मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 7 – झाडांच्या देशात/पेड़ों के देश में (भावानुवाद) ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘झाडांच्या देशातएवं इस मूल कविता का आपके ही द्वारा हिंदी अनुवाद  ‘पेड़ों के देश में’। आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

यह कविता हायकू सदृश्य है। किन्तु, इसे हायकू नहीं कह सकते। यहाँ 3 पंक्तियों की रचना है किन्तु, मात्रा का विचार नहीं किया है। इसे त्रिवेणी या  कणिका कहा जा सकता है। 

–  श्रीमति उज्ज्वला केळकर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 7 ☆ 

☆ झाडांच्या देशात  

(काही हायकू)

झाडांच्या देशात

ऊन पाहुणे आले.

फुलांच्या भेटी देउन गेले.

 

झाडांच्या देशात

पाऊस पाहुणा आला.

भुइच्या घरात जाऊन दडला.

 

झाडांच्या देशात

शिशिर पाहुणा आला.

पाने ओरबाडून पळून गेला.

 

झाडांच्या देशात

पक्षी पाहुणे आले.

वहिवाटीच्या हक्कावरून भांडत सुटले.

 

झाडांच्या देशात

चंद्र पाहुणा आला.

सावल्यांचा खेळ खेळत राहिला.

 

☆ पेड़ों के देश में  

(श्रीमती उज्ज्वला केळकर द्वारा उनकी उपरोक्त कविता का हिंदी भावानुवाद)

 

पेड़ों के देश में

धूप मेहमान आयी

फूलों की भेंट चढ़ाकर चली गई।

 

पेड़ों के देश में

बारिश मेहमान आयी

भूमि के घर जा छिप गयी

 

पेड़ों के देश में

शिशिर मेहमान आया

पत्तों को झिंझोड़ कर भाग गया।

 

पेड़ों के देश में

पंछी मेहमान आये

आवास के अधिकार के लिए झगड़ते रहे।

 

पेड़ों के देश में

चन्द्र मेहमान आया

परछाइयों से खेल खेलता रहा।

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 4 – डालियों पर लिखी …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “डालियों पर लिखी ….“ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ डालियों पर लिखी …. ☆

 

इधर बाहों में कहीं

जैसे सिमट

आपकी यह

आगमनआहट

 

लता को बिछुये

पिन्हाती है

हवा को पछुआ;

बनाती है

 

भागती ही

मिली है सरपट

 

पेड़ जैसे सिर

खुजाते हैं

फूल खुद में

ही लजाते हैं

 

डालियों पर

खिलखिला झटपट

 

खुशबुओं के

बीच में छिपकर

शर्म से कहती

जरा चुप कर

 

लाज से दोहरी

हुई नटखट

 

मुस्कुराकर

शाम से कहती

क्यों नहीं आराम

है करती

 

क्या किसी से

हो गई खटपट

 

डालियों पर

लिखी छन्दो सी

पत्तियों में

ज्यों परिन्दों सी

 

वहीं ठहरी है

जहाँ तलछट

 

बाँसुरी के संग

कन्हाई की

बाँह पकड़े

हुये भाई की

 

छोड़ आई क्यों

दुखी पनघट

 

© राघवेन्द्र तिवारी

23-04-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – समर्पण  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – समर्पण  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रूप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी समृद्ध परंपरा मिलती है। आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित और विस्मित करती है?

हरिशंकर परसाई–

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं। कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा। कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं, जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो वह लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा- “उनके लिए, जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।”

तो ये समर्पण है मेरी एक किताब में।

लेकिन वास्तव में यह है वो – उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपया है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं,उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं। अपनी पुस्तक,जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तक मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 6 ☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

☆ मॉम है कि मानती नहीं ☆

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #6 ☆

☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है

जनकसिंग पहलवान अभी-अभी देश बचाने की एक स्वस्फूर्त, स्वप्रेरित कार्यवाही संपन्न करके आ रहे हैं. सीना इस कदर फूल गया है कि शर्ट के दो बटन तो फूलन-फूलन में ही टूट गये हैं. कुछ और फूली सांसे अभी बाहर आयेंगी और नई-नकोर बनियान को भी चीर जायेंगी. गैस, गालियाँ, भभकों और लार से बना गरम लावा मुंह से अविरल बह रहा है.

उधर जख्मी को वन-जीरो-एट से अस्पताल भेजा गया है और इधर फूलती साँसों की बीच वे जितना बोल पा रहे हैं उतने में ही सबको बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने देश के एक दुश्मन को सजा दे डाली है. साईकिल के टायर के दो फीट के टुकड़े से उन्होंने एक युवक को इतने सटाके लगाये कि इंसान था, झेब्रा दिखने लगा. वो तो लोगों ने कस कर पकड़ लिया वरना वे उसका वही हश्र करते जो कबीलों में मुल्जिम का, बरास्ते कोड़ों के, सजा-ए-मौत सुनाये जाने पर होता है.

उनकी अपनी एक अदालत है, अपना ही विधान. इसके मुंशी मोहर्रिर, वकील, पेशकार, जज, अपीलीय कोर्ट, जस्टिस, चीफ जस्टिस तक वे खुद ही खुद हैं. विधि में सनात्कोत्तर डिग्री उन्होंने वाट्सअप विश्वविद्यालय से हांसिल की है. जूरिस्प्रुडेंस के उनके अपने सिद्धांत हैं. न्याय की उनकी देवी के हाथ की तराजू में सब धान बाईस पसेरी तुलता है. उसने आँखों पर पट्टी तो नहीं बाँध रखी है मगर एक खास नज़रिये का चश्मा जरूर चढ़ाया हुआ है. वे फैसला ही नहीं देते, पेनल्टी एक्सीक्यूट भी करते हैं. इंस्टेंट जस्टिस उनकी यूएसपी है. उनका न्याय न इंतज़ार करता है, न कराता है. ज्यादातर मुकदमे वे सुओ-मोटो हाथ में लेते हैं और देश बचाने का केस हो तो टॉप प्रायोरिटी पर निपटाते हैं. ऐसा हर केस निपटाने के बाद उनको लगता है कि उन्होंने मातृभूमि के ऋण की एक ईएमआई चुका दी है. अभी काफी कुछ क़र्ज़ चुकाना बाकी है. शौर्य चक्रों से खुद को नवाजने की परंपरा भारत में रही होती तो उनके सीने पर कर्नल गद्दाफ़ी की वर्दी पर लगे मैडलों से दुगुने मैडल लगे होते. बहरहाल, आग उगलते मुंह से उन्होंने कहा – ‘……. चीनी चपटा, हमारे देश में कोरोना भेजता है. वो सटाके लगाये कि अब जिन्दगी में इधर पैर नहीं रखेगा.’ शर्ट का एक बटन और टूट गया है.

मैंने कहा – ‘पेलवान, वो लड़का तो मेघालय से यहाँ पढ़ने आया था. सामनेवाली मल्टी के पीछे एक कमरे में किरायेदार है. संगमा जेम्स जैसा कुछ नाम है उसका.’

उन्होंने मुझे घूरकर देखा. मैं बुरी तरह डर गया. अभी लावा ठंडा पड़ा नहीं है. जो उनने अपन को ही चीन का जासूस समझकर सूत-सात दिया तो…!! बोले – ‘मैंने ये बाल धूप में सफ़ेद नी करे हेंगे, आपसे ज्यादा दुनिया देखी हेगी. कौनसा लै बताया आपने ?’

‘मेघालय’

‘हाँ वोई. ये सारे लै, है, वै, हू, तू, थू चीन में ही पड़ते हैं. चपटे सब वहीं से आते हैं.’

‘पेलवान, वो भारत की ही एक स्टेट है. सेवन सिस्टर्स नहीं सुना आपने ?’

‘सिस्टर हो या ब्रदर – देश सबके ऊपर है.’ फिर बोले – ‘वाट्सअप पे आये चीनियों से सिकल मिला लेना उसकी, नी मिलती होय तो नाम बदल देना जनकसिंग पेलवान का. ….ईलाज करना जरूरी था. देश बचाना है तो इन चपटों की तो…..’.

‘मैं आपको नक्शा दिखाता हूँ ना.’

‘नक़्शे तो इनके मैं बिगाडूँगा. नक्शेबाजी करना भुला दूंगा एक एक की. और कालोनीवालों, सब कान खोलकर सुन लो रे, एक भी चीनी चपटे को अन्दर घुसने मत देना. टायर के हंटर रखो घर में.’ अपनावाला मुझे थमाते हुवे बोले – ‘कोई चीनी चपटा दिखे तो उसको वईं के वईं सलटा देना. आपसे नी बने तो मेरे कने लिआना.’

वे चले गये, मैं देख पा रहा हूँ – ज़ख्मी विधि, विधायिका, न्याय, न्यायपालिका, संगमा जेम्स और वी द पीपुल ऑफ़ इंडिया…….

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 11 ☆ लम्हों की किताब ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “लम्हों की किताब ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 11 ☆ 

☆ लम्हों की किताब  ☆

 

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं,

माँ छूटी मायका छूटा कई रिश्ते जुड़े, एक मजबूत रिश्ता तुम्हारा भी है,

शहर बदले रास्ते बदले दोस्त बदले, कई रास्ते बदलने के बाद,

नये साथ के साथ एक साथ तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

तिनका तिनका जोड़ा बूंद-बूंद को समेटा,

घर के द्वार खिड़की जोड़ी, मेरे कन्धों के साथ एक कन्धा तुम्हारा भी था,

ख्वाब टूटे, फिर टूटे, नए सपने टूटे फिर जुड़े,

रात में घबरा कर जब उठे, तो एक तकिया तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

मौसम बदले काले बादल आए,

आँसू झरे डर गई, गमों में डूब गई एक आँसू तुम्हारा भी था,

बेटा आया, फूलों सी मुस्कान लाया,

आँखों में नए ख्वाब नई रोशनी आई, उसमे एक मुस्कान तुम्हारी भी थी,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

बात पुरानी हो गई, किताबों के पन्ने मैले हो गए,

काई पतझड़ सावन आ कर चले गए, जीवन ने समय के साथ मौसम बदले,

फिर भी हम साथ चलते-चलते, लम्हों की किताब बन गई,

 

हर लम्हें का एक-एक पन्ना खुलता गया, उम्र कटती जा रही है,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 3 ☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण कविता “वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 3 ☆ 

☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

नारे फक्त लावल्या गेले

वन मात्र उद्वस्त झाले..०१

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे…

अभंग सुरेख रचला

आशय भंग झाला..०२

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

झाडांबद्दलची माया

शब्द गेले वाया..०३

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वड चिंच आंबा जांभूळ

झाडे तुटली, तुटले पिंपळ..०४

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

संत तुकारामांची रचना

सहज पहा व्यक्त भावना..०५

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

तरी झाडांची तोड झाली

अति प्रगती, होत गेली..०६

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

निसर्ग वक्रदृष्टी पडली

पाणवठे लीलया सुकली..०७

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

पाट्या रंगवल्या गेल्या

कार्यक्रमात वापरल्या..०८

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वृक्षारोपण झाले

रोपटे तडफडून सुकले.. ०९

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

सांगणे इतुकेच आता

कोपली धरणीमाता..१०

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 53 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ’। यह सच है कि  प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई विशेषता होती है। कभी मनुष्य  स्वप्रेरणा से अपनी  प्रतिभा निखार लेता है तो कभी उसे प्रेरित करना पड़ता है। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 53 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆

रज्जू भाई लॉकडाउन की वजह से बहुत परेशान हैं इतनी लंबी छुट्टी कभी ली नहीं दफ्तर बहुत प्यारा लगता है बतयाने को बहुत लोग हैं सब तरफ चहल पहल रहती है आज्ञाकारी चपरासी बार बार गुटखा तंबाकू,चाय लाने के लिए दौड़ता रहता है जूनियर लिहाज करते हैं हुकूमत का सुख मिलता है रोज़ जेब में भी थोड़ा बहुत आ जाता है

अब घर में बन्द रज्जू भाई के लिए दिन पहाड़ हो जाते हैं खाने और सोने के अलावा कोई काम नहीं सूझता फालतू से घर में मंडराते हैं बेमतलब फोन करने में समय काटते हैं पहले दफ्तर बंद होने पर दफ्तर के क्लब में शतरंज खेलने बैठ जाते थे सात बजे के बाद घर लौटते थे अब टाइम काटने की समस्या है

अब रज्जू भाई सुबह दस बजे तक घुरकते हुए सोते रहते हैं  उनके आसपास घर के काम चलते रहते हैं, लेकिन उनकी नींद में खलल नहीं पड़ता पत्नी सफाईपसंद है झुँझलाकर कहती है, ‘अरे भाई, कितनी मनहूसियत फैलाते हो दफ्तर बन्द है तो दोपहर तक सोते ही रहोगे क्या?पता नहीं कब ये दफ्तर खुलेंगे और कब यह मनहूसी छँटेगी ‘

रज्जू भाई गुस्से में कहते हैं, ‘उठ कर क्या करेंगे? कौन सा काम करना है?’

जवाब मिलता है, ‘काम क्या करोगे? कोई गुन सीखा होता तो आज काम आता जो कोई हुनर जानते हैं वे कुछ न कुछ कर रहे हैं तुमने फाइल इधर उधर सरकाना ही सीखा है और कुछ आता नहीं इसीलिए अहदी की तरह पड़े रहते हो ‘

रज्जू भाई उठ कर बैठ गये बैठे बैठे कुछ सोचते रहे  पत्नी की बात में दम नज़र आया शाम को कुछ ढूँढ़ खोज में  लग गये शादी से पहले बिगड़ी चीज़ों को सुधारने और ठोक-पीट करने का बड़ा शौक था बाद में दफ्तर में ऐसे रमे कि हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर हो गये अब पत्नी की झिड़की सुनकर वे अपने पुराने औज़ार ढूँढ़ने में लग गये थे

रात को देर तक थर्मोकोल की शीट्स लेकर खटपट करते रहे आधी रात तक लगे रहे सबेरे बच्चों ने देखा तो खुश हो गये रज्जू भाई ने बच्चों के खेलने के लिए एक बड़ा सा मॉल बनाया था अलग अलग चीज़ों की दूकानें, सेल्समैन, बाहर खड़े गार्ड और कारों की कतार पत्नी भी खुश हुई बच्चे बोले, ‘पापा, आप तो छुपे रुस्तम निकले ‘

दूसरे दिन रज्जू भाई जल्दी उठकर काम में लग गये गैस का चूल्हा कई दिन से गड़बड़ कर रहा था उसे लेकर पत्नी बड़बड़ाती रहती थी कई बार सुधारने वाले को फोन किया था, लेकिन कोई लॉकडाउन में आने को तैयार नहीं था रज्जू भाई उसे लेकर बैठे और घंटे भर में ठीक करके दे दिया पत्नी ने खुश होकर तालियाँ बजायीं

अगले तीन चार दिन में रज्जू भाई ने अपनी कला के बहुत से नमूने पेश कर दिये धीरे चलते पंखों की स्पीड सुधर गयी और टायलेट का फ्लश ठीक हो गया पुरानी,बदरंग पेटियों को घिसकर उन पर रंग कर दिया गया और उन पर फूलों और नर्तकियों के सुन्दर चित्र बन गये इधर उधर पड़े डबलों (छोटे घड़ों) पर सुन्दर आकृतियाँ बनाकर उन्हें बैठक के कोनों में सजा दिया गया बेटी के पलंग पर बैठ कर पढ़ने के लिए एक लकड़ी की चौकी बन गयी बहुत दिन से चुप पड़ी डोरबेल भी बोलने लगी

यह सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही रहा रज्जू भाई घर की काया पलटने और अपनी काबिलियत सिद्ध करने में लगे रहे अब घर में उनकी इज़्ज़त बढ़ गयी थी और वे भरोसे के आदमी हो गये थे अब पत्नी हर काम में उनकी राय लेने लगी थी

एक दिन पत्नी से सामना हुआ तो रज्जू भाई ने पूछा, ‘आप अब तो हमें नालायक नहीं समझतीं?’

पत्नी हल्के से मुस्कराकर बोली, ‘नहीं, पहले जैसा नहीं अब तो बहुत सुधर गये हो ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 4 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 4 से आगे …

समवेत- बहता पानी रुकने लगा…सड़ने लगा… मछलियाँ और जलचर मरने लगे…आदमी का जीवन थमने लगा…दूषित जल से आदमी बीमार पड़ने लगा।

(कुछ पात्रों द्वारा समवेत वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा दर्शाया जाएगा।)

3- तन की बीमारी जल्दी ठीक हो सकती है, मन के इलाज में समय लगता है।

4- लालच और लापरवाही के रोगी आदमी ने अमूल्य पानी का मूल्य समझा ही नहीं।

5- पानी प्राकृतिक संसाधन है, इसे तैयार नहीं किया जा सकता।

6- इसे रिसाइकिल करना होता है।

7- जल के स्रोतों को रिचार्ज करना होता है।

8- धरती का तीन-चौथाई हिस्सा पानी से घिरा है।

9- पर उपलब्ध पानी का केवल एक प्रतिशत उपयोग के योग्य है।

10- इस एक प्रतिशत पर मनुष्य के अलावा वनस्पति, पशु, सिंचाई, उद्योग भी निर्भर हैं।

1- बारिश के माध्यम से प्रकृति का उपहार देती है।

2-पानी का समुचित संरक्षण हम नहीं कर पाते।

3- पानी का समुचित संचयन हम नहीं कर पाते।

4- बारिश का अधिकांश पानी नदी, नालों से होकर खारे समुद्र में जा मिलता है।

5- अच्छी बरसात के लिए चाहिए पहाड़ और जंगल।

6- आदमी ने काट दिए जंगल।

7- बादल रुकना बंद हो गए।

8- आदमी ने पाट दिए पहाड़।

9- बादल बरसना बंद हो गए।

10- आदमी ने सुखा डाले ताल तलैया।

1- बादल भी सूख गया भैया।

2- आदमी की लापरवाही बढ़ती गई।

3- बरसात लगातार घटती गई।

 

समवेत- आदमी ने काट दिए जंगल…बादल रुकना बंद हो गए…आदमी ने पाट दिए पहाड़… बादल बरसना बंद हो गए…आदमी ने सुखा डाले ताल तलैया…बादल भी सूख गया भैया …आदमी की लापरवाही बढ़ती गई… बरसात लगातार घटती गई…।

(समवेत वाक्यों पर कुछ पात्रों द्वारा मूक अभिनय किया जाएगा।)

4- घरों में पाइपलाइन से आने लगा पानी।

5- पानी के प्राकृतिक स्रोत उपेक्षा के शिकार हो चले।

6- जनसंख्या का विस्फोट बढ़ता गया।

7- भूजल का स्तर घटता गया।

8- कभी चक्र बनाया है..?

9- एक भी बिंदु ना हो तो चक खंडित हो जाता है।

10- आदमी ने जगह-जगह खंडित कर दिया जलचक्र।

समवेत- एक भी बिंदु ना हो तो चक्र खंडित हो जाता है…आदमी ने जगह-जगह खंडित कर दिया जलचक्र।

(उपरोक्त वाक्यों को कुछ पात्र मूक अभिनय से दर्शाएँगे।)

समवेत-

घटता जल, संकट में आज-संकट में कल। घटता जल, संकट में आज-संकट में कल।

10- याद रहे, जल है तो कल है।

समवेत- जल है तो कल है…जल है तो कल है।

क्रमशः  —— 5

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।) 

©  संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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English Literature – Poetry ☆ The Ultimate Truth… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

Today, we present a poetry depicting the ultimate truth of life, written by Captain Pravin Raghuwanshi ji in loving memory of his mother. Yes, it is true the ultimate destination of all human beings is Panchtatva that connotes the five elements i.e. Ether (Akash), Wind (Vayu), Fire (Agni), Water (Jal) and Earth (Prithvi).  We are emotionally with Captain Pravin Raghuwanshi ji at this moment of grief by praying almighty that may his mother’s  soul rest in peace. 

☆  The Ultimate Truth… ☆

(We dedicate today’s issue of e-abhivyakti in honour of respected mother Late Durga Singh Raghuvanshi ji.)

 

In midst of crowd of

Some royal paths

Some golden lanes,

Few roads of luxurious opulence

Many avenues of extravagance,’

Numerous gleaming pathways of possessions,

There remains a solitary

narrow dusty track

As a sentinel of aspirations of soil

Keeping alive the potential of

grass to grow, again and again

I’ve always listened to my heart

Each time, at every crossroad

I chose the dusty trail…

 

O’ laughers of my lonely journey!

O’ choosers of luxurious paths!

One day, you’ll have to return to me

Like bird flying high returning

to earth, to perch in its nest…

No matter, however high you fly,

No matter, however much you amass…

 

No matter, however much you

indulge in limitless luxuries,

Mingling of your perishable body in the mother earth,

And, the grass abode being your final shelter

Is the ultimate truth…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ 

☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल☆ 

 

किस सा किस्सा?, कहे कहानी

गल्प- गप्प हँस कर मनमानी

 

कथ्य कथा है जी भर बाँचो

सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी

 

बोध करा दे सत्य-असत का

बोध-कथा जो कहती नानी

 

देते पर उपदेश, न करते

आप आचरण पंडित-ज्ञानी

 

लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें

कभी पहेली, पर ज़िद ठानी

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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