हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सृजन 

मेरे लिखे पर

इतना निहाल मत होना

कि सृजन ही ठहर जाए,

माना कि

तुम्हारा यूँ मुग्ध होना

मुझे अच्छा लगता है

पर प्राण के बिना भला

कौन जी सकता है..?

 

रात्रि 8.22 बजे, 23.2.20

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘चेहरे’ से ली गई एक रचना।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8 ☆ संस्कार और विरासत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “संस्कार और विरासत”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8

☆ संस्कार और विरासत ☆

 

आज

मैं याद करती हूँ

दादी माँ की कहानियाँ।

राजा रानी की

परियों की

और

पंचतंत्र की।

 

मुझे लगता है

कि

वे धरोहर

मात्र कहानियाँ ही नहीं

अपितु

मुझे दे गईं हैं

हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत

जो ऋण है मुझपर।

 

जो देना है मुझे

अपनी अगली पीढ़ी को।

 

मुझे चमत्कृत करती हैं

हमारी संस्कृति

हमारे तीज-त्यौहार

उपवास

और

हमारी धरोहर।

 

किन्तु,

कभी कभी

क्यों विचलित करते हैं

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?

 

जैसे

अग्नि के वे सात फेरे

वह वरमाला

और

उससे बने सम्बंध

क्यों बदल देते हैं

सम्बंधों की केमिस्ट्री ?

 

क्यों काम करती है

टेलीपेथी

जब हम रहते हैं

मीलों दूर भी ?

 

क्यों हम करते हैं व्रत?

करवा चौथ

काजल तीज

और

वट सावित्री का ?

 

मैं नहीं जानती कि –

आज

‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?

और

‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?

 

यमराज में है

कितनी शक्ति?

और

कहाँ जा रही है संस्कृति?

 

फिर भी

मैं दूंगी

विरासत में

दादी माँ की धरोहर

उनकी अनमोल कहानियाँ।

 

उनके संस्कार,

अपनी पीढ़ी को

अपनी अगली पीढ़ी को

विरासत में।

 

18 जून 2008

© हेमन्त बावनकर

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #38 – जरीचे धागे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “जरीचे धागे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 38☆

☆ जरीचे धागे ☆

 

उभ्या आडव्या धाग्यांमधली सुंदर नक्षी

कधी मोर तर कधी साजरा दिसतो पक्षी

 

अशी पैठणी पदरावरती मोर नाचरा

पदर पिसारा स्थिरावलेला माझ्या वक्षी

 

कधी जरीचे धागे असती बुट्यांवरती

मोल तयांचे भरून आहे माझ्या चक्षी

 

जन्मा येता वस्त्राशी या जडते नाते

धडपड असते वस्त्रासाठी येथे अक्षी

 

वस्त्र हरण हे करणारे तर घरचे होते

श्रीकृष्णाचा धावा करता लज्जा रक्षी

 

या झेंड्याचे प्राणपणाने करतो रक्षण

तुझ्याचसाठी मनात श्रद्धा तू तर बक्षी

 

रक्षण करते देहाचे या वस्त्र जरी हे

त्याच्या खाली मांस शोधती हे नरभक्षी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 27 ☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजीत श्रीवास्तव जी  के  व्यंग्य  संग्रह  “ मुर्गे की आत्मकथा  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  मुर्गे की आत्मकथा 

पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य  संग्रह)

लेखक – श्री अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली

मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

☆ व्यंग्य संग्रह   – मुर्गे की आत्मकथा  – श्री अजीत श्रीवास्तव –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे,  जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .

इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में  र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.

इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं,  उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.

चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 37 – लघुकथा – ममता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय, प्रेरक  एवं मार्मिक लघुकथा  “ममता’”।  विधि की यह  कैसी विडम्बना है कि-  एक माँ  अपनी ममता को कुचलकर अपने बच्चे को कूड़े के ढेर में फेंक देती है  तथा दूसरी ओर एक  माँ  अपने हृदय में अपार ममता लिए एक बच्चे के लिए तरस जाती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा समाज के ऐसे  लोगों को आइना दिखाती है । यह  भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ममता 

बच्चों वाला अस्पताल, हमेशा भीड़ भाड़। छोटे-बड़े बच्चों से भरा वार्ड। किसी की हालत बहुत नाजुक तो कोई रो रो परेशान। कुल मिलाकर सभी माँ पिता जी और उनका परिवार, सभी परेशान। कुछ चिड़चिड़ाते गुस्सा करते नजर आते कि ठीक से संभाल नहीं सकती हो।

पीछे गटर और कचरे का ढेर। शायद अनुमान नहीं लगा सकते कि कितनी गंदगी फैली रहती है। सफाई कर्मचारी साफ सफाई कम निर्देश ज्यादा देते नजर आते हैं।

ऐसे ही एक महिला कर्मचारी आया बाई ‘माया’ जो बहुत ही शांत स्वभाव की। सभी का काम करती और सभी बच्चों को बहुत ध्यान से बहला फुसलाकर दवाई देने व इंजेक्शन लगवाने में मदद करती थी। सभी उसकी काम की तारीफ करते।

माया नाम था उसका। सच में ममता और माया से परिपूर्ण थी। परंतु उसकी अपनी कहानी बहुत दुखद थी। पति हमेशा इसलिए लड़ाई-झगड़ा करता था कि “तुम्हारे बच्चे नहीं हो रहे हैं”। इसलिए वह पति को छोड़ चुकी थी और बच्चे वाले वार्ड में अपने जीवन यापन करने के लिए काम कर अपना मन बहलाती थी और पति से अलग रहने लगी थी।

कुछ समय बाद एक ठंड से ठिठुरती रात में पीछे कचरे के ढेर से हल्की हल्की सी रोने की आवाज आ रही थी। जैसे कोई पिल्ला रो रहा हो। सभी ने सोचा कुत्ते का बच्चा ठंड से रो रहा होगा। परंतु माया रात पाली में ड्यूटी कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह वाचमेन को उठाकर कचरे के ढेर के पास जा पहुंची। टार्च की रोशनी से देख ढूंढने लगी।

उसने देखा कि एक नन्हीं सी जान – एक मासूम बच्ची जिसके शरीर पर कपड़ा भी नहीं था। कचरे के ढेर में पड़ी है और उसी के रोने की आवाज आ रही थी। शरीर पर चोट के निशान थे। माया की ममता फूट पड़ी। तुरंत ही उसने, उसे निकाल कर छाती से लगाया और बदहवास सी डॉक्टर की केबिन की ओर दौड़ पड़ी।

कब उसने दो मंजिल तय कर ली उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पूछताछ शुरू की माया रोने लगी “मेरी बच्ची को बचा लीजिए… मेरी बच्ची को बचा लीजिए.. डॉक्टर साहब मेरी बच्ची को बचा लीजिए“। डॉ ने उसकी स्थिति को देखकर तुरंत इलाज शुरु कर दिया जिससे बच्ची खतरे से बाहर हो गई।

माया तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी। उसने डाक्टर साहब से कई कई बार कहा “डॉक्टर साहब इस बच्ची पर सिर्फ मेरा अधिकार है, आप समझ रहे हो ना, सिर्फ मेरा अधिकार है, आप साक्षी हैं मैंने इसे कचरे के ढेर से पाया है, इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है”।

डॉक्टर साहब भी मां की ममता के आगे विवश थे। उसने पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उस बच्ची का माता का नाम” माया” लिख दिया और पक्की मोहर लगा दी। माया की वर्षों की सेवा सफल हो गई। उसकी गोद में नन्हीं बिटिया मिल गई। अब वह बांझ नहीं कहलाएगी।  अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी ।  बिटिया को सीने से लगाए आज इस दुनिया में सबसे सुखी इंसान थी। कभी वह अपने को और कभी अपनी बिटिया को देखते-देखते  बार-बार आंखों से आंसू गिरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ ईमानदार ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय लघुकथा   “ईमानदारी ”.)

☆ लघुकथा – ईमानदारी 

किराने का सामान लेकर प्रशांत घर पहुंचा । उसकी आदत किराने के बिल को चेक करने की थी। बिल चेक करने पर उसे समझ में  आया कि दुकानदार ने उसे सौ रुपये ज्यादा वापस कर दिए हैं।

दूसरे दिन कार्यालय से लौटते समय दुकानदार को  रुपये वापस लौटाते हुए उसने कहा – “कल किराना के बिल में आपने मुझे सौ रुपये ज्यादा दे दिये थे, ये वापस लीजिये।”

दुकानदार ने सौ रुपये रखते हुए कहा – “अरे, आप तो ज्यादा ही ईमानदार बन रहे हैं। आजकल कौन इतना ध्यान देता है कि सौ रुपये ज्यादा दे दिये या कम।”

उसकी इस ठंडी प्रतिक्रिया से प्रशांत का मन आहत हो गया। उसे लगा था कि दुकानदार उसकी ईमानदारी पर धन्यवाद देते हुए उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहेगा किंतु, उसकी आंखों को देखकर ऐसा लगा जैसे वह कह रहा हो बेवकूफ, ज्यादा ही ईमानदार बनता है।

एक क्षण को उसे महसूस हुआ जैसे उसने सौ रुपये लौटाकर कोई गुनाह किया हो, किंतु उसके अंतर्मन ने कहा – ‘तुमने रुपये लौटाकर  अपना फर्ज अदा किया है। सब बेईमान हो जायेंगे तो क्या तुम भी बेईमान हो जाओगे? हरगिज नहीं।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 36 – पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है आपकी एक सामयिक एवं भावपूर्ण कविता  “पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 36 ☆ 

 ☆ पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे

हाल माझ्या देशाचे हे पाहाल का राजे।

पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे।।धृ।।

न्याय निती शिस्त सारी मोडीत निघाली।

गल्लोगल्ली लांडग्यांची झुंडशाही आली।

मोकाट या श्वापदांना थांबवा ना राजे।।१।।

 

परस्री मातेसम ही प्रथा बंद झाली।

रोज नव्या बालिकांची होळी सुरू झाली।

अभयचे दान आम्हा द्याल ना हो राजे।।२।।

 

मद्य धुंद दाणवांनी आळी माजली हो।

सत्ता पिपासूंनी त्यात पोळी भाजली हो।

घडी पुन्हा राज्याची या बसवा ना राजे।।३।।

 

जिजाऊंच्या गोष्टी आज विसरून गेल्या।

रोज नव्या मालिकात माताजी रंगल्या।

संस्कारांचे बाळकडू  पाजाल का राजे ।।३।।

 

आवर्षण महापूर  संकटांची माला।

सावकारी फासात या बळी अडकला।

फासातून मान त्याची सोडवा ना राजे।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35 ☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक भावपूर्ण कविता “चौगड्डे के सिग्नल से ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35

☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से   

ओलम्पिया के सामने

पोल पर बैठा कौआ

अपने छोटे बच्चे को

दाना चुगने का गुर

बार बार सिखा रहा है

नीचे से करोड़ों की

कारें भी गुजर रहीं हैं

दिन डूबने के पहले

ऊपर से उड़नखटोलों

की भागदौड़ मची है

ओलम्पिया के चौगड्डे में

खूब हबड़ धबड़ मची है

ऊपरी मंजिल से लोग

झांक झांक कर कौए

को दाना न दे पाने का

खूब अफसोस कर रहे हैं

एक नये जमाने की मां

चोंच में दाना डालने के

तरीके भी सीख रही है

जीवन इतना सुंदर है

देखकर खुश हो रही है

 

     * चौगड्डे  ->चौराहे 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #38 – मुखिया मुख सो चाहिये ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मुखिया मुख सो चाहिये”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 38 ☆

☆ मुखिया मुख सो चाहिये

देश की आजादी से पहले स्वतंत्रता के आंदोलन हुये. आजादी पाने के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजियां लगा दी. अनेक युवा हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गये. सत्य की जीत और आजादी पाने के लिये महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, अनशन, उपवास, अहिंसा का एक सर्वथा नया मार्ग प्रशस्त किया. देश स्वतंत्र हुआ, अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. लेकिन प्रश्न है कि वह क्या कारण था कि देश का हर व्यक्ति आजादी चाहता था? उन दिनो तो शहरो में बसने वाले देश के संपन्न वर्ग के लोग आसानी से विदेशो से शिक्षा ग्रहण कर ही लेते थे, राज परिवारो, जमीदारों, अधिकारियों, उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोगो के अंग्रेजो से सानिध्य के लिये हर शहर कस्बे में क्लब थे. सुसंपन्न चाटुकार महत्वपूर्ण लोगो को रायबहादुर वगैरह के खिताब भी दिये जाते थे. गांवो की जनसंख्या तो अंग्रेजो के शासन में शहरी आबादी से कहीं ज्यादा थी और, “है अपना हिंदुस्तान कहाँ? वह बसा हमारे गांवो में”. गांवो से सत्ता का अधिकांश नाता केवल लगान लेने का ही था. संचार के साधन बहुत सीमित थे. लोगो की जीवन शैली में संतोष और समझौते की प्रवृत्ति अधिक बलवान थी, लोग संतुष्ट थे.  फिर क्यों आजादी की लड़ाई हुई ? बिना बुलाये जन सभाओ में क्यो लोग भारी संख्या में एकत्रित होते थे ? अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वह पीढ़ी आजादी क्यो पाना चाहती थी?  इसका उत्तर समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा ही है.

आजादी के रण बांकुंरो की आत्मायें यदि बोल सकती, तो वे यही कहती कि उनने एक समर्थ तथा समृद्ध भारत की परिकल्पना की थी. आजादी का निहितार्थ यही था कि एक ऐसी शासन प्रणाली लागू होगी जिसमें संस्कार होगें. सत्य की पूछ परख होगी. राम राज्य की आध्यात्मिकता जिसके अनुसार “मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक,  पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ” वाले अधिकारी होंगे.देश का संविधान बनते और लागू होते तक यह विचार प्रबल रहा तभी तो “जनता का, जनता के लिये जनता के द्वारा ” शासन हमने स्वीकारा. पर उसके बाद कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई. आजादी के बाद से देश ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया. जहाँ एक सुई तक देश में नहीं बनती थी, और हर वस्तु “मेड इन इंग्लैंड” होती थी. आज हम सारी दुनिया में “मेक इन इण्डिया” का नारा लगा पाने में सक्षम हुये हैं. हमारे वैज्ञानिको ने ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है कि हम चांद और मंगल तक पहुँच चुके हैं. अमेरिका की सिलिकान वैली की सफलता की गाथा बिना भारतीयो के संभव नहीं दिखती. पर दुखद है कि आजादी के बाद हमारे समाज का चारित्रिक अधोपतन हुआ. आम आदमी ने आजादी के उत्तरदायित्वो को समझने में भारी भूल की है. हमने शायद स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता लगा लिया.

सर्वमान्य सत्य है कि हमेशा से आदमी किसी न किसी डर से ही अनुशासन में रहता आया है. भगवान के डर से, अपने आप के डर से या राजा अर्थात शासन के डर से. सच ही है “भय बिन होई न प्रीति “. आजादी के बाद के दशको में वैज्ञानिक प्रगति ने भगवान के कथित डर को तर्क से मिटा दिया.

भौतिक सुख संसाधनो के बढ़ते माया जाल ने लोगो को संतुष्टि से “जितना चादर है उतने पैर फैलाओ” की जगह पहले पैर फैलाओ फिर उस नाप के चादर की व्यवस्था करो का पाठ सीखने के लिये विवश किया है. इस व्यवस्था के लिये साम दाम दण्ड भेद, नैतिक अनैतिक हर तरीके के इस्तेमाल से लोग अब डर नहीं रहे. “‌‌ॠणं कृत्वा घृतं पिवेत् ” वाली अर्थव्यवस्था से समाज प्रेरित हुआ. राजा शासन या कानून  का डर मिट गया है क्योकि भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है, लोग रुपयो से या टेलीफोन की घंटियो के बल पर अपने काम करवा लेने की ताकत पर गुमान करने लगे हैं. जिन नेताओ को हम अपनी सरकार चलाने के लिये चुनते हैं वे हमारे ही वोटो से चुने जाने बाद हम पर ही रौब गांठने के हुनर से शक्ति संपन्न हो जाते हैं, इस कारण चुनावी राजनीति में धन व बाहुबल का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनेता सरकारी ठेकों, देश की प्राकृतिक संपदा के दोहन, सार्वजनिक संपत्तियों को अपनी बपौती मानने लगे हैं. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई क्योकि कलम से जनअधिकारो की रक्षा की अपेक्षा थी  किंतु पूंजीपतियो तथा राजनेताओ ने इसका भी अपने हित में दोहन किया है.अनेक मीडिया हाउस तटस्थ होने की जगह पार्टी विशेष   के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय हैं. आम जनता दिग्भ्रमित है हर बार चुनावो में वह पार्टी बदल बदल कर परिवर्तन की आशा करती है पर नये सिरे से ठगी जाती है.  इस तरह भय हीन समाज निरंकुश होता जा रहा है.

लेकिन सुखद बात यह है कि आज भी जनतांत्रिक मूल्यो में देश में गहरी आस्था है. हमारे देश के चुनाव विश्व के लिये उदाहरण बने हैं. इसी तरह न्यायपालिका के सम्मान की भावना भी हमारे समाज की बहुत बड़ी पूंजी है. समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना व  वर्तमान समाज में सुधार हेतु आशा की किरण कानून और उसके परिपालन के लिये उन्नत टेक्नालाजी का उपयोग ही सबसे कारगर विकल्प दिखता है. अंग्रेजो के समय के लचर राज पक्षीय पुराने कानूनो की विस्तृत विवेचना समय के साथ जरूरी हो चुकी है. नियम उपनियम,पुराने फैसलो के उदाहरण,  कण्डिकायें इतनी अधिक हो गईं है  कि नैसर्गिक न्याय भी कानून की किताबों और वकील साहब की फीस के मकड़जाल में उलझता जा रहा है. एक अदालत कुछ फैसला करती है तो उसी या उस जैसे ही प्रकरण में दूसरी अदालत कुछ और निर्णय सुनाती है. आज समय आ चुका है कि कानून सरल, बोधगम्य और स्पष्ट बनें. आम आदमी भी जिसने कानून की पढ़ाई न की हो नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उनहें समझ सके और उनका अमल करे. समाज में नियमों के परिपालन की भावना को सुढ़ृड़ किया जाना जरूरी हो चुका है.आम नागरिको के  नियमो के पालन को सुनिश्चित करने के लिये  प्राद्योगिकी व संचार तकनीक का सहारा लिया जाना उपयुक्त है. हमारी पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह रेल रिजर्वेशन में कम्प्यूटरीकरण से व्यापक परिवर्तन हुये, सुविधा बढ़ी, भ्रष्टाचार बहुत कम हुआ. वीडियो कैमरो की मदद से आज खेल के मैदान पर भी निर्णय हो रहे हैं, जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानो, कार्यालयों में और तेजी से कम्प्यूटरीकरण किया जावे, संचार तकनीक से आडियो वीडियो निगरानी बढ़ाई जावे. इस तरह न केवल अपराधो पर नियंत्रण बढ़ेगा वरन आजादी के सिपाहियो द्वारा देखी गई समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा मूर्त रूप ले सकेगी. कानून व तकनीकी निगरानी के चलते जनता, अधिकारी या नेता हर कोई मूल्य आधारित संस्कारित व्यवहार करने पर विवश होगा. धीरे धीरे यह लोगो की आदत बन जायेगी. यह आदत समाज के संस्कार बने इसके लिये शिक्षा के द्वारा लोगों के मन में भौतिक की जगह नैतिक मूल्यो की स्थाई प्रतिस्थापना की जानी जरूरी है.  जब यह सब होगा तो आम आदमी आजादी के उत्तरदायित्व समझेगा स्वनियंत्रित बनेगा,अधिकारी कर्मचारी स्वयं को जनता का सेवक समझेंगे और  नेता अनुकरणीय बनेंगे.  देश में अंतिम व्यक्ति तक सुशासन पहुंचेगा. देश में प्राकृतिक या बौद्धिक संसाधनो की कमी नहीं है, जरूरत केवल यह है कि मूल्य आधारित प्रणाली से देश के विकास को सही दिशा दी जावे. भारत समर्थ है, हमारी पीढ़ी को इसे  समृद्ध भारत में बदलने का सुअवसर समय ने दिया है, इस हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना जरूरी है. इस अवधारणा को लागू करने के लिये हमें कानून व प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 38☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘दो कवियों की कथा ’ हास्य का पुट लिए हुए एक बेहतरीन व्यंग्य है । इस व्यंग्य में  तो मानिये किसी अतृप्त कवि की आत्मा ही समा गई हो। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 38 ☆

☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा  ☆

कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।

कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।

धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’

वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘

कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।

वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’

उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘

कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’

‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘

कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’

वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘

कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’

वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’

कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’

वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘

कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘

वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’

‘ठीक है। ‘

कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।

चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘

वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘

कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘

जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’

वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘

कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘

वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘

कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘

वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘

कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘

वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘

कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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