हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47 ☆ माइक्रो व्यंग्य – ईगो का ईको ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47

☆ माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको ☆ 

बीस साल पहले हम साथ साथ एक ही आफिस में काम करते थे। पर वे हमारे सुपर बाॅस थे, गुड मार्निंग करो तो देखते नहीं थे, नमस्कार करो तो ऐटीकेट की बात करते थे। जब हेड आफिस से हमारे नाम पुरस्कार आते तो देते समय सबके सामने कहते कि इनके यही सब दंद फंद के काम है बैंक का काम करने में इनका मन लगता नहीं। हेड आफिस से प्रशंसा पत्र आते तो दबा के रख लेते।

जब तक रिटायर नहीं हुए तब तक फेसबुक में हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट को इग्नोर करते रहे। हार कर जब रिटायर हुए तो बेमन से हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। पिछले दो साल से उन्हें फेसबुक में लिखा आने वाला वाक्य “हैपी बर्थडे टू यू” बिना श्रम के हम भेज देते थे। वे पढ़ कर रख लेते थे। कुछ कहते नहीं थे रिटायरमेंट के हैंगओवर में रहते।  इस बार से हमने न्यु ईयर की हैप्पी न्यु ईयर भी भेजने लगे। थैंक्यू का मेसेज तुरंत आया हमें बहुत खुशी हुई। मार्च माह में इस बार गजब हुआ जैसई हमनें “हैपी बर्थ डे टू यू” भेजा वहां से तुरंत रिप्लाई आई, “आपका हैप्पी बर्थडे का संदेश ऊपर भेजा जा रहा है। साहब का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया था जाते-जाते कह गये थे कि सब मेसेज ऊपर फारवर्ड कर देना फिर मैं देख लूंगा।  जाते समय वे आपको याद कर रहे थे और उनकी इच्छा थी कि आप भी उनके साथ चलते……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆ मन ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मन ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆

☆  मन  ☆

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

घर के एक एक कोने में मेरा मन,

न जाने कहाँ कहाँ भटकता मेरा मन,

इस मन को पकड़ लेना चाहती हूँ, मन ही मन में,

कभी रोकती हूँ, कभी टोकती हूँ, ना जाए इधर उधर मेरा मन,

कभी पतंग सा  उड़ता मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

कभी घूमने निकलूँ तो, चाट के ठेले पे ललचाता मेरा मन,

कभी रंगीन कपड़ों की दुकानों पर, रुक जाता मेरा मन,

कभी पार्क में बैठूँ तो, पता नहीं कहाँ खो जाता मेरा मन,

कभी पुरानी  यादों में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

दीपावली के फटाकों से उत्साहित मेरा मन,

होली के रंगों से रंगा हुआ मेरा मन,

बैसाखी मे नाचता हुआ मेरा मन,

हर त्यौहार में आनन्दित मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

हर दुख में रोता चीखता मेरा मन,

किसी सहारे, किसी कंधे को ढूँढता मेरा मन,

हर उम्र में ढूँढता, माँ की गोद को मेरा मन,

क्योंकि आकाश की अन्तहीन सीमा में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 47 – गुरूने दिला ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण कविता  ” गुरूने दिला”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 46 ☆

☆ गुरूने दिला ☆

 

गुरुने दिला हा। ज्ञानरूपी वसा। वाटू घसघसा । सकलांना।।१।।

गुरूने दिधली।ज्ञानाची शिदोरी ।अज्ञान उधारी।संपविण्या।।२।।

करिता प्राशन ।ज्ञानामृत  गोड । संस्काराची जोड। लाभे तया।।३।।

गुरू उपदेश।  उजळीतो दिशा। पालटेल दशा जीवनाची।।४।।

गुरूविना भासे ।तमोमय सृष्टी । देई दिव्य दृष्टी । गुरू माय।।५।।

गुरू जीवनाचा।असे शिल्पकार । जीवना आकार ।लाभलासे।।६।।

गुरू माऊलीला।करू या वंदन । जीवन चंदन। सुगंधीत।।७।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 50 ☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘निरगुन बाबू की पीड़ा’। वास्तव में कुछ पात्र हमारे आसपास  ही दिख जाते हैं, किन्तु , उन्हें हूबहू अपनी लेखनी से कागज़ पर उतार देना, डॉ परिहार सर  की लेखनी ही कर सकती है।  ऐसा लगता है जैसे अभी हाल ही में निर्गुण बाबू से मिल कर आ रहे हैं। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 50 ☆

☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆

निरगुन बाबू चौबीस घंटे पीड़ा से भरे रहते हैं। उन्हें संसार में अच्छा कुछ भी नहीं दिखता। सब भ्रष्टाचार है, सत्यानाश है, बरबादी है।

सबेरे दूधवाला दूध देकर जाता है तो निरगुन बाबू पाँच मिनट तक पतीले को हिलाते खड़े रहते हैं। कहते हैं, ‘देखो, पानी में थोड़ा सा दूध मिलाकर दे गया। ये बेपढ़े लिखे लोग हमारे कान काटते हैं। दुनिया बहुत होशियार हो गयी।’

सब्ज़ी लेने जाते हैं तो सब्ज़ीवालों से घंटों महाभारत करते हैं। घंटों भाव-ताव होता है। कहते हैं, ‘ठगने को हमीं मिले? हमें पूरा बाजार मालूम है। हमें क्या ठगते हो?’  तराजू में से आधी सब्ज़ी निकालकर वापस टोकरी में फेंक देते हैं। कहते हैं, ‘यह सड़ी सब्जी हमारे सिर मत मढ़ो। जानता हूँ कि तुम बड़े होशियार हो।’

सब्ज़ी की तौल के वक्त निरगुन बाबू की चौकन्नी नज़र तराजू के काँटे पर रहती है। हिदायत चलती है—-‘पल्ले पर से हाथ हटाओ। जरा और ऊपर उठाओ। पल्ला नीचे जमीन पर धरा है। डंडी मत मारो।’ तराजू उठाए उठाए सब्ज़ीवाले का हाथ थरथराने लगता है, लेकिन निरगुन बाबू का शक दूर नहीं होता। घर लौटकर कहते हैं, ‘साले सब चोर बेईमान हैं। ठगने के चक्कर में रहते हैं।’

उनकी नज़र में मोची भी बेईमान है और धोबी भी। चप्पल सुधरवाकर कई मिनट उसको उलटते पलटते हैं। फिर भुनभुनाते हैं, ‘दो टाँके मारे और दो रुपये ले लिये। लूट मची है।’

कपड़े धुल कर आने पर निरगुन बाबू उनमें पचास धब्बे ढूँढ़ निकालते हैं। पचास जगह सलवटें बताते हैं।  ‘ससुरे मुफ्त के पैसे लेते हैं। इससे अच्छा तो घर में ही धो लेते।’

नुक्कड़ का बनिया उनकी नज़र में पक्का बेईमान है। कम तौलता है, खराब माल देता है और ज़्यादा पैसे लेता है। यानी सर्वगुणसंपन्न है। लेकिन उससे निरगुन बाबू कुछ नहीं बोलते क्योंकि महीने भर उधार चलता है। उधार का तत्व उनकी तेजस्विता का गला घोंट देता है।

उनके बच्चों के मास्टर बेईमान हैं। कुछ पढ़ाते लिखाते नहीं। जानबूझकर उनके सपूतों को फेल कर देते हैं। एक मास्टर को उन्होंने घर पर पढ़ाने के लिए लगाया था। लेकिन पढ़ाई के वक्त निरगुन बाबू उसके आसपास ही मंडराते रहते थे। नतीजा यह कि एक महीना होते न होते वह मास्टर भाग गया।

राशन की लाइन में लगने वालों को निरगुन बाबू बताते हैं कि कैसे अच्छा राशन खराब राशन में बदल जाता है। बस में बैठते हैं तो सहयात्रियों  को बताते हैं कि कैसे बसों के टायर-ट्यूब और हिस्से-पुर्ज़े बिक जाते हैं। ट्रेन में बैठते हैं तो भाषण देते हैं कि कैसे रेलवे के बाबू लोग पैसे बनाते हैं।

निरगुन बाबू देश के भ्रष्टाचार के चलते-फिरते ज्ञानकोश हैं। एक एक कोने के भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें है। भ्रष्टाचार सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, लाइलाज है। दुनिया चूल्हे में धरने लायक हो गयी है।

भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले निरगुन बाबू साढ़े दस बजे अपने दफ्तर के सामने ज़रूर पहुँच जाते हैं, लेकिन ग्यारह बजे तक सामने वाले पान के ठेले पर खैनी मलते रहते हैं। निरगुन बाबू नगर निगम के जल विभाग में हैं। ग्यारह बजे कुरसी पर पहुँचने पर यदि उन्हें कोई शिकायतकर्ता इंतज़ार करता मिल जाता है तो उनका माथा चढ़ जाता है। कहते हैं, ‘क्यों भइया, रात को सोये नहीं क्या? हमारे दरसन की इतनी इच्छा थी तो हमसे कहते। हम आपके घर आ जाते।’ आधे घंटे तक मेज कुरसी खिसकाने और पोथा-पोथी इधर उधर करने के बाद उनका काम शुरू होता है।

हर दस मिनट पर निरगुन बाबू दोस्तों से गप लड़ाने या बाथरूम जाने के लिए उठ जाते हैं और उनकी कुरसी खाली हो जाती है। शिकायतकर्ता खड़े उनका इंतज़ार करते रहते हैं। कोई कुछ कहता है तो निरगुन बाबू जवाब देते हैं, ‘आदमी हैं। कोई कोल्हू के बैल नहीं हैं कि जुते रहें।’

हर घंटे में वे चाय के लिए खिसक लेते हैं। लंच टाइम एक से दो बजे तक होता है, लेकिन वे पौन बजे कुरसी छोड़ देते हैं और ढाई बजे से पहले कुरसी के पास नहीं फटकते। लोग काम के लिए घिघियाते रह जाते हैं।

पौने पाँच बजे फिर निरगुन बाबू कुरसी छोड़ देते हैं और पान के ठेले पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनका भाषण शुरू हो जाता है, ‘भइया, बाल पक गये, लेकिन ऐसा अंधेर और भ्रष्टाचार न देखा। दुनिया ससुरी बिलकुल चूल्हे में धरने लायक हो गयी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #48 ☆ सीढ़ियां ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # सीढ़ियां ☆

(दो दिन पूर्व ‘सीढ़ियाँ’ शीर्षक से अपनी एक कविता साझा की थी। पुनर्पाठ में आज पढ़िए इसी शीर्षक की एक लघुकथा।)

“ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी हैं। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाए रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91 प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ शृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, शृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 34 – मनसा-वाचा-कर्मणा  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री स्वातंत्र्य पर आधारित एक सशक्त रचना  ‘ मनसा – वाचा – कर्मणा । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 34 – विशाखा की नज़र से

☆  मनसा – वाचा – कर्मणा   ☆

कुरीतियों के पंक से निकलकर

अब जाकर पंकज की तरह खिली हैं

स्त्रियाँ

पर चाहती हूँ उनके अस्तित्व

अब भी बना रहे तैलीय आवरण

 

तब तक

जब तक इस पितृसत्तात्मक समाज में

पितृ एवं सत्ता का हो न जाये विघटन

मनसा – वाचा – कर्मणा

समाज स्वीकारें स्त्रियों का स्वतंत्र अस्तित्व

जब पुरुष महसूस करे अंतःकरण से ऊष्मा

तब वह भरे प्रकृति को आलिंगन में

और स्वतःस्फूर्त ही टूट जाये तैलीय दर्पण

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 7 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 7/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 7 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

कोई रिश्ता नहीं

रहा  फिर  भी,

एक तस्लीम तो

लाज़मी सी  है…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

Agreed there remains

no relation now; 

At least, an admittance

Is inevitably desirable…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

गर शतरंज का शौक़ होता

तो तमाम धोखे नहीं खाता

वो मोहरे पर मोहरे चलते रहे 

और मैं रिश्तेदारी निभाता रहा…

 

If only I was fond of chess

Won’t have got cheated at all

They kept on moving pieces

While I kept maintaining kinship!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

एक उम्र  वो  थी  कि 

जादू पर भी यक़ीन था,

एक  उम्र ये  है  कि 

हक़ीक़त पर भी शक़ है…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

There once was an age when

I used to believe even in magic,

And now, there’s an age when I

Look at reality with suspicion!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

कोई आदत, कोई शरारत, 

मेरी बातें या मेरी ख़ामोशी

कुछ न कुछ तो उसे जरूर

ही  याद  आता  ही  होगा…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

My habits, or the mischiefs, 

My words or the silence

For sure,  he  must  be 

missing something of mine!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 8 ☆ सन्नाटा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आपकी एक सामयिक लघुकथा  “सन्नाटा”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 8 ☆ 

☆ लघुकथा –  सन्नाटा ☆ 

घन् घन्, टन् टन्, ठक् ठक्, पों पों… सुबह से शाम तक आवाजें ही आवाजें।

चौराहे के केंद्र में खड़ी वह पूरी ताकत के साथ सीटी बजाती पर शोरगुल में सीटी की आवाज दबकर रह जाती।

बचपन से बाँसुरी की धुन उसे बहुत पसंद थी। श्रीकृष्ण जी के बाँसुरीवादन के प्रभाव के बारे में पढ़ा था। हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन सुनती तो मन शांति अनुभव करता।

यातायात पुलिस में शहर के व्यस्ततम चौराहे पर घंटों रुकने-बढ़ने का संकेत देने से हुई थकान वह सहज ही सह लेती पर असहनीय हो जाता था सैंकड़ों वाहनों के रुकने-चलने, हॉर्न देने का शोर सहन कर पाना। बहुधा कानों में रुई लगा लेती पर वह भी बेमानी हो जाती।

अकस्मात कोरोना महामारी का प्रकोप हुआ। माननीय प्रधानमंत्री जी के चाहे अनुसार शहरवासी घरों में बंद हो गए। वह चौराहे के आसपास के इलाके में कानून-व्यवस्था का पालन करा रही है कि कोई अकारण बाहर न घूमे। अब तक शोर से परेशान उसे याद आ रहे हैं पिछले दिन और असहनीय प्रतीत हो रहा है सन्नाटा।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो नटखट बचपन… ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  एक भावप्रवण रचना  – वो नटखट बचपन…। इस सन्दर्भ में हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय देकर  इस कविता को इतने सुन्दर तरीके से सम्पादित किया।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो नटखट बचपन… ☆

जब बेटा-बेटी बन,

घर आंगन में आया

मेरे घर खुशियों का

अंनत सागर लहराया

 

तेरा सुंदर सलोना मुख चूम,

दिल खुशियों से भर‌ जाता

संग तेरे हँसी  ठिठोली में ,

दुख दर्द कहीं खो जाता…

 

अपनी गोद तुझे  बैठा मैं,

बीती यादों में खो जाता हूँ

जब-जब तेरी आंखों  में झाँका

तो अपना ही बचपन पाता‌ हूँ…

 

कभी तेरा यूँ छुपकर आना

गुदगुदा, पैरों में लिपटना,

कभी गोद में खिलखिलाना

कभी जोर से निश्छल हंसना

 

कभी तेरा हाथ हिला

यूँ मदमस्त  हो चलना,

कभी दौड़ना, कभी छोड़ना

यूँ खिलौनों के लिए मचलना…

 

ये तेरा नटखटपन,

ये तेरी चंचल शरारतें,

ना जाने क्यूं मुझको

लुभाती तेरी ये हरकतें

 

एक टॉफ़ी  की खातिर

कभी मुझसे लड़ बैठता,

टिकटिक घोड़ा बना मुझे

खुद घुड़सवार बन, मुझे दौड़ाता

 

कभी सताता, कभी मनाता

कभी मार मुझे, भाग जाता,

कभी रिझाता, कभी खिझाता

मेरे सीने पे चढ़, खूब मचलता…

 

कभी बेटा, कभी पोता बन

खूब कहानी सुनता रहता,

तो कभी बाप बन वो  मुझे

ढेरों  डाँट पिलाता  रहता…

 

कभी सर रख सीने पर

कभी गोद में आ छुप कर

बाल क्रीड़ाएँ करता रहता

मनोहारी कन्हैया बन कर…

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 11 ☆ ती पुर्णाकृती ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “ती पुर्णाकृती“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 11 ☆

☆ ती पुर्णाकृती

 

एऽऽ बघ इकडे, एऽऽऽ बघ न गडे

पुर्णाकृती सुंदरशी, बैसली पुढे,बैसली पुढे!!

 

ओष्ठ जसे संत्र्यांच्या फाकी, डाळिंबाच्या दाण्यावरती

मुग्ध हास्य तव वदनी फुलता, कोमल कलिकांची फुले होती

त्या फुलांची बाग इथे, बैसली पुढे,बैसली पुढे!!

 

चक्षू तुझे चंचल मज गमती, शिंपल्यात ठेवियले मोती

पापण्यांची उघडझाप भासे, दोन फुलपाखरे फडफडती

फुलपाखरांची राणी,बैसली पुढे, बैसली पुढे!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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