हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 31 – जीवनदान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  भावप्रवण शिक्षाप्रद लघुकथा  “ जीवनदान ”।  यदि कोई भी स्त्री साहसपूर्ण सकारात्मक निर्णय ले तो निश्चित ही समाज की  कुरीतियों पर कुठाराघात कर किसी को भी जीवनदान  दिया जा सकता है।  फिर जीवनदान मात्र जीवन का ही नहीं होता, पश्चात्ताप के पश्चात  प्राप्त जीवन भी किसी जीवनदान से काम नहीं है। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 31 ☆

☆ लघुकथा – जीवनदान ☆

 

गांव में ठकुराइन कहने से एक अलग ही छवि उभरती थी। कद- काठी से मजबूत अच्छे अच्छों को बातों से हरा देना और जरुरत पड़ने पर  खरी-खोटी बेवजह सुनाना उनका काम था। पूरे गांव में ठकुराइन का ही शासन चलता था। उनके तेज तर्रार रूप स्वभाव के कारण उसका पति जो गांव का सरपंच था, अपनी सब बातों में चुप ही रहता था। जो ठकुराइन कह दे वही सही होता था। किसी में हिम्मत नहीं थी उनकी बात काटने या किसी बात की अवहेलना करने की।

उसका बेटा मां के अनुरूप ही निकला था। घर की बहू और अन्य महिलाओं को सिर्फ घर के काम काज, चूल्हा चौकी तक ही सीमित देखना चाहता था। गरीब घर से बहू ब्याह कर लाने के बाद, बहु पूरा दिन घर में काम करती थी। और बाकी के समय सासू मां की सेवा।

सख्त हिदायत दी गई थी कि घर में पोता ही होना चाहिए। बहु बेचारी सोच-सोच कर परेशान थी। समय आने पर घर में खुशी का माहौल बना, परंतु पोती होने पर उस नन्हीं सी जान को बाहर फेक आने तक की सलाह देने लगी ठकुराइन। बहू ने कहा… “आप जो चाहे सजा मुझे दे, पर बिटिया को मारकर आप स्वयं पाप के भागीदार ना बने।” सासू माँ ने कहा…. “ठीक है इस लड़की का मुंह मुझे कभी ना दिखाना। चाहे तू इसे किसी तरह पाल-पोस कर बड़ा कर, मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु मेरे सामने तेरी लड़की नहीं आएगी।”

माँ ने सभी शर्तें मान ली। बिटिया धीरे-धीरे बड़ी हुई। घर में दूसरा बच्चा पोता भी आ गया। परंतु सासू मां के सामने नन्हीं बच्ची को कभी नहीं लाया जाता था। बड़ी होती गई बिटिया स्कूल में पढ़ने लिखने में बहुत होशियार थी। पढ़ाई करते-करते कब बड़ी हो गई, माँ को पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे सभी प्रकार की परीक्षा पास करते गई और एक दिन IAS परीक्षा पास कर कलेक्टर बन गई।

आज गांव के स्कूल का मैदान खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम था गांव की एक बिटिया का पढ़ लिख कर कलेक्टर बन कर गांव में आना। बिटिया को जिस स्कूल में वह पढ़ी थी उसी स्कूल में सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था। ठकुराइन को महिला मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। पूरा गाँव जय जयकार कर रहा था। दादी नीचे सिर किए बैठी-बैठी सभी का भाषण सुन रही थी। सम्मानित करने के लिए, बिटिया को मंच पर खड़ा किया गया और आवाज़ लगाई गई।

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल परिसर गूंज उठा। दादी रुंघे गले से और आंखों में पश्चाताप के आंसू लिए अपनी पोती को देख रही थी। लगातार आँसू बह रहे थे। बिटिया ने कहा…. “आज यह सम्मान मैं अपनी दादी के हाथों लेना चाहूंगी। क्योंकि मुझे जीवन दान देकर, दादी ने मुझ पर उपकार किया था। आज इस सफलता पर मेरी दादी ही मेरे लिए सबसे महान है।”

दादी ने नीचे सिर किए ही बिटिया को गले में माला पहनाई और धीरे से कान में पोती को कहा…. “अब मैं समझ गई बिटिया भी बेटों से कम नहीं होती। अगले जन्म में मैं तुम्हारी बिटिया बनकर आना चाहूंगी। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है “और कसकर अपने बिटिया रानी को गले से लगा लिया। माँ भी बहुत खुश थी। आज एक महिला ने सारी कुरीतियों को त्याग कर एक लड़की का सम्मान किया और सारा गिला शिकवा भूलकर गर्व से मुस्कुरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “पिंजरा”  as  ☆ Caged Willpower ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – पिंजरा ☆

 

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 – व्यंग्य – रजाई में राजनीति ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला व्यंग्य  “रजाई में राजनीति”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 ☆

☆ व्यंग्य – रजाई में राजनीति  

 

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में ये रजाई….. वाह रजाई…. हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है। रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा, अभी रजाई में घुसकर हनुमान जी जाति पर नेताओं के बयान देख रहे हैं। एक चैनल ने हनुमान जी को चीनी कह दिया एक ने जाट बना दिया किसी ने मुसलमान बना लिया, तरह-तरह के नेता और तरह-तरह की बातें।

अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत तो की थी पर गुजरात के चुनाव और पांच राज्यों के चुनाव ने सबको डरा दिया है। जीएसटी और नोटबंदी ने कबाड़ा कर दिया।

जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले दो साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी, फिर राजनैतिक पार्टियां इसी बात को मुद्दा बनाकर कांव कांव करेंगी, टीवी चैनल वाले दिनों रात तंग करेंगे…… खैर जो भी होगा देखा जाएगा। अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #31 – नदियो में धार्मिक स्नान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नदियो में धार्मिक स्नान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 31 ☆

☆ नदियो में धार्मिक स्नान

 

स्नान का महत्व निर्विवाद हैशुद्धता और पवित्रता के लिये प्रतिदिन प्रातः काल हम नहाते हैं.हमारी शरीर से निकलते पसीने व वातावरण के सूक्ष्म कण धूल इत्यादि से त्वचा पर जो  मैल व गंध का जो आवरण बन जाता है वह साफ पानी से नहाने से निकल जाता है और त्वचा को स्निग्धता तथा स्फूर्ति मिलती है इस भौतिक स्चच्छता का हमारे मन पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, शरीर की थकान मिट जाती है . हमारे रोमकूप खुल जाते हैं जिससे त्वचा का सौंदर्य भी बढ़ता है आंतरिक स्फूर्ति का संचरण होता है.  इसीलिये ठंड के दिनो में सनबाथ, स्टीमबाथ, लिया जाता है तो गर्मियों में टब बाथ का महत्व है.आयुर्वेद में भोजन के तुरंत बाद स्नान वर्जित कहा गया है.  मकर संक्रांति पर पंचकर्म और मिट्टी, उबटन, तरह तरह के साबुन बाडी वाश आदि से जल स्नान का प्रचलन हमारी संस्कृति का हिस्सा है. योग में शरीर के आंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए  शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, कुंजल, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि अनेक विधियां बताई जाती हैं. गर्म पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले कुछ उतेजित होता है किन्तु बाद में मंद पड़ जाता है, लेकिन ठंडे पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले मंद पड़ता है और बाद में उतेजित होता है जो कि अधिक लाभदायक है।

आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया गया है. जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं.  प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतात्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.

वास्तव में नदियो में धार्मिक भावना से कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधुसंतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें की होती हैं. लोगों का मिलना जुलना वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 30 – बालगीत – लाडू ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है अतिसुन्दर बालगीत “लाडू” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 30 ☆ 

 ☆ बालगीत – लाडू

 

दिवाळी सण खुलले मन

घरदार सजेल पंगतीने ।

फराळ भारी  पाहुणे दारी

लाडूंच्या पराती चळतीने।।धृ।।

 

लाडू करंजी चकली चिवडा

खुशाल खाऊ या गमतीने।

दिवाळीची ही लज्जत वाढेल

तऱ्हेतऱ्हेच्या लाडूने।१।।

 

बुंदीच्या लाडूची मजाच न्यारी

दाण्या दाण्याची लज्जत भारी।

केशर काडी नि वेलची थोडी।

किसमीस चाखूया गमतीने।।2।।

 

बेसन बर्फीला वर्खाची रंगत।

जोडीला काजू बदाम संगत।

खोबरे किस अन् चारोळी तीस।

मिटक्या मांरूया संगतीने।।३।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 31 ☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी।  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता जिसने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किसी न किसी ऐसे काम में लगाया हो जिसपर हर किसी की नजर न पड़ती हो। मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी के फ़िल्मी गीत के बीच  तालमेल बैठते आइडियाज  कितने महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 31 ☆

☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆

 

मुकुन्दी बी.ए.पास करके फिलहाल बेरोज़गार हैं। सरकारी नौकरी के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, लेकिन वहाँ घुसने के लिए सूराख नहीं मिला। जहाँ गये वहाँ डेढ़ दो लाख से कम की माँग नहीं हुई। सुनने को मिला कि सरकारी नौकरी अनेक जन्मों के संचित पुण्यों का फल होती है।बिना काम देखे पूरी तनख्वाह नियमित मिलती है, ऊपरी आमदनी अलग से। ऐसी नौकरी के लिए इस जन्म में भी कुछ त्याग करना पड़े तो क्या गलत हुआ? मुकुन्दी के पास त्यागने के लिए पर्याप्त माल नहीं है, इसलिए सड़क पर हैं।

गाँव के ज़मींदार साहब ने काम बताया है।उनके पुरखों का पुराना मन्दिर है। पुराने पुजारी जी अपने गाँव जाना चाहते हैं। मुकुन्दी मन्दिर का काम  संभाल ले तो वे उसे सीधा-पिसान देते रहेंगे। कुछ चढ़ावा भी मिल जाएगा। फिलहाल मुकुन्दी का खर्चा-पानी निकलता रहेगा। नौकरी मिल जाए तो भले ही चला जाए।

मुकुन्दी मन्दिर में स्थापित हो गये। सबेरे शाम पूजा-आरती, दिन भर कुछ पढ़ना-लिखना या ऊँघना। मन्दिर के बगल में कुआँ है, इसलिए नहाने-धोने और मन्दिर की साफ-सफाई के लिए पानी की कमी नहीं है।

इस मन्दिर में ज़्यादा मजमा नहीं जुड़ता इसलिए मुकुन्दी बोर होते हैं। गाँव के लोग वैसे भी तंगदस्त होते हैं, इसलिए ज़्यादा चढ़ावा नहीं चढ़ता। ‘परसाद’ के लालच में दो चार गरीब बच्चे आरती के वक्त घंटा-घड़याल बजाने के लिए जुट जाते हैं। बाकी टाइम काटना मुश्किल होता है। मुकुन्दी के पास एक ट्रांज़िस्टर है, दिन भर उसे चालू रखते हैं।

एक दोपहर मुकुन्दी के ट्रांज़िस्टर पर ‘दबंग’ फिल्म का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ आ रहा था। गाना ऐसा कि अच्छे-भले आदमी के हाथ-पाँव फड़कने लगें। गाना तेज़ वाल्यूम में गूँज रहा था। बगल के रास्ते से गाँव के बच्चे स्कूल जाते थे। मुकुन्दी कुछ शोर-गुल सुनकर मन्दिर के पीछे गये तो देखा आठ-दस लड़के अपने बस्ते रास्ते के किनारे पटक कर गाने की धुन पर बेसुध अपने बदन को झटके दे रहे थे। मुकुन्दी बड़ी देर तक उनकी मुद्राओं का मज़ा लेते रहे। लड़के दीन-दुनिया से बेख़बर थे।

लौट कर बैठे तो मुकुन्दी के दिमाग़ में एक आइडिया कौंधा। गाँव में एक दुर्गाप्रसाद हैं जो हारमोनियम बढ़िया बजाते हैं, लेकिन गाँव में उनके हुनर का उपयोग नहीं होता। हारमोनिय म पर धूल चढ़ी रहती है। दूसरे पुत्तूसिंह ढोलक के उस्ताद हैं। उनकी ढोलक भी छठे-छमासे ही धमकती है। गाँव में गुणीजन की कदर कम होती है।

मुकुन्दी शाम को दोनों उस्तादों से मिले और ‘डील’ पक्की हो गयी। रोज़ शाम को आरती से पहले मुकुन्दी का बनाया नया भजन होगा और जो चढ़ावा आयेगा उसका बंटवारा तीनों के बीच होगा। मुकुन्दी ने ज़मींदार साहब को भी समझा दिया कि उनकी योजना सफल हो गयी तो मन्दिर के दिन फिर जाएंगे।

दो दिन बाद मन्दिर में शाम की आरती से पहले पुत्तूसिंह की ढोलक धमकने लगी। साथ में शुरू हुआ मन्दिर के पुजारी मुकुन्दीलाल रचित भक्तिरस से ओतप्रोत भजन, ‘राधा बदनाम हुई कन्हैया तेरे लिए, ललिता बदनाम हुई सांवरे तेरे लिए।’ सोने में सुहागा जैसी दुर्गा उस्ताद की हरमुनियां की धुन।

थोड़ी देर में मन्दिर में मजमा लग गया।जिसके कान में धुन पड़ी, दौड़ा आया। सारी भीड़ भक्तिरस में झूमने लगी। थोड़ी देर में आधे लोगों ने बाहर मैदान में ठुमके लगाना शुरू कर दिया। घंटों नाच-गाना चलता रहा।न गाने वाले थके, न नाचने वाले। गायन मंडली की तबियत बाग-बाग हो गयी। उस दिन चढ़ावा भी खूब चढ़ा।

दूसरे दिन से शाम होते ही जनता मुकुन्दी के मन्दिर की तरफ वैसे ही लपकने लगी जैसे चींटे गुड़ की तरफ दौड़ते हैं। सब टकटकी लगाकर बैठते जाते थे कि कब भजन शुरू हो। भजन शुरू होते ही आधे नाचने को बाहर निकल जाते और आधे भक्तिरस में झूमने लगते। बीच बीच में मुकुन्दी भी भावविभोर होकर नाचने लगते। मुकुन्दी ने फिल्मी धुनों पर दो तीन भजन और साध लिये थे, लेकिन उनकी वह ‘डिमांड’ नहीं थी जो ‘राधा बदनाम हुई’ की थी।

कुछ दिनों में मन्दिर की सूरत बदल गयी। सारा परिसर चमकने लगा। भजन के प्रसारण के लिए लाउडस्पीकर भी लग गया।परिणामतः लोग मीलों से खिंचे चले आते। गाँव के एमैले साहब ने पच्चीस हजार रुपये मन्दिर में रंगाई-पुताई के लिए दिये और मन्दिर की सड़क भी पक्की करवा दी। मन्दिर की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी।गाँव के दूसरे मन्दिरों में भक्तों का भारी टोटा पड़ गया।

मुकुन्दी की धजा भी बदल गयी है। हाथ में पाँच हजार का मोबाइल लिए मन्दिर-प्रांगण में ठसके से घूमते रहते हैं। मोबाइल पर भक्तों की शंकाओं का समाधान करते रहते हैं। कुछ भूत-भविष्य भी बता देते हैं। दो तीन लड़के सफाई और सेवा के लिए रख लिये हैं। अब नौकरी के बारे में पूछने पर जवाब देते हैं, ‘कोई अच्छी नौकरी मिली तो सोचेंगे, वर्ना हमारी कोई गरज नहीं है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #29 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 29 ☆

☆ पिंजरा ☆

( कल  के अंक में इस कविता का कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद अवश्य पढ़िए )

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि

पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ श्री अ कीर्तिवर्धन ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री अ कीर्तिवर्धन

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी एवं डॉ मुक्त जी  के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – श्री अ कीर्तिवर्धन ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  श्री अ कीर्तिवर्धन जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी  की कलम से। मैं  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। बैंकिंग पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री अ कीर्तिवर्धन जी  हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

आदरणीय श्री अ कीर्तिवर्धन जी का जन्म 9 अगस्त, 1956 को शामली (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता श्री विद्या राम अग्रवाल, इंटर कॉलेज में प्राचार्य थे। आपकी प्रारंभिक शिक्षा शामली में ही पूर्ण हुई। आपकी माँ के प्रोत्साहन ने आपको सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित किया।

सत्तर के दशक में गांव में मेले लगा करते थे। इन मेलों में शाम को कवि सम्मेलन का आयोजन भी हुआ करते थे। आप उन कवि सम्मेलनों में सुनी हुई कविताओं को लिखने की कोशिश करते थे। उन कविताओं से प्रेरित होकर आपने छोटी छोटी कवितायें लिखना प्रारम्भ किया।

आपके पिताजी ने आपकी लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर रिश्तेदारों को चिट्ठियां लिखने का दायित्व आपको ही दे दिया था। आपकी काव्यात्मक चिट्ठियाँ अत्यंत रोचक होती थी जिससे  आपकी लेखन प्रतिभा समय के साथ साथ विकसित होती चली गई। आपकी काव्यात्मक प्रतिभा से जुड़े हुए कई संस्मरण हैं जिन्हें हम भविष्य में अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे। अब तक आपकी रचनाएँ इधर उधर डायरी कापियों में लिखी हुई रखी थी किन्तु, संकलित नहीं थी।

सही मायनों में आपकी साहित्यिक यात्रा 1974 से प्रारम्भ हुई जब आप इंजीनियरिंग की परीक्षा देने आप आगरा गए थे।आपने हिन्दू कॉलेज मुरादाबाद से बी.एस.सी. व एम.एस.सी. (गणित), अपने चाचा जी के पास रहते हुए किया। कॉलेज में आप स्टूडेंट यूनियन से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे तथा लेखन भी चलता रहा। एम.एस.सी. करने के दौरान आपको नैनीताल बैंक में नौकरी मिल गई । आपकी प्रथम पोस्टिंग रामनगर में हुई। समय समय पर आपकी अनेकों रचनाएं बैंक की पत्रिका में प्रकाशित होती रहीं। वर्ष 1983 में आपका तबादला मुजफ्फरनगर हो गया। मुजफ्फरनगर से  आप की कविताएं व रचनाएं नियमित रूप से स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। वर्ष 1985- 86 में आप बैंक की पत्रिका के संपादक भी रहे। इसी दौरान आपको बैंक में ट्रेड यूनियन से जुडने का अवसर प्राप्त हुआ और आप काफी लंबे समय तक यूनियन के राष्ट्रीय सचिव रहे।

वर्ष 1987 में  आपका विवाह  रजनी अग्रवाल जी से हुआ। उन्होने आपको आपकी साहित्यिक यात्रा में सदैव सहयोग किया। वे ही आपकी प्रथम श्रोता होती हैं तथा सदैव आपका उत्साहवर्धन करती रहीं।  1999 में आपका दिल्ली ट्रांसफर हो गया। उन दिनों आप दीवाली व नववर्ष के शुभकामना संदेश एक सामाजिक विषय पर कविता लिखकर अपने मित्रों, संबंधियों तथा बैंक की करीबन 100 शाखाओं को भेजा करते थे। इसने भी आपकी लेखन प्रतिभा को एक नया आयाम दिया। इस कृत्य ने आपकी साहित्यिक यात्रा को भी नया आयाम दिया। सान 2000 में आपके नववर्ष संदेश के माध्यम से एक प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रमेश नीलकमल जी से मुलाक़ात हुई। उन्होने आपको अपनी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने हेतु प्रोत्साहित किया। श्री नीलकमल जी न्यूमरोलॉजी अर्थात अंकशास्त्र के ज्ञाता थे। आप अब तक कीर्तिवर्धन आजाद के नाम से लिखा करते थे। श्री नीलकमल जी ने अंकशास्त्र  के आधार पर सुझाव दिया कि आप अपना नाम बदल कर अ कीर्तिवर्धन कर ले, तो यह नाम आपके लिए बहुत उपयुक्त होगा तथा इस नाम से आपको बहुत यशकीर्ति प्राप्त होगी।  यह अक्षरशः सत्य साबित हुआ। नाम बदलने के बाद आपके लेखन को एक नया आयाम मिला, और बहुत यश भी प्राप्त हुआ।

अब तक आपकी रचनाएं 1500 से अधिक  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी साहित्यिक व्यस्तताएं बढ़ जाने के कारण वर्ष 2005 में अपने ट्रेड यूनियन से संयास ले लिया। वर्ष 2005 से अब तक आपकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, तथा अनेक पुस्तकों का अनुवाद नेपाली, कन्नड़, व मैथिली भाषा में हो चुका है। आप हिन्दी साहित्य कि लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ लिखते हैं।

अक्सर आप अपनी छंदमुक्त कविताओं के बारे में एक रोचक घटना का ज़िक्र करते हैं। एक बार आपने अपनी एक कविता भोपाल की पत्रिका साहित्य परिक्रमा को भेजी। उत्तर आया कि पत्रिका में केवल छंदयुक्त कविताओं को ही प्रकाशित किया जाता है। इसी बात ने आपको एक निम्नलिखित कविता लिखने को प्रेरित किया –

नहीं जानता गीत किसे कहते हैं,

छंदों की वह रीत किसे कहते हैं,

क्या छंद बिना कोई भावों को नहीं कह पाएगा,

दृष्टिहीन, नागरिक का अधिकार नहीं पाएगा,

केवल मीठा खाने से क्या पता चलेगा,

कभी कसैला, कभी हो खट्टा, स्वाद बनेगा,

मीठे को महिमामंडित करने का, आधार बनेगा।

यह कविता आपने पत्रिका संपादक को भेज दी। इसके बाद उस पत्रिका में आप की अनेकानेक रचनाओं को स्थान दिया गया।

श्री नीलकमल जी से आपका संपर्क जीवन पर्यंत बना रहा। जिनके मार्गदर्शन से आपके लेखन में बहुत सुधार हुआ और वह आपके लिए वरदान साबित हुआ।

बिहार की एक साहित्यिक संस्था ने आपको विद्या वाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया।

सन 2012 में आपका ट्रान्सफर मुजफ्फरनगर हो गया, तथा वर्ष 2016 में आप सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्त होने के पश्चात आप समाज सेवा में जुट गए, तथा मुजफ्फरनगर में ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 20-25 विद्यालयों से जुड़ गए। इन विद्यालयों में आप प्रेरक वक्ता के रूप में नियमित रूप से जाते हैं और बच्चों को भाषण कला तथा अन्य विषयों पर मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन करते हैं।

आपको कई विश्वविद्यालयों/ संस्थानों में शोध पत्र पढ़ने तथा व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जा चुका है, जिसमें सिक्किम विश्वविद्यालय, नेपाल प्रेस क्लब, राजस्थान के कई विश्वविद्यालय प्रमुख हैं।

आपकी बाल कविताओं की एक पुस्तक ‘सुबह सवेरे कर्नाटक व  उत्तराखंड के पाठ्यक्रम में भी शामिल है।

वोदित लेखकों को आपका संदेश है – “सतत लेखनरत रहें… समय के साथ लेखन में सुधार होता जाएग… और धीरे धीरे आपकी पहचान बनने लगेगी। कोशिश करें कि, लेखन सामाजिक विषयों पर हो, जिससे कि समाज जागृति व समाज का उत्थान हो सके।”

 

संकलन –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 16 – लालन – पालन  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  मातृत्व की भावना से परिपूर्ण भावप्रवण रचना लालन – पालन अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 16  – विशाखा की नज़र से

☆ लालन – पालन  ☆

 

माँ हूँ मै तुम्हारी अपने कर्तव्य करती रहती हूँ

उपस्थित हूँ तुम्हारे, सम्मुख हूँ तुम्हारे

तो ध्येय भरती रहती हूँ ,

माँ हूँ मै तुम्हारी …….

 

कोख से तुम मुझसे विभक्त हुए

गर्भनाल टूटी तुम धरा पर जन्म हुए

ममत्व का तुमने मुझे भान दिया

कर्तव्यों का संग सोपान दिया

माँ हूँ मै तुम्हारी …..

 

तुम्हारे जन्म के संग ही मेरा पुनर्जन्म हुआ

जीवन के रंगमंच पर मातृत्व का अंक हुआ

मेरे अंक का विस्तार बढ़ता गया

तू भी तो नित नए आयाम गढ़ता गया

तुझे सफल बनाने का प्रयास करती रहती हूँ

मुख्य किरदार से अपने संवाद करती रहती हूँ

माँ हूँ मैं तुम्हारी …….

 

नाट्य की सफलता कथा पर निर्भर है

किरदारों की अदाकारी उनके ऊपर है

तेरा मेरा नाट्य भी सफल तभी होगा

जब दर्शक भावविभोर और तालियों का शोर होगा

तेरे सम्मुख आदर्शों का वर्णन करती रहती हूँ

माँ हूँ मैं तुम्हारी तो ध्येय भरती रहती हूँ ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 5 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 5 – गौतम ☆

(आपने अब तक पढ़ा – दमयंती उर्फ पगली का बचपन मायके में बीता, जवान हुई, विवाह हुआ, ससुराल आई, नशे के चलते सुहाग रात को मिली पीडा़ ने उसके जीवन के खुशियों को छिन्न भिन्न कर दिया।  काफी अरसे तक खुशियाँ उससे रूठी रही, पोते पोतियों के साथ खेलने की चाह मन में लिए ही, सास ससुर भगवान को प्यारे हो गये, अधेडा़वस्था में पुत्र पैदा हुआ जिसके सहारे ही पगली ने अपनी जिन्दगी के सुनहरे ख्वाब सजाये थे। अब आगे पढ़ें ——–)

पगली अपने पुत्र गौतम पर अपनी जान छिड़कती थी।  उसने उसे इंसानियत का पाठ पढ़ाया था। जिससे बढ़ते हुए गौतम ने अपने विनम्र व्यवहार के चलते लोगों का दिल जीत लिया था। लेकिन परिवार में गरीबी के चलते कुछ मजबूरियां भी थी। कभी कभी फाकाकशी की नौबत आ जाती।  उसकी गांव के बड़े बुजुर्गों तथा बच्चों में अलग ही छवि थी।  वह पढ़ने लिखने में मेधावी था।  कभी वह बच्चों के झुण्ड में खेलता, कभी लुका छिपी खेलते खाना बनाती पगली  के पीछे जा छुपता। और कभी अचानक आकर चुपके से उसका मुख चूम लेता, तो निहाल हो जाती पगली, और सारी ममता सारा प्यार गौतम पर उड़ेल देती तथा उसे बाहों में भर लेती।

एक दिन गौतम को पास खेलते देख बचपने की स्मृतियों में खो गई पगली।  बचपन की यादें सजीव हो उठी थी उसके ओंठ बुदबुदा उठे थे, उसके हृदय के उद्गार शब्दों के रूप में मचल उठे थे।

ओ नटखट बचपन बच्ची बच्चे बन,

मेरे घर आंगन में आया।

तेरे आने से मेरे घर,

खुशियों का सागर लहराया।

तेरा सुन्दर मुखड़ा चूम चूम,

दिल खुशियों से भर जाता है।

तेरे संग हंसी ठिठोली में,

दुख दर्द कहीं खो जाता है।

जब तुझको गोद उठाती हूँ,

तो यादों में खो जाती हूँ।

तेरी आंखों झांकी तो,

अपना बचपन ही पाती हूँ।

कभी पास आना पैरों से लिपटना,

कभी गोद में खिलखिला कर के हंसना।

कभी हाथ उठाये मेरे पीछे चलना,

खिलौने की खातिर कभीतेरा मचलना।

कभी हाथ मैनें जो तेरा पकड़ा,

तेरा मचलना औ भाग जाना।

तेरा नटखट पन ये तेरी शरारत,

ना जाने मुझे क्यूं बनाती दिवाना।

एक टाफी की खातिर कभी मुझसे लड़ता,

घोड़ा बनाता कभी पीठ चढ़ता।

कभी बेटा बन कर कहानी है सुनता,

कभी बाप बन के मुझे डांट जाता।

ऐ बचपन तू बच्चा बन करके आता,

उजड़े चमन में भी हरियाली लाता।

तेरे आने से घर में आती बहारें,

जीवन में खुशियों की पडती फुहारें।

 

इस प्रकार धीरे धीरे समय मंथरमंथर चलता रहा और गौतम भी बढता रहा अपनी उम्र के साथ।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -6 – फांकाकशी 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

 

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