मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 52 – गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  गझल  “ना इथे ना राहते आहे तिथे।  सर्वव्याप्त अदृश्य ईश्वर का साथ और पृथ्वी  पर उसकी अपेक्षाओं  पर आधारित एक अप्रतिम रचना । सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित संवेदनशील रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 52 ☆

☆ गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ 

 

सोसला  दुष्काळ हा, आता तरी,

पावसाच्या बरसु दे झरझर सरी

 

जातिधर्माचे कशाला दाखले

वाढते आहे विषमतेची दरी

 

तू किती नाकारल्या काळ्या मुली

भांडते रात्रंदिनी गोरी परी

 

कष्ट करणे टाळले वरचेवरी

देत आहे कोण भाजी भाकरी ?

 

ना इथे ना राहते आहे तिथे

भेटला मज विश्वव्यापी तो हरी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 31 – बापू के संस्मरण-5 मैं तुझसे डर जाता हूं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मैं तुझसे डर जाता हूं”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण – 5- मैं तुझसे डर जाता हूं☆ 

 

साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था । प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं । त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं । गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना” ।

लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे । काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचे गिर गई । उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, “तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?”

लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, “तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?” लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, “तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया” । बा बोलीं, “पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?” और बा भी उनके साथ काम करने लगीं ।

शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, “मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?” गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, “क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?” बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों –“आप और मुझसे डरते हैं!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 1 – फलसफा जिंदगी का ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता फलसफा जिंदगी का

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ फलसफा जिंदगी का ☆

फलसफा जिंदगी का लिखने बैठा था,

कलम स्याही और कुछ खाली पन्ने रखे थे पास में ||

 

सोच रहा था आज फुर्सत में हूँ,

उकेर दूंगा अपनी जिंदगी इन पन्नों में जो रखे थे साथ में ||

 

कलम को स्याही में डुबोया ही था,

एक हवा का झोंका आया पन्ने उड़ने लगे जो रखे थे पास में ||

 

दवात से स्याही बाहर निकल गयी,

लिखे पन्नों पर स्याही बिखर गयी जो रखे थे पास में ||

 

हवा के झोंके ने मुझे झझकोर दिया,

झोंके से पन्ने इधर-उधरउड़ने लगे जो स्याही में रंगे थे ||

 

कागज सम्भालने को उठा ही था,

दूर तक उड़ कर चले गए कुछ पन्ने जो पास में रखे थे ||

 

उड़ते पन्ने कुछ मेरे चेहरे से टकराए,

चेहरे पर कुछ काले धब्बे लग गए लोग मुझ पर हंसने लगे थे ||

 

नजर उठी तो देखा लोग मुझे देख रहे थे,

लोगों ने मेरी जिंदगी स्याही भरे पन्नों में पढ़ ली जो बिखरे पड़े थे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 30 ☆ बँधी प्रीति की डोर ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता बँधी प्रीति की डोर  । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 30 ☆

☆ बँधी प्रीति की डोर  ☆

 

भीनी -भीनी खुश्बू ने भरमाया है.

मेरे मन की सांकल को खटकाया है

 

छेड़ा अपना राग समय ने अलबेला

जीवन की उलझन को फिर उलझाया है.

 

बँधी प्रीती की डोर, खो गई मैं देखो

प्रीतम ने ऐसा बादल बरसाया है.

 

पानी का बुलबुला एक जीवन अपना

क़ूर समय से पार न कोई पाया है.

 

मौन है जिन्दगी भटकती राहों में

देर हो गयी अब न कोई आया है।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 38 ☆ मशाल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ मशाल ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 38 ☆

☆ मशाल   ☆

रेगिस्तान सी तन्हाई है मुझमें-

बहुत चली हूँ नंगे पाँव

तपती हुई बालू पर,

बहुत खोजा है मेरे बेचैन दिल ने

पानी की तरह ख़ुशी को

जो किसी मृगतृष्णा की तरह

मेरी उँगलियों से फिसलती रही,

बहुत सहा है मैंने

उबलती हुई हवाओं को

जो मेरे बदन पर वार करती रहीं

और छालों से ढक दिया…

 

हाँ,

रेगिस्तान सी तन्हाई है मुझमें,

पर मुझमें एक अलाव की लौ भी है-

और यह लौ

सीने पर लाख ज़ख्म होने पर भी

मुझे बुझने नहीं देती

और शायद इसीलिए मैं रुदाली नहीं बनी,

मैं बन गयी एक मशाल

जो राहगीरों को रौशनी दिखाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 18 ☆ कविता – बेरिकेड्स ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “बेरिकेड्स”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 18

☆  बेरिकेड्स ☆

जिंदगी की सड़क पर

खड़े हैं कई बेरिकेड्स

दोनों ओर खड़े हैं तजुर्बेकार

वरिष्ठ पहरेदार

करने सीमित नियति

सीमित जीवन की गति

 

कभी कभी तोड़ देती हैं

जिंदगी की गाडियाँ

बेरिकेड्स और सिगनल्स

भावावेश या उन्माद में

कभी कभी कोई उछाल देता है

संवेदनहीनता के पत्थर

भीड़तंत्र में से

बिगाड़ देता है अहिंसक माहौल

तब होता है – शक्तिप्रयोग

नियम मानने वाले से

मनवाने वाला बड़ा होता है

अक्सर प्रशासक विजयी होता है

 

आखिर क्यों खड़े कर दिये हमने

इतने सारे बेरिकेड्स

जाति, धर्म, संप्रदाय संवाद के

ऊंच, नीच और वाद के

कुछ बेरिकेड्स खड़े किए थे

अपने मन में हमने

कुछ खड़े कर दिये

तुमने और हितसाधकों नें

घृणा और कट्टरता के

अक्सर

हम बन जाते हैं मोहरा

कटवाते रह जाते हैं चालान

आजीवन नकारात्मकता के

 

काश!

तुम हटा पाते

वे सारे बेरिकेड्स

तो देख सकते

बेरिकेड्स के उस पार

वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित

एक वैश्विक ग्राम

मानवता-सौहार्द-प्रेम

एक सकारात्मक जीवन

एक नया सवेरा

एक नया सूर्योदय।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ऊँचाई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ऊँचाई ☆

 

बहुमंजिला इमारत की

सबसे ऊँची मंजिल पर

खड़ा रहता है एक घर,

गर्मियों में इस घर की छत

देर रात तक तपती है,

ठंड में सर्द पड़ी छत

दोपहर तक ठिठुरती है,

ज़िंदगी हर बात की कीमत

ज़रूरत से ज्यादा वसूलती है,

छत बनाने वालों को ऊँचाई

अनायास नहीं मिलती है..!

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 3:29 बजे, 20 मई 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 52 ☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य   “मांगो सबकी खैर।  श्री विवेक जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है – “हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.” यह कटु सत्य विश्व के सभी महात्माओं के लिए सार्थक लगता है। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 52 ☆ 

☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆

महात्मा कबीर बजार में खड़े सबकी खैर मांगते हैं  ! पर खैर मांगने से करोंना  करुणा करे तो क्या बात होती.

निर्भया को, आसिफा को,दामिनी को  खैर मिल जाती तो क्या बात थी.मंदसौर हो, दिल्ली हो बंगलौर हो मुम्बई हो ! ट्रेन हो उबर, ओला हो ! हवाई जहाज हो ! शापिंग माल हो हर कहीं जंगली कुत्ते तितलियों के पर नोंचने पर आमादा दिखते हैं. हर दुर्घटना के बाद केंडल मार्च निकाल कर हम अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं, जिसे जिस तरह मौका मिलता है वह अपनी सुविधा से अपनी पब्लिसिटी की रोटी सेंक लेता है, जिससे और कुछ नही बनता वह ट्वीट करके, संवेदना दिखाकर फिर से खुद में मशगूल हो जाता है. जिसके ट्वीटर पर एकाउंट नही है वे भी व्हाट्सअप पर इसकी उसकी किसी न किसी की कविता को हरिवंशराय बच्चन की, जयशंकर प्रसाद  या अमृता प्रीतम की रचना बताकर कम से कम पोस्ट फारवर्ड करने का सामाजिक दायित्व तो निभा ही लेता है. पर स्त्री के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव कौन बोयेगा यह यक्ष प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है.

खैर मांगने से किसान के इंजीनियर बेटे को नौकरी मिल जाती तो क्या बात थी. खैर मांगने से मजदूर की मजबूरी मिट जाती तो क्या बात थी ।खैर मांगने से रामभरोसे को जीवन यापन की न्यूनतम सुविधायें मिल जातीं तो क्या बात थी.और तो और खैर मांगने से नेता जी को वोट ही मिल जाते तो क्या बात होती. वोट के लिये भी किसी को गरीबी हटाओ के नारे देने पड़े, किसी को फुल पेज विज्ञापन देना पड़ा कि हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं, किसी को फील गुड का अहसास टी वी के जरिये करवाना पड़ा तो किसी को पंद्रह लाख का प्रलोभन देना पड़ा. अच्छे दिन आने वाले हैं यह सपना दिखाना पड़ा. सलमान की तरह शर्ट भले ही न उतारनी पड़ी हो पर सीने का नाप तो बताना ही पड़ा, चाय पर चर्चा करनी पड़ी तो खटिये पर चौपाल लगानी पड़ी. वोट तक इतनी मशक्कत के बाद मिलते हैं, खैर मांगने से नहीं. दरअसल अबकी बार जब महात्मा कबीर से मेरी मानसिक भेंट होगी तो मुझे उन्हें बतलाना है कि आजकल  बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न खैर.

सच तो यह है कि हम महात्मा कबीर से एकांत में मिलते ही तो नही. जिस दिन महात्मा कबीर से हम अलग अलग अकेले में गुफ्तगू करने लगेंगे, सबको हर व्यंग्यकार में महात्मा कबीर नजर आने लगेगा. जिस दिन हर बंदा महात्मा कबीर के एक दोहे को भी चरित्र में उतार लेगा उस दिन महात्मा कबीर फिर प्रासंगिक हो जायेंगे. पर हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.

क्योकि महात्मा कबीर ढ़ाई अक्षर प्रेम के  पढ़वा देगे, वे हमारे साथ बुरा देखने  निकल पड़ेगे और हमें अपना दिल खोजने को कह देगे. यदि कहीं महात्मा कबीर ने याद दिला दिया कि जाति न पूछो साधु की तब तो चुनाव आयोग के ठीक सामने धर्मनिरपेक्ष देश में  जाति के आधार पर सरे आम जीतते हारते हमारे कैंडिडेट्स का क्या होगा ? इसलिये  हमें तो महात्मा कबीर के चित्र पसंद है जिसका इस्तेमाल हम अपनी सुविधा से अपने लिये करके प्रसन्न बने रह सकें.महात्मा कबीर पर पीएचडी की जाती है, महात्मा कबीर के नाम पर सम्मान दिया जाता है, महात्मा कबीर पर गर्व किया जाता है उन पर भाषण  और निबंध लिखा  जाता है.हमने उन्हें पाठो में सहेजकर प्रश्न पूंछने उत्तर देने और नम्बर बटोरने का टापिक बना छोड़ा है.  सब करियेगा पर उससे पहले मेरे कहने से ही सही कभी एकांत में महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स कीजीये. उनके विचार मालुम न हो तो गूगल से निसंकोच पूछ लीजियेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 49 – कविता – ॐ निनाद में शून्य सनातन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम कविता  “ॐ निनाद में शून्य सनातन ।  इस आध्यात्मिक रचना का शब्दशिल्प अप्रतिम है। इस सर्वोत्कृष्ट  रचना के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 48 ☆

☆ कविता  – ॐ निनाद में शून्य सनातन

ॐ निनाद में शून्य सनातन

है ब्रह्मांड समस्त समाहित।

 

देवगणो ने मिलकर किया

नव सृष्टि का विस्तार

विष्णु पद से निकली गंगा

शिव जटा पर रही सवार

ब्रह्मांड सदा गुंजित मान

स्वर ॐ निरंतर प्रवाहित।

 

आदि अनंत के कर्ता शिव

अनंत कोटि प्रतिपालक

कण कण रूप अजय अक्षुण

नाद करत मृदंग संग ढोलक

शिव तांडव नित जनहित।

सोहे नटराज रुप जनहित

 

कल कल वेग निरंतर बहती

निर्झर झर झर वन उपवन

गूँज पर्वतों पर बिखराई

ऋषि मुनियों का तपोवन

स्वर लहरी जन जन प्रेरित

श्रंग नाद शिवम हिताहित।

 

देवो के महादेव सुशोभित

हिमगिरि सूता संग वास

भस्मी भूत लगाए रुद्रगण

पाए निरंकारी विश्वास

जन जन के प्रतिपालक शंभू

ॐ सत्य शिवम पर मोहित।

 

ॐ निनाद में शून्य सनातन

है ब्रह्मांड समस्त समाहित।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 6 – संदेश ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘संदेश’ ।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 6 ☆ 

☆ संदेश 

आपल्या

आकांती हिमवर्शावाने

अवघं जीवन

उध्वस्त करण्याच्या

उन्मादात

शिशिराने

थैमान मांडला होता.

त्याच वेळी,

झाडांचा संदेश घेऊन

निघालेली पाने

मातीच्या कानी लागत

म्हणाली-

माते, आता तरी वाहू दे

तुझ्या काळजातील अमृतधारा

मिळू दे थेंब…थेंब ….

झाडांच्या शिखा-शेंड्यांना

उमटू देत पुन्हा

शाश्वताच्या खाणा-खुणा

त्यांच्या कटी-खांद्यावर

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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