आदमी को दूर चौराहे पर पकड़ा। दस बातें सुनायीं और वहीं पाँच रुपये वसूल किये। ऐसे होते हैं उसूल वाले लोग। ‘

वे फिर बोले, ‘पहले हम अपने उसूल में कच्चे थे। कभी कभी लोगों को माफ कर देते थे। फिर एक दिन हमने राजा हरिश्चन्द्र की कथा पढ़ी कि उन्होंने कैसे उसूल की खातिर अपनी पत्नी से आधा कफन मांग लिया था। तब से हमने सोच लिया कि उसूल से रंचमात्र नहीं डिगना है। राजा हरिश्चन्द्र मेरे आदर्श हैं। ‘

वे थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘एक बार मेरे गुरूजी आये थे। उन्होंने मुझे कॉलेज में पढ़ाया था। मैंने उन्हें भी अपना उसूल बताया और चरण छूकर आशीर्वाद माँगा कि अपने उसूल पर डटा रहूँ। गुरूजी उस दिन गये तो आज  तक लौटकर नहीं आये। उनकी फाइल मेरे पास पड़ी है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। ‘

मैंने पूछा, ‘तो मेरे काम में क्या करना है?’

वे बोले, ‘करना क्या है?काम तो आपका जैसे हो ही गया। बस दो लाइन का नोट देना है। वही उसूल वाला मामला आड़े आ रहा है। आप दोस्त को भेंट मानकर सौ रुपये दे जाइए। मेरे उसूल की रक्षा हो जाएगी और आपका काम हो जाएगा। ‘

वे फिर बोले, ‘दरअसल अब उसूल के मामले में इतना पक्का हो गया हूँ कि सगे बाप और भाई के मामले में भी उसूल नहीं छोड़ता। अब सोचिए कितनी तकलीफ भोगता हूँ। ‘

मैंने उठकर कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। ‘

नौरंगी बाबू हाथ जोड़कर बोले, ‘ज़रूर आइए। ‘

वे मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आये। दरवाज़े पर बोले, ‘काम की चिन्ता मत कीजिएगा। काम तो समझिए हो ही गया। वह उसूल वाला मामला न होता तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 29 – बावरां मन  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  ‘बावरां मन ।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29 – विशाखा की नज़र से

☆ बावरां मन  ☆

खिड़की से मेरे दिखती है

मुख्य सड़क

दिखते हैं आते – जाते लोग

दिख जाता है डाकिया

 

उसके दिखते ही

जाग जाता मेरा कौतूहल

देखती हूँ दूर से उसके झोले को

उसके हाथों संग संगत बिठाती

खोज में जुट जाती मेरी नजर

कुछ रंग – बिरंगे ख्वाब

 

जादूगर जिस तरह यकबयक

निकालता  रुमाल  से कबूतर

या सड़क किनारे अनेक चिट्ठियों में से

भविष्यवाणी की एक चिट्ठी चुनता सुग्गा

 

ठीक उसी तरह डाकिया भी

टटोलता  तमाम खतों में से

ख़ास पतों की डाक

कुछ एक मिनट का चलता यह खेल

तब तक कयास का मेरे होता है चरम

 

मेरा ही कौतूहल

मेरे ही प्रश्न

अंत में होती मैं ही

निराश

 

क्योंकि ,

सुस्त है चिट्ठीरसां और

मसरूफ मुझे लिखने वाला भी

करता है मीठी – मीठी बातें

बस भेजता नहीं खतों – खतूत

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 5 ☆ विषाणू ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक एवं शिक्षाप्रद कविता “विषाणू“.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 4 ☆

☆ कविता – विषाणू

एक विषाणू जगास अवघ्या देतोय धोखा

कोरोनाला रोखा आता कोरोनाला रोखा!!

 

चायना इटली स्पेन फ्रान्स आले कचाट्यात

दुर्लक्षित केले म्हणुनी ,मेले हजारांत

बाधितांना वेगळ्या कक्षात नेऊनी रोखा!!

 

सांगितलेल्या सर्व सुचना पाळाव्या निक्षुनी

प्रत्येकाने घरात अपुल्या रहावे दक्षतेनी

अत्यावश्यक कार्ये देखील जमे तोवरी रोखा !!

 

वारंवार हात धुवा, चेह-याला लावू नका

विषाणूसाखळी तुटेपावेतो कुठेही जावू नका

प्रत्येकाने संकल्प हा मनी धरावा सोपा !!

 

प्रशासनाने शक्य तेवढे सर्व काही केले

कोरोनाला रोखण्या जनतेला अपील केले

भारतियांनो कोरोनाला मिळेल तेथे ठेचा!!

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 2 ☆ पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक, मानवीय एवं राष्ट्रीय हितार्थ रचित आपकी  संदेशात्मक रचना  ” पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 2 ☆ 

☆ पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान ☆ 

 

कर्ता करता है सही, मानव जाने सत्य

कोरोना का काय को रोना कर निज कृत्य

कोरो ना मोशाय जी, गुपचुप अपना काम

जो डरता मरता वही, काम छोड़ नाकाम

भीत न किंचित् हों रहें, घर के अंदर शांत

मदद करें सरकार की, तनिक नहीं हों भ्रांत

बिना जरूरत क्रय करें, नहीं अधिक सामान

पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान

सोमवार को किया था, हम सबने उपवास

शास्त्री जी को मिली थी, उससे ताकत खास

जनता कर्फ्यू लग गया, शत प्रतिशत इस बार

कोरोना को पराजित, कर देगा यह वार

नमन चिकित्सा जगत को, करें झुकाकर शीश

जान हथेली पर लिए, बचा रहे बन ईश

देश पूरा साथ मिलकर, लड़ रहा है जंग

साथ मोदी के खड़ा है, देश जय बजरंग

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – श्रद्धांजलि ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन कराती है ।” )

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

? धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  श्रद्धांजलि  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने इस चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

जिस बरगद के पेड़ के नीचे से पगली माई की अर्थी उठी थी, उसी जगह उसकी समाधि कुछ संभ्रांत लोगों ने मिलकर बनवा दी थी।

पगली माई का शव,  उसकी इच्छा के अनुसार एनाटॉमी विभाग में छात्रों के शोध कार्य के लिए रख दिया गया था।

उसके नेत्र से दो अंधों की आंखों को रोशनी का उपहार मिला था, जिसका श्रेय पगली की सकारात्मक सोच को जाता है।

इस प्रकार अपने जीवन के अंतिम क्षणों में लिए गये संकल्प को पगली माई ने साकार कर समाज के सामने एक अनूठी पहल की थी, जिसकी सर्वत्र सराहना हो रही थी।

उसकी प्रेरणा उस मेडिकल कालेज के हर छात्र की प्रेरणा श्रोत बन उभरी थी।

अब उस समाधि स्थल पर पहुचने वाला हर इंसान उसकी समाधि पर श्रद्धा के पुष्प बिखेरता है।

लोगों के दिल में अनायास यह विश्वास घर कर गया था कि पगली माई सबकी मनोकामना पूर्ण करती है सबका मंगल करती है।

अब कभी कभी उस समाधि से उठने वाली ध्वनि तरंगें रात्रि की नीरवता भंग करती है, उसकी समाधि पर कभी कभी ये आवाज उभरती है —-

करम किये जा फल की इच्छा
मत कर ओ इंसान।

अब पगली माई को महा प्रयाण किये एक वर्ष गुजर गया।  अस्पताल परिसर में आज उनकी प्रथम पुण्य तिथि मनाई जा रही है। हजारों की भीड़ श्रद्धा सुमन  अर्पित कर रही हैं।  उन्ही लोगों के बीच बैठे बादशाह खान, राबिया तथा गोविन्द का सिर सिजदा करने के अंदाज में झुका हुआ है, इस प्रकार पगली माई यादें ही लोगों के जहन में शेष रह गई थी।

यद्यपि पगली माई दुर्गा माई, काली माई का स्थान भले न ले पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी का फूल बन मेरी स्मृति के किसी कोने से झांकती मुस्कुराती नजर आती है।।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 29 ☆ चैत्र चाहूल ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  चैत्र पक्ष एवं श्री रामनवमी  पर्व पर विशेष रचना  “चैत्र चाहूल ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 29 ☆

☆ चैत्र चाहूल ☆ 

(काव्यप्रकार:-हायकू)

चैत्र चाहूल
आलं नवं वरीस
सोन्यापरीस. !!१!!
गुढी पाडवा
करु पुरणपोळी
शत्रूला गोळी. !!२!!
सण वर्षांचा
गुढीला साडी नवी
पुण्याई हवी. !३!!
पूजन करु
नूतन पंचांगाचे
श्रीगणेशाचे. !!४!!
चैत्र मासात
चैत्रांगणाची शोभा
श्रीराम उभा. !!५!!
चैत्र महिना
रामाचे नवरात्र
सारे एकत्र. !!६!!
चैत्र चाहूल
पाने लुसलुसती
साजिरी किती. !!७!!
चैत्र मासात
फुले चाफा पिवळा
सुंदर माळा. !!८!!
चैत्र हा खासा
मोगरा बहरला
धुंद जाहला. !!८!!
फुलली लाल
काटेसावर छान
येई उधाण. !!९!!
चैत्रात फुले
ऋतु वसंत रानी
रमले वनी. !!१०!!
सुगंधा सह
बकुळ बहरला
वारा आला. !!११!!
कसा बहरे
छान नीलमोहर
खूप सुंदर. !!१२!!
गॅझेनियाला
आला मस्त बहर
केला कहर. !!१३!!
मालवणात
सुरंगीही फुलते
आनंद देते.  !!१४!!
चैत्र मासात
फुलला बहावा
अरे वाहवा !!१५!!
चैत्र मासात
राम जन्मला बाई
आनंद होई !!१६!!
©®उर्मिला इंगळे
दिनांक:-३-४-२०
 !!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 31 ☆ रूठा वक्त ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “रूठा वक्त ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 31 ☆

☆ रूठा वक्त ☆

 

जाने अनजाने में

कितना कुछ छूट गया,

ये वक्त तू बता

मुझसे क्यों रूठ गया।

 

हवाओं को बाँधने की

कोशिश नहीं की,

ये साँस तू बता

बंधन क्यों टूट गया ।

 

ज़मीं को खरीदकर

रखा नहीं है,

मिट्टी का तन मिट्टी में

ढह गया ।

ये वक्त तू बता

मुझसे क्यों रूठ गया।

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 37 – मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान। )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 37 ☆

☆ मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान

 

जैसा कि मैंने आपको बताया था कि हमें वर्तमान और आने वाले जीवन में अपने अच्छे या बुरे कर्मों के फलो का सामना करना पड़ता है, ये कर्म गुप्त रूप से लिंग शरीर में 17 गुणों के रूप में सांकेतिक शब्दों में उपस्थित रहते हैं या आप कह सकते हैं कि यह निर्देशिका (index) के रूप में रहते हैं । लेकिन जैसा ही आत्मा लिंग शरीर के साथ नए शरीर में प्रवेश करती है, जल्द ही यह निर्देशिका संकेत-वर्गीकरण (index coding) से विस्तृत रूप में खुल जाता है और उचित चक्र स्थानों पर प्रक्षेपित हो जाता है और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों को प्रभावित करता है, और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों का ये अंतर ही हमारे DNA में नाइट्रोजन और प्रोटीन संकेत-वर्गीकरण के रूप में मानचित्रित (map) हो जाता है । हाइड्रोजन बंधन DNA की दोहरी कुंडलिनी (double-helix) संरचना को एक साथ रखते हैं, जो जीवन के निर्माण खंडों के लिए मूल इकाई है । एक हाइड्रोजन परमाणु के साथ बातचीत का प्रत्यक्ष माप DNA और बहुलक जैसे त्रि-आयामी अणुओं की पहचान के लिए मार्ग प्रशस्त करता है । तो अब आप समझ सकते हैं कि कैसे हमारे सकल शरीर के DNA से सूक्ष्म शरीर के प्राणमय कोश के चक्रों के बीच सूचना का आदान प्रदान होता है । इसके अतरिक्त हमारा DNA पूरे ब्रह्मांड की जानकारी को संग्रहित कर सकता है ।

असल में मानव DNA एक जैविक रूप से जटिल अणु है । यह शरीर की सभी प्रमुख अंग प्रणालियों के बीच संचार का समन्वय करता है । एक पूरी तरह से नई दवा बनायीं गयी है जिसमें DNA के एकल जीन काटने और बदलने के बिना शब्दों और आवृत्तियों द्वारा प्रभावित और पुन: क्रमादेश किया जा सकता है । प्रोटीन के निर्माण के लिए हमारे DNA का 10% से कम उपयोग होता है । शेष 90% कबाड़ (Junk) DNA की तरह होता हैं । हमारा DNA न केवल हमारे शरीर के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि सूचना संग्रहण (data storage) और संचार केंद्र के रूप में भी कार्य करता है । DNA मानव भाषा के निर्माण के लिए आवश्यक सभी जानकारी को भी संग्रहित करता है ।

जीवित गुणसूत्र (chromosome) एक त्रिविमीय (hologram) संगणक (computer) की तरह कार्य करते हैं । शरीर के साथ संवाद करने के लिए गुणसूत्र अंतर्जात (endogenous) DNA ऊर्जा का एक रूप उपयोग करते हैं ।

DNA क्षारीय जोड़े और भाषा की मूल संरचना का समान स्वरूप होता है, इसमें कोई DNA डिकोडिंग (छिपे को खोलना) आवश्यक नहीं होती है । अर्थ है कि हम शब्दों और ध्वनियों का उपयोग करके मानव शरीर में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं ।

मानव DNA निर्वात (vacuum) में विक्षुब्ध (disturbing) स्वरूप (pattern) का कारण बन सकता है, इस प्रकार चुंबकीय छिद्रों(wormholes) का उत्पादन होता है । ये ब्रह्मांड में पूरी तरह से अलग-अलग क्षेत्रों के बीच सुरंग से जुड़े होते हैं जिसके माध्यम से जानकारी अंतरिक्ष और समय के बाहर प्रसारित की जा सकती है । DNA सूचना के इन टुकड़ों(bits) को आकर्षित करता है और उन्हें हमारी चेतना पर भेजता है । दूर संवेदन संचार (telepathy channeling) की यह प्रक्रिया आराम की स्थिति में सबसे प्रभावी है । इस तरह के दूर संवेदन संचार को प्रेरणा या अंतर्ज्ञान के रूप में अनुभव किया जाता है। क्या आप जानते हैं कि DNA हटा दिए जाने के बाद अंतरिक्ष और समय के बाहर से ऊर्जा सक्रिय छिद्रों(wormholes) के माध्यम से बहती रहती है । ये विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र हैं ।

सभी विभीषण के शिक्षण से प्रसन्न थे ।

शाम को वे सभी मुंबई के पर्यटन स्थलों का दौरा करने गए ।

जून में वे कैलाश मानसरोवर गए । उन्होंने कैलाश मानसरोवर के रास्ते में सभी उप-मार्गों की खोज की थी, लेकिन उन्हें भगवान हनुमान का कोई संकेत नहीं मिला । तो वे बिना उम्मीद के ही मुंबई वापस आ गए ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 41 ☆ नया दृष्टिकोण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अति संवेदनशील  सार्थक एवं  नारीशक्ति पर अपनी बेबाक कविता  “नया दृष्टिकोण ”.  डॉ मुक्ता जी  नारी शक्ति विमर्श की प्रणेता हैं ।  नारी जगत  में पनपे नए दृष्टिकोण  पर रचित रचना के लिए डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 41 ☆

☆ नया दृष्टिकोण  

 

मैं हर रोज़

अपने मन से वादा करती हूं

अब औरत के बारे में नहीं लिखूंगी

उसके दु:ख-दर्द को

कागज़ पर नहीं उकेरूंगी

द्रौपदी,सीता,गांधारी,अहिल्या

और उर्मिला की पीड़ा का

बखान नहीं करूंगी

मैं एक अल्हड़,मदमस्त

स्वच्छंद नारी का

आकर्षक चित्र प्रस्तुत करूंगी

जो समझौते और समन्वय से

कोसों दूर लीक से हटकर

पगडंडी पर चल

अपने लिये नयी राह का

निर्माण करती

‘खाओ-पीओ,मौज-उड़ाओ’

को जीवन में अपनाती

‘तू नहीं और सही’को

मूल-मंत्र स्वीकार

रंगीन वातावरण में

हर क्षण को जीती

वीरानों को महकाती

गुलशन बनाती

पति व उसके परिवारजनों को

अंगुलियों पर नचाती

उन्मुक्त आकाश में

विचरण करती

नदी की भांति

निरंतर बढ़ती चली जाती

 

परन्तु, यह सब त्याज्य है

निंदनीय है

क्योंकि न तो यह रचा-बसा है

हमारे संस्कारों में

और न ही है यह

हमारी संस्कृति की धरोहर

 

खौल उठता है खून

महिलाओं को

शराब के नशे में धुत्त

सड़कों पर उत्पात मचाते

क्लबों में गलबहियां डाले

नृत्य करते

अपहरण व फ़िरौती की

घटनाओं में लिप्त देख

सिर लज्जा से झुक जाता

और वे दहेज के इल्ज़ाम में

निर्दोष पति व परिवारजनों को

जेल की सीखचों के पीछे पहुंचा

फूली नहीं समाती

अपनी तक़दीर पर इतराती

नशे के कारोबार को बढ़ाती

देश के दुश्मनों से हाथ मिलाती

अंधी-गलियों में फंस

स्वयं को भाग्यशाली स्वीकारती

खुशनसीब मानती

क्योंकि वे सबला हैं,स्वतंत्र हैं

और हैं नारी शक्ति की प्रतीक…

जो निरंकुश बन

स्वेच्छा से करतीं

अपना जीवन बसर

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 41 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है नववर्ष एवं नवरात्रि  के अवसर पर एक समसामयिक  “भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 41 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  

 

विश्वास

हमको अब होने लगा,

तुझ पर ही विश्वास

किया समर्पित आपको,

मन में है ये आस।।

 

अभियान

कोरोना के कहर से,

कैसे बचे जहान।

इसे रोकने चल रहे

कितने  ही अभियान।।

 

मयंक

आज गगन पर छा गया,

रातों रात मयंक।

भरती मुझको चांदनी,

देखो अपने अंक।।

 

चांदनी

छाती जाती चांदनी,

है पूनम की रात।

होती है फिर से धरा,

एक और मुलाकात ।।

 

अभिनय

तेरा अभिनय देखकर,

मन में उठा गुबार।।

आंखों से अब पढ़ लिया,

झूठा तेरा प्यार।।

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print