हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 46 – कविता – ममता के सागर से निकली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम कविता   “ममता के सागर से निकली।  अप्रतिम कविता , स्त्री के माँ  का स्वरुप  और अद्भुत शब्दशिल्प। इस सर्वोत्कृष्ट  कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 46 ☆

☆ कविता   – ममता के सागर से निकली

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

कर सिंचित अपने तन से

किया नव सृष्टि का संचार

 

भावना की डोरी में बंधी

प्यार के सपने संजोए हुए

पाजेब चुनर सिंदूर चूड़ियां

धारण कर श्रंगार किए

दीप जलाती तुलसी चौरा

सुख शांति का लेकर भार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

कोख रखा नव महीनों तक

समय बिताई पल छिन संवार

बिसरा गई सारे कष्टों को

शिशु दिया जब  जन्म साकार

बनकर ममता  की  जननी

जीवन मिला उसको एक बार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

शब्दों में मां को उतारू कैसे

जीवन जहां से प्रारंभ हुआ

उन पर क्या मैं गीत लिखूं

उल्लासित  मन हुआ महुआ

रीति-रिवाजों को सिखलाती

मां का निर्मल छलकता प्यार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

नवल इतिहास सजाने चली

मानवता की प्रतिमूरत है

देवो को भी वश में कर ले

मां में शक्ति समाहित हैं

भीगे हुए नयनों में भी समाए

मधुर मधुर सुर सरगम तार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

कर  सिंचित अपने तन से

किया नव सृष्टि का संचार

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #49 ☆ माँ का वात्सल्य ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  प्रस्तुत है मातृ दिवस पर एक समसामयिक विशेष रचना माँ का वात्सल्य ।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #49 ☆

☆  माँ का वात्सल्य   ☆

माँ तो सिर्फ माँ होती है

हो चाहे पशु-पक्षी की

पथ की ठोकर से बचाकर

रक्षा करती बालक की

हाथ थाम चलती शिशु का

पल-पल साथ निभाती है

थोड़ा-थोड़ा दे कर ज्ञान

जीवन कला सिखाती है।

 

विस्तृत नीले आकाश सी

धरती सी सहनशील होती

टटोल कर बालक के मन को

आँचल की घनी छाँव देती

पीड़ा हरती बालक की

खुशियों का हर पल देती

पिरो न सकें शब्दों में जिसे

माँ ऐसी अनमोल होती।

रचना माँ से सृष्टि की

माँ जननी है विश्व की

अद्भुत है वात्सल्य माँ का

माँ से तुलना नहीं किसी की

बेटी, बहन, पत्नी बनकर

चमकाती अपने चरित्र को

माँ बनकर सर्वस्व अपना

देती अपनी संतान को।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 2 ☆बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #2 ☆

☆ बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद

‘हेलो डियर एपल, तुम यहाँ कैसे?’ – कचरे के ढेर पर पड़े केले ने सेब से पूछा.

‘हुआ ये कि एक थे जानकी दादा, उन्होंने किलो भर ख़रीदा. थोड़ी दूर जाकर उनको पता चला कि विक्रेता असलम था तो वे मुझे यहाँ फेंक गये. कहते हैं मैं मुसलमां हो गया हूँ, और आप?’

‘अपन की भी वोई कहानी.’ – केले ने कहा – ‘आबिद भाई ने परचेस तो कर लिया था, मगर घर पहुँचने से पहले उन्हें किसी ने बताया कि वेंडर कैलास था, वो मुझे यहाँ पटक गये. बोला कि मैं हिन्दू हो गया हूँ.’

‘यार कुछ भी कहो, ठौर सही मिला है अपन को. आस-पास थोडा कचरा जरूर है मगर है जगह धर्म निरपेक्ष. सर्वसमावेशी. निरापद. शांत. निर्विवाद.’

‘सही कहा दोस्त, अब तो ये साले इंसान सेब, केले, अंगूर, अनार का भी धरम तय करने लगे. मेरा जन्म तो हिमाचल में दौलतरामजी के बगीचे में हुआ. इस लिहाज से तो मैं पैदाइशी हिन्दू हुआ.’

‘डेफिनेशन बाय बर्थ से चलें तो अपन भी मोमेडन ही हुवे. मेरा प्लेस ऑफ़ बर्थ जलगाँव के अहमद मियां का फार्म है.’

‘दोस्त, मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि हमारा धर्म उगानेवाले से तय होगा कि बेचनेवाले से? प्रकृति ने तो हमें भूख मिटाने के धर्म में दीक्षित करके भेजा था, इसमें हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गया?’

‘पता नहीं यार, कोई वाट्सअप नाम की चीज़ है आदमियों की दुनिया में, शायद तक तो उसी से हुआ है. बहिष्कार की अपीलें चल रहीं हैं वहाँ. बहरहाल, ये बताओ कि वे अगर तुम्हें खा लेते और उसके बाद उनके नॉलेज में आता तब क्या होता?’

‘अंगुली गले में फंसा के उल्टी करते, फिर तीन बार कुल्ले करके शुद्धि कर लेते.’ ऊssssssक्क. उलटी की आवाज़ की मिमिक्री कर दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया. तभी शेष कचरे में से जोर जोर से हंसने आवाज आई. उन्होंने पूछा तुम कौन हो?

‘मैं अधर्म हूँ.’

‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो और इतनी जोर-जोर से क्यों हंस रहे हो?’

‘वो जो असलीवाला धर्म है ना वो मुझे बार बार कचरे में डाल जाता हैं. मैं बजरिये भक्तों के धर्म को ही जार जार करने निकल पड़ता हूँ. देखो इस विपत्तिकाल में भी लोग मुझे कम एक दूसरे को ज्यादा निपटा रहे हैं. अपन की चाँदी है तो क्यों नहीं हंसे?….अभी यहाँ हूँ, कुछ देर में वाट्सअप पर रहूँगा, फिर चीखते चैनलों में, फेक न्यूज में, डॉक्टर्ड वीडिओ में, फिर पढ़े-लिखे दिमागों में, हाथ के पत्थरों में, जलते टायरों में, आंसू गैस के गोलों में, रबर की बुलेटों में, फिर…..फिर….’, फिर चुप्पी मार गया अधर्म.

‘माय डियर बनाना, अब हम क्या करेंगे?’

‘चेरिटी करेंगे. जस्ट वेट. पुलिस की नज़र बचाकर आती ही होंगी पन्नी बीननेवाली औरतें, हम उनके खाने के काम आयेंगे.’

‘वो किस धरम की हैं?’

‘जो लोग कचरे में से बीन कर पेट भरते हैं वे धरम-करम के फेर में नहीं पड़ते. समझो कि वे भूख के धरम की हैं. नाक चढ़ाना उनके चोंचले हैं जिनके हाथ में थर्टी थाउजंड का स्मार्ट फ़ोन और दो जीबी डाटा डेली खरीदने का दम है.’

‘तब तो हम हमेशा ही पन्नी बीननेवालियों के काम आया करेंगे.’ – सेब ने खुश होकर कहा.

‘नहीं दोस्त, नहीं हो पायेगा, इंसान की फितरत तुम जानते नहीं. प्लान्स ये हैं कि साईन बोर्ड पर ही लिखवा दें – कैलास हिन्दू केला भंडार, असलम मोमेडन फ्रूट स्टोर्स जैसा कुछ. खाये-पिये अघाये लोगों की फितरतें हैं – ये यहाँ से नहीं खरीदो, वो वहाँ से नहीं खरीदो.’ – केले ने समझाया.

सेब सोच रहा है इससे तो ईडन गार्डन में ही अच्छा था. काश वहीं लटका रह जाता. न तो आदिम आदम को धरम से कोई मतलब रहा था, न हव्वा को. मानव सभ्यता रिवाईंड हो जाये तो मजा आ जाये.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 7 ☆ मायका ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  मातृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण विशेष कविता  “मायका”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 7 ☆

☆  मायका ☆

 

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

नहीं चाहिए भईया, पैसों का कुछ हिस्सा,

नहीं चाहिए पापा, दान दहेज़ कुछ ऐसा,

नहीं चाहिए माँ, ये साड़ी गहने तुम जैसा,

नहीं चाहिए सखी सहेली, खेल खिलोनों का बड़ा सा बक्सा,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

माँ जब दूर हुई तुमसे, यादों का बक्सा खोला था,

आँसू झर-झर निकले थे, जबकि नया किसी ने कुछ बोला था,

पापा की प्यारी थी, उनके घर में राजकुमारी थी,

भईया साथ खेली थी, उनकी सखी सहेली थी,

ससुराल में मौन यूँ ही खड़ी थी, किसी से कुछ नहीं बोली थी,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

पराई क्यों हूँ, सवाल गूँज रहा था,

हर लम्हा मायके का, अपने आप में समेट रहा था,

याद आते हैं वो दिन, जब कच्ची, पक्की, जली रोटी बेली थी,

खूब चिढ़ाया भईया ने, उनके साथ नया बोली थी,

पापा मंद-मंद मुस्कुराये थे, चूमी मेरी हथेली थी,

माँ की डांट भी अलबेली थी,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 46 ☆ मातृ दिवस विशेष – माँ बेचारी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  मातृ दिवस के अवसर पर आपकी विशेष रचना माँ बेचारी । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 46

☆ मातृ दिवस विशेष – माँ बेचारी  ☆ 

 

माँ हर बार

ऐसा ही करती है

 

ऐसा ही सोचती है

मा़यका मन में हैं

किवाड़ की सांकल

वो अमरूद का पेड़

वो अमऊआ की डाली

वो प्यारी प्यारी सहेली

वो अम्मा की लम्बी टेर

बाबू के किताबों के ढ़ेर

पगडंडी की वो पनिहारिन

चुहुलबाज़ी वाली वो नाईन

मुंडेर पर बैठी हुई  गौरैया

हर बार माँ याद करती है

बड़बड़ाती हुई सो जाती है

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 45 – स्त्री अभिव्यक्ती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण गीत  ” स्त्री अभिव्यक्ती”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 45 ☆

☆ स्त्री अभिव्यक्ती ☆

 

अभिव्यक्तीच्या  नावावरती, उगाच वायफळ बोंबा  हो।

अन् चढणारीचा पाय ओढता….उगा कशाला थांबा हो।

जी sssजी र ss जी जी

माझ्या राजा तू रं माझ्या  सर्जा तू रं  ssss.।।धृ।।

 

गर्भामधी कळी वाढते, प्राण जणू तो आईची।

वंशाला तो …हवाच दीपक , एक चालेना बाईची।

काळजास त्या सूरी लावूनीsss, स्री मुक्तीचा टेंभा हो।।

चढणारीचा पाय……..ranjana

जी जी रं जी…।।1।।

 

आरक्षण..! हे दावून गाजर, निवडून येता बाई हो।

सहीचाच तो हक्क तिला… अन् स्वार्थ साधती बापे हो।

संविधानाची पायमल्ली ही… की स्री हाक्काची शोभा हो…।

चढणारीचा पाय……..

जी जी रं जी….।।2 ।।

 

स्री अभिव्यक्ती बाण विषारी…..घायाळ झाले बापे… ग।

सांग साजणी कशी रुचावी….स्त्रीमुक्तीची नांदी ग।

कणखर बाणा सदा वसू  दे …. नको भुलू या ढोंगा हो।

चढणारीचा पाय……..।।3।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 49 ☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘महामारी पर भारी शायर’। डॉ परिहार सर का इस बार का कैरेक्टर वास्तव में कैरेक्टर ही है। वैसे शायर शब्द से अंदाजा तो आप ने लगा ही लिया होगा।  शायर भारी कैसे पड़ा ? इसके लिए तो आपको रचना पढ़नी ही पड़ेगी। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 49 ☆

☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆

मुहल्ले में अफ़रा-तफ़री थी। पूरा लॉकडाउन लगा था, घरों से निकलने की सख़्त मुमानियत थी। लेकिन लोग थे कि बेवजह प्रकट होने से बाज़ नहीं आ रहे थे। पुलिस उन्हें हाँकते हाँकते परेशान थी। पाँच को भगाती तो दस पैदा हो जाते।

अचानक पुलिस इंस्पेक्टर के पास एक नौजवान आकर खड़ा हो गया। महीनों की बढ़ी दाढ़ी और बाल, तुचड़े-मुचड़े कपड़े। लगता था महीनों से नहाया नहीं है। देखते ही ‘सोशल डिस्टांसिंग’ की इच्छा होती।

इंस्पेक्टर को सलाम करके बोला,  ‘सर, ख़ाकसार को लोग ‘ज़ख़्मी’ के नाम से जानते हैं। शायर हूँ। शहर का बच्चा बच्चा मेरे अशआर का दीवाना है। आपकी परेशानी देखकर मन हुआ कि आप की कुछ मदद करूँ। कौम की ख़िदमत करना अपना फर्ज़ मानता हूँ। मैंने इस महामारी पर कुछ नज़्में लिखी हैं। लोगों को सुनाऊँगा तो वे आपका नज़रिया समझेंगे और आपका काम हल्का हो जाएगा। मुझे एक कुर्सी और मेगाफोन दिलवा दें तो मैं अभी काम में लग जाऊँगा।’

इंस्पेक्टर साहब उसकी बात से प्रभावित हुए। कुर्सी और मेगाफोन का इंतज़ाम हो गया और ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना रजिस्टर निकाल कर तत्काल शुरू हो गये। थोड़ी देर में इंस्पेक्टर साहब ड्यूटी बदलकर चले गये।

दूसरे दिन सबेरे लौटे तो पाया ‘ज़ख़्मी’ साहब, दीन-दुनिया से बेख़बर, पूरे जोश के साथ अपनी नज़्में पढ़ने में लगे हैं। उनकी बुलन्द आवाज़ पूरे वातावरण में गूँज रही थी। बाकी सब तरफ सन्नाटा था। कहीं चिरई का पूत भी दिखायी नहीं पड़ता था।

इंस्पेक्टर को देखकर ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना कलाम बन्द करके खड़े हो गये, बोले, ‘देख लीजिए सर, अपनी नज़्मों का कैसा असर हुआ है। कोई घरों से बाहर नहीं निकल रहा है। इस मुहल्ले के लोग यकीनन अच्छी शायरी के कद्रदाँ हैं।’

इंस्पेक्टर साहब ने संतोष ज़ाहिर किया। इधर उधर नज़र घुमायी तो देखा सामने खिड़की में कई सिर इकट्ठे हैं और उन्हें पास आने का इशारा किया जा रहा है। इंस्पेक्टर साहब खिड़की के पास पहुँचे तो उनमें से एक बन्दा हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, कल हमसे बड़ी गलती हुई जो हमने आपकी हुक्मउदूली की। लेकिन इस शायर को यहाँ छोड़कर आपने हमें बड़ी सज़ा दे दी है। ये हज़रत जब से शुरू हुए हैं तबसे पाँच मिनट को भी बन्द नहीं हुए। एक ही सुर में लगातार पढ़े जा रहे हैं। हम रात भर सो नहीं पाये। अब हमें बर्दाश्त नहीं हो पायेगा। हम इस महामारी से मरें न मरें, इनकी शायरी से यकीनन मर जाएंगे। इन्हें यहाँ से रुख़्सत करें। हम वादा करते हैं कि आगे आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

इंस्पेक्टर वापस आये तो ‘ज़ख़्मी’ साहब ने पूछा, ‘सर,ये लोग क्या कह रहे थे?’

इंस्पेक्टर साहब ने जवाब दिया, ‘आपकी तारीफ कर रहे थे। आपकी शायरी उन्हें बहुत पसन्द आयी। शुक्रिया, अब आप तशरीफ़ ले जाएं।’

‘ज़ख़्मी’ साहब बोले, ‘यह मेरा कार्ड रख लीजिए। फिर कभी मेरी ज़रूरत पड़े तो याद कीजिएगा। मैं फौरन हाज़िर हो जाऊँगा। कौम की ख़िदमत करना मेरा फर्ज़ है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #47 ☆ कुछ नहीं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # कुछ नहीं ☆

हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो,  शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24×7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम ‘कुछ नहीं’ करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने ‘कुछ नहीं’ में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस ‘कुछ नहीं’ को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना, वह जीवन में ‘बहुत कुछ’ करने की डगर पर निकल गया।

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 33 – पाठ ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक सार्थक, सशक्त एवं भावपूर्ण रचना  ‘पाठ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 33– विशाखा की नज़र से

☆ पाठ  ☆

 

लेखन के क्रम में

शिक्षक ने मुझे

पहले अक्षर लिखना सिखाया

फिर बिना मात्रा वाले शब्द

बाद में मात्रा वाले शब्द

तदनन्तर वाक्य

 

तुम मेरे जीवन में

अक्षर की तरह आये

और मैं सीखती गई

प्रेम की भाखा

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 7 ☆ तुलसी, मानस और कोविद ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका शोधपूर्ण आलेख  “तुलसी, मानस और कोविद”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 7 ☆ 

☆  तुलसी, मानस और कोविद ☆ 

भविष्य दर्शन की बात हो तो लोग नॉस्ट्राडेमस या कीरो की दुहाई देते हैं। गो. तुलसीदास की रामभक्ति असंदिग्ध है, वर्तमान कोविद प्रसंग तुलसी के भविष्य वक्ता होने की भी पुष्टि करता है। कैसे? कहते हैं ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणं’, हाथ कंगन को आरसी क्या? चलिए मानस में ही उत्तर तलाशें। कहाँ? उत्तर उत्तरकांड में न मिलेगा तो कहाँ मिलेगा? तुलसी के अनुसार :

सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४

वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।  तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५

सब रोगों की जड़ ‘मोह’ है। कोरोना की जड़ अभक्ष्य जीवों  (चमगादड़ आदि) का को खाने का ‘मोह’ और भारत में फैलाव का कारण विदेश यात्राओं का ‘मोह’ ही है। इन मोहों के कारण बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं।  आयर्वेद के त्रिदोषों वात, कफ और पित्त को तुलसी क्रमश: काम, लोभ और क्रोध जनित बताते हैं। आश्चर्य यह की विदेश जानेवाले अधिकांश जन या तो व्यापार (लोभ) या मौज-मस्ती (काम) के लिए गए थे। यह कफ ही कोरोना का प्रमुख लक्षण देखा गया। जन्नत जाने का लोभ पाले लोग तब्लीगी जमात में कोरोना के वाहक बन गए। कफ तथा फेंफड़ों के संक्रमण का संकेत समझा जा सकता है।

प्रीती करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।

विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब स्कूल नाम को जाना।। १२०/ १६

कफ, पित्त और वात तीनों मिलकर असंतुलित हो जाएँ तो दुखदायी सन्निपात (त्रिदोष = कफ, वात और पित्त तीनों का एक साथ बिगड़ना। यह अलग रोग नहीं ज्वर / व्याधि  बिगड़ने पर हुई गंभीर दशा है। साधारण रूप में रोगी का चित भ्रांत हो जाता है, वह अंड- बंड बकने लगता है तथा उछलता-कूदता है। आयुर्वेद के अनुसार १३ प्रकार के सन्निपात – संधिग, अंतक, रुग्दाह, चित्त- भ्रम, शीतांग, तंद्रिक, कंठकुब्ज, कर्णक, भग्ननेत्र, रक्तष्ठीव, प्रलाप, जिह्वक, और अभिन्यास हैं।) मोहादि विषयों से उत्पन्न शूल (रोग) असंख्य हैं। कोरोना वायरस के असंख्य प्रकार वैज्ञानिक भी स्वीकार रहे हैं। कुछ ज्ञात हैं अनेक अज्ञात।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।१२० १९

इस युग (समय) में मत्सर (अन्य की उन्नति से जलना) तथा अविवेक के कारण अनेक विकार उत्पन्न होंगे। देश में राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक शक्तियों के अविवेक से अनेक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विकार हुए और अब जीवननाशी विकार उत्पन्न हो गया।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क

एक ही व्याधि (रोग कोविद १९)  से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।

नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख

नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १

इस प्रकार सब जग रोग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर  देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।

बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।  मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २

जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।

तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३

ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥

ईश्वर की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

आलेख के शोधपरक विचार लेखक के व्यक्तिगत  विचार हैं। 

 

 

 

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