हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #37 – मुसाफिर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुसाफिर ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 37☆

☆ मुसाफिर ☆

 

मैं मुसाफि़र तू मुसाफि़र, रास्ते अनजान  हैं

आदमी हूँ आदमी की, बस यही पहचान है

 

आदमी बनकर रहा जो, जिंदगी में खु़श रहा

सारे मज़हब  के दिवाने, मिट्टी के मेहमान हैं

 

क्यों बखेडा कर रहे हो, घर के अंदर में यहाँ

भारती है माँ हमारी, उस की हम संतान हैं

 

माँ के टुकडे करने वाले, देश के गद्दार तुम

आरती का बन चुके हम, बस तेरे सामान है

 

हिंदू , मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब सिपाही हैं यहाँ

देश पे कुर्बान हो तुम, तुम पे हम कुर्बान हैं …

 

उन शहीदों को पूछो, देश पर जो मिट गये

धर्म से बढकर तिरंगा, इस वतन की शान है

 

आओ मेहनत को बनाएं, एक इज्जत का निशाँ

मुफ्त़ की रोटी पे पलते, कुछ यहाँ नादान हैं

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 36 – लघुकथा – रोका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण लघुकथा  “रोका”।  एक माँ और पिता के लिए बिटिया के विवाह जुड़ने से विदा होते तक ही नहीं, अपितु  जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं जो आजीवन  स्मरणीय होते हैं।  वेअनायास ही हमारे नेत्र नम कर देते हैं।  और यह लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 36 ☆

☆ लघुकथा – रोका 

सुगंधा आज बहुत ही खुश थी। क्योंकि उसकी बिटिया को देखने लड़के वाले आने वाले थे। सब कुछ इतना जल्दी हो रहा था। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।

घर में त्यौहार का माहौल बना हुआ था। मीनू, सुगंधा की बिटिया बहुत सुंदर भोली प्यारी सी बिटिया। सभी की निगाहें सामने सड़क से आती जाती गाड़ियों पर थी। समय पर गाड़ी से उतर परिवार के सभी सदस्य घर आए। बातों ही बातों में सभी का मन उत्साह से भर उठा। और मीनू को देखने के बाद लड़के और उसके परिवार वाले बहुत खुश हो गए और  मीनू उनको पसंद आ गई।

तुरंत ही बातचीत कर रोका करने को कहने लगे क्योंकि सुगंधा भी इतनी जल्दी सब हो जाएगा। इसका आभास नहीं लगा सकी थी। आंखें और गला दोनों भर आया। स्वादिष्ट भोजन खा लेने के बाद पंडित जी को बुलाकर साधारण तरीके से रोका का कार्यक्रम करने को कहा गया।

दोनों घर परिवार आमने सामने बैठ कर पंडित जी के कहे अनुसार साधारण सामग्री से मंत्रोच्चार कर लड़के की मां को बिटिया की ओली में सगुन डालने को कहा… जैसे ही लडके की  माँ कुछ रुपया और मिठाई का डिब्बा ओली डाल रही थी बिटिया को। बिटिया की मां सुगंधा प्यार और स्नेह के कारण रो पड़ी, आंखों से आंसू गिरने लगे। यह देख लड़के की मां भी रो पड़ी। देखते ही देखते ऐसा लगने लगा मानो बिटिया की विदाई अभी होने वाली है।

इस समय की नजाकत को देखते हुए लड़के के पिताजी जो काफी समझदार और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी। उन्होंने तुरंत बात संभाली और जोरदार हंसी ठहाके लगाते हुए ताली बजाकर कहने लगे क्यों श्रीमती जी अपना रोका याद कर रही हो याने सास भी कभी बहू थी। पत्नी भी हंसते हुए शरमाने लगी।

सुगंधा भी अपने समधी के व्यवहार कुशलता पर हंस पड़ी और गर्व करने लगी। सब कुछ हंसी खुशी संपन्न हुआ।

शादी का मुहूर्त निकाल कर पंडित जी बहुत खुश हुए। मीनू को बहू के रूप में पाकर लड़के वाले गदगद थे। और हंसी खुशी विदा होकर जाने लगे मानों कह रहे हो रोका हमने कर लिया। अब जल्दी ही विदाई करा कर ले जाएंगे। मीनू भी बहुत खुश थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 26 ☆ लेख संग्रह – विचार प्रवाह – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदीजी के  लेख संग्रह  “ विचार  प्रवाह ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 26☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – लेख संग्रह  –  विचार प्रवाह 

पुस्तक – विचार प्रवाह (लेख संग्रह)

लेखक – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी

प्रकाशक – मो 9414101295

प्रथम संस्करण २०१९

☆ लेख संग्रह   – विचार प्रवाह – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

समाचार पत्रों में अनेक लेख छपते हैं। जिनका क्षणिक महत्व होता है। किंतु, कुछ लेख ऐसे भी होते हैं जो स्थाई महत्व के होते हैं। डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी, शिशु रोग विशेषज्ञ है। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न संतो से साक्षात्कार, यात्रा वृत्तांत, स्वास्थ्य एवं अन्य विविध विषयों पर बहुत से लेख लिखें जो यत्र तत्र भिन्न भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। इस पुस्तक में उन्होंने ऐसे ही लेख विचार प्रवाह शीर्षक से प्रकाशित किये हैं । किताब पठनीय विचारणीय मनन करने योग्य है। पुस्तक में संग्रहित लेख स्वयं डॉ त्रिवेदी की उत्कृष्ट विचारधारा, उनके सन्तो से समागम, उनकी यात्राओं, उनकी दृष्टि की जानकारी देती है । इस पुस्तक हेतु वे बधाई के सुपात्र हैं । वे सादा जीवन उच्च विचार के पोषक डॉक्टर हैं ।

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 34 ☆ कविता – बसंती बयार ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक सामयिक कविता “बसंती बयार”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 34

☆ कविता – बसंती बयार  

 

झीलें चुप थीं और

पगडंडियाँ खामोश,

गुनगुनी धूप भी

चैन से पसरी थी,

 

अचानक धूप को

धक्का मार कर

घुस आयी थी,

अल्हड़ बसंती बयार

मौन शयनकक्ष में,

 

अलसाई सी रजाई

बेमन सी सिमटकर

दुबक गई थी मन में,

 

अधखुले किवाड़ की

लटकी निष्पक्ष सांकल

उछलकर गिर गई

थी उदास देहरी पर,

 

हालांकि मौसम

डाकिया बनकर

खत दे गया था बसंत का,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 35 – आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…? ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  आपका एक सामयिक एवं विचारोत्तेजक आलेख  “आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 35 ☆ 

 ☆ आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…?

आज प्रेम बदलत चाललयं का ? असा विचार करण्या पेक्षा आपण ज्याला प्रेम समजतो ते प्रेम आहे हे समजून घेण्याची आज खरी गरज आहे. आयुष्यातील अनेक वळणावर आपल्याला अनेक व्यक्ती आवडून जातात, मग ते एखाद्या मित्र असेल, मैत्रीण असेल,एखादा सहकारी असेल, शिक्षक असतील, शिक्षिका असतील किंवा आणखी  कुणी असेल, जीवानात येणाऱ्या प्रत्येकाचा वेगळा रंग,वेगळा ढंग,  वेगळी जीवन शैली, वेगवेगळे स्वभाव, गुण आपल्या मनात नकळत घर करून जाते याचा अर्थ माझं समोरच्या व्यक्तीवर प्रेम आहे असं समजणे आणि त्याला खतपाणी घालणे कितपत बरोबर आहे  आणि असं असेल तर आयुष्यात किती वेळा आणि किती जणांशी आपण प्रेम करणार आहोत परंतु दुर्दैवाची गोष्ट अशी की कुठेतरी याच आकर्षणाला आज प्रेम समजून त्याला खतपाणी घातलं जातं….! ज्याच्या एखाद्या पैलुवर भाळून आपण प्रेम करायला लागलो त्याचे इतर गुण/  बाबी नाही आवडल्या की ब्रेकअप असा प्रकार सर्रास पाहायला मिळतो परंतु ज्याच्यावर आपण प्रेम करतो त्याला त्याच्या गुणदोषासह स्विकारणं म्हणजे प्रेम असतं हा संस्कारच आज समूळ नष्ट होताना दिसत  आहे. एक प्रियकर किंवा प्रेयसी शंभर टक्के परफेक्ट असणे हे फक्त नाटक /सिनेमातच   शक्य आहे आपल्याला कधी कळणार आहे कोण जाणे …….!

जगात फक्त प्रियकर आणि प्रेयसी, नवरा/ बायको एवढीचं नाती आहेत का…..? विश्व बंधुत्वाची परंपरा जपणाऱ्या देशात निख्खळ मैत्री, मानस भाऊ बहीण, आई वडील,काका मामा, आजी आजोबा ही सगळी लयाला गेली आहेत का…?

थोडंस आपलं लहानपणीचे दिवस आठवा वडिलांचे सगळे मित्र काका त्यांची मुले ताई-दादा, आत्त्याच्या मैत्रीणी आत्त्या आईच्या माहेरी सगळे मावशी मामा आजी आजोबा असायचे. ही सगळी नाती तितक्याच आत्मियतेने सांभाळली जायची यात  जिव्हाळा, प्रेम,आपुलकी, सुरक्षितता ओतप्रोत भरलेली असायची परंतु आजच्या चौकोनी कुटुंबात पाचवा माणूस परका समजला जातो…! हीच दुर्दैवाची गोष्ट आहे आणि मग ज्याच्या बद्दल आपल्या मनात अशी जिव्हाळ्याची सुरक्षिततेची भावना निर्माण होते तो प्रियकर किंवा प्रेयसी असा अर्थ लावून  मोकळे होतो आणि पुढचे मनोरे बांधायला सुरुवात करतो आणि नकळत ते ढासाळले की ….. ! अनेक विकृतींचा यातूनच जन्म होतो….।

खरी गरज आहे या चौकोनातून बाहेर पडून ताईची मैत्रीणी ताई अन् दादाचा मित्र दादा असू शकतो हे वास्तविक संस्कार  मनावर बिंबवण्याची…अन्यथा कुठलाही कायदा ही परिस्थितीत बदलण्यासाठी असमर्थ ठरतील यात वादच नाही.

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #37 – कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 37 ☆

☆ कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी

 

हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, पर प्रश्न है कि क्या सचमुच ही हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा बन पाई है ? इस यक्ष प्रश्न को अनुत्तरित छोड देने में विगत पीढी के उन राजनेताओं की बहुत बडी गलती है, जिसके अनुसार हमारी संसद ने यह विधेयक पारित कर दिया कि जब तक देश का एक भी राज्य हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करने में अपनी तैयारी या अन्य कारणो से असमर्थता व्यक्त करें, तब तक हिंदी को अनिवार्य नहीं किया जावेगा। यही कारण है कि क्षेत्रवाद, भाषाई राजनीति, पक्ष, विपक्ष के चलते कानूनी रूप से हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा के रूप में आजादी के बहत्तर  वर्षों बाद भी स्थापित नहीं हो पाई।

लोकतंत्र में कानून से उपर जन भावनायें होती है, विगत कुछ दशकों में बाजारवाद विश्व पर हावी हुआ है। आज का युवावर्ग इसी बाजारवाद से प्रभावित है, जहां आजादी के दिनों में उत्सर्ग, देश के लिये समर्पण और त्याग की भावनायें युवाओं को आकृष्ट कर रही थी, वहीं वर्तमान समय में स्वंय की आर्थिक उन्नति, बढती आबादी के दबाव के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा में येन केन प्रकारेण आगे निकलने की होड में युवा सतत व्यस्त है। आज कार्पोरेट जगत में युवा शक्ति का साम्राज्य है।  विभिन्न कंपनियो के शीर्ष पदो पर अधिकांशतः युवा ही पदारूढ़ हैं।  बाजार वैश्विक हो चला है।  अंग्रेजी वैश्विक संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, अतः आज युवावर्ग ने मातृभाषा हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हुये अपनी अभिव्यक्ति व संपर्क का माध्यम बनाया है, त्रिभाषा फार्मूले के शीर्ष पर अंग्रेजी स्थापित होती दिख रही है। आंकडो में देखे तो हिन्दी का विस्तार हो रहा है, नई पत्र पत्रिकायें, किताबें, हिन्दी बोलने वालो की संख्या, विश्वविद्यालयों में हिन्दी पाठ्यक्रम, सब कुछ बढ रहा है। पर वास्तविकता से परिचित होने की जरूरत है, जर्मन रेडियो डायचेवेली ने हिन्दी प्रसारण बंद कर दिया है। बीबीसी अपने हिन्दी प्रसारण अप्रैल 2011 से बंद करने का निर्णय लिया था। हिंदी पुस्तको के प्रथम संस्करणों में 200 से 250 प्रतियां ही छप रही है। हिंदी लेखकों को कोई उल्लेखनीय रायल्टी नहीं मिल रही है। हिदीं ‘हिन्गलिश‘ बन रही है। मोबाईल पर एस.एम.एस हो या नेटवर्किग साइट पर युवा वर्ग की चैटिंग, रेडियो जाकी की एफ.एम. रेडियो पर उद्घोषणायें  हो या टीवी के युवाओ में लोकप्रिय कार्यक्रम, शुद्ध हिंदी मिलना दुष्कर है। गांव गांव तक हमारी फिल्मो व फिल्मी गीतो का युवा वर्ग पर विशेष प्रभाव है।  अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शीर्षक की फिल्में , उनके डायलाग तथा हिन्दी व्याकरण को ठेंगा बताती शब्दावली के फिल्मी गीत अपनी तेज संगीत वाली धुनो के कारण युवाओ में लोकप्रिय हैं. आशा की किरण यही है कि यह सब जो कुछ भी है देवनागरी में है, सकारात्मक ढ़ंग से देखें तो इस तरह भी हिन्दी देश को जोड़ रही है, तथा विश्व में हिन्दी को स्थान भी दिला रही हैं।  कार्पोरेट जगत के एम बी ए पढ़े लिखे युवा भले ही अंग्रेजी में गिटर पिटर करें या कार्पोरेट जगत का आंतरिक पत्र व्यवहार, प्रगति प्रतिवेदन आदि भले ही अंग्रेजी में हो पर जब वे अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग करते हैं तो उन्हें विज्ञापनो में हिन्दी का ही सहारा लेना पड़ता है, यह और बात है कि यह हिन्दी भी विशुद्ध न होकर जन बोली ही होती है।

हिंदी कविताओं की पुस्तके छपती है, पर वे विजिटिंग कार्ड की तरह बांटी जाने को विवश है, एवं लेखकीय आत्ममुग्धता से अधिक नहीं है। युगांतकारी रचना धार्मिता का युवा हिन्दी लेखको, कवियो में अभाव दिख रहा है। देश की आजादी के समय मिशन स्कूल, पब्लिक स्कूल एवं कावेंट स्कूलो के पास जो संस्थागत ताकत शिक्षण के क्षेत्र में थी, उसका हिंदी के विपरीत समाज पर स्पष्ट दुष्प्रभाव अब परिलक्षित हो रहा है । शिक्षा, रोजगार का साधन बनी, व्यक्ति की संस्कारों या सच्चे ज्ञान की वाहक अपेक्षाकृत कम रह गयी। रोजगार तथा बच्चो के सुखद आर्थिक भविष्य के दृष्टिकोण से स्वंय हिन्दी के समर्थक पालको ने भी अपने बच्चो को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने में ही भलाई समझी इसके परिणाम स्वरूप आज की अंग्रेजी माध्यम से पढी पीढी सत्रह, इकतीस या उननचास नहीं समझ पाती, उसे सेवेनटीन, थर्टीवन और फोर्टीनाइन बतलाना पडता है, यह पीढ़ी अंग्रेजी में सोचकर भले ही हिंदी में लिख ले पर वह हिन्दी के संस्कारो से जुड़ नही पाई है।

किंतु सब कुछ निराशाजनक ही नहीं है, एटीएम मशीन हो, या कम्पयूटर के साफ्टवेयर अंग्रेजी के साथ हिंदी के विकल्प भी अब सुलभ है, हिंदी शिक्षण हेतु नेट पर कक्षायें भी चल रही है, हिंदी ब्लाग प्रजातंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में स्थापित हो चला है, नित नये हिन्दी ब्लाग्स विविध विषयो पर देखने को मिल रहे हैं। यह सब हमारा युवा वर्ग ही कर रहा है, हिंदी में शोध करने वाले आज भी गंभीर कार्य कर रहे है, इसके दीर्घकालिक प्रभाव देखने को जरूर मिलेगें। आने वाले समय में आज का युवा ही हिंदी को किसी कानून के कारण नहीं, या उपर से थोपे स्वरूप में नहीं वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बीच, अंतरमन से हिंदी की सरलता, सहजता के कारण तथा हिन्दी के भातर की जनभाषा होने के कारण  व्यापक स्वरूप में अपनायेगा, हमारी पीढी इसी आशा और विश्वास के साथ हिंदी को बढ़ता देखना चाहती है।

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 37☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘उधार देने का सुख ’  एक बेहतरीन व्यंग्य है और शायद ही कोई हो जिसका इस व्यंग्य के पात्रों से सामना न हुआ हो।आप भी आत्मसात कीजिये । ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 37 ☆

☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆

उनसे मेरा परिचय सिर्फ सलाम-दुआ तक ही था क्योंकि मुझे मुहल्ले में आये थोड़े ही दिन हुए थे। बुज़ुर्ग आदमी थे। उस दिन वे सबेरे सबेरे अचानक ही मेरे घर में आ गये। बैठने के बाद उन्होंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ायी। बोले, ‘वाह, बहुत सुन्दर। आपकी रुचि बहुत अच्छी है।’

मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, ‘जी,यह सब मेरी पत्नी का योगदान है। मेरा योगदान तो इसे यथासंभव बिगाड़ने में रहता है।’

वे हँसे और देर तक हँसते रहे। फिर बोले, ‘आपकी आयु अब कितनी हुई?’ मैंने मुँह बनाकर कहा, ‘आप तो दुखती रग छू रहे हैं। पचास पार हो गया।’ उन्होंने भारी आश्चर्य प्रकट किया, बोले, ‘आप तो बहुत तरुण दिखते हैं। आपको देखकर भला कौन कहेगा कि आप तीस से ज़्यादा हैं?’

यह भी अच्छा लगा। यह ऐसी तारीफ है जिसे सुनकर बूढ़ा सन्यासी भी पुलकित हो जाता है। मैं ठहरा सामान्य सद्गृहस्थ।

वे फिर बोले, ‘आपका बेटा बड़ा मेधावी है। बड़ा होशियार है। ‘मैंने सचमुच मुँह बनाकर कहा,’ नीट में तीसरी बार बैठ रहा है। ‘ वे थोड़ा अप्रतिभ हुए, लेकिन हारे नहीं। बोले, ‘लेकिन उसमें प्रतिभा ज़रूर है और एक दिन वह ज़रूर प्रकाशित होगी। ‘ मैंने कहा, ‘आपके मुँह में घी-शक्कर।’

और थोड़ी देर बैठकर, कुछ नैवेद्य ग्रहण करके उन्होंने विदा ली। दहलीज पार करके दो चार कदम चले होंगे कि ऐसे लौट पड़े जैसे एकाएक कुछ याद आ गया हो। बोले, ‘आपके पास पाँच सौ रुपये पड़े होंगे क्या? एक आदमी को देना है। कल बैंक से निकालना भूल गया। आज बैंक खुलते ही आपको लौटा दूँगा।’

मैंने ‘कैसी बातें करते हैं’ वाले पारंपरिक वाक्य के साथ उन्हें राशि अर्पित कर दी।

उसके बाद बैंक रोज़ खुलते और बन्द होते रहे, लेकिन वे पैसे देने नहीं आये। करीब एक हफ्ते बाद वे फिर आ गये। बैठकर आधे घंटे तक मुहल्ले-पड़ोस और शहर की बातें करते रहे। फिर उठे और उसी अदा से दहलीज से लौट आये। बोले, ‘वह आपका पैसा कुछ झंझटों के कारण नहीं दे पाया। दो तीन दिन में ज़रूर दे दूँगा। आप निश्चिंत रहिएगा।’ मैंने बुदबुदाकर ‘कोई बात नहीं’ कहा।

तीन चार महीने बाद एक दिन पीएच.डी. उपाधि मिलने के कारण मेरा अभिनन्दन हुआ। उस दिन जीवन में पहली बार अभिनन्दन का सुख जाना। उस दिन पता चला कि लोग अभिनन्दन के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं कि अभिनन्दन का खर्च ओढ़ने को भी तैयार रहते हैं।

अभिनन्दन ग्रहण करके कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता के मूड में स्कूटर पर लौट रहा था कि रास्ते में उन्होंने आवाज़ दी। कहने लगे, ‘कहाँ से आ रहे हैं?’ मैंने उन्हें अभिनन्दन के बारे में बताया तो उन्होंने मुक्तकंठ से बधाई दी। मैंने चलने के लिए स्कूटर स्टार्ट की तभी वे बोले, ‘वह जो आपका पैसा है, उसकी आप फिक्र मत कीजिएगा। जल्दी ही दे दूँगा।’

मैं चला तो आया लेकिन मेरे मूड का नाश हो गया। घर आकर मैंने निश्चय किया कि पाँच सौ रुपये से भले ही ग़म खाना पड़े, लेकिन इस बला को ख़त्म करना ही होगा।

दूसरे दिन शाम को मैं उनके घर गया। वे बड़े प्रेमभाव से मिले। कुछ बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘मैं एक बात कहने आया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा पैसा देने में आप कुछ दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इंसानियत के नाते मैं चाहता हूँ कि आप उस कर्ज को भूल जाएं। एक दूसरे की इतनी मदद तो करनी ही चाहिए।’

वे मेरी बात सुनकर रुआंसे हो गये। बोले, ‘आप कैसी बातें करते हैं? मैंने आज तक किसी का कर्ज नहीं रखा। आपका पैसा नहीं चुकाऊँगा तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी। हमारे घर में देर होती है, अंधेर नहीं होता। आप ऐसा करने के लिए मुझे विवश न करें।’ उन्होंने मेरी तरफ देखकर हाथ जोड़ दिये। मैं उनके पाखंड को देखकर कुढ़कर चला आया।

महीने भर बाद वे फिर घर आ गये। बड़ी देर तक मौसम और राजनैतिक स्थिति की चर्चा करते रहे। फिर उठे, दहलीज तक गये और कुछ याद करके लौट पड़े। तभी मैं पर्दा उठाकर तीर की तरह भीतर भागा और बाथरूम में घुसकर मैंने भीतर से सिटकनी चढ़ा ली।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #35 ☆ ढाई आखर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 35 ☆

☆ ढाई आखर ☆

(14 फरवरी के संदर्भ में)

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनाभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 22 – जियो और जीने दो ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘जियो और जीने दो ‘।आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22  – विशाखा की नज़र से

☆ जियो और जीने दो  ☆

 

बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मैं

बिखरें बालों को समेट कर

तुम्हारे चौड़े ललाट पर

उँगलियों की पोरों से

तुम्हारी बैचैनी, तुम्हारी अकुलाहट

और बहुत कुछ ….

 

तुम्हारे हल्के नकार में रिसती

पसीने की बूंदों को

मैं अपने फाउन्टेन पेन में भर

महाकाव्य रच देना चाहता हूँ

इस स्याह रात में ….

 

स्याह रात !

जो बदनामी के डर से

और काली हो चली है

चंद्रकोर भी ढ़क चली है

कि, कोई गवाह ना रहे हमारे प्यार का

एक  सितारा भी नज़र ना आ सके

हमारे इकरार का ..

 

पर मैं ये ना समझूँ

कि क्यों प्यार छुपाया जाए

प्यार में ख़ून बहाया जाए

दीवारों पर चुनवाया जाए

सूली पर लटकाया जाए

 

कुछ तो सुन लो कानों को बंद किये आदमी

जमाने भर के पैबंद लिए आदमी

प्यार से उपजे आदमी

आदम हौवा की संतानें आदमी

कि,

इश्क अगर बीमारी है तो होने दो

रिसते है जख्म तो रिसने दो

इसे महामारी में बदलने दो

 

यूँ तो नफरतों से बाजार भरा पड़ा है

प्यार एक कोने में दुबका खड़ा है

कहीं तो प्यार परवान चढ़ने दो

जियो और जीने दो ……….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 11 – धत् पगली ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली पर किस प्रकार दुखों का पहाड़ टूट पडा़ था। परन्तु वह विधि के विधान को समझ नही पा रही थी कि उसके भाग्य  में अभी और कौन  सा दिन देखना बाकी है। पहले पति मरा फिर आतंकी घटना नें उससे जीने का आखिरी सहारा भी छीन लिया पगली का हृदय आहत हो बिलबिला उठा था।  बिछोह की पीड़ा ने उसे चीत्कार  करने पर विवश कर दिया।अब आगे पढ़े——)

पगली के बेटे गौतम की अर्थी निकले महीनों  गुजर चुके थे।  गांव के सारे लोग उस गुजरे हादसे को अपने स्मृतियों से भुलाने में लगे थे, लेकिन फिर भी पगली का सामना होते ही लोगों की स्मृति में  गौतम का क्षत-विक्षत शव का दृश्य तैर जाता और लोग उस घटना को याद कर सिहर उठते।  लोगों के मन में दया करूणा एवम्ं सहानुभूति का ज्वार पगली के प्रति उमड़ पड़ता।

लोग पगली के प्रति नियति की कठोरता पर  विधाता को कोसते।  उसे देख कर जमाने के लोगों के दिल में हूक सी उठती तथा आह निकल जाती।  पति तथा पुत्र के असामयिक निधन ने उसके चट्टान से हौसले को तोड़ कर रख दिया।  उसका सारा हौसला रेत के घरोंदे जैसा भरभरा कर गिर गया।

पगली का व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की मानिन्द बिखर गया। पगली भीतर  ही भीतर टूट चुकी थी।  उसके जीवन से जैसे खुशियों के पल रूठ कर बहुत दूर चले गए हो। पति का बिछड़ना तो पगली ने बर्दाश्त कर लिया था।  उसनें गौतम के साथ जीने और मरने के सपने सजाये थे, लेकिन गौतम की असामयिक मृत्यु ने उन सपनों को  चूर चूर कर दिया, वह विक्षिप्त हो गई थी।

उस पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे थे। उसे देख ऐसा लगता जैसे जीवन से उसका ताल मेल खत्म हो गया हो।  सूनी सूनी आंखें, बिखरे बिखरे बाल, तन पर फटे चीथड़ों के शक्ल में झूलती साड़ी, तथा अस्त व्यस्त जीवन शैली।  उसके दुखी जीवन के पीड़ा की कहानी बयां करती, जिन्दगी से उसकी सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी।

वह लक्ष्य विहीन जीवन जीती आशा और निराशा में भटकती कटी हुई पतंग की तरह फड़फड़ा रही थी।

वह प्राय:मौन हो यहाँ वहाँ घूमती, यदि गाँव की महिलायें दया भाव से कुछ दे देती तो वह उसे वही बैठ चुपचाप खा लेती।  कभी कभी वह अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाती, उसकी बातों का मतलब लोगों के लिए अबूझ पहेली थी।  मानों वह विधाता से अपने भाग्य की शिकायत कर रही हो।

फिर चाहे गर्मी की तपती दोपहरी हो अथवा रातों की नीरवता जाड़े की रात हो अथवा बारिशों का दौर वह दुआ मांगने वाले अंदाज में दोनों हाथ ऊपर उठाये एक टक् खुले आकाश की तरफ निहारा करती।

उसके साथ घटी घटनाओं ने उसका हृदय तार तार कर के रख दिया, जिससे उपजे दुख और पीड़ा ने उसे अक्सर बेख्याली में चीखने चिल्लाने पर मजबूर कर दिया।  जरा सा छेड़छाड़ हुई नही कि वह साक्षात् रणचंडी बन जाती। गांवों के बच्चे कभी उसे पगली पगली कह चिढ़ाते कभी पत्थर मारते, तो वह भी गुस्से में उन्हें गालियां देते मारने के लिए दौड़ा लेती। शरारती बच्चे भाग लेते, लेकिन उसी समय घटी एक साधारण सी घटना नें पगली के हृदय पर ऐसी असाधारण चोट पहचाई कि उसका हृदय विदीर्ण हो गया, वह कराह उठी।

उसने उस दिन पत्थर फेकते बच्चों की टोली को दौड़ाया तो उसी आपाधापी में एक बच्चा डर के मारे चीख कर बीच सड़क पर गिर गया। चोट उसके सिर पर लगी थी।

शायद पगली के दिल पर भी, बच्चे के सिर से रक्तधारा बह चली थी, अपना खून देख बच्चा बेसुध हो रोने लगा था। उसके चोट से बहती रक्तधारा देख पगली के हृदय में करूणा उमड़ आई। उसकी सोई ममता जाग उठी।  आखिर ऐसा क्यों न हो उसका दिल  भी तो एक माँ का दिल था।  उसकी ममता अभी जिन्दा थी।  उसने अपनी चीथड़ों की शक्ल में झूलती साडी़ का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे की चोट पर बांध दिया और बच्चे को गोद मे चिपका कर रो पड़ी।

वह रोये जा रही थी, तथा बच्चे के गाल से बहता रक्त भी पोंछ रही थी।  मानों अंजाने में हुए अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हो।  तभी बच्चे का चोला चैतन्य हुआ और बच्चा [धत् पगली] कह गोद से उठकर अपना
हाथ छुड़ाते उठ भागा था।

उस समय पगली को ऐसालगा जैसे हाथ छुडा़ उसका अपना गौतम ही भागा हो। उसका भावुक हृदय चित्कार कर उठा।  वह भी उस बच्चे के पीछे (अरे मोरे ललवा, कहाँ छोड़कर पहले रे) चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी थी।

तब से ही पगली बेचैन रहती है उसका दिन का चैन और रातों की नींद खो गई है, वह रात दिन रोती रहती है।  जब रात की नीरवता के बीच कुत्तों के झुण्ड से रोनें तथा सितारों की टोली से हुआँ हुआँ के बीच अरे मोरे ललवा कंहाँ छोडि़ के पहले रे की आवाज वातावरण में तैरती है, तो उसका करूण क्रंदन सुन लोगों की रूह कांप जाती है।  लोग उसकी पीड़ा देख विधाता को कोसते हैं।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 12 – गोविन्द—

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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