हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 33 – योग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “योग। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 33☆

☆ योग

आध्यात्मिक शब्दों में योग अनंत भगवान के साथ हमारी आत्मा का मिलाप है । अनंत में या भगवान के साथ विलय करने के लिए हमारे जीवन का मूल्यांकन करने के कई मार्ग हैं । ये सारे मार्ग ही बहुत सारे अलग अलग योग हैं । कुछ एक के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त अन्य किसी और के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त होते हैं । यह व्यक्तिगत मस्तिष्क, शरीर संरचना, दिलचस्पी, आयु, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि पर निर्भर करता है । दार्शनिक शब्दों में कहें तो योग वह विज्ञान है जो हमें चित्त (मूल शब्द ‘चित’ से लिया गया जिसका अर्थ है ‘जागरूक होना’) की गति को रोकना सिखाता है । यह मस्तिष्क  का एक भाग होता है । यह स्मृतियों का संग्रह गृह होता है । संस्कार या हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्मों की छाप यहाँ चित्त पर ही अंकित होती हैं । तो योग का अर्थ हुआ चित्तवृत्ति का निरोध । चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (1) क्षिप्त (2) मूढ़ (3) विक्षिप्त (4) एकाग्र और (5) निरुद्ध । प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है । क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है । मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है । विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है । यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते । एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है । यह योग की पहली सीढ़ी है । निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है । इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं । यही समाधि की अवस्था है ।

अनगिनत योग हैं लेकिन कुछ महत्वपूर्ण हैं जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, लययोग, मुद्रायोग, शक्तियोग, हठयोग, अष्टांग योग, मन्त्र योग, कुंडलनी योग, इत्यादि । सभी को विस्तार से समझना बहुत कठिन है, लेकिन मैं आपको कुछ योगों के विषय में संक्षेप में बताने की कोशिश करूँगा ।

मैंने आपको कर्म योग के विषय में बहुत विस्तार से बताया है । बस ध्यान रखें कि कर्म योग कार्य और उसकी प्रतिक्रिया का नियम हैं । जिन्हे हमें अपनी उम्र, जाति, स्थिति, पृष्ठभूमि, संस्कृति, देश इत्यादि के अनुसार करने होते हैं । एक साधारण उदाहरण यह है कि शराब का उपयोग भारत में हिंदुओं के अधिकांश घरों में वर्जित है । तो जो हिंदू है और शराब नहीं पीता है इसका अर्थ है कि वह अभ्यास में अपने इस कर्म (धर्म का प्रायौगिक उपयोग) का ठीक से पालन कर रहा है । लेकिन रूस जैसे ठंडे देशों में जहाँ लोग शराब के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं, वे शराब पीते हैं तो उनके कर्मों के कानून का उल्लंघन नहीं होता है ।

आशीष ने कहा, “महोदय, लेकिन यदि कोई भी अपने वंश या कुल से कुछ अलग कार्य नहीं करेगा, तो लोगों के जीवन को आसान बनाने के लिए समाज में कुछ भी नयी खोज और प्रगति कैसे होगी?”

उत्तर  दिया, “मैंने आपको तीन प्रकार के कर्म, द्रिधा, द्रिधा-आद्रिधा और आद्रिधा के विषय में पहले ही बहुत विस्तार से बताया था, ये वो कर्म होते हैं जो लोगों की इच्छाशक्ति की जाँच करते हैं कि कब उन्हें धैर्य रखना पड़ेगा और कब वो ताजा कर्म बनाने के लिए स्वतंत्र इच्छा का भी उपयोग कर सकते हैं आदि आदि । तो बहुत सारे लोग अपने कर्मों में उनके वंश में निर्धारित धर्म से पृथक नए सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन करते हैं, जिसके लिए उन्हें पुरस्कार या दंड स्वीकार करना होता है । लेकिन वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए नियम बदल देते हैं । यदि ये लोग ब्रह्मांड और प्रकृति में परिवर्तन के अनुसार ही अपने कर्मों में बदलाव करते हैं, तो उन्हें अपने कर्मों के लिए भुगतान नहीं करना पड़ता है । दूसरी ओर, यदि वे प्रकृति के परिवर्तन के खिलाफ जाते हैं, तो उन्हें अपने और अपनी भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपने किये गए कार्यों के लिए भुगतान करना होगा । कुछ बदलाव सकल या उनके प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देतेहैं जबकि अन्य सूक्ष्म होते हैं और उनका प्रभाव समय के साथ साथ दिखना शुरू होता है । तो इसलिए ऐसे लोग आने वाली पीढ़ियों के लिए नए नियम बनाते हैं ।

जीवित रहने के लिए ये परिवर्तन भी जरूरी है क्योंकि प्रकृति भी समय के साथ साथ बदल रही है जैसा कि मैं कई बार बता चूका हूँ प्रकृति में बदलाव तीन क्षेत्रों से संभव हैं

  1. एक हमारे सौरमंडल में ग्रहों और नक्षत्रों की ऊर्जा का अलग अलग समय पर हमारी पृथ्वी पर अलग अलग तरह का प्रभाव डालना ।
  2. हमारे वायुमंडल में विभिन प्रकार के प्रदूषणों से आ रहा परिवर्तन और
  3. हमारी दृष्टिगत प्रकृति के अवयवों में हो रहा परिवर्तन जैसे कि वृक्षों का काटना, भूमि की खुदाई, नदी आदि का स्थान परिवर्तन इत्यादि ।

अर्थात हर युग यहाँ तक कि हर दशक का भी अपना एक अलग रत (प्रकर्ति का चक्र) होता है । और अगर हम अपने शारीरिक और मानसिक भावों का प्रकृति के चक्र के बदलाव के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करेंगे तो समाज ख़त्म हो जाएगा । लेकिन ध्यान दें, इस समय मानव पीढ़ी के जीवन शैली और प्रकृति के परिवर्तन की गति बहुत अलग अलग है । यही कारण है कि इन दिनों प्रगति में जो परिवर्तन उन्नति की तरह देखा जा रहा हैं वह वास्तव में बहुत खतरनाक हैं । क्या आप मुझे पृथ्वी पर एक भी ऐसी जगह बता सकते हैं जहाँ पर लोगों का निवास हैं और फिर भी वहाँ आपको शुद्ध हवा, पानी, अग्नि, वायुमंडल इत्यादि मिल जाये? हमारी जीवनशैली और प्रकृति के बीच परिवर्तन का यह असंतुलन हमारे पर्यावरण को नर्क बना रहा है और हमारे विचार भी बहुत बुरी तरह से प्रदूषित हो चुके हैं । यदि आप कर्म के नियमों के विस्तार और गहराई में जाते हैं, तो आप पाएंगे कि कर्म कुछ भी नहीं बल्कि प्रकृति के साथ मानव दिनचर्या का सामंजस्य हैं जिससे कि समाज लंबे समय तक जीवित रहे सके । अगर हम वन या जंगल में जाते हैं तो वहाँ पर कोई समाज नहीं है और ना ही कोई कर्मों का कानून है ।

आप जानते हैं कि सब कुछ चक्रीय है, जिसका अर्थ यह है कि प्रकृति ब्रह्मांड और मानव सद्भाव के लिए खुद को दोहराती है । लेकिन वास्तविकता में अगर हम बारीकी से देखते हैं, तो हम पाएंगे कि प्रकृति की यह दिनचर्या चक्रीय नहीं, बल्कि कुंडलित या घुमावदार (spiral) है । और प्रकृति का विकास या विनाश वे बिंदु हैं जहाँ पर समय का प्रवाह कुंडली के एक चक्र में नियमित चलते हुए दूसरे चक्र, जो कि पिछले चक्र की तुलना में बड़ा (विकास की स्थित में) या छोटा (विनाश की स्थित में) हो सकता हैं, में परिवर्तित होता है । तो आप कह सकते हैं कि महान मस्तिष्क, अवधारणाएं, परिदृश्य इत्यादि जिन्होंने दुनिया को बड़े पैमाने पर बदल दिया है, वे ब्रह्मांडीय प्राण प्रवाह की कुंडली के चक्रों के ऐसे ही बिंदु हैं । पर ये कुंडलित परिवर्तन भी उस अनंत शक्ति का एक माया जाल ही है । अब स्पष्ट हुआ?”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 25 ☆ माझा कृष्ण ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक अभंग रचना  “माझा कृष्ण”उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 25 ☆

☆ माझा कृष्ण ☆ 

(काव्य प्रकार:-अभंग )

कृष्ण माझी माता

कृष्ण माझा पिता

कृष्णची कविता

होय माझी!!१!!

 

यशोदेचा नंद

वाढे गोकुळात

उचली पर्वत

गोवर्धन !!२!!

 

कृष्ण नटखट

सोन्यासम कान्ती

ईश्र्वराची शक्ती

त्याच्या अंगी !!३!!

 

मुरली हातात

कधी तो धरितो

लोणीही तो खातो

पेंद्यासंगे !!४!!

 

गुरे राखायाला

जाईं मित्रांसवे

सोडा हेवेदावे

हेचि सांगे !!५!!

 

एकत्र बसोनी

सोडूनि शिदोरी

खातसे दुपारी

कृष्ण काला !!६!!

 

द्रौपदी बहीण

कृष्णाने मानिली

अब्रू राखियेली

तिची त्याने !!७!!

 

संत कवी यांना

प्रेरणा कृष्णाची

दाविली भक्तीची

वाट त्यांना !!८!!

 

सांगे कृष्णदेव

आम्हा सामान्यांस

ठेवा हो विश्र्वास

माझ्यावरी !!९!!

 

सांगे आम्हा कृष्ण

नका मानू जात

गरीब श्रीमंत

असे काही !!१०!!

 

©®उर्मिला इंगळे

सतारा

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 37 ☆ साधन नहीं साधना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक  अतिसुंदर विचारणीय आलेख   “साधन नहीं साधना”.  डॉ मुक्ता जी का यह आलेख हमें कर्म के प्रति सचेत एवं प्रेरित करता है।  इस  प्रेरणादायक आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 37☆

☆ साधन नहीं साधना 

आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचररण से अपनी पहचान बनाता है… जिस से तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए मानव को विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है। वह सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है। दूसरे शब्दों में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको हीन दर्शाना व निंदा करना उनकी दिनचर्या अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है, इसलिए उतना झुको, जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। सो! दूसरों की सलाह तो मानिए, परंतु अपने मनो-मस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए तथा ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। गलत समय पर लिया गया निर्णय आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्मविश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं।

इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित-अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग- थलग रहना पसंद करता है।

शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते। इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। इसलिए अपनी सोच सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप चिंतन-मनन करेंग, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका जन्म देकर दूरियां बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारीनहीं होता। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखने की सीख  दी गयी है क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना…  यह तनाव को मन में नहीं उपजने देता, न ही यह फासलों को  बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या को जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी पारस्परिक बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है।

संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उसकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना चाहिए, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियां को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर  अपने दायित्व का वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं… आपके साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेहवश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं के चश्मे को उतारकर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए हितकारी व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव-क्षमता होती है। सो! किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है, हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में इंसान भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद- प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।

अति-व्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख- सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृग-तृष्णा में उलझा रहता है। और… और…और अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने अहं अथवा मैं को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति समभाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है, सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल तू ही तू नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष की भावना का लोप हो ता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना काबिज़ हो जाती है। धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाती है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ता है, जिसमें मानव अपनी सुध-बुध खोकर इस क़दर लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आती है। ऐसी स्थिति में लोग आपको अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं।

परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं। सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान दीजिए क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है …’जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक्राना, मुस्कुराना, किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं। ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/ अर्थात् सहज भाव से जीवन जीएं क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़  खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम रहिए। प्रशंसा में गर्व मत करो व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहो…सदैव अच्छा करते रहो। समय जब निर्णय करता है, ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं, व्यक्तित्व होते हैं। इसलिए कभी गलत सोच मत रखें, फल भी सदैव अच्छा ही प्राप्त होगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राम आओ फिर एक बार ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  स्त्री शक्ति को सन्देश देती एक विचारोत्तेजक एवं  भावप्रवण कविता  राम आओ फिर एक बार)

राम आओ फिर एक बार  

राम तुम एक युग हो

राम तुम स्वयं एक युग पुरुष हो।।

एक समाज एक व्यवस्था एक विचारधारा एक मर्यादा हो

माना कि तुम हर युग में आओगे युग पुरुष बनकर।।

पर सोचो,

क्या अपनी चरणधूलि की सार्थकता

जनमत के प्रति अपनी महानता

इन को मनवाने के लिए

हर युग में युग नारी सीता अहिल्या और शबरी भी पाओगे?

नहीं राम जान लो नहीं पाओगे अहिल्या अब किसी भी युग में तुम

नकारी है अहिल्या ने तुम्हारी चरणधूलि

कि–हर युग में छलना इंद्र की

और शाप गौतम का अब नहीं स्वीकार्य उसे।।

राम! रोक लो अपनी चरणधूलि

जो तुम्हे भगवान ठहराती है और – –

पहचानो अहिल्या के कुचले स्वाभिमान को

निर्दोष अभिशप्ता की व्यथा को।।

हाँ सुनो राम – – तुम्हें भी देनी होगी अग्नि परीक्षा अब सीता के लिए

क्योंकि – –

तुम्हारे युग धर्मों ने अब तक बाँधा है परिभाषाओं

और लक्ष्मण रेखाओं में सिर्फ सीताओं को ही।।

अब खरा उतरना होगा तुम्हें भी उन पर

जिन्हें अर्थ दिए है सीता और अहिल्या ने।।

राम सत्य है कि मानवी बनाकर भी

नहीं बदला है अहिल्या के लिए तुम्हारा समाज तुम्हारे मूल्य

शबरी के जूठे बेर तुमने खाकर भी

नहीं बदली है समाज की व्यवस्था।।

अग्नि परीक्षा लेकर भी नहीं रुका है सीता का अपमान

धरती के गर्भ में समाने तक।।

हे राम विनती है तुमसे कि  तुम आओ

पर यह विश्वास लेकर कि

“तुम्हें बदलना है समाज तुम्हें बदलनी है व्यवस्था

तुम्हें उभारना है निष्पक्ष जनमत

तुम्हें बनाना है नये मूल्य

तुम्हें लाना है एक नया युग

सत्याधारित सच्चा नया युग – – ना कि पुराने युगों का नया संस्करण

तुम्हें लाना है सचमुच नया युग

आओ राम फिर एक बार युग पुरुष बन कर

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनिर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अनिर्णय ☆

 

सबसे आगे खड़ा था तब

सबसे पीछे खड़ा है अब,

कौनसा सिक्का गलत पड़ा?

निर्णय गलत होने के भय पर

शायद अनिर्णय भारी पड़ा..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

31.7.2016, संध्या 8.05 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 37 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “ भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 37 – साहित्य निकुंज ☆

भावना के दोहे 

 

गुलमोहर

गुलमोहर को देखकर, मुस्काई थी शाम।

तपी दुपहरी जेठ की, लिख दो उसके नाम।।

 

चंचरीक

चंचरीक गाने लगे, धुन में अपना गान।

कलियाँ ऐसी झूमतीं, करते ही रसपान।।

 

अमराई

अमराई की डाल पर, कोयल गाए गान।

अमराई  में बस गई, खुशियों की मुस्कान।।

 

कचनार

मनभावन कचनार का, आया मौसम आज।

औषधि का हर पुष्प में, छुपा हुआ है राज ।।

 

ऋतुराज

मनमोहक मौसम ललित, कण-कण में ऋतुराज।

अनुरागी अनुभूति का, उड़ने लगा जहाज।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 28 ☆ होरी खेलें ……… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की होली के रंग में सराबोर भगवान् श्रीकृष्ण जी पर आधारित बृजभाषा में रचित दो भावपूर्ण रचनाएँ  “होरी खेलें ………”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 28 ☆

☆ होरी खेलें ………  ☆

मोरो मोहन रँग रंगीलो

बहियाँ पकरि जबरन रँग डारे, ऐसो श्याम छबीलो

छाय रही छवि छटा छबीली, केसर घोलो पीलो

हिल मिल खें सब सखियाँ आई, करें कृष्ण को गीलो

कटि- लंहगा गल-माल कंचुकी, नैनन सो मटकीलो

केसर कीच कपोलन दीनी, रसिया रँग रसीलो

चरण शरण “संतोष”आपकी, जग को तजा कबीलो

 

होरी खेलें कृष्ण मुरारी

राधा के संग रास रचा कर, विंहसे विपिन विहारी

लाल गुलाल गाल पै चुपरत, रँगी चुनरिया सारी

कृष्ण रँग में रँगी सुरतिया, लगती कारी कारी

तरह तरह के इतर सुहाए, चली प्रेम पिचकारी

फूलों के रँग खूबै बरसें, बहके सब नर नारी

मन “संतोष” हिया अनुरागी, कर कर के जयकारी

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ संत गाडगे महाराज जयंती विशेष ☆ देवदूत ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव सामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है संत गाडगे महाराज  की जयंती के अवसर पर आधारित आपकी एक भावप्रवण कविता देवदूत )

 ☆  देवदूत ☆

(फेब्रुवारी २३, १८७६ – २० डिसेंबर इ.स. १९५६)

चिंध्या पांघरोनी बाबा

धरी मस्तकी गाडगे

डेबुजी या बालकाने

दिले स्वच्छतेचे धडे. . . . !

 

विदर्भात कोते गावी

जन्मा आली ही विभूती.

हाती खराटा घेऊन

स्वच्छ केली रे विकृती. . . !

 

वसा लोकजागृतीचा

केला समाज साक्षर

श्रमदान करूनीया

केला ज्ञानाचा जागर.

 

झाडूनीया माणसाला

स्वच्छ केले  अंतर्मन.

धर्मशाळा गावोगावी

दिले तन, मन, धन. . . . !

 

देहश्रम पराकाष्ठा

समतेची दिली जोड

संत अभंगाने केली

बोली माणसाची गोड.. . !

 

धर्म, वर्ण, नाही भेद

सदा साधला संवाद

घरी दारी, मनोमनी

गोपालाचा केला नाद. . . !

 

स्वतः कष्ट करूनीया

सोपी केली पायवाट

संत गाडगे बाबांचा

वर्णीयेला कर्मघाट .. . . !

 

असा देवदूत जनी

मन ठेवतो निर्मळ

त्यांच्या आठवात आहे

प्रबोधन परीमल.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 16 ☆ कविता – समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 16 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

 

हेल-मेल दूभर हुए, आभासी संवाद।

चल-चित्रों -सी जिंदगी, कौन सुने फरियाद।।

 

समय नहीं खुद के लिए,भाग रही है छाँव।

बूढ़ा बरगद खोजता, फिरता अपना गाँव।।

 

चीजों में सुख भर गया, कहाँ किसी से प्रेम।

मुखमण्डल में जड़ गए, अनगिन सुंदर फ्रेम।।

 

घर-घर बगुला भगत हैं, शतरंजी हैं चाल।

अपने अपने राग हैं, अपनी-अपनी ढाल।।

 

बचपन बीता खेल में, हुई जवानी स्वप्न।

आज बुढ़ापा खोजता, अपने प्यारे रत्न।।

 

कौन किसी के साथ है, क्या है किसके हाथ।

देख बावरे स्वयं को, लिखा बहुत कुछ माथ।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “गांधी जी आज भी बोलते हैं ”।  अपनी बेहतरीन  व्यंग्य  शैली के माध्यम से श्री विवेक रंजन जी सांकेतिक रूप से वह सब कह देते हैं जिसे पाठक समझ जाते हैं और सदैव सकारात्मक रूप से लेते हैं ।  श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ 

☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं  ☆

साहब की कुर्सी के पीछे गांधीजी दुशाला ओढ़े लगे हुए हैं। साहब कुछ वैचारिक किस्म के आदमी हैं। वे अकेले में गांधी जी से मन ही मन  बिन बोले बातें करते हैं। गांधीजी उनसे बोलते हैं कि  सारी योजनाएं तभी कारगर  होंगी जब उनके केंद्र में  कतार की पंक्ति में खड़ा अंतिम आदमी ही पहला व्यक्ति होगा। इसलिए साहब अक्सर लाभ पहुंचाते समय कतार के पहले व्यक्ति की उपेक्षा कर अंतिम व्यक्ति को भी,  जो गांधी जी के साथ आता है सबसे पहले खड़ा कर लेते हैं।

साहब की आल्मारियो से फाइलें तभी बाहर आती हैं जब अकेले में वे उनके विषय  में  गांधी जी से पूरी बातें कर लेते हैं। उनके पास गांधीजी गड्डी में आते हैं। गांधी जी साहब की लाठी हैं। गांधीजी के बिना साहब फाइल को  लाठी से हकाल देते हैं। वे गांधीजी के इतने भक्त हैं कि गांधीजी की संख्या साहब के कलम की दिशा पलट देती है। वे गांधी जी के सो जाने के बाद ही साहब क्वचित नशा करते हैं। वे गांधीजी  के नोट पर छपे हर चित्र की सुरक्षा बहुत जतन से करते हैं। साहब ने एक बकरी भी गांधीजी की ही तरह पाली हुई है। यदि उन्हें किसी की कोई सलाह पसंद नहींं आती तो वे बकरी  को घास खिलाने चले जाते हैं और इस तरह विवाद होने से बच जाता  है। स्वयम ही अगली बार समझदार व्यक्ति बकरी के लिए पर्याप्त घास लेकर साहब के पास पहुंचता है। साहब उसके साथ गड्डी में आये हुए गांधी जी से एकांत में चर्चा करतेे हैं। और गांधीजी का संकेत मिलते ही  व्यक्ति का काम सुगमता से कर देते हैं। बकरी निमियाने लगती है।

इसलिए मेरा मानना है कि गांधी जी आज भी बराबर बोलते हैं, उन्हें गुनने, सुनने औऱ समझने वाले की ही आवश्यकता है। जन्म के 150 वे वर्ष में हम सब को गांधी जी को पुनः पढ़ना समझना आचरण में उतारने की जरूरत है बस।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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