हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #42 ☆ जनता कर्फ्यू और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  जनता कर्फ्यू और हम

मित्रो, कोरोनावायरस के संक्रमण से बचाव के एक उपाय के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कल रविवार 22 मार्च 2020 को  *जनता कर्फ्यू* का आह्वान किया है। हम सबको सुबह 7 से रात 9 बजे तक घर पर ही रहना है। 24 घंटे की यह फिजिकल डिस्टेंसिंग इस प्राणघातक वायरस की चेन तोड़ने में मददगार सिद्ध होगी।

मेरा अनुरोध है कि हम सब इस *जनता कर्फ्यू का शत-प्रतिशत पालन करें।* पूरे समय घर पर रहें। सजगता और सतर्कता से अब तक भारतवासियों ने इस वायरस के अत्यधिक फैलाव से देश को सुरक्षित रखा है। हमारा सामूहिक प्रयास इस सुरक्षा चक्र का विस्तार करेगा।

एक अनुरोध और, आदरणीय प्रधानमंत्री ने संध्या 5 बजे अपनी-अपनी बालकनी में आकर *थाली और ताली* बजाकर हमारे लिए 24 x 7 कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों, स्वच्छताकर्मियों, वैज्ञानिकों और अन्य राष्ट्रसेवकों के प्रति धन्यवाद का भी आह्वान किया है। हम इस धन्यवाद में परिवार के लिए अखंड कर्मरत महिलाओं को भी सम्मिलित करें।

समूह के साथी भाई सुशील जी ने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया है। कल शाम ठीक 5 बजे हम *अपनी-अपनी बालकनी में आकर थाली एवं ताली अवश्य बजाएँ।*

एक बात और, कृपया बच्चों को घर से बाहर खेलने के लिए न जाने दें। यह कठिन अवश्य है पर इस कठिन समय की यही मांग है। बच्चों को एकाध मित्र/सहेली के साथ घर पर ही खेलने को प्रेरित करें। बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें।

विश्वास है कि हमारा संयम और अनुशासन हमें सुरक्षित रखेगा। स्मरण रहे, जो सजग हैं, उन्हीं के लिए जग है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 42 ☆ लघुकथा – कुशलचन्द्र और आचार्यजी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  की लघुकथा  ‘कुशलचन्द्र और आचार्यजी ’  में  डॉ परिहार जी ने उस शिष्य की पीड़ा का सजीव वर्णन किया है जो अपनी पढ़ाई कर उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो जाता है । फिर किस प्रकार उसके भूतपूर्व आचार्य कैसे उसका दोहन करते हैं।  इसी प्रकार का दोहन शोधार्थियों का भी होता है जिस विषय पर डॉ परिहार जी ने  विस्तार से एक व्यंग्य  में चर्चा भी की है। डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। शिक्षण के  क्षेत्र में इतने गहन अनुभव में उन्होंने निश्चित ही ऐसी कई घटनाएं  देखी होंगी । ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 42 ☆

☆ लघुकथा  – कुशलचन्द्र और आचार्यजी   ☆

 कुशलचन्द्र नामक युवक एक महाविद्यालय में अध्ययन करने के बाद उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो गया था। उसी महाविद्यालय में अध्ययन करने के कारण उसके अनेक सहयोगी उसके भूतपूर्व गुरू भी थे।

उनमें से अनेक गुरू उसे उसके भूतपूर्व शिष्यत्व का स्मरण दिलाकर नाना प्रकार से उसकी सेवाएं प्राप्त करते थे। शिष्यत्व के भाव से दबा और नौकरी कच्ची होने से चिन्तित कुशलचन्द्र अपने गुरुओं से शोषित होकर भी कोई मुक्ति का मार्ग नहीं खोज पाता था।

प्रोफेसर लाल इस मामले में सिद्ध थे और शिष्यों के दोहन के किसी अवसर को वे अपने हाथ से नहीं जाने देते थे।

वे अक्सर अध्यापन कार्य से मुक्त होकर कुशलचन्द्र के स्कूटर पर लद जाते और आदेश देते, ‘वत्स, मुझे ज़रा घर छोड़ दो और उससे पूर्व थोड़ा स्टेशन भी पाँच मिनट के लिए चलो।’

कुशलचन्द्र कंठ तक उठे विरोध को घोंटकर गुरूजी की सेवा करता।

एक दिन ऐसे ही आचार्य लाल कुशलचन्द्र के स्कूटर पर बैठे, बोले, ‘पुत्र, ज़रा विश्वविद्यालय चलना है। घंटे भर में मुक्त कर दूँगा।’

कुशलचन्द्र दीनभाव से बोला, ‘गुरूजी, मुझे स्कूटर पिताजी को तुरन्त देना है। वे ऑफिस जाने के लिए स्कूटर की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उनका स्कूटर आज ठीक नहीं है।’

आचार्यजी हँसे, बोले, ‘वत्स, जिस प्रकार मैं तुम्हारी सेवाओं का उपयोग कर रहा हूँ उसी प्रकार तुम्हारे पिताजी भी अपने कार्यालय के किसी कनिष्ठ सहयोगी की सेवाओं का उपयोग करके ऑफिस पहुँच सकते हैं। अतः चिन्ता छोड़ो और वाहन को विश्वविद्यालय की दिशा में मोड़ो।’

कुशलचन्द्र चिन्तित होकर बोला, ‘गुरूजी, हमारे घर के पास ऑफिस का कोई कर्मचारी नहीं रहता।’

आचार्यजी पुनः हँसकर बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र! तुम्हारे पिताजी बुद्धिमान और साधन-संपन्न हैं। वे इस नगर में कई वर्षों से रह रहे हैं। और फिर स्कूटर न भी हो तो नगर में किराये के वाहन प्रचुर मात्रा में हैं।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘लेकिन रिक्शे से जाने में देर हो सकती है। मेरे पिताजी ऑफिस में कभी लेट नहीं होते।’

आचार्यजी बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र, यह समय की पाबन्दी बड़ा बंधन है। अब मुझे देखो। मैं तो अक्सर ही महाविद्यालय विलम्ब से आता हूँ, किन्तु उसके बाद भी मुझे तुम जैसे छात्रों का निर्माण करने का गौरव प्राप्त है। अतः चिन्ता छोड़ो और अपने वाहन को गति प्रदान करो।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘गुरूजी, आज तो मुझे क्षमा ही कर दें तो कृपा हो।’

अब आचार्यजी की भृकुटि वक्र हो गयी। वे तनिक कठोर स्वर में बोले, ‘सोच लो, कुशलचन्द्र। अभी तुम्हारी परिवीक्षा अर्थात प्रोबेशन की अवधि चल रही है और परिवीक्षा की अवधि व्याख्याता के परीक्षण की अवधि होती है। तुम जानते हो कि मैं प्राचार्य जी की दाहिनी भुजा हूँ। ऐसा न हो कि तुम अपनी नादानी के कारण हानि उठा जाओ।’

कुशलचन्द्र के मस्तक पर पसीने के बिन्दु झिलमिला आये। बोला, ‘भूल हुई। आइए गुरूजी, बिराजिए।’

इसी प्रकार कुशलचन्द्र ने लगभग छः माह तक अपने गुरुओं की तन, मन और धन से सेवा करके परिवीक्षा की वैतरणी पार की।

अन्ततः उसकी साधना सफल हुई और एक दिन उसे अपनी सेवाएं पक्की होने का आदेश प्राप्त हो गया।

दूसरे दिन अध्यापन समाप्त होने के बाद कुशलचन्द्र चलने के लिए तैयार हुआ कि आचार्य लाल प्रकट हुए। उसे बधाई देने के बाद बोले, ‘वत्स! कुछ वस्तुएं क्रय करने के लिए थोड़ा बाज़ार तक चलना है। तुम निश्चिंत रहो, भुगतान मैं ही करूँगा।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘भुगतान तो अब आप करेंगे ही गुरूजी,किन्तु अब कुशलचन्द्र पूर्व की भाँति आपकी सेवा करने के लिए तैयार नहीं है। अब बाजी आपके हाथ से निकल चुकी है।’

आचार्यजी बोले, ‘वत्स, गुरू के प्रति सेवाभाव तो होना ही चाहिए। ‘

कुशलचन्द्र ने उत्तर दिया, ‘सेवाभाव तो बहुत था गुरूजी, लेकिन आपने दो वर्ष की अवधि में उसे जड़ तक सोख लिया। अब वहाँ कुछ नहीं रहा। अब आप अपने इतने दिन के बचाये धन का कुछ भाग गरीब रिक्शे और ऑटो वालों को देने की कृपा करें।’

आचार्यजी ने लम्बी साँस ली,बोले, ‘ठीक है वत्स, मैं पैदल ही चला जाऊँगा।’

फिर वे किसी दूसरे शिष्य की तलाश में चल दिये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 27 – हाथों में हाथ  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना ‘हाथों में हाथ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 27 – विशाखा की नज़र से

☆ हाथों में हाथ ☆

 

तुमनें हाथ से छुड़ाया हाथ

और हाथ मेरा

दुआ मांगता आसमां तकता रहा

 

मुझे नहीं चाहिए अनामिका में

किसी धातु का कोई छल्ला

जो दबाव बनाता हो हृदय की रग में

 

तुम बस मेरी उंगलियों के

मध्य के खाली स्थान को भर दो

मेरे हाथ को बेवजह यूँ ही पकड़ लो

 

ताकि, मैं महसूस कर सकूं

मुलायम हाथ की मज़बूत पकड़

कह सकूं,

           “दुनिया को हाथ की तरह 

             गर्म और सुन्दर होना चाहिये “

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆ नयी रोशनी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर समसामयिक प्रेरणास्पद कविता नयी रोशनी । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆

☆ नयी रोशनी

 

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी , वो सुबह जल्द ही आएगी,

हौसला अपना रखना बुलंद, ये ख़ुशी हमसे कब तक छुप पाएगी ,

एक जुट होने का है वक़्त , फिर देखो हर जीत हमारी कहलाएगी ,

हिम्मत ना हारना बस जरा सा रास्ता है बाकी, उस पार फिर खुशियाली लहरायेगी ,

जीवन है संघर्ष का नाम दूसरा, उसके बाद सफलता तुमसे हाथ मिलाएगी ,

ये उतार चढ़ाव तो हिस्सा है, चलते रहना ही जिंदादिली कहलाएगी ,

फबता है खिलखिलाना तुमको , ये चिंता तो चंद लम्हेँ ही रह पाएगी ,

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी, वो सुबह जल्द ही आएगी . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 ☆ जाऊ नकाचं तुम्ही ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “जाऊ नकाचं तुम्ही“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 3 ☆

☆ कविता – जाऊ नकाचं तुम्ही☆ 

ओठात थांबलेल्या शब्दात गुंतलो मी

ती नजर मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

झाकोळल्या दिशा अन् मेघगर्जनांनी

संध्या ती मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

रात्रीत काजव्याचे स्वर कर्णकटू कानी

ती रजनी मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सरता गं मध्यरात्र बोझील पापण्यांनी

ती निशा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सुटला पहाटवारा प्रीत बांधली ही कोणी

ती उषा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही.

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 16 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 16 – उन्माद ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अब तक आप पढ़ चुके हैं कि पगली दवा ईलाज से ठीक हो अपना सामान्य जीवन जी रही थी, उसनें सेवा धर्म अपना लिया था। निस्वार्थ सेवा ही उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन गया था। उसकी दिनचर्या अच्छी भली चल रही थी। अब आगे पढ़े—- )

पूर्वावलोकन–पगली माई जब लोगों की सेवा करते करते थक कर निढाल हो जाती, तो कुछ पल आराम करने के लिए वटवृक्ष की छांव में आकर लेट जाती। आज पगली माई का दिल बहुत घबरा रहा था।

आज वह ठीक से सो भीनहीं पाई थी, उसे देश और समाज की चिंता सता रही थी। एक तरफ पडोसी देश ईस्लाम के रक्षा के नाम पर विषवमन कर आतंकवादी कार्यवाही में सहयोग तथा समर्थन दे देश में अपने समुदाय के नवयुवा पीढ़ी को भड़का रहा था, तो दूसरी तरफ अपने देश के तथा कथित राजनेता अपना राष्ट्र धर्म भूल वोटों की खेती में छद्म राष्ट्रभक्ति का स्वांग रच कोरी लफ्फाजी करने में ही मस्त थे।  सभी देश हित का परित्याग कर सत्ता के लिए वोटों का समीकरण अपने पक्ष में करने के चक्कर में थे और जनता बेचारी चक्कर-घिन्नी बन खाली खेल देख रही थी। उसे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था।  चुनाव सर पर था और सत्ता प्राप्ति की चाह उन्हें घिनौनी राजनीतिक चालें चलनें पर मजबूर कर रही थी।

जनता के बीच धार्मिक उन्माद के बीज बो घृणा और नफरत का उन्माद फैला दिया गया था।  कोई खुद को इस्लाम का रक्षक झंडाबरदार बताता तो कोई खुद को हिंदुत्व का पैरोकार और कोई दलित हितों की बात कर अपने स्वार्थ की विषबेल सींच रहा था, कुछ लोग इंसानियत को टुकड़े टुकड़े कर धर्म रक्षा का नाटक कर रहे थे, सभी पार्टियों के नेता धर्म तथा इंसानियत का वास्ता दे आम इंसान का कत्ल करवा रहे थे, क्योंकि उनकी चिता की आग पर राजनीति की रोटी जो उन्हें सेंकनी थी।

वो उन देशवासियों के हत्यारे थे जिनका धर्म, संप्रदाय जातिवाद से कभी कोई रिश्ता भी न था। वे अपनी राह भटक चुके थे।  इन्ही बेकसूरों की चिंता पगली माई को खाये जा रही थी।  कुछ सोचो, जब हमारा राष्ट्र ही नही होगा, तो कहाँ होगा हिन्दू और कहाँ होगा मुसलमान?  आज देश की सारी फिजां में जहर घुला था, लोग अकारण एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, और पगली माई बरगद की छांव में सोई किसी अज्ञात भय आशंका से थर थर कांप रही थी।  उसका आशंकित मन बारबार किसी अनहोनी की आशंका से दहल रहा था।

आज भारत बंद का आह्वान था, जुलूस निकलने वाला था जिसका उद्देश्य विपक्ष का अपना शक्ति परीक्षण तथा पक्ष का उद्देश्य उसे रोकना था।  टकराव की स्थिति उत्पन्न
हो गई थी।  भीड़ जुट गई थी, जोर जोर से नारेबाजी हो रही थी – “जो हमसे टकरायेगा, मिट्टी में मिल जायेगा”, “जिन्दाबाद मुर्दाबाद” के नारों के बीच प्रशासनिक अमला पूरी तरह चाक चौबंद दिख रहा था।

इसी बीच किसी नें भीड़ के बीच पत्थर उछाल दिया था। पत्थर उछलना था कि, मानों कयामत आकर खड़ी हो मुस्कुरा उठी हो। उन्मादी भीड़ हिंसक हो उठी थी और राष्ट्रद्रोहीयों की बांछें खिल गई थी। लगातार ईंट पत्थर हवा में उछल उछल कर जमीन पर गिर रहें थे,। लोगों के घायल शरीरों से निरंतर रक्त के फौव्वरे फूट रहे थे। जहाँ शैतान के  चेहरे पर शैतानी की कुटिल मुस्कान थी, वहीं इंसानियत की आंखों में अपनी बेबसी पर दुख और पीड़ा।

इन्ही दृश्यों को पगलीमाई अस्पताल के गलियारे से देख रही थी। जब उससे हिंसा का नग्न तांडव नहीं देखा गया तो वह दौड़ पड़ी माँ भारती का प्रति रूप बन कर लोगों को हिंसा की ज्वाला से बचाने।

वह लगातार दोनों हाथों को उपर उठाये  समझाने वाले अंदाज में चीखती जा रही थी कि अचानक भीड़ से एक पत्थर उछला और सनसनाता हुआ पगली माई के सिर से टकराया तथा उसके जमींदोज होते होते अनेक पत्थर गिरे थे उसके उपर, उसे देख ऐसा लगा कि शक्ति का अवतार बन दुष्टो का संहार करने वाली नारीशक्ति ने आज अचानक अहिंसा का हथियार उठा लिया हो।

वह हिंसा का जबाब प्रतिहिंसा से नहीं अहिंसा से दे रही थी और पत्थरों की मार सहते सहते वहीं गिर गई।  ऐसा लगा जैसे पगली माई और पत्थरों का जनम जनम का पुराना नाता रहा हो। पुलिस ने लाठीचार्ज कर भीड़ को तितर बितर कर दिया था। जब तथा कथित देशभक्तों की भीड़ छंटी तो वहां का दृश्य हृदय विदारक था। बिखरे ईंट पत्थर तथा जूते चप्पलों के ढेर के बीच घायल पगली दर्द और पीड़ा से जल बिन मछली की तरह पड़ी हुई छटपटा रही थी।  जहाँ प्रशासनिक अमला कानूनी कार्रवाई में व्यस्त थे, वहीं दूसरी तरफ मीडिया कर्मी दंगे फसाद की जड़ तक पहुँच अपना सामाजिक दायित्व निभाते हुये सच्चाई उजागर करने के के प्रयास में प्राणपण से जुटे हुए थे। उन पत्थर दिलों के बीच पड़ी पगली दर्द और पीड़ा को पीने का प्रयास कर रही थी। ऐसा लगा जैसे पत्थरों और पगली का चोली दामन का साथ हो।  उसकी आंखों के आंसू उसकी पीड़ा बयां कर रहे थे, और अब राजनैतिक अंतर विरोध के स्वर मुखरित हो उठे थे।  आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी हो चला था जैसा कि हर घटना के बाद होता है।  और पगली माई आज फिर उसी अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती थी, जहाँ से पहले भी उसने नवजीवन पाया था। सड़क पर निरपराधों का खून देख फफक फफक कर रो पडी़ थी पगली की आत्मा।

अगले दिन अलसुबह के अखबारों में पगली के घायल होने का समाचार छपा तो लगा कि जैसे उसे देखने सारा शहर उमड़ पड़ा हो, क्योंकि तब तक उसके निस्वार्थ सेवा प्रेम की खबर सारे शहर में चर्चा का विषय बन चुकी थी।  आज क्या हिन्दू क्या मुस्लिम सारे लोग अपना मतभेद भुला पश्चाताप की मुद्रा में खड़े थे।  सबके सिर झुके थे, शर्म से, उन्हें अपनी करनी पर अफ़सोस था। और वह बिस्तर पर पड़ी पड़ी सबको मानों अपने ममता के दामन में समेट लेना चाहती हो। उसे किसी से कोई गिला शिक़वा नहीं, उसने सबको क्षमादान दे दिया था। और उसके भीतर मूर्तिमान हो उठी थी साक्षात माँ भारती।

क्रमशः  –—  अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 17  – महाप्रयाण 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – वर्ण संकर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “वर्णसंकर। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 35 ☆

☆ वर्णसंकर

सभी चारों वर्णों में चार मुख्य दोष या विकार भी होते हैं प्रत्येक वर्ण में एक-एक । ब्राह्मणों में मोह या लगाव नामक विकार होता है, क्षत्रियों में क्रोध विकार होता है, लोभ या लालच वैश्यों का विकार है, और शूद्रों में काम-अवैध यौन संबंध विकार होता है । अब विभिन्न वर्णों में ये दोष कहाँ से आते हैं? आप कह सकते हैं कि ये दोष या विकार प्रकृति के विभिन्न गुणों के दुष्प्रभाव हैं । मोह शरीर और मस्तिष्क में अतिरिक्त या ज्यादा सत्त्व का दुष्प्रभाव है (सत्त्व प्रकृति के तीनों गुणों में सबसे शुद्ध और श्रेष्ठ है लेकिन फिर भी यह भौतिकवाद के अधीन ही है और इसकी अति भी नकरात्मकता उत्पन्न करती है)। क्रोध शरीर और मस्तिष्क में राजस गुण की अधिकता का दुष्प्रभाव है (राजस का अर्थ गतिविधि, गति, बेचैनी है जो निश्चित रूप से क्रोध में वृद्धि करता है), और इसी तरह अन्य दो वर्णों के लिए भी । चारों वर्णों में कई अन्य मामूली दोष भी होते हैं । जब वर्ण व्यवस्था बनाई गयी थी तब ब्राह्मणों में कम से कम दोष होते थे, क्षत्रियों में ब्राह्मणों से अधिक और बाकी दो से कम, और इसी तरह से अन्य वर्णों के लिए ।

अब अंतरजातीय विवाह और वर्णसंकर को समझने की कोशिश करें। मान लीजिए कि एक ब्राह्मण लड़का वैश्य लड़की से शादी करता है । झूठ बोलना भी वैश्य वर्ण का एक दोष है, क्योंकि व्यापार में यदि आप झूठ नहीं बोलते हैं तो आपको व्यापार में लाभ नहीं मिल सकता है । अब मान लीजिए कि विवाह के परिणाम स्वरूप इस ब्राह्मण पुरुष और वैश्य लड़की के यहाँ एक लड़के का जन्म होता है । मान लीजिए कि जब यह लड़का बड़ा हो जाता है तो वह अपने वंश के अनुसार ब्राह्मण के कार्यों शिक्षक या पुजारी या ज्योतिषी आदि को अपनाकर अपने गृहस्थ जीवन को चलाने के लिए धन अर्जित करना चाहता है। अब इस लड़के में अपने पिता और माता दोनों के गुण होना स्वाभाविक हैं, इसका अर्थ है कि उसके अंदर वैश्य जैसे लालच और झूठ बोलने का दोष भी अपनी माता से आ गया होगा । तो क्या वह पुजारी के अपने कर्तव्य का पालन करने में सक्षम हो सकता है? क्या लालच उसके मस्तिष्क में नहीं आयेगा जब वह किसी व्यक्ति के लिए अनुष्ठानों और समारोहों के लिए कुछ पूजा या कर्मकाण्ड करेगा? हर बार जब भी कोई उसे यज्ञ या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों आदि के लिए आमंत्रित करेगा तो क्या उसका लालच समय के साथ साथ नहीं बढ़ेगा? वह उन्हें पूरी श्रध्दा या ध्यान से नहीं कर पायेगा क्योंकि उसका लक्ष्य केवल धन एकत्र करना होगा । इसके अतिरिक्त, अगर किसी ने उससे पूछा कि क्या वह अनुष्ठान ठीक से कर रहा है, तो क्या वह झूठ नहीं बताएगा कि “हाँ मैं ठीक से कर रहा हूँ” क्योंकि उसमे अपनी माँ वैश्य के गुण भी प्राप्त हुए हैं । और जिन लोगों के लिए वह इन अनुष्ठानों को करेंगे, उन्हें गलत अनुष्ठानों के कारण नकारात्मक प्रभाव का सामना भी करना पड़ेगा ।

इसी तरह कल्पना करें कि यदि वह ज्योतिषी के पेशे का विकल्प चुनता है, तो क्या वह पैसे कमाने के लिए गलत भविष्यवाणी नहीं करेगा और वह अपने ग्राहकों को कुछ अंधविश्वास पूर्ण अनुष्ठान या दान देने के लिए मजबूर भी कर सकता है ।

इसी प्रकार एक शूद्र लड़की के साथ एक क्षत्रिय लड़के के अंतरजातीय विवाह की परिस्थिति लें । मान लीजिए कि ऐसे विवाह के पश्चात एक लड़की का जन्म हुआ, जिसमें क्रोध और वासना का दोष पैतृक रूप से आ जायेगा ।

क्या यह समाज में अवैध यौन संबंध और अपराध (क्रोध और वासना के कारण) नहीं बढ़ाएगा? इस प्रकार के अवैध यौन संबंध जातियों और वर्णो के नियमों से परे हैं जो अवश्य ही शादी के लिए लड़के और लड़की के गुणों को मेल करके करने चाहिए (यहाँ शादी में लड़के और लड़की की जन्म कुंडली और शादी समारोह में किये जाने वाले अनुष्ठानों और कर्मकांडो के आलावा उनके प्रकृति के तीन गुणों सत्व, राजस और तामस के संयोजन का मिलान भी है) ।

इस तरह के वर्णसंकर से दुनिया की वर्तमान स्थिति की कल्पना करें, जो वास्तव में सभी के लिए अराजक हो चुकी है । मैंने आपको एक स्तर का उदाहरण दिया है । अब आप कल्पना करें कि अभी तक जातियों के बीच कितना मिश्रण और अंतर-मिश्रण हो चूका है । तो जरा सोचिये मानव शरीर और मस्तिष्क के अंदर प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, राजस और तामस कितने पतले (dilute) हो चुके हैं । यही कारण है कि कलियुग नरक से भी बुरा है । यहाँ राजनेता जनता के पैसे को उड़ा रहे हैं । ब्राह्मण माँसाहारी भोजन तक कर रहे है यहाँ तक की लोग परिवारों के भीतर भी अवैध यौन संबंध स्थापित कर रहे हैं । लोग छोटी छोटी बातों के लिए एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं । और आप जानते हैं कि यह सब शुरू हुआ केवल वर्णसंकर की वजह से ।

आशीष एक पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा था । उन्होंने अपनी चेतना एकत्र की और विभीषण से कहा, “महोदय, क्या इसका कोई समाधान नहीं है? इस परिदृश्य के अनुसार, भविष्य में परिस्थितियाँ और भी बदतर हो जाएंगी?”

कहा, “मेरे प्रिय मित्र, यह कलियुग का भविष्य है और यह ऐसा ही है । यहाँ तक ​​कि अगर हम लोगों को इसके विषय में बताने की कोशिश करते हैं, और कहते हैं कि वे गलत कर रहे हैं, तो वे हमारी बात नहीं सुनेंगे । मैंने आपको बताया कि प्रत्येक युग के अपने नियम हैं और भगवान विष्णु प्रत्येक युग में पृथ्वी के लोगों की सहायता के लिए आते हैं और उस युग की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म को फिर से स्थापित करते हैं । त्रेतायुगमें भगवान राम के रूप में आये थे, जिन्होंने कभी कोई नियम नहीं तोड़ा और पक्षियों, बंदरों, आदि जैसे ब्रह्मांड के छोटे जीवों की सहायता से रावण जैसे राक्षस का अंत किया और शारीरिक बल के उपयोग से नकारात्मकता समाप्त की । द्वापर युग में भगवान कृष्ण के रूप में आये जिन्होंने हमें सिखाया कि पारिवारिक जीवन का आनंद भोगते हुए भगवान की प्राप्ति कैसे की जाये और हमें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ भगवद गीता दिया । लेकिन कलियुग में यदि हम भगवद गीता के ज्ञान को आम लोगों को देने का प्रयास करेंगे, तो वे इसे सुनेंगे लेकिन अपने अमल में नहीं लायेंगे । कलियुग के लिए, भगवान की अलग योजना हैं, बस प्रतीक्षा करें और आपको याद रखना चाहिए कि भगवान विष्णु के कलियुग का अवतार अपने हाथों में तलवार के साथ आयेगा”

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 27 ☆ मालतीचं पत्र ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके स्वानुभव  एवं  संबंधों  पर आधारित  कथा  “मालतीचं पत्र”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 27 ☆

☆ मालतीचं पत्र ☆ 

(कथा)

रोजच्याप्रमाणे पोस्टमन दिसल्याबरोबर मंजुळा बाईंनी त्याला विचारलंच ..” आमचं  पत्र आलंय कां.? ” पोस्टमन फक्त गालातल्या गालात हसला व पुढं गेला त्याला हे नित्य परिचयाचं होतं.

पण त्यानंतर चारच दिवसांनी त्याने मंजुळाबाईंच्या हातात एक लिफाफा दिला व म्हणाला घ्या तुमच्या सुनबाईंचं पत्र.! अगदी उत्साहाने त्यांनी ते फोडलं पण वाचता येत नसल्याने त्यांनी आजूबाजूला पाहिलं तेवढ्यात आमच्या घराच्या ओसरीवर बसायला येणाऱ्या सदाला त्यांनी हाक मारली व म्हणाल्या ” सदा एवढं पत्र वाचून दाखव रं !”

मग ओसरीवरच मंजुळाबाई मांडी घालून डाव्या हाताचा कोपरा गुडघ्यावर टेकवून ऐटीत बसल्या अन् म्हणाल्या “बघ रं काय म्हणतीय मालती ?”

मालती हे माझं माहेरचं नाव पण मला त्या कायम त्याच नावानं बोलवायच्या.

आमचं. लग्न होण्यापूर्वी माझे सासरे वर्षभर अगोदर गेलेले होते. आम्हा दोघांना एकाच खात्यात एकाच दिवशी नोकरी लागल्याने आम्ही परगावी होतो. आणि मोठ्या दिरांच्या बदलीने तेही दूर त्यामुळे गावी त्या व शाळेत जाणारी दोन मुले गावी असायची.

साधारण १९६३ साल खेडेगावात त्यावेळी दुसरा  काही विरंगुळा नसायचा. मुलं शाळेत गेली की त्या एकट्या असायच्या. तशा माझ्या चुलत सासुबाई, आजेसासुबाई तिथंच असायच्या. आमचं घर बऱ्यापैकी ऐसपैस. आमची स्वयंपाकघरं वेगवेगळी पण ओसरी मोठ्ठ अंगण एकच होतं.

आजेसासूबाईंना सर्वजण मोठीआई म्हणायचे. म्हणजे वयाने तर होत्याच पण ओसरीचा अर्ध्या खणाचा भाग त्यांच्या बैठकीने व्यपलेला असायचा.

ओसरीवर बसून जाणायेणाऱ्यांकडे नव्वदाव्या वर्षीही त्यांचं अगदी बारीक लक्ष असायचं. अन् पोस्टमन घराच्या दिशेने येताना दिसला की म्हणायच्या ….

“अगं मंजुळा तुझ्या मालतीचं पत्र आलं गं ऽऽ आलं…!”

मी पोस्टकार्ड वर कधीच पत्र लिहीत नसे. कारण माझा मजकूर त्यावर कधी बसायचाच नाही.फुलस्केप वर पानभर आणि पाठपोठ असा माझा मजकूर असायचा….

माझ्या ठसठशीत अक्षरातला सविस्तर मजकूर वाचून त्यांना खूप आनंद व्हायचा. म्हणायच्या

बघा माझी मालती कशी रेघ न् रेघ कळवती लिहून काय झालं काय नाही…

माझ्या जन्म दिलेल्या मुलालाही नाही पण हिला किती काळजी असते.

माझं आलेलं पत्र त्या दिवसातून दोन तीनदा तरी भेटेल त्याच्याकडून वाचून घ्यायच्या.

माझ्या पत्रात माझं घरातलं सगळं आवरून ऑफिसला जाताना होणारी तारेवरची कसरत, ऑफिसात साहेबांचा खाल्लेला ओरडा. कारण एस एस.सी  झाल्यावर दोन वर्षांतच नोकरी सुरू.त्यामुळे वय आणि अनुभव दोन्ही बेताचेच.! असं सगळं माझं साग्रसंगीत वर्णन त्या पत्रात असायचं. त्याची त्यांना गंमत आणि कौतुक दोन्हीही वाटायचं.

आमची मुलं जरा मोठी झाल्यावर आम्ही उभयता मे १९७९ मध्ये “नेपाळ दार्जिलिंग” सहलीला गेलो होतो. तिथंन मी प्रवासाच्या सुरुवातीपासूनचं संपूर्ण सहलीचं वर्णन वेळोवेळी पाठवत होते.

त्यातल्या एका पत्रात मी हिमालयाच्या बर्फाच्छादित शिखरांचं वर्णन पाठवलं. कैलास पर्वताच नाव ऐकताच त्या म्हणाल्या बघा  कैलासराणा शिवचंद्रमौळी जिथं रहातो ते माझी सून मुलगा बघून आली. त्या रोज ते स्तोत्र म्हणत असल्यानं त्यांनी मला नंतर सांगितलं की तुमच्याबरोबर मी कैलास पर्वताचं दर्शन घेऊन आल्याचं मला जाणवलं.

पत्र म्हणजे तरी काय हो “या हृदयीचे त्या हृदयी.!”  आपल्या मनाच्या कप्प्यातल्या भावना इतरांना समजावून सांगण्याचा एक खूप सुंदर सोपं साधन !

आठवणींना उजाळा देणारी शब्दांजली म्हणजेच पत्र.! अगदी आत्ता हे लिहिताना माझ्या पूर्वीच्या सर्व आठवणी जाग्या झाल्या. म्हणून तर म्हणतात ” मनात दाटलेल्या भावनांना वाट मोकळी करुन देणारं हळूवार शस्त्र म्हणजे पत्र “!

मग ते पत्र श्रीसमर्थांनी छत्रपती संभाजी महाराजांना लिहिलेले असो, पूज्य साने गुरुजींनी लिहिलेली ,पं.जवाहरलाल यांनी प्रियदर्शनीस लिहिलेली, बॅ.पी.जी.पाटील यांनी पूज्य कर्मवीर भाऊराव पाटील यांना लंडनहून लिहिलेली, सीमेवरच्या वीर जवानाने त्याच्या प्रियजनांस लिहिलेली असो ही एक अत्यंत अनमोल ठेव आहे असे मला. वाटते.!

“पू. मंजुळा स्मृतीस अर्पण”

 

©®उर्मिला इंगळे

सतारा  मो –  9028815585

दिनांक:-.२१-३-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 ☆ मित….. (भाग-7) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 ☆ मित….. (भाग-7) ☆

रिमझिमला समोर पाहताच तो तिच्याकडे फक्त पाहत राहिला. ते छोटे छोटे मांजरीवाणी डोळे, काहीसे लांब मुलायम केस, उंची थोडी कमी होती. पण शरीर रचना अशी की एखाद्या  नटीला मागे टाकावं. आणि चेह-यावरचे तेज असे की झोपलेल्या सृष्टीला जागे करण्यासाठी दिनकराने तेज भरावे असे होते. तिला पाहताच सागरात डोलफ़िनने उंच झेप घेऊन आपला आनंद साजरा करावा. असं त्याचं मन अगदी आनंदाच्या सागरात उड्या मारत होते.

तिची सैरभैर फिरणारी नजर बहूतेक त्यालाच शोधत असावी. चहुबाजुला तिने आपल्या नजरेचा पसारा मांडला होता.  तेवढयात एक पन्नास – बावन वर्षांचा गृहस्थ येऊन तिला काहीतरी बोलू लागले. ती ही त्यांच्या गोष्टींना होकारार्थी मान हलवली. थोडे काळजीचे भाव चेह-यावर होतेच.  तिचे वडिल असावेत. असा मितने कयास बांधला. एक बारा वर्षाचा मुलगा, पंधरा साळा वर्षाची मुलगी, आई, बाबा आणि रिमझिम असा सारा परिवार तेथून जायला निघाला. रिमझिमने मागे वळून प्लॅटफार्मवर नजर भिरकावली. तेव्हा मित तिच्या अगदी जवळ उभा होता. ती थोडी घाबरली. पण तिला आनंद सुध्दा झाला. ते एकमेकांकडे बघतच राहिले. तिचे बाबा जवळ आले तेव्हा मितने त्याना नमस्कार केला.

मित- “नमस्ते अंकल. मै मित.”

ज्योतीप्रसाद – “नमस्ते बेटा. मै ज्योतीप्रसाद. रिमूने आपके बारे मे बताया.”

मित- “जी अंकल. हम दोनो बहोत अच्छे दोस्त है.”

मित त्यांच्यासोबत त्यांना हाटेलला गेला. त्याचा मनमिळाऊ स्वभाव आणि प्रभावी बोलणे यामुळे तो लवकरच त्यांच्या पुरण परिवारात मिसळला. रूमला बॅग वगैरे ठेऊन रिमझिमचे बाबा आणि मित सोफ्यावर गप्पा मारत बसले होते.

ज्योती प्रसाद- “आपकी बातें बहोत अच्छी हैं बेटा. लगता नहीं कि  पहली बार मिले है.”

मित- “जी  शुक्रिया अंकल. बस मम्मी पापा की मेहरबानी और आप जैसे बड़ो की दूवा है.”

गप्पा करत असताना मितचा फोन वाजू लागला. त्याने तो उचलला. प्रियंकाचा होता.

मित- “हॅलो”

प्रियंका- “अरे कुठे आहेस तू. आणि किती फोन केले तुला. कमीत कमी फोन तर रिसिव्ह कर.”

मित- “अगं हो… सोर्री… मी  एका महत्वाचा कामात अडकलो होतो. म्हणून…..”

प्रियंका- “अरे म्हणून काय, येतोयस ना. उशीर होतोय नाटकाला.”

मित- “ओके. तुम्ही पोहोचले का नाट्यगृहाला”

प्रियंका- “नाही. मी आता सी. एस. टी. ला आहे.  आणि लवकरच पोहोचतेय. तू पण जिथे असशील तिथून ये लवकर”

मित – “बरं चल मी येतोय.”

त्याने फोन ठेवला.

मित – “अंकल वो कूछ ज़रूरी काम है मै वो पुरा करता हूँ तब तक आप फ़्रेश हो जाईए.”

ज्योति प्रसाद- “अरे बेटा कहा चल दिए.”

मित- “जी अंकल, वो हमारे कॉलेज का ड्रामा कॉम्पटिशन है. और हमारी कॉलेज जो ड्रामा प्ले कर रही है वो मैने लिखा है और डायरेक्ट भी मै हक कर रहा हूँ. क्या आप आना पसंद करोगे.”

ज्योती प्रसाद- “अरे नही बेटा, हम अभी इतनी दुर से सफर करके आए. अभी कुछ देर आराम करेंगे. फिर बाद मै और भी घुमना है. आप चाहो तो बच्चो को ले जाओ”

त्यांनी नजर वळवून मुलांकडे पाहीले. गिरीष एकदम थकलेल्या अवस्थेत म्हटला

गिरीष- “मै बहोत थक गया हूँ पापा मै नही जाऊंगा”

सागरीकाचेही काहीसे असेच सुर होते. रिमझिमच्या आईला मात्र नाही म्हणणे योग्य वाटले नाही. ती म्हटली

आई- “अगर नही गए तो उन्हे बूरा लगेगा. चलिए ना ”

रिमझिम आईच्या सूरात सूर मिसळून

रिमझिम- हा पापा. और हम आये ही है महाराष्ट्रा घुमने.”

ज्योती प्रसाद ( स्वतःशीच) – हाँ. और ये लडका विश्वास करना के लायक है या नही ये भी पता चल जाएगा. (रिमझिमला) सुनो तुम सब अपना मोबाईल लोकेशन ऑन रखना. मै वो लोकेशन पुलिस मे शेयर करता हूँ. ताकि वो हम पर नजर बनाए रखेंगे ”

कितीही झालं तरी स्वतः आणि एक पिता म्हणून मुलांच्या सुरक्षिततेची काळजी घेणे भागच होते. आसामी भाषेत केलेली ही चर्चा मितला काही कळली नव्हती.

मित त्यांना घेऊन शिवाजी नाट्यमंदीर, सी.एस.टी. ला पोहोचला. त्याच्या टीमला भेटला. त्याने टीमसोबत रिमझिमच्या कुटूंबाची ओळख करून दिली. संघरत्नला सगळी कहाणी माहीती होती. तो त्याला बाजूला घेऊन गेला.

संघरत्न- “क्या बॉस तु तर म्हटला होता की फ्रेंडशीप ठेवणार. आणि तू तर उसे घर तक …….”

मित – “ए तसं नाहीये काही….. (थोडं होकारार्थी मान हलवत) तसंच आहे काही….. पण तिला इथे मी नाही बोलावलं. फॅमिली टूर साठी आलीय इथं ती.”

संघरत्न- “अरे असू दे ना. आली ना…. मग कधी सांगतोयस”

मित- “काय?”

संघरत्न – “अरे कधी मारतोयस प्रपोज.”

मित – “काय?”

संघरत्न- “घाबरतोयस. हवं तर मला सांग मी करून देतो. आखिर दोस्त कब काम आयेंगे.”

मित- “ए फालतू कांहीही बरडू नकोस हं…. असं नाही. काहीतरी स्पेशल व्हायला हवं.”

संघरत्न- “मग काय शॅपेनच्या बाटलीत रिंग टाकून देणार आहेस का”

मित- “नाही रे. उलटा लटकून कीस करावी लागेल नाही तर ……”

दोघेही हसले.

  क्रमशः

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 39 ☆ कितनी और निर्भया ? ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अति संवेदनशील आलेख   “कितनी और निर्भया”.  डॉ मुक्ता जी  एवं देश के कई संवेदनशील साहित्यकारों ने अपरोक्ष रूप से साहित्य जगत में एक लम्बी लड़ाई लड़ी है। डॉ मुक्ता जी की संवेदनाएं  उनके निम्न कथन से समझी जा सकती है – 

“अति निंदनीय।यह खोज का विषय है और ऐसे पक्षधरों की मंशा के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक है।आखिर किस मिट्टी से बने हैं वे संवेदनशून्य लोग…जो ऐसे दरिंदों के लिए लड़ रहे हैं।शायद उनका ज़मीर मर चुका है।हैरत होती है,यह सब देख कर…मुक्ता।”

समस्त स्त्री शक्ति को  उनके अघोषित युद्ध में विजयी होने के लिए शत शत नमन  इस युद्ध में  सम्पूर्ण सकारात्मक पुरुष वर्ग भी आप के साथ  हैं और रहेंगे। इन पंक्तियों के लिखे जाते तक दोषी फांसी के फंदे पर लटकाये जा चुके हैं।

आपके समाज को सचेत करते आलेखों के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 39 ☆

☆ कितनी और निर्भया ? 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या,उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख,मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं,चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा,गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं।लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद- हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे क्राइम की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए?संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा।और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं।वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे,तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि ‘भय  बिनु होइहि न प्रीति’ तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा, त्वरित निर्णय हो सके क्योंकि देरी से किये गये निर्णय निर्णय की न सार्थकता होती, ही उपयोगिता… वह तो महत्वहीन होता है, व्यर्थ व निष्फल होता है। सो! हमें बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए त्वरित कठोर दंड-व्यवस्था का प्रावधान करना, न्याय-पालिका का प्रमुख दायित्व होना चाहिए, ताकि ऐसे घिनौने हादसों की पुनरावृत्ति न हो। समाज में महिलाओं की अस्मिता सुरक्षित रह सके और सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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