हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 29 ☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “एक सवाल मजदूर का”। मजदूर का ही नहीं हम सब का भी एक सवाल है कि जिन  मजदूरों को गाड़ियों में भर भर कर जैसे भी भेजा है उनमें से कितने वापिस आएंगे ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 29 ☆

☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का

 

बाबा मजदूर क्या होता है?

मजदूर बहुत मेहनतकश इंसान होता है बेटवा!

अच्छा! मजदूर  काम क्या करता है?

बडी-  बडी इमारतें बनाता है, पुल बनाता है, मेहनत – मजूरी के जितने काम होते हैं सब करत है वह.

और वह रहता कहाँ है?

ऐसी ही झोपडिया में, जैसे हम रहत हैं, हम मजदूर ही तो हैं .

बाबा तुमने भी शहरों में बडी- बडी बिल्डिंग बनाई हैं?

हाँ, अरे पूरे देश में घूमे हैं काम खातिर. जहाँ सेठ ले गए, चले गए मुंबई,कलकत्ता बहुत जगह.

तो तुमने अपने लिए बडा – सा घर क्यों नहीं बनाया बाबा,  कित्ती छोटी झोपडी है हमार, शुरु हुई कि खत्म  – बेटा मासूमियत से पर थोडी नाराजगी के साथ बोला.

गंगू के पास मानों शब्द ही नहीं थे, कैसे समझाता बेटे को कि मजदूर दूसरों के घर बनाता है लेकिन उसके पैरों तले जमीन नहीं होती. टी.वी.पर आती मजदूरों के दर- ब- दर भटकने की दर्दनाक खबरें उसका कलेजा छलनी कर रहीं थीं. कोरोना से जुडे अनेक सवालों पर चर्चाएं चल रही थी पर गंगू के मन में तो एक ही सवाल चल रहा था –  मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चलता लेकिन कोई भी उन्हें एक टुकडा जमीन और दो रोटी चैन से खाने को क्यों नहीं देता?

मजदूर यह सवाल कभी पूछ सकता है  क्या?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆ दो गज दूरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “दो गज दूरी।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆

☆ दो गज दूरी

एक तो रिश्तों में वैसे ही दूरियाँ बढ़ रहीं थीं  दूसरा ये भी ऐलान कर दिया कि दो गज दूरी बहुत जरूरी ।  आजकल सभी विशेषकर युवा पर्सनल स्पेस को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए  ऑन लाइन रिश्तों का चलन बढ़ गया है । इसकी सबसे बड़ी खूबी ;  इसमें नखरे कम झेलने पड़ते हैं । जब तक मन मिले तब तक फ्रेंड बनाओ अन्यथा अनफ्रेंड करो । ऐसा फ्रेंड किस काम का जो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े लाइक न करता हो ।

दोस्ती होती ही तभी है;  जब आप एक दूसरे को लाइक करते हो । कहते हैं  न, सूरज अपने साथ  एक नया दिन लेकर आता है , तो ऐसे ही एक दिन सुबह – सुबह सात समंदर  पार से  कोरोना जी  भी आ धमके । जब कोई आता है तो पूरे घर की दिनचर्या बदल जाती है ; खासकर मध्यमवर्गीय परिवार की क्योंकि वे लोग दिखावे की दौड़ में खुद को शामिल कर लेते हैं । ऐसे समय में हम लोग अच्छा – अच्छा बना कर खाते और खिलाते हैं । ऐसा ही कुछ इस समय भी हो रहा है । दिन भर रामायण व महाभारत के पात्रों की चर्चा व चिंतन अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की जीवन शैली में शामिल हो कर महक- चहक रहा है । अपनी संस्कृति से  जुड़े होने की घोषणा हम तभी करते हैं जब मेहमान घर पर हो, तो बस ये अवसर आया विदेशी मेहमान हमारे साथ – साथ रहने की इच्छा लिए आ धमका और हम देखते ही रह गए ;  क्या करते । इसकी नियत पर शक तो शुरू से ही था ,  जो दिनों दिन पुख्ता भी होता जा रहा है  पर हम तो अतिथि देवो भव की परंपरा के पोषक हैं तो स्वागत सत्कार कर रहे हैं ।

इक्कीसवीं सदी चल रही है,  हर युग की अपनी कोई न कोई विशेष उपलब्धि रही है । जब इतिहास लिखा जायेगा तो कलियुग की सबसे बड़ी उपलब्धि  तकनीकी को ही माना जायेगा । इसकी  सहायता से सब कार्य ऑन लाइन होने लगे हैं  ।  लाइन लगाने में तो वैसे भी हम लोग बड़े उस्ताद हैं ; इसका अभ्यास नोटबन्दी के दौरान खूब किया है । अब ये भी सही है कि हर पल कुछ न कुछ नया करते रहना चाहिए । सो हर कार्य शुरू हो गए नए बदलावों के साथ ।  लॉक डाउन में अर्थव्यवस्था भले ही डाउन हुई हो पर घरेलू हिंसा अप ग्रेड हो रही है । अरे भई  जहाँ  चार बर्तन होंगे तो आवाज तो उठेगी ही । मामला भी ऑन लाइन ही सुलझाया जा रहा है ।   बड़ा आंनद आयेगा जब  वीडियो अदालत होगी,  ऐसे में बहसबाजी का दौर तब तक चलेगा जब तक सर्वर डाउन न हो जाये । कुछ भी कहें इक्कीसवीं सदी की बीमारी भी दो हाथ आगे निकली । चमगादड़ से आयी या प्रयोग शाला से ये तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं किंतु कहाँ- कहाँ मानवता के दुश्मन पनप रहे हैं इतना जरूर बताती जा रही है । कोई इसे कोरोना मैडम कहता है तो कोई कोरोना सर जी कह कर इसको सम्मानित कर रहा है । अरे भाई हम लोग सनातन धर्म को मानते हैं जहाँ हर प्राणी में ईश्वर का वास  देखा जाता है ।  सो सम्मान तो बनता है । अब ये बात अलग है कि ये वायरस है जिसे ज्यादा प्यार पाकर बहक जाने की आदत है । सबको जल्दी ही पोजटिव करता है । और द्विगुणित होकर बढ़ते हुए चलना इसका स्वभाव है । अब इसे कौन बताए कि हम लोग हम दो हमारे दो से भी दूर होकर हम दो हमारे एक पर विश्वास करते हैं । तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने वाली । हमारे यहाँ तो जैसा अन्न वैसा मन ही सिखाया गया है अतः हम लोग चमगादड़ों से नाता नहीं जोड़ते । कुछ लोग भटके हुए प्राणी अवश्य हैं ; जो  भोजन और भजन को छोड़कर माँसाहार की ओर भटकते हैं ; वे भले ही तुम्हारी सेवा करें पर जैसे ही समझेंगे कि तुम्हारी सोच सही नहीं है । तुमसे खराब वाइव्स आ रही है तुम्हें रफा दफा कर देंगे ।

जब दिमाग ठंडा हो तो लोग आराम से कार्य करते हैं वैसे ही कारोना जी को भी ठंडेपन से ज्यादा ही मोह है ये साँस की नली की गली को ही ब्लॉक कर देता है । ब्लॉक करना तो इसकी  पुरानी आदत है । गर्मी पाते ही रूठ जाता है । सारे देशभक्त इसे भागने हेतु दिन -रात एक कर रहे हैं पर ये भी पूरी शिद्दत से गद्दारों को ढूंढ कर उनको उकसाता है ; कहता है मेरा साथ दो खुद भी जन्नत नशी बनों औरों को भी बनाओ । अनपढ़ लोग इसकी बातों में आ रहे हैं ; तो कुछ दूर से ही  इसके समर्थन में अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं ।

जिस दिन से इंटरनेट शुरू हुआ ऑन लाइन सम्बंधो पर तो सभी ने वर्क शुरू किया । इस दौरान बहुत से फेसबुकिया रिश्तेदार भी बने ।  सारे  कार्य इसी से शुरू हो गए,  ऐसा लगने लगा मानो हम सब अंतरिक्ष में जाकर ही दम लेंगे पर ये अतिथि है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा । ये जाए तो हम सब की जीवनरूपी रेल पुनः पटरी पर दौड़ें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 46 ☆ व्यंग्य – फेक न्यूज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “फेक न्यूज।  वास्तव में  मीडिया में उपस्थिति का क्रेज़ इतना कि रचना के साथ मानदेय के चेक की कॉपी भी  सोशल मीडिया में चिपकाना नहीं भूलते । श्री विवेक जी  का यह व्यंग्य समाज को आइना दिखता है, किन्तु समाज है कि देखने को तैयार ही नहीं है । उसे तो फेक न्यूज़ ही रियल न्यूज़ लगती है ।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 46 ☆ 

☆ व्यंग्य – फेक न्यूज 

आज का समय स्व संपादित सोशल मीडीया का समय है. वो जमाने लद गये जब हाथ से कलम घिसकर सोच समझ कागज के एक ओर लिखा जाता था. रचना के साथ ही स्वयं का पता लिखा लिफाफा रचना की अस्वीकृति पर वापसी के लिये रखकर, संपादक जी को डाक से  रचना भेजी जाती थी. संपादक जी रचना प्रकाशित करते थे तो पहले स्वीकृति, फिर प्रकाशित प्रति और फिर मानदेय भी भेजते थे. या फिर अस्वीकृति की सूचना के खेद सहित रचना वापस लौटा दी जाती थी. अब सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये  मतलब ई मेल से रचना भेजो, फिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये. अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी ही फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस.सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

किसी के धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का ध तक नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं. इन महान लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि  आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

फेक न्यूज ने अपना बाजार इतनी तेजी से फैलाया है कि हर चैनल वायरल टेस्ट का कार्यक्रम ही करने लगा है, जिसमें वायरल खबरो के सच या झूठ होने का प्रमाण ढ़ूंढ़ कर एंकर दर्शको को वास्तविकता से परिचित करवाता है. और इसी बहाने चैनल की टी आर पी का टारगेट पूरा करता है. फेक न्यूज के भारी दुष्परिणाम भी समाज को अनेक बार दंगो, कटुता, वैमनस्य के रूप में भोगने पड़े हैं. विदेशी ताकतें भी हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने से बाज नही आतीं. इसलिये जरूरी है कि मौलिक लिखें, मौलिक रचें, न कि फारवर्ड करें. सोशल मीडिया संवाद संजीवनी है, यदि इसका सदुपयोग किया जावे तो बहुत अच्छा है, किन्तु यदि इसका दुरुपयोग हुआ तो यह वह अस्त्र है जो हमारे समाज के स्थापित मूल्यो का विनाश कर सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 47 – प्यार बढ़ता गया ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “प्यार बढ़ता गया। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 47 ☆

☆ लघुकथा –  प्यार बढ़ता गया☆

नौ को आठ का जबान लड़ाना अच्छा नहीं लगा. उस ने गुस्से में सात को थप्पड़ रसीद कर दिया. सात ने छः को, छः ने पांच को. मगर यह सिलसिला एक पर आ कर रुक गया. एक किस को थप्पड़ रसीद करता. यह उस का स्वभाव नहीं था . उस ने प्यार से शून्य को बुलाया और पास बैठा लिया.

यह देख कर नौ घबरा गया. वह समझ गया कि शून्य के साथ लग जाने से एक का मान उस से एक ज्यादा हो गया, “ अब आप मेरे साथ भी वही सलूक करेंगे ?”

“ नहीं , अब मैं इसी तरह सभी का मान बढ़ता रहूँगा,” कहते हुए दस ने सभी अंकों को एक के बाद, एक प्यार से जमाना शुरू कर दिया.

अब नौ पछता रहा था कि यदि उस ने गुस्सा न किया होता तो उस का मान सब से अधिक होता.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 26 ☆ तुम भारत हो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर रचना  “तुम भारत हो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 26 ☆

☆ तुम भारत हो ☆

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

खगकुल का वंदन है देखे

अब भोर हँसे

स्व शांत चित्त ये सागर भी

मन मोर बसे

प्रियवर के  अनगिन हैं मोती

चिर जीव रसे

 

पवन सुखद है तरुणाई

सुंदर वरणम

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

है अतुल सिंधु पावन बेला में

प्रीत बिंदु

अब अपना स्व लगता है

मीत बन्धु

मनवा ने छोड़े द्वंद्व

रच रहा नए छंद

 

प्राची में है लाली छाई

कमलम अरुणम

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

दृग में चिंतन, उर में मंथन

है अब आया

ये धरा बनी कुंदन चन्दन

है मन भाया

है वंदन करती पोर-पोर

खिलती काया

 

है सत चित भी अब

आनन्दम करुणम

तुम भारत ही पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 45 – आजचं कथानक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनका एक समसामयिक संस्मरणात्मक  लघुकथा  “आजचं कथानक”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #45 ☆ 

☆ आजचं कथानक ☆ 

ह्या लाँकडाऊन मुळे काहीच कळत नाहीये…फक्त चालू आहे तो म्हणजे एकांताचा एकांताशी संवाद. तो ही निशब्द . . ! घरातल्या फुलांनीही आता उमलणं सोडलंय. पुन्हा पुन्हा तेच तेच फोन . . तेच तेच आवाज. .  तीच तीच चौकशी. .  काळजी घे . .  जपून रहा . . ऐकून ऐकून  घाबरायला होतय.  या सा-यात ना वेळेचं भान रहातं, ना दिवसाचं. . !

आज कोणती तारीख कोणता वार काहीच कळत नाही. माझे कान  मात्र सारखेच कुणाच्या तरी पावलाची चाहूल लागतेय की काय ह्या कडेच लागलेले असतात  आणि जेव्हा काहीच कळत नाही तेव्हा खिडकीच्या एका कोप-यात वही पेन घेऊन मी बसून राहतो तासन तास. . ! वेळेचं भान हरवून. .माझ्याच विचारात गर्क . . ! तसंही आत्ता  वेळ खूप आहे. …पण. . ह्या जगण्यात तोच तोच पणा इतका वाढलाय की, टेप रेकॉर्डरमध्ये कुणीतरी रोज सकाळी तीच तीच कँसेट पुन्हा पुन्हा लावतंय की काय असा भास होऊ लागलाय….! कसलाच संवाद नसतानाही संवाद जाणवू लागलाय. . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 49 – स्त्री ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक कल्पनाशील कविता “स्त्री “।  निःसंदेह सुश्री प्रभा जी  की कविता स्त्री मानसिकता पर आधारित है  और लिखने की आवश्यकता नहीं कि स्त्री मानसिकता पर स्त्री से बेहतर कौन लिख सकता है ? शेष भविष्य की परिकल्पना सार्थक एवं सजीव है । जैसे सब कुछ नेत्रों के सम्मुख घटित हो रहा है और भूतकाल में भी ऐसा होगा। अद्भुत परिकल्पना। सुश्री प्रभा जी की  परिकल्पना को लिपिबद्ध करती  हुई लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 49 ☆

☆ स्त्री ☆ 

 

किशोरवयात भावलेली

एक स्त्री..

दिसायला सर्व सामान्य,

पण खानदानी व्यक्तिमत्व!

हातात बांगड्या,

डोईवर पदर!

हाताखाली चार मोलकरणी!

सरंजामदारणीचा रूबाब सांभाळणा-या …..

आमच्या पवार काकी!

डोईवरचा पदर ढळू न देता…

आरामखुर्चीवर बसून सतत

वाचत  असायच्या किंवा

करत  असायच्या सूचना—

स्वयंपाकीणबाईला..

अनसूयाबाई ऽऽ हे करा….

घर स्वच्छ, नीटनेटक..

जिथल्यातिथे…

 

जगरहाटी प्रमाणे माझं ही,

झालं  लग्न …

हिरवा चुडा…डोईवर पदर..

रांधा वाढा …

गर्भारपण..

आईपण…….

….

घुसमट…

कविता….

संघर्ष…

 

नारीमुक्ती…

शिक्षणाचा विस्तार..

वाचन…संशोधन…लेखन..

कक्षा रूंदावणं…

कुणी विदुषी म्हणून संबोधणं !

घरातले पसारे पुस्तकांचे…कपड्यांचे…

 

काही गवसलेलं काही निसटलेलं…..

 

परवा विचारलं सहज कुणीतरी…

पुढच्या जन्मी काय व्हायला  आवडेल?

बोलून गेले सहज…

 

“मला सरंजामशाहीत जगायला  आवडेल….पण मुख्य सरंजामदारीण मी असले पाहिजे. ”

 

हे भूतकाळातलं स्वप्न की अधःपतन??

मी पूर्ण  अनभिज्ञ…

 

माझ्याच मानसिकतेशी !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण-1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज से  हम बापू के संस्मरण श्रृंखला  प्रारम्भ करने जा रहे हैं । आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – महात्मा गांधी और सरला देवी”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण – 1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ 

लन्दन में 1901 में जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे 1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और अपना नाम सरला देवी रखा। बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 से अल्मोडा में स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया। सरला देवी भी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को जब उन्हें रिहा किया गया तो वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनस पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी I मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है। लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया।  कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थेI साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली।  हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी।  हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी।  इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था।  बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे।  वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे। पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे। उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा। मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता। तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है। तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है।  इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी।   यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया। हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं, और  हम फिर दुबारा वही गलती नहीं करते।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी।  जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा।  पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆ कविता – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और  मौलिक कविता जैसा बोया  काटा कहते हैं……  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस कविता के माध्यम से  वयोवृद्ध पीढ़ी के प्रति  युवा पीढ़ी को अपनी धारणा  परिवर्तन हेतु प्रेरित करने का प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆

☆ कविता  – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆

 

लड़खड़ाती जिंदगी को थामकर तो देखिए

सूख गया सावन जो सींचकर तो देखिए

 

खीज भी उतारें न कठोरता रखे  नहीं

लाड़ प्यार  इनपर लुटाकर तो देखिए

 

ऊँगली पकड़ इनसे चलना है सीखा

काँधे पै दोनों हाथ धरा कर तो देखिए

 

बचपन, जवानी, बुढ़ापा अभी छा गया

तनिक मीठी  बात बोलकर तो देखिए

 

जैसा बोया  काटा कहते हैं  आप हम

खुशी पायें आप जुगत लगाकर तो  देखिए

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 47☆ महिमा काळाचा☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “महिमा काळाचा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 47 ☆

☆ महिमा काळाचा ☆

 

देह आहे कापराचा

म्हणे मालक जागेचा

जागा जागेवर आहे

धूर होतोय देहाचा

 

डाव हाती तुझ्या नाही

वागणे हे राजेशाही

डाव श्वासाने जिंकला

दिला झटका जोराचा

 

नको ऐश्वर्याचे सांगू

आणि मस्तीमध्ये वागू

येता वादळ क्षणाचे

होई पाला जीवनाचा

 

नाही कडी नाही टाळा

खग उडून जाईल

नाही भरोसा क्षणाचा

 

तुझे आसन ढळले

नाही तुलाही कळले

स्थान अढळ नसते

सारा महिमा काळाचा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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