हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33 ☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष ? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक बुंदेलखंडी कविता “ग्राम्य विकास”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33

☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष?  

“ना.. साहब, सुने हैं कि जे नये कलेक्टर साब ज्यादई तेज तर्रार हैं, सब अफसरों को परेशान कर रिये हैं ” – – गंगू पूछ रहा है।

मालिश करते हुए बीच बीच में गंगू ऐसे कई सवाल पूछ लेता है… वो भी ऐसे ऐन वक्त पर जब वो गर्दन चटकाने की तैयारी में गर्दन पकड़ कर खड़ा होता है।

गंगू हमको साहब इसीलिए कहता रहता है क्योंकि हम स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं एवं जिले के कलेक्टर से लेकर सभी विभागों के अफसरों के साथ उठते बैठते हैं। ये आदिवासी पिछड़ा जिला है अफसरों के लिए पनिशमेंट सेन्टर कहलाता है। यहां हर विभाग के अफसर को भ्रष्टाचारी, दारूखोर और चरित्रहीन होना जरूरी है क्योंकि पिछड़ेपन के कारण मनोरंजन के भी कोई साधन नहीं हैं, सब अफसर बंगलों में अकेले रहते हैं और फेमिली शहर में रखते हैं। इस जिले में सब टाइम पास करने आते हैं।

जब से नया कलेक्टर आया है लोग उसे झक्की कलेक्टर कहते हैं, क्योंकि वो जिले का विकास चाहता है, अफसरों को सुधारना चाहता है, अफसरों के अंदर गांधी दर्शन भरना चाहता है। कई दिनों से मुझे भी परेशान किए है, कहता है कि – 150 साल के अवसर पर अपने प्रशिक्षण संस्थान में अफसरों के लिए गांधी दर्शन के प्रशिक्षण आयोजित करें। कलेक्टर चाहता है कि अफसर गांधीवादी बन जायें तो विकास सही ढंग से होगा।

राजनीति सब जगह हावी रहती है, शहर के छुटभैया नेता प्रशिक्षण संस्थान का नाम बदलकर दीन दयाल संस्थान करना चाहते हैं और कलेक्टर है कि संस्थान में गांधी दर्शन के प्रशिक्षण करवाना चाहता है। अफसर नहीं चाहते कि वे कलेक्टर के हिसाब से गांधीवादी बने। अफसर अपने हिसाब से कभी गांधीवादी तो कभी सत्ताधारी पार्टीवादी बनना चाहते हैं।

अफसरों का गांधीवादी चिंतन अलग होता है। एक आला अफसर पूछ रहा था कि- “गांधी जी महापुरुष थे कि महात्मा थे ?” दूसरा अफसर कहता है- “गांधी महात्मा कहलाते थे इसलिए उनको महात्मा गांधी कहा जाता है।” जब उनसे पूछा गया कि- “वे महात्मा गांधी क्यों कहलाते हैं ?”तो उनका सीधा जबाब था कि- “भारत के महापुरुष रवींद्र नाथ टैगोर के मुंह से एक बार गांधी के लिए ‘महात्मा’ शब्द निकल गया था तो वे महात्मा गांधी कहलाने लगे, तो जय बोलो महात्मा गांधी की……. । महापुरुषों की बात ही अलग होती है।”

दो अफसरों के बीच नशे में महात्मा और महापुरुष शब्दों के चक्कर में लड़ाई हो गयी….. एक कहता कि महात्मा और महापुरुष में कोई अन्तर नहीं है, महात्मा गांधी महापुरुष थे। दूसरे का मत था कि जिसके पास महान आत्मा होती है वे महात्मा होते हैं और जो सब पुरुषों में बड़े होते हैं वे महापुरुष कहलाते हैं। पहले वाले ने तर्क दिया ऐसे में तो स्त्री…., महापुरुष बन ही नहीं सकती, एक महिला अफसर सब सुन रही थी बोली – “बड़ी अजीब बात है, महापुरुषों में सिर्फ पुरुषों का अधिकार है”। इसलिए महिला ने बताया कि उसने अपने बेटे का नाम ‘महापुरुष’ रखा है , धोखे से उसकी सिंह राशि निकल आयी, ज्योतिषी कहता है कि महापुरुष नाम के लड़के की राशि का स्वामी सूर्य होता है सूर्य तेज होता है इसलिए हमारा महापुरुष किसी के सामने झुकता नहीं। महापुरुष नाम के लड़के में सभ्यता और ईमानदारी कूट कूट कर भरी होती है इसलिए ये आगे चलकर महापुरुष बन सकता है। मेडम की बात सुनकर चिड़चिड़े स्वाभाव के तीसरे अफसर को मुंह खोलने का अच्छा मौका मिल गया, कहने लगा – “इसका मतलब हमारे नये कलेक्टर की भी सिंह राशि है और उनका ग्रह स्वामी सूर्य होगा तभी वे तेज तर्रार हैं और महापुरुष बनने के जुगाड़ में हैं।”

गांधी जी सत्य के पुजारी थे, अफसर को भी सत्य बोलना पड़ता है क्योंकि उसे अपने कमीशन रेट के बारे में सच सच बतलाना पड़ता है, ठेकेदार भी अफसर के सत्य से प्रभावित रहता है और सच्चाई के साथ निर्धारित कमीशन गांधी की तस्वीर के सामने इमानदारी से अदा कर देता है। सारे कार्य नियम से होते हैं। गांधीजी भी नियम के पाबंद थे, अफसर भी पाबंद हैं। नया कलेक्टर गांधीवाद को अफसरों के ऊपर लादना चाहता है। कलेक्टर उन्हें गांधीवादी बनने पर जोर दे रहा है। जिस ढंग से कलेक्टर चाहता है उस ढंग से अफसर वैसा नहीं बनना चाहते। अफसर गांधीवादी क्यों बनेंगे…… अफसरवाद और गांधीवाद दो विरोधी चीजें हैं। अफसर अफसर होता है और महापुरुष बेचारा महापुरुष ही तो होता है।

यदि गांधी जी महापुरुष थे और गांव का विकास चाहते थे तो अफसर भी तो गांव के विकास के बहाने अपना विकास चाहते हैं। अफसरों का भाग्य इतना तेज दौड़ता है कि इधर सड़क बननी चालू हुई उधर बुलडोजर से उचकी गिट्टी साहब के बंगले में तब्दील हो जाती है। अभी तक अफसरों का जितना विकास हुआ है उसमें गांव की सड़क, बांध और ग्रामीण विकास योजनाओं ने अफसरों की खूब मदद की है।

“कलेक्टर को महापुरुष बनने का शौक है तो वे क्यों नहीं गांधी दर्शन के प्रशिक्षण लेते, हम सबको प्रशिक्षण में काहे फंसा रहे हैं?”

मैंने कहा – “इसमें फंसने की क्या बात है कलेक्टर का सोचना सही है कि सब अफसर गांधी दर्शन को समझकर देश की समस्याएं हल कर सकते हैं।”

मेरी बात से कई अफसर भड़क गए कहने लगे – “देश की समस्याओं को हल करने का ठेका हमीं लोगों ने लिया है क्या? देश का और जनता का सबसे ज्यादा शोषण नेता कर रहे हैं। देश के नेता तो असली गांधीवादी बन नहीं सके और कलेक्टर चाहते हैं कि अफसर गांधीवादी बनें।”

मुझे उनके तर्क कुछ ठीक लगे। नेता अगर गांधीवादी होते तो देश की यह हालत न होती। गांधीवाद का नाम लेकर देश को इस हाल में पहुंचा दिया कि मेरे पास शब्द ही नहीं बचे। गांधीवाद की सबकी परिभाषाएं अलग अलग हैं, हर पार्टी ऐन वक्त में गांधीवादी बन जाती है।  150 वें साल में गांधी पर इतने प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी कोई गिनती ही नहीं है।  ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के लिए गांधीवाद रबर के समान है चाहे जब खींचकर महापुरुष बना दिया, चाहे जब छोड़कर महात्मा बना दिया और चाहे जब छोड़ कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया।

गांधी महापुरुष थे इसलिए गांधी के नाम पर सारी पार्टियां चुनाव लड़तीं हैं, गांधी की समाधि पर कसम खातीं हैं। चुनाव जीतने के बाद गांधी को भूल जातीं हैं। नये जमाने के अनुसार आजकल वही नेता महापुरुष बन पायेंगे जो झूठ को सच की तरह बोलते हैं और गंभीर होने का नाटक करते हैं या फिर रंगदारी करते हैं। सत्ता गांधीवाद की विरोधी होती है गांधीवाद को भूलकर ही सत्ता को बचाया जा सकता है। वैसे भी सत्ता और गांधीवाद की दो नावों पर पैर रख कर चलना किसी जोखिम से कम नहीं है।

सत्ता और गांधी एक साथ नहीं चल सकते। सब अफसर यदि महापुरुष बनने के चक्कर में गांधीवादी बन गए तो सरकार कौन चलाएगा। सरकार को अफसरों से मिलकर चलाया जाता है। अफसर यदि नाराज हो गए तो सरकार चलना कठिन है, इसलिए गांधीवाद का दिखावा दोनों को करना पड़ता है। कब कौन नेता या अफसर महापुरुष बन जाए, कोई ठिकाना नहीं है। तभी तो गंगू कौन बनेगा करोड़पति स्टाइल में अभिताभ की नकली आवाज में पूछ रहा है- “कौन बनेगा महापुरुष?”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #36 – विश्वसनीयता ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कैसे हो गाँव का विकास”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 36 ☆

☆ विश्वसनीयता

फोर जी का जमाना आ गया है. सब कुछ बहुत तेज है. इधर घटना घटी नहीं कि दुनिया भर में, पल भर में उसकी अपने अपने नजरिये से रिपोर्टिंग हो जाती है, सोशल मीडिया की असंपादित प्रसारण क्षमता का जितना दोहन हो सकता है हो रहा है. निरंकुशता का यह समय विश्वसनीयता पर गहरा आघात है. हरेक के उसके व्यक्तिगत स्वार्थ के अनुरूप घटना पर प्रतिक्रिया होनी शुरू हो जाती है. टी वी चैनल पर बहस में न्यायपालिका को किनारे रखकर हर प्रवक्ता स्वयं न्यायाधीश बन जाता है. आरोपों के आडियो वीडीयो प्रमाणो की सीडी की सच्चाई साफ्टवेयर में हमारी निपुणता के चलते सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में होती है.

नैतिक मूल्यो और सस्ती लोकप्रियता की चाह ऐसी हो गई है कि स्त्रियां तक स्वयं की आबरू लुटने को भी एक अस्त्र के रूप में उपयोग करने में शर्मिंदा नहीं हैं. एक चैनल जो खबर ब्रेकिंग न्यूज के रूप में देता है, अगले ही घंटे में दूसरा चैनल उसका प्रतिवाद प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखता दिखता है. वास्तविक सच्चाई  लम्बी कानूनी जाँच के बाद तब सामने आती है जब मूल घटना का महत्व ही बदल गया होता है. विश्वसनीयता के अंत के ऐसे समय में हम भौंचक बने रहने पर विवश हैं.

मुझे सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ याद आती है, बाबा भारती का डाकू खडगसिंग से संवाद “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” किंतु आज किसे परवाह है नैतिक मूल्यो की? दीन दुखियों की? हर दीन दुखी तो बस जैसे एक वोट मात्र है. आज खबरो में पुनः भरोसा पैदा करने की जरूरत दीख रही है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 36☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  के व्यंग्य  ‘बात-वापसी समारोह ’ में  हास्य का पुट लिए लोकतंत्र  में जुबान के फिसलने से लेकर जुबान को वापिस उसी जगह लाने की  प्रक्रिया पर तीक्ष्ण प्रहार है। आप भी आनंद लीजिये ।  ऐसे विनोदपूर्ण  व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 36 ☆

☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह  ☆

 

नेताजी एक दिन जोश में विपक्षी पार्टियों को ‘जानवरों का कुनबा’ बोल गये। वैसे नेताजी अक्सर जोश में रहते थे और अपने ऊटपटांग वक्तव्यों से पार्टी को संकट में डालते रहते थे।

नेताजी के बयान पर हंगामा शुरू हो गया और विपक्षियों ने नेताजी से माफी की मांग शुरू कर दी। तिस पर नेताजी ने अपनी शानदार मूँछों पर ताव देकर फरमाया कि उनकी बात जो है वह कमान से निकला तीर होती है और उसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि वे बात वापस लेने के बजाय मर जाना पसन्द करेंगे। उनकी इस बात पर चमचों ने ज़ोर से तालियाँ बजायीं और ‘नेताजी जिन्दाबाद’ के नारे लगाये।

हंगामा बढ़ा तो नेताजी को उनकी पार्टी की हाई कमांड ने तलब कर लिया। उन्हें हिदायत दी गयी कि वे तत्काल अपनी बात वापस लें अन्यथा उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

नेताजी पार्टी दफ्तर से बाहर निकले तो उनकी शानदार मूँछें, जो हमेशा ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर रहती थीं, सात-पच्चीस बजा रही थीं।बाहर निकलकर पत्रकारों से बोले, ‘हाई कमांड ने वही बात कही जो कल रात से मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी। मुझे भी लग रहा था कि मैं कुछ ज्यादा बोल गया।वैसे मैं जानवरों को बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ और उनका बहुत सम्मान करता हूँ। अब मैं अपने पंडिज्जी से पूछकर बात वापस लेने की सुदिन-साइत तय करूँगा।’

बात-वापसी की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गयीं।एक लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक से अनुरोध किया गया कि वे अपने उपकरणों के ज़रिए पता लगायें कि बात जो है वह कहाँ तक पहुँची है। यह तो निश्चित था कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, लेकिन कितनी दूर तलक जाएगी यह जानना जरूरी था। चुनांचे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक ने डेढ़ दो घंटे की मगजमारी के बाद बताया कि बात जो थी वह धरती के छः चक्कर लगाकर भूमध्यसागर में ग़र्क हो गयी थी। वहाँ एक मछली ने उसे कोई भोज्य-पदार्थ समझकर गटक लिया था। बात को गटकने के बाद मछली की भूख-प्यास जाती रही थी और वह, निढाल, पानी की सतह पर उतरा रही थी।

यह जानकारी मिलते ही तत्काल वायुसेना का एक हवाई-जहाज़ गोताखोरों के दल के साथ भूमध्यसागर में संबंधित स्थान को रवाना किया गया। गोताखोरों ने आसानी से मछली को गिरफ्तार कर लिया और खुशी खुशी वापस लौट आये।पायलट ने मछली अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर सैल्यूट मारा और अधिकारियों ने खुश होकर वादा किया कि वे पायलट की सिफारिश विशिष्ट सेवा मेडल के लिए करेंगे।

पंडिज्जी की बतायी हुई साइत पर बात-वापसी की तैयारी हुई। स्थानीय समाचारपत्रों में आधे पेज का इश्तहार छपा कि नेताजी आत्मा की आवाज़ और हाई कमांड के निर्देश का पालन करते हुए अपनी अमुक तिथि को कही गयी बात को वापस लेंगे। इश्तहार में पार्टी के बड़े नेताओं का फोटो छपा, बीच में हाथ जोड़े नेताजी। समारोह स्थल पर विशिष्ट दर्शकों के लिए एक शामियाना लगाया गया और वहाँ बात-वापसी यंत्र लाया गया। बात वापसी देखने के उत्सुक लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। नेताजी एम्बुलेंस में लेटे थे।

पंडिज्जी के बताये शुभ समय पर कार्रवाई शुरू हुई। मशीन का एक पाइप मछली के मुँह में डाला गया और दूसरे पाइप का सिरा नेताजी के मुँह में। मशीन चालू हुई और मछली चैतन्य होकर उछलने कूदने लगी। उधर नेताजी एक झटका खाकर बेहोश हो गये। बात जो थी वह मछली के पेट से निकलकर नेताजी के उदर में पहुँच गयी।

एक मिनट बाद नेताजी ने आँखें खोलीं। मुस्कराते हुए टीवी के संवाददाताओं से बोले, ‘मैं हाई कमांड को बताना चाहता हूँ कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। मैंने पूरी निष्ठा से हाई कमांड के आदेश का पालन किया है। मुझे यकीन है कि अब मैं उनका कोपभाजन न रहकर स्नेहभाजन बन जाऊँगा। मुझे भरोसा है कि आप के माध्यम से मेरी बात हाई कमांड तक पहुँच जाएगी।’

इसके बाद नेताजी डाक्टरों की देखरेख में एम्बुलेंस में घर को रवाना हो गये। पीछे पीछे कारों में ‘नेताजी की जय’ के नारे लगाते चमचे भी गये।

नेताजी के जाने के बाद मछली की ढूँढ़-खोज शुरू हुई। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि एक दूरदर्शी अधिकारी ने गुपचुप मछली अपने घर भिजवा दी थी और, जैसा कि समझा जा सकता है, वहाँ मित्रों के साथ मत्स्य-भोज की तैयारी चल रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #34 ☆ सांस्कृतिक चेतना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 34 ☆

☆ सांस्कृतिक चेतना ☆

सबसे अधिक टीआरपी के लिए सीरियल्स में गाली-गलौज, लड़के-लड़कियों में हिंसक धक्कामुक्की को सहज घटनाओं के रूप में दिखाना और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ‘बहन जी’ को व्यंग और अपशब्द की तरह इस्तेमाल किया जाना अब आम हो गया है। मैं अवाक हूँ। भारतीय विचार और चेतना को क्या हो गया है? बेबात के विवाद, हंगामा और सामूहिक अराजकता के अभ्यस्त हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति कैसे सुप्त हो चले हैं? कैसी मरघटी वीरानगी ओढ़ ली है हम सबने?

‘बहन’ शब्द में सहोदर पवित्रता अंतर्भूत है। लंबे समय शिक्षिकाओं के लिए ‘बहन जी’ शब्द उपयोग होता रहा। अब कॉलेज में भारतीय परिधान धारण करने वाली लड़कियों को ‘बहन जी’ कहा जाता है। भयावह चित्र! अपने अस्तित्व, अपनी चेतना के प्रति वितृष्णा नहीं अपितु विद्वेष और उपहास कहाँ ले जाकर खड़ा करेगा? क्या हो चला है हमें?

इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का पाश्चात्यीकरण। इस पाश्चात्यीकरण का माध्यम भारतीय भाषाएँ बनती तो शायद नुकसान कम होता। शिक्षा से भारतीय भाषाओं को एक षड्यंत्र के तहत बेदखल किया गया। लोकोक्ति है कि अँग्रेज ख़ामोश हँसी हँसता है। इस समय अँग्रेज़ी ख़ामोश हँसी हँस रही है। विचारधारा के दोनों ध्रुवों पर या दोनों ध्रुवों के बीच आप किसी भी विचारधारा के हों,  यदि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के समर्थक हैं तो  यह *अभी नहीं तो कभी नहीं* का समय है।

अपने समय की पुकार सुनें। अपने-अपने घेरों से बाहर आएँ। भारतीय भाषाओं के आंदोलन को पांचजन्य-सा घोष करना होगा। शिक्षा का माध्यम केवल और केवल भारतीय भाषाएँ हों। इस उद्देश्य के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ने को तैयार हों। कोई साथी है जो ‘बहन जी’ और ऐसे तमाम शब्द जिन्हें उपहास का पात्र बनाया जा रहा है,  की अस्मिता की वैधानिक लड़ाई लड़ सके?

मित्रो! हम भारत में जन्मे हैं। हम भारत के नागरिक हैं। हमारी भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता का संरक्षण, प्रचार और विस्तार हमारा मूलभूत अधिकार है। अधिकारों का दमन बहुत हो चुका, अब नहीं।

अनुरोध है कि साथ आएँ ताकि इसे एक बड़े और सक्रिय आंदोलन का रूप दे सकें। आप सब मित्रों का इस कार्य के लिए विशेष आह्वान है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 21 – चाहत /हसरत  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक अतिसुन्दर दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘चाहत /हसरत  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 21  – विशाखा की नज़र से

☆ चाहत /हसरत   ☆

 

कुछ जद थी

कुछ ज़िद थी

कुछ तुझ तक  पहुँचने की हूक थी

मैं नंगे पांव चला आया

 

खाली था कुम्भ

मन बावरा सा मीन

नैनों में अश्रु

रीता / भरा

कुछ मध्य सा मैं बन आया

 

कुछ घटता रहा भीतर

कुछ मरता रहा जीकर

साँसों को छोड़, रूह को ओढ़

मै कफ़न साथ ले आया

 

तेरी चाहत का दिया जला है

ये जिस्म क्या तुझे पुकारती एक सदा है

जो गूँजती है मेरी देह के गलियारों में

अब गिनती है मेरी आवारों में

 

बस छूकर तुझे मै ठहर जाऊँ

मोम सा सांचे में ढल जाऊँ

गर तेरे इज़हार की बाती मिले

मै अखंड दीप बन जल जाऊँ

 

आत्मा पाऊँ ,

शरीर उधार लाऊं ,

प्यार बन जाऊँ,

प्रीत जग जाऊँ ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 10 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 10 – आतंकवाद का कहर  ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली विवाहित हो  ससुराल आई। बडा़ मान सम्मान मिला ससुराल से, संपन्नता थी ससुराल में, लेकिन सुहागरात के दिन की घटना अनकही कहानी बन कर रह गई।  पगली के जीवन में दिन बीतता गया, एक पुत्र की प्राप्ति, हुई नशे के चलते, संपन्नता दरिद्रता में बदल गई। फाकाकशी करने पर पगली मजबूर हो गई । नशे के शौक ने पगली से उसका पति छीन लिया, फिर भी पगली का हौसला टूटा नहीं। उसने गौतम को पढा़या लेकिन आतंकवाद ने ऐसा कहर ढाया कि पगली टूट कर बिखर गई। अब आगे पढ़े——)

गौतम की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था।  छुट्टियां बीत चली थी।  आज उसे शहर वापस जाना था।

पगली ने बड़े प्यार से रास्ते में नाश्ते के लिए पूड़ी सब्जी, तथा गौतम के पसंद की कद्दू की खीर  बनाकर   गौतम के बैग में रख दिया था। गौतम स्कूल जाते समय गांव के बड़े बुजुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता  था। यही विनम्रता का गुण उसे सारे  समाज में लोकप्रिय बनाता था।  उस दिन घर से बिदा लेते समय महिलाओं बड़े बुजुर्गों ने मिल कर सफल एवम् दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन तब कौन जानता था कि विधि के विधान में क्या लिखा है? होनिहार क्या देखना और क्या दिखाना चाहती है?

उस दिन गौतम की मित्र मंडली उसे रेल्वे स्टेशन तक छोड़ने गई थी।  पगली सूनी सूनी आंखों से  उसी रास्ते को निहार रही थी, जिस रास्ते उसका गौतम गया था। मित्र गौतम को रेलगाड़ी में बैठा वापसी कर चुके थे।
आज ना जाने क्यों पगली का दिल उदास था उसे अपने लाडले की बहुत याद आ रही थी।  उसका दिल रह रह कर किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठता।  ऐसे में उसे कहीं चैन नही मिल रहा था वह बेचैन हो इधर उधर टहल रही थी।  उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

इधर रेलगाड़ी अपनी तेज चाल से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। रेल के डिब्बों में बैठे कुछ लोग ऊंघ रहे थे।  कुछ लोग समय बिताने के लिए ताशों की गड्डियां फेट रहे थे। कुछ लोग देश और समाज की चिंता में वाद विवाद करते दुबले हुए जा रहे थे।  कोई सरकार बना रहा था, कोई सरकार गिरा रहा था, जितने मुंह उतनी बातें इन सब की बातों से बेखबर गौतम अपनी मेडिकल की किताबों में खोया उलझा हुआ था। उसे देश दुनियाँ की कोई खबर नही थी। वह किताब खोले अध्ययन में तल्लीन था। कि सहसा रेल के डिब्बे में धुम्म-धड़ाम की कर्णभेदी आवाज के साथ विस्फोट हुआ और गाड़ी के कई डिब्बों के परखच्चे  एक साथ ही उड़ गये, सारी फिजां में एकाएक बारूदी गंध फैल गई।  बड़ा ही हृदय बिदारक दृश्य था।  जगह जगह रक्त सनी अधजली लाशें, अर्ध जले मांस के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

उनमें कई लाशें ऐसी थी जिनके चेहरे नकाब से ढ़के थे, लेकिन मरते समय मौत का खौफ उनकी आंखों में साफ झलक रहा था, कपड़े जगह जगह से जले हुये थे। उन सबके बीच बाकी बचे लोगों में चीख पुकार आपाधापी मची हुई थी, सबके दिलों में मौत का खौफ पसरा हुआ था।  ऐसे में लोग अपनों को ढूंढ़ रहे थे।

लोगों का रो रो कर बुरा हाल था, उन्ही लोगों के बीच उस अभागे गौतम की क्षतविक्षत लाश पडी़ थी।  उसके हाथ में पकडी़ पुस्तक के अधजले पन्ने अब भी हवा के तीव्र झोंकों से उड़ उड़ कर उसकी आंखों में मचलते सपनों की कहानी बयां कर रहे थे।  वही पास पडा़ खाने का डिब्बा और उसमें पडा़ भोजन एक मां के प्यार की दास्ताँ सुना रहा था।  गौतम के परिचय पत्र से ही उसके टुकड़ों में बटे शव की पहचान हो पाई थी।

जिस समय गौतम का शव लेकर पुलिस गाँव पहुंची, उस समय सारा गाँव पगली के दरवाजे पर जुट गया था।

पगली का विलाप सुन उसके दुख और पीड़ा की अनुभूति से सबका दिल हा हा कार कर उठा था।  सबकी आँखे सजल थी,  उस दिन गांव में किसी घर में चूल्हा नही जला था पगली को तो मानो काठ मार गया था।  वहजैसे पत्थर का बुत बन गई थी उसकी आंखों से आंसू सूख गये थे।  उसका दिमाग असंतुलित हो गया था।

अपने सपनों का टूटना एक माँ भला कैसे बर्दाश्त कर पाती।  पगली अपनी ना उम्मीदी भरी जिंदगी पर ठहाके लगा हाहाहाहा कर हंस पडी़ थी, अपनी पीड़ा और बेबसी पर।

उस समय सिर्फ़ पगली के सपने ही नहीं टूटे थे, उसकी ही पूंजी नही लुटी थी, बल्कि कई माँओं की कोख एक साथ उजड़ी थी।  कई पिताओं के बुढ़ापे की लाठियां एक साथ टूटी थी, कई दुल्हनें एक साथ बेवा हुई थी कई बहनों की राखियाँ सूनी हो गई थी।

पगली ने उन सबके सपनों को आतंकी ज्वाला में जलते देखा था। वह गौतम के अर्थी की आखिरी बिदाई करने की स्थिति में भी नही थी। उस दिन, उस गाँव के क्या हिंदु क्या मुस्लिम क्या सिक्ख, सारे लोग अपनी नम आँखों से अपने लाडले को आखिरी बिदाई देने श्मशान घाट पहुंचे थे। उस दिन सारे समाज ने पहली बार आतंकी विचारधारा के दंश की पीड़ा महसूस की।

इन्ही सबके बीच कुछ भटके हुए आतंकवादी अपने जिहादी मिशन की कामयाबी का जश्न मना रहे थे  इंसानियत रो रही थी और हैवानियत जमाने को अपना नंगा नाच दिखा रही थी।  गौतम की चिता जले महीनों बीत चले थे, सारा गाँव इस दुखद हादसे को भुलाने का  जतन कर रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 11 –  धत पगली 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 29 – चेतना तत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “चेतना तत्व ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 29 ☆

☆ चेतना तत्व 

प्राण ब्रह्मांड में किसी भी प्रकार की ऊर्जा की मूल इकाई है। यह वह इकाई है जिसे हम देख नहीं सकते हैं, लेकिन सिर्फ अनुभव करते हैं। लेकिन महान ऋषि इसे देख सकते हैं। ऊर्जा उष्ण, बिजली, परमाणु इत्यादि जैसे सकल रूपों में भिन्न हो सकती है लेकिन मूल इकाई या ऊर्जा का सबसे कम संभव रूप प्राण ही है। प्राण कंपन या स्पंदन की आवृत्ति के अनुसार हमारे शरीर के अंदर विभिन्न रूपों में भी कार्य करता है जैसा कि मैंने पहले ही प्राण, अपान आदि के विषय में विस्तार से बताया था, जिनकी हमारे शरीर के अंदर अलग-अलग कार्यक्षमता है।

आशीष ने एक भ्रमित मुद्रा में पूछा, “महोदय, इसका अर्थ है की ऊर्जा के सभी रूप प्राण के विस्तार या अभिव्यक्ति ही हैं। लेकिन प्राण का मूल रूप क्या है? और यह कैसे कार्य करता है? और यह कहाँ से हमारे आस-पास या पृथ्वी पर आता है?”

उत्तर मिला, “प्राण जो हम साँस के माध्यम से शरीर के अंदर लेते हैं वास्तव में वायुमंडल में उपस्थित होता है और आयन (Ions,विद्युत् शक्ति उत्पन्न करनेवाला गतिमान परमाणु) के रूप में बने रहते हैं। हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में ये प्राण आयन 100-150 वोल्ट प्रति मीटर के आसपास विद्युत वोल्टेज में उपस्थित रहते हैं। प्राण ऊर्जा में दो प्रकार के आयन होते हैं :

1) ऋणात्मक आयन, जो आकार में छोटे और बहुत सक्रिय होते हैं। ये आयन शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा देते हैं। हम श्वास की प्रक्रिया के दौरान वातावरण से इन आयनों का सेवन करते हैं। ये आयन धूल, धुआं, धुंध, गंदगी, आदि से नष्ट हो जाते हैं। इन आयनों का वातावरण से कम होना ही प्रदूषण और वैश्विक तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है इन आयनों की उपस्थिति में हम स्वस्थ और अच्छा अनुभव करते हैं।

2) बड़े और कम सक्रिय हैं, इनमे कई परमाणु नाभिक होते हैं। ये छोटे आयनों के संयोजन का एक रूप होते है।

वायुमंडलीय प्राण, ऊर्जा का स्रोत सूर्य की अति उल्लंघन वाली किरणों की प्रकाश रासायनिक (photochemical) प्रतिक्रिया से उत्पन्न कम आवृत्ति की तरंगों (short wave) का विकिरण (radiation) है। प्राण के नकारात्मक आयनों का माध्यमिक स्रोत हमारे सौर मंडल के विभिन्न भागों से आता है। इसके अतरिक्त ये आयन विशेष रूप से समुद्र के पानी में तरंगों से भी उत्पन्न होते हैं।

आशीष कहता है, “ऐसा कहा जाता है कि जब कोई मर जाता है, तो प्राण उसके शरीर को छोड़ देते हैं। इसका अर्थ हुआ की प्राण चेतना का ही एक रूप है, क्योंकि जब व्यक्ति मर जाता है तो वह अपनी चेतना खो देता है”

उत्तर मिला, “यह सामान्य मनुष्यों के लिए बहुत भ्रमित है, लेकिन मैं आपको यह बताने का प्रयास करता हूँ। प्राण से चेतना (consciousness) अलग है। चेतना जागरूकता (awareness) का माप है या हम कह सकते हैं कि जागरूकता चेतना की मूल इकाई है। लेकिन जागरूकता भी प्राण को ईंधन (fuel) के रूप में उपयोग करती है। चेतना दो चीजों पर निर्भर करती है: पहला जागरूकता की तीव्रता या प्रगाढ़ता (intensity) और दूसरा जागरूकता की अवधि (duration) । या अधिक स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि चेतना प्रकृति का सत्त्विक गुण है जबकि प्राण प्रकृति का राजसिक गुण है और स्थूलता प्रकृति का तमस गुण है। प्राण चेतना से अलग है क्योंकि जब कोई व्यक्ति बेहोश या अचेत होता है तो वह अपने और उसके आस-पास के विषय में सचेत नहीं रहता है, लेकिन वह अभी भी जीवित है और कुछ समय बाद उसकी इंद्रियों में चेतना वापस आ जाती है, जिसका अर्थ है कि प्राण ने उसके शरीर को नहीं छोड़ा था।

दूसरी ओर जब प्राण शरीर छोड़ देता है, तो व्यक्ति मर जाता है, लेकिन योग में कुछ तकनीकें और कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां भी होती हैं, जो शरीर में प्राण के प्रवाह को फिर से सक्रिय कर सकती है और मनुष्य फिर से जीवन पा सकता है जैसे की लक्ष्मण के साथ हुआ था जब इंद्रजीत ने उन पर शक्ति से आक्रमण किया था और उन्हें संजीवनी बूटी द्वारा जीवनदान मिला था।

जबकि आत्मा हमेशा चेतना होती है या सरल शब्दों में कहे तो आत्मा का केवल एक गुण होता है, और यह हमारे सभी दृश्य और अदृश्य ब्रह्मांड की वर्तमान चेतना है, जो हमारे शरीर, मस्तिष्क, इच्छाओं, कर्मों आदि द्वारा सीमित प्रतीत होता है। इसलिए यही कारण है कि हमारी आत्मा अलग-अलग अनुलग्नकों (लगाव) से बंधने की वजह से सीमित चेतना दिखाती है। जब हम सभी अनुलग्नक छोड़ देते हैं, तो हमारी आत्मा की चेतना अपने वास्तविक सार्वभौमिक अनंत रूप में दिखाई देती है और हम स्वतंत्र हो जाते हैं और अनंत में विलय करते हैं। स्पष्ट रूप से व्याख्या करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। यहाँ पर मैं तुम लोगों के साथ बैठा हूँ और मेरे शरीर के अंदर प्राण वायु अपना कार्य कर रही है, और मैं भी अपने विषय में, मेरे विचारों, मेरे आस-पास, आप चारों के प्रति सचेत हूँ। लेकिन जब मैं सो जाऊँगा, सपने में, बाहरी दुनिया के साथ मेरा संबंध कट जाएगा या अधिक सटीक रूप से मेरी चेतना केवल मेरे मस्तिष्क के संस्कारों के अंदर तक ही सीमित हो जायगी, जहाँ से वो चेतना मेरे पिछले कर्मों की छाप से कुछ दृश्य उठा कर मुझे सपने दिखायगी। लेकिन इस स्थिति में भी मेरे शरीर के प्राण और उप-प्राण अभी भी वैसे ही कार्य करते हैं जैसे वह जाग्रत अवस्था में करते हैं, जो कि आसानी से सोते समय मेरी चलती साँसों से अनुभव किया जा सकता है। लेकिन स्वप्न की अवस्था में मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क में ही सिकुड़ या सिमट जाएगी। जब कोई मेरे शरीर पर चुटी काटेगा, तो मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क से फिर से मेरे शरीर तक फैल जाएगी और मेरी आँखें खुल जायँगी और मुझे अपने शरीर का फिर से अनुभव होने लगेगा, और लगभग उसी समय मेरी चेतना और फैलकर मुझे मेरे आस-पास के वातावरण का भी अनुभव देने लगेगी। जबकि गहरी नींद की अवस्था में मेरी चेतना और भी सिकुड़ कर केवल आत्मा तक ही सीमित हो जायगी।

एक वाक्य में प्राण आत्मा का एकमात्र गुण, ‘चेतना’ का एक वाहन है। अब अंतर स्पष्ट हुआ?”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 20 ☆ गंध प्राजक्ताचा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक और लग्न गीत “गंध प्राजक्ताचा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में  नववधू के गृह प्रवेश के समय में गाये जायेंगे।

विगत 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह सौ प्राजक्ता के साथ संपन्न हुआ। इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  उन्होंने  सौ प्राजक्ता के गृह प्रवेश की परिकल्पना करते हुए रचित किया था। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 20 ☆

☆ गंध प्राजक्ताचा ☆

माझी नातसून आली

आली सोन्याच्या पावली

पावलाने ओलांडून

माप घरात ती आली !!१!!

 

लावा हळद नि कुंकू

तिला औक्षण करुनी

गृहप्रवेश करुया

सगळ्यांनी आनंदुनी !!२!!

 

आली थाटात प्राजक्ता

शालू नेसुनी हिरवा

भरजरी पैठणीचा

रंग खुलतो बरवा !!३!!

 

जरीकाठी  नऊवारी

खुले तिच्या अंगावरी

दिसे कशी गोडवाणी

माझी सुंदर नवरी !!४!!

 

शकुनाच्या गं पाऊली

आनंदाने घरी आली

सत्वगुणी तुझं येणं

मांगल्याच्या गं पावली !!५!!

 

माझी आली नातसून !

तिचे करुया स्वागत !

तिच्या आगमने होई !

घरा आनंदी आनंद  !!६!!

 

झुले सुखाचा हिंदोळा

हिंदोळा गं तिच्या  मनीं

आई-बाबांची लाडकी

लाडकी गं त्यांची  सोनी !!७!!

 

माझ्या अवधूतसंगे

आनंदाची पखरण

व्होवो तुझ्या जीवनात

बांधू सुंदर तोरण !!८!!

 

माझ्या सुरेख अंगणीं दरवळला प्राजक्त

त्याने आसमंत सारा  झाला मंद सुगंधित !!९!!

 

©®उर्मिला उद्धवराव इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆ नागमोडी चाल ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “नागमोडी चाल”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆

☆ नागमोडी चाल

धूक्यातील तुझे केस

ढगा सारखे वाटतात

डोळयातील विजेतून

पावसाच्या सरी दाटतात ….

 

डोंगरावरील श्वेत धुके

हिमगिरि वाटतात

अलगद आकाशास

गवसणी घालतात….

 

वळणदार वळणावर

कमळाची पावले

नागमोडी चालताना

लयताल गाठतात….

 

© श्रीमती सुजाता काळे

हिंदी विभागाध्यक्ष, न्यू इरा हायस्कूल, पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆

तासभरापासून मित मुंबई सेंट्रल स्थानकावर उभा होता. मनांत असंख्य शब्दांनी गुंफून ठेवलेल्या शब्दगंधित माला रिमझिमच्या स्वागताला बेचैन होत्या. असंख्य भावांनी चेह-यावर गर्दी केली होती. जस-जसा घड्याळाचा काटा पुढे सरकत होता. तिला पाहण्याची ओढ वाढत होता. ती एवढी की त्याला स्वतःचं भान नव्हतं. काहीसा घाबरलेला, काहीसा लाजणारा, काहीसा काळजीत तर काहीसा खुशीत असे असंख्य आविर्भाव लपवून चेह-यावर स्मित त्याने मोठ्या शिताफीने आणले होते. आणि ते टिकवून ठेवण्याचे त्याचे प्रयत्न अत्यंत वाखाणण्याजोगे होते.  अधीरपणे तो रेल्वेची वाट पाहत उभा होता. असंख्यदा तीचा फोटो पाहूनही आणि फोनवर बोलुनही ती कशी दिसते आणि तिच्याबद्दल जाणून घेण्यासाठी तो किती उत्सुक होता.  हे ती बेचैनी स्पष्ट सांगत होती. प्रत्यक्ष भेटण्याची पहिलीच वेळ असल्याने आपण तिला  कसे सामोरे जाणार याच्या विचारात तो होता.

संपुर्ण लक्ष रेल्वेकडे असतांना त्याचा फोन वाजला परंतु त्याचं लक्ष नव्हतं. बाजूलाच जाणारी एक महिला त्याच्याजवळ थांबली आणि म्हटली “हॅलो युवर फोन इज रिंगीग ” त्याचं तिच्याकडे लक्ष गेलं. पण त्याच्या तंद्रीतून बाहेरच आला नाही. तो फक्त “हं….. ” एवढंच उत्तरला. आणि पुन्हा वाट पाहण्यात गुंग झाला. त्या महिलेला त्याचं असं वागणं आवडलं नसावं बहूतेक.  ती पुन्हा म्हटली ” हॅलो…” आणि दोनदा त्याच्याकडे, एकदा फोनकडे आणि बोटांनीच कानाला फोन सारखं करून इशारा केला. आणि निघून गेली.  तिचं असं तुच्छपणे बघणं मितला भानावर आणलं.पण त्याला त्याचा राग आला नाही. उलट आपल्या अधीरपणावर हसत त्याने स्वतःच हात मारून घेतला.  मोबाईल खिशातून काढेपर्यंत फोन वाजणं बंद झालं. त्याने दुर्लक्ष केलं आणि मोबाईल खिशात ठेवला. तेव्हा आवाज झाला ‘ यात्री कृपया ध्यान दे. गुवाहाटी से मुंबई आनेवाली गाडी कुछ ही देर मे प्लॅटफाॅर्म नं….. पर आनेवाली है. यात्रीयो से निवेदन है की…..’ आणि मित एकच सावध झाला. जेट विमान आपल्या सर्वोच्च वेगाने उडावे तसे त्याच्या काळजाची धड-धड चालू झाली. समोर पाहीलं तर गाडी स्टेशनवर प्रवेश करत होती. तशी त्याची धड-धड वाढत होती. गाडी थांबली. उतरणा-या प्रवाशांची लगबग सुरू झाली.  तसा मितही तीला शोधू  लागला.  पण ती त्याला भेटली नाही. तो निराश होऊन मागे फिरला आणि समोर पाहून अचानक थांबला .

 

(क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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