हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 16 – पीली महकती यह सुबह …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “पीली महकती यह सुबह …..। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 16– ।। अभिनव गीत ।।

☆ पीली महकती यह सुबह  ….☆

 

जून की

पीली महकती

यह सुबह

 

गंध से भीगे

करोंदों की

उमर पर

तरस खाती

सी हवा लगती

मगर पर

 

उभर आती

है हरी

गीली सतह

 

बाँह पर रखे

हुये सिर

पड़ी कल से

ऊँघती है

स्मृति में जो

अतल -तल सी

 

स्वप्न में

कोई चुनिंदा

सी बजह

 

इधर करवट

लिये धूमिल

है निबौरी

पान की मुँह

में दबाये

सी गिलौरी

 

गुमशुदा कोई

गिलहरी

की तरह

 

© राघवेन्द्र तिवारी

22-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62 ☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक सटीक  व्यंग्य एक श्वान के वेदनामय स्वर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62

☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ 

थैंक्यू आदरणीय जी…आपने अपने ‘मन की बात’ में देशी श्वानों को मान सम्मान देते हुए राष्ट्र के हर नागरिक को प्रेरणा दी कि वे देशी श्वान पालें, क्योंकि देशी श्वान पालने का खर्च भी कम बैठता है। आप महान हैं, ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले व्यक्तित्व हैं और सबके अच्छे दिन लाने में आपका अटूट विश्वास है। हम सब देशी श्वान आपकी दिल से तारीफ करते हुए आपको धन्यवाद देते हैं। अभी तक हमने दुनिया में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं देखा जैसे आप हो, इसीलिए हम सब श्वान गौरव महसूस कर रहें हैं। अधिकांश प्रधानमंत्री विदेशी कुत्ता पालने में विश्वास करते हैं एक अकेले आप ऐसे हैं जो देसी कुत्ता पालने की सलाह देते हैं, और देशी श्वानों के अच्छे दिन लाने जैसे प्रयास करते हैं। हर पल आप तरह-तरह से नये रिकॉर्ड बना देते हैं। आप में विश्व गुरु बनने के सारे गुण हैं। आप हमारे माई बाप हैं जो हमारा इतना ध्यान रखते हैं, और हमारा महत्त्व समझते हैं वरन् पिछले सत्तर सालों से यहां का हर नागरिक हमें पत्थर मारता रहा और विदेशी कुत्ता पालता रहा।आप खुद सोचिए कि पूरे देश में विदेशी श्वान पालने में सत्तर साल में कितने करोड़ अरबों रुपए खर्च हो गए होंगे,इतने रुपयों में तो पूरी गरीबी दूर हो जाती और सबको रोजगार मिल जाता।आप तो अच्छे से जानते हैं कि विदेशी श्वानों के कितने नखरे होते हैं चाहे वो चीन का श्वान हो, चाहे कहीं और का…..।

आप क्रांतिकारी प्रधानमंत्री हैं, विश्व गुरु बनने की तैयारी में हैं इसलिए ऐसे विस्फोटक निर्णय लेने में आपका जबाव नहीं। आपने मन की बात में श्वानों के साहस और देशभक्ति की जो तारीफ की,उसी दिन से देश भर के गली गली मोहल्लों में अब लड़के और शराबी देशी श्वानों को पत्थर मारने में संकोच करने लगे हैं, आप सही में गजब के आदमी हैं, इसीलिए हम लोग भी हर गली मोहल्लों में शेर जैसा सिर उठाकर घूमने लगे हैं और कोई सफेद कपड़े वाला ‘हाथ’ दिखाता है तो हम गुर्राने में संकोच नहीं करते हैं। सच्ची बात तो जे है कि अब विदेशी कुत्ते वाले मालिक हमसे जलने लगे हैं। पहले जब विदेशी कुत्ते लघुशंका और दीर्घ शंका के लिए सड़क पर आते थे तो उनका मालिक हमारे ऊपर पत्थर मारता था हालांकि विदेशी कुतिया हमें देखकर पूंछ हिलाती थी पर मालिक का अहंकार आड़े आ जाता था, विदेशी कुतिया को देखकर हम ललचाते भी थे। भाई गजब हुआ एक ही दिन से गजब का क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला कि अब बड़े बंगलों की मेडमे भी बड़े प्यार से बुलाकर हमें रोटी खिलाने लगीं हैं, अब वे सब हमें स्ट्रीट डाग कहने में संकोच करने लगीं हैं, चूंकि यह देशी श्वान पालने की सलाह राष्ट्रीय स्तर से दी गई है इसीलिए देश के हर नागरिक का मूड देशी नस्ल का श्वान पालने का बन गया है,हर फील्ड में हमें आत्मनिर्भर बनना है।

हमें आपको बताने में थोड़ा संकोच हो रहा है पर बताना भी जरूरी है कि पिछले बहुत सालों से देश में चल रहे श्वान नसबंदी कार्यक्रम से हमारी जनसंख्या घटती जा रही है। देश का करोड़ों अरबों रुपया श्वानों के बधियाकरण के काम में लगे लोग लूट रहे हैं।हर नगरनिगम और नगरपालिका में श्वानों के बधियाकरण के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। एक शहर में तो … एक बड़े अधिकारी की मेडम ने जुगाड़ लगाकर बधियाकरण का ठेका लिया और पिछले दो साल में बधियाकरण के नाम पर टुकड़े टुकड़े में दो करोड़ रुपए के बिल पास करा चुकी है,हर अधिकारी, महापौर, मंत्री के पास प्रर्याप्त कमीशन पहुंचा दिया जाता है और एक मंत्री जी को तो मेडम ने गिफ्ट में झबरा विदेशी कुत्ता भी दिया है।

सर जी, ये मेडम हम देशी श्वानों की नसबंदी बेरहम तरीके से कराती है जिससे हमारे भाई लोगो की मौत भी हो जाती है। इस मेडम ने एक खण्डहरनुमा कमरा किराए पर लिया है जिसकी छत जर्जर और दरवाजे टूटे हुए हैं, बारिश के रिसते पानी में जंग लगे औजारों व अव्यवस्थाओं के बीच हमारे श्वान भाईयों बहनों की नसबंदी करवाती है, इसी जानलेवा तरीके के चलते कुछ सालों से हमारे बहुत से श्वान भाई बहनों की जान जा चुकी है, कुल मिलाकर नसबंदी की आड़ में जमकर कमाई की जाती है, आम जनता को इस बात का पता न चले इसलिए मेडम स्थानीय पत्रकारों और चैनल वालों को भी भरपूर खुश रखती है, और ये शायद सब जगह ऐसा ही हो रहा होगा।

आपको यह बताते हुए हम सब देशी श्वानों को शर्म आ रही है कि नसबंदी वाले जर्जर कमरे के बाहर श्वानों की नसबंदी करने की आदर्श गाइड लाइन का बोर्ड लगा है जिसमें लिखा है कि श्वानों की नसबंदी कैसे की जानी चाहिए और इसमें क्या क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए, साथ में लाल बड़े अक्षरों से लिखा है कि गाइड लाइन का सख्ती से पालन होना चाहिए। सर जी गाइड लाइन में तो ये भी लिखा है कि श्वानों की नसबंदी के लिए एक स्वच्छ विकसित आपरेशन थियेटर एवं कुशल चिकित्सक भी होना चाहिए। आपरेशन के बाद श्वनों के आराम करने के लिए एक बढ़िया सेपरेट कमरा होना चाहिए उनके खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम होना चाहिए, जगह भी साफ-सुथरी होना चाहिए ताकि आपरेशन के दौरान या बाद में श्वानों को इंफेक्शन न हो, लेकिन यहां तो सब उल्टा-पुल्टा है, एक गन्दे कमरे में सिवाय गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।

सर जी हम श्वानों को इस बात का भी दुख है कि बधियाकरण के नाम पर हमारे स्वस्थ भाई-बहनों को भी पकड़कर इस कमरे में बीमार बना दिया जाता है। बड़े बड़े बंगलों में राज कर रहे विदेशी श्वानों का कभी बधियाकरण नहीं किया जाता, क्योंकि बाजार में उनकी संतानों को मुंह मांगे दाम पर लिया जाता है। सर जी आपने हम देशी श्ववानों पर विश्वास कर हमारी जाति पर बड़ा उपकार किया है, आपने अपने अनुभव से पूंछ हिलाते आदमीनुमा श्वानों को भी देखा है इसका हम सबको गर्व है।

आदरणीय जी, कृपया एक छोटा सा निर्णय और ले लेते तो देश का बड़ा भला हो जाता,यह कि विदेशी श्वानों के पालन पोषण पर प्रतिबंध लग जाता और देशी श्वानों के बधियाकरण पर रोक लग जाती, ताकि हमारी जाति के लोग आसानी से हर जगह उपलब्ध हो जाते। आदरणीय जी आपने हमारे वेदनामय स्वरों को धैर्य और संयम से सुना और मन की बात में हम श्वानों को मान दिया, इसके लिए आपका दिल से शुक्रिया।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #9 ☆ कोरोना का कहर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना कोरोना का कहर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #9 ☆ 

☆ कोरोना का कहर ☆ 

 

ये कैसा मंजर है

दिल में चुभता खंजर है

आंखें पथरा सी गई है

शरीर जैसे बंजर है

अस्पतालों में जगह नहीं है

बचने कीं कोई वजह नहीं है

दम तोड़ रहे मरीज अंदर

बाहर घर वालों को खबर नहीं है

श्मशानो की हालत बदतर है

जगह की भारी कमतर से

लाईन में लगीं है लाशें ही लाशें

श्मशान बन गया लाशों का घर है

अखबारों में छाया है कोरोना

आंकड़े देख आ रहा है रोना

कैसी महामारी आयी हुई हैं

मनुष्य बना,मौत के हाथ का खिलौना

अब तो संक्रमण तेजी

से बढ़ रहा है

निहत्था इन्सान बिना

टीका के लड़ रहा है

कहां जाकर रूकेगी

यह महामारी

कोरोना नित नए

किर्तीमान है गढ़ रहा है

कोरोना वालेंटियर्स

को सलाम

इतिहास में दर्ज होगा

उनका नाम

जान देकर दूसरे को बचाया

खुद रह गये वो गुमनाम

आओ मित्रों,

हम खुद को संभालें

प्रतिबंधों को

सख्तीसे पाले

जीवन है

बहुमुल्य हम सबका

सुरक्षित घर में रहकर

इसे बचाले

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ लुब्ध होई धरा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ लुब्ध होई धरा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

 

विष्णुकांती नभा, लुब्ध होई धरा

साठवे मृत्तिका, हर्ष तो बावरा

लुब्ध होई धरा…

 

स्पर्श नाजूकसा, थेंबधी झेलता

शिर्शिरी सृष्टिला, पावसा तोलता

गंधवा~यासही नाद ये मदभरा

लुब्ध होई धरा…

 

मेघ वर्षावती श्वास ओथंबले

वल्लरी वृक्षही भारले, गंधले

आगळे तेज ये शुभ्रशा निर्झरा

लुब्ध होई धरा…

 

सप्तरंगी झुला इंद्रधनु बांधतो

सोहळा देखणा पंख फ़ैलावतो

मीलनातूरसे रूप ये अंबरा

लुब्ध होई धरा…

 

चेतना अमृती जीवनी जागते

धुंद आलिंगनी नभ-धरा गुंगते

गर्भ मातीतला अंकुरे साजिरा

लुब्ध होई धरा…

 

गर्द हिरवा ऋतू ,सृष्टि नादावते

रोमरोमी तिच्या सौख्य रेंगाळते

तृप्ततेच्या नभी घन खुले हासरा

लुब्ध होई धरा…

 

©  सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

चेन्नई

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 15 ☆ निंदक… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “निंदक … )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 15 ☆ 

☆ निंदक … ☆

 

निंदका वंदावे, निंदका गुणावे

नेहमी निंदका, सन्मानित करावे

 

निंदक आहेत म्हणून,

आपण वंदक होतो

निंदक आहेत म्हणून,

आपण घडत असतो

 

असे हे निंदक नेहमी,

आपल्या पाळतीवर असावेत

असे हे निंदक नेहमी ,

आपल्या शेजारीच रहावेत

 

ते असतील शेजारी,

कृती आपली श्रेष्ठ होईल

ते असतील जवळपास

वर्तन आपोआप सुधारेल

 

झाडाची छाटणी केली,

झाड मस्त फोफावते

निंदनीय कृत्यापुढे,

वंदनीय कार्य बळावते

 

अश्या ह्या माझ्या चालू जीवनात

जे आलेत प्रत्यक्षात, अप्रत्यक्षात

 

त्या सर्व निंदकाचे मी,

आभारच मानतो

त्या सर्व निंदका मी,

असाच साथ द्या म्हणतो

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन

वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 65 ☆ व्यंग्य >> उनकी यादों में हम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक सार्थक  व्यंग्य  ‘उनकी यादों में हम’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा  और मानवीय व्यवहार पर उसके प्रभाव पर तीक्ष्ण  प्रहार किया है। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 65 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी यादों में हम

  वे मेरे पुराने मित्र थे। एकाएक उन्हें अन्यत्र एक स्वर्णिम अवसर मिला और वे ‘निष्ठुर परदेसी’ की तरह हमारे शहर के प्यार की अवहेलना करते हुए नये सूरज की तलाश में चले गये। बीच बीच में पता चलता रहा कि वे स्थितियों को अपने पक्ष में करते, ‘लफड़ों’ से बचते, अपनी प्रगति का मार्ग साफ कर रहे हैं और मुस्तकिलमिजाज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। मनुष्य सभी देवताओं को फूल-प्रसाद चढ़ाता जाए,कभी किसी देवता को रुष्ट न करे,तो इस असार संसार में विकास के द्वार स्वतः खुलते जाते हैं।

बीच बीच में पता चलता था कि वे काम-काज से हमारे शहर आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन वे मेरे घर कभी नहीं आये, न मुझे कभी संदेसा भेजा। उनके आने और इस तरह चले जाने की खबर पाकर मैं दुखी होता रहा और वे मुझे बार बार दुखी करते रहे। कई बार सुना कि वे मेरे मुहल्ले तक आये और अपना कोई काम साधकर, हवाओं में अपनी खुशबू छोड़ते हुए चले गये। फूलों, पत्तों, मुहल्ले की गलियों और गलियों के कुत्तों ने उनके आने की खबर दी, लेकिन उन्होंने मेरे घर की तरफ रुख़ नहीं किया, न मुझे याद किया।

फिर उड़ती खबरें मिलीं कि उनकी प्रतिभा और निखरी है तथा वे शिक्षा मंत्री की माकूल सेवा करके किसी सरकारी अकादमी के अध्यक्ष बन गये हैं। उसके बाद एक दिन एक लंबा-चौड़ा लिफाफा मेरे घर में गिरा। खोल कर देखा, वह उसी अकादमी के एक कार्यक्रम की सूचना थी जिसमें मुझे ‘शोभा बढ़ाने’ के लिए आमंत्रित किया गया था। अध्यक्ष के पद के ऊपर मित्र महोदय का नाम अंकित था।

बड़ी देर तक सोचता रहा कि इस सरकारी अकादमी को मेरे जैसे मामूली आदमियों की याद कैसे आयी। हम तो अपने शहर में भी ‘शोभा बढ़ाने’ के काबिल नहीं समझे जाते,तो शहर के बाहर वालों को हमसे यह उम्मीद कैसी? सोचते सोचते ज्ञान का विस्फोट हुआ कि यह कोई आमंत्रण नहीं था, यह तो केवल सूचना थी कि हर आमोख़ास को मालूम हो कि हमारे मित्र अकादमी की बुलन्द कुर्सी पर बैठ चुके हैं और इस देश के गली-नुक्कड़ में बैठे उनके भूले-बिसरे परिचितों का फर्ज़ बनता है कि उन्हें अपनी बधाई भेजें।

लिफाफे में फिर से झाँक कर देखा तो उसमें एक पत्र भी था। पत्र अकादमी के पैड पर था जिसमें बड़े अक्षरों में अध्यक्ष का नाम था, और बाकायदा पत्र- क्रमांक आदि अंकित था। पत्र में लिखा था कि उन्हें अध्यक्ष के पद पर बैठा कर फालतू झंझट में डाल दिया गया है। उन्हें पुराने मित्रों की बहुत याद आती है और उनसे मिलने का बड़ा मन करता है। मेरे लिए अनुरोध था कि जब भी उनके शहर जाऊँ, उनसे मिलना न भूलूँ। पत्र में उन दिनों को याद किया गया था जब कभी हम शाम को सदर बाज़ार में आवारागर्दी करते थे और पुलिया पर बैठकर मूँगफली चटकाते थे। काफी मार्मिक पत्र था।

मैंने बधाई भेजकर उनकी जयजयकार करने का फर्ज़ पूरा किया। पत्र में उन्हें लिखा कि उनके अध्यक्ष बनने से मेरे जैसे उनके सभी मित्र खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं और हम दिन-रात पालथी मारकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे इसी तरह नयी बुलन्दियाँ छूते रहें और हम मित्रों को उन पर गर्व करने का मौका देते रहें।

इसके बाद उनका पत्र तो नहीं आया, लेकिन कार्यक्रमों के कार्ड बराबर आते रहे। अपने खर्चे पर कहीं जाने से, पहले अपनी शोभा बिगड़ जाती है, इसलिए मैं उनके कार्यक्रमों की शोभा नहीं बढ़ा पाया।

एक बार उनके शहर जाने का मौका मिला। उनके कार्यालय गया। वे अपने पूरे गौरव के साथ उपस्थित थे। मुझसे ऐसे गले मिले जैसे शायद  सुदामा से कृष्ण से भी न मिले हों। इतनी देर तक मुझे भींचे रहे कि मुझे घबराहट होने लगी। छूटा तो तीन चार लंबी सांसें लेकर सामान्य हुआ। उन्होंने अपने सचिव को बुलवाया, मेरे लिए चाय मंगायी। बड़ी देर तक पुराने दिनों और पुराने मित्रों को याद किया। बीच बीच में कहते रहे, ‘कहाँ फँस गया, यार!’
विदा लेते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर बड़ी देर तक मेरे कंधे पर सिर धरे रहे। फिर चपरासी के हाथ से मेरा ब्रीफ़केस बाहर भिजवाकर सरकारी कार से मुझे गंतव्य तक पहुँचाया।

इस प्रेम-मिलन के कुछ दिन बाद सरकार बदल गयी और, जैसा कि होता है, सभी राजनीतिक नियुक्तियों पर झाड़ू मार दी गयी। पता चला कि मेरे मित्र भी इस सफाई अभियान में बुहार दिये गये। उसके बाद उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली।
कुछ दिन बाद फिर शहर के फूलों पत्तों और हवा में सरगोशियाँ शुरू हुईं कि वे आते और जाते रहते हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी अपने आने की सूचना नहीं दी। एक बार वे एक कार की अगली सीट पर बैठे हुए धीमी रफ़्तार से मेरी बगल से गुज़रे। उन्हें देखकर मैंने प्रसन्नता दिखाते हुए दाँत निकाले, लेकिन वे मुझे ऐसे देखते हुए निकल गये जैसे मैं पारदर्शी काँच का बना हूँ।

एक दिन एक मित्र ने बताया कि वे एक ‘ज़रूरी’ काम से उसके घर पधारे थे और चूँकि ‘काम’ था, इसलिए बड़ी देर तक आत्मीयता के साथ उसके घर में बैठे थे। उसने बताया कि बातचीत में कहीं मेरा ज़िक्र आया था, लेकिन उन्होंने माथे पर बल देकर कहा था, ‘उन्हें जानता तो हूँ, लेकिन कोई खास परिचय नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – # 63 ☆ मानस प्रश्नोत्तरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  ?? मानस प्रश्नोत्तरी?? ☆

प्रश्न- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।

 

प्रश्न- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।

 

प्रश्न- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परकाया प्रवेश आना चाहिए।

 

प्रश्न- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।

 

प्रश्न- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।

 

प्रश्न- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।

 

प्रश्न- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ कहो जीवन की जय ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता कहो जीवन की जय )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ 

☆ कहो जीवन की जय ☆ 

 

धरती माता विपदाओं से डरी नहीं

मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं

आसमान ने नीली छत सिर पर तानी

तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं

अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी

बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं

पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो

प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं

सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा

नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं

पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?

अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?

हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?

भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो

जान हथेली पर लेकर चलनेवाले

आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले

हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे

स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे

धीरज-धर्म परखने का है समय यही

प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही

सच मानो मावस में दीवाली होगी

श्वास आस की रास बिरजवाली होगी

बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं

हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं

जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय

गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय

प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो

पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो

मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो

महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 1 3 ☆

के.आसिफ़ अर्थात आसिफ़ करीम भारतीय फ़िल्म उद्योग के नामचीन निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने सर्वकालिक महान फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म बनाकर दुनिया के महान फ़िल्मकारों में स्थान पक्का कर लिया था। के.आसिफ़ का जन्म ब्रिटिश इंडिया के ज़िला इटावा में 14 जून 1922 को हुआ था, उनके पिता का नाम फ़ज़ल करीम था

वे महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा और महत्वपूर्ण है।

हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़, अभिनेता नज़ीर के भतीजे थे। शुरू में नज़ीर ने उन्हें फ़िल्मों से जोड़ने की कोशिश की लेकिन आसिफ़ का वहाँ दिल न लगा। नज़ीर ने उनके लिए दर्ज़ी की एक दुकान खुलवा दी। थोड़े दिनों में ही वो दुकान बंद करवानी पड़ी, क्योंकि ये देखा गया कि आसिफ़ का अधिकतर समय पड़ोस के एक दर्ज़ी की लड़की से रोमांस करने में बीत रहा था। नज़ीर ने तब उन्हें ज़बरदस्ती ठेल कर फ़िल्म निर्माण की तरफ़ दोबारा भेजा। बॉलीवुड के सफल फिल्म निर्माता और निर्देशकों की श्रेणी में टॉप पर रहने वाले के. आसिफ को लोग पागल फिल्म डायरेक्टर भी कहते थे।

उनकी पहली फ़िल्म फूल थी।  यह 1945 की चौथी सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म का निर्देशन के आसिफ ने किया था। पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। पृथ्वीराज कपूर, वीणा कुमारी, याकूब, सुरैया, दुर्गा खोटे और सितारा देवी ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं थीं।

1951 में उन्होंने हलचल फ़िल्म बनाई। एसके ओझा द्वारा निर्देशित है। मोहम्मद शफी, सज्जाद हुसैन संगीत निर्देशक थे और साथ फ़िल्म के गीत खुमार बाराबंकवी ने लिखे थे। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस, याकूब, जीवन और बलराज साहनी ने काम किया था।

के.आसिफ़ ज़िल्ले इलाही जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के निज़ाम से अभिभूत थे और हों भी क्यों न, क्योंकि अकबर ने 13 साल की आयु से 49 सालों में हिन्दोस्तान को बिखरे रजवाड़ों से एक साम्राज्य में तब्दील किया था। अकबर ने राजपूत नीति से खड़ा किया अखिल भारतीय प्रशासनिक ढाँचा 1556 से 1726 याने 170 साल अगली तीन पीढ़ी तक क़ायम रहा। अकबर शासन के तात्कालिक नियमों पर अडिग रहकर उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करता था। मुग़ले आज़म सलीम-अनारकली की नहीं अपितु बादशाह अकबर की फ़िल्म है।

के.आसिफ़ ने सैयद इम्तियाज़ अली ताज के उपन्यास “अनारकली” को आधार बनाकर फ़िल्म की पटकथा लिखवाई थी। अकबर के अबुल फ़ज़ल कृत ऐतिहासिक  दस्तावेज “आइने-अकबरी” में सलीम-अनारकली के प्रेम प्रसंग से सलीम के विद्रोह और अकबर-सलीम लड़ाई का कोई ज़िक्र नहीं है। लाहौर में अनारकली नाम की कनीज़ का हवाला ज़रूर मिलता है, जिसके नाम पर अभी भी अनारकली-गली लाहौर में मौजूद है। मुग़ले आज़म के पूर्व भी अनारकली नामक फ़िल्म बन चुकी थी, जिसमें प्रदीप कुमार और बीनारॉय ने काम किया था। के.आसिफ़ ने सलीम-अनारकली की भूमिका के लिए चंद्रमोहन-नरगिस को लेने की सोचा था लेकिन चंद्रमोहन की मृत्यु हो जाने से काम रुक गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का अंतिम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका- 6

वो गहननिंद्रा में निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था। उनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था और वे एक बार फिर सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे। वे मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बाँटते दिखे। तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना।

अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे। उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने का जरिया मिल गया था। एक दिन जीवन के मस्ती भरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला। उस दिन सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आँसू बहा रही थी। कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी।

उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे। शायद यही उनकी आखिरी इच्छा थी  कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌ भूखे बेजुबानों के काम‌ आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे।  जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी।  प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी और चरवाहे बच्चों की आँखें नम थी।  जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे। इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया, जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता। स्वतन्त्रता संग्राम के ऐसे कई अनाम और गुमनाम योद्धा इतिहास के पन्नों में भी उपलब्ध नहीं हैं।

उपसंहार – यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है। मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग  को अपने इंद्रधनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है तो कभी‌ भावुक‌ हृदय को झकझोरती भी है।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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