श्री आशीष कुमार
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक महत्वपूर्ण आलेख “योग”। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 33☆
☆ योग ☆
आध्यात्मिक शब्दों में योग अनंत भगवान के साथ हमारी आत्मा का मिलाप है । अनंत में या भगवान के साथ विलय करने के लिए हमारे जीवन का मूल्यांकन करने के कई मार्ग हैं । ये सारे मार्ग ही बहुत सारे अलग अलग योग हैं । कुछ एक के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त अन्य किसी और के लिए उपयुक्त और दूसरों के लिए अनुपयुक्त होते हैं । यह व्यक्तिगत मस्तिष्क, शरीर संरचना, दिलचस्पी, आयु, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि पर निर्भर करता है । दार्शनिक शब्दों में कहें तो योग वह विज्ञान है जो हमें चित्त (मूल शब्द ‘चित’ से लिया गया जिसका अर्थ है ‘जागरूक होना’) की गति को रोकना सिखाता है । यह मस्तिष्क का एक भाग होता है । यह स्मृतियों का संग्रह गृह होता है । संस्कार या हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्मों की छाप यहाँ चित्त पर ही अंकित होती हैं । तो योग का अर्थ हुआ चित्तवृत्ति का निरोध । चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (1) क्षिप्त (2) मूढ़ (3) विक्षिप्त (4) एकाग्र और (5) निरुद्ध । प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है । क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है । मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है । विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है । यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते । एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है । यह योग की पहली सीढ़ी है । निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है । इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं । यही समाधि की अवस्था है ।
अनगिनत योग हैं लेकिन कुछ महत्वपूर्ण हैं जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, लययोग, मुद्रायोग, शक्तियोग, हठयोग, अष्टांग योग, मन्त्र योग, कुंडलनी योग, इत्यादि । सभी को विस्तार से समझना बहुत कठिन है, लेकिन मैं आपको कुछ योगों के विषय में संक्षेप में बताने की कोशिश करूँगा ।
मैंने आपको कर्म योग के विषय में बहुत विस्तार से बताया है । बस ध्यान रखें कि कर्म योग कार्य और उसकी प्रतिक्रिया का नियम हैं । जिन्हे हमें अपनी उम्र, जाति, स्थिति, पृष्ठभूमि, संस्कृति, देश इत्यादि के अनुसार करने होते हैं । एक साधारण उदाहरण यह है कि शराब का उपयोग भारत में हिंदुओं के अधिकांश घरों में वर्जित है । तो जो हिंदू है और शराब नहीं पीता है इसका अर्थ है कि वह अभ्यास में अपने इस कर्म (धर्म का प्रायौगिक उपयोग) का ठीक से पालन कर रहा है । लेकिन रूस जैसे ठंडे देशों में जहाँ लोग शराब के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं, वे शराब पीते हैं तो उनके कर्मों के कानून का उल्लंघन नहीं होता है ।
आशीष ने कहा, “महोदय, लेकिन यदि कोई भी अपने वंश या कुल से कुछ अलग कार्य नहीं करेगा, तो लोगों के जीवन को आसान बनाने के लिए समाज में कुछ भी नयी खोज और प्रगति कैसे होगी?”
उत्तर दिया, “मैंने आपको तीन प्रकार के कर्म, द्रिधा, द्रिधा-आद्रिधा और आद्रिधा के विषय में पहले ही बहुत विस्तार से बताया था, ये वो कर्म होते हैं जो लोगों की इच्छाशक्ति की जाँच करते हैं कि कब उन्हें धैर्य रखना पड़ेगा और कब वो ताजा कर्म बनाने के लिए स्वतंत्र इच्छा का भी उपयोग कर सकते हैं आदि आदि । तो बहुत सारे लोग अपने कर्मों में उनके वंश में निर्धारित धर्म से पृथक नए सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन करते हैं, जिसके लिए उन्हें पुरस्कार या दंड स्वीकार करना होता है । लेकिन वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए नियम बदल देते हैं । यदि ये लोग ब्रह्मांड और प्रकृति में परिवर्तन के अनुसार ही अपने कर्मों में बदलाव करते हैं, तो उन्हें अपने कर्मों के लिए भुगतान नहीं करना पड़ता है । दूसरी ओर, यदि वे प्रकृति के परिवर्तन के खिलाफ जाते हैं, तो उन्हें अपने और अपनी भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपने किये गए कार्यों के लिए भुगतान करना होगा । कुछ बदलाव सकल या उनके प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देतेहैं जबकि अन्य सूक्ष्म होते हैं और उनका प्रभाव समय के साथ साथ दिखना शुरू होता है । तो इसलिए ऐसे लोग आने वाली पीढ़ियों के लिए नए नियम बनाते हैं ।
जीवित रहने के लिए ये परिवर्तन भी जरूरी है क्योंकि प्रकृति भी समय के साथ साथ बदल रही है जैसा कि मैं कई बार बता चूका हूँ प्रकृति में बदलाव तीन क्षेत्रों से संभव हैं
- एक हमारे सौरमंडल में ग्रहों और नक्षत्रों की ऊर्जा का अलग अलग समय पर हमारी पृथ्वी पर अलग अलग तरह का प्रभाव डालना ।
- हमारे वायुमंडल में विभिन प्रकार के प्रदूषणों से आ रहा परिवर्तन और
- हमारी दृष्टिगत प्रकृति के अवयवों में हो रहा परिवर्तन जैसे कि वृक्षों का काटना, भूमि की खुदाई, नदी आदि का स्थान परिवर्तन इत्यादि ।
अर्थात हर युग यहाँ तक कि हर दशक का भी अपना एक अलग रत (प्रकर्ति का चक्र) होता है । और अगर हम अपने शारीरिक और मानसिक भावों का प्रकृति के चक्र के बदलाव के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करेंगे तो समाज ख़त्म हो जाएगा । लेकिन ध्यान दें, इस समय मानव पीढ़ी के जीवन शैली और प्रकृति के परिवर्तन की गति बहुत अलग अलग है । यही कारण है कि इन दिनों प्रगति में जो परिवर्तन उन्नति की तरह देखा जा रहा हैं वह वास्तव में बहुत खतरनाक हैं । क्या आप मुझे पृथ्वी पर एक भी ऐसी जगह बता सकते हैं जहाँ पर लोगों का निवास हैं और फिर भी वहाँ आपको शुद्ध हवा, पानी, अग्नि, वायुमंडल इत्यादि मिल जाये? हमारी जीवनशैली और प्रकृति के बीच परिवर्तन का यह असंतुलन हमारे पर्यावरण को नर्क बना रहा है और हमारे विचार भी बहुत बुरी तरह से प्रदूषित हो चुके हैं । यदि आप कर्म के नियमों के विस्तार और गहराई में जाते हैं, तो आप पाएंगे कि कर्म कुछ भी नहीं बल्कि प्रकृति के साथ मानव दिनचर्या का सामंजस्य हैं जिससे कि समाज लंबे समय तक जीवित रहे सके । अगर हम वन या जंगल में जाते हैं तो वहाँ पर कोई समाज नहीं है और ना ही कोई कर्मों का कानून है ।
आप जानते हैं कि सब कुछ चक्रीय है, जिसका अर्थ यह है कि प्रकृति ब्रह्मांड और मानव सद्भाव के लिए खुद को दोहराती है । लेकिन वास्तविकता में अगर हम बारीकी से देखते हैं, तो हम पाएंगे कि प्रकृति की यह दिनचर्या चक्रीय नहीं, बल्कि कुंडलित या घुमावदार (spiral) है । और प्रकृति का विकास या विनाश वे बिंदु हैं जहाँ पर समय का प्रवाह कुंडली के एक चक्र में नियमित चलते हुए दूसरे चक्र, जो कि पिछले चक्र की तुलना में बड़ा (विकास की स्थित में) या छोटा (विनाश की स्थित में) हो सकता हैं, में परिवर्तित होता है । तो आप कह सकते हैं कि महान मस्तिष्क, अवधारणाएं, परिदृश्य इत्यादि जिन्होंने दुनिया को बड़े पैमाने पर बदल दिया है, वे ब्रह्मांडीय प्राण प्रवाह की कुंडली के चक्रों के ऐसे ही बिंदु हैं । पर ये कुंडलित परिवर्तन भी उस अनंत शक्ति का एक माया जाल ही है । अब स्पष्ट हुआ?”
© आशीष कुमार