हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 20 ☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पागल नहीं हैं हम”।  यह लघुकथा  हमें स्त्री जीवन की संवेदनाओं से रूबरू कराती हैं ।  जब किसीआतंरिक पीड़ा की अति हो या सहनसीमा के पार हो जावे तो  मानवीय संवेदनाएं और जुबान दोनों सीमायें लांघ जाती हैं।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 20 ☆

☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम 

पुणे से वाराणसी जानेवाली ट्रेन का स्लीपर कोच। एक औरत सीधे पल्ले की साड़ी पहने, घूँघट काढ़े, गोद में नवजात शिशु को लिए ऊपरवाली बर्थ पर बैठी थी। नीचे की बर्थ पर शायद उसका पति, ३-४ साल की एक बेटी और सास बैठी थी। ट्रेन प्लेटफार्म से चल चुकी थी। यात्री अपना-अपना सामान बर्थ के नीचे लगा रहे थे। गर्मी का समय था, ट्रेन चली तो सबको थोड़ी राहत महसूस हुई। यात्री ट्रेन में चढ़ने की आपाधापी से निश्चिंत हुए ही थे कि तभी किसी को मारने की आवाज आई। साथ में विरोध का दबा सा स्वर- “काहे मारत हो हमका ? का बिगारे हैं तुम्हारा ?”

“ससुरी जबान चलावत है”, यह कह उसके एक थप्पड और जड दिया। औरत झुंझलाती हुई मुँह मोड़कर बैठ गई। यात्री कुछ समझते इससे पहले ही वह आदमी सीट पर बैठ अपनी माँ से बात करने लगा जैसे कुछ हुआ ही ना हो। माँ को पिटते देख बेटी सहम कर खिड़की से बाहर देखने लगी।

वह औरत इतना लंबा घूँघट काढ़े थी कि उसका चेहरा दीख ही नहीं रहा था। थोड़ी देर बाद वह बैठे-बैठे ही सोने लगी। नींद में उसका सिर इधर-उधर लुढ़क रहा था। बीच-बीच में वह बच्चे को थपकती जाती। उसका एक हाथ बच्चे को निरंतर संभाले हुए था। इतने में वह आदमी उठा और उसने अपनी पत्नी का सिर पकड़कर झिंझोड़ दिया- “हरामजादी सोवत है ? बच्चा गिर जाई तो। पागल औरत बा ई। अम्मा ! हमार किस्मत फूट गई।” अम्मा भी लड़के के साथ सुर में सुर मिलाकर बहू को कोसने लगी।

परिवार का आपसी मामला समझ लोग चुप थे लेकिन वातावरण बोझिल हो गया था।

रात के लगभग नौ बजे थे। लोग सोने की तैयारी कर रहे थे। कुछ ने तो सोने के लिए बत्तियाँ भी बुझा दी थीं। इतने में छीना-झपटी और मारपीट जैसी आवाजें सुनाई देने लगी। बंद बत्तियाँ फिर जल उठीं। लोगों ने देखा वह आदमी अपनी पत्नी की गोद से बच्चे को छीन रहा था। औरत घबराई हुई बच्चे को छाती से कसकर चिपकाए थी। छीना-झपटी में बच्चा भी घबराकर रोने लगा। इस जोर जबरदस्ती में औरत का घूँघट हट गया। उसका चेहरा  मारपीट की दास्तान बयान कर रहा था। आसपास के लोगों को जगा देख उस औरत में भी हिम्मत आ गई। वह चिल्लाने लगी – “ना देब बच्ची का। टरेन से फेंक देबो तो ? कहत हैं मेहरारू पागल है। अरे ! हम पागल नहीं हैं। तू पागल, तोहरी अम्मा पागल। दूसरी लड़की पैदा भई, तो का करी, फेंक देइ कचरे में ? तुम्हारे हाथ में दे देई गला घोंटे के बरे…………..”

स्लीपर कोच की बत्तियां जली रह गईं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण : अनन्य मुम्बई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – संस्मरण : अनन्य मुम्बई

90 के दशक की बात है। 85-86 में ग्रेजुएशन समाप्त कर आगे के जीवन का रोडमैप मस्तिष्क में तय कर चुका था। उच्चशिक्षा, लेक्चररशीप, शाम को थियेटर, लेखन और समाजसेवा। मुंबई शिफ्ट होना था और फिल्मों के लिए लिखना-अभिनय करना था। यूनिवर्सिटी के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लेखक, निर्देशक, अभिनेता और अन्य ललित कलाओं के तमगे लगाए मन समझता था कि बस एक कदम उठाया और वामन अवतार की तरह धरती मापी।

अलबत्ता विधि का लिखा मिटता नहीं। ‘मैन प्रपोजेस, गॉड डिस्पोजेस।’ बी.एड. करते हुए ही अकस्मात विधि ने व्यापार में ढकेल दिया। सुबह 9 से रात 11 तक अथक परिश्रम का दौर आरंभ हो गया। मध्यमवर्गीय परिवार, दायित्वबोध और चुनौतियों का पहाड़। व्यापार थोड़ा स्थिर हुआ तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन मुंबई जाकर इच्छित की दिशा में कदम आगे बढ़ाने का मन बनाया। हमारा बाज़ार गुरुवार बंद रहता था, सो मेरे लिए ‘वर्किंग डे’ में मुंबई जाकर लोगों से मिल सकने का अवसर था।

उस जमाने में एकांकी और नाटक लिखा करता था। कविता के ‘क’ से भी संपर्क नहीं हुआ था। सो अपनी एकांकियाँ और कुछ थीम (जिन्हें बाद में ‘वन लाइनर’ कहा जाने लगा) लेकर पुणे से मुंबई के चक्कर आरंभ हुए। पहली कुछ यात्राएँ निष्फल रहीं। मूल कारण था किसी से संपर्क ही न हो पाना। लोकल नेटवर्क पता नहीं था, ईस्ट-वेस्ट समझ में नहीं आता था। संबंधित स्टेशन पर उतरकर पैदल ही पता तलाशने निकल जाता था। एशियाड बसें चलती थीं। पुराना मुंबई-पुणे हाईवे था। मुंबई पहुँचने में 11  बज जाते थे। बमुश्किल कुछ घंटे हाथ में होते थे क्योंकि 4 बजे के बाद लौटना होता था ताकि अगले दिन काम पर जा सकूँ। कई बार देर होने पर देर रात लौटता, अगले दिन फिर वही  दिनचर्या। ‘चप्पल घिसना’ मुहावरे का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

कुछ लोगों से मिला भी। ‘टी’ सीरिज में एक हमउम्र ने कुछ सेकंडों में एक थीम सुनी और कहा कि ऐसी एक मिलती-जुलती थीम पर हम काम कर रहे हैं, हमें कुछ अलग चाहिए। एक बार तो इंडस्ट्री के मील के पत्थर स्व. बी आर चोपड़ा के निवास स्थान तक पहुँच गया। अदालती-व्यवस्था पर मेरा नाटक ‘दलदल’ लोकप्रिय हुआ था। उसकी थीम उन्हें सुनाना चाहता था। दरबान से मालूम पड़ा कि अंदर मीटिंग चल रही है, समय लगेगा। बाद में कभी भेंट हो सकती है। अलबत्ता व्यवहार बेहद शिष्ट और उत्साहवर्द्धक था। इसके बाद व्यापार में अधिक व्यस्त होता गया। साप्ताहिक छुट्टी व्यापारिक खरीद के काम आने लगी। कभी-कभार यहाँ-वहाँ एकाध फोन करता, फिर दो-चार महीने में एक बार मुंबई यात्रा होने लगी और शनै:-शनै: बंद हो गई।

मनमोहन शेट्टी जी के उल्लेख के बिना इस यात्रा का वर्णन निरर्थक होगा। उन दिनों वे ‘अर्द्धसत्य’, ‘चक्र’ जैसी फिल्में बना चुके थे। मैं समानांतर सिनेमा का दीवाना था। मैंने उन्हें उनकी फिल्मों के संदर्भ में एक बधाई-पत्र भेजा।

आश्चर्यजनक रूप से उनका धन्यवाद का उत्तर भी आया। मुंबई की अगली यात्रा में पता तलाशते हुए मैं ‘एडलैब’ पहुँचा। शायद 11 बज रहे थे। शेट्टी जी अभी आए नहीं थे। उनके स्टाफ ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। साढ़े ग्यारह के लगभग मनमोहन जी आए। ऑफिस में बत्ती की। प्रार्थना के बाद कुर्सी पर बैठे और मुझे अंदर बुलाया।

मैं पहली बार किसी प्रोड्युसर के ऑफिस में बैठा था। मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने मेरे एकाध ‘वन लाइनर’ सुने। वे गंभीरता से सुनते रहे। फिर दोनों के लिए कॉफी आ गई। चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने बताया कि अगला प्रोजेक्ट वे श्याम बेनेगल जी के साथ कर रहे हैं। बेनेगल जी की काम करने की अपनी शैली है और उनके काम में किसी तरह की दखलअंदाज़ी नहीं की जा सकती। इसलिए तुरंत तो कुछ नहीं किया जा सकता, आगे किसी प्रोजेक्ट के समय  साथ बैठा जा सकता है।

कॉफी का आखिरी घूँट पीकर मग रखते हुए बोले, ‘यू आर अ पोटेंशिअल राइटर संजय! थोड़ा घूमना पड़ेगा पर आपको इंडस्ट्री में काम मिलेगा।’ पास के किसी स्टुडिओ में अमोल पालेकर जी अपने धारावाहिक ‘कच्ची धूप’ की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने मुझे पालेकर जी से मिलने के लिए कहा। कुछ और स्टुडिओ और वहाँ चल रहे प्रॉडक्शंस के बारे में बताया। इतने बड़े व्यक्ति का यह मार्गदर्शन मुझे आश्चर्यमिश्रित सुख दे रहा था।

सुखद आश्चर्य का चरम अभी बाकी था। मुकेश दुग्गल उन दिनों थोक में फिल्में बना रहे थे। उनकी किसी नई फिल्म की दो दिन बाद लाँच पार्टी थी। उसका निमंत्रण शेट्टी जी की मेज पर था। उन्होंने निमंत्रण उठाया। अपने नाम के बाद कॉमा लगाकर मेरा नाम लिखा। बोले, ‘दुग्गल से मिलना। उनको बोलना मैंने भेजा है। वो बहुत मूवीज बना रहे हैं। होप, आपको स्टार्ट मिलेगा।’

निमंत्रण-पत्र मेरे हाथ में था और मैं अवाक था। पता नहीं शेट्टी जी का धन्यवाद भी ठीक से कर पाया या नहीं। उन्होंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और शुभकामनाओं के साथ विदा किया।

चढ़ते समय दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ने की आदत थी। आज आनंदातिरेक में दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ उतरा। नीचे पहुँच कर एक लंबा श्वास लिया। लगा जैसे निमंत्रण नहीं बल्कि आकाश मुट्ठी में आ गया हो। ये बात अलग है कि दायित्व, निजी आकांक्षाओं पर भारी पड़े और उस लाँच में कभी नहीं पहुँच पाया।

आज पलटकर देखता हूँ तो दिखते हैं एक अनजान शहर में अनजान व्यक्ति के लिए आगे बढ़े हाथ। अनुभव अलग-अलग हो सकते हैं पर सामान्यत: ये शहर मुंबई और हाथ मुंबईकर के होते हैं।

आज बरबस याद आए मनमोहन शेट्टी जी और मुंबई का आत्मीय अनुभव। सलाम शेट्टी साहब, सलाम मुंबई!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 6:14 बजे, रविवार, 11.02.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर विशेष
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर एक ऐतिहासिक एवं ज्ञानवर्धक आलेख  “बिजली और महात्मा गांधी”।  इस ज्ञानवर्धक एवं ऐतिहासिकआलेख  के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ 

☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆

भारत में प्रारंभिक व्यवसायिक बिजली उत्पादन कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉरपोरेशन ने 1899 में शुरू किया था, यद्यपि  गांधी जी के जन्म के लगभग दस पंद्रह वर्षो के भीतर ही कोलकाता ही देश का पहला शहर था जहां अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ।  शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी। 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से  बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया। अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में  किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई। लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है। ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था। उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है। ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है। ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था। इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी। विद्युत अधिनियम, 1903 के तहत लाइसेंस लेने के बाद ‘जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया। बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया। 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई। ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी। 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी।

यह वर्ष महात्मा गांधी के १५० वें जन्म वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से १९१५ में पूरी तरह भारत लौटे थे, इस तरह देश में बिजली की प्रकाश के उपयोग हेतु सुलभता तथा महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में सक्रिय योगदान लगभग समकालीन ही हैं।

१८८८ में जब गांधी जी लंदन पढ़ने गये थे तब लंदन में बिजली से प्रकाश व्यवस्था की जा चुकी थी। इसलिये गांधी जी बिजली से बहुत वाकिफ रहे। १८९३ से १९१४ तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे, तब तक दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन आदि शहरो में भी बिजली का उपयोग होने लगा था। टेलीग्राफ, इलेक्ट्रिक मोटर उपकरणो का उपयोग भी धीरे धीरे बढ़ रहा था। टेलीग्राम के उपयोग के दृष्टांत महात्मा गांधी की जीवनी में भी जगह जगह पढ़ने  मिलते हैं। यद्यपि सीधे तौर पर बिजली को लेकर महात्मा गांधी के विचार किसी पुस्तक में मुझे पढ़ने नही मिले पर महात्मा गांधी मशीनीकरण के अंधानुगमन के विरोध में थे। वे स्वायत्त ग्रामीण व्यवस्था के पक्षधर थे, बिजली के संदर्भ में इन विचारो को अधिरोपित करें तो आज बिजली वितरण, उत्पादन की जो क्षेत्रीय कंपनियां बनाई जा रही हैं, किंबहुना यह ढ़ांचा महात्मा गांधी के विकास के स्वशासित अनुपूरक ढ़ांचे का ही विस्तार कहा जा सकता है।

18 मार्च 1922 को गांधी जी को छह साल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें गुजरात की साबरमती जेल से विशेष ट्रेन से पुणे की येरवडा जेल स्थानांतरित कर दिया गया था। गांधी जी को अपेंडिसाइटिस की गंभीर समस्या के कारण 12 जनवरी 1924 में पुणे के ससून अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। अंग्रेज सरकार उनके आपरेशन के लिये मुंबई से आने वाले भारतीय चिकित्सकों का इंतजार करना चाहती थी लेकिन आधी रात से पहले ब्रितानी सर्जन कर्नल मैडॉक ने गांधी जी को बताया कि उनका तत्काल ऑपरेशन करना पड़ेगा जिस पर सहमति भी बन गई।

जब ऑपरेशन की तैयारी की जा रही थी, गांधीजी के अनुरोध पर ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ के प्रमुख वी एस श्रीनिवास शास्त्री और मित्र डॉ फटक को भी वहां  बुलाया गया जिससे देश की जनता के सामने अंग्रेज डाक्टर की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह न लगे। एक सावर्जनिक बयान जारी किया जिसमें गांधी जी ने कहा कि उन्होंने ऑपरेशन के लिए सहमति दी है, चिकित्सकों ने उनका भली-प्रकार उपचार किया है और कुछ भी अप्रिय होने पर सरकार विरोधी प्रदर्शन नहीं होने चाहिए।

दरअसल, अस्पताल के अधिकारी और गांधी जी यह भली भांति जानते थे कि यदि ऑपरेशन में कुछ गड़बड़ी हुई तो देश के जन मानस पर इसके अपरोक्ष राजनैतिक  प्रभाव होंगे।  गांधी जी ने जब इस बयान पर हस्ताक्षर के लिए  कलम उठाई, तो उन्होंने कर्नल मैडॉक से मजाकिया अंदाज में कहा, ‘देखो, मेरे हाथ कैसे कांप रहे हैं।।। आपको यह सही से करना होगा।’  जवाब में डा मैडॉक ने कहा कि वह पूरी ताकत लगा लेंगे। इसके बाद गांधी जी को क्लोरोफॉम सुंघा दी गई। जब ऑपरेशन शुरू किया गया, उस समय आंधी और वर्षा हो रही थी। ऑपरेशन के बीच में ही बिजली गुल हो गई ऑपरेशन के लिए टार्च लाइट की मदद ली गई। ऑपरेशन के बीच में इसने भी जवाब दे दिया। आखिरकार, ब्रितानी चिकित्सक ने लालटेन की रोशनी में गांधी जी का सफल ऑपरेशन किया। इस घटना के 95 साल बीत चुके हैं। सरकारी अस्पताल के 400 वर्ग फुट के इस ऑपरेशन थियेटर को एक स्मारक में बदल दिया गया है।महात्मा गांधी के जीवन की इस अहम घटना का साक्षी बने इस कमरे में महात्मा गांधी के ऑपरेशन के लिए इस्तेमाल की गई एक मेज, एक ट्राली और कुछ उपकरण रखे हैं। इस कमरे में एक दुर्लभ पेंटिंग भी है जिसमें बापू के ऑपरेशन का चित्रण है। किंतु आपरेशन के समय अस्पताल की बिजली गुल हो जाने की घटना रोमांचक तो है ही।

आज जाने कितनी बिजली परियोजनाओ का नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर किया गया है, जाने कितनी विद्युतीकरण योजनायें उनके नाम पर चलाई जा रही हैं किंतु यदि महात्मा गांधी के सिद्धांतो से बिजली को जोड़ कर देखें तो हम कह सकते हैं कि सबके लिये सदैव बिजली की सौभाग्य योजना के लक्ष्य पा लेने के बाद जब देश के अंतिम व्यक्ति को भी बिजली का लाभ पहुंच सक रहा है तभी महात्मा गांधी और बिजली का वास्तविक सामंजस्य बनता समझ आता है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 12 ☆ कविता – हर कहानी है नई ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “हर कहानी है नई .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 12 ☆

☆ हर कहानी है नई  ☆ 

 

फूल बनकर मुस्कराती

हर कहानी है नई

चाँद-से मुखड़े बनाती

हर कहानी है नई

 

बह रहीं शीतल हवाएँ

कर रहीं जीवन अमर

पर्वतों की गोद से ही

झर रहे झरने सुघर

वाणियों में रस मिलाता

बोल करता है प्रखर

 

चाँदनी रातें लुटातीं

हर कहानी है नई

 

तेज बनकर सूर्य का

ऊष्मा बिखेरे हर दिवस में

शाक ,फल में स्वाद भरता

हर तरफ ऐश्वर्य यश में

सृष्टि का सम्पूर्ण स्वामी

हैं सभी आधीन वश में

 

नीरजा नदियाँ बहातीं

हर कहानी है नई ।

 

शाश्वत है शांति सुख है

और फैला है पवन में

सृष्टि का है वह नियामक

इंद्रियों-सा  जीव-तन में

जन्म देता वृद्धि करता

वह मिले हर सुमन कण में

 

बुलबुलों के गीत गाती

हर कहानी है नई

 

है धरा सिंगार पूरित

बस रही है हर कड़ी में

हीर,पन्ना मोतियों-सी

दिख रही पारस मणी में

टिमटिमाते हैं सितारे

सप्त ऋषियों की लड़ी में

 

पर्वतों-सी सिर उठाती

हर कहानी है नई

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 34 – असंच काहीसं…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  परमपूज्य माँ के स्नेह प्रेम पर आधारित एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “असंच काहीसं…!”)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #34☆ 

☆ असंच काहीसं…! ☆ 

 

मायेला हाँस्पिटल मध्ये

एडमिट केल्यापासून

तिच्या पासून दूर जावं

असं वाटतच नाही

कारण…,

जरा अवघडलेले पाय

मोकळे करायला

म्हणून मी बाहेर पडावं

अन् नेमकं .. .

तेव्हाच मनात येतं…

मी लहान असताना

आजारी पडल्यावर

माझ्या उशाशी बसणारी

माझी माय….,

क्षणभर जरी मला

दिसेनाशी झाली ना…,

तरी मी किती घाबरायचो

कावराबावरा व्हायचो.. .

अन् मायेला हाक मारायचो….

ती हातातलं काम सोडून

पुन्हा माझ्या जवळ

येऊन बसायची…

आज.. क्षणभर जरी मी

तिच्यापासून दूर झालो

आणि.. . . .

तिचंही असच काहीसं

झालं तर.?

मी अवघडलेल्या पायांनी तसाच

मागे फिरतो…

मायेच्या हाकेला ओ देण्यासाठी…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 35 – वज़ूद ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा   “वज़ूद  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #35☆

☆ लघुकथा – वजूद ☆

सविता ने पति के जीते जी कभी घर से बाहर  कदम नहीं रखा था पर अब क्या कर सकती थी ? घर में खाने को दाना नहीं था और भूखे मरने की नौबत आ गई थी .

तभी बाहर से किसी ने आवाज दी, “सविता भाभी ! आप बुरा न माने तो एक बात कहू ?” डरते-डरते मनरेगा के सचिव ने पूछा – “कहो भैया !” शंका-कुशंका से घिरी सविता बोली तो सचिव ने कहा, “भाभी! मनरेगा के तहत वृक्षारोपण हो रहा है यदि आप चाहे तो इस के अंतर्गत पौधे लगा कर कुछ मजदूरी कर सकती है.”

अंधे को क्या चाहिए, दो आँख. सविता की मंशा पूर्ण हो रही थी. वह झट से बोली “क्यों नहीं भैया, मजदूरी करने में किस बात की शर्म है” यह कहते हुए सविता काम पर चल दी.

वह आज मनरेगा की वजह से अपना वजूद बचा पाई थी. अन्यथा वह अपने पड़ोसी के जाल में फंस जाती जो उस की अस्मिता के बदले मजदूरी देने को तैयार था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆ बात का बतंगड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बातों बातों में ही एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “बात का बतंगड़। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆

☆ बात का बतंगड़

निष्ठावान होते हुए भी चमनलाल जी अक्सर उदास रहते कि उनकी पूछ – परख कम होती है । जो भी काम करते उन्हें घाटा होता है  तो वहीं उनके परम मित्र शिकायती लाल जी भी यही रोना रोते कि उनको परिश्रम का फल नहीं  मिल रहा है ।  चौपाल पर बैठे धरमू लाल जी और लोगों के आने की राह देख रहे थे तभी उनका पोता सोनू आया , उसने पूछा –  “बाबा चैली  कहाँ रखी है ?”

उन्होंने कहा – “क्या करोगे ?”

“बाबा दादी को सुलगानी है  कह रहीं थीं,  पूस निकल जाए तो बुढ़ऊ और एक बरस जी जाय।”

ठेठ  बघेली में उन्होंने कहा- “कहि देय लुआठी  जलाय लेंय, कल लाय के देव चैली ।”

धरमू लाल जी मन में बुदबुदाते हुए बोले – “कउनउ चेली त मिलबय नहीं करय या बुढ़िया और आगी लगावत ही।”

तभी किशोर चन्द्र जी आ गए, उन्होंने मिली – जुली बोली में कहा-  “अपना सुनन बकरी और शेर के किस्सा –   अभी तक तो शेर और बकरी एक घाट में पानी पी लें उतना ही सुना था अब शेर को बकरी खा गयी चारो ओर हल्ला हो रहा है ।”

“अब का करी किशोरी कलयुग है कौन किसको खा ले पता ही नहीं चलता । जिसकी लाठी उसकी भैस । पहले तो बड़ी मछली छोटी को खाती थी अब तो बड़े- छोटे का लिहाज बचा ही नहीं  । पहले मर्यादा  पुरुषोत्तम राम के गुणगान होते थे अब तो राम शब्द राजनीति का अखाड़ा बन गया है ।  कहते हैं राम का नाम लेकर नल नील ने त्रेता युग में  सागर  बाँध दिया  और हम कि उन्हें टेंट में बैठाये हुये मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा में हैं।”

“अरे छोड़ो धरमू इन सब  से आम आदमी को क्या लेना देना उसे तो दो जून की रोटी मिले बस इतना ही बहुत था कुछ बरस पहले तक । पर अब तो स्मार्ट फोन  भी चाहिए  आखिर इक्कसवीं  सदी के गरीब का  भी तो कोई रुतबा होना चाहिए।”

किशोरी लाल जी मुस्कुराते हुए बोले “जियो ने तो जिया दिया, अब दाल रोटी का और जुगाड़ हो जाय तो आराम से बैठो और रोटी तोड़ो ।  पाँच बरस में एक बार अच्छी  सरकार बना दो और चैन की बंशी बजाओ।”

“अरे  बंशी नहीं दिखायी दिया सुना है  बालीबुड  में सपने पूरे करने गया है।” तभी और लोग भी चर्चा में सम्मलित होने के लिए एकत्र हो गए ।

आज तो चौपाल अपने पूरे रंग में थी  पास में अलाव जला लिया गया । गाँव के सबसे बुजुर्ग कक्का जी  अपनी अनुभवों की गठरी से एक रोचक किस्सा सुनाने लगे कि कैसे मैट्रिक में उन्होंने अपने गाँव का और प्रदेश का नाम रोशन किया, ये किस्सा जब तब न जाने कितनी बार सुना चुके थे पर लोग भी हर बार ऐसे सुनते जैसे पहली बार हो ।

किस्सा वही लालटेन  में पढ़ने से शुरू होता और  खेत – खलियान में काम करते हुए  गुड़ की डली और मटर की फली पर पूरा होता ।  बात इतनी लंबी खिचती कि जब तक काकी  की याद में आँसू न बह जाए तब तक कक्का जी बोलते रहते फिर धीरे से अपने गमछे से आँसू पोछते हुए लाठी टेकते हुए चल देते राम ही राखे कहते हुए ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 34 – समय कब अच्छा रहा है?…….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  माँ नर्मदा वंदना  “समय कब अच्छा रहा है?……..। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 34 ☆

☆ समय कब अच्छा रहा है?…….. ☆  

 

हवा के रुख के इर्द-गिर्द

अब हर कोई

“कुछ अलग” कहलाने के लोभ में

लिखे, बोले जा रहे हैं-

‘आज हम ऐसे समय में ..

हम वैसे समय में ..

और न जाने

कैसे समय में जी रहे हैं,

पर वे ये बताने को

कतई तैयार नहीं

वे, पहले,

जैसे समय में जी रहे थे।

 

कार से उतरकर

कॉरपेट पर चरण रखने वाले

छालों की बात कर रहे हैं

हैं तो इधर के ही

पर प्रदर्शन में उधर से

चल रहे हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और उनके पुत्र ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और उनके पुत्र”.)

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और उनके पुत्र ☆

महात्मा गांधी कए तीसरे पुत्र रामदास गांधी की पुत्री सुमित्रा गांधी कुलकर्णी की  लिखी एक पुस्तक है ” महात्मा गांधी  मेरे पितामह” (व्यक्तित्व और परिवार)। इस पुस्तक के अध्याय “हरिलाल गांधी : एक दुखी आत्मा ” में वे बड़े विस्तार से लिखती हैं:

” बापूजी के चार बेटे थे।सितंबर, 1888 में बैरिस्टर बनने के लिए जब बापूजी विलायत गए तब हरिलाल गांधी की उम्र तीन माह की थी । हरिलाल गांधी  के बारे में समाज में अनेक धारणाए हैं। वे सिगरेट पीते थे, शराबी थे और व्यभिचारी थे ।उन्होने अपने पिता से विमुख जीवन बिताकर बगावत कर दी थी। बापूजी की मान्यता थी कि उनके और मोटीबा (कस्तूरबा) के आरंभिक जीवन की विषय वासना और मूढ़ता के कारण हरीलाल काका ऐसे बन गए थे।

अफ्रीका जाने के बाद भी पिता वकालत और नाटाल काँग्रेस के काम में सतत व्यस्त रहते। अपने सिद्धान्त के कारण बापूजी ने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में नही भेजा था लेकिन स्वयं भी अपने अनुशासन रख कर बच्चों को कभी नियमित रूप से पढ़ा नही पाये।

बापूजी की आत्मकथा में हरिलाल के जन्म के सिवाय और  कहीं कोई उल्लेख नहीं आता है। मुझे शंका है कि बापूजी को उस नादान बच्चे से प्रेम कुछ हट गया था।

हरिलाल  की तमन्ना थी कि वह भी अपने पिता के समान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अपनी योग्यता बढ़ाए और समाज के लिए उसका सदुपयोग करे। लेकिन पिता ने तो विद्याभ्यास की आवश्यकता को ही ठुकरा दिया था। यहाँ तक की बापूजी ने अपने  मित्र डाक्टर प्राण जीवन मेहता   के प्रस्ताव की वे हरि लाल गांधी को अपने खर्चे पर विदेश भेजने के लिए तैयार हैं ठुकरा दिया था।

काकी की मृत्यु  के बाद काका यायावर बन गए शराब के नशे में कुछ भी करते थे। लेकिन बुद्धी कुशाग्र थी। एकांगी जीवन से वे घबरा गए थे। उन्होने बापूजी से पुनरलग्न करवाने की विनय करी । बापूजी ने असमर्थता प्रकट करी और कहा, किसी विधवा से विवाह कर लो ।काका वह भी करते लेकिन आंदोलनों की झंझावात में किसे समय था कि कोई विधवा की खोज करे ?

शरारती मुसलमानों के चक्कर में पड़कर 14, मई , 1936 को काका मुसलमान बन गए । अब वे अब्दुल्ला गांधी बन गए। बापूजी के लिखने पर मेरे पिता काका को खोजते हुये बम्बई में जनाब झकारिया के घर पहुँचे। एक उत्साही मुस्लिम जीव ने बापूजी को लिख भी दिया कि , “बेटे के समान इस्लाम अपनाकर पुण्य कमा लो।” भरपूर पैसे, मदिरा और वारांगना तीनों के बाहुल्य के बावजूद इस्लामिक अनुभव ने हमारे काका का मोहभंग कर दिया। मोटीबा ने बम्बई जाकर काका को समझाया।10, नवंबर, 1936 को छह महीने की अल्प अवधि के बाद काका ने आर्य समाज की मदद से पुनः हिंदु धर्म को अंगीकार कर लिया। ”

सुमित्रा गांधी कुलकर्णी  ने इसी अध्याय में माँ बेटे के पर मिलन का मार्मिक चित्रण किया है। वे बड़े विस्तार से लिखती हैं कि एक बार जब मोटीबा और बापूजी की ट्रेन कटनी रेल्वे स्टेशन  पर खड़ी थी कि हरिलाल वहाँ आए और बा को प्रणाम  किया और फिर जेब से एक मौसमी निकाल कर बोले बा में यह तुम्हारे लिए लाया हूँ ।  जब बापूजी  ने कहा मेरे लिए कुछ नही लाया तो उन्होने जबाब दिया नही यह तो बा के लिए लाया हूँ । आपसे सिर्फ इतना कहना है कि बा के प्रताप से ही आप इतने बड़े बने हैं।

सुमित्रा गांधी कुलकर्णी  ने जिस बेबाक तरीके से अपने पितामह की आलोचना करी है ऐसा साहस  कोई गांधीवादी  ही कर सकता है। अपने आदर्शों, सिद्धांतों व सार्वजनिक जीवन की व्यस्तता के चलते गांधीजी अपने बच्चों की और कोई विशेष ध्यान नही दे पाये। लेकिन इस बात से अथवा साधनो की अनुपलब्धता को लेकर उनके किसी भी वंशज ने ना तो कोई रोष जताया और ना ही राष्ट्र से इस त्याग की एवज कोई क्षतिपूर्ति की अपेक्षा की। कल की मेरी पोस्ट पर सुरेश पटवाजी ने गांधी जी को महात्मा क्यों कहा गया, बताया  था। आज मेरे इस  वर्णन से आप सहमत होंगे की गांधीजी ने देश को अपने और पुत्रों से भी अधिक महत्व दिया और इसीलिए वे राष्ट्र पिता कहलाने के सही हकदार हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 12 ☆ कविता – अधर सिले पर संवाद बना है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “अधर सिले पर संवाद बना है।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 12 ☆

☆ अधर सिले पर संवाद बना है ☆

अधर सिले पर संवाद बना है

बिन बोले  ही शब्दों को जना है

 

चाँद निहारता रहा ओस रात

कुछ कहता पर कोहरा घना है

 

दाँत रहे तब हालात नहीं थे

अब तो खाने में  मना चना है

 

ईमानदारी को क्या समझेंगे

लोभ – लालच में ही मन सना है

 

मिलना ही है तुझे तेरी मंजिल

बस रखना  मन  नेक भावना है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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