मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 40 – बाईपण ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “बाईपण।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 40 ☆

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – बाईपण ☆

सर्व महिलांना जगतिक महिला दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा ! 

 

छान बाईपण माझे

नाही वाटत गं ओझे

सखा निर्मळ मनाचा

त्याला म्हणते मी राजे

 

दिली आईने शिदोरी

आले दुसऱ्या मी घरी

माता तिथेही भेटली

नाव असे सासू जरी

 

बीज पेरणारा धनी

जमीन मी त्याची ऋणी

दीप एक लावलेला

आम्ही दोघांनी मिळोनी

 

आज कन्या रत्न झाले

मन भरुनीया आले

झाले मीही उतराई

भाग्य मला हे लाभले

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 38 – वाचन संस्कृती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मात्र विद्यार्थियों के लिए ही नहीं अपितु उनके पालकों के लिए भी आपकी एक अतिसुन्दर कविता   “वाचन संस्कृती”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 38 ☆ 

 ☆ वाचन संस्कृती 

 

वाचन संस्कृती । बाणा नित्य नेमे । आचरावी प्रेमे । जीवनात ।1।

 

संपन्न जीवना । ज्ञान एक धन । सुसंस्कृत मन । वाचनाने ।2।

 

शब्दांचे भांडार । समृद्धी अपार । चढतसे धार । बुद्धीलागी ।3।

 

मधुमक्षी परी । वेचा ज्ञान बिंदू । जीवनाचा सिंधू । होई पार ।4।

 

अज्ञान अंधारी । लावा ज्ञान ज्योती । वाचन संस्कृती । तरणोपाय ।5।

 

ज्ञानाची संपत्ती । लूटू वारेमाप । चातुर्य अमाप । गवसेल ।6।

 

वाचा आणि वाचा । ध्यानी ठेवा मंत्र । व्यासंगाचे तंत्र । फलदायी ।7।

 

जपा जिवापाड । वाचन संस्कृती । नुरेल विकृती । जीवनात ।8।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 37 ☆ कविता – वो बचपन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक अतिसुन्दर कविता  “वो बचपन”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 37

☆ कविता  – वो बचपन ☆ 

 

खबरदार खबरदार प्यारे  बचपन

ये जहर उगलते मीडिया ये बचपन

ऊंगलियों में कैद हो गया है बचपन

हताशा निराशा में लिपटा है बचपन

गिल्ली न डण्डा न कन्चे का बचपन

फेसबुक की आंधी में डूबा है बचपन

वाटसअप ने उल्लू बनाया रे बचपन

चीन के मंजे से घायल है ये  बचपन

खांसी और सरदी का हो गया जीवन

कबड्डी खोखो को भूल गया बचपन

सुनो तो  कहीं से  बुला दो ‘वो’ बचपन

मिले तो आनलाइन भेज दो ‘वो’ बचपन

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #41 – मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता”।  यह इस लेखमाला की  अंतिम कड़ी है । इस साप्ताहिक स्तम्भ श्रृंखला के लिए हम सुश्री अनुभा जी के हार्दिक आभारी हैं। )  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 41 ☆

☆ मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता

खदान से प्राप्त होने वाला हीरा तभी उपयोगी और मूल्यवान बनता है जब कुशल कारीगर उसे उचित आकार में तराश कर आकर्षक बना देते हैं। तभी ऐसा हीरा राजमुकुट, राजसिंहासन या अलंकार की शोभा बढ़ाने के लिये स्वीकार किया जाता है। यही नियम हर क्षेत्र में लागू होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी शिक्षा के द्वारा निखारा जाता है और उसे समाज के लिये उपयोगी गुण प्रदान किये जाते है। शिक्षा का यही महत्व है। इसी लिये हर देश में शासन ने शिक्षा व्यवस्था की है।क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक एवं महाविद्यालयीन संस्थाये नागरिको को देश की आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रकार की विद्यायें सिखाने का कार्य कर रही हैं। हमारे देश में भी इसी दृष्टि से ‘‘सर्व शिक्षा अभियान” चलाया गया है जिसमें 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बच्चे को सुशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। शिक्षा का अर्थ सिखाने से है और विद्या का अर्थ विषय या तकनीक का ज्ञान देने से है।  इस तरह शिक्षा के दो प्रकार कहे जा सकते है। एक प्रारंभिक शिक्षा जिसमें अक्षर ज्ञान- पढना लिखना तथा प्रारंभिक गणित का ज्ञान होना होता है  और दूसरा किसी विशेष विषय की शिक्षा जिसके द्वारा उच्च तकनीकी ज्ञान की किसी एक शाखा मे विशेषज्ञ तैयार किये जाते हैं। ज्ञान की अनेको शाखाये है, सभी के जानकार व्यक्तियो की समाज को आवश्यकता होती है जिससे देश की आवश्यकताओ को पूरी करने वाले नागरिक तैयार हो सकें और उनकी सहायता व सेवाओ से देश प्रगति कर सके। ये सुशिक्षित लोग अपनी गुणवत्ता के साथ ही ऐसे भी होने चाहिये, जिनका आचरण अच्छा हो जिनमें अनुशासनप्रियता हो,  कर्मठता हो, समाज सेवा की भावना हो, नियमितता हो ,सहयोग की भावना हो, सहिष्णुता हो तथा सब के प्रति आदर का भाव हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसीलिये हमने देश के राजचिन्ह मे ‘‘सत्यमेव जयते” का आदर्श वाक्य अपनाया है। 1789 में अठारहवी सदी की फ्रांस की राज्य तथा वैचारिक क्रांति ने विश्व को एक नयी शासन व्यवस्था दी जिसे अंग्रेजी में डेमोक्रेसी अर्थात प्रजातंत्र के नाम से जाना जाता है। हमने भी देश की आजादी के बाद इसी जनतंत्र को अपने भारत के समुचित और सही विकास के लिये अपनाया है। जनसंख्या की दृष्टि से हम विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। हमारी आबादी लगभग 125 करोड है और हमारे जनतांत्रिक आदर्शो को विश्व के विभिन्न देश आदर्श के रूप में देखते हैं।

जनतंत्र के प्रमुख सिद्धांत हैं  (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता तथा (4) न्याय। इन्हीं चार स्तंभो पर जनंतत्र की इमारत खडी है। प्रत्येक सिद्धांत के बडे गहरे अर्थ हैं और उसके बडे दूरगामी प्रभाव होते हैं। हमारे राष्ट्रीय संविधान में इनकी विस्तार से चर्चा और निर्देश हैं। आजादी से अब तक देश में निरंतर इसी शासन व्यवस्था को , जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान के द्वारा अपना जनप्रतिनिधि चुनकर शासन में भेजने का महत्वपूर्ण मूल्यवान अधिकार है , का पालन किया जाता है। विश्व के अन्य देश बडे आश्चर्य  व उत्सुकता से हमारे देश में इस व्यवस्था का पालन किया जाना देख रहे हैं। इस जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारी सफलता के उपरांत भी हम देखते हैं कि कुछ कमियां है। इन कमियों के कारण देशवासियों के पारस्परिक व्यवहार तथा बर्ताव में शुचिता की कमी देखी व सुनी जाती है जो सरकार के सामने कई कठिनाईयां खडी करती है।

जनतंत्र में प्रमुख पहला सिद्धांत स्वतंत्रता का है। प्रत्येक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , व्यवहार की स्वतंत्रता है परंतु यह स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं हो सकती जिससे अन्य नागरिको को जरा भी हानि हो।प्रत्येक नागरिक को वही समान अधिकार प्राप्त हैं  अतः टकराव नहीं होना चाहिये इसका पूरा ख्याल हर नागरिक के मन में निरंतर बना रहना चाहिये। यही बात समानता , बंधुता और न्याय के सिंद्धांतो के लिये भी समझदारी , ईमानदारी और पूरी निष्ठा से व्यवहार के हर क्षेत्र में आवश्यक है। परंतु क्या ऐसा हो रहा है?  सिद्धांत तो बडे अच्छे हैं परंतु उन्हें व्यवहार में अपनाये जाने में कमी दिखती है। नारा तो है “सत्यमेव जयते” परंतु व्यवहार में देखा जाता है और कहा जाता है “चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो”। ऐसे में देश का विकास और प्रगति कैसे संभव है? हर क्षेत्र में रूकावटें हैं। आये दिन स्वार्थ पूर्ति के लिये नये नये संगठन बनकर सामने आते है। प्रदर्शन,  बंद, धरने और शक्ति प्रदर्शन के लिये जुलूस निकाले जाते हैं। क्रोध और विरोध दिखाकर  देश की लाखो की संपत्ति जो वास्तव में जनता के धन से ही उपलब्ध कराई गई होती है, नष्ट कर दी जाती है।आंदोलन व प्रजातांत्रिक अधिकार के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति में आग लगा दी जाती है। अनेकों के सिर फूटते हैं और अनेको वर्षो में धन और श्रम से किये गये निर्माणो को देखते देखते नष्ट कर बहुतों को शारीरिक और मानसिक संकट में डाल दिया जाता है। कुछ ऐसी  ही अराजकता चुनावो के समय अनेक मतदान केन्द्रो में भी देखी जाती है। कभी तो निर्दोष व्यक्तियों की जान तक ले ली जाती है। यदि यह सब जनतंत्र में हो रहा है तो यह विचार करना जरूरी है कि क्यों ? सिद्धांतो को कितना अपनाया गया है और यह राजनीति कैसी है।

हमारा देश तो प्राचीन धर्मप्राण देश है। अनेको धर्मो का उद्गम स्थान है। विश्वगुरू कहा जाने वाला देश है फिर हमारा आचरण इतना धर्मविरूद्ध क्यों हो गया ? जब इस तथ्य पर चिंतन करते है तो नीचे लिखे कुछ विचार समने आते है:-

  1. विगत दो शताब्दियों में विज्ञान  ने (भौतिक विज्ञान ने) बहुत उन्नति की है। नये नये अविष्कार किये गये। जन साधारण को जीवन की नई नई सुविधायें प्राप्त हुई। इससे लोगो मे तार्किक प्रवृत्ति का विकास हुआ। कल कारखानो , आवागमन के संसाधनों , संचार की सुविधाओं से दूर देशों का संपर्क सघन हुआ है। इससे परस्पर संपर्क भी बढे , निर्भरता व व्यापार बढा। आर्थिक निर्भरता विश्वव्यापी हुई । लोगों ने अपने विचारो में परिर्वतन देखा पर चारित्रिक गिरावट आई।
  2. भारत में धार्मिक बंधनो में ढील आई। आत्मविश्वास के साथ अंह के भाव भी बढे। धार्मिक रीति रिवाजो पारिवारिक परंपराओ, मान्यताओ में शिथिलता ने चारित्रिक मूल्यो का हृास किया।
  3. राजनैतिक पैंतरेबाजी, स्वार्थ और धनलोलुपता ने घपलों घोटालों को जन्म दिया। आचार विचारों में भारी परिवर्तन हुये।
  4. निर्भीकता और उद्दंडता से अनुशासन नष्ट हुआ। अपने सिवाय औरो के लिये सम्मान और आदरपूर्ण व्यवहार में कमी आई।
  5. निरर्थक दिखावे, झूठे प्रदर्शन और आडम्बरों को बढावा मिला धन का अनुचित उपयोग बढा, औरों की उपेक्षा हुई। दिखावे के चलन ने सारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन को प्रदूषित किया। धार्मिक भावना का हृास होने से चारित्रिक शुचिता नहीं रही। व्यवहार में ईमानदारी कम हुई। गबन घोटाले बढे। सादा जीवन उच्च विचार की परंपरा नष्ट हो गई।

यह स्थिति केवल हमारे देश  में ही नहीं समूचे विश्व में ही  हुई है। आंतकवाद सब जगह फैल गया है। मानवता त्रस्त है। इन सबका कारण नासमझी है।  धर्म की गलत व्याख्या है।   स्वार्थ, लालच, क्रोध, असहिष्णुता ने अदूरदर्शिता का प्रसार किया है तथा अनाचार व आतंक को जन्म दिया है। आचार विचार और सुसंस्कारो को समाप्त किया है। सारे परिवेश को दूषित किया है। जनता में  पढाई लिखाई का तो प्रसार हुआ है परंतु लोगों के मन का वास्तविक संस्कार नहीं हो पाया है। मन ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापो का संचालक है। जैसा मन होता है वैसे ही कर्म होते है अतः सही वातावरण के निर्माण हेतु मन का सुसंस्कार कर शुभ विचार की उत्पत्ति किया जाना आवश्यक है। शिक्षा से व्यक्ति को सुखी समृद्ध और समाज के लिये मूल्यवान बनाया जा सकता है। अतः प्रारंभ सद्शिक्षा से ही करना होगा। शिक्षा से मनुष्य का शारीरिक ,  मानसिक ,  बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिये समुचित पाठ्यक्रम अपनाया जाना चाहिये। मन के सुधार के लिये नीति प्रीति की रीति सीखने समझने के अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। बचपन के संस्कार जो बच्चा घर ,परिवार ,परिवेश,  धार्मिक संस्थानो में देख सुन व व्यवहार का अनुकरण कर सीखता है , जीवन भर साथ रहते हैं। माता, पिता, शिक्षकों तथा समाज में बडों के आचरण का अनुकरण कर छात्र जल्दी सीखते है। अतः  शालाओ और सामाजिक परिवेश में नैतिक मूल्यों का वातावरण विकसित किया जाना  चाहिये। अर्थकेन्द्रित आज के संसार में सदाचार केन्द्रित शिक्षा के द्वारा ही परिवर्तन की  आशा की जा सकती है .  भविष्य को बेहतर बनाने के लिये मूल्यपरक शिक्षा के द्वारा समाज को सदाचार की ओर उन्मुख किया जाये। संपूर्ण शिक्षा पाठयक्रम और संस्थानो के कार्यक्रमो में नैतिक शिक्षा की गहन आवश्यकता है। क्योंकि शिक्षा का रंग ही व्यक्ति के जीवन को सच्चे गहरे रंग से रंग देता है। पहले संयुक्त परिवारो में दादी नानी व बड़े बूढ़े  कहानियों व चर्चाओ से बालमन को जो नैतिक संस्कार देते थे आज के युग में एकल परिवारो के चलते केवल शिक्षण संस्थाओ को ही यह जिम्मेदारी पूरी करनी है।

अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरक शिक्षा अतिआवश्यक है, जिससे हर शिक्षा पाने वाले विद्यार्थी  को विभिन्न विषयों के ज्ञान के साथ साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियो का सही सही बोध हो सके।   एक नागरिक के रूप में उसके अधिकार ही नहीं कर्तव्यों का भी दायित्व वह समझ सके ।  बुद्धि के साथ साथ छात्र का हृदय भी विकसित हो,  उसे खुद के साथ अपने पडोसियों के प्रति भी संवेदना हो। समाज में सद्भाव,सहयोग, समन्वय और सहिष्णुता विकसित हो सके।

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ☆ महिला दिवस पर दस दोहे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के विशेष अवसर पर  कविता  “महिला दिवस पर दस दोहे। )

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष  –  महिला दिवस पर दस दोहे

  

भिन्सारे उठ कर करे, घर के सारे काम।

व्यस्त  रहे पूरे दिवस, देर  रात  विश्राम।।

 

शैशव को मृदु  स्नेह दे, दे किशोर  को  ज्ञान।

अनुशाषित युव पुत्र को, मातृ शक्ति वरदान।।

 

पत्नी, पुत्री, माँ, बहन, भिन्न – भिन्न हैं रूप।

करे पूर्ण दायित्व सब, सुख दायिनी स्वरूप।

 

मर्यादा दहलीज की, दो-दो घर की शान।

है अनन्त महिमामयी, धैर्य धर्म की खान।।

 

सहनशील धरती सदृश,मन में सेवा भाव।

संघर्षों  से  जूझती,  धूप  मिले  या  छाँव।।

 

मात-पिता की लाड़ली, बच्चों का है प्यार

सम्बल है पति का बनी, सुखी करे संसार।

 

होता है श्री हीन नर, बिन नारी के संग।

लक्ष्मी बन  घर में भरे, मंदिर जैसे  रंग।।

 

इम्तिहान हर डगर पर, मातृशक्ति के नाम

विनत भाव सेवा करे, हो कर के निष्काम।

 

संकोची  घर  में  रहे, बाहर  है  तलवार।

जब जैसी बहती हवा, वैसी उसकी धार।।

 

समझें नारी को नहीं, कोई भी कमजोर

नारी  के  ही  हाथ  में, पूरे जग  की डोर।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #38 ☆ औरत ☆ श्री संजय भारद्वाज

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 38 ☆

☆ *औरत* ☆

 

मैंने देखी-

बालकनी की रेलिंग पर लटकी

खूबसूरती के नए एंगल बनाती औरत,

मैंने देखी-

धोबीघाट पर पानी की लय के साथ

यौवन निचोड़ती औरत,

मैंने देखी-

कच्ची रस्सी पर संतुलन साधती

साँचेदार खट्टी-मीठी औरत,

मैंने देखी-

चूल्हे की आँच में

माथे पर चमकते मोती संवारती औरत,

मैंने देखी फलों की टोकरी उठाए

सौंदर्य के प्रतिमान लुटाती औरत,

अलग-अलग किस्से,

अलग-अलग चर्चे,

औरत के लिए राग एकता के साथ

सबने सचमुच देखी थी ऐसी औरत,

बस नहीं दिखी थी उनको-

रेलिंग पर लटककर छत बुहारती औरत,

धोबीघाट पर मोगरी के बल पर

कपड़े फटकारती औरत,

रस्सी पर खड़े हो अपने बच्चों की भूख को ललकारती औरत,

गूँदती-बेलती-पकाती

पसीने से झिजती

पर रोटी खिलाती औरत,

सिर पर उठाकर बोझ

गृहस्थी का जिम्मा बँटाती औरत,

शायद हाथी और अंधों की

कहानी की तर्ज़ पर

सबने देखी अपनी सुविधा से

थोड़ी-थोड़ी औरत,

अफ़सोस किसीने नहीं देखी

एक बार में

पूरी की पूरी औरत..!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 40 ☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘एक अति-शिष्ट आदमी’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। कोई कितना भी शिष्ट या अति शिष्ट  व्यक्ति हो  उसमें कोई न कोई अशिष्टता या  लोभ-मोह तो अवश्य होगा ही जो डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि से बचना सम्भव ही नहीं है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 40 ☆

☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆

 लक्ष्मी बाबू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे लक्ष्मी-पुत्र हैं। पैसा हो तो आदमी के पास बहुत सी नेमतें अपने आप खिंची चली आती हैं। पैसा है तो आप बहुत आराम से राजनीतिज्ञ या समाजसेवक बन सकते हैं। धन है तो आप बहुत बड़े विद्वान बन सकते हैं।

लक्ष्मी के लाड़ले होने के कारण लक्ष्मी बाबू स्वभाविक रूप से नगर के गणमान्य नागरिक हैं। नगर का कोई कार्यक्रम उनकी उपस्थिति के बिना सफल या सार्थक नहीं होता। इसीलिए लक्ष्मी बाबू के पास ढेरों आमंत्रण-पत्र पहुँचते रहते हैं और वे अधिकांश लोगों को उपकृत करते रहते हैं।

चन्दा बटोरने वाले अक्सर लक्ष्मी बाबू के दरवाज़े पर दस्तक देते रहते हैं और उनके घर से बहुत कम चन्दा-बटोरकर निराश लौटते हैं। थोड़ा बहुत प्रसाद सबको मिल जाता है। चन्दा लक्ष्मी बाबू के यश और उनकी लोकप्रियता को बढ़ाता है। हर धनी की भूख धन के अलावा प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की होती है। थोड़े धन के निवेश से प्रतिष्ठा का अर्जन हो जाता है।

लक्ष्मी बाबू के साथ खास बात यह है कि वे अत्यधिक शिष्ट आदमी हैं। यह गुण लक्ष्मी बाबू को प्रतिष्ठित बनाता है, लेकिन यह लोगों की परेशानी का कारण भी बन जाता है।

लक्ष्मी बाबू किसी भी आयोजन में पहुँचकर चुपचाप सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कुछ देर बाद जब आयोजकों की नज़र उन पर पड़ती है तो वे उन्हें मंच पर ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू पीछे ही बैठे रहने की ज़िद करते हैं, लेकिन दो आदमी उन्हें ज़बरदस्ती पकड़कर मंच तक ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू दोनों आदमियों के बीच लटके, दोनों तरफ बैठे लोगों की तरफ हाथ जोड़ते हुए मंच तक पहुँचाये जाते हैं और लोग उनके नाटक को देखते रहते हैं।

यदि कोई आयोजन दरियों पर होता है तो लक्ष्मी बाबू वहाँ बैठ जाते हैं जहाँ लोगों के जूते उतरे होते हैं। फिर आयोजक उनकी शिष्टता से पीड़ित, उन्हें उठा ले जाते हैं और वे उसी तरह टंगे, दोनों हाथ जोड़कर नाक पर लगाये, मंच तक चले जाते हैं। लेकिन यह ज़रूर होता है कि वे हर आयोजन में इसी तरह मंच पर पहुँच जाते हैं।

लक्ष्मी बाबू की इन आदतों के कारण आयोजकों को सतर्क रहना पड़ता है। पता नहीं लक्ष्मी बाबू कब धीरे से आकर पीछे बैठ जाएं। उनके लिए हमेशा चौकस रहना पड़ता है।

जैसा कि मैंने कहा,लक्ष्मी बाबू की शिष्टता चिपचिपाती रहती है। नमस्कार करते हैं तो कमर समकोण तक झुक जाती है। बुज़ुर्गों से मिलते हैं तो सीधे उनके चरण पकड़ लेते हैं। अपरिचितों से मिलते हैं तो उन्हें छाती से चिपका लेते हैं। महिलाओं से बात करते हैं तो हाथ जोड़कर उनके चरणों को निहारते रहते हैं। नज़र ऊपर ही नहीं उठती।

लक्ष्मी बाबू जब भाषण देते हैं तो विनम्रता  उनके शब्दों से चू-चू पड़ती है। वाणी से शहद टपकती है।  ‘मैं आपका सेवक’, ‘आपका चरण सेवक’, ‘मैं अज्ञानी’, ‘मैं मन्दबुद्धि’, ‘मैं महामूढ़’ जैसे शब्दों से उनका भाषण पटा रहता है। अति विनम्रता के नशे में उनका सिर दाहिने बायें झूमता रहता है।

लेकिन एक आयोजन में गड़बड़ हो गया। आयोजन के मुख्य अतिथि एक मंत्री जी थे। लक्ष्मी बाबू पहुँचे और आदत के मुताबिक पीछे वाली लाइन में बैठ गये। आयोजक मंत्री जी की अगवानी में व्यस्त थे, इसलिए उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। पूर्व के आयोजनों में आसपास के लोग आयोजकों को उनके आने की खबर दे देते थे, लेकिन इस बार पूरा फोकस मंत्री जी पर था।

लक्ष्मी बाबू बैठे बैठे कसमसाते रहे। उन्होंने कई बार अपनी गर्दन लम्बी करके इधर उधर झाँका कि किसी का ध्यान उनकी तरफ खिंचे, लेकिन सब बेकार।

लक्ष्मी बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर घोर उदासी छा गयी। वे मुँह लटकाये, मरे कदमों से चलकर अपनी कार तक पहुँचे। तभी मंत्री जी से फुरसत पाये आयोजक ने उन्हें देखा। प्रफुल्लित भाव से बोला, ‘अरे लक्ष्मी बाबू, आप कहाँ बैठे थे?आप दिखे ही नहीं।’

लक्ष्मी बाबू का मुँह गुस्से से विकृत हो गया। फुफकार कर बोले, ‘आपके आँखें हों तो दिखें। कम दिखता हो तो चश्मा लगवा लो भइया। आपको तो मंत्री जी दिखते हैं, हम कहाँ दिखेंगे?’

वे फटाक से कार का दरवाज़ा बन्द करके बैठ गये। फिर खिड़की से सिर निकालकर बोले, ‘अब आगे के कामों में मंत्री जी से ही चन्दा लेना।’

कार सर्र से चली गयी और आयोजक शिष्ट-शिरोमणि लक्ष्मी बाबू का यह रूप देखकर भौंचक्का रह गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 25 – कुछ इस तरह ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘कुछ इस तरह । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 25 – विशाखा की नज़र से

☆ कुछ इस तरह ☆

 

तुम्हारे होने की तपिश

बन के सूरज की किरण

मेरे कांधों को सहलाती है

 

ऐसे जैसे दिसंबर के सर्द दिनों में

मैंने ओढ़ लिया हो तेरे नाम का

संदली दुशाला

 

जैसे धूप पार करती  है

आसमान में बना अदृश्य पुल

बढ़ चलती है पूरब से पश्चिम की ओर

 

मैं भी बदलती हूँ अपना बाना

सिंदूरी से सुनहरा

फिर से वही सिंदूरी

 

इस तरह तय करते हैं मेरे दिन

भोर से साँझ का सफर

और बदलती जाती हैं तारीख़ें

 

बदलते हैं माह जनवरी से दिसंबर !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 14 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 14 – मिलान ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अभी तक आप ने पगली के जीवन की पूर्वाध की कथा पढ़ी, अब उसके जीवन की उत्तरार्ध की कथाओं का अवलोकन करे, आपको पता चल जायेगा। कि किन घटनाओं ने पगली को पगली से पगली माई बना सामाजिक सम्मान के शीर्ष पर स्थापित कर दिया, उस कड़ी में पगली भले ही दुर्गा माई, लक्ष्मी माई सरस्वती माई का स्थान ग्रहण न कर पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी तो बन ही गई। आगे पढ़ें —-)

दोपहर का समय बीत चला था, भगवान भास्कर चमकते हुए अस्ताचल गामी हो चले थे।  पगली अपनी बेखुदी में अस्फुट स्वरों में मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुइ आगे बढ़ी चली जा रही थी।  उसी समय पास में चल रही प्रायमरी पाठशाला में बच्चों का अवकाश हुआ था।

पगली को पास से गुजरते देख शरारती बच्चों की एक टोली पगली के पीछे पड़ गई थी।  वे उसे पगली पगली कह चिढ़ाते जा रहे थे।  सहसा पगली आवेशित हो चीख पडी़। उसने बच्चों को दौड़ा भी लिया था।  शरारती बच्चों ने उसपर पत्थरों की बौछार कर थी।  उन पत्थरों से चोटिल पगली जमीन पर गिर पड़ी थी।

उसी समय राह गुजरते कुछ लोगों नें बच्चों को ललकारा तो वे गधे की सींग की तरह वहाँ से गायब हो गये।

पगली परकटी पंछी  की तरह गिर कर चोटिल हो  छटपटा उठी थी।  दर्द और पीड़ा से बुरा हाल था उसका।  कुछ समय बाद वह उठ कर धीरे धीरे चलती हुई अपने अंजान गंतव्य की तरफ बढ़ चली थी।  उसे बुखार हो आया था।  दर्द और पीड़ा सेबुरा हाल था उसका।  उसके बदन के पोर पोर दर्द से टूट रहे थे।

उस दिन उस क्षेत्र में एन सीसी की एक बटालियन पगली के गाँव में कैम्प कर रही थी।  उस बटालियन का एक सक्रिय सदस्य गोविन्द भी था।  वह कैम्प के सामाजिक कार्यों मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था।  जाड़े का मौसम था।  धीरे धीरे चलती हुई सनसनाती ठंढी हवा शरीर में चुभन का एहसास करा रही थी।   आकाश काले बादलों से आच्छादित था।  आकाश  में काले बादलों का डेरा था।  आवाजाही तथा लुका छिपा का क्रम जारी था। ऐसा लग रहा था जैसे बादल अब बरसे तब बरसे।

उस दिन ग्राम प्रधान के अहाते में ही पूरी बटालिय रूकी  हुइ थी।  आज प्रधान ने सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों के सम्मान में भोज का आयोजन किया था।  वातावरण में भातिभांति के पकने वाले पकवानों की सुगंध घुली हुई थी।  जो भोजन बनाने वालों के विशिष्ट कला का परिचय दे रही थी।

कैडेट्स की कठोर दिनचर्या तथा चले सफाई अभियान की मेहनत ने थका कर रख दिया था।  शाम के समय टोलियों में बटे कैडेट्स अपने पसंद के कार्यो में लग गये थे।  कोइ समय बिताने के लिए ताश के पत्ते फेट रहा था, तो कोइ अंत्याक्षरी खेल रहा था।

वही पर अधिकारी गांव के विकास का खाका खींच रहे थे, कही लोक परंपराओं में व्याप्त कुरितियों के पक्ष विपक्ष में गर्मागर्म बहस जारी थी।

इन सबके बीच सबसे अलग दिखने वाले व्यक्तित्व का मालिक गोविन्द अहाते के कोने में खड़े बरगद के नीचे चबूतरे पर  बैठा ना जाने किस उधेड़ बुन में खोया हुआ अकेला बैठा था।  ना जाने क्यों उसे रह रह कर अपनी माँ की याद आ रही थी, जो उसे बेचैनी भरा एहसास दे रही थी।  उसका मन व्याकुल था।  अंधेरा हो चला था, चिन्तन मे खोये उसके स्मृति पटल पर अंकित माँ की छबि तैरती तो अनायास उसकी आँखों को भिगो जाती।

वह उस दरख़्त के नीचे अपने ही ख्यालों में गुमसुम खोया था कि उस नीरव वातावरण को चीरती हुई करूणा से ओतप्रोत एक आवाज (अरे मोरे ललवा कंहा छोड़ि के परईले रे) उसके कर्ण पटल से टकराई थी।

उस आवाज में छिपी पीड़ा लाचारी, तथा बेबसी के एहसास ने गोविन्द के भावुकता भरे हृदय को आंदोलित कर दिया। अब अनायास ही गोविन्द के पांव उस दर्दभरी आवाज की दिशा मेंबढ़ चले थे। घने अंधेरे को चीरता  वह उसी दिशा में बढा जा रहा था।  उसे खेत की मेड़ पर एक इंसानी छाया दोनों हाथ उपर उठाये दुआ मांगने के अंदाज में बैठी दिखी थी।  जो बार बार अपनी करूण आवाज में अपने जिगर के टुकड़े को पुकार रही थी, जो इस दुनियाँ में था ही नही, उसकी आवाज में बस जमानेभर का दर्द समाया था। वह दर्द पीड़ा, बेबसी से कराह रही थी।

अचानक  गोविन्द  को सामने देख पगली का मन ऐसे मचल उठा जैसे कोई छोटा बच्चा खिलौने की चाह में  मचलता है।  गोविन्द भी खुद को रोक नहीं पाया था और माई माई कहते कहते हुए पगली के पावों से जा लिपटा था।  पगली ने जब गोविन्द का स्नेहिल स्पर्श पाया अपनी दुख तथ

पीड़ा के पल भूलकर उसे बाहों में भर अपने गले लगा लिया था।  उसके माथे को बेतहासा चूमती चली गई थी, उसे लगा जैसे उसका बिछड़ा गौतम ही
उससे गले आ मिला हो, उसकी ममता आंखों के रास्ते सावन भादों की बूंदे बन। बरस पड़ी थी। उन मां बेटों का मिलन देख उनके मिलन के साक्षी आकाश की आंखों से भी मानो करूणा बरस रही थी।  अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी।  गोविन्द पगली का हाथ थामे तेज गति से ग्राम प्रधान के अहाते की तरफ बढ़ा चला जा
रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 15 – कर्मपथ 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – स्वप्नपाकळ्या ☆ ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है होली के अवसर पर उनकी कविता “होळीचा रंग “.) 

(दिनांक २३-०२-२०२०ला राज्यस्तरीय साहित्य व संस्कृती महोत्सव २०२०चे कवि कट्टा मंचाचे अध्यक्ष पद स्विकारतांना , कविंना प्रमाणपत्र व सन्मानचिन्ह प्रदान करतांना श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 1 ☆

☆ कविता – होळीचा रंग  ☆ 

रंग खेळू, रंग उधळू, उधळू गुलाल

रंगात रंगू या, निळ्या पिवळ्या लाल ।।

 

काही रंग ओले, काही सुकलेले रंग

जीवनाच्या अंतरंगी, वेगळे  तरंग

माणुसकीचे काही, काही चवचाल।।

रंगात रंगू या…….

 

होळीच्या निमित्ताने, खरे खरे बोलू

रंगलेल्या चेह-याची, आज पोल खोलू

मानू नका वाईट, ही होळीची धमाल।।

रंगात रंगू या…….

 

मित्रांनो धुता येईल, तन रंगलेले

कसे धुता येईल हो, मन मळलेले

होळीच्या गुलालात, आहे ही कमाल ।।

रंगात रंगू या…..

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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